सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]



                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                        【षष्ठ अध्याय:】६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋषभदेव जी का देहत्याग"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! योगरूप वायु से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्नि से जिनके रागादि कर्मबीज दग्ध हो गये हैं-उन आत्माराम मुनियों को दैववश यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायें, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशों का कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकतीं। फिर भगवान् ऋषभ ने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु संसार में जैसे चालाक व्याध अपने पकड़े हुए मृग का विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार बुद्धिमान् लोग इस चंचल चित्त का भरोसा नहीं करते। ऐसा ही कहा भी है- ‘इस चंचल चित्त से कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये। इसमें विश्वास करने से ही मोहिनीरूप में फँसकर महादेव जी का चिरकाल का संचित तप क्षीण हो गया था। जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों को अवकाश देकर उनके द्वारा अपने में विश्वास रखने वाले पति का वध करा देती है- उसी प्रकार जो योगी मन पर विश्वास करते हैं, उनका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बन्धन का मूल तो यह मन ही है; इस पर कोई बुद्धिमान् कैसे विश्वास कर सकता है?

इसी से भगवान् ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालों के भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड़ पुरुषों की भाँति अवधूतों के-से विविध वेष, भाषा और आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाये रहते थे। अन्त में उन्होंने योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिये अपना शरीर छोड़ना चाहा। वे अपने अन्तःकरण में अभेद रूप से स्थित परमात्मा को अभिन्न रूप से देखते हुए वासनाओं की अनुवृत्ति से छूटकर लिंग देह के अभिमान से भी मुक्त होकर उपराम हो गये।

इस प्रकार लिंग देह के अभिमान से मुक्त भगवान् ऋषभदेव जी का शरीर योगमाया की वासना से केवल अभिमानाभास के आश्रय ही इस पृथ्वीतल पर विचरता रहा। वह दैववश कोंक, वेंक और दक्षिण आदि कुटक कर्णाटक के देशों में गया और मुँह में पत्थर का टुकड़ा डाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्त के समान दिगम्बर रूप से कुटकाचल के वन में घूमने लगा। इसी समय झंझावात झकझोरे हुए बाँसों के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वन को अपनी लाल-लाल लपटों में लेकर ऋषभदेव जी के सहित भस्म कर दिया।

राजन्! जिस समय कलियुग में अधर्म की वृद्धि होगी, उस समय कोंक, वेंक और कुटक देश का मन्दमति राजा अर्हत् वहाँ के लोगों से ऋषभदेव जी के आश्रमातीत आचरण का वृतान्त सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहण कर लोगों के पूर्वसंचित पापफलरूप होनहार के वशीभूत हो भयरहित स्वधर्म-पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखण्डपूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा। उससे कलियुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्रविहित शौच और आचार को छोड़ बैठेंगे। अधर्म बहुल कलियुग के प्रभाव से बुद्धिहीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करने वाले पाखण्ड धर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राह्मण एवं भगवान् यज्ञपुरुष की निन्दा करने लगेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

वे अपनी इस नवीन अवैदिक स्वेच्छाकृत प्रवृत्ति में अन्धपरम्परा से विश्वास करके मतवाले रहने के कारण स्वयं ही घोर नरक में गिरेंगे।

भगवान् का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिये ही हुआ था। इसके गुणों का वर्णन करते हुए लोग इन वाक्यों को कहा करते हैं- ‘अहो! सात समुद्रों वाली पृथ्वी के समस्त द्वीप और वर्षों में यह भारतवर्ष बड़ी ही पुण्यभूमि है, क्योंकि यहाँ के लोग श्रीहरि के मंगलमय अवतार-चरित्रों का गान करते हैं। अहो! महाराज प्रियव्रत का वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुयशपूर्ण है, जिसमें पुराणपुरुष श्रीआदिनारायण ने ऋषभावतार लेकर मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले पारमहंस्य धर्म का आचरण किया। अहो! इन जन्मरहित भगवान् ऋषभदेव के मार्ग पर कोई दूसरा योगी मन से भी कैसे चल सकता है। क्योंकि योगी लोग जिन योग सिद्धियों के लिये लालायित होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें इन्होंने अपने-आप प्राप्त होने पर भी असत् समझकर त्याग दिया था।

