सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( सप्तम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Seventh wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( सप्तम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Seventh wing) ]



                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【एकादश अध्याय:】११.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"मानव धर्म, वर्ण धर्म और स्त्री धर्म का निरूपण"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- भगवन्मय प्रह्लाद जी के साधु समाज में सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिर को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नारद जी से और भी पूछा।

युधिष्ठिर जी ने कहा ;- भगवन्! अब मैं वर्ण और आश्रमों के सदाचार के साथ मनुष्यों के सनातन धर्म का श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परमपुरुष भगवान् की प्राप्ति होती है। आप स्वयं प्रजापति ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और नारद जी! आपकी तपस्या, योग एवं समाधि के कारण वे अपने दूसरे पुत्रों की अपेक्षा आपका अधिक सम्मान भी करते हैं। आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्म के गुप्त-से-गुप्त रहस्य को जैसा यथार्थरूप से जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते।

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगत् के कल्याण के लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्ति के द्वारा अपने अंश से अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान् को नमस्कार करके उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन धर्म का मैं वर्णन करता हूँ। युधिष्ठिर! सर्वदेवस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जानने वाले महर्षियों की स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो, वह कर्म धर्म के मूल हैं।

युधिष्ठिर! धर्म के ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं- सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल उलटा ही होता है- ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परमआश्रय भगवान् श्रीकृष्ण के नाम- गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण- यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं।

धर्मराज! जिनके वंश में अखण्ड रूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्मा जी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजों के लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है। अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। क्षत्रिय को दान नहीं लेना चाहिये। प्रजा की रक्षा करने वाले क्षत्रिय का जीवन-निर्वाह ब्राह्मण के सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदि के द्वारा होता है। वैश्य को सर्वदा ब्राह्मण वंश का अनुयायी रहकर गो रक्षा, कृषि एवं व्यापार के द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्र का धर्म है द्विजातियों की सेवा। उसकी जीवका का निर्वाह उसका स्वामी करता है।

ब्राह्मण के जीवन-निर्वाह के साधन चार प्रकार के हैं- वार्ता[1] शालीन[2] यायावर[3] और शिलोञ्छन[4] इसमें से पीछे-पीछे की वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं। निम्न वर्ण का पुरुष बिना आपत्ति काल के उत्तम वर्ण की वृत्तियों का अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मण की शेष पाँचों वृत्तियों का अवलम्बन ले सकता है। आपत्ति काल में सभी सब वृत्तियों को स्वीकार कर सकते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत-इनमें से किसी भी वृत्ति का आश्रय ले, परन्तु श्वान वृत्ति का अवलम्बन कभी न करे। बाजार में पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतों में पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर ‘शिलोञ्छ’ वृत्ति से जीविका-निर्वाह करना ‘ऋत’ है। बिना माँगे जो कुछ मिल जाये, उसी अयाचित (शालीन) वृत्ति के द्वारा जीवन-निर्वाह करना ‘अमृत’ है। नित्य माँगकर लाना अर्थात् ‘यायावर’ वृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करना ‘मृत’ है। कृषि आदि के द्वारा ‘वार्ता’ वृत्ति से जीवन-निर्वाह करना ‘प्रमृत’ है। वाणिज्य ‘सत्यानृत’ है और निम्नवर्ण की सेवा करना ‘श्वानवृत्ति’ है।

ब्राह्मण और क्षत्रिय को इस अन्तिम निन्दित वृत्ति का कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है। शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायण और सत्य-ये ब्राह्मण के लक्षण हैं। युद्ध में उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजा की रक्षा करना-ये क्षत्रिय के लक्षण हैं। देवता, गुरु और भगवान् के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम-इन तीनों पुरुषार्थों की रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता-ये वैश्य के लक्षण हैं। उच्च वर्णों के सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामी की निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रों से रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ, ब्राह्मणों की रक्षा करना-ये शूद्र के लक्षण हैं।

पति की सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पति के सम्बन्धियों को प्रसन्न रखना और सर्वदा पति के नियमों की रक्षा करना-ये पति को ही ईश्वर मानने वाली पतिव्रता स्त्रियों के धर्म हैं। साध्वी स्त्री को चाहिये कि झाड़ने-बुहारने, लीपने तथा चौक पूरने आदि से घर को और मनोहर वस्त्राभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत रखे। सामग्रियों को साफ-सुथरी रखे। अपने पतिदेव की छोटी-बड़ी इच्छाओं को समय के अनुसार पूर्ण करे। विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनों से प्रेमपूर्वक पतिदेव की सेवा करे। जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तु के लिये ललचावे नहीं। सभी कार्यों में चतुर एवं धर्मज्ञ हो। सत्य और प्रिय बोले। अपने कर्तव्य में सावधान रहे। पतिव्रता और प्रेम से परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे। जो लक्ष्मी जी के समान पतिपरायणा होकर अपने पति की उसे साक्षात् भगवान् का स्वरूप समझकर सेवा करती है, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोक में भगवत्सारूप्य को प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मी जी के समान उनके साथ आनन्दित होती है।

युधिष्ठिर! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते-उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसंकर जातियों की वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परा से उनके यहाँ चली आयी हैं। वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्रायः मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है। जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है।

महाराज! जिस प्रकार बार-बार बोने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अंकुर उगना बंद हो जाता है, यहाँ तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है-उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओं का खजाना है, विषयों का अत्यन्त सेवन करने से स्वयं ही ऊब जाता है। परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालने से आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाये तो वह बुझ जाती है। जिस पुरुष के वर्ण को बतलाने वाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये।


