सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fourth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fourth wing) ]



                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"स्वायम्भुव-मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! स्वायम्भुव मनु के महारानी शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद- इन दो पुत्रों के सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नाम से विख्यात थीं। आकूति का, यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपा की अनुमति से उन्होंने रुचि प्रजापति के साथ ‘पुत्रिकाधर्म के अनुसार विवाह किया।

प्रजापति रुचि भगवान् के अनन्य चिन्तन के कारण ब्रह्मतेज से सम्पन्न थे। उन्होंने आकूति के गर्भ से एक पुरुष और स्त्री का जोड़ा उत्पन्न किया। उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान् से कभी अलग न रहने वाली लक्ष्मी जी की अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी। मनु जी अपनी पुत्री आकूति के उस परमतेजस्वी पुत्र को बड़ी प्रसन्नता से अपने घर ले आये और दक्षिणा को रुचि प्रजापति ने अपने पास रखा। जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उसने यज्ञ भगवान् को ही पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, तब भगवान् यज्ञ पुरुष ने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणा को बड़ा सन्तोष हुआ। भगवान् ने प्रसन्न होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव ब्राह्मण और रोचन। ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में ‘तुषित’ नाम के देवता हुए। उस मन्वन्तर में मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान् यज्ञ ही देवताओं के अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे। वह मन्वन्तर उन्हीं दोनों के बेटों, पोतों और दाहित्रों के वंश से छा गया।

प्यारे विदुर जी! मनु जी ने अपनी दूसरी कन्या देवहूति कर्दम जी को ब्याही थी। उसके सम्बन्ध की प्रायः सभी बातें तुम मुझसे सुन चुके हो। भगवान् मनु ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति से किया था; उसकी विशाल वंश परम्परा तो सारी त्रिलोकी में फैली हुई है। मैं कर्दम जी की नौ कन्याओं का, जो नौ ब्रह्मार्षियों से ब्याही गयी थीं, पहले ही वर्णन कर चुका हूँ। अब उनकी वंश परम्परा का वर्णन करता हूँ, सुनो। मरीचि ऋषि की पत्नी कर्दम जी की बेटी कला से कश्यप और पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए, जिनके वंश से यह सारा जगत् भरा हुआ है।

शत्रुपातन विदुर जी! पूर्णिमा के विरज और विश्वग नाम के दो पुत्र तथा देवकुल्या नाम की एक कन्या हुई। यही दूसरे जन्म में श्रीहरि के चरणों के धोवन से देवनदी गंगा के रूप प्रकट हुई। अत्रि की पत्नी अनसूया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

विदुर जी ने पूछा- गुरुजी! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रि मुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से अवतार लिया था?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- जब ब्रह्मा जी ने ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को सृष्टि रचने के लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणी के सहित तप करने के लिये ऋक्ष नामक कुल पर्वत पर गये। वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षों का एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदी के जल की कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी। उस वन में वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायाम के द्वारा चित्त को वश में करके सौ वर्ष तक केवल वायु पीकर सर्दी-गरमी आदि द्वन्दों की कुछ भी परवा न कर एक ही पैर से खड़े रहे। उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरण में हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें।

तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधन से प्रज्वलित हुआ अत्रि मुनि का तेज उनके मस्तक से निकलकर तीनों लोकों को तपा रहा है- ब्रह्मा, विष्णु और महादेव- तीनों जगत्पति उनके आश्रम पर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग-उनका सुयश गा रहे थे। उन तीनों का एक ही साथ प्रादुर्भाव होने से अत्रि मुनि का अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैर से खड़े-खड़े ही उन देवदेवों को देखा और फिर पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रणाम करने के अनन्तर अर्घ्य-पुष्पादि पूजन की सामग्री हाथ में ले उनकी पूजा की। वे तीनों अपने-अपने वाहन-हंस, गरुड़ और बैल पर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नों से सुशोभित थे। उनकी आँखों से कृपा की वर्षा हो रही थी। उनके मुख पर मन्द हास्य की रेखा थी-जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेज से चौंधियाकर मुनिवर ने अपनी आँखें मूँद लीं। वे चित्त को उन्हीं की ओर लगाकर हाथ जोड़ अति मधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनों में लोक में सबसे बड़े उन तीनों देवों की स्तुति करने लगे।

अत्रि मुनि ने कहा ;- भगवन्! प्रत्येक कल्प के आरम्भ में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये जो माया सत्त्वादि तीनों गुणों का विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं-वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये-मैंने जिनको बुलाया था, आपमें से वे कौन महानुभाव हैं? क्योंकि मैंने तो सन्तान प्राप्ति की इच्छा से केवल एक सुरेश्वर भगवान् का का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैसे की? आप-लोगों तक तो देहधारियों के मन की भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप लोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य बतलाइये।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- समर्थ विदुर जी! अत्रि मुनि के वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणी में कहने लगे। देवताओं ने कहा- ब्रह्मन्! तुम सत्यसंकल्प हो। अतः तुमने जैस संकल्प किया था, वही होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था? तुम जिस ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं। प्रिय महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे ही अंशरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुंदर यश का विस्तार करेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 32-55 का हिन्दी अनुवाद)

उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनों से भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते-ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकों को चले गये। ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से योगवेत्ता दत्तात्रेय जी और महादेव जी के अंश से दुर्वासा ऋषि अत्रि के पुत्ररूप में प्रकट हुए। अब अंगिरा ऋषि की सन्तानों का वर्णन सुनो।

अंगिरा की पत्नी श्रद्धा ने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति- इन चार कन्याओं को जन्म दिया। इनके सिवा उनके साक्षात भगवान उतथ्य जी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पति जी- ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए। पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा- ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्य जी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए। विश्रवा मुनि के इडविडा के गर्भ से यक्षराज कुबेर का जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए।

महामते! महर्षि पुलह की स्त्री परमसाध्वी गति से कर्मश्रेष्ठ, वरीयान और सहिष्णु- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इसी प्रकार क्रतु की पत्नी क्रिया ने ब्रह्मतेज से देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया। शत्रुपात विदुर जी! वसिष्ठ जी की पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्ध चित्त ब्रह्मर्षियों का जन्म हुआ। उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नी से शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए। अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने दध्यंग (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। अब भृगु के वंश का वर्णन सुनो।

महाभाग भृगु जी ने अपनी भार्या ख्याति से धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्रीकृष्ण नाम की एक भगवत्परायण कन्या उत्पन्न की। मेरु ऋषि ने अपनी आयति और नियति नाम की कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाता को ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए। उनमें से मृकण्ड के मार्कण्डेय और प्राण के मुनिवर वेदशिरा का जन्म हुआ। भृगु जी के एक कवि नामक पुत्र भी थे। उनके भगवान उशना (शुक्राचार्य) हुए। विदुर जी! इन सब मुनीश्वरों ने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टि का विस्तार किया। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दम जी के दौहित्रों की सन्तान का वर्णन सुनाया। जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापों को यह तत्काल नष्ट कर देता है।

ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने मनुनन्दिनी प्रसूति से विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रों वाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं। भगवान दक्ष ने उनमें से तेरह धर्म को, एक अग्नि को, एक समस्त पितृगण को और एक संसार का संहार करने वाले तथा जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले भगवान शंकर को दी। श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति- ये धर्म की पत्नियाँ हैं। इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मोद और पुष्टि ने अहंकार को जन्म दिया। क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम और ह्री (लज्जा) ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया। समस्त गुणों की खान मूर्तिदेवी ने नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया। इनका जन्म होने पर इस सम्पूर्ण विश्व ने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगों के मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत-सभी में प्रसन्नता छा गयी। आकाश में मांगलिक बाजे बजने लगे, देवता लोग फूलों की वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस समय बड़ा ही आनन्द-मंगल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रों द्वारा भगवान की स्तुति करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 56-66 का हिन्दी अनुवाद)

देवताओं ने कहा ;- जिस प्रकार आकाश में तरह-तरह के रूपों की कल्पना कर ली जाती है-उसी प्रकार जिन्होंने अपनी माया के द्वारा अपने ही स्वरूप के अन्दर इस संसार की रचना की है और अपने उस स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये इस समय इस ऋषि-विग्रह के साथ धर्म के घर में अपने-आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुष को हमारा नमस्कार है।

जिनके तत्त्व का शास्त्र के आधार पर हम लोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते-उन्हीं भगवान् ने देवताओं को संसार की मर्यादा में किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुण से उत्पन्न किया है। अब वे अपने करुणामय नेत्रों से-जो समस्त शोभा और सौन्दर्य के निवासस्थान निर्मल दिव्य कमल को नीचा दिखाने वाले हैं-हमारी ओर निहारें।

प्यारे विदुर जी! प्रभु का साक्षात् दर्शन पाकर देवताओं ने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की। तदनन्तर भगवान् नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वत पर चले गये। भगवान् श्रीहरि के अंशभूत वे नर-नारायण ही इस समय पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण और उन्हीं के सरीखे श्यामवर्ण, कुरु कुलतिलक अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं।

अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि के ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि- ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थों का भक्षण करने वाले हैं। इन्हीं तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामह को साथ लेकर उनचास अग्नि कहलाये। वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्म में जिन उनचास अग्नियों के नामों से आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं।

