सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ व पच्चीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth and twenty-fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ व पच्चीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth and twenty-fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]



                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【एकविंश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"कर्दम जी की तपस्या और भगवान् का वरदान"
विदुर जी ने पूछा ;- भगवन्! स्वयाम्भुव मनु का वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुन धर्म के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसी की कथा सुनाइये। बह्मन्! आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद ने सातों द्वीपों वाली पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री जो देवहूति नाम से विख्यात थी, कर्दम प्रजापति को ब्याही गयी थी। देवहूति योग के लक्षण यमादि से सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दम जी ने कितनी संतानें उत्पन्न कीं? वह सब प्रसंग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुनने की बड़ी इच्छा है। इसी प्रकार भगवान् रुचि और ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने भी मनु जी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके उनसे किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, वह सब चरित भी मुझे सुनाइये।

मैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! जब ब्रह्मा जी ने भगवान् कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तीर पर तपस्या की। वे एकाग्रचित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचार द्वारा शरणागत वरदायक श्रीहरि की आराधना करने लगे। तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान् श्रीहरि ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्द ब्रह्ममयस्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये। भगवान् की वह भव्यमूर्ति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वे गले में श्वेत कमल और कुमुद के फूलों की माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावली से सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे। सिर पर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानों में जगमगाते हुए कुण्डल और करकमलों में शंख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथ में क्रीड़ा के लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभु की मधुर मुस्कान भरी चितवन चित्त को चुराये लेती थी। उनके चरणकमल गरुड़ जी के कंधों पर विराजमान थे, तथा वक्षःस्थल में श्रीलक्ष्मी जी और कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। प्रभु की इस आकाशास्थित मनोहर मूर्ति का दर्शन करके कर्दम जी को बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्दहृदय से पृथ्वी पर सिर टेककर भगवान् को साष्टांग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवणचित्त से हाथ जोड़कर सुमधुर वाणी से वे उनकी स्तुति करने लगे।

कर्दम जी ने कहा ;- स्तुति करने योग्य परमेश्वर! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुण के आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अन्त में योगस्थ होने पर आपके दर्शनों की इच्छा करते हैं; आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया। आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखों के लिये, जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन्! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं।

प्रभो! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। मेरा हृदय काम-कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाव-वाली और गृहस्थ धर्म के पालन में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने के लिये आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

सर्वेश्वर! आप सम्पूर्ण लोकों के अधिपति हैं। नाना प्रकार की कामनाओं में फँसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरी में बँधा है। धर्ममूर्ते! उसी का अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको आज्ञापालनरूप पुजोपहारादि समर्पित करता हूँ।

प्रभो! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करने वाले मुझ-जैसे कर्मजड़ पशुओं को कुछ भी न गिनकर आपके चरणों की छत्रच्छाया का ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक सुधा का ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मों को शान्त करते रहते हैं। प्रभो! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमने की धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं, छः ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत् की आयु का छेदन करता हुआ घूमता रहता है, किंतु आपके भक्तों की आयु का ह्रास नहीं कर सकता।

भगवन्! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जाले को फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्त में उसे निगल जाती है-उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की रचना करने के लिये अपने में अभिन्न अपनी योगमाया को स्वीकार कर उसे अभीव्यक्त हुई अपनी सत्त्वादि शक्तियों द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं। प्रभो! इस समय आपने हमें अपनी तुलसी मालामण्डित, माया से परिच्छिन्न-सी दिखायी देने वाली सगुणमूर्ति से दर्शन दिया है। आप हम भक्तों को जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होने के कारण यद्यपि आपकी पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाम में हमारा शुभ करने के लिये वे हमें प्राप्त हों-नाथ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलाने वाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करने वाले पर भी समस्त अभिलाषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

मैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवान् की भौंहें प्रणय मुस्कान भरी चितवन से चंचल हो रही थीं, वे गरुड़ जी के कंधे पर विराजमान थे। जब कर्दम जी ने इस प्रकार निष्कपट भाव से उनकी स्तुति की, तब वे उनसे अमृतमयी वाणी से कहते लगे।

श्रीभगवान् ने कहा ;- जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है। प्रजापते! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिसका चित्त निरन्तर एकान्तरूप से मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है। प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्र वाली सारी पृथ्वी का शासन करते हैं। विप्रवर! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के साथ तुमसे मिलने के लिये परसों यहाँ आयेंगे। उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणों से सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाह के योग्य है। प्रजापते! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हीं को वह कन्या अर्पण करेंगे। ब्रह्मन्! गत अनेकों वर्षों से तुम्हारा चित्त जैसी भार्या के लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद)

वह तुम्हारा वीर्य अपने गर्भ में धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओं से लोकरीति के अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगें। तुम भी मेरी आज्ञा का अच्छी तरह पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पण कर मुझको ही प्राप्त होओगे। जीवों पर दया करते हुए तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को मुझमें और मुझको अपने में स्थित देखोगे। महामुने! मैं भी अपने अंश-कलारूप से तुम्हारे वीर्य द्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ में अवतीर्ण होकर सांख्य शास्त्र की रचना करूँगा।

मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! कर्दम ऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियों के अन्तर्मुख होने पर प्रकट होने वाले श्रीहरि सरस्वती नदी से घिरे हुए बिन्दुसर तीर्थ से (जहाँ कर्दम ऋषि तप कर रहे थे) अपने लोक को चले गये। भगवान के सिद्धमार्ग (वैकुण्ठ मार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं। वे कर्दम जी के देखते-देखते अपने लोक को सिधार गये। उस समय गरुड़ जी के पक्षों से जो साम की आधार भूता ऋचाएँ निकल रही थीं, उन्हें वे सुनते जाते थे।

