सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का इकत्तीसवाँ , बत्तीसवाँ, व तैतीसवाँ अध्याय [ Thirty-first, thirty-second, and thirty-third chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का इकत्तीसवाँ , बत्तीसवाँ, व तैतीसवाँ अध्याय [ Thirty-first, thirty-second, and thirty-third chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]



                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【एकत्रिंश अध्याय:】३१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"मनुष्य योनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन"
श्रीभगवान् कहते हैं ;- माताजी! जब जीव को मनुष्य-शरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान् की प्रेरणा से अपने पूर्वकर्मानुसार देहप्राप्ति के लिये पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के उदर में प्रवेश करता है। वहाँ वह एक रात्रि में स्त्री के रज में मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रि में बुद्बुदरूप हो जाता है, दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियों में अण्डे के रूप में परिणत हो जाता है। एक महीने में उसके सिर निकल आता है, दो मास में हाथ-पाँव आदि अंगों का विभाग हो जाता है और तीन मास में नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुष के चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं।

चार मास में उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीने में भूख-प्यास लगने लगती है और छठे मास में झिल्ली से लिपटकर वह दाहिनी कोख में घूमने लगता है। उस समय माता के खाये हुए अन्न-जल आदि से उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती हैं और वह कृमि आदि जंतुओं के उत्पत्ति स्थान उस जघन्य मल-मूत्र के गढ़े में पड़ा रहता है। वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँ के भूखे कीड़े उसके अंग-प्रत्यंग नोचते हैं, तब अत्यन्त क्लेश के कारण वह क्षण-क्षण में अचेत हो जाता है। माता के खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उग्र पदार्थों का स्पर्श होने से उसके सारे शरीर में पीड़ा होने लगती है। वह जीव माता के गर्भाशय में झिल्ली से लिपटा और आँतों से घिरा रहता है। उसका सिर पेट की ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं। वह पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन एवं अंगों को हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने सैकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने लगता है। ऐसी अवस्था में उसे क्या शान्ति मिल सकती है?



सातवाँ महीना आरम्भ होने पर उसमें ज्ञान-शक्ति का भी उन्मेष हो जाता है; परन्तु प्रसूतिवायु से चलायमान रहने के कारण वह उसी उदर में उत्पन्न हुए विष्ठा के कीड़ों के समान एक स्थान पर नहीं रह सकता। तब सप्तधातुमय स्थूल शरीर से बँधा हुआ वह देहात्मदर्शीजीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणी से कृपा-याचना करता हुआ, हाथ जोड़कर उस प्रभु की स्तुति करता है, जिसने उसे माता के गर्भ में डाला है।

जीव कहता है ;- मैं बड़ा अधम हूँ; भगवान् ने मुझे जो इस प्रकार की गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरण में आये हुए इस नश्वर जगत् की रक्षा के लिये ही अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं; अतः मैं भी भूतल पर विचरण करने वाले उन्हीं के निर्भय चरणारविन्दों की शरण लेता हूँ। जो मैं (जीव) इस माता के उदर में देह, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूपा माया का आश्रय कर पुण्य-पापरूप कर्मों से आच्छादित रहने के कारणबद्ध की तरह हूँ, वही मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदय में प्रतीत होने वाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्मा को नमस्कार करता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद)

मैं वस्तुतः शरीरादि से रहित (असंग) होने पर भी देखने में पांचभौतिक शरीर से सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहंकार) रूप जान पड़ता हूँ। अतः इस शरीरादि के आवरण से जिनकी महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुष नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्ति सम्पन्न) परमपुरुष की मैं वन्दना करता हूँ। उन्हीं की माया से अपने स्वरूप की स्मृति नष्ट हो जाने के कारण यह जीव अनेक प्रकार के सत्त्वादि गुण और कर्म के बन्धन से युक्त इस संसार मार्ग में तरह-तरह के कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अतः उन परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस युक्ति से इसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो सकता है।

मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, यह भी उनके सिवा और किसने दिया है; क्योंकि स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों में एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंश से विद्यमान हैं। अतः जीवरूप कर्मजनित पदवी का अनुवर्तन करने वाले हम अपने त्रिविध तापों की शान्ति के लिये उन्हीं का भजन करते हैं।