                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【द्वादश अध्याय:】१२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम"
नारद जी कहते हैं ;- धर्मराज! गुरुकुल में निवास करने वाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर दास के समान अपने को छोटा माने, गुरुदेव के चरणों में सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हित के कार्य करता रहे। सायंकाल और प्रातःकाल गुरु, अग्नि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओं की उपासना करे और मौन होकर एकाग्रता से गायत्री का जप करता हुआ दोनों समय की सन्ध्या करे। गुरु जी जब बुलावें, तभी पूर्णतया अनुशासन में रहकर उनसे वेदों का स्वाध्याय करे। पाठ के प्रारम्भ और अन्त में उनके चरणों में सिर टेककर प्रणाम करे। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार मेखला, मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड, कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथ में कुश धारण करे। सायंकाल और प्रातःकाल भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरु जी को समर्पित कर दे। वे आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा ने दें तो उपवास कर ले। अपने शील की रक्षा करे। थोड़ा खाये। अपने कामों को निपुणता के साथ करे। श्रद्धा रखे और इन्द्रियों को अपने वश में रखे।

स्त्री और स्त्रियों के वश में रहने वालों के साथ जितनी आवश्यकता हो, उतना ही व्यवहार करे। जो गृहस्थ नहीं है और ब्रह्मचर्य का व्रत लिये हुए है, उसे स्त्रियों की चर्चा से ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् हैं। ये प्रयत्नपूर्वक साधन करने वालों के मन को भी क्षुब्ध करके खींच लेती हैं। युवक ब्रह्मचारी युवती गुरुपत्नियों से बाल सुलझवाना, शरीर मलवाना, स्नान करवाना, उबटन लगवाना इत्यादि कार्य न करावे। स्त्रियाँ आग के समान हैं और पुरुष घी के घड़े के समान। एकान्त में अपनी कन्या के साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्त में न हो, तब भी आवश्यकता के अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये। जब तक यह जीव आत्मसाक्षात्कार के द्वारा इन देह और इन्द्रियों को प्रतीतिमात्र निश्चय करके स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तब तक ‘मैं पुरुष हूँ और यह स्त्री है’- यह द्वैत नहीं मिटता और तब तक यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्री के संसर्ग में रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्य बुद्धि हो ही जायेगी।

ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थ के लिये और संन्यासी के लिये भी विहित हैं। गृहस्थ के लिये गुरुकुल में रहकर गुरु की सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमन के कारण उसे वहाँ से अलग भी होना पड़ता है। जो ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सूरमा या तेल न लगावें, उबटन न मलें। स्त्रियों के चित्र न बनावें। मांस या मद्य से कोई सम्बन्ध न रखें। फूलों के हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणों का त्याग कर दें।

इस प्रकार गुरुकुल में निवास करके द्विजाति को अपनी शक्ति और आवश्यकता के अनुसार वेद, उनके अंग- शिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदों का अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। फिर यदि सामर्थ्य हो तो गुरु को मुँह माँगी दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञा से गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास-आश्रम में प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए उसी आश्रम में रहे। यद्यपि भगवान् स्वरूपतः सर्वत्र एकरस स्थित हैं, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकता- फिर भी अग्नि, गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियों में अपने आश्रित जीवों के साथ वे विशेष रूप से विराजमान हैं। इसलिये उन पर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार आचरण करने वाला ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी अथवा गृहस्थ विज्ञान सम्पन्न होकर परब्रह्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त कर लेता है।

अब मैं ऋषियों के मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रम के नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करने से वानप्रस्थ-आश्रमी को अनायास ही ऋषियों के लोक महर्लोक की प्राप्ति हो जाती है।

वानप्रस्थ-आश्रमी को जोती हुई भूमि में उत्पन्न होने वाले चावल, गेंहूँ आदि अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमय में पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आग से पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाये। केवल सूर्य के ताप से पके हुए कन्द, मूल, फल आदि का ही सेवन करे। जंगलों में अपने-आप पैदा हुए धान्यों से नित्य-नैमित्तिक चरु और पुरोडाश का हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब पहले से इकट्ठे किये हुए अन्न का परित्याग कर दे। अग्निहोत्र के अग्नि की रक्षा के लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाड़ की गुफा का आश्रय ले। स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घाम को सहन करे। सिर पर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैल को भी शरीर से अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र और अग्निहोत्र की सामग्रियों को अपने पास रखे।

विचारवान् पुरुष को चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्ष तक वानप्रस्थ-आश्रम के नियनों का पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्या का क्लेश सहन करने से बुद्धि बिगड़ न जाये। वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापे के कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त-विचार करने की भी सामर्थ्य न रहे, तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये। अनशन के पूर्व ही वह अपने आह्वनीय आदि अग्नियों को अपनी आत्मा में लीन कर ले। ‘मैंपन’ और ‘मेरेपन’ का त्याग करके शरीर को उसके कारणभूत तत्त्वों में यथा योग्य भलीभाँति लीन करे।

जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीर के छिद्राकाशों को आकाश में, प्राणों को वायु में, गरमी को अग्नि में, रक्त, कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वों को जल और हड्डी आदि ठोस वस्तुओं को पृथ्वी में लीन करे। इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषण को उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि में, हाथ और उसके द्वारा होने वाले कला-कौशल को इन्द्र में, चरण और उसकी गति को काल स्वरूप विष्णु में, रति और उपस्थ को प्रजापति में एवं पायु और मलोत्सर्ग को उनके आश्रय के अनुसार मृत्यु में लीन कर दे। श्रोत और उसके द्वारा सुने जाने वाले शब्द को दिशाओं में, स्पर्श और त्वचा को वायु में, नेत्र सहित रूप को ज्योति में, मधुर आदि रस के सहित[1] रसनेन्द्रिय को जल में और युधिष्ठिर! घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा सूँघे जाने वाले गन्ध को पृथ्वी में लीन कर दे।