विदुर जी! श्रीहरि के चले जाने पर भगवान कर्दम उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दु सरोवर पर ही ठहरे रहे।

वीरवर! इधर मनु जी भी महारानी शतरूपा के साथ सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर तथा उस पर अपनी कन्या को भी बिठाकर पृथ्वी पर विचरते हुए, जो दिन भगवान ने बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण महर्षि कर्दम के उस आश्रम पर पहुँचे। सरस्वती के जल से भरा हुआ यह बिन्दु सरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत भक्त कर्दम के प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणा के वशीभूत हुए भगवान् के नेत्रों से आँसुओं की बूँदें गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल कल्याणमय और अमृत के समान मधुर है तथा महर्षिगण सदा इसका सेवन करते हैं।

उस समय बिन्दु सरोवर पवित्र वृक्ष-लताओं से घिरा हुआ था, जिनमें तरह-तरह की बोली बोलने वाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह स्थान सभी ऋतुओं के फल और फूलों से सम्पन्न था और सुन्दर वन श्रेणी भी उसकी शोभा बढ़ाती थी। वहाँ झुंड-के-झुंड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले भौंरे मंडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ फैला-फैलाकर नट की भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू-कुहू करके मानो एक-दूसरे को बुला रहे थे। वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक, करंज, बकुल, असन, कुन्द, मन्दार, कुटज और नये-नये आम के वृक्षों से अलंकृत था। वहाँ जलकाग, बत्तख आदि जल पर तैरने वाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग, सारस, चकवा और चकोर मधुर स्वर से कलरव कर रहे थे। हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरी मृग आदि पशुओं से भी वह आश्रम घिरा हुआ था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद)

आदिराज महाराज मनु ने उस उत्तम तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्निहोत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए हैं। बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान् के स्नेहपूर्ण चितवन के दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुनने से, इतने दिनों तक तपस्या करने पर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे। उनका शरीर लम्बा था, नेत्र कमलदल के समान विशाल और मनोहर थे, सिर पर जटाएँ सुशोभित थीं और कमर में चीर-वस्त्र थे। वे निकट से देखने पर बिना सान पर चढ़ी हुई महामूल्य मणि के समान मलिन जान पड़ते थे।

महाराज स्वायम्भुव मनु को अपनी कुटी में आकर प्रणाम करते देख उन्होंने उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्य की रीति से उनका स्वागत-सत्कार किया। जब मनु जी उनकी पूजा ग्रहण कर स्वस्थचित्त से आसन पर बैठ गये, तब मुनिवर कर्दम ने भगवान् की आज्ञा का स्मरण कर उन्हें मधुर वाणी से प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा- ‘देव! आप भगवान् विष्णु की पालनशक्तिरूप हैं, इसलिये आपका घूमना-फिरना निःसन्देह सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिए ही होता है। आप साक्षात् विशुद्ध विष्णुस्वरूप हैं तथा भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको नमस्कार है।

आप मणियों से जड़े हुए जयदायक रथ पर सवार हो अपने प्रचण्ड धनुष की टंकार करते हुए उस रथ की घरघराहट से ही पापियों को भयभीत कर देते हैं और अपनी सेना के चरणों से रौंदे हुए भूमण्डल को कँपाते अपनी उस विशाल सेना को साथ लेकर पृथ्वी पर सूर्य के समान विचरते हैं। यदि आप ऐसा न करें तो चोर-डाकू भगवान् की बनायी हुई वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा को तत्काल नष्ट कर दें तथा विषयलोलुप निरंकुश मानवों द्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाये। यदि आप संसार की ओर से निश्चिन्त हो जायें तो यह लोक दुराचारियों के पंजे में पड़कर नष्ट हो जाये। तो भी वीरवर! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजन से हुआ है; मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट भाव से सहर्ष स्वीकार करूँगा।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【द्वाविंश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अथ द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार जब कर्दम जी ने मनु जी के सम्पूर्ण गुणों और कर्मों की श्रेष्ठता का वर्णन किया तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनि से कुछ सकुचाकर कहा।

मनु जी ने कहा ;- मुने! वेदमूर्ति भगवान् ब्रह्मा ने अपने वेदमय विग्रह की रक्षा के लिए तप, विद्या और योग से सम्पन्न तथा विषयों में अनासक्त आप ब्राह्मणों को अपने मुख से प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणों वाले विराट् पुरुष ने आप लोगों की रक्षा के लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओं से हम क्षत्रियों को उत्पन्न किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं। अतः एक ही शरीर से सम्बद्ध होने के कारण अपनी-अपनी और एक-दूसरे की रक्षा करने वाले उन ब्राह्मण और क्षत्रियों की वास्तव में श्रीहरि ही रक्षा करते हैं, जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तव में निर्विकार हैं। आपके दर्शनमात्र से ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी प्रशंसा के मिस से स्वयं ही प्रजापालन की इच्छा वाले के धर्मों का बड़े प्रेम से निरूपण किया है। आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषों को बहुत दुर्लभ है; मेरा बड़ा भाग्य है जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणों की मंगलमयी रज अपने सिर पर चढ़ा सका। मेरे भाग्योदय से ही आपने मुझे राजधर्मों की शिक्षा देकर मुझ पर महान् अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्ध का उदय होने से ही आपकी पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है।