राजन्! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौओं के परमगुरु भगवान् ऋषभदेव का यह विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया। यह मनुष्यों के समस्त पापों को हरने वाला है। जो मनुष्य इस परम मंगलमय पवित्र चरित्र को एकाग्रचित्त से श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनों की ही भगवान् वासुदेव में अनन्यभक्ति हो जाती है। तरह-तरह के पापों से पूर्ण, सांसारिक तापों से अत्यन्त तपे हुए अपने अन्तःकरण को पण्डितजन इस भक्ति-सरिता में ही नित्य-निरन्तर नहलाते रहते हैं। इससे उन्हें जो परमशान्ति मिलती है, वह इतनी आनन्दमयी होती है कि फिर वे लोग उसके सामने, अपने-ही-आप प्राप्त हुए मोक्षरूप परमपुरुषार्थ का भी आदर नहीं करते। भगवान् के निजजन हो जाने से ही उनके समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं।

राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं पाण्डव लोगों के और यदुवंशियों के रक्षक, गुरु, इष्टदेव, सुहृद् और कुलपति थे; यहाँ तक कि वे कभी-कभी आज्ञाकारी सेवक भी बन जाते थे। इसी प्रकार भगवान् दूसरे भक्तों के भी अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मुक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्ति से भी बढ़कर जो भक्तियोग है, उसे सहज ही नहीं देते। निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                       【सप्तम अध्याय:】७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)

"भरत-चरित्र"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! महाराज भरत बड़े ही भगवद्भक्त थे। भगवान् ऋषभदेव ने अपने संकल्पमात्र से उन्हें पृथ्वी की रक्षा करने के लिये नियुक्त कर दिया। उन्होंने उनकी आज्ञा में स्थित रहकर विश्वरूप की कन्या पंचजनी से विवाह किया।

जिस प्रकार तामस अहंकार से शब्दादि पाँच भूततन्मात्र उत्पन्न होते हैं- उसी प्रकार पंचजनी के गर्भ से उनके सुमति, राष्ट्रभृत्, सुदर्शन, आवरण और धूम्रकेतु नामक पाँच पुत्र हुए- जो सर्वथा उन्हीं के समान थे। इस वर्ष को, जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरत के समय से ही ‘भारतवर्ष’ कहते हैं।

महाराज भरत बहुज्ञ थे। वे अपने-अपने कर्मों में लगी हुई प्रजा का अपने बाप-दादों के समान स्वधर्म में स्थित रहते हुए अत्यन्त वात्सल्यभाव से पालन करने लगे। उन्होंने होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों द्वारा कराये जाने वाले प्रकृति और विकृति[1] दोनों प्रकार के अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु और सोम आदि छोटे-बड़े क्रतुओं (यज्ञों) से यथासमय श्रद्धापूर्वक यज्ञ और क्रतुरूप श्रीभगवान् का यजन किया।

इस प्रकार अंग और क्रियाओं के सहित भिन्न-भिन्न यज्ञों के अनुष्ठान के समय जब अध्वर्युगण आहुति देने के लिये हवि हाथ में लेते, जो यजमान भरत उस यज्ञकर्म से होने वाले पुण्यरूप फल को यज्ञ पुरुष भगवान् वासुदेव को अर्पण कर देते थे। वस्तुतः वे परब्रह्म ही इन्द्रादि समस्त देवताओं के प्रकाशक, मन्त्रों के वास्तविक प्रतिपाद्य तथा उन देवताओं के भी नियामक होने से मुख्य कर्ता एवं प्रधान देव हैं।

इस प्रकार अपनी भगवदर्पण बुद्धिरूप कुशलता से हृदय के रोग-द्वेषादि मलों का मार्जन करते हुए वे सूर्यादि सभी यज्ञभोक्ता देवताओं का भगवान् के नेत्रादि अवयवों के रूप में चिन्तन करते थे। इस तरह कर्म की शुद्धि से उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया। तब उन्हें अन्तर्यामीरूप से विराजमान, हृदयाकाश में ही अभिव्यक्त होने वाले, ब्रह्मस्वरूप एवं महापुरुषों के लक्षणों से उपलक्षित भगवान् वासुदेव में- जो श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, चक्र, शंख और गदा आदि से सुशोभित तथा नारदादि निजजनों के हृदयों में चित्र के समान निश्चलभाव से स्थित रहते हैं- दिन-दिन वेगपूर्वक बढ़ने वाली उत्कृष्ट भक्ति प्राप्त हुई।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 8-14 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार एक करोड़ वर्ष निकल जाने पर उन्होंने राज्यभोग का प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई वंशपरम्परागत सम्पत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बाँट दिया। फिर अपने सर्वसम्पत्तिसम्पन्न राजमहल से निकालकर वे पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में चले आये। इस पुलहाश्रम में रहने वाले भक्तों पर भगवान् का बड़ा ही वात्सल्य है। वे आज भी उनसे उनके इष्टरूप में मिलते रहते हैं। वहाँ चक्रनदी (गण्डकी) नाम की प्रसिद्ध सरिता चक्राकार शालग्राम-शिलाओं से, जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर नाभि के समान चिह्न होते हैं, सब ओर से ऋषियों के आश्रमों को पवित्र करती रहती है।