मनोरथों के साथ मन को चन्द्रमा में, समझ में आने वाले पदार्थों के सहित बुद्धि को ब्रह्मा में तथा अहंता और ममतारूप क्रिया करने वाले अहंकार को उसके कर्मों के साथ रुद्र में लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना-सहित चित्त को क्षेत्रज्ञ (जीव) में और गुणों के कारण विकारी-से प्रतीत होने वाले जीव को परब्रह्म में लीन कर दे। साथ ही पृथ्वी का जल में, जल का अग्नि में, अग्नि का वायु में, वायु का आकाश में, आकाश का अहंकार में, अहंकार का महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व का अव्यक्त में और अव्यक्त का अविनाशी परमात्मा में लय कर दे। इस प्रकार अविनाशी परमात्मा के रूप में अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँ-यह जानकर अद्वितीय भाव में स्थित हो जाये। जैसे अपने आश्रय काष्ठादि के भस्म हो जाने पर अग्नि शान्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, वैसे ही वह भी उपरत हो जाये।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【त्रयोदश अध्याय:】१३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"यतिधर्म का निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद"
नारद जी कहते हैं ;- धर्मराज! यदि वानप्रस्थी में ब्रह्मविचार का सामर्थ्य हो, तो शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँव में एक ही रात ठहरने का नियम लेकर पृथ्वी पर विचरण करे। यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अंग ढक जायें और जब तक कोई आपत्ति न आवे, तब तक दण्ड तथा अपने आश्रम के चिह्नों के सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करे।

संन्यासी को चाहिये कि वह समस्त प्राणियों का हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसी का आश्रय न लेकर अपने-आप में ही रमे एवं अकेला ही विचरे। इस सम्पूर्ण विश्व को कार्य और कारण से अतीत परमात्मा में अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत् में ब्रह्मस्वरूप अपने आत्मा को परिपूर्ण देखे। आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरण की सन्धि में अपने अपने स्वरूप का अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया है, वस्तुतः कुछ नहीं-ऐसा समझे। न तो शरीर की अवश्य होने वाली मृत्यु का अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवन का। केवल समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और नाश के कारण काल की प्रतीक्षा करता रहे। असत्य- अनात्म वस्तु का प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों से प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाह के लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवाद के लिये कोई तर्क न करे और संसार में किसी का पक्ष न ले। शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत-से ग्रन्थों का अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामों का आरम्भ न करे। शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासी के लिये किसी आश्रम का बन्धन धर्म का कारण नहीं है। वह अपने आश्रम के चिह्नों को धारण करे, चाहे छोड़ दे। उसके पास कोई आश्रम का चिह्न न हो, परन्तु वह आत्मानुसन्धान में मग्न हो। हो तो अत्यन्त विचारशील, परन्तु जान पड़े पागल और बालक की तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होने पर भी साधारण मनुष्यों की दृष्टि से ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है।

युधिष्ठिर! इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद। एक बार भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद जी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदय की बात जानने की इच्छा से लोकों में विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सह्य पर्वत की तलहटी में कावेरी नदी के तट पर पृथ्वी पर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीर की निर्मल ज्योति अंगों के धूलि-धूसरित होने के कारण ढकी हुई थी। उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदि के चिह्नों से लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं। भगवान् के परम प्रेमी भक्त प्रह्लाद जी ने अपने सिर से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जानने की इच्छा से यह प्रश्न किया- ‘भगवन्! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषों के समान हष्ट-पुष्ट है। संसार का यह नियम है कि उद्योग करने वालों को धन मिलता है, धन वालों को ही भोग प्राप्त होता है और भोगियों का ही शरीर ह्रष्ट-पुष्ट होता है और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! आप कोई उद्योग तो करते है नहीं। फिर आपको भोग कहाँ से प्राप्त होंगे? ब्राह्मण देवता! बिना भोग के ही आपका यह शरीर इतना ह्रष्ट-पुष्ट कैसे है? यदि हमारे सुनने योग्य हो, तो अवश्य बतलाइये। आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं। ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है?’

नारद जी कहते हैं ;- धर्मराज! जब प्रह्लाद जी ने महामुनि दत्तात्रेय जी से इस प्रकार प्रश्न किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणी के वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले।

दत्तात्रेय जी ने कहा ;- दैत्यराज! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं। मनुष्यों को कर्मों की प्रवृत्ति और उनकी निवृत्ति का क्या फल मिलता है, यह बात तुम अपनी ज्ञानदृष्टि से जानते ही हो। तुम्हारी अनन्य भक्ति के कारण देवाधिदेव भगवान् नारायण सदा तुम्हारे हृदय में विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञान को नष्ट करते रहते हैं। तो भी प्रह्लाद! मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियों को तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये।

प्रह्लाद जी! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पुरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला। कर्मों के कारण अनेकों योनियों में भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्य योनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानव देह की भी प्राप्ति का द्वार है- इसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदि की योनि, निवृत्त हो जायें तो मोक्ष और दोनों प्रकार के कर्म किये जायें तो फिर मनुष्य योनि की ही प्रप्ति हो सकती है। परन्तु मैं देखता हूँ कि संसार के स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता है- वे और भी दुःख में पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मों से उपरत हो गया हूँ।

सुख ही आत्मा का स्वरूप है। समस्त चेष्टाओं की निवृत्ति ही उसका शरीर-उसके प्रकाशित होने का स्थान है। इसलिये समस्त भोगों को मनोराज्य मात्र समझकर मैं अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ। मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ अर्थात् वास्तविक सुख को, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैत को सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयंकर और विचित्र जन्मों और मृत्युओं में भटकता रहता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समजने वाला पुरुष आत्मा को छोड़कर विषयों की ओर दौड़ता है।

प्रह्लाद जी! शरीर आदि तो प्रारब्ध के अधीन हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दुःख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद)

मनष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक आदि दुःखों से आक्रान्त ही रहता है। मरणशील तो है ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्ट से कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है? लोभी और इन्द्रियों के वश में रहने वाले धनियों का दुःख तो मैं देखता ही रहता हूँ। भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती। सब पर उनका सन्देह बना रहता है। जो जीवन और धन के लोभी हैं-वे राजा, चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और काल से, यहाँ तक कि ‘कहीं मैं भूल न कर बैठूँ, अधिक न खर्च कर दूँ’-इस आशंका से अपने-आप भी सदा डरते रहते हैं। इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और जीवन की स्पृहा का त्याग कर दे।