अग्निष्वात्ता, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप- ये पितर हैं; इनमें साग्निक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरों से स्वधाम के धारिणी और वयुना नाम की दो कन्याएँ हुईं। वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञान में पारंगत और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने वाली हुईं। महादेव जी की पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेव की सेवा में संलग्न रहने वाली थीं। किन्तु उनके अपने गुण और शील के अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ। क्योंकि सती के पिता दक्ष ने बिना ही किसी अपराध के भगवान् शिव जी के प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सती ने युवावस्था में ही क्रोधवश योग के द्वारा स्वयं ही अपने शरीर का त्याग कर दिया था।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान् शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य"
विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियों से बहुत ही स्नेह रखते थे, फिर उन्होंने अपनी कन्या सती का अनादर करके शीलवालों में सबसे श्रेष्ठ श्रीमहादेव जी से द्वेष क्यों किया? महादेव जी भी चराचर के गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम और जगत् के परम आराध्य देव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा? भगवन्! उन ससुर और दामाद में इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सती ने अपने दुस्त्यज प्राणों तक की बलि दे दी? यह आप मुझसे कहिये।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! पहले एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियों के सहित एकत्र हुए थे। उसी समय प्रजापति दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया। वे अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभा-भवन का अन्धकार दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और महादेव जी के अतिरिक्त अग्नि पर्यन्त सभी सभासद् उनके तेज से प्रभावित होकर अपने-अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये। इस प्रकार समस्त सभासदों से भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने आसन पर बैठ गये। परन्तु महादेव जी को पहले से बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूप में कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजर से इस प्रकार देखा मानो उन्हें वे क्रोधाग्नि से जला डालेंगे। फिर कहने लगे-

‘देवता और अग्नियों के सहित समस्त ब्रह्मर्षिगण मेरी बात सुनें। मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचार की बात कहता हूँ। यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूल में मिला रहा है। देखिये, इस घमण्डी ने सत्पुरुषों के आचरण को लांछित एवं मटियामेट कर दिया है। बन्दर के-से नेत्र वाले इसने सत्पुरुषों के समान मेरी सावित्री-सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्या का अग्नि और ब्राह्मणों के सामने पाणिग्रहण किया था, इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परन्तु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया।

हाय! जिस प्रकार शूद्र को कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी! इसने सत्कर्म का लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्म की मर्यादा को तोड़ रहा है। यह प्रेतों के निवासस्थान भयंकर श्मशानों में भूत-प्रेतों को साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागल की तरह सिर के बाल बिखेरे नंग-धडंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी रोता है। यह सारे शरीर पर चिता की अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गले में भूतों के पहनने योग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के पहनने योग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के गाहने पहने रहता है। यह बस, नाम भर का ही शिव है, वास्तव में है पूरा अशिव-अमंगलरूप। जैसे यह स्वयं मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं। भूत-प्रेत-प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाव वाले जीवों का यह नेता है। अरे! मैंने केवल ब्रह्मा जी के बहकावे में आकर ऐसे भूतों के सरदार, आचारहीन और दुष्ट स्वभाव वाले को अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! दक्ष ने इस प्रकार महादेव जी को बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे पूर्ववत् निश्चलभाव से बैठे रहे। इससे दक्ष के क्रोध का पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और वे जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देने को तैयार हो गये। दक्ष ने कहा, ‘यह महादेव देवताओं में बड़ा ही अधम है। अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले’। उपस्थित मुख्य-मुख्य सभासदों ने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने किसी की न सुनी; महादेव जी को शाप दे ही दिया। फिर वे अत्यत्न क्रोधित हो उस सभा से निकलकर अपने घर चले गये।

जब श्रीशंकर जी के अनुयायियों में अग्रगण्य नंदीश्वर को मालूम हुआ कि दक्ष ने शाप दिया है, तो वे क्रोध से तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणों को, जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप दिया। वे बोले- ‘जो इस मरणधर्मा शरीर में ही अभिमान करके किसी से द्रोह न करने वाले भगवान् शंकर से द्वेष करता है, वह भेद-बुद्धि वाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञान से विमुख ही रहे। यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले को अक्षय पुण्य प्राप्त होता है’ आदि अर्थवादरूप वेदवाक्यों से मोहित एवं विवेकभ्रष्ट होकर विषयसुख की इच्छा से कपट धर्ममय गृहस्थाश्रम में आसक्त रहकर कर्मकाण्ड में ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादि में आत्मभाव का चिन्तन करने वाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूप को भुला दिया है; यह साक्षात् पशु के ही समान है, अतः अत्यन्त स्त्री-लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरे का हो जाये। यह मुख कर्ममयी अविद्या को ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान् शंकर का अपमान करने वाले इस दुष्ट के पीछे-पीछे चलने वाले हैं, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्र में पड़े रहें। वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पों से सुशोभित है, उसके कर्म फलरूप मनमोहक गन्ध से इनके चित्त क्षुब्ध हो रहे हैं। इससे ये शंकरद्रोही कर्मों के जाल में फँसे रहें। ये ब्राह्मण लोग भक्ष्याभक्ष्य के विचार को छोड़कर केवल पेट पालने के लिये ही विद्या, तप और व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियों के सुख को ही सुख मानकर-उन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख माँगते भटका करें’।