मुने! इस कन्या के स्नेहवश मेरा चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अतः मुझ दीन की यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें। यह मेरी कन्या-जो प्रियव्रत और उत्तानपाद की बहिन है-अवस्था, शील और गुण आदि में अपने योग्य पति को पाने की इच्छा रखती है। जब से नारद जी के मुख से आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणों का वर्णन सुना है, तभी से यह आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर चुकी है। द्विजवर! मैं बड़ी श्रद्धा से आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्यों के लिये सब प्रकार आपके योग्य है। जो भोग स्वतः प्राप्त हो जाये, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुष को भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्त की तो बात ही क्या है। जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोग का निरादर कर फिर किसी कृपण के आगे हाथ पसारता है, उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और दूसरों के तिरस्कार से मान भंग भी होता है। विद्वन्! मैंने सुना है, आप विवाह करने के लिये उद्यत हैं। आपका ब्रह्मचर्य एक सीमा तक है, आप नैष्ठित ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्या को स्वीकार कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ।

श्रीकर्दम मुनि ने कहा ;- ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्या का अभी किसी से साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनों का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मा विधि से विवाह होना उचित ही होगा। राजन्! वेदोक्त विवाह-विधि में प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रों में बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्या के साथ हमारा सम्बन्ध होने से सफल होगा। भला, जो अपनी अंगकान्ति से आभूषणादि की शोभा को भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्या का कौन आदर न करेगा?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)

एक बार यह अपने महल की छत पर गेंद खेल रही थी। गेंद के पीछे इधर-उधर दौड़ने के कारण इसके नेत्र चंचल हो रहे थे तथा पैरों के पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमान से गिर पड़ा था। वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्था में कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा? यह तो साक्षात् आप महाराज श्रीस्वायम्भुव मनु की दुलारी कन्या और उत्तानपाद की प्यारी बहिन है; तथा यह रमणियों में रत्न के समान है। जिन लोगों ने कभी श्रीलक्ष्मी जी के चरणों की उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता। अतः मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्त के साथ। जब तक इसके संतान न हो जायेगी, तब तक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान् के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दामादि धर्मों को ही अधिक महत्त्व दूँगा। जिनसे इस विचित्र जगत् की उत्पत्ति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रय से यह स्थित है-मुझे तो वे प्रजापतियों के भी पति भगवान् श्रीअनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं।

मैत्रेय जी कहते हैं ;- प्रचण्ड धनुर्धर विदुर! कर्दम जी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदय में भगवान् कमलनाभ का ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उसके मन्द हास्ययुक्त मुखकमल को देखकर देवहूति का चित्त लुभा गया। मनु जी ने देखा कि इस सम्बन्ध में महारानी शतरूपा और राजकुमारी की स्पष्ट अनुमति है, अतः उन्होंने अनेक गुणों में सम्पन्न कर्दम जी को उन्हीं के समान गुणवती कन्या का प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया। महारानी शतरूपा ने भी बेटी और दामाद को बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेज में दिये। इस प्रकार सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोग न सह सकने के कारण उन्होंने उत्कण्ठावश विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छाती से चिपटा लिया और ‘बेटी! बेटी!’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूति के सिर के सारे बाल भिगो दिये। फिर वे मुनिवर कर्दम से पूछकर, उनकी आज्ञा ले रानी के सहित रथ पर सवार हुए और अपने सेवकों सहित ऋषिकुल सेवित सरस्वती नदी के दोनों तीरों पर मुनियों के आश्रमों की शोभा देखते हुए अपनी राजधानी में चले आये।

जब ब्रह्मावर्त की प्रजा को यह समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं, तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजे के साथ अगवानी करने के लिये ब्रह्मावर्त की राजधानी से बाहर आयी। सब प्रकार की सम्पदाओं से युक्त बर्हिष्मती नगरी मनु जी की राजधानी थी, जहाँ पृथ्वी को रसातल से ले आने के पश्चात् शरीर कँपाते समय श्रीवराह भगवान् के रोम झड़कर गिरे थे। वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहने वाले कुश और कास हुए, जिनके द्वारा मुनियों ने यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों का तिरस्कार कर भगवान् यज्ञपुरुष की यज्ञों द्वारा आराधना की है। महाराज मनु ने भी श्रीवराह भगवान् से भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होने पर इसी स्थान में कुश और कास की बर्हि (चटाई) बिछाकर श्रीयज्ञ भगवान् की पूजा की थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 32-39 का हिन्दी अनुवाद)

जिस बर्हिष्मती पुरी में मनु जी निवास करते थे, उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवन में प्रवेश किया। वहाँ अपनी भार्या और सन्तति के सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्ष के अनुकूल भोगों को भोगने लगे। प्रातःकाल होने पर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियों के सहित उनका गुणगान करते थे; किन्तु मनु जी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदय से श्रीहरि कथाएँ ही सुना करते थे। वे इच्छानुसार भोगों का निर्माण करने में कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होने के कारण भोग उन्हें किंचित् भी विचलित नहीं कर पाते थे।

भगवान् विष्णु की कथाओं का श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहने के कारण उनके मन्वन्तर को व्यतीत करने वाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे। इस प्रकार अपनी जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणों को अभिभूत करके उन्होंने भगवान् वासुदेव के कथाप्रसंग में अपने मन्वन्तर के इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये।

व्यासनन्दन विदुर जी! जो पुरुष श्रीहरि के आश्रित रहता है उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं। मनु जी निरन्तर समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे। मुनियों के पूछने पर उन्होंने मनुष्यों के तथा समस्त वर्ण और आश्रमों के अनेक प्रकार के मंगलमय धर्मों का भी वर्णन किया (जो मनुसंहिता के रूप में अब भी उपलब्ध है)। जगत् के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तव में कीर्तन के योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्र का वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूति का प्रभाव सुनो।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【त्रयोविंश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"कर्दम और देवहूति का विहार"
श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! माता-पिता के चले जाने पर पति के अभिप्राय को समझ लेने में कुशल साध्वी देवहूति कर्दम जी की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वती जी भगवान् शंकर की सेवा करती हैं। उसने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप और मद का त्याग कर बड़ी सावधानी और लगन के साथ सेवा में तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुर भाषणादि गुणों से अपने परम तेजस्वी पतिदेव को सन्तुष्ट कर लिया। देवहूति समझती थी कि मेरे पतिदेव दैव से भी बढ़कर हैं, इसलिये वह उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ रखकर उनकी सेवा में लगी रहती थी। इस प्रकार बहुत दिनों तक अपना अनुवर्तन करने वाली उस मनुपुत्री को व्रतादि का पालन करने से दुर्बल हुई देख देवर्षिश्रेष्ठ कर्दम को दयावश कुछ खेद हुआ और उन्होंने उससे प्रेमगद्गद वाणी में कहा।