इस लोक में मेरे सबसे बड़े गुरु हैं-अजगर और मधुमक्खी। उनकी शिक्षा से हमें वैराग्य और सन्तोष की प्रप्ति हुई है। मधुमक्खी जैसे मधु इकठ्ठा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्ट से धन-संचय करते हैं; परन्तु दूसरा ही कोई उस धन-राशि के स्वामी को मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगों से विरक्त ही रहना चाहिये। मैं अजगर के समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश जो कुछ मिल जाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ नहीं मिलता, तो बहुत दिनों तक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता हूँ। कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरस-बेस्वाद; और कभी अनेकों गुणों से युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन। कभी बड़ी श्रद्धा से प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमान के साथ और किसी-किसी समय अपने-आप ही मिल जाने पर कभी दिन में, कभी रात में और कभी एक बार भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ।

मैं अपने प्रारब्ध के भोग में ही सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ-जैसा भी वस्त्र मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ। कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राख के ढेर पर ही पड़ा रहता हूँ, तो कभी दूसरों की इच्छा से महलों में पलँगों और गद्दों पर सो लेता हूँ। दैत्यराज! कभी नहा-धोकर, शरीर में चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलों के हार और गहने पहन रथ, हाथी और घोड़े पर चढ़कर चलता हूँ, तो कभी पिशाच के समान बिलकुल नंग-धडंग विचरता हूँ। मनुष्यों के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अतः न तो मैं किसी की निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मा से एकता चाहता हूँ।

सत्य का अनुसन्धान करके वाले मनुष्य को चाहिये कि जो नाना प्रकार के पदार्थ और उनके भेद-विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उनको चित्तवृत्ति में हवन कर दे। चित्तवृत्ति को इन पदार्थों के सम्बन्ध में विविध भ्रम उत्पन्न करने वाले मन में, मन को सात्त्विक अहंकार में और सात्त्विक अहंकार को महत्तत्त्व के द्वारा माया में हवन कर दे। इस प्रकार ये भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार के द्वारा आत्मस्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाये।

प्रह्लाद जी! मेरी यह आत्मकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्र से परे की वस्तु है। तुम भगवान् के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है।

नारद जी कहते हैं ;- महाराज! प्रह्लाद जी ने दत्तात्रेय मुनि से परमहंसों के इस धर्म का श्रवण करके उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान किया।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【चतुर्दश अध्याय:】१४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"गृहस्थ सम्बन्धी सदाचार"
राजा युधिष्ठिर ने पूछा ;- देवर्षि नारद जी! मेरे जैसा गृहासक्त गृहस्थ बिना विशेष परिश्रम के इस पद को किस साधन से प्राप्त कर सकता है, आप कृपा करके मुझे बतलाइये।

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहे और गृहस्थ धर्म के अनुसार सब काम करे, परन्तु उन्हें भगवान् के प्रति समर्पित कर दे और बड़े-बड़े संत-महात्माओं की सेवा भी करे। अवकाश के अनुसार विरक्त पुरुषों में निवास करे और बार-बार श्रद्धापूर्वक भगवान् के अवतारों की लीला-सुधा का पान करता रहे। जैसे स्वप्न टूट जाने पर मनुष्य स्वप्न के सम्बन्धियों से आसक्त नहीं रहता-वैसे ही ज्यों-ज्यों सत्संग के द्वारा बुद्धि शुद्ध हो, त्यों-ही-त्यों शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि की आसक्ति स्वयं छोड़ता चले। क्योंकि एक-न-एक दिन ये छूटने वाले ही हैं। बुद्धिमान् पुरुष को आवश्यकता के अनुसार ही घर और शरीर की सेवा करनी चाहिये, अधिक नहीं। भीतर से विरक्त रहे और बाहर से रागी के समान लोगों में साधारण मनुष्यों-जैसा ही व्यवहार करे। माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-मित्र, जाति वाले और दूसरे जो कुछ कहें अथवा जो कुछ चाहें, भीतर से ममता न रखकर उनका अनुमोदन कर दे।

बुद्धिमान् पुरुष वर्षा आदि के द्वारा होने वाले अन्नादि, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले सुवर्ण आदि, अकस्मात् प्राप्त होने वाले द्रव्य आदि तथा और सब प्रकार के धन भगवान् के ही दिये हुए हैं-ऐसा समझकर प्रारब्ध के अनुसार उनका उपभोग करता हुआ संचय न करे, उन्हें पूर्वोक्त साधु सेवा आदि कर्मों में लगा दे। मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उनकी भूख मिट जाये। इससे अधिक सम्पत्ति को जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये।

हरिन, ऊँट, गधा, बंदर, चूहा, सरीसृप (रेंगकर चलने वाले प्राणी), पक्षी और मक्खी आदि को अपने पुत्र के समान ही समझे। उनमें और पुत्रों में अन्तर ही कितना है। गृहस्थ मनुष्यों को भी धर्म, अर्थ और काम के लिये बहुत कष्ट नहीं उठाना चाहिये; बल्कि देश, काल और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाये, उसी से सन्तोष करना चाहिये। अपनी समस्त भोग-सामग्रियों को कुत्ते, पतित और चाण्डाल पर्यन्त सब प्राणियों को यथा योग्य बाँटकर ही अपने काम में लाना चाहिये और तो क्या, अपनी स्त्री को भी-जिसे मनुष्य समझता है कि यह मेरी है-अतिथि आदि की निर्देश सेवा में नियुक्त रखे। लोग स्त्री के लिये अपने प्राण तक दे डालते हैं। यहाँ तक कि अपने माँ-बाप और गुरु को भी मार डालते हैं। उस स्त्री पर से जिसने अपनी ममता हटा ली, उसने स्वयं नित्यविजयी भगवान् पर भी विजय प्राप्त कर ली। यह शरीर अन्त में कीड़े, विष्ठा या राख की ढेरी होकर रहेगा। कहाँ तो यह तुच्छ शरीर और इसके लिये जिसमें आसक्ति होती है वह स्त्री, और कहाँ अपनी महिमा से आकाश को भी ढक रखने वाला अनन्त आत्मा। गृहस्थ को चाहिये कि प्रारब्ध से प्राप्त और पंचयज्ञ आदि से बचे हुए अन्न से ही अपना जीवन-निर्वाह करे। जो बुद्धिमान् पुरुष इसके सिवा और किसी वस्तु में स्वत्व नहीं रखते, उन्हें संतों का पद प्राप्त होता है। अपनी वर्णाश्रमविहित वृत्ति के द्वारा प्राप्त सामग्रियों से प्रतिदिन देवता, ऋषि, मनुष्य, भूत और पितृगण का तथा अपने आत्मा का पूजन करना चाहिये। यह एक ही परमेश्वर की भिन्न-भिन्न रूपों में अराधना है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद)

