सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का छब्बीसवाँ , सत्ताईसवाँ, अट्ठाईसवाँ, उनत्तीसवाँ व तीसवाँ अध्याय [ Twenty-sixth, twenty-seventh, twenty-Eight, twenty-ninth and thirtieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का छब्बीसवाँ , सत्ताईसवाँ, अट्ठाईसवाँ, उनत्तीसवाँ व तीसवाँ अध्याय [ Twenty-sixth, twenty-seventh, twenty-Eight, twenty-ninth and thirtieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]



                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【षड्-विंश: अध्याय:】२६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन"
श्रीभगवान् ने कहा ;- माताजी! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वों के अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है। आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदय ग्रन्थि का छेदन करने वाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं। उस ज्ञान का मैं तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ। यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि, निर्गुण, प्रकृति से परे, अन्तःकरण में स्फुरित होने वाला और स्वयंप्रकाश है। उस सर्वव्यापक पुरुष ने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिक वैष्णवी माया को स्वेच्छा से स्वीकार कर दिया। लीला परायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणों द्वारा उन्हीं के अनुरूप प्रजा की सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञान को आच्छादित करने वाली उसकी आवरण शक्ति से मोहित हो गया, अपने स्वरूप को भूल गया। इस प्रकार अपने से भिन्न प्रकृति को ही अपना स्वरूप समझ लेने से पुरुष प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाने वाले कर्मों में अपने को ही कर्ता मानने लगता है। इस कर्तृत्वाभिमान से ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्दस्वरूप पुरुष को जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रता की प्राप्ति होती है। कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओं में पुरुष जो अपनेपन का आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन प्रकृति को ही कारण मानते हैं तथा वास्तव में प्रकृति से परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुष को सुख-दुःखों के भोगने के कारण मानते हैं।

देवहूति ने कहा ;- पुरुषोत्तम! इस विश्व के स्थूल-सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं, उन प्रकृति और पुरुष का लक्षण भी आप मुझसे कहिये।

श्रीभगवान् ने कहा ;- जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है, उन प्रधान नामक तत्त्व को ही प्रकृति कहते हैं। पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्तःकरण और दस इन्द्रिय-इन चौबीस तत्त्वों के समूह को विद्वान् लोग प्रकृति का कार्य मानते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द- ये पाँच तन्मात्र माने गये हैं। श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु- ये दस इन्द्रियाँ हैं। 
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- इन चार के रूप में एक ही अन्तःकरण अपनी संकल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूप चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है। इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों ने सगुण ब्रह्म के सन्निवेश स्थान इन चौबीस तत्त्वों की संख्या बतलायी है। इनके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है। कुछ लोग काल को पुरुष से भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुष का प्रभाव अर्थात् ईश्वर की संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे माया के कार्यरूप देहादि में आत्मत्व का अभिमान करके अहंकार से मोहित और अपने को कर्ता मानने वाले जीव को निरन्तर भय लगा रहता है।

मनुपुत्रि! जिनकी प्रेरणा से गुणों की साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृति में गति उत्पन्न होती है, वास्तव में वे पुरुषरूप भगवान् ही ‘काल’ कहे जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार जो अपनी माया के द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूप से और बाहर कालरूप से व्याप्त हैं, वे भगवान् ही पचीसवें तत्त्व हैं। जब परमपुरुष परमात्मा जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। लय-विक्षेपादिरहित तथा जगत् के अंकुररूप इस महत्तत्त्व ने अपने में स्थित विश्व को प्रकट करने के लिये अपने स्वरूप को आच्छादित करने वाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से पी लिया।

जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान् की उपलब्धि का स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसी को ‘वासुदेव’ कहते हैं।[1] जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थों के संसर्ग से पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन-तरंगरहित) अवस्था में अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभाविक अवस्था की दृष्टि से स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्त्व ही वृत्तियों सहित चित्त का लक्षण कहा गया है। तदनन्तर भगवान् की वीर्यरूप चित्त्-शक्ति से उत्पन्न हुए महत्तत्त्व के विकृत होने पर उससे क्रिया-शक्तिप्रधान अहंकार उत्पन्न हुआ। वह वैकारिक, तैजस और तामस भेद से तीन प्रकार का है। उसी से क्रमशः मन, इन्द्रियों और पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहंकार को ही पण्डितजन साक्षात् ‘संकर्षण’ नामक सहस्र सिर वाले अनन्तदेव कहते हैं। इस अहंकार का देवतारूप से कर्तृत्व, इन्द्रियरूप से कारणत्व और पंचभूत रूप से कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणों के सम्बन्ध से शान्तत्त्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसी के लक्षण हैं।

उपर्युक्त तीन प्रकार के अहंकार के विकृत होने पर उससे मन हुआ, जिसके संकल्प-विकल्पों से कामनाओं की उत्पत्ति होती है। यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियों के अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमल के समान श्याम वर्ण वाले इन अनिरुद्ध जी की शनैः-शनैः मन को वशीभूत करके आराधन करते हैं।