भगवन्! यह देहधारी जीव दूसरी (माता के) देह के उदर के भीतर मल, मूत्र और रुधिर के कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्नि से इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलने की इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है। भगवन्! अब इस दीन को यहाँ से कब निकाला जायेगा? स्वामिन्! आप बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभु ने ही इस दस मास के जीव को ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धों! इस अपने किये हुए उपकार से ही आप प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोड़ने के सिवा आपके उस उपकार का बदला तो कोई दे भी क्या सकता है।

प्रभो! संसार के ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धि के अनुसार अपने शरीर में होने वाले सुख-दुःखादि ही अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपा से शम-दमादि साधन सम्पन्न शरीर से युक्त हुआ हूँ, अतः आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धि से आप पुराणपुरुष को अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकार के आश्रयभूत आत्मा की भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ। भगवन्! इस अत्यन्त दुःख से भरे हुए गर्भाशय में यद्यपि मैं बड़े कष्ट से रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूप में गिरने की मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि उसमें जाने वाले जीव को आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीर में अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाम में उसे फिर इस संसारचक्र में ही पड़ता होता है। अतः मैं व्याकुलता को छोड़कर हृदय में श्रीविष्णु भगवान् के चरणों को स्थापित कर अपनी बुद्धि की सहायता से ही अपने को बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्र के पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकार के दोषों से युक्त यह संसार-दुःख फिर न प्राप्त हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद)

कपिलदेव जी कहते हैं ;- माता! वह दस महीने का जीव गर्भ में ही जब इस प्रकार विवेक सम्पन्न होकर भगवान् की स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालक को प्रसवकाल की वायु तत्काल बाहर आने के लिये ढकेलती है। उसके सहसा ठकेलने पर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वास की गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है। पृथ्वी पर माता के रुधिर और मूत्र में पड़ा हुआ वह बालक विष्ठा के कीड़े के समान छटपटाता है। उसका गर्भवास का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह विपरीत गति (देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा) को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोर से रोता है। फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्था में उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करने की शक्ति भी उसमें नहीं होती। जब उस जीव को शिशु-अवस्था में मैली-कुचैली खाट पर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीर को खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलने की सामर्थ्य न होने के कारण वह बड़ा कष्ट पाता है। उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है; उसे डांस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीड़े को छोटे कीड़े। इस समय उसका गर्भावस्था का सारा ज्ञान जाता रहता है, सिवा रोने के वह कुछ नहीं कर सकता।



इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड-अवस्थाओं के दुःख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है। इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है। देह के साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के लिये दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है। खोटी बुद्धि वाला वह अज्ञानी जीव पंचभूतों से रचे हुए इस देह में मिथ्याभिनिवेश के कारण निरन्तर मैं-मेरेपन का अभिमान करने लगता है। जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकार के कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्म के सूत्र से बँधा रहने के कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसी के लिये यह तरह-तरह के कर्म करता रहता है-जिनमें बँध जाने के कारण इसे बार-बार संसारचक्र में पड़ना होता है।

सन्मार्ग में चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रिय के भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषों से समागम हो जाता है और यह उनमें आस्था करके उन्हीं का अनुगमन करने लगता है, तो पहले के समान ही फिर नारकी योनियों में पड़ता है। जिनके संग से इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, वाणी का संयम, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियों के क्रीड़ामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ और देहात्मदर्शी असत्पुरुषों का संग कभी नहीं करना चाहिये। क्योंकि इस जीव को किसी और का संग करने से ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री और स्त्रियों के संगियों का संग करने से होता है। एक बार अपनी पुत्री सरस्वती को देखकर ब्रह्मा जी भी उसके रूप-लावण्य से मोहित हो गये थे और उसके मृगीरूप होकर भागने पर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद)

उन्हीं ब्रह्मा जी ने मरीचि आदि प्रजापतियों की तथा मरीचि आदि ने कश्यपादि की और कश्यपादि ने देव-मनुष्यादि प्राणियों की सृष्टि की। अतः इनमें एक ऋषिप्रवर नारायण को छोड़कर ऐसा कौन पुरुष हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्त्रीरूपिणी माया से मोहित न हो।