उस पुलहाश्रम के उपवन में एकान्त स्थान में अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकार के पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और कन्द-मूल-फलादि उपहारों से भगवान् की आराधना करने लगे। इससे उनका अन्तःकरण समस्त विषयाभिलाषाओं से निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परमआनन्द हुआ।

इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान् की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेम का वेग बढ़ता गया-जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, आनन्द के प्रबल वेग से शरीर में रोमांच होने लगा तथा उत्कण्ठा के कारण नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी। अन्त में जब अपने प्रियतम के अरुण चरणारविन्दों के ध्यान से भक्तियोग का आविर्भाव हुआ, तब परमानन्द से सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवर में बुद्धि के डूब जाने से उन्हें उस नियमपूर्वक की जाने वाली भगवत्पूजा का भी स्मरण न रहा। इस प्रकार वे भगवत्सेवा के नियम में ही तत्पर रहते थे, शरीर पर कृष्ण मृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकाल स्नान के कारण भीगते रहने से उनके केश भूरी-भूरी घुँघराली लटों में परिणत हो गये थे, जिनसे वे बड़े ही सुहावने लगते थे।

वे उदित हुए सूर्यमण्डल में सूर्यसम्बन्धिनी ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्मय परमपुरुष भगवान् नारायण की आराधना करते और इस प्रकार कहते- ‘भगवान् सूर्य का कर्म फलदायक तेज प्रकृति से परे हैं। उसी ने संकल्प द्वारा इस जगत् की उत्पत्ति की है। फिर वही अन्तर्यामी रूप से इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित्-शक्ति द्वारा विषयलोलुप जीवों की रक्षा करता है। हम उसी बुद्धिप्रवर्तक तेज की शरण लेते हैं’।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                       【अष्टम अध्याय:】८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"भरत जी का मृग के मोह में फँसकर मृगयोनि में जन्म लेना"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- एक बार भरत जी गण्डकी में स्नान कर नित्य-नैमित्तिक तथा शौचादि अन्य आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो प्रणव का जप करते हुए तीन मुहूर्त तक नदी की धारा के पास बैठे रहे।

राजन्! इसी समय एक हरिनी प्यास से व्याकुल हो जल पीने के लिये अकेली ही उस नदी के तीर पर आयी। अभी वह जल पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंह की लोक भयंकर दहाड़ सुनायी पड़ी। हरिन जाति तो स्वभाव से ही डरपोक होती है। वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी। अब ज्यों ही उसके कान में वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंह के डर के मारे उसका कलेजा धड़कने लगा और नेत्र कातर हो गये। प्यास अभी बुझी न थी, किन्तु अब प्राणों पर आ बनी थी। इसलिये उसने भयवश एकाकी नदी पार करने के लिये छलाँग मारी। उसके पेट में गर्भ था, अतः उछलते समय अत्यन्त भय के कारण उसका गर्भ अपने स्थान से हटकर योनिद्वार से निकलकर नदी के प्रवाह में गिर गया। वह कृष्णमृगपत्नी अकस्मात् गर्भ के गिर जाने, लम्बी छलाँग मारने तथा सिंह से डरी होने के कारण बहुत पीड़ित हो गयी थी। अब अपने झुंड से भी उसका बिछोह हो गया, इसलिये वह किसी गुफा में जा पड़ी और वहीं मर गयी।