साध्वि! फिर तैजस अहंकार में विकार होने पर उससे बुद्धित्व उत्पन्न हुआ। वस्तु का स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियों के व्यापार में सहायक होना-पदार्थों का विशेष ज्ञान करना-ये बुद्धि के कार्य हैं। वृत्तियों के भेद से संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धि के ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्न’ है। इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकार का ही कार्य हैं। कर्म और ज्ञान के विभाग से उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राण की शक्ति है और ज्ञान बुद्धि की। भगवान् की चेतना शक्ति की प्रेरणा से तापस अहंकार के विकृत होने पर उससे शब्दतन्मात्र का प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्र से आकाश तथा शब्द का ज्ञान कराने वाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई। अर्थ का प्रकाशक होना, ओट में खड़े हुए वक्ता का भी ज्ञान करा देना और आकाश का सूक्ष्म रूप होना-विद्वानों के मत में यही शब्द के लक्षण हैं। भूतों को अवकाश देना, सबके बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मन का आश्रय होना-ये आकाश के वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद)

फिर शब्दतन्मात्र के कार्य आकाश में कालगति से विकार होने पर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्श का ग्रहण कराने वाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई। कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायु का सूक्ष्म रूप होना-ये स्पर्श के लक्षण हैं। वृक्ष की शाकाह आदि को हिलाना, तृणादि को इकठ्ठा कर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्य को घ्राणादि इन्द्रियों के पास तथा शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय के समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना-ये वायु की वृत्तियों के लक्षण हैं।

तदनन्तर दैव की प्रेरणा से स्पर्श तन्मात्राविशिष्ट वायु के विकृत होने पर उससे रूपतन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूप को उपलब्ध कराने वाली नेत्रिन्द्रिका प्रादुर्भाव हुआ।

साध्वि! वस्तु के आकार का बोध कराना, गौण होना-द्रव्य के अंगरूप से प्रतीत होना, द्रव्य का जैसा आकार-प्रकार और परिणाम आदि हो, उसी रूप में उपलक्षित होना तथा तेज का स्वरूपभूत होना-ये सब रूप तन्मात्र की वृत्तियाँ हैं। चमकना, पकाना, शीत को दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा कराना-ये तेज की वृत्तियाँ हैं। फिर दैव की प्रेरणा से रूपतन्मात्रमय तेज के विकृत होने पर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रस को ग्रहण कराने वाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई। रस अपने शुद्ध स्वरूप में एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थों के संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकार का हो जाता है। गीला करना, मिट्टी आदि को पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, पदार्थों को मृदु कर देना, ताप की निवृत्ति करना और कूपादि में से निकाल लिये जाने पर भी वहाँ बार-बार पुनः प्रकट हो जाना-ये जल की वृत्तियाँ हैं।

इसके पश्चात् दैवप्रेरित रसस्वरूप जल के विकृत होने पर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्ध को ग्रहण कराने वाली घ्राणेन्द्रिय प्रकट हुईं। गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्य भोगों की न्यूनाधिकता से वह मिश्रित गन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकार का हो जाता है। प्रतिमादिरूप से ब्रह्म की साकार-भावना का आश्रय होना, जल आदि कारण तत्त्वों से भिन्न किसी दूसरे आश्रय की अपेक्षा किये बिना ही स्थित रहना, जल आदि अन्य पदार्थों को धारण करना, आकाशादि का अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदों को सिद्ध करना) तथा परिणाम विशेष से सम्पूर्ण प्राणियों के [स्त्रीत्व, पुरुषत्व आदि] गुणों को प्रकट करना-ये पृथ्वी के कार्यरूप लक्षण हैं।

आकाश का विशेष गुण शब्द जिसका विषय है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है; वायु का विशेष गुण सपर्श जिसका विषय है, वह त्वगिन्द्रिय है। तेज का विशेष गुण रूप जिसका विषय है, वह नेत्रेन्द्रिय है; जल का विशेष गुणरस जिसका विषय है, वह रसनेन्द्रिय है और पृथ्वी का विशेष गुण गन्ध जिसका विषय है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं। वायु आदि कार्य-तत्त्वों में आकाशादि कारण-तत्त्वों के रहने से उनके गुण भी अनुगत देखे जाते हैं; इसलिये समस्त महाभूतों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध केवल पृथ्वी में ही पाये जाते हैं। जब महत्तत्त्व, अहंकार और पंचभूत- ये सात तत्त्व परस्पर मिल न सके-पृथक्-पृथक् ही रह गये, तब जगत् के आदिकारण श्रीनारायण ने काल, अदृष्ट और सत्त्वादि गुणों के सहित उसमें प्रवेश किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्विंश अध्यायः श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद)