अहो! मेरी इस स्त्रीरूपिणी माया का बल तो देखो, जो अपने भ्रुकुटि-विलासमात्र से बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरों को पैरों से कुचल देती है। जो पुरुष योग के परमपद पर आरुढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो गया हो, वह स्त्रियों का संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुष के लिये नरक का खुला द्वार बताया गया है। भगवान् की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदि के मिस से पास आती है, इसे तिनकों से ढके हुए कुएँ के समान अपनी मृत्यु ही समझे।

स्त्री में आसक्त रहने के कारण तथा अन्त समय में स्त्री का ही ध्यान रहने से जीव को स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार स्त्रीयोनि को प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूप में प्रतीत होने वाली मेरी माया को ही धन, पुत्र और गृह आदि देने वाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधे का गान कानों को प्रिय लगने पर भी बेचारे भोले-भाले पशु-पक्षियों को फँसाकर उनके नाश का ही कारण होता है-उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदि को विधाता की निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने।



देवि! जीव के उपाधिभूत लिंगदेह के द्वारा पुरुष एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और अपने प्रारब्ध कर्मों को भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहों की प्राप्ति के लिये दूसरे कर्म करता रहता है। जीव का उपाधिरूप लिंग शरीर तो मोक्ष पर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मन का कार्यरूप स्थूल शरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन दोनों का परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणी की ‘मृत्यु’ है और दोनों का साथ-साथ प्रकट होना ‘जन्म’ कहलाता है।

पदार्थों की उपलब्धि के स्थानरूप इस स्थूल शरीर में जब उनको ग्रहण करने की योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूल शरीर ही मैं हूँ-इस अभिमान के साथ उसे देखना उसका जन्म है। नेत्रों में जब किसी दोष के कारण रूपादि को देखने की योगता नहीं रहती, तभी उनमें रहने वाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखने में असमर्थ हो जाती है और जब नेत्र और उनमें रहने वाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखने में असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनों के साक्षी जीव में भी वह योग्यता नही रहती। अतः मुमुक्ष पुरुष को मरणादि से भय, दीनता अथवा मोह नहीं करना चाहिये। उसे जीव के स्वरूप को जानकर धैर्यपूर्वक निःसंगभाव से विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसार में योग-वैराग्य-युक्त सम्यक् ज्ञानमयी बुद्धि से शरीर को निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【द्वात्रिंश अध्याय:】३२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"धूममार्ग और अर्चिरादि मार्ग से जाने वालों की गति का और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन"
कपिलदेव जी कहते हैं ;- माताजी! जो पुरुष घर में रहकर सकामभाव से गृहस्थ के धर्मों का पालन करता है और उनके फलस्वरूप अर्थ एवं काम का उपभोग करके फिर उन्हीं का अनुष्ठान करता रहता है, वह तरह-तरह की कामनाओं से मोहित रहने के कारण भगवद्धर्मों से विमुख हो जाता है और यज्ञों द्वारा श्रद्धापूर्वक देवता तथा पितरों की ही आराधना करता रहता है। उसकी बुद्धि उसी प्रकार की श्रद्धा से युक्त रहती है, देवता और पितर ही उसके उपास्य रहते हैं; अतः वह चन्द्रलोक में जाकर उनके साथ सोमपान करता है और फिर पुण्य क्षीण होने पर इसी लोक में लौट आता है।