राजर्षि भरत ने देखा कि बेचारा हरिनी का बच्चा, अपने बन्धुओं से बिछुड़कर नदी के प्रवाह में बह रहा है। इससे उन्हें उस पर बड़ी दया आयी और वे आत्मीय के समान उस मातृहीन बच्चे को अपने आश्रम पर ले आये। उस मृगछौने के प्रति भरत जी की ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। वे नित्य उसके खाने-पीने का प्रबन्ध करने, व्याघ्रादि से बचाने, लाड़-लड़ाने और पुचकारने आदि की चिंता में ही डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनके यम-नियम और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अंत में सभी छूट गए। उन्हें ऐसा विचार रहने लगा- ‘अहो! कैसे खेद की बात है! इस बेचारे दीन मृगछौने को कालचक्र के वेग ने अपने झुंड, सुहृद् और बन्धुओं से दूर करके मेरी शरण में पहुँचा दिया है। यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथ के साथी-संगी समझता है। इसे मेरे सिवा और किसी का पता नहीं है और मुझमें इसका विश्वास भी बहुत है। मैं भी शरणागत की उपेक्षा करने में जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ। इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रित का सब प्रकार की दोष बुद्धि छोड़कर अच्छी तरह पालन-पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये। निश्चय ही शान्त-स्वभाव और दीनों की रक्षा करने वाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागत की रक्षा के लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थ की भी परवाह नहीं करते’।

इस प्रकार उस हरिन के बच्चे में आसक्ति बढ़ जाने से बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाश में बँधा रहता था। जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल-मूलादि लाने होते तो भेड़ियों और कुत्तों के भय से उसे वे साथ लेकर ही वन में जाते। मार्ग में जहाँ-तहाँ कोमल घास आदि को देखकर मुग्धभाव से वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से दयावश उसे अपने कंधे पर चढ़ा लेते। इसी प्रकार कभी गोद में लेकर और कभी छाती से लगाकर उसका दुलार करने में भी उन्हें बड़ा सुख मिलता। नित्य-नैमित्तिक कर्मों को करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीच में उठ-उठकर उस मृग बालक को देखते और जब उस पर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्त को शान्ति मिलती। उस समय उसके लिये मंगलकामना करते हुए वे कहने लगते- ‘बेटा! तेरा सर्वत्र कल्याण हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

कभी यदि वह दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्य के समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनी के बच्चे के विरह से व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहविष्ट हो जाते तथा शोकमग्न होकर इस प्रकार कहने लगते- ‘अहो! क्या कहा जाये? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलिये की-सी बुद्धि वाले मुझ पुण्यहीन अनार्य का विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधों को सत्पुरुषों के समान भूलकर फिर लौट आयेगा? क्या मैं उसे फिर इस आश्रम के उपवन में भगवान् की कृपा से सुरक्षित रहकर निर्विघ्न हरी-हरी दूब चरते देखूँगा? ऐसा न हो कि कोई भेड़िया, कुत्ता गोल बाँधकर विचरने वाले सूकरादि अथवा अकेले घूमने वाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायें।

अरे! सम्पूर्ण जगत् की कुशल के लिये प्रकट होने वाले वेदत्रयीरूप भगवान् सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभी तक वह मृगी की धरोहर लौटकर नहीं आयी। क्या वह हरिण राजकुमार मुझ पुण्यहीन के पास आकर अपनी भाँति-भाँति की मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीड़ाओं से अपने स्वजनों का शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा? अहो! जब कभी मैं प्रणयकोप से खेल में झूठ-मूठ समाधि के बहाने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्त से मेरे पास आकर जलबिन्दु के समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगों की नोक से किस प्रकार मेरे अंगों को खुजलाने लगता था। मैं कभी कुशों पर हवन सामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतों से खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटने पर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमार के समान अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर चुपचाप बैठ जाता था’।

[फिर पृथ्वी पर उस मृगशावक के खुर के चिह्न देखकर कहने लगते-] ‘अहो! इस तपस्विनी धरती ने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्णसार किशोर के छोटे-छोटे सुन्दर, सुखकारी और सुकोमल खुरों वाले चरणों के चिह्नों से मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट जाने से अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्य की प्राप्ति का मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीर को भी सर्वत्र उन पदचिह्नों से विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्ग के इच्छुक द्विजों के लिये यज्ञस्थल[1] बना रही है। (चन्द्रमा में मृग का-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कहने लगते-) ‘अहो! जिसकी माता सिंह के भय से मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रम से बिछुड़ गया है। अतः उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान् नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं? [फिर उसकी शीतल किरणों से आह्लादित होकर कहने लगते-] ‘अथवा अपने पुत्रों के वियोगरूप दावानलरूप विषम ज्वाला से हृदयकमल दग्ध हो जाने के कारण मैंने एक मृग बालक का सहारा लिया था। अब उसके चले जाने से फिर मेरा हृदय जलने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल, शान्त, स्नेहपूर्ण और वदनसलिलरूपा अमृतमयी किरणों से मुझे शान्त कर रहे हैं’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 26-31 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथों से भरत का चित्त व्याकुल रहने लगा। अपने मृगशावक के रूप में प्रतीत होने वाले प्रारब्ध कर्म के कारण तपस्वी भरत जी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठान से च्युत हो गये। नहीं तो, जिन्होंने मोक्ष मार्ग में साक्षात् विघ्नरूप समझकर अपने ही हृदय से उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादि को भी त्याग दिया था, उन्हीं की अन्यजातीय हरिणशिशु में ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी।