फिर परमात्मा के प्रवेश से क्षुब्ध और आपस में मिले हुए उन तत्त्वों से एक जड़ अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्ड से इस विराट् पुरुष की अभिव्यक्ति हुई। इस अण्ड का नाम विशेष है, इसी के अन्तर्गत श्रीहरि के स्वरूपभूत चौदहों भुवनों का विस्तार है। यह चारों ओर से क्रमशः एक-दूसरे से दस गुने जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार और महत्तत्त्व-इन छः अवरणों से घिरा हुआ है। इन सबके बाहर सातवाँ आवरण प्रकृति का है। कारणमय जल में स्थित उस तेजोमय अण्ड से उठकर उस विराट् पुरुष ने पुनः उसमें प्रवेश किया और फिर उसमें कई प्रकार के छिद्र किये। सबसे पहले उसमें मुख प्रकट हुआ, उससे वाक्-इन्द्रिय और उसके अनन्तर वाक् का अधिष्ठाता अग्नि उत्पन्न हुआ। फिर नाक के छिद्र (नथुने) प्रकट हुए, उनसे प्राणसहित घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई। घ्राण के बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानों के छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए।

इसके बाद उस विराट् पुरुष के त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ-दाढ़ी तथा सिर के बाल प्रकट हुए और उनके बाद त्वचा की अभिमानी ओषधियाँ (अन्न आदि) उत्पन्न हुईं। इसके पश्चात् लिंग प्रकट हुआ। उससे वीर्य और वीर्य के बाद लिंग का अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्न हुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपान के बाद उसका अभिमानी लोकों को भयभीत करने वाला मृत्यु देवता उत्पन्न हुआ। तदनन्तर हाथ प्रकट हुए, उनसे बल और बल के बाद हस्तेन्द्रिय का अभिमानी इन्द्र उत्पन्न हुआ। फिर चरण प्रकट हुए, उनसे गति (गमन की क्रिया) और फिर पादेन्द्रिय का अभिमानी विष्णु देवता उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार जब विराट् पुरुष के नाड़ियाँ प्रकट हुईं, तो उनसे रुधिर उत्पन्न हुआ और उससे नदियाँ हुई। फिर उसके उदर (पेट) प्रकट हुआ। उससे क्षुधा-पिपासा की अभिव्यक्ति हुई और फिर उदर का अभिमानी समुद्र देवता उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् उसके हृदय प्रकट हुआ, हृदय से मन का प्राकट्य हुआ। मन के बाद उसका अभिमानी देवता चन्द्रमा हुआ। फिर हृदय से ही बुद्धि और उसके बाद उसका अभिमानी ब्रह्मा हुआ। तत्पश्चात् अहंकार और उसके अनन्तर उसका अभिमानी रुद्र देवता उत्पन्न हुआ। इसके बाद चित्त और उसका अभिमानी क्षेत्रज्ञ प्रकट हुआ। जब ये क्षेत्रज्ञ के अतिरिक्त सारे देवता उत्पन्न होकर भी विराट् पुरुष को उठाने में असमर्थ रहे, तो उसे उठाने के लिये क्रमशः फिर अपने-अपने उत्पत्ति स्थानों में प्रविष्ट होने लगे। अग्नि ने वाणी के साथ मुख में प्रवेश किया, परन्तु इससे विराट् पुरुष न उठा। वायु ने घ्राणेन्द्रिय के सहित नासाछिद्रों में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद)

सूर्य ने चक्षु के सहित नेत्रों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। दिशाओं ने श्रवणेन्द्रिय के सहित कानों में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा।

ओषधियों ने रोमों के सहित त्वचा में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। जल ने वीर्य के साथ लिंग में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न था। मृत्यु ने अपान के साथ गुदा में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। इन्द्र ने बल के साथ हाथों में प्रवेश किया, परन्तु इससे भी विराट् पुरुष न उठा। विष्णु ने गति के सहित चरणों में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। नदियों ने रुधिर के सहित नाड़ियों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा।

समुद्र ने क्षुधा-पिपासा के सहित उदर में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। चन्द्रमा ने मन के सहित हृदय में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। ब्रह्मा ने बुद्धि के सहित हृदय किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। रुद्र ने अहंकार के सहित उसी हृदय में प्रवेश किया, तो भी विराट् परुष न उठा।

किन्तु जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ ने चित्त के सहित हृदय में प्रवेश किया, तो विराट् पुरुष उसी समय जल से उठकर खड़ा हो गया। जिस प्रकार लोक में प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ की सहायता के बिना सोये हुए प्राणी को अपने बल से नहीं उठा सकते, उसी प्रकार विराट् पुरुष को भी वे क्षेत्रज्ञ परमात्मा के बिना नहीं उठे सके। अतः भक्ति, वैराग्य और चित्त की एकाग्रता से प्रकट हुए ज्ञान के द्वारा उस अन्तरात्मस्वरूप क्षेत्रज्ञ को इस शरीर में स्थित जानकर उसका चिन्तन करना चाहिये।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【सप्तविंश: अध्याय:】२७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रकृति-पुरुष के विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन"
श्रीभगवान् कहते हैं ;- माताजी! जिस तरह जल में प्रतिबिम्ब सूर्य के साथ जल में शीतलता, चंचलता आदि गुणों का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति के कार्य शरीर में स्थित रहने पर भी आत्मा वास्तव में उसके सुख-दुःखादि धर्मों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह स्वभाव से निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है। किन्तु जब वही प्राकृत गुणों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहंकार से मोहित होकर ‘मैं कर्ता हूँ’-ऐसा मानने लगता है। उस अभिमान के कारण वह देह के संसर्ग से किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मो के दोष से अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियों में उत्पन्न होकर संसार चक्र में घूमता रहता है। जिस प्रकार स्वप्न के पदार्थों में आस्था हो जाने के कारण दुःख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं-मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसार की कोई सत्ता न होने पर भी अविद्यावश विषयों का चिन्तन करते रहने से जीव का संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि असन्मार्ग (विषय-चिन्तन) में फँसे हुए चित्त को तीव्र भक्तियोग और वैराग्य के द्वारा धीरे-धीरे अपने वश में लावे।