जिस समय प्रलयकाल में शेषशायी भगवान् शेषशय्या पर शयन करते हैं, उस समय सकाम गृहस्थाश्रमियों को प्राप्त होने वाले ये सब लोक भी लीन हो जाते हैं। जो विवेकी पुरुष अपने धर्मों का अर्थ और भोग-विलास के लिये उपयोग नहीं करते, बल्कि भगवान् की प्रसन्नता के लिये ही उनका पालन करते हैं-वे अनासक्त, प्रशान्त, शुद्धचित्त, निवृत्ति धर्मपरायण, ममतारहित और अहंकारशून्य पुरुष स्वधर्म पालनरूप सत्त्वगुण के द्वारा सर्वथा शुद्धचित्त हो जाते हैं। वे अन्त में सूर्यमार्ग (आर्चिमार्ग या देवयान) के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरि को ही प्राप्त होते हैं-जो कार्य-कारणरूप जगत् के नियन्ता, संसार के उपादान-कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करने वाले हैं। जो लोग परमात्मदृष्टि से हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं, वे दो परार्द्ध में होने वाले ब्रह्मा जी के प्रलयपर्यन्त उनके सत्यलोक में ही रहते हैं। जिस समय देवतादि से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी अपने द्विपरार्द्ध काल के अधिकार को भोगकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, इन्द्रिय, उनके विषय (शब्दादि) और अहंकारादि के सहित सम्पूर्ण विश्व का संहार करने की इच्छा से त्रिगुणात्मिक प्रकृति के साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मा में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राण और मन को जीते हुए वे विरक्त योगिगण भी देह त्यागकर उन भगवान् ब्रह्मा जी में ही प्रवेश करते हैं और फिर उन्हीं के साथ परमानन्दस्वरूप पुराणपरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे भगवान् में लीन नहीं हुए; क्योंकि अब तक उनमें अहंकार शेष था। इसलिये माताजी! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभाव से उन श्रीहरि की ही चरण-शरण में जाओ; समस्त प्राणियों का हृदयकमल ही उनका मन्दिर है और तुमने भी मुझसे उनका प्रभाव सुन ही लिया है।

वेदगर्भ ब्रह्मा जी भी-जो समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों के आदिकारण हैं-मरीचि आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों तथा योग प्रवर्तक सिद्धों के सहित निष्काम कर्म के द्वारा आदिपुरुष पुरुषश्रेष्ठ सगुण ब्रह्म को प्राप्त होकर भी भेददृष्टि और कर्तृत्वभिमान के कारण भगवदिच्छा-से, जब सर्गकाल उपस्थित होता है, तब कालरूप ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होने पर फिर पूर्ववत् प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त ऋषिगण भी अपने-अपने कर्मानुसार ब्रह्मलोक के ऐश्वर्य को भोगकर भगवदिच्छा से गुणों में क्षोभ होने पर पुनः इस लोक में आ जाते हैं। जिसका चित्त इस लोक में आसक्त है और जो कर्मों में श्रद्धा रखते हैं, वे वेद में कहे हुए काम्य और नित्य कर्मों का सांगोपांग अनुष्ठान करने में ही लगे रहते हैं।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

उनकी बुद्धि रजोगुण की अधिकता के कारण कुण्ठित रहती है, हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं होतीं; बस, अपने घरों में ही आसक्त होकर वे नित्यप्रति पितरों की पूजा में लगे रहते हैं। ये लोग अर्थ, धर्म और काम के ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनिय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान् की कथा-वार्ताओं से तो ये विमुख ही रहते हैं।

हाय! विष्ठाभोगी कूकर-सूकर आदि जीवों के विष्ठा चाहने के समान जो मनुष्य भगवत्कथामृत को छोड़कर निन्दित विषय-वार्ताओं को सुनते हैं-वे तो अवश्य ही विधाता के मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक सब संस्कारों को विधिपूर्वक करने वाले ये सकामकर्मी सूर्य से दक्षिण ओर के पितृयान या धूममार्ग से पित्रीश्वर अर्यमा के लोक में जाते हैं और फिर अपनी ही सन्तति के वंश में उत्पन्न होते हैं।

माताजी! पितृलोक को भोग लेने पर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवता लोग उन्हें वहाँ के ऐश्वर्य से च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोक में गिरना पड़ता है। इसलिये माताजी! जिनके चरणकमल सदा भजने योग्य हैं, उन भगवान् का तुम उन्हीं के गुणों का आश्रय लेने वाली भक्ति के द्वारा सब प्रकार से (मन, वाणी और शरीर से) भजन करो। भगवान् वासुदेव के प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्म साक्षात्काररूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है। वस्तुतः सभी विषय भगवद् रूप होने के कारण समान हैं। अतः जब इन्द्रियों की वृत्तियों के द्वारा भी भगवद्भक्त का चित्त उनमें प्रिय-अप्रियरूप विषता का अनुभव नहीं करता-सर्वत्र भगवान् का ही दर्शन करता है-उसी समय वह संगरहित, सब में समान रूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करने योग्य, दोष और गुणों से रहित, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्मरूप से साक्षात्कार करता है। वही ज्ञानस्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है।