कर्दम जी बोले ;- मनुनन्दिनी! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी देहधारियों को अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदर की वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवा के आगे उसके क्षीण होने की भी कोई परवा नहीं की। अतः अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप, समाधि, उपासना और योग के द्वारा जो भय और शोक से रहित भगवत्प्रसाद-स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुईं हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो। अन्य जितने भी भोग हैं, वे तो भगवान् श्रीहरि के भ्रुकुटि-विलासमात्र से नष्ट हो जाते हैं; अतः वे इनके आगे कुछ भी नहीं है। तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गयी हो; अपने पातिव्रत-धर्म का पालन करने से तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्यों को इन दिव्य भोगों की प्राप्ति होनी कठिन है।

कर्दम जी के इस प्रकार कहने से अपने पतिदेव को सम्पूर्ण योगमाया और विद्याओं में कुशल जानकर उस अबला की सारी चिन्ता जाती रही। उसका मुख किंचित् संकोच भरी चितवन और मधुर मुस्कान से खिल उठा और वह विनय एवं प्रेम से गद्गद वाणी में इस प्रकार कहने लगी।

देवहूति ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ! स्वामिन्! मैं यह जानती हूँ कि कभी निष्फल न होने वाली योगशक्ति और त्रिगुणात्मिक माया पर अधिकार रखने वाले आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु प्रभो! आपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ-सुख का उपभोग करूँगा, उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पति के द्वारा सन्तान प्राप्त होना पतिव्रता स्त्री के लिये महान् लाभ है। हम दोनों के समागम के लिये शास्त्र के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसका आप उपदेश दीजिये और उबटन, गन्ध, भोजन आदि उपयोगी सामग्रियाँ भी जुटा दीजिये, जिससे मिलन की इच्छा से अत्यन्त दीन दुर्बल हुआ मेरा यह शरीर आपके अंग-संग के योग्य हो जाये; क्योंकि आपकी ही बढ़ायी हुई कामवेदना से मैं पीड़ित हो रही हूँ। स्वामिन्! इस कार्य के लिये एक उपयुक्त भवन तैयार हो जाये, इसका भी विचार कीजिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 12-29 का हिन्दी अनुवाद)

मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! कर्दम मुनि ने अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी समय योग में स्थित होकर एक विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था। यह विमान सब प्रकार के इच्छित भोग-सुख प्रदान करने वाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकार के रत्नों से युक्त, सब सम्पत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि से सम्पन्न तथा मणिमय खंभों से सुशोभित था। वह सभी ऋतुओं में सुखदायक था और उसमें जहाँ-तहाँ सब प्रकार की दिव्य सामग्रियाँ रखी हुईं थीं तथा उसे चित्र-विचित्र रेशमी झंडियों और पताकाओं से खूब सजाया गया था। जिन पर भ्रमरगण मधुर गुंजार कर रहे थे, ऐसे रंग-बिरंगे पुष्पों की मालाओं से तथा अनेक प्रकार के सूती और रेशमी वस्त्रों से वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था।

एक के ऊपर एक बनाये हुए कमरों में अलग-अलग रखी हुई शय्या, पलंग, पंखे और आसनों के कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। जहाँ-तहाँ दीवारों में की हुई शिल्प रचना से उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें पन्ने का फर्श था और बैठने के लिये मूँगे की वेदियाँ बनायी गयी थीं। मूँगे की ही देहलियाँ थीं। उसके द्वारों में हीरे के किवाड़ थे तथा इन्द्रनील मणि के शिखरों पर सोने के कलश रखे हुए थे। उसकी हीरे की दीवारों में बढ़िया लाल जड़े हुए थे, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विमान की आँखें हों तथा उसे रंग-बिरंगे चंदोवे और बहुमूल्य सुनहरी बन्दनवारों से सजाया गया था। उस विमान में जहाँ-तहाँ कृत्रिम हंस और कबूतर आदि पक्षी बनाये गये थे, जो बिलकुल सजीव-से मालूम पड़ते थे; उन्हें अपना सजातीय समझकर बहुत-से हंस और कबूतर उनके पास बैठ-बैठकर अपनी बोली बोलते थे। उसमें सुविधानुसार क्रीड़ास्थली, शयनगृह, बैठक, आँगन और चौक आदि बनाये गये थे-जिनके कारण वह विमान स्वयं कर्दम जी को भी विस्मित-सा कर रहा था।

ऐसे सुन्दर घर को भी जब देवहूति ने बहुत प्रसन्न चित्त से नहीं देखा तो सबके आन्तरिक भाव को परख लेने वाले कर्दम जी ने स्वयं ही कहा- ‘भीरु! तुम इस बिन्दुसर सरोवर में स्नान करके विमान पर चढ़ जाओ; यह विष्णु भगवान् का रचा हुआ तीर्थ मनुष्यों को सभी कामनाओं की प्राप्ति कराने वाला है’।

कमललोचना देवहूति ने अपने पति की बात मानकर सरस्वती के पवित्र जल से भरे हुए उस सरोवर में प्रवेश किया। उस समय वह बड़ी मैली-कुचैली साड़ी पहले हुए थी, उसके सिर के बाल चिपक जाने से उनमें लटें पड़ गयी थीं, शरीर में मैल जम गया था तथा स्तन कान्तिहीन हो गये थे। सरोवर में गोता लगाने पर उसने उसके भीतर एक महल में एक हजार कन्याएँ देखीं। वे सभी किशोर-अवस्था की थीं और उनके शरीर से कमल की-सी गन्ध आती थी। देवहूति को देखते ही वे सब स्त्रियाँ सहसा खड़ी हो गयीं और हाथ जोड़कर कहने लगीं, ‘हम आपकी दासियाँ हैं; हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें?