यमादि योग साधनों के द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास-चित्त को बारम्बार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियों में समभाव रखने, किसी से वैर न करने, आसक्ति के त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान् को समर्पित किये हुए) स्वधर्म से जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि-प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसी में सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्त में रहता है, शान्त स्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धर्यवान् है, प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप के अनुभव से प्राप्त हुए तत्त्वज्ञान के कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियों के सहित इस देह में मैं-मेरेपन का मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धि की जाग्रदादि अवस्थाओं से भी अलग हो गया है तथा परमात्मा के सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता-वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रों से सूर्य को देखने कि भाँति अपने शुद्ध अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियों से पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओं में सत्यरूप से भासने वाला, जगत्कारणभूता प्रकृति का अधिष्ठान, महदादि कार्य-वर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है।

जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवाल पर पड़े हुए अपने आभास के सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखने वाले प्रतिबिम्ब से आकाशास्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहंकार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्ब युक्त उस अहंकार के द्वारा सत्य ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है-जो सुषुप्ति के समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जाने पर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकार शून्य है। (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूत-सूक्ष्मादि दृश्य वर्ग के द्रष्टारूप में स्पष्टतया अनुभव में आता है; किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहंकार का नाश होने से वह भ्रमवश अपने को ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धन का नाश हो जाने पर मनुष्य अपने को ही नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है।

माताजी! इन सब बातों का मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है, जो अहंकार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

देवहूति ने पूछा ;- प्रभो! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरे के आश्रय से रहने वाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुष को कभी छोड़ ही नहीं सकती। ब्रह्मन्! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोड़कर नहीं जा सकते। अतः जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृति के गुणों के रहते हुए उसे कैवल्य कैसे प्राप्त होगा? यदि तत्त्वों का विचार करने से कभी यह संसार बन्धन का तीव्र भय निवृत्त हो भी जाये, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणों का अभाव न होने से वह भय फिर उपस्थित हो सकता है।

श्रीभगवान् ने कहा ;- माताजी! जिस प्रकार अग्नि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार निष्काम भाव से किये हुए स्वधर्मपालन द्वारा अन्तःकरण शुद्ध होने से बहुत समय तक भगवत्कथा-श्रवण द्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्ति से, तत्त्व साक्षात्कार कराने वाला ज्ञान से, प्रबल वैराग्य से, व्रत नियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्यास से और चित्त की प्रगाढ़ एकाग्रता से पुरुष की प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है। फिर नित्य प्रति दोष दीखने से भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कितने ही अनर्थों का अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पड़ने पर उसे उन स्वप्न के अनुभवों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता। उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझमें ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी बिगाड़ सकती।

जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है। मेरा वह धर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपा से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिंगदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्य संज्ञक मंगलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता।

माताजी! यदि योगी का चित योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियों में, जिनकी प्राप्ति का योग के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है-जहाँ मृत्यु की कुछ भी दाल नहीं गलती।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【अष्टाविंश: अध्याय:】२८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"अष्टांगयोग की विधि"
कपिल भगवान् कहते हैं ;- माताजी! अब मैं तुम्हें सबीज (धयेयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है। यशाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहना आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, विषय-वासनाओं को बढ़ाने वाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ाने वाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, मन, वाणी और शरीर से किसी जीव को न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान् की पूजा करना, वाणी का संयम करना, उत्तम आसनों का अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना। मूलाधार आदि किसी एक केन्द्र में मन के सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान् की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना। उनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्टचित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे।

पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि युक्त आसन बिछावे। उस पर शरीर को सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे। आरम्भ में बायें नासिका से पूरक, कुम्भक और रेचक करे, फिर इसके विपरीत दाहिनी नासिका से प्राणायाम करके प्राण के मार्ग का शोधन करे-जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाये। जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राण वायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है। अतः योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करने वाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे। जब योग का अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाये, तब नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान् की मूर्ति का ध्यान करे।

भगवान् का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम हैं; हाथों में शंख, चक्र और गदा धारण किये हैं। कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है, वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न है और गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वनमाला चरणों तक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्ध से मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अंग-प्रत्यंग में महामूल्य हार, कंकण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं। कमर में करधनी की लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनक दर्शनीय श्यामसुन्दरस्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद)

उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है, वे भक्तों पर कृपा करने के लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी है। भगवान् सदा सम्पूर्ण लोकों से वन्दित हैं। उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियों के भी यश को बढ़ाने वाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अंगों के सहित तब तक ध्यान करे, जब तक चित्त वहाँ से हटे नहीं। भगवान् की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं, अतः अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप से स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे। इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अंगों में लगे हुए चित्त को विशेष रूप से एक-एक अंग में लगावे।

भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये। वे वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल के मंगलमय चिह्नों से युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्रमण्डल की चन्द्रिका से ध्यान करने वालों के हृदय के अज्ञानरूप घोर अन्धकार को दूर कर देते हैं। इन्हीं की धोवन से नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगा जी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र मंगलरूप श्रीमहादेव जी और भी अधिक मंगलमय हो गये। ये अपना ध्यान करने वालों के पापरूप पर्वतों पर छोड़े हुए इन्द्र के वज्र के समान हैं। भगवान् के इन चरणकमलों का चिरकाल तक चिन्तन करे। भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्मा जी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मी जी अपनी जाँघों पर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयों की कान्ति से लाड़ लड़ाती रहती हैं।

भगवान् की जाँघों का ध्यान करे, जो अलसी के फूल के समन नीलवर्ण और बल की निधि हैं तथा गरुड़ जी की पीठ पर शोभायमान हैं। भगवान् के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बर के ऊपर पहली हुई सुवर्णमयी करधनी की लड़ियों को आलिंगन कर रहा है। सम्पूर्ण लोकों के आश्रयस्थान भगवान् के उदर देश में स्थित नाभि सरोवर का ध्यान करे; इसी में से ब्रह्मा जी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभु के श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्षःस्थल पर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं। इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान् के वक्षःस्थल का ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देने वाला है।

फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान् के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभ मणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है। समस्त लोकपालों की आश्रयभूता भगवान् की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कंकणादि आभूषण समुद्र मन्थन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारों वाले सुदर्शन चक्र का तथा उनके करकमल के राजहंस के समान विराजमान शंख का चिन्तन करे। फिर विपक्षी वीरों के रुधिर से सनी हुई प्रभु की प्यारी कौमोदकी गदा का, भौरों के शब्द से गुंजायमान वनमाला का और उनके कण्ठ में सुशोभित सम्पूर्ण जीवों के निर्मल तत्त्वरूप कौस्तुभ मणि का ध्यान करे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 29-35 का हिन्दी अनुवाद)

भक्तों पर कृपा करने के लिये ही यहाँ साकाररूप धारण करने वाले श्रीहरि के मुखकमल का ध्यान करे, जो सुधड़ नासिका से सुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृत कुण्डलों के हिलने से अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलों के कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है।

काली-काली घुँघराली अलकावली से मण्डित भगवान् का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमलकोश का भी तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चंचल नेत्र उस कमलकोश पर उछलते हुए मछलियों के जोड़े की शोभा को मात कर रहे हैं। उन्नत भ्रूलताओं से सुशोभित भगवान् के ऐसे मनोहर मुखारविन्द की मन में धारणा करके आलस्यरहित हो उसी का ध्यान करे। हृदयगुहा में चिरकाल तक भक्तिभाव से भगवान् के नेत्रों की चितवन का ध्यान करना चाहिये, जो कृपा से और प्रेमभरी मुस्कान से क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसाद की वर्षा करती रहती है और भक्तजनों के अत्यन्त घोर तीनों तापों को शान्त करने के लिये ही प्रकट हुई है।

श्रीहरि का हास्य प्रणतजनों के तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रु सागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियों के हित के लिये कामदेव को मोहित करने के लिये ही अपनी माया से श्रीहरि ने अपने भ्रूमण्डल को बनाया है-उनका ध्यान करना चाहिये। अत्यन्त प्रेमार्द्रभाव से अपने हृदय में विराजमान श्रीहरि के खिलखिलाकर हँसने का ध्यान करे, जो वस्तुतः ध्यान के ही योग है तथा जिसमें ऊपर और नीचे के दोनों होठों की अत्यधिक अरुण कान्ति के कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे।

इस प्रकार के ध्यान के अभ्यास से साधक का श्रीहरि में प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्ति से द्रवित हो जाता है, शरीर में आनन्दातिरेक के कारण रोमांच होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रूओं की धारा में वह बारम्बार अपने शरीर को नहलाता है और फिर मछली पकड़ने के काँटे के समान श्रीहरि को अपनी ओर आकर्षित करने के साधनरूप अपने चित्त को भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तु को हटा लेता है। जैसे तेज आदि के चूक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त-ब्रह्माकार हो जाता है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुण प्रवाहरूप देहादि उपाधि के निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद)

योगाभ्यास से प्राप्त हुई चित्त की इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दुःख रहित ब्रह्मरूप महिमा में स्थित होकर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दुःख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश अपने स्वरूप में देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है। जिस प्रकार मदिरा के मद से मतवाले पुरुष को अपनी कमर पर लपेटे हुए वस्त्र के रहने या गिरने की कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष को भी अपनी देह के बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आने के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमयस्वरूप में स्थित है।