यदि अपने को अधिकार आदि यज्ञ के लिये आवश्यक सब वस्तुएँ प्राप्त हों तो बड़े-बड़े यज्ञ या अग्निहोत्र आदि के द्वारा भगवान् की आराधना करनी चाहिये। युधिष्ठिर! वैसे तो समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् ही हैं; परन्तु ब्राह्मण के मुख में अर्पित किये हुए हविष्यान्न से उनकी जैसी तृप्ति होती है, वैसी अग्नि के मुख में हवन करने से नहीं। इसलिये ब्राह्मण, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणियों में यथायोग्य, उनके उपयुक्त सामग्रियों के द्वारा सबके हृदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान भगवान् की पूजा करनी चाहिये। इसमें प्रधानता ब्राह्मणों की ही है।

धनी द्विज को अपने धन के अनुसार आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में अपने माता-पिता तथा उनके बन्धुओं (पितामह, मातामह आदि) का भी महालय श्राद्ध करना चाहिये। इसके सिवा अयन (कर्क एवं मकर की संक्रान्ति), विषुव (तुला और मेष की संक्रान्ति), व्यतीपात, दिनक्षय, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण के समय, द्वादशी के दिन, श्रवण, धनिष्ठा और अनुराधा नक्षत्रों में, वैशाख शुक्ला तृतीय (अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ला नवमी (अक्षय नवमी), अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन-इन चार महीनों की कृष्णाष्टमी, माघशुक्ला सप्तमी, माघ की मघा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा और प्रत्येक महीने की वह पूर्णिमा, जो अपने मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आदि से युक्त हो-चाहे चन्द्रमा पूर्ण हो या अपूर्ण; द्वादशी तिथि का अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तरभाद्रपदा के साथ योग, एकादशी तिथि का तीनों उत्तरा नक्षत्रों से योग अथवा जन्म-नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र से योग-ये सारे समय पितृगणों का श्राद्ध करने योग्य एवं श्रेष्ठ हैं। ये योग केवल श्राद्ध के लिये ही नहीं, सभी पुण्यकर्मों के लिये उपयोगी हैं। ये कल्याण की साधना के उपयुक्त और शुभ की अभिवृद्धि करने वाले हैं। इन अवसरों पर अपनी पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करने चाहिये। इसी में जीवन की सफलता है। इन शुभ संयोंगो में जो स्नान, जप, होम, व्रत तथा देवता और ब्राह्मणों की पूजा की जाती है अथवा जो कुछ देवता, पितर, मनुष्य एवं प्राणियों को समर्पित किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है।

युधिष्ठिर! इसी प्रकार स्त्री के पुंसवन आदि, सन्तान के जात कर्मादि तथा अपने यज्ञ-दीक्षा आदि संस्कारों के समय, शव-दाह के दिन या वार्षिक श्राद्ध के उपलक्ष्य में अथवा अन्य मांगलिक कर्मों में दान आदि शुभकर्म करने चाहिये। युधिष्ठिर! अब मैं उन स्थानों का वर्णन करता हूँ, जो धर्म आदि श्रेय की प्रप्ति कराने वाला है। सबसे पवित्र देश वह है, जिसमें सत्पात्र मिलते हों। जिनमें यह सारा चर और अचर जगत् स्थित है, उन भगवान् की प्रतिमा जिस देश में हों, जहाँ तप, विद्या एवं दया आदि गुणों से युक्त ब्राह्मणों के परिवार निवास करते हों तथा जहाँ-जहाँ भगवान् की पूजा होती हो और पुराणों में प्रसिद्ध गंगा आदि नदियाँ हों, वे सभी स्थान परम कल्याणकारी हैं। पुष्कर आदि सरोवर, सिद्ध पुरुषों के द्वारा सेवित क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम, (शालाग्राम क्षेत्र), नैमिषारण्य, फाल्गुन क्षेत्र, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, बिन्दु सरोवर, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, भगवान् सीतारामजी के आश्रम-अयोध्या, चित्रकूटादि, महेन्द्र और मलय आदि समस्त कुल पर्वत और जहाँ-जहाँ भगवान् के अर्चावतार हैं-वे सब-के-सब देश अत्यन्त पवित्र हैं। कल्याणकामी पुरुष को बार-बार इन देशों का सेवन करना चाहिये। इन स्थानों पर जो पुण्यकर्म किये जाते हैं, मनुष्यों को उनका हजार गुना फल मिलता है।

युधिष्ठिर! पात्र निर्णय के प्रसंग में पात्र के गुणों को जानने वाले विवेकी पुरुषों ने एकमात्र भगवान् को ही सत्पात्र बतलाया है। यह चराचर जगत् उन्हीं का स्वरूप है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद)

अभी तुम्हारे इसी यज्ञ की बात है; देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकों के रहने पर भी अग्रपूजा के लिये भगवान् श्रीकृष्ण को ही पात्र समझा गया।