इस प्रकार राजर्षि भरत विघ्नों के वशीभूत होकर योग साधन से भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौने के पालन-पोषण और लाड़-प्यार में ही लगे रहकर आत्मस्वरूप को भूल गये। इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहे के बिल में जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिर पर चढ़ आया। उस समय भी वह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्र के समान शोकातुर हो रहा था। वे उसे इस स्थिति में देख रहे थे और उनका चित्त उसी में लग रहा था। इस प्रकार की आसक्ति में ही मृग के साथ उनका शरीर भी छूट गया।

तदनन्तर उन्हें अन्तकाल की भावना के अनुसार अन्य साधारण पुरुषों के समान मृग शरीर ही मिला। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई। उस योनि में भी पूर्वजन्म की भगवदाराधना के प्रभाव से अपने मृगरूप होने का कारण जानकार वे अत्यन्त पश्चाताप करते हुए कहने लगे- ‘अहो! बड़े खेद की बात है, मैं संयमशील महानुभावों के मार्ग से पतित हो गया। मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर एकान्त और पवित्र वन का आश्रय लिया था। वहाँ रहकर जिस चित्त को मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेव में, निरन्तर उन्हीं के गुणों का श्रवण, मनन और संकीर्तन करके तथा प्रत्येक पल को उन्हीं की आराधना और स्मरणादि से सफल करके, स्थिर भाव से पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानी का वही मन अकस्मात् एक नन्हें-से हरिणशिशु के पीछे अपने लक्ष्य से च्युत हो गया।

इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरत के हृदय में जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगी को त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वत से वे फिर शान्त स्वभाव मुनियों के प्रिय उसी शालग्राम तीर्थ में, जो भगवान् का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये। वहाँ रहकर भी वे काल की ही प्रतीक्षा करने लगे। आसक्ति से उन्हें बड़ा भय लगने लगा था। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाड़ियों द्वारा निर्वाह करते मृगयोनि की प्राप्ति कराने वाला प्रारब्ध के क्षय की बाट देखते रहे। अन्त में उन्होंने अपने शरीर का आधा भाग गण्डकी के जल में डुबाये रखकर उस मृग शरीर को छोड़ दिया।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                       【नवम अध्याय:】९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! आंगिरस गोत्र में शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदि को अन्न देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्म विद्या), अनसूया (दूसरों के गुणों में दोष न ढूँढना), आत्मज्ञान (आत्मा के कर्तृप्त और भोक्तृत्व का ज्ञान) एवं आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणों से सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी स्त्री से उन्हीं के समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणों वाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नी से एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इन दोनों में जो पुरुष था, वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृग शरीर का परित्याग करके अन्तिम जन्म में ब्राह्मण हुए थे- ऐसा महापुरुषों का कथन है। इस जन्म में भी भगवान् की कृपा से अपनी पूर्वजन्म परम्परा का स्मरण रहने के कारण, वे इस आशंका से कि कहीं फिर कोई विघ्न उपस्थित न हो जाये, अपने स्वजनों के संग से भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्म बन्धन को काट देता है, श्रीभगवान् के उन युगल चरणकमलों को ही हृदय में धारण किये रहते तथा दूसरों की दृष्टि में अपने को पागल, मूर्ख, अंधे और बहरे के समान दिखाते।