सम्पूर्ण संसार में आसक्ति का अभाव हो जाना-बस, यही योगियों के सब प्रकार के योग साधन का एकमात्र अभीष्ट फल है। ब्रह्म एक है, ज्ञानस्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्यवृत्तियों वाली इन्द्रियों के द्वारा भ्रान्तिवश शब्दादि धर्मों वाले विभिन्न पदार्थों के रूप में भास रहा है। जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस-तीन प्रकार का अहंकार, पंचमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया है और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोग से जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीव का शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुतः ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से ही इसकी उत्पत्ति हुई है। किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तर के योगाभ्यास के द्वारा एकाग्रचित्त और असंग बुद्धि हो गया है।

पूजनीय माताजी! मैंने तुम्हें यह ब्रह्म साक्षात्कार का साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुष के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है। देवि! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग-इन दोनों का फल एक ही है। उसे ही भगवान् कहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्यायः श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद)

जिस प्रकार रूप, रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणों का आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान् की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है। नाना प्रकार के कर्म कलाप, यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन, वेद विचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अंगों वाले योग, भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के धर्म, आत्मतत्त्व के ज्ञान और दृढ़ वैराग्य-इन सभी साधनों से सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान् को ही प्राप्त किया जाता है।



माताजी! सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुणभेद से चार प्रकार के भक्तियोग का और जो प्राणियों के जन्मादि विकारों का हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस काल का स्वरूप मैं तुमसे कह ही चुका हूँ।

देवि! अविद्याजनित कर्म के कारण जीव की अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जाने पर वह अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता। मैंने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है-उसे दुष्ट, दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषों को नहीं सुनाना चाहिये।

जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे भक्तों से द्वेष करने वाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे। जो अत्यन्त श्रद्धालु, भक्त, विनयी, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाला, सब प्राणियों से मित्रता रखने वाला, गुरु सेवा में तत्पर, बाह्य विषयों में अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम मानने वाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे।

मा! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपद को प्राप्त होगा।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【त्रयस्त्रिंश अध्याय:】३३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयस्त्रिंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"देवहूति को तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपद की प्राप्ति"
मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! श्रीकपिल भगवान् के ये वचन सुनकर कर्दम जी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान् श्रीकपिल जी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं।

देवहूति जी ने कहा- कपिल जी! ब्रह्मा जी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करने वाले आपके पंचभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का, जो सत्त्वादि गुणों के प्रवाह से युक्त, सत्स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है, ध्यान ही किया था। आप निष्क्रिय, सत्यसंकल्प, सम्पूर्ण जीवों के प्रभु तथा सहस्रों अचिन्त्य शक्तियों से सम्पन्न हैं। अपनी शक्ति को गुण प्रवाहरूप से ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना आदि करते हैं। नाथ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदर में प्रलयकाल आने पर यह सारा प्रपंच लीन हो जाता है और जो कल्पान्त में मायामय बालक का रूप धारण कर अपने चरण का अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वट वृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भ में धारण किया।

विभो! आप पापियों का दमन और अपने आज्ञाकारी भक्तों का अभ्युदय एवं कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से देह धारण किया करते हैं। अतः जिस प्रकार आपके वराह आदि अवतार हुए हैं, उसी प्रकार यह कपिलावतार भी मुमुक्षुओं को ज्ञान मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। भगवन्! आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करने से ही कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मण के समान पूजनीय हो सकता है; फिर आपका दर्शन करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाये-इसमें तो कहना ही क्या है। अहो! वह चाण्डाल भी इसी में सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वा के अग्रभाग में आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्थान, सदाचार का पालन और वेदाध्ययन-सब कुछ कर लिया।



कपिलदेव जी! आप साक्षात् परब्रह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियों के प्रवाह को अन्तर्मुख करके अन्तःकरण में आपका ही चिन्तन किया जाता है। आप अपने तेज से माया के कार्य गुण-प्रवाह को शान्त कर देते हैं तथा आपके ही उदर में सम्पूर्ण वेदतत्त्व निहित है। ऐसे साक्षात् विष्णुस्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हूँ।

मैत्रेय जी कहते हैं ;- माता के इस प्रकार स्तुति करने पर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान् कपिलदेव जी ने उनसे गम्भीर वाणी में कहा।