असंख्य जीवों से भरपूर इस ब्राह्मणरूप महावृक्ष के एकमात्र मूल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिये उनकी पूजा से समस्त जीवों की आत्मा तृप्त हो जाती है। उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदि के शरीररूप पुरों की रचना की है तथा वे ही इन पुरों में जीवरूप से शयन भी करते हैं। इसी से उनका एक नाम ‘पुरुष’ भी है।

युधिष्ठिर! एकरस रहते हुए भी भगवान् इन मनुष्यादि शरीरों में उनकी विभिन्नता के कारण न्यूनाधिकरूप से प्रकाशमान हैं। इसलिये पशु-पक्षी आदि शरीरों की अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्यों में भी, जिसमें भगवान् का अंश-तप-योगादि जितना ही अधिक पाया जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ है।

युधिष्ठिर! त्रेता आदि युगों में जब विद्वानों ने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरे का अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगों ने उपासना की सिद्धि के लिये भगवान् की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। तभी से कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्री से प्रतिमा में ही भगवान् की पूजा करते हैं। परन्तु जो मनुष्य से द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमा की उपासना करने पर भी सिद्धि नहीं मिल सकती। युधिष्ठिर! मनुष्यों में भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है। क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणों से भगवान् के वेदरूप शरीर को धारण करता है। महाराज! हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्या-ये जो सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं, इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही हैं। क्योंकि उनके चरणों की धूल से तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【पञ्चदश अध्याय:】१५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"गृहस्थों के लिये मोक्षधर्म का वर्णन"
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! कुछ ब्राह्मणों की निष्ठा कर्म में, कुछ की तपस्या में, कुछ की वेदों के स्वाध्याय और प्रवचन में, कुछ की आत्मज्ञान के सम्पादन में तथा कुछ की योग में होती है। गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजा के अवसर पर अपने कर्म का अक्षय फल प्राप्त करने के लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुष को ही हव्य-कव्य दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदि को यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये।

देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होने पर भी श्राद्ध कर्म में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये। क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनों को देने से और विस्तार करने से देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते। देश और काल के प्राप्त होने पर ऋषि-मुनियों के भोजन करने योग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान् को भोग लगाकर श्रद्धा से विधिपूर्वक योग्य पात्र को देना चाहिये। वह समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला और अक्षय होता है। देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने-आपको भी अन्न का विभाजन करने के समय परमात्मस्वरूप ही देखे।

धर्म का मर्म जानने वाला पुरुष श्राद्ध में मांस का अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाये; क्योंकि पितरों को ऋषि-मुनियों के योग्य हविष्यान्न से जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी पशु-हिंसा से नहीं होती। जो लोग सद्धर्म पालन की अभिलाषा रखते हैं, उनके लिये इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणी को मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाये। इसी से कोई-कोई यज्ञतत्त्व को जानने वाले ज्ञानी ज्ञान के द्वारा प्रज्वलित आत्म संयमरूप अग्नि में इन कर्ममय यज्ञों का हवन कर देते हैं और बाह्य कर्म-कलापों से उपरत हो जाते हैं। जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञों से यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपनी प्राणों का पोषण करने वाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा। इसलिये धर्मज्ञ मनुष्य को यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्ध के द्वारा प्राप्त मुनि जनोचित हविष्यान्न से ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसी से सर्वदा सन्तुष्ट रहे।

अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं- विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्म के समान ही इनका भी त्याग कर दे। जिस कार्य को धर्म बुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पड़े, वह ‘विधर्म’ है। किसी अन्य के द्वारा अन्य पुरुष के लिये उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’ है। पाखण्ड या दम्भ का नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्र के वचनों का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना ‘छल’ है। मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है, वह ‘आभास’ है। अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते। धर्मात्मा पुरुष निर्धन होने पर भी धर्म के लिये अथवा शरीर-निर्वाह के लिये धन प्राप्त करने की चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकार की चेष्टा किये अजगर की जीविका चलती ही है, वैसे ही निवृत्ति-परायण पुरुष की निवृत्ति ही उसकी जीविका का निर्वाह कर देती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

जो सुख अपनी आत्मा में रमण करने वाले निष्क्रिय सन्तोषी पुरुष को मिलता है, वह उस मनुष्य को भला कैसे मिल सकता है, जो कामना और लोभ से धन के लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है। जैसे पैरों में जूता पहनकर चलने वाले को कंकड़ और काँटों से कोई डर नहीं होता-वैसे ही जिसके मन में सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख-ही-सुख है, दुःख है ही नहीं।

युधिष्ठिर! न जाने क्यों मनुष्य केवल जल मात्र से ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवन का निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के फेर में पकड़कर यह बेचारा घर की चौकसी करने वाले कुत्ते के समान हो जाता है। जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियों की लोलुपता के कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है। भूख और प्यास मिट जाने पर खाने-पीने की कामना का अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को जीत ले और भोग ले, तब भी लोभ का अन्त नहीं होता। अनेक विषयों के ज्ञाता, शंकाओं का समाधान करके चित्त में शास्त्रोक्त अर्थ को बैठा देने वाले और विद्वात्सभाओं के सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोष के कारण गिर जाते हैं।

धर्मराज! संकल्पों के परित्याग से काम को, कामनाओं के त्याग से क्रोध को, संसारी लोग जिसे ‘अर्थ’ कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभ को और तत्त्व के विचार से भय को जीत लेना चाहिये। अध्यात्म विद्या से शोक और मोह पर, संतों की उपासना से दम्भ पर, मौन के द्वारा योग के विघ्नों पर और शरीर-प्राण आदि को निश्चेष्ट करके हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। आधिभौतिक दुःख को दया के द्वारा, आधिदैविक वेदना को समाधि के द्वारा और आध्यात्मिक दुःख को योगबल से एवं निद्रा को सात्त्विक भोजन, स्थान, संग आदि के सेवन से जीत लेना चाहिये।