विदुर जी! तब स्वामिनी को सम्मान देने वाली उन रमणियों ने बहुमूल्य मसालों तथा गन्ध आदि से मिश्रित जल के द्वारा मनस्विनी देवहूति को स्नान कराया तथा उसे दो नवीन और निर्मल वस्त्र पहनने को दिये। फिर उन्होंने ये बहुत मूल्य के बड़े सुन्दर और कान्तिमान् आभूषण, सर्वगुणसम्पन्न भोजन और पीने के लिये अमृत के समान स्वादिष्ट आसव प्रस्तुत किये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 30-44 का हिन्दी अनुवाद)

अब देवहूति ने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखा तो उसे मालूम हुआ कि वह भाँति-भाँति के सुगंधित फूलों के हारों से विभूषित है, स्वच्छ वस्त्र धारण किये हुए है, उसका शरीर भी निर्मल और कान्तिमान् हो गया है तथा उन कन्याओं ने बड़े आदरपूर्वक से उसका मांगलिक श्रृंगार किया है। उसे सिर से स्नान कराया गया है, स्नान के पश्चात् अंग-अंग में सब प्रकार के आभूषण सजाये गये हैं तथा उसके गले में हार-हुमेल, हाथों में कंकण और पैरों में छमछमाते हुए सोने के पायजेब सुशोभित हैं। कमर में पड़ी हुई सोने की रत्न जटित करधनी से, बहुमूल्य मणियों के हार से और अंग-अंग में लगे हुए कुंकुमादि मंगल द्रव्यों से उसकी अपूर्व शोभा हो रही है। उसका मुख सुन्दर दन्तावली, मनोहर भौंहें, कमल की कली से स्पर्धा करने वाले प्रेम कटाक्षमय सुन्दर नेत्र और नीली अलकावली से बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता है।

विदुर जी! जब देवहूति ने अपने प्रिय पतिदेव का स्मरण किया, तो अपने को सहेलियों के सहित वहीं पाया, जहाँ प्रजापति कर्दम जी विराजमान थे। उस समय अपने को सहस्रों स्त्रियों के सहित अपने प्राणनाथ के सामने देख और उनके योग का प्रभाव समझकर देवहूति को बड़ा विस्मय हुआ।

शत्रुविजयी विदुर! जब कर्दम जी ने देखा कि देवहूति का शरीर स्नान करने से अत्यन्त निर्मल हो गया है, और विवाह काल से पूर्व उसका जैसा रूप था, उसी रूप को पाकर वह अपूर्व शोभा से सम्पन्न हो गयी है। उसका सुन्दर वक्षःस्थल चोली से ढका हुआ है, हजारों विद्याधरियाँ उसकी सेवा में लगी हुई हैं तथा उसके शरीर पर बढ़िया-बढ़िया वस्त्र शोभा पा रहे हैं, तब उन्होंने बड़े प्रेम से उसे विमान पर चढ़ाया। उस समय अपनी प्रिया के प्रति अनुरक्त होने पर भी कर्दम जी की महिमा (मन और इन्द्रियों पर प्रभुता) कम नहीं हुई। विद्याधरियाँ उनके शरीर की सेवा कर रही थीं। खिले हुए कुमुद के फूलों से श्रृंगार करके अत्यन्त सुन्दर बने हुए वे विमान पर इस प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो आकाश में तारागण से घिरे हुए चन्द्रदेव विराजमान हों।

उस विमान पर निवास कर उन्होंने दीर्घकाल तक कुबेर जी के समान मेरु पर्वत की घाटियों में विहार किया। ये घाटियाँ आठों लोकपालों की विहार भूमि हैं; इसमें कामदेव को बढ़ाने वाली शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर इनकी कमनीय शोभा का विस्तार करती है तथा श्रीगंगा जी के स्वर्गलोक से गिरने की मंगलमय ध्वनि निरन्तर गूँजती रहती है। उस समय भी दिव्य विद्याधरियों का समुदाय उनकी सेवा में उपस्थित था और सिद्धगण वन्दना किया करते थे। इसी प्रकार प्राणप्रिया देवहूति के साथ उन्होंने वैश्रम्भ्क, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र और चैत्ररथ आदि अनेकों देवोद्यानों तथा मानस-सरोवर में अनुरागपूर्वक विहार किया। उस कान्तिमान् और इच्छानुसार चलने वाले श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वायु के समान सभी लोकों में विचरते हुए कर्दम जी विमानविहारी देवताओं से भी आगे बढ़ गये।

विदुर जी! जिन्होंने भगवान् के भवभयहारी पवित्र पादपद्मों का आश्रय लिया है, उन धीर पुरुषों के लिये कौन-सी वस्तु या शक्ति दुर्लभ है। इस प्रकार महायोगी कर्दम जी यह सारा भूमण्डल, जो द्वीप-वर्ष आदि की विचित्र रचना के कारण बड़ा आश्चर्यमय प्रतीत होता है, अपनी प्रिया को दिखाकर अपने आश्रम को लौट आये। फिर उन्होंने अपने को नौ रूपों में विभक्त कर रतिसुख के लिये अत्यन्त उत्सुक मनुकुमारी देवहूति को आनन्दित करते हुए उसके साथ बहुत वर्षों तक विहार किया, किन्तु उनका इतना लम्बा समय एक मुहूर्त के समान बीत गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 45-57 का हिन्दी अनुवाद)