पिता का तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलिये ब्राह्मण देवता ने अपने पागल पुत्र के भी शास्त्रानुसार समावर्तनपर्यन्त विवाह से पूर्व के सभी संस्कार करने के विचार से उनका उपनयन-संस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिता का कर्तव्य है कि पुत्र को शिक्षा दे’ इस शास्त्रविधि के अनुसार उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मों कि शिक्षा दी। किन्तु भरत जी तो पिता के सामने ही उनके उपदेश के विरुद्ध आचरण करने लगते थे। पिता चाहते थे कि वर्षाकाल में इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्म ऋतु के चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़- चार महीनों तक पढ़ाते रहने पर भी वे उन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्रप्रवण के सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके। ऐसा होने पर भी अपने इस पुत्र में उनका आत्मा के समान अनुराग था। इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होने पर भी वे ‘पुत्र को अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहीये’ इस अनुचित आग्रह से उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्नि की सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रम के आवश्यक नियमों की शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्र को सुशिक्षित देखने का उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्य से असावधान रहकर केवल घर के धंधों में ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहने वाले काल भगवान् ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया। तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भ से उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौत को सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोक को चली गयी।

भरत जी के भाई कर्मकाण्ड को सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्या से सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरत जी का प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे। अतः पिता के परलोक सिधारने पर उन्होंने उन्हें पढ़ाने-लिखाने का आग्रह छोड़ दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 9-16 का हिन्दी अनुवाद)

भरत जी को मानपमान का कोई विचार न था। जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर पुकारते, तब वे भी उसी के अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इच्छा के अनुसार कर देते। बेगार के रूप में, मजदूरी के रूप में, माँगने पर अथवा बिना माँगे जो भी थोडा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसी को जीभ का जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारण से उत्पन्न न होने वाला स्वतःसिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्दों से होने वाले सुख-दुःखादि में उन्हें देहाभिमान की स्फूर्ति नहीं होती थी। वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आँधी के समय साँड़ के समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी अंग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वी पर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीर पर मैल जम गयी थी।

उनका ब्रह्मतेज धूलि से ढके हुए मूल्यवान् मणि के समान छिप गया था। वे अपनी कमर में एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज है’, ‘कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे। दूसरों की मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयों ने खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया, तब वे उस कार्य को भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बात का कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियों की भूमि समतल है या ऊँची-नीची अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावल की कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन-जो कुछ भी दे देते, उसी को वे अमृत के समान खा लेते थे।

किसी समय डाकुओं के सरदार ने, जिसके सामन्त शूद्र जाति के थे, पुत्र की कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया। उसने जो पुरुष-पशु बलि देने के लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदे से निकलकर भाग गया। उसे ढूँढने के लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रात में आधी रात के समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोग से अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आंगिरस गोत्रीय ब्राह्मण कुमार पर पड़ी, जो वीरासन से बैठे हुए मृग-वराहादि जीवों से खेतों की रखवाली कर रहे थे। उन्होंने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणों वाला है, इससे हमारे स्वामी का कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्द से खिल उठा और वे उन्हें रस्सियों से बाँधकर चण्डिका के मन्दिर में ले आये।

तदनन्तर उन चोरों ने अपनी पद्धति के अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकार के आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अंकुर और फल आदि उपहार-सामग्री के सहित बलिदान की विधि से गान, स्तुति और मृदंग एवं ढोल आदि का महान् शब्द करते उस पुरुष-पशु को भद्रकाली के सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया। इसके पश्चात् दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरे ने उस नर-पशु के रुधिर से देवी को तृप्त करने के लिये देवीमन्त्रों से अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 17-20 का हिन्दी अनुवाद)

चोर स्वभाव से तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धन के मद से उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसा में भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान् के अंशस्वरूप ब्राह्मण कुल का तिरस्कार करके स्वच्छन्दता से कुमार्ग की ओर बढ़ रहे थे। आपत्ति काल में भी जिस हिंसा का अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्रह्माण वध का सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियों के सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमार की बलि देना चाहते थे।

यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकाली के शरीर में अति दुःसह ब्रह्मतेज से दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्ति को फोड़कर प्रकट हो गयीं। अत्यन्त असहनशीलता और क्रोध के कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखों के कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेष को देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वे इस संसार का संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोध से तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्ग से ही उन सारे पापियों के सिर उड़ा दिये और अपने गणों के सहित उनके गले से बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वर से गाती और नाचती हुई उन सिरों को ही गेंद बनाकर खेलने लगीं। सच है, महापुरुषों के प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है।