उसका शरीर तो पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन है; अतः जब तक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है, तक तक वह इन्द्रियों के सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योग की स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिसने परमात्मतत्त्व को भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादि के सहित इस शरीर को स्वप्न में प्रतीत होने वाले शरीरों के समान फिर स्वीकार नहीं करता-फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता। जिस प्रकार अत्यन्त स्नेह के कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवों की आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करने से ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादि से भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है। जिस प्रकार जलती हुई लकड़ी से, चिनगारी से, स्वयं अग्नि से ही प्रकट हुए धुंएँ से तथा अग्निरूप मानी जाने वाली उस जलती हुई लकड़ी से ही अग्नि वास्तव में पृथक् ही है-उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है तथा जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं।

जिस प्रकार देहदृष्टि से जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-चारों प्रकार के प्राणी पंचभूत मात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवों में आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण जीवों को अनन्यभाव से अनुगत देखे। जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयों में उनकी विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न आकार का दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरों में रहने वाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता है। अतः भगवान् का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देने वाली कार्यकारणरूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान् की इस अचिन्त्य शक्तिमयी माया को भगवान् की कृपा से ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप-ब्रह्मरूप में स्थित होता है।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【एकोनत्रिंश: अध्याय:】२९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"भक्ति का मर्म और काल की महिमा"
देवहूति ने पूछा ;- प्रभो! प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वादि का जैसा लक्षण सांख्यशास्त्र में कहा गया है तथा जिसके द्वारा उनका वास्तविक स्वरूप अलग-अलग जाना जाता है और भक्तियोग को ही जिसका प्रयोजन कहा गया है, वह आपने मुझे बताया। अब कृपा करके भक्तियोग का मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। इसके सिवा जीवों की जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकार की गतियों का भी वर्णन कीजिये; जिनके सुनने से जीव को सब प्रकार की वस्तुओं से वैराग्य होता है। जिसके भय से लोग शुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और जो ब्रह्मादि का भी शासन करने वाला है, उस सर्वसमर्थ काल का स्वरूप भी आप मुझसे कहिये। ज्ञानदृष्टि के लुप्त हो जाने के कारण देहादि मिथ्या वस्तुओं में जिन्हें आत्माभिमान हो गया तथा बुद्धि के कर्मासक्त रहने के कारण अत्यन्त श्रमिक होकर जो चिरकाल से अपार अन्धकारमय संसार में सोये पड़े हैं, उन्हें जगाने के लिये आप योगप्रकाशक सूर्य ही प्रकट हुए हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! माता के ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिल जी ने उनकी प्रशंसा की और जीवों के प्रति दया से द्रवित हो बड़ी प्रसन्नता के साथ उनसे इस प्रकार बोले-

श्रीभगवान् ने कहा ;- माताजी! साधकों के भाव के अनुसार भक्तियोग का अनेक प्रकार से प्रकाश होता है, क्योंकि स्वभाव और गुणों के भेद से मनुष्यों के भाव में भी विभिन्नता आ जाती है। जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदय में हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्य का भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है। जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से प्रतिमादि में मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह राजस भक्त है। जो व्यक्ति पापों का क्षय करने के लिये, परमात्मा को अर्पण करने के लिये और मेरा पूजन करना कर्तव्य है-इस बुद्धि से मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है। जिस प्रकार गंगा का प्रवाह अखण्ड रूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मन की गति का तैल धारावत् अविच्छिन्न रूप से मुझ सर्वान्तर्यामी के प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम और अनन्य प्रेम होना-यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है। ऐसे निष्काम भक्त, दिये जाने पर भी, मेरी सेवा को छोड़कर सालोक्य, सार्ष्टि,और सायुज्य मोक्ष तक नहीं लेते-भगवत् सेवा के लिये मुक्ति का तिरस्कार करने वाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है। इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लाँघकर मेरे भाव-मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

निष्कामभाव से श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्यों का पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोग का अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमा का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियों में मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्य के अवलम्बन, महापुरुषों का मान, दीनों पर दया और समान स्थिति वालों के प्रति मित्रता का व्यवहार करने, यम-नियमों का पालन, अध्यात्म शास्त्रों का श्रवण और मेरे नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करने से तथा मन की सरलता, सत्पुरुषों के संग और अहंकार के त्याग से मेरे धर्मों का (भागवत धर्मों का) अनुष्ठान करने वाले भक्तपुरुष का चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्र से अनायास ही मुझमें लग जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद)

जिस प्रकार वायु के द्वारा उड़कर जाने वाला गन्ध अपने आश्रय पुष्प से घ्राणेन्द्रिय तक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोग में तत्पर और राग-द्वेषादि विकारों से शून्यचित्त परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। मैं आत्मारूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँग मात्र है। मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है। जो भेददर्शी और और अभिमानी पुरुष दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिलती।

माताजी! जो दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढ़िया सामग्रियों से अनेक प्रकार के विधि-विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता। मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वर की प्रतिमा आदि में पूजा करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में एवं सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्मा का अनुभव न हो जाये। जो व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के बीच में थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शी को मैं मृत्युरूप महान् भय उपस्थित करता हूँ। अतः सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर घर बनाकर उन प्राणियों के ही रूप में स्थित मुझ परमात्मा का यथायोग्य दान, मान, मित्रता के व्यवहार तथा समदृष्टि के द्वरा पूजन करना चाहिये।