नदीश्वर के मुख से इस प्रकार ब्राह्मण कुल के लिये शाप सुनकर उसके बदले में भृगु जी ने दुस्तर शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया। ‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तों के अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाले और पाखण्डी हों। जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हैं-वे ही शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हों, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओं के समान आदरणीय हैं। अरे! तुम लोग जो धर्म मर्यादा के संस्थापक एवं वर्णाश्रमियों के रक्षक वेद और ब्राह्मणों की निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्ड का आश्रय ले रखा है। यह वेदमार्ग ही लोगों के लिये कल्याणकारी और सनातन मार्ग है। पूर्वपुरुष इसी पर चलते आये हैं और इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् हैं। तुम लोग सत्पुरुषों के परमपवित्र और सनातन मार्ग स्वरूप वेद की निन्दा करते हो-इसलिये उस पाखण्डमार्ग में जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! भृगु ऋषि के इस प्रकार शाप देने पर भगवान शंकर कुछ खिन्न से हो वहाँ से अपने अनुयायियों सहित चल दिये। वहाँ प्रजापति लोग जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे और वह यज्ञ एक हज़ार वर्ष में समाप्त होने वाला था। उसे समाप्त कर उन प्रजापतियों ने श्रीगंगा-यमुना के संगम में यज्ञांत स्नान किया और फिर प्रसन्न मन अपने-अपने स्थानों को चले गए।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार उन ससुर और दामाद को आपस में वैर-विरोध रखते हुए बहुत अधिक समय निकल गया। इसी समय ब्रह्मा जी ने दक्ष को समस्त प्रजापतियों का अधिपति बना दिया। इससे उसका गर्व और भी बढ़ गया। उसने भगवान् शंकर आदि ब्रह्मनिष्ठों को यज्ञभाग न देकर उनका तिरस्कार करते हुए पहले तो वाजपेय यज्ञ किया और फिर बृहस्पतिसव नाम का महायज्ञ आरम्भ किया। उस यज्ञोत्सव में सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता आदि अपनी-अपनी पत्नियों के साथ पधारे, उन सबने मिलकर वहाँ मांगलिक कार्य सम्पन्न किये और दक्ष के द्वारा उन सबका स्वागत-सत्कार किया गया।

उस समय आकाशमार्ग से जाते हुए देवता आपस में उस यज्ञ की चर्चा करते जाते थे। उनके मुख से दक्षकुमारी सती ने अपने पिता के घर होने वाले यज्ञ की बात सुन ली। उन्होंने देखा कि हमारे निवासस्थान कैलास के पास से होकर सब ओर से चंचल नेत्रों वाली गन्धर्व और यक्षों की स्त्रियाँ सज-धजकर अपने-अपने पतियों के साथ विमानों पर बैठी उस यज्ञोत्सव् में जा रही हैं। इससे उन्हें भी उत्सुकता हुई और उन्होंने अपने पति भगवान् भूतनाथ से कहा।

सती ने कहा ;- वामदेव! सुना है, इस समय आपके ससुर दक्ष प्रजापति के यहाँ बड़ा भारी यज्ञोत्सव हो रहा है। देखिये, ये सब देवता वहीं जा रहे हैं; यदि आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें। इस समय अपने आत्मीयों से मिलने के लिये मेरी बहिनें भी अपने-अपने पतियों के सहित वहाँ अवश्य आयेंगी। मैं भी चाहती हूँ कि आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिता के दिये हुए गहने, कपड़े आदि उपहार स्वीकार करूँ। वहाँ अपने पतियों से सम्मानित बहिनों, मौसियों और स्नेहार्द्रहृदया जननी को देखने के लिये मेरा मन बहुत दिनों से उत्सुक है। कल्याणमय! इसके सिवा वहाँ महर्षियों का रचा हुआ श्रेष्ठ यज्ञ भी देखने को मिलेगा। अजन्मा प्रभु! आप जगत् की उत्पत्ति के हेतु हैं। आपकी माया से रचा हुआ यह परम आश्चर्यमय त्रिगुणात्मक जगत् आप ही में भास रहा है। किंतु मैं तो स्त्रीस्वभाव होने के कारण आपके तत्त्व से अनभिज्ञ और बहुत दीन हूँ। इसलिये इस समय आपनी जन्मभूमि देखने को बहुत उत्सुक हो रही हूँ। जन्मरहित नीलकण्ठ! देखिये-इनमें कितनी ही स्त्रियाँ तो ऐसी हैं, जिनका दक्ष से कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर भी वे अपने-अपने पतियों के सहित खूब सज-धजकर झुंड-की-झुंड वहाँ जा रही हैं। वहाँ जाने वाली इन देवांगनाओं के राजहंस के समान श्वेत विमानों से आकाशमण्डल कैसा सुशोभित हो रहा है।

सुर श्रेष्ठ! ऐसी अवस्था में अपने पिता के यहाँ उत्सव का समाचार पाकर उसकी बेटी का शरीर उसमें सम्मिलित होने के लिये क्यों न छटपटायेगा। पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जा सकते हैं। अतः देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों; आपको मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी चाहिये; आप बड़े करुणामय हैं, तभी तो परमज्ञानी होकर भी आपने मुझे अपने आधे अंग में स्थान दिया है। अब मेरी इस याचना पर ध्यान देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- प्रिया सती जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर अपने आत्मीयों का प्रिय करने वाले भगवान् शंकर को दक्ष प्रजापति के उन मर्मभेदी दुर्वचनरूप बाणों का स्मरण हो आया, जो उन्होंने समस्त प्रजापतियों के सामने कहे थे; तब वे हँसकर बोले।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् शंकर ने कहा ;- सुन्दरि! तुमने जो कहा कि अपने बन्धुजन के यहाँ बिना बुलाये भी जा सकते हैं, सो तो ठीक ही है; किंतु ऐसा तभी करना चाहिये, जब उनकी दृष्टि अतिशय प्रबल देहाभिमान से उत्पन्न हुए मद और क्रोध के कारण द्वेष-दोष से युक्त न हो गयी हो। विद्या, तप, धन, सुदृढ़ शरीर, युवावस्था और उच्च कुल- ये छः सत्पुरुषों के तो गुण हैं, परन्तु नीच पुरुषों में ये ही अवगुण हो जाते हैं; क्योंकि इनसे उनका अभिमान बढ़ जाता है और दृष्टि दोषयुक्त हो जाती है एवं विवेक-शक्ति नष्ट हो जाती है। इसी कारण वे महापुरुषों का प्रभाव नहीं देख पाते। इसी से जो अपने यहाँ आये हुए पुरुषों को कुटिल बुद्धि से भौं चढ़ाकर रोषभरी दृष्टि से देखते हैं, उन अव्यवस्थितचित्त लोगों के यहाँ ‘ये हमारे बान्धव हैं’ ऐसा समझकर कभी नहीं जाना चाहिये।

देवि! शत्रुओं के बाणों से बिंध जाने पर भी ऐसी व्यथा नहीं होती, जैसी अपने कुटिलबुद्धि स्वजनों के कुटिल वचनों से होती है। क्योंकि बाणों से शरीर छिन्न-भिन्न हो जाने पर तो जैसे-तैसे निद्रा आ जाती है, किन्तु कुवाक्यों से मर्मस्थान विद्ध हो जाने पर तो मनुष्य हृदय की पीड़ा से दिन-रात बेचैन रहता है।

सुन्दरि! अवश्य ही मैं यह जानता हूँ कि तुम परमोन्नति को प्राप्त हुए दक्ष प्रजापति को अपनी कन्याओं में सबसे अधिक प्रिय हो। तथापि मेरी आश्रिता होने के कारण तुम्हें अपने पिता से मान नहीं मिलेगा; क्योंकि वे मुझसे बहुत जलते हैं। जीव की चित्तवृत्ति के साक्षी अहंकारशून्य महापुरुषों की समृद्धि को देखकर जिसके हृदय में सन्ताप और इन्द्रियों में व्यथा होती है, वह पुरुष उनके पद को तो सुगमता से प्राप्त कर नहीं सकता; बस, दैत्यगण जैसे श्रीहरि से द्वेष मानते हैं, वैसे ही उनसे कुढ़ता रहता है।

सुमध्यमे! तुम कह सकती हो कि आपने प्रजापतियों की सभा में उनका आदर क्यों नहीं किया। सो ये सम्मुख जाना, नम्रता दिखाना, प्रणाम करना आदि क्रियाएँ जो लोक व्यवहार में परस्पर की जाती हैं, तत्त्वज्ञानियों के द्वारा बहुत अच्छे ढंग से की जाती हैं। वे अन्तर्यामीरूप से सबके अन्तःकरणों में स्थित परमपुरुष वासुदेव को ही प्रणामादि करते हैं; देहाभिमानी पुरुष को नहीं करते। विशुद्ध अन्तःकरण का नाम ही ‘वसुदेव’ है, क्योंकि उसी में भगवान् वासुदेव का अपरोक्ष अनुभव होता है। उस शुद्धचित्त में स्थित इन्द्रियातीत भगवान् वासुदेव को ही मैं नमस्कार किया करता हूँ। इसीलिये प्रिये! जिसने प्रजापतियों के यज्ञ में, मेरे द्वारा कोई अपराध न होने पर भी, मेरा कटुवाक्यों से तिरस्कार किया था, वह दक्ष यद्यपि मेरा शत्रु होने के कारण तुम्हें उसे अथवा उसके अनुयायियों को देखने का विचार भी नहीं करना चाहिये। यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी, तो तुम्हारे लिये अच्छा न होगा; क्योंकि जब किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति का अपने आत्मीयजनों के द्वारा अपमान होता है, तब वह तत्काल उनकी मृत्यु का कारण हो जाता है।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"सती का अग्नि प्रवेश"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इतना कहकर भगवान् शंकर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्ष के यहाँ जाने देने अथवा जाने से रोकने-दोनों ही अवस्थाओं में सती के प्राण त्याग की सम्भावना है। इधर, सती जी भी कभी बन्धुजनों को देखने जाने की इच्छा से बाहर आतीं और कभी ‘भगवान् शंकर रुष्ट न हो जायें’ इस शंका से फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकने के कारण वे दुविधा में पड़ गयीं-चंचल हो गयीं। बन्धुजनों से मिलने की इच्छा में बाधा पड़ने से वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनों के स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखों में आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थर-थर काँपने लगा और वे अप्रतिमपुरुष भगवान् शंकर की ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टि से देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी। शोक और क्रोध ने उनके चित्त को बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीस्वभाव के कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अंग तक दे दिया था, उन सत्पुरुषों के प्रिय भगवान् शंकर को भी छोड़कर वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिता के घर चल दीं।

सती को बड़ी फुर्ती से अकेली जाते देख श्रीमहादेव जी के मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान के वाहन वृषभराज को आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षों को साथ ले बड़ी तेजी से निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये। उन्होंने सती को बैल पर सवार करा दिया और मैना पक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेल की सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शंख और बाँसुरी आदि गाने-बजाने के सामानों से सुसज्जित हो वे उसके साथ चल दिये।

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकों के साथ दक्ष की यज्ञशाला में पहुँची। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणों में परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वर में कौन बोले; सब ओर ब्रह्मर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्म के पात्र रखे हुए थे। वहाँ पहुँचने पर पिता के द्वारा सती की अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्ष के भय से सती की माता और बहनों के सिवा किसी भी मनुष्य ने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुईं और प्रेम से गद्गद होकर उन्होंने सती को आदरपूर्वक गले लगाया। किंतु सती जी ने पिता से अपमानित होने के कारण, बहिनों के कुशल-प्रश्न सहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियों के सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादि को स्वीकार नहीं किया।

सर्वलोकेश्वरी देवी सती का यज्ञमण्डप में तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञ में भगवान् शंकर के लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ; ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोष से सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर देंगी। दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से बहुत घमण्ड हो गया था। उसे शिव जी से द्वेष करते देख जब सती के साथ आये हुए भूत उसे मारने को तैयार हुए तो देवी सती ने उन्हें अपने तेज से रोक दिया और सब लोगों को सुनाकर पिता की निन्दा करते हुए क्रोध से लड़खड़ाती हुई वाणी में कहा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

देवी सती ने कहा ;- पिताजी! भगवान् शंकर से बड़ा तो संसार में कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियों के प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणी से वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा?

द्विजवर! आप-जैसे लोग दूसरों के गुणों में भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग-दोष देखने की बात तो अलग रही-दूसरों के थोड़े से गुण को भी बड़े रूप में देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ है। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषों पर भी दोषारोपण ही किया। जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जड़ शरीर को ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषों की निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टा पर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणों की धूलि उनके इस अपराध को न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अतः महापुरुषों की निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषों को ही शोभा देता है। जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरों का नाम प्रसंगवश एक बार भी मुख से निकल जाने पर मनुष्य के समस्त पापों को तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता, अहो! उन्हीं पवित्रकीर्ति मंगलमय भगवान् शंकर से आप द्वेष करते हैं! अवश्य ही आप मंगलरूप हैं।

अरे! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके चरणकमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषों को उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान् शिव से आप वैर करते हैं। वे केवल नाममात्र के शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमंगलरूप है; इस बात को आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवतः नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान् शिव श्मशान भूमिस्थ नरमुण्डों की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिर पर धारण करते हैं।

यदि निरंकुश लोग धर्ममर्यादा की रक्षा करने वाले अपने पूजनीय स्वामी की निन्दा करें तो अपने में उसे दण्ड देने की शक्ति न होने पर कान बंद करके वहाँ से चला जाये और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकड़कर उस बकवाद करने वाली अमंगलरूप दुष्ट जिह्वा को काट डाले। इस पाप को रोकने के लिये स्वयं अपने प्राण तक दे दे, यही धर्म है। आप भगवान् नीलकण्ठ की निन्दा करने वाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीर को अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूल से कोई निन्दित वस्तु खा ली जाये तो उसे वमन करके निकाल देने से ही मनुष्य की शुद्धि बतायी जाती है। जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेद के विधि निषेधमय वाक्यों का अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्यों की गति में भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी की स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्ग में स्थित रहते हुए भी दूसरों के मार्ग की निन्दा न करे।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद)

प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि) रूप दोनों ही प्रकार के कर्म ठीक हैं। वेद में उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकार के अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होने के कारण उक्त दोनों प्रकार के कर्मों का एक साथ एक ही पुरुष के द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान् शंकर तो परब्रह्म परमात्मा हैं। उन्हें इन दोनों में से किसी भी प्रकार का कर्म करने की आवश्यकता नहीं है।

पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अवयक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओं में यज्ञान्न से तृप्त होकर प्राण पोषण करने वाले कर्मठ लोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते। आप भगवान् शंकर का अपराध करने वाले हैं। अतः आपके शरीर से उत्पन्न इस निन्दनीय देह को रखकर मुझे क्या करना है। आप-जैसे दुर्जन से सम्बन्ध होने के कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषों का अपराध करता है, उससे होने वाले जन्म को भी धिक्कार है। जिस समय भगवान् शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में ‘दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी) के नाम से पुकारेंगे, उस समय हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूँगी।

मैत्रेय जी कहते हैं ;- कामादि शत्रुओं को जीतने वाले विदुर जी! उस यज्ञमण्डप में दक्ष से इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूँदकर शरीर छोड़ने के लिये वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं। उन्होंने आसन को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एकरूप करके नाभिचक्र में स्थित किया; फिर उदानवायु को नाभिचक्र से ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदय स्थित वायु को कण्ठमार्ग से भ्रुकुटियों के बीच में ले गयीं। इस प्रकार, जिस शरीर को महापुरुषों के भी पूजनीय भगवान् शंकर ने कई बार बड़े आदर से अपनी गोद में बैठाया था, दक्ष पर कुपित होकर उसे त्यागने की इच्छा से महामनस्विनी सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में वायु और अग्नि की धारणा की। अपने पति जगद्गुरु भगवान् शंकर के चरण-कमल-मकरन्द का चिन्तन करते-करते सती ने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणों के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्ष कन्या हूँ-ऐसे अभिमान से भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्नि से जल उठा।

उस समय वहाँ आये हुए देवता आदि ने जब सती का देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयंकर कोलाहल आकाश में एवं पृथ्वीतल पर सभी जगह फैल गया। सब ओर यही सुनायी देता था- ‘हाय! दक्ष के दुर्व्यवहार से कुपित होकर देवाधिदेव महादेव की प्रिया सती ने प्राण त्याग दिये। देखो, सारे चराचर जीव इस दक्ष प्रजापति की ही सन्तान हैं; फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है! इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पाने के योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये। वास्तव में यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है। अब इसकी संसार में बड़ी अपकीर्ति होगी। जब इसकी पुत्री सती इसी के अपराध से प्राण त्याग करने को तैयार हुई, तब भी इस शंकरद्रोही ने उसे रोका तक नहीं।’

जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिव जी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए। उनके आक्रमण का वेग देखकर भगवान् भृगु ने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिये ‘अपहतं रक्ष...’ इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करते हुए दक्षिणाग्नि में आहुति दी। अध्वर्यु भृगु ने ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्ड से ‘ऋभु’ नाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये। इन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से चन्द्रलोक प्राप्त किया था। उन ब्रह्मतेज सम्पन्न देवताओं ने जलती हुई लकड़ियों से आक्रमण किया, तो समस्त गुह्यक और प्रथमगण इधर-उधर भाग गये।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【पंचम अध्याय:】५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"वीरभद्रकृत दक्षयज्ञ विध्वंस और दक्षवध"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- महादेव जी ने जब देवर्षि नारद के मुख से सुना कि अपने पिता दक्ष से अपमानित होने के कारण देवी सती ने प्राण त्याग दिये हैं और उसकी यज्ञवेदी से प्रकट हुए ऋभुओं ने उनका पार्षदों की सेना को मारकर भगा दिया है, तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ। उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोध के मारे होठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली-जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी-और सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहास के साथ उसे पृथ्वी पर पटक दिया। उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा-चौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्ग को स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ थीं। मेघ के समान श्यामवर्ण था, सूर्य के समान जलते हुए तीन नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्नि की ज्वालाओं के समान लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गले में नरमुण्डों की माला थी और हाथों में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र थे।

जब उसने हाथ जोड़कर पूछा, ‘भगवन्! मैं क्या करूँ?’ तो भगवान् भूतनाथ ने कहा- ‘वीररुद्र! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदों का अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञ को नष्ट कर दे’।

प्यारे विदुर जी! जब देवाधिदेव भगवान् शंकर ने क्रोध में भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलने को तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेग का सामना करने वाला संसार में कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीर का भी वेग सहन कर सकता हूँ। वे भयंकर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसार-संहारक मृत्यु का भी संहार करने में समर्थ था। भगवान् रुद्र के और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये। उस समय वीरभद्र के पैरों के नूपुरादि आभूषण झनन-झनन बजते जाते थे।

इधर यज्ञशाला में बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्रह्माणियों ने उत्तर दिशा की ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे- ‘अरे यह अँधेरा-सा कैसे होता आ रहा है? यह धूल कहाँ से छा गयी? इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियों को कठोर दण्ड देने वाला राजा प्राचीनबर्हि अभी जीवित है। अभी गौओं के आने का समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँ से आयी? क्या इसी समय संसार का प्रलय तो नहीं होने वाला है?’ तब दक्षपत्नी प्रसूति एवं अन्य स्त्रियों ने व्याकुल होकर कहा- प्रजापति दक्ष ने अपनी सारी कन्याओं के सामने बेचारी निरपराध सती का तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पाप का फल है। (अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्र के अनादर का ही परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होने पर जिस समय वे अपने जटाजूट को बिखेरकर तथा शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित अपनी भुजाओं को ध्वजाओं के समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूल के फलों से दिग्गज बिंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जन के समान भयंकर अट्टहास से दिशाएँ विदीर्ण हो जाती हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 11-26 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौंहें टेढ़ी करने के कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ों से तारागण अस्त्र-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोध में भरे हुए भगवान् शंकर को बार-बार कुपित करने वाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न हो-क्या कभी उसका कल्याण हो सकता है? जो लोग महात्मा दक्ष के यज्ञ में बैठे थे, वे भय के कारण एक-दूसरे की ओर कातर दृष्टि से निहारते हुए ऐसी ही तरह-तरह की बातें कर रहे थे कि इतने में ही आकाश और पृथ्वी में सब ओर सहस्रों भयंकर उत्पात होने लगे।

विदुर जी! इसी समय दौड़कर आये हुए रुद्र सेवकों ने उस महान् यज्ञमण्डप को सब ओर से घेर लिया। वे सब तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंग के, कोई पीले और कोई मगर के समान पेट और मुख वाले थे। उनमें से किन्हीं ने प्राग्वंश (यज्ञशाला के पूर्व और पश्चिम के खंभों के बीच के आड़े रखे हुए डंडे) को तोड़ डाला, किन्हीं ने यज्ञशाला के पश्चिम की ओर स्थित पत्नीशाला को नष्ट कर दिया, किन्हीं ने यज्ञशाला के सामने का सभामण्डप और मण्डप के आगे उत्तर की ओर स्थित आग्नीध्रशाला को तोड़ दिया, किन्हीं ने यजमानगृह और पाकशाला को तहस-नहस कर डाला। किन्ही ने यज्ञ के पात्र फोड़ दिये, किन्हीं ने अग्नियों को बुझा दिया, किन्हीं ने यज्ञकुण्डों में पेशाब कर दिया और किन्हीं ने वेदी की सीमा के सूत्रों को तोड़ डाला। कोई-कोई मुनियों को तंग करने लगे, कोई स्त्रियों को डराने-धमकाने लगे और किन्हीं ने अपने पास होकर भागते हुए देवताओं को पकड़ लिया। मणिमान् ने भृगु ऋषि को बाँध लिया, वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष को कैद कर लिया तथा चण्डीश ने पूषा को और नंदीश्वर ने भग देवता को पकड़ लिया।

भगवान् शंकर के पार्षदों की यह भयंकर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरों की मार से बहुत तंग आकर वहाँ जितने ऋत्विज्, सदस्य और देवता लोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये। भृगु जी हाथ में स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्र ने इनकी दाढ़ी-मूँछ नोच लीं; क्योंकि इन्होंने प्रजापतियों की सभा में मूँछें ऐंठते हुए महादेव जी का उपहास किया था। उन्होंने क्रोध में भरकर भगदेवता को पृथ्वी पर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभा में श्रीमहादेव जी को बुरा-भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस समय इन्होंने दक्ष को सैन देकर उकसाया था। इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्ध के विवाह के समय बलराम जी ने कलिंगराज के दाँत उखड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषा के दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्ष ने महादेव जी को गलियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे।
फिर वे दक्ष की छाती पर बैठकर एक तेज तलवार से उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे उस समय उसे धड़ से अलग न कर सके। जब किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से दक्ष की त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बहुत देर तक विचार करते थे। तब उन्होंने यज्ञमण्डप में यज्ञपशुओं को जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशु का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्म की प्रशंसा करते हुए ‘वाह-वाह’ करने लगे और दक्ष के दल वालों में हाहाकार मच गया। वीरभद्र ने अत्यन्त कुपित होकर दक्ष के सिर को यज्ञ की दक्षिणाग्नि में डाल दिया और उस यज्ञशाला में आग लगाकर यज्ञ को विध्वंस करके वे कैलास पर्वत पर लौट गये।

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