परीक्षित! जिनकी देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकने वाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्र से जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान् के निर्भय चरणकमलों का आश्रय ले रखा है-उन भगवद्भक्त परमहंसों के लिये अपना सिर कटने का अवसर आने पर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना-यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                        【दशम अध्याय:】१०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)

"जडभरत और राजा रहूगण की भेंट"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! एक बार सिन्धु सौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर चढ़कर जा रहा था। जब वह इक्षुमती नदी के किनारे पहुँचा, तब उनकी पालकी उठाने वाले कहारों के जमादार को एक कहार की आवश्यकता पड़ी। कहार की खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मण देवता मिल गये। इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अंगों वाला है। इसलिये यह तो बैल या गधे के समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।’ यह सोचकर उसने बेगार में पकड़े हुए अन्य कहारों के साथ इन्हें भी बलात् पकड़कर पालकी में जोड़ दिया। महात्मा भरत जी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्य के योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकी को उठा ले चले।

वे द्विजवर, कोई जीव पैरों तले दब न जाये- इस डर से आगे की एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे। इसलिये दूसरे कहारों के साथ उनकी चाल का मेल नहीं खाता था; अतः जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगण ने पालकी उठाने वालों से कहा- ‘अरे कहारों! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो?’ तब अपने स्वामी का यह अपेक्षायुक्त वचन सुनकर कहारों को डर लगा कि कहीं राजा इन्हें दण्ड न दें। इसलिये उन्होंने राजा से इस प्रकार निवेदन किया- ‘महाराज! यह हमारा प्रमाद नहीं है, हम आपकी नियम मर्यादा के अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकी में लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता। हम लोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’।

कहारों के ये दीन वचन सुनकर राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होने वाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया जाये तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि उसने महापुरुषों का सेवन किया था, तथापि क्षत्रिय स्वभाववश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुण से व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठ से, जिनका ब्रह्मतेज भस्म से ढके हुए अग्नि के समान प्रकट नहीं था, इस प्रकार व्यंग से भरे वचन कहने लगा- ‘अरे भैया! बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियों ने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।’

इस प्रकार बहुत ताना मारने पर भी वे पहले की ही भाँति चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे। उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टि में तो पंचभूत, इन्द्री और अन्तःकरण का संघात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्या का ही कार्य था। वह विविध अंगों से युक्त दिखायी देने पर भी वस्तुतः था ही नहीं, इसलिये उसमें उनका मैं-मेरेपन का मिथ्या अध्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 7-15 का हिन्दी अनुवाद)

(किन्तु) पालकी अब भी सीधी चाल से नहीं चल रही है-यह देखकर राजा रहूगण क्रोध से आग-बबूला हो गया और कहने लगा- ‘अरे! यह क्या? क्या तू जीता ही मर गया है? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी है। अरे! जैसे दण्डपाणि यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायेंगे’।

रहूगण को राजा होने का अभिमान था, इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया। वह अपने को बड़ा पण्डित समझता था, अतः रज-तमयुक्त अभिमान के वशीभूत होकर उसने भगवान् के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तवर भरत जी का तिरस्कार कर डाला। योगेश्वरों की विचित्र कथनी-करनी का तो उसे कुछ पता ही न था। उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे सम्पूर्ण प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मण देवता मुस्कराये और बिना किसी प्रकार का अभिमान किये इस प्रकार कहने लगे।

जड भरत ने कहा ;- राजन्! तुमने जो कुछ कहा, वह यथार्थ है। उसमें कोई उलाहना नहीं है। यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्मा के लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते। स्थूलता, कृशता, आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक- ये सब धर्म देहाभिमान को लेकर उत्पन्न होने वाले जीव में रहते हैं; मुझमें इनका लेश भी नहीं है।