उस विमान में रतिसुख को बढ़ाने वाली बड़ी सुन्दर शय्या का आश्रय ले अपने परम रूपवान् प्रियतम के साथ रहती हुई देवहूति को इतना काल कुछ भी न जान पड़ा। इस प्रकार उस कामासक्त दम्पत्ति को अपने योगबल से सैकड़ों वर्षों तक विहार करते हुए भी वह काल बहुत थोड़े समय के समान निकल गया।

आत्मज्ञानी कर्दम जी सब प्रकार के संकल्पों को जानते थे; अतः देवहूति को सन्तान प्राप्ति के लिये उत्सुक देख तथा भगवान् के आदेश को स्मरणकर उन्होंने अपने स्वरूप के नौ विभाग किये तथा कन्याओं की उत्पत्ति के लिये एकाग्रचित्त से अर्धांगरूप से अपनी पत्नी की भावना करते हुए उसके गर्भ में वीर्य स्थापित किया। इससे देवहूति के एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुई। वे सभी सर्वांग सुन्दरी थीं और उनके शरीर से लाल कमल की-सी सुगन्ध निकलती थी।

इसी समय शुद्ध स्वभाव वाली सती देवहूति ने देखा कि पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उसके पतिदेव संन्यासश्रम ग्रहण करके वन को जाना चाहते हैं तो उसने अपने आँसुओं को रोककर ऊपर से मुसकराते हुए व्याकुल एवं संतप्त हृदय से धीरे-धीरे अति मधुर वाणी में कहा। उस समय वह सिर नीचा किये हुए अपने नखमणिमण्डित चरणकमल से पृथ्वी को कुरेद रही थी।

देवहूति ने कहा ;- भगवन्! आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी, वह सब तो पूर्णतः निभा दी; तो भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अतः आप मुझे अभयदान और दीजिये। ब्रह्मन्! इन कन्याओं के लिये योग्य वर खोजने पड़ेंगे और आपके वन को चले जाने के बाद मेरे जन्म-मरणरूप शोक को दूर करने के लिये भी कोई होना चाहिये। प्रभो! अब तक परमात्मा से विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगने में बीता है, वह तो निरर्थक ही गया। आपके परम प्रभाव को न जानने के कारण ही मैंने इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहकर आपसे अनुराग किया तथापि यह भी मेरे संसार-भय को दूर करने वाला ही होना चाहिये। अज्ञानवश असत्पुरुषों के साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धन का कारण होता है, वही सत्पुरुषों के साथ किये जाने पर असंगता प्रदान करता है। संसार में जिस पुरुष के कर्मों से न तो धर्म का सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान् की सेवा ही सम्पन्न होती है, वह पुरुष जीते ही मुर्दे के समान है। अवश्य ही मैं भगवान् की माया से बहुत ठगी गयी, जो आप-जैसे मुक्तिदाता पतिदेव को पाकर भी मैंने संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा नहीं की।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【चतुर्विंश अध्याय:】

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीकपिल देव जी का जन्म"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- उत्तम गुणों से सुशोभित मनुकुमारी देवहूति ने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब कृपालु कर्दम मुनि को भगवान् विष्णु के कथन का स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा।

कर्मद जी बोले ;- दोषरहित राजकुमारी! तुम अपने विषय में इस प्रकार का खेद न करो; तुम्हारे गर्भ में अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे। प्रिये! तुमने अनेक प्रकार के व्रतों का पालन किया है, अतः तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान् का भजन करो। इस प्रकार आराधना करने पर श्रीहरि तुम्हारे गर्भ से अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करके तुम्हारे हृदय की अहंकारमयी ग्रन्थि का छेदन करेंगे।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! प्रजापति कर्दम के आदेश में गौरव-बुद्धि होने से देवहूति ने उस पर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान् श्रीपुरुषोत्तम की आराधना करने लगी। इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर भगवान् मधुसूदन कर्दम जी के वीर्य का आश्रय ले उसके गर्भ से इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठ में से अग्नि। उस समय आकाश में मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर नाचने लगीं। आकाश से देवताओं के बरसाये हुए दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी; सब दिशाओं में आनन्द छा गया, जलाशयों का जल निर्मल हो गया और सभी जीवों के मन प्रसन्न हो गये। इसी समय सरस्वती नदी से घिरे हुए कर्दम जी के उस आश्रम में मरीचि आदि मुनियों के सहित श्रीब्रह्मा जी आये।

शत्रुदमन विदुर जी! स्वतःसिद्ध ज्ञान से सम्पन्न अजन्मा ब्रह्मा जी को यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्र का उपदेश करने के लिये अपने विशुद्ध सत्त्वमय अंश से अवतीर्ण हुए हैं। अतः भगवान् जिस कार्य को करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चित्त से अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दम जी से इस प्रकार कहा।