माताजी! पाषाणादि अचेतनों की अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेने वाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मन वाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रिय की वृत्तियों से युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। सेन्द्रिय प्राणियों में ही केवल स्पर्श का अनुभव करने वालों की अपेक्षा रस का ग्रहण कर सकने वाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं तथा रसवेत्ताओं की अपेक्षा गन्ध का अनुभव करने वाले (भ्रमरादि) और गन्ध का ग्रहण करने वालों से भी शब्द का ग्रहण करने वाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं। उनसे भी रूप का अनुभव करने वाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैर वालों से बहुत-से चरणों वाले श्रेष्ठ हैं तथा बहुत चरणों वालों से भी दो चरण वाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं। मनुष्यों में भी चार वर्ण श्रेष्ठ हैं; उसमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मणों में वेद को जानने वाले उत्तम हैं और वेदज्ञों में भी वेद का तात्पर्य जानने वाले श्रेष्ठ हैं। तात्पर्य जानने वालों से संशय निवारण करने वाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्म का पालन करने वाले तथा उनसे भी आसक्ति का त्याग और अपने धर्म का निष्कामभाव से आचरण करने वाले श्रेष्ठ हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 33-45 का हिन्दी अनुवाद)

उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीर को भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोड़कर मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करने वाले अकर्ता और समदर्शी पुरुष से बढ़कर मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता। अतः यह मानकर कि जीवरूप अपने अंश से साक्षात् भगवान् ही सबमें अनुगत हैं, इस समस्त प्राणियों को बड़े आदर के साथ मन से प्रणाम करे।

माताजी! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टांगयोग का वर्णन किया। इसमें से एक का भी साधन करने से जीव परमपुरुष भगवान् को प्राप्त कर सकता है। भगवान् परमात्मा परब्रह्म का अद्भुत प्रभाव सम्पन्न तथा जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्य का हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नाम से विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसी के रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है। नाना प्रकार के कर्मों का मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसी से महत्तत्त्वादि के अभिमानी भेददर्शी प्राणियों को सदा भय लगा रहता है। जो सबका आश्रय होने के कारण समस्त प्राणियों में अनुप्रविष्ट होकर भूतों द्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत् का शासन करने वाले ब्रह्मादि का भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञों का फल देने वाला विष्णु है।

इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है। यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान् को भूलकर भोगरूप प्रमाद में पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है। इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भय से सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं। इसी से भयभीत होकर ओषधियों के सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समय पर फल-फूल धारण करती हैं। इसी के डर से नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादा से बाहर नहीं जाता। इसी के भय से अग्नि प्रज्वलित होती है और पर्वतों के सहित पृथ्वी जल में नहीं डूबती। इसी के शासन से यह आकाश जीवित प्राणियों को श्वास-प्रश्वास के लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीर का सात आवरणों से युक्त ब्राह्मण के रूप में विस्तार करता है।

इस काल के ही भय से सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से तत्पर रहते हैं। यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरों का अन्त करने वाला है। यह पिता से पुत्र की उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत् की रचना करता है और अपनी संहार शक्ति मृत्यु के द्वारा यमराज को भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【त्रिंश: अध्याय:】३०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"देह-गेह में आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन"
श्रीकपिल देव जी कहते हैं ;- माताजी! जिस प्रकार वायु के द्वारा उड़ाया जाने वाला मेघसमूह उसके बल को नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् काल की प्रेरणा से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियों में भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रम को नहीं जानता। जीव सुख की अभिलाषा से जिस-जिस वस्तु को बड़े कष्ट से प्राप्त करता है, उसी-उसी को भगवान् काल विनष्ट कर देता है-जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है। इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है। इस संसार में यह जीव जिस-जिस योनि में जन्म लेता है, उसी-उसी में आनन्द मानने लगता है और उस से विरक्त नहीं होता। यह भगवान् की माया से ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश नारकी योनियों में जन्म लेने पर भी वहाँ के विष्ठा आदि भोगों में ही सुख मानने के कारण उसे भी छोड़ना नहीं चाहता।

यह मूर्ख अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन और बन्धु-बान्धवों में अत्यन्त आसक्त होकर उनके सम्बन्ध में नाना प्रकार के मनोरथ करता हुआ अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता है। इनके पालन-पोषण की चिन्ता से इसके सम्पूर्ण अंग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओं से दूषित हृदय होने के कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हीं के लिये तरह-तरह के पाप करता रहता है। कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में सम्भोगादि के समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकों की मीठी-मीठी बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दुःख प्रधान कपटपूर्ण कर्मों में लिप्त हो जाता है। उस समय बहुत सावधानी करने पर यदि उसे किसी दुःख का प्रतीकार करने में सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह सुख-सा मान लेता है। जहाँ-तहाँ से भयंकर हिंसावृत्ति के द्वारा धन संचय कर यह ऐसे लोगों का पोषण करता है, जिनके पोषण से नरक में जाता है। स्वयं तो उनके खाने-पीने से बचे हुए अन्न को ही खाकर रहता है।
बार-बार प्रयत्न करने पर भी जब इसकी कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर हो जाने से दूसरे के धन की इच्छा करने लगता है। जब मन्दभाग्य के कारण इसका कोई प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्ब के भरण-पोषण में असमर्थ हो जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसे छोड़ने लगता है। इसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर वे स्त्री-पुत्रादि इसका पहले के समान आदर नहीं करते, जैसे कृपण किसान बूढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं। फिर भी इसे वैराग्य नहीं होता। जिन्हें उसने स्वयं पाला था, वे ही अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़ जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं। वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भाँति स्त्री-पुत्रादि के अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है। मृत्यु का समय निकट आने पर वायु के उत्क्रमण से इसकी पुतलियाँ चढ़ जाती हैं, श्वास-प्रश्वास की नलिकाएँ कफ से रुक जाती हैं, खाँसने और साँस लेने में भी इसे बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जाने के कारण कण्ठ में घुरघुराहट होने लगती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