राजन्! तुमने जो जीने-मरने की बात कही-सो जितने भी विकारी पदार्थ हैं, उन सभी में नियमित रूप से ये दोनों बातें देखी जाती हैं; क्योंकि वे सभी आदि-अन्त वाले हैं। यशस्वी नरेश! जहाँ स्वामी-सेवक भाव स्थिर हो, वहीं आज्ञा पालनादि का नियम भी लागू हो सकता है। ‘तुम राजा हो और मैं प्रजा हूँ’ इस प्रकार की भेदबुद्धि के लिये मुझे व्यवहार के सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखायी देता। परमार्थ दृष्टि से देखा जाये तो किसे स्वामी कहें और किसे सेवक? फिर भी राजन्! तुम्हें यदि स्वामित्व का अभिमान है तो कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ। वीरवर! मैं मत्त, उन्मत्त और जड के समान अपनी ही स्थिति में रहता हूँ। मेरा इलाज करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा? यदि मैं वास्तव में जड और प्रमादी ही हूँ, तो भी मुझे शिक्षा देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ ही होगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मुनिवर जड भरत यथार्थ तत्त्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये। उनका देहात्मबुद्धि का हेतुभूत अज्ञान निवृत्त हो चुका था, इसलिये वे परमशान्त हो गये थे। अतः इतना कहकर भोग द्वारा प्रराब्ध्य क्षय करने के लिये वे फिर पहले के ही समान उस पालकी को कन्धे पर लेकर चलने लगे। सिन्धु सौवीर नरेश रहूगण भी अपनी उत्तम श्रद्धा के कारण तत्त्व जिज्ञासा का पूरा अधिकारी था। जब उसने उन द्विजश्रेष्ठ के अनेकों योग-ग्रन्थों से समर्थित और हृदय की ग्रन्थि का छेदन करने वाले ये वाक्य सुने, तब वह तत्काल पालकी से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

देव! आपने द्विजों का चिह्न यज्ञोपवीत धारण कर रखा है, बतलाइये इस प्रकार प्रच्छन्न भाव से विचरने वाले आप कौन हैं? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्त्वमूर्ति भगवान् कपिल जी ही तो नहीं हैं?

मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेव जी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राह्मण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ। अतः कृपया बतलाइये, इस प्रकार अपने विज्ञान और शक्ति को छिपाकर मूर्खों की भाँति विचरने वाले आप कौन हैं? विषयों से तो आप सर्वथा अनासक्त जान पड़ते हैं। मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है।

साधो! आपके योगमुक्त वाक्यों की बुद्धि द्वारा आलोचना करने पर भी मेरा सन्देह दूर नहीं होता। मैं आत्मज्ञानी मुनियों के परमगुरु और साक्षात् श्रीहरि की ज्ञानशक्ति के अवतार योगेश्वर भगवान् कपिल से यह पूछने के लिये जा रहा था कि इस लोक में एकमात्र शरण लेने योग्य कौन है। क्या आप वे कपिल मुनि ही हैं, जो लोकों की दशा देखने के लिये इस प्रकार अपना रूप छिपाकर विचर रहे हैं? भला, घर में आसक्त रहने वाला विवेकहीन पुरुष योगेश्वरों की गति कैसे जान सकता है?

मैंने यद्धादि कर्मों में अपने को श्रम होते देखा है, इसलिये मेरा अनुमान है कि बोझा ढोने और मार्ग में चलने से आपको भी अवश्य ही होता होगा। (देहादि के धर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव ही नहीं होता, ऐसी बात भी नहीं है) चूल्हे पर रखी हुई बटलोई जब अग्नि से तपने लगती है, तब उसका जल भी खौलने लगता है और फिर उस जल से चावल का भीतरी भाग भी पक जाता है। इसी प्रकार अपनी उपाधि के धर्मों का अनुवर्तन करने के कारण देह, इन्द्रिय, प्राण और मन की सन्निधि से आत्मा को भी उनके धर्म श्रमादि का अनुभव होता ही है। आपने जो दण्डादि की व्यर्थता बतायी, सो राजा तो प्रजा का शासन और पालन करने के लिये नियुक्त किया हुआ उसका दास ही है। उसका उन्मत्तादि को दण्ड देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ नहीं हो सकता; क्योंकि अपने धर्म का आचरण करना भगवान् की सेवा ही है, उसे करने वाला व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पापराशि को नष्ट कर देता है।

‘दीनबन्धो! राजत्व के अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप-जैसे परम साधु की अवज्ञा की है। अब आप ऐसी कृपा दृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञारूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ। आप देहाभिमानशून्य और विश्व बन्धु श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं; इसलिये सब में समान दृष्टि होने से इस मानापमान के कारण आपमें कोई विकार नहीं हो सकता तथापि एक महापुरुष का अपमान करने के कारण मेरे-जैसा पुरुष साक्षात् त्रिशूलपाणि महादेव जी के समान प्रभावशाली होने पर भी, अपने अपराध से अवश्य थोड़े ही काल में नष्ट हो जायेगा’।

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