कपिलदेव जी ने कहा ;- माताजी! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी। तुम मेरे इस मत में विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगों ने इसका सेवन किया है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूप को प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मत को नहीं जानते, वे जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ते हैं।

मैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञान का उपदेश कर श्रीकपिलदेव जी अपनी ब्रह्मवादिनी जननी की अनुमति लेकर वहाँ से चले गये। तब देवहूति भी सरस्वती के मुकुट सदृश अपने आश्रम में अपने पुत्र के उपदेश किये हुए योग साधन के द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधि में स्थित हो गयीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयस्त्रिंश अध्यायः श्लोक 14-37 का हिन्दी अनुवाद)

त्रिकाल स्नान करने से उनकी घुँघराली अलकें भूरि-भूरि जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या से कारण दुर्बल हो गया। उन्होंने प्रजापति कर्दम के तप और योगबल से प्राप्त अनुपम गार्हस्थ्य सुख को, जिसके लिये देवता तरसते थे, त्याग दिया। जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सुकोमल शय्या से युक्त हाथी-दाँत के पलंग, सुवर्ण के पात्र, सोने के सिंहासन और उन पर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नों की बनी हुई रमणी-मूर्तियों के सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलों से लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षों से सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव और मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था, जहाँ की कमलगन्ध से सुवासित बावलियों में कर्दम जी के साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीड़ा के लिये प्रवेश करने पर उसका (देवहूति का) गर्न्धवगण गुणगान किया करते थे और जिसे पाने के लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं-उस गृहोद्यान की भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्र वियोग से व्याकुल होने के कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया। पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे आत्मज्ञान सम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करने वाली गौ।

वत्स विदुर! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान् हरि का चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनों में ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न घर से भी उपरत हो गयीं। फिर वे, कपिलदेव जी ने भगवान् के जिस ध्यान करने योग्य प्रसन्नवदनारविन्द युक्त स्वरूप का वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयव का तथा उस समग्र रूप का भी चिन्तन करती हुई ध्यान में तत्पर हो गयीं। भगवद्भक्ति के प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित कर्मानुष्ठान से उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाले ज्ञान द्वारा चित्त शुद्ध हो जाने पर वे उस सर्वव्यापक आत्मा के ध्यान में मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूप के प्रकाश से मायाजनित आवरण को दूर कर देता है। इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परमब्रह श्रीभगवान् में ही बुद्धि की स्थति हो जाने से उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशों से मुक्त होकर परमानन्द में निमग्न हो गयीं। अब निरन्तर समाधिस्थ रहने के कारण उनकी विषयों के सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही-जैसे जागे हुए पुरुष को अपने स्वप्न में देखे हुए शरीर की नहीं रहती।

उनके शरीर का पोषण भी दूसरों के द्वारा ही होता था, किन्तु किसी प्रकार का मानसिक क्लेश न होने के कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैल के कारण धूमयुक्त अग्नि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान् में ही चित्त लगा रहने के कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था।

विदुर जी! इस प्रकार देवहूति जी ने कपिलदेव जी के बताये हुए मार्ग द्वारा थोड़े ही समय में नित्यमुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान् को प्राप्त कर लिया। वीरवर! जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में ‘सिद्धपद’ नाम से विख्यात हुआ।

साधुस्वभाव विदुर जी! योग साधन के द्वारा उनके शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदी के रूप में परिणत हो गया, जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार कि सिद्धि देने वाली है। महायोगी भगवान् कपिल जी भी माता की आज्ञा ले पिता के आश्रम से ईशानकोण की ओर चले गये। वहाँ स्वयं समुद्र ने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकों को शान्ति प्रदान करने के लिये योगमार्ग का अवलम्बन कर समाधि में स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं।

निष्पाप विदुर जी! तुम्हारे पूछने से मैंने तुम्हें यह भगवान् कपिल और देवहूति का परम पवित्र संवाद सुनाया। यह कपिलदेव जी का मत अध्यात्मयोग का गूढ़ रहस्य है। जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान् गरुड़ध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरि के चरणारविन्दों को प्राप्त करता है।

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध:" के 33 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब चतुर्थ स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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