श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- प्रिय कर्दम! तुम दूसरों को मान देने वाले हो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञा का पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट-भाव से मेरी पूजा सम्पन्न हुई है। पुत्रों को अपने पिता की सबसे बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेश को स्वीकार करे। बेटा! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशों द्वारा इस सृष्टि को अनेक प्रकार से बढ़ावेंगी। अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरों को इनके स्वभाव और रुचि के अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसार में अपना सुयश फैलाओ। मुने! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियों की निधि हैं-उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमाया से कपिल के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। [फिर देवहूति से बोले-] राजकुमारी! सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलांकित चरणकमलों वाले शिशु के रूप में कैटभासुर को मारने वाले साक्षात् श्रीहरि ने ही, ज्ञान-विज्ञान द्वारा कर्मों की वासनाओं का मूलोच्छेद करने के लिये, तेरे गर्भ में प्रवेश किया है। वे अविद्याजनित मोह की ग्रन्थियों को काटकर पृथ्वी में स्वच्छन्द विचरेंगे। ये सिद्धगणों के स्वामी और सांख्याचार्यो के भी माननीय होंगे। लोक में तेरी कीर्ति का विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नाम से विख्यात होंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी उन दोनों को इस प्रकार आश्वासन देकर नारद और सनकादि को साथ ले, हंस पर चढ़कर ब्रह्मलोक को चले गये। ब्रह्मा जी के चले जाने पर कर्दम जी ने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियों के साथ अपनी कन्याओं का विधिपूर्वक विवाह कर दिया। उन्होंने अपनी कला नाम की कन्या मरीचि को, अनसूया अत्रि को, श्रद्धा अंगिरा को और हविर्भू पुलस्त्य को समर्पित की।

पुलह को उनके अनुरूप गति नाम की कन्या दी, क्रतु के साथ परम साध्वी क्रिया का विवाह किया, भृगु जी को ख्याति और वसिष्ठ जी को अरुन्धती समर्पित की। अथर्वा ऋषि को शान्ति नाम की कन्या दी, जिससे यज्ञकर्म का विस्तार किया जाता है। कर्दम जी ने उन विवाहित ऋषियों का उनकी पत्नियों के सहित खूब सत्कार किया।

विदुर जी! इस प्रकार विवाह हो जाने पर वे सब ऋषि कर्दम जी की आज्ञा ले अतिआनन्दपूर्वक अपने-अपने आश्रमों को चले गये। कर्दम जी ने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् देवाधिदेव श्रीहरि ने अवतार लिया है तो वे एकान्त में उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे। ‘अहो! अपने पाप कर्मों के कारण इस दुःखमय संसार में नाना प्रकार से पीड़ित होते हुए पुरुषों पर देवगण तो बहुत काल बीतने पर प्रसन्न होते हैं। किन्तु जिनके स्वरूप को योगिजन अनेकों जन्मों के साधन से सिद्ध हुई सुदृढ़ समाधि के द्वारा एकान्त में देखने का प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तों की रक्षा करने वाले वे ही श्रीहरि हम विषयलोलुपों के द्वारा होने वाली अपनी अवज्ञा का कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं। आप वास्तव में अपने भक्तों का मान बढ़ाने वाले हैं। आपने अपने वचनों को सत्य करने और सांख्ययोग का उपदेश करने के लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है।

भगवन्! आप प्राकृतरूप से रहित हैं, आपके जो चतुर्भुत आदि अलौकिक रूप हैं, वे ही आपके योग्य हैं तथा जो मनुष्य-सदृश रूप आपके भक्तों को प्रिय लगते हैं, वे भी आपको रुचिकर प्रतीत होते हैं। आपका पाद-पीठ तत्त्व ज्ञान की इच्छा से विद्वानों द्वारा सर्वदा वन्दनीय है तथा आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य और श्री- इन छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। भगवन्! आप परब्रह्म हैं; सारी शक्तियाँ आपके अधीन हैं; प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, काल, त्रिविध अहंकार, समस्त लोक एवं लोकपालों के रूप में आप ही प्रकट हैं; तथा आप सर्वज्ञ परमात्मा ही इस सारे प्रपंच को चेतनशक्ति के द्वारा अपने में लीन कर लेते हैं। अतः इन सबसे परे भी आप ही हैं। मैं आप भगवान् कपिल की शरण लेता हूँ। प्रभो! आपकी कृपा से मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया हूँ और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास-मार्ग को ग्रहण कर आपका चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरूँगा। आप समस्त प्रजाओं के स्वामी हैं; अतएव इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 35-47 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीभगवान् ने कह ;- मुने! वैदिक और लौकिक सभी कर्मों में संसार के लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि ‘मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा’, उसे सत्य करने के लिये ही मैंने यह अवतार लिया है। इस लोक में मेरा यह जन्म लिंगशरीर से मुक्त होने की इच्छा वाले मुनियों के लिये आत्मदर्शन में उपयोगी प्रकृति आदि तत्त्वों का विवेचन करने के लिये ही हुआ है। आत्मज्ञान का यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समय से लुप्त हो गया है। इसे फिर से प्रवर्तित करने के लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है- ऐसा जानो।

मुने! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्यु को जीतकर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये मेरा भजन करो। मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवों के अन्तःकरणों में रहने वाला परमात्मा हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में मेरा साक्षात्कार कर लोगे, तब सब प्रकार के शोकों से छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे। माता देवहूति को भी मैं सम्पूर्ण कर्मों से छुड़ाने वाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भय से पार हो जायेगी।