सत्त्वगुण के द्वारा रजोगुण एवं तमोगुण पर और उपरति के द्वारा सत्त्वगुण पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदेव की भक्ति के द्वारा साधक इन सभी दोषों पर सुगमता से विजय प्राप्त कर सकता है। हृदय में ज्ञान का दीपक जलाने वाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथी के स्नान के समान व्यर्थ है। बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलों का अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुष के अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेव के रूप में प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रम से मनुष्य मानते हैं।

शास्त्रों में जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यह है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली जाये अथवा पाँचों इन्द्रिय और मन-ये छः वश में हो जायें। ऐसा होने पर भी यदि उन नियमों के द्वारा भगवान् के ध्यान-चिन्तन आदि की प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये। जैसे खेती, व्यापार आदि और उनके फल भी योग-साधना के फल भगवत्प्राप्ति या मुक्ति को नहीं दे सकते-वैसे ही दुष्ट पुरुष के श्रौत-स्मार्त्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते, प्रत्युत उलटा फल देते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 30-45 का हिन्दी अनुवाद)

जो पुरुष अपने मन पर विजय प्राप्त करने के लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रह का त्याग करके संन्यास ग्रहण करे। एकान्त में अकेला ही रहे और भिक्षा-वृत्ति से शरीर-निर्वाह मात्र के लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे।

युधिष्ठिर! पवित्र और समान भूमि पर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर-भाव से समान और सुखकर आसन से उस पर बैठकर ॐ कार का जप करे। जब तक मन संकल्प-विकल्पों को छोड़ ने दे, तब तक नासिका के अग्रभाव पर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचक द्वारा प्राण तथा अपान की गति को रोके। काम की चोट से घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाये, विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह वहाँ-वहाँ से उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदय में रोके। जब साधक निरन्तर इस प्रकार का अभ्यास करता है, तब ईंधन के बिना जैसे अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समय में उसका चित्त शान्त हो जाता है। इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्द के संस्पर्श में मग्न हो जाता है और फिर उसका कभी उत्थान नहीं होता।

जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और काम के मूल कारण गृहस्थाश्रम का परित्याग कर देता है और फिर उन्हीं का सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुए को खाने वाला कुत्ता ही है। जिन्होने अपने शरीर को अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था-वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं। कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँव में रहने वाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी-ये चारों आश्रम के कलंक हैं और व्यर्थ ही आश्रमों का ढोंग करते हैं। भगवान् की माया से विमोहिती उन मूढ़ों पर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। आत्मज्ञान के द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी हैं और जिसने अपने आत्मा को परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषय की इच्छा और किस भोक्ता की तृप्ति के लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीर का पोषण करेगा?

उपनिषदों में कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान् के द्वारा निर्मित बाँधने की विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। ॐकार ही उस रथी का धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐ कार के द्वारा अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिये)। राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद-ये सब, और ऐसे ही जीवों के और भी बहुत-से शत्रु हैं। उनमें रजोगुण और तमोगुण प्रधान वृत्तियाँ अधिक हैं, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्त्वगुण प्रधान ही होती हैं।

यह मनुष्य-शरीररूप रथ जब तक अपने वश में है और इसके इन्द्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशा में विद्यमान हैं, तभी तक श्रीगुरुदेव के चरणकमलों की सेवा-पूजा से शान धरायी हुई ज्ञान की तीखी तलवार लेकर भगवान् के आश्रय से इन शत्रुओं का नाश करके अपने स्वराज्य-सिंहासन पर विराजमान हो जाये और फिर अत्यन्त शान्त भाव से इस शरीर का भी परित्याग कर दे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 46-56 का हिन्दी अनुवाद)

नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जाने पर ये इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखने वाला बुद्धिरूप सारथि रथ के स्वामी जीव को उलटे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्यु से अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसार के कुएँ में गिरा देंगे।

वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं - एक तो वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर ले जाते हैं-प्रवृत्तिपरक और दूसरे वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर से लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कार के योग्य बना देते हैं-निवृत्तिपरक। प्रवृत्तिपरक कर्ममार्ग से बार-बार जन्म-मृत्यु की प्राप्ति होती है और निवृत्तिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्ग के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती है। शयेनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म ‘इष्ट’ कहलाते हैं और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना ‘पुर्त्त्कर्म’ हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभाव से युक्त होने पर अशान्ति के ही कारण बनते हैं। प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरने पर चरु-पुरोडाशादि यज्ञ-सम्बन्धी द्रव्यों के सूक्ष्म भाग से बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओं के पास जाता है। फिर क्रमशः रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन के अभिमानी देवताओं के पास जाकर चन्द्रलोक में पहुँचता है। वहाँ से भोग समाप्त होने पर अमावस्या के चन्द्रमा के समान क्षीण होकर वृष्टि द्वारा क्रमशः ओषधि, लता, अन्न और वीर्य के रूप में परिणत होकर पितृयान-मार्ग से पुनः संसार में ही जन्म लेता है।

युधिष्ठिर! गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको ‘द्विज’ कहते हैं। (उनमें से कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्ग का अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जाने वाले निवृत्तिमार्ग का।) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट, पूर्त आदि कर्मों से होने-वाले समस्त यज्ञों को विषयों का ज्ञान कराने वाले इन्द्रियों में हवन कर देता है। इन्द्रियों को दर्शनादि संकल्पस्वरूप मन में, वैकारिक मन को परावाणी में और परावाणी को वर्ण समुदाय में, वर्ण समुदाय को ‘अ उ म्’ इन तीन स्वरों के रूप में रहने वाले ॐ कार में, ॐ कार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में, नाद को सूत्रात्मारूप प्राण में तथा प्राण को ब्रह्म में लीन कर देता है।

वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायंकाल, शुक्ल पक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायण के अभिमानी देवताओं के पास जाकर ब्रह्मलोक में पहुँचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक ‘विश्व’ अपनी स्थूल उपाधि को सूक्ष्म में लीन करके सूक्ष्मोपाधिक ‘तैजस’ हो जाता है। फिर सूक्ष्म उपाधि को कारण में लय करके कारणोपाधिक ‘प्राज्ञ’ रूप से स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूप में कारणोपाधिका लय करके ‘तुरीय’ रूप से स्थित होता है। इस प्रकार दृश्यों का लय हो जाने पर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है। इसे ‘देवयान’ मार्ग कहते हैं। इस मार्ग से जाने वाला आत्मोपासक संसार की ओर से निवृत्त होकर क्रमशः एक से दूसरे देवता के पास होता हुआ ब्रह्मलोक में जाकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्गी के समान फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता। ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं। जो शास्त्रीय दृष्टि से इन्हें तत्त्वः जान लेता है, वह शरीर में स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 57-66 का हिन्दी अनुवाद)

पैदा होने वाले शरीरों के पहले भी कारणरूप से और उनका अन्त हो जाने पर भी उनकी अवधिरूप से जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूप से बाहर और भोक्तारूप से भीतर है तथा ऊँच और नीच, जानना और जानने का विषय, वाणी और वाणी का विषय, अन्धकार और प्रकश आदि वस्तुओं के रूप में जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसी से मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता। दर्पण आदि में दीख पड़ने वाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्ति से बाधित है, उसका उसमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तु के रूप में तो वह दीखता ही है। वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा दीखने वाला वस्तुओं का भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभव से असम्भव होने के कारण वस्तुतः न होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है।

पृथ्वी आदि पंचभूतों से इस शरीर का निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाये तो न तो वश उन पंचभूतों का संघात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवों से न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है। इसी प्रकार शरीर के कारणरूप पंचभूत भी अवयवी होने के कारण अपने अवयवों-सूक्ष्मभूतों से भिन्न नहीं हैं, अवयव रूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करने पर भी अवयवों के अतिरिक्त अवयवी का अस्तित्व नहीं मिलता-वह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असत्य ही हैं। जब तक अज्ञान के कारण एक ही परमतत्त्व में अनेक वस्तुओं का भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तब तक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्न में भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं के अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेध के शास्त्र रहते हैं-वैसे ही जब तक इन भिन्नताओं के अस्तित्व का मोह बना हुआ है, तब तक यहाँ भी विधि-निषेध के शास्त्र हैं ही।

जो विचारशील पुरुष स्वानुभूति से आत्मा के त्रिविध अद्वैत का साक्षात्कार करते हैं-वे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्य के भेदरूप स्वप्न को मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकार के हैं-भावद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत। जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य कारण मात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तव में है नहीं। इस प्रकार सबकी एकता का विचार ‘भावद्वैत’ है।

युधिष्ठिर! मन, वाणी और शरीर से होने वाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मा में ही हो रहे हैं, उसी में अध्यस्त हैं-इस भाव से समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ‘क्रियाद्वैत’ है। स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसार के अन्य समस्त प्राणियों के तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही हैं, उनमें अपने और पराये का भेद नहीं हैं-इस प्रकार का विचार ‘द्रव्याद्वैत’ है। युधिष्ठिर! जिस पुरुष के लिये जिस द्रव्य को जिस समय जिस उपाय से जिससे ग्रहण करना शास्त्राज्ञा के विरुद्ध न हो, उसे उसी से अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकाल को छोड़कर इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 67-80 का हिन्दी अनुवाद)

महाराज! भगवद्भक्त मनुष्य वेद में कहे हुए इन कर्मों के तथा अन्यान्य स्वकर्मों के अनुष्ठान से घर में रहते हुए ही श्रीकृष्ण की गति को प्राप्त करता है।

युधिष्ठिर! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा और सहायता से बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियों से पार हो गये हो और उन्हीं के चरणकमलों की सेवा से समस्त भूमण्डल को जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं।

पूर्वजन्म में इसके पहले के महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वों में मेरा बड़ा सम्मान था। मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीर से सुगन्धि निकला करती और देखने में मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमाद में ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था।

एक बार देवताओं के यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान् की लीला का गान करने के लिये उन लोगों ने गन्धर्व और अप्सराओं को बुलाया। मैं जानता था कि वह संतों का समाज है वहाँ भगवान् की लीला का ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियों के साथ लौकिक गीतों का गान करता हुआ उन्मत्त की तरह वहाँ जा पहुँचा। दवताओं ने देखा कि यह तो हम लोगों का अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्ति से मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हम लोगों की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौंदर्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाये और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’। उनके शाप से मैं दासी का पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र-जीवन में किये हुए महात्माओं के सत्संग और सेवा-शुश्रूषा के प्रभाव से मैं दूसरे जन्म में ब्रह्मा जी का पुत्र हुआ। संतों की अवहेलना और सेवा का यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवा से ही भगवान् प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थों के पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्म के आचरण से गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियों को मिलने वाला परमपद प्राप्त कर लेता है।

युधिष्ठिर! इस मनुष्य लोक में तुम लोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं; क्योंकि तुम्हारे घर में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्य का रूप धारण करके गुप्त रूप से निवास करते हैं। इसी से सारे संसार को पवित्र कर देने वाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करने के लिये चारों ओर से तुम्हारे पास आया करते हैं। बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो माया के लेश से रहित परमशान्त परमानन्दानुभव-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं-वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं। शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘ये यह हैं’-इस रूप में उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयम के द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! देवर्षि नारद का यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिर को अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की। देवर्षि नारद भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर से विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं, यह सुनकर युधिष्ठिर के आश्चर्य की सीमा न रही।

परीक्षित्! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्षपुत्रियों के वंशों का अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्हीं के वंश से देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचर की सृष्टि हुई है।


                      【सप्तम स्कन्ध: समाप्त】
                         【 हरिः ॐ तत्सत्】


।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध:" के 15 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब अष्टम स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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