यह अपने शोकातुर बन्धु-बान्धवों से घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाश के वशीभूत हो जाने से उनके बुलाने पर भी नहीं बोल सकता। इस प्रकार जो मूढ़ पुरुष इन्द्रियों को न जीतकर निरन्तर कुटुम्ब-पोषण में ही लगा रहता है, वह रोते हुए स्वजनों के बीच अत्यन्त वेदना से अचेत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। इस अवसर पर उसे लेने के लिये अति भयंकर और रोषयुक्त नेत्रों वाले जो दो यमदूत आते हैं, उन्हें देखकर वह भय के कारण मल-मूत्र कर देता है। वे यमदूत उसे यातनादेह में डाल देते हैं और फिर जिस प्रकार सिपाही किसी अपराधी को ले जाते हैं, उसी प्रकार उसके गले में रस्सी बाँधकर बलात् यमलोक की लंबी यात्रा में उसे ले जाते हैं।

उनकी घुड़कियों से उसका हृदय फटने और शरीर काँपने लगता है, मार्ग में उसे कुत्ते नोचते हैं। उस समय अपने पापों को याद करके वह व्याकुल हो उठता है। भूख-प्यास उसे बेचैन कर देती है तथा घाम, दावानल और लूओं से वह तप जाता है। ऐसी अवस्था में जल और विश्रामस्थान से रहित उस तप्तबालुकामय मार्ग में जब उसे एक पग आगे बढ़ने की ही शक्ति नहीं रहती, यमदूत उसकी पीठ पर कोड़े बरसाते हैं, तब बड़े कष्ट से उसे चलना ही पड़ता है। वह जहाँ-तहाँ थककर गिर जाता है, मूर्च्छा आ जाती है, चेतना आने पर फिर उठता है। इस प्रकार अति दुःखमय अँधेरे मार्ग से अत्यन्त क्रूर यमदूत उसे शीघ्रता से यमपुरी को ले जाते हैं। यमलोक का मार्ग निन्यानबे हजार योजन है। इतने लम्बे मार्ग को दो-ही-तीन मुहूर्त में तय करके वह नरक में तरह-तरह की यातनाएँ भोगता है। वहाँ उसके शरीर को धधकती लकड़ियों आदि के बीच में डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरों के द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है। यमपुरी के कुत्तों अथवा गिद्धों द्वारा जीते-जी उसकी आँतें खींची जाती हैं। साँप, बिच्छू और डांस आदि डसने वाले तथा डंक मारने वाले जीवों से शरीर को पीड़ा पहुँचायी जाती है। शरीर को काटकर टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। उसे हाथियों से चिरवाया जाता है, पर्वत शिखरों से गिराया जाता है अथवा जल या गढ़े में डालकर बन्द कर दिया जाता है। ये सब यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र एवं रौरव आदि नरकों की और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो या पुरुष, उस जीव को पारस्परिक संसर्ग से होने वाले पाप के कारण भोगनी ही पड़ती हैं।

माताजी! कुछ लोगों का कहना है कि स्वर्ग और नरक तो इसी लोक में हैं, क्योंकि जो नारकी यातनाएँ हैं, वे यहाँ भी देखी जाती हैं। इस प्रकार अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्ब का ही पालन करने वाला अथवा केवल अपना ही पेट भरने वाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर-दोनों को यहीं छोड़कर मरने के बाद अपने किये हुए पापों का ऐसा फल भोगता है। अपने इस शरीर को यही छोड़कर प्राणियों से द्रोह करके एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेय को साथ लेकर वह अकेला ही नरक में जाता है। मनुष्य अपन कुटुम्ब का पेट पालने में जो अन्याय करता है, उसका दैवविहित कुफल वह नरक में जाकर भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो। जो पुरुष निरी पाप की कमाई से ही अपने परिवार का पालन करने में व्यस्त रहता है, वह अन्धतामिस्त्र नरक में जाता है-जो नरकों में चरम सीमा का कष्टप्रद स्थान है। मनुष्य-जन्म मिलने के पूर्व जितनी भी यातनाएँ हैं तथा शूकर-कुकरादि योनियों के जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रम से भोगकर शुद्ध हो जाने पर वह फिर मनुष्य योनि में जन्म लेता है।

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