श्रीमैत्रेय जी कहते हे ;- भगवान् कपिल के इस प्रकार कहने पर प्रजापति कर्दम जी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वन को चले गये। वहाँ अहिंसामय संन्यास-धर्म का पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान् की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रम का त्याग करके निःसंग भाव पृथ्वी पर विचरने लगे। जो कार्यकारण से अतीत है, सात्वादि गुणों का प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष होता है, उस परब्रह्म में उन्होंने अपना मन लगा दिया। वे अहंकार, ममता और सुख-दुःखादि द्वन्दों से छूटकर समदर्शी (भेददृष्टि से रहित) हो, सबमें अपने आत्मा को ही देखने लगे। उनकी बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी। उस समय धीर कर्दम जी शान्त लहरों वाले समुद्र के समान जान पड़ने लगे। परम भक्तिभाव के द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेव में चित्त स्थिर हो जाने से वे सारे बन्धनों से मुक्त हो गये। सम्पूर्ण भूतों में अपने आत्मा श्रीभगवान् को और सम्पूर्ण भूतों को आत्मस्वरूप श्रीहरि में स्थित देखने लगे। इस प्रकार इच्छा और द्वेष से रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्ति से सम्पन्न होकर श्रीकर्दम जी ने भगवान् का परमपद प्राप्त कर लिया।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【पंचविंश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"देवहूति का प्रश्न तथा भगवान् कपिल द्वारा भक्तियोग की महिमा का वर्णन"
शौनक जी ने पूछा ;- सूतजी! तत्त्वों की संख्या करने वाले भगवान् कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिये अपनी माया से उत्पन्न हुए थे। मैंने भगवान् के बहुत-से चरित्र सुने हैं, तथापि इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिल जी की कीर्ति को सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होतीं। सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमाया द्वारा भक्तों की इच्छा के अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन करने योग्य हैं; अतः आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुनने में बड़ी श्रद्धा है।

सूत जी कहते हैं ;- मुने! आपकी ही भाँति जब विदुर ने भी यह आत्मज्ञान विषयक प्रश्न किया, तो श्रीव्यास जी के सखा भगवान् मैत्रेय जी प्रसन्न होकर इस प्रकार कहने लगे।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! पिता के वन में चले जाने पर भगवान् कपिल जी माता का प्रिय करने की इच्छा से उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे। एक दिन तत्त्व समूह के पारदर्शी भगवान् कपिल कर्मकलाप से विरत हो आसन पर विराजमान थे। उस समय ब्रह्मा जी के वचनों का स्मरण करके देवहूति ने उनसे कहा।

देवहूति बोली ;- भूमन्! प्रभो! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं। आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान् आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिये नेत्र स्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं। देव! इन देह-गेह आदि में मैं-मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है; अतः अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये। आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्ष के लिये कुठार के समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ। आप भागवत धर्म जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी जो अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगों का मोक्ष मार्ग में अनुराग उत्पन्न करने वाली थी, उसे सुनकर आत्मज्ञ सत्पुरुषों की गति श्रीकपिल जी उसकी मन-ही-मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुस्कान से सुशोभित मुखारविन्द से इस प्रकार कहने लगे।

भगवान् कपिल ने कहा ;- माता! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। साध्वि! सब अंगों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने, उनकी सुनने की इच्छा होने पर, वर्णन किया था। वही अब मैं आपको सुनाता हूँ। इस जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है। विषयों में आसक्त होने पर वह बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है। जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होने वाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)

तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति से युक्त हृदय से आत्मा को प्रकृति से परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दुःख शून्य) देखता है तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है। योगियों के लिये भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है। विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्द बन्धन मानते हैं; किन्तु वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है।

जो लोग सहनशीन, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखने वाले, शान्त, सरल स्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करने वाले होते हैं, जो मुझमें अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं-उन भक्तों को संसार के तरह-तरह ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं। साध्वि! ऐसे-ऐसे सर्वसंगपरित्यागी महापुरुष ही साधु होते हैं, तुम्हें उन्हीं के संग की इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेने वाले हैं। सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान कराने वाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगने वाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्ष मार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा। फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिन्तन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्ति प्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिये यत्न करेगा। इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्ययुक्त ज्ञान से, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझे अपने अन्तरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है।

देवहूति ने कहा ;- भगवन्! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है? और मेरी-जैसी अबलाओं के लिये कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाणपद को प्राप्त कर सकूँ? निर्वाणस्वरूप प्रभो! जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्य को बेधने वाला बाण के समान भगवान् की प्राप्ति कराने वाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है उसके कितने अंग हैं? हरे! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपा से मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिल जी के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्वों का निरूपण करने वाले शास्त्र का, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया।

श्रीभगवान् ने कहा ;- माता! जिसका चित्त एकमात्र भगवान् में ही लग गाया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान कराने वाली (कर्मेंदिय एवं ज्ञानेद्रिय-दोनों प्रकार की) इन्द्रियों की जो सत्त्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभाविक प्रवृत्ति है, वही भगवान् की अहैतुकी भक्ति है। यह मुक्ति से भी बढ़कर है; क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंसारों के भण्डाररूप लिंगशरीर को तत्काल भस्म कर देती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद)

मेरी चरण सेवा में प्रीति रखने वाले और मेरी ही प्रसन्नता के लिये समस्त कार्य करने वाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक-दूसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते। मा! वे साधुजन अरुण नयन एवं मनोहर मुखारविन्द से युक्त मेरे परम सुन्दर और वरदायक दिव्य रूपों की झाँकी करते हैं और उनके साथ सप्रेम सम्भाषण भी करते हैं, जिसके लिये बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं। दर्शनीय अंग-प्रत्यंग, उदार हास-विलास मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपों की माधुरी में उनका मन और इन्द्रियाँ फँस जाती हैं। ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हें परमपद की प्राप्ति करा देती है।

अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोगसम्पत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात् स्वयं प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठलोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम पहुँचने पर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं। जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद् और इष्टदेव हूँ-वे मेरे ही आश्रय में रहने वाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाम में पहुँचकर किसी प्रकार की भी इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है।

माताजी! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जाने वाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहों को भी छोड़कर अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं-उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागर से पार कर देता हूँ। मैं साक्षात् भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता। मेरे भय से यह वायु चलती है, मेरे भय से सूर्य तपता है, मेरे भय से इन्द्र वर्षा करता और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता है। योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोग के द्वारा शान्ति प्राप्त करने के लिये मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते हैं। संसार में मनुष्य के लिये सबसे बड़ी कल्याण प्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाये।

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