सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, and nineteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]



                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【षोडश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन"
श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- देवगण! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियों ने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- मुनिगण! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। उन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया है। आप लोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अतः इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है। ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरों के द्वारा आप लोगों का जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आप लोगों से प्रसन्नता की भिक्षा माँगता हूँ। सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचा को चर्मरोग।

मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आप लोगों से ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा हो क्यों न हो-मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा। आप लोगों की सेवा करने से ही मेरी चरणरज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहने पर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ती-यद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं। जो अपने सम्पूर्ण कर्म फल मुझे अर्पण कर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रास पर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुख से मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञ में अग्निरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियों को ग्रहण करके नहीं होता।

योगमाया का अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गंगाजी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाले भगवान् शंकर के सहित समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा। ब्राह्मण, दूध देने वाली गौएँ और अनाथ प्राणी-ये मेरे ही शरीर हैं। पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझसे भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध-जैसे दूत-जो सर्प के समान क्रोधी हैं-अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचो से नोचते हैं।
ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना मुखकमल से उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिता को पुत्र और आप लोगों को मैं मानता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनों से प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वश में कर लेते हैं। मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आप लोगों का अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोध से आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासन काल शीघ्र ही समाप्त हो जाये, ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीब्रह्मा जी कहते हैं ;- देवताओं! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से डसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्तःकरण को प्रकाशित करने वाली भगवान् की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ। भगवान् की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरों वाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करने पर भी वे यह न जान सके कि भगवान् क्या करना चाहते हैं। भगवान् की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अंग-अंग पुलकित हो गया। फिर योगमाया के प्रभाव से अपने परम ऐश्वर्य का प्रभाव प्रकट करने वाले प्रभु से वे हाथ जोड़कर कहने लगे।

मुनियों ने कहा ;- स्वप्रकाश भगवन्! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है-यह हम नहीं जान सके हैं।

प्रभो! आप ब्राह्मणों के परम हितकारी हैं; इससे लोक शिक्षा के लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुतः तो ब्राह्मण तथा देवताओं के भी देवता ब्रह्मादि के भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं। सनातन धर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारों द्वारा ही समय-समय पर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्म के परमगुह्य रहस्य हैं-यह शास्त्रों का मत है। आपकी कृपा से निवृत्तिपरायण योगीजन सहज में ही मृत्युरूप संसार सागर से पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आप पर क्या कृपा कर सकता है।

भगवन्! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरणरज सर्वदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं, वे लक्ष्मी जी निरन्तर आपकी सेवा में लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणों पर जो नूतन तुलसी की मालाएँ अर्पण करते हैं, उन पर गुंजार करते हुए भौरों के समान वे भी आपके पादपद्मों को ही अपना निवास स्थान बनाना चाहती हैं। किन्तु अपने पवित्र चरित्रों से निरन्तर सेवा में तत्पर रहने वाली उन लक्ष्मी जी का भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तों से ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणों के आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणों के चरणों में लगने से पवित्र हुई मार्ग की धूलि और श्रीवत्स का चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है?

भगवन्! आप साक्षात् धर्म स्वरूप हैं। आप सत्यादि तीनों युगों में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओं के लिये तप, शौच और दया-अपने इन तीन चरणों से इस चराचर जगत् की रक्षा करते हैं। अब आप अपनी शुद्धसत्त्वमयी वरदायिनी मूर्ति से हमारे धर्मविरोधी रजोगुण-तमोगुण को दूर कर दीजिये देव! यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है। यदि साक्षात् धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादि के द्वारा इस उत्तम कुल की रक्षा न करें तो आपका निश्चित किया हुआ कल्याण मार्ग ही नष्ट हो जाये; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण को ही प्रमाणरूप से ग्रहण करता है।

प्रभो! आप सत्त्वगुण की खान हैं और सभी जीवों का कल्याण करने के लिये उत्सुक हैं। इसी से आप अपनी शक्तिरूप राजा आदि के द्वारा धर्म के शत्रुओं का संहार करते हैं; क्योंकि वेदमार्ग का उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप त्रिलोकीनाथ और जगत्प्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणों के प्रति इतने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेज की कोई हानि नहीं होती; यह तो आपकी लीलामात्र है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद)

सर्वेश्वर! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें अथवा पुरस्कार रूप में इनकी वृत्ति बढ़ा दें-हम निष्कपट भाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिये हमीं को उचित दण्ड दें; हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है।

श्रीभगवान् ने कहा ;- मुनिगण! आपने इन्हें जो शाप दिया है-सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनि को प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण सुदृढ़ योग सम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे।

श्रीब्रह्मा जी कहते हैं ;- तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने नयनाभिराम भगवान् विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठधाम के दर्शन करके प्रभु की परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम कर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान् के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँ से लौट गये। फिर भगवान् ने अपने अनुचरों से कहा, ‘जाओ, मन में किसी प्रकार का भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा। मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्मतेज को मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है।

एक बार जब मैं योगनिद्रा में स्थित हो गया था, तब तुमने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मी जी को रोका था। उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया था। अब दैत्ययोनि में मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहने से तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र-तिरस्कारजनित पाप से मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समय में मेरे पास लौट आओगे।

द्वारपालों को इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान् ने विमानों की श्रेणियों से सुसज्जित अपने सर्वादिक श्रीसम्पन्न धाम में प्रवेश किया। वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्मशाप के कारण उस अलंघनीय भगवद्धाम में ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया।
पुत्रों! फिर जब वे वैकुण्ठलोक से गिरने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानों पर बैठे हुए वैकुण्ठवासियों में महान् हाहाकार मच गया। इस समय दिति के गर्भ में स्थित जो कश्यप जी का उग्र तेज है, उसमें भगवान् के उन पार्षद प्रवरों ने ही प्रवेश किया है। उन दोनों असुरों के तेज से ही तुम सबका तेज फीका पड़ गया है। इस समय भगवान् ऐसा ही करना चाहते हैं, जो आदिपुरुष संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं, जिनकी योगमाया को बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी कठिनता से पार पाते हैं-वे सत्त्वादि तीनों गुणों के नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे। अब इस विषय में हमारे विशेष विचार करने से क्या लाभ हो सकता है।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【सप्तदश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा हिरण्याक्ष की दिग्विजय"
श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! ब्रह्मा जी के कहने से अन्धकार का कारण जानकर देवताओं की शंका निवृत्त हो गयी और फिर वे सब स्वर्गलोक को लौट आये। इधर दिति को अपने पतिदेव के कथानानुसार पुत्रों की ओर से उपद्रवादि की आशंका बनी रहती थी। इसलिये जब पूरे सौ वर्ष बीत गये, तब उस साध्वी ने दो यमज (जुड़वे) पुत्र उत्पन्न किये। उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में अनेकों उत्पात होने लगे-जिनसे लोग अत्यन्त भयभीत हो गये। जहाँ-तहाँ पृथ्वी और पर्वत काँपने लगे, सब दिशाओं में दाह होने लगा। जगह-जगह उल्कापात होने लगा, बिजलियाँ गिरने लगीं और आकाश में अनिष्टसूचक धूमकेतु (पुच्छल तारे) दिखायी देने लगे। बार-बार सायं-सायं करती और बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ती हुई बड़ी विकट और असह्य वायु चलने लगी। उस समय आँधी उसकी सेना और उमड़ती हुई धूल ध्वजा के समान जान पड़ती थी। बिजली जोर-जोर से चमककर मानो खिलखिला रही थी। घटाओं ने ऐसा सघन रूप धारण किया कि सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के लुप्त हो जाने से आकाश में गहरा अँधेरा छा गया। उस समय कहीं कुछ भी दिखायी न देता था।

समुद्र दुःखी मनुष्य की भाँति कोलाहल करने लगा, उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उठने लगीं और उसके भीतर रहने वाले जीवों में बड़ी हलचल मच गयी। नदियों तथा अन्य जलाशयों में भी बड़ी खलबली मच गयी और उनके कमल सूख गये। सूर्य और चन्द्रमा बार-बार ग्रसे जाने लगे तथा उनके चारों ओर अमंगलसूचक मण्डल बैठने लगे। बिना बादलों के ही गरजने का शब्द होने लगा तथा गुफाओं में से रथ की घरघराहट का-सा शब्द निकलने लगा। गावों में गीदड़ और उल्लुओं के भयानक शब्द के साथ ही सियारियाँ मुख से दहकती हुई आग उगलकर बड़ा अमंगल शब्द करने लगीं। जहाँ-तहाँ कुत्ते अपनी गरदन ऊपर उठाकर कभी गाने कभी रोने के समान भाँति-भाँति के शब्द करने लगे।

विदुर जी! झुंड-के-झुंड गधे अपने कठोर खुरों से पृथ्वी खोदते और रेंकने का शब्द करते मतवाले होकर इधर-उधर दौड़ने लगे। पक्षी गधों के शब्द से डरकर रोते-चिल्लाते और अपने घोंसलों से उड़ने लगे। अपनी खिरकों में बँधे हुए और वन में चरते हुए गाय, बैल आदि पशु डर के मारे मल-मूत्र त्यागने लगे। गौएँ ऐसी डर गयीं कि दुहने पर उनके थनों से खून निकलने लगा, बदल पीब की वर्षा करने लगे, देवमूर्तियों की आँखों से आँसू बहने लगे और आँधी के बिना ही वृक्ष उखड़-उखड़कर गिरने लगे। शनि, राहु आदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र, बृहस्पति आदि सौम्य ग्रहों तथा बहुत-से नक्षत्रों को लाँघकर वक्रगति से चलने लगे तथा आपस में युद्ध करने लगे। ऐसे ही और भी अनेकों भयंकर उत्पात देखकर सनकादि के सिवा और सब जीव भयभीत हो गये तथा उन उत्पातों का मर्म न जानने के कारण उन्होंने यही समझा कि अब संसार का प्रलय होने वाला है।

वे दोनों आदिदैत्य जन्म के अनन्तर शीघ्र ही अपने फौलाद के समान कठोर शरीरों से बढ़कर महान् पर्वतों के सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया। वे इतने ऊँचे थे कि उनके सुवर्णमय मुकुटों का अग्रभाग स्वर्ग को स्पर्श करता था और उनके विशाल शरीरों से सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं। उनकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद चमचमा रहे थे। पृथ्वी पर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी जगमगाती हुई चमकीली करधनी से सुशोभित कमर अपने प्रकाश से सूर्य को भी मात करती थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)

वे दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यप जी ने उनका नामकरण किया। उनमें से जो उनके वीर्य से दिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दिति के उदर से पहले निकला, वह हिरण्याक्ष के नाम से विख्यात हुआ। हिरण्यकशिपु ब्रह्मा जी के वर से मृत्यु के भय से मुक्त हो जाने के कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी भुजाओं के बल से लोकपालों के सहित तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्ष को बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाई का प्रिय कार्य करता रहता था।

एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथ में गदा लिये युद्ध का अवसर ढूँढता हुआ स्वर्गलोक में जा पहुँचा। उसका वेग बड़ा असह्य था। उसके पैरों में सोने के नूपुरों की झनकार हो रही थी, गले में विषयसूचक माला धारण की हुई थी और कंधे पर विशाल गदा रखी हुई थी। उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्मा जी के वर ने उसे मतवाला कर रखा था; इसलिये वह सर्वथा निरंकुश और निर्भय हो रहा था। उसे देखकर देवता लोग डर के मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुड़ के डर से साँप छिप जाते हैं।

जब दैत्यराज हिरण्याक्ष ने देखा कि मेरे तेज के सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयंकर गर्जना करने लगा। फिर वह महाबली दैत्य वहाँ से लौटकर जलक्रीड़ा करने के लिये मतवाले हाथी के समान गहरे समुद्र में घुस गया, जिसमें लहरों की बड़ी भयंकर गर्जना हो रही थी। ज्यों ही उसने समुद्र में पैर रखा कि डर के मारे वरुण के सैनिक जलचर जीव हकबका गये और किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करने पर भी वे उसकी धाक से ही घबराकर बहुत दूर भाग गये। महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षों तक समुद्र में ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षी को न पाकर वह बार-बार वायु वेग से उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरंगों पर ही अपनी लोहमयी गदा को आजमाता रहा।

इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुण की राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा। वहाँ पाताल लोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुण जी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यंग से कहा- ‘महाराज! मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये। प्रभो! आप तो लोक-पालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपने को बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्यमद को भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसार के समस्त दैत्य-दानवों को जीतकर राजसूय यज्ञ भी किया था’। उस मदोन्मत्त शत्रु के इस प्रकार बहुत उपहास करने से भगवान् वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किंतु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कहने लगे- ‘भाई! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है। भगवान् पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं जो तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज! तुम उन्हीं के पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हीं का गुणगान किया करते हैं। वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायेगी और तुम कुत्तों से घिरकर वीर शय्या पर शयन करोगे। वे तुम-जैसे दुष्टों को मारने और सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये अनेक प्रकार के रूप धारण किया करते हैं’।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【अष्टादश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान् का युद्ध"
श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- तात! वरुण जी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उनके इस कथन पर कि ‘तू उनके हाथ से मारा जायेगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारद जी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने विश्वविजयी वराह भगवान् को अपनी दाढ़ों की नोक पर पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रों से उसके तेज को हरे लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे! यह जंगली पशु यहाँ जल में कहाँ से आया’। फिर वराह जी से कहा, ‘रे नासमझ! इधर आ, इस पृथ्वी को छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्मा जी ने हम रसातलवासियों के हवाले कर दिया है। रे सूकररूपधारी सुराधम! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता। तू माया से लुक-छिपकर ही दैत्यों को जीत लेता और मार डालता है। क्या इसी से हमारे शत्रुओं ने हमारा नाश कराने के लिये तुझे पाला है? मूढ़! तेरा बल तो योगमाया ही है और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही है। आज तुझे समाप्त कर मैं अपने बन्धुओं का शोक दूर करूँगा। जब मेरे हाथ से छूटी हुई गदा के प्रहार से सिर फट जाने के कारण तू मर जायेगा, तब तेरी आराधना करने वाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षों की भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’।

हिरण्याक्ष भगवान् को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँत की नोक पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जल से उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनी सहित गजराज। जब उसकी चुनौती का कोई उत्तर न देकर वे जल से बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ों वाले उस दैत्य ने उनका पीछा किया तथा वज्र के समान कड़ककर वह कहने लगा, ‘तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है?

भगवान् ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहार योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का संचार किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्मा जी ने उनकी स्तुति की और देवताओं ने फूल बरसाये। तब श्रीहरि ने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से, जो सोने के आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्यों से उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- अरे! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्रामसिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्युपाश में बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघा पर ध्यान नहीं देते। हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोड़कर तेरी गदा के भय से यहाँ भाग आये हैं। हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीर के सामने युद्ध में ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानों से वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 12-28 का हिन्दी अनुवाद)

तू पैदल वीरों का सरदार है, इसलिये अब निःशंक होकर-उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करने का प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओं के आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असभ्य है-भले आदमियों में बैठने लायक नहीं है।

मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जब भगवान् ने रोष से उस दैत्य का इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्प के समान क्रोध से तिलमिला उठा। वह खीझकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग से लपककर भगवान् पर गदा का प्रहार किया। किन्तु भगवान् ने अपनी छाती पर चलाई हुई शत्रु की गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया-ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है। फिर जब वह क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी ओर झपटे।

सौम्यस्वभाव विदुर जी! तब प्रभु ने शत्रु की दायीं भौंह पर गदा की चोट की, किन्तु गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया। इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे। उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अंग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अंगों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनों का क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरह के पैतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौ के लिये आपस में लड़ने वाले दो साँडों के समान उन दोनों में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।

विदुर जी! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और माया से वराह रूप धारण करने वाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वी के लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने वहाँ ऋषियों के सहित ब्रह्मा जी आये। वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भय नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे।

श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- देव! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणों की शरण में रहने वाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचाने वाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोड़ का और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करने वाले वीर की खोज में समस्त लोकों में घूम रहा है। यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरंकुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँप से खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें।
 देव! अच्युत! जब तक यह दारुण दैत्य अपनी बल-वृद्धि वेला को पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये। प्रभो! देखिये, लोकों का संहार करने वाली सन्ध्या की भयंकर वेला आना ही चाहती है। सर्वात्मन्! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये। इस समय अभिजित् नामक मंगलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अतः अपन सुहृद् हम लोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये। प्रभो! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है। हम लोगों के बड़े भाग्य हैं। अब आप युद्ध में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【एकोनविंश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"हिरण्याक्ष वध"
मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ब्रह्मा जी के कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान् ने उनके भोलेपन पर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्ष के द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रु की ठुड्डी पर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्ष की गदा से टकराकर वह गदा भगवान् के हाथ से छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीन पर गिरकर सुशोभित हुई। किंतु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई। उस समय शत्रु पर वार करने का अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्ष ने उन्हें निरस्त्र देखकर युद्ध धर्म का पालन करते हुए उन पर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान् का क्रोध बढ़ाने के लिये ही ऐसा किया था। गदा गिर जाने पर और लोगों का हाहाकार बंद हो जाने पर प्रभु ने उसकी धर्म बुद्धि की प्रशंसा की और अपने सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान् के हाथ में घूमने लगा। किंतु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्यधम हिरण्याक्ष के साथ विशेष रूप से क्रीड़ा करने लगे। उस समय उनके प्रभाव को न जानने वाले देवताओं के ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे- ‘प्रभो! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’।

जब हिरण्याक्ष ने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोध से तिलमिला उठीं और वह लम्बी साँसें लेता हुआ अपने दाँतों से होंठ चबाने लगा। उस समय वह तीखी दाढ़ों वाला दैत्य, अपने नेत्रों से इस प्रकार उनकी ओर घूरने लगा मानो वह भगवान् को भस्म कर देगा। उसने छलकर ‘ले अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते हुए श्रीहरि पर गदा से प्रहार किया।

साधुस्वभाव विदुर जी! यज्ञमूर्ति श्रीवाराह भगवान् ने शत्रु के देखते-देखते लीला से ही अपने बायें पैर से उसकी वह वायु के समान वेग वाली गदा पृथ्वी पर गिरा दी और उससे कहा, ‘अरे दैत्य! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर।’ भगवान् के इस प्रकार कहने पर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा। गदा को अपनी ओर आते देखकर भगवान् ने, जहाँ खड़े थे वहीं से, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड़ साँपिनी को पकड़ कर लें। अपने उद्यम को इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्य का घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अबकी बार भगवान् के देने पर उसने उस गदा को लेना न चाहा। किन्तु जिस प्रकार कोई ब्राह्मण के ऊपर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे-मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुष पर प्रहार करने के लिये एक प्रज्वलित अग्नि के समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया।

महाबली हिरण्याक्ष का अत्यन्त वेग से छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाश में बड़ी तेजी से चमकने लगा। तब भगवान् ने उसे अपनी तीखी धार वाले चक्र से इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्र ने गरुड़ जी के छोड़े हुए तेजस्वी पंख को काट डाला था।[1] भगवान् के चक्र से अपने त्रिशूल के बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्षःस्थल पर, जिस पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोर से गरजकर अन्तर्धान हो गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

विदुर जी! जैसे हाथी पर पुष्पमाला की चोट का कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसके इस प्रकार घूँसा मारने से भगवान् आदिवराह तनिक भी टस-से-मस नहीं हुए। तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरि पर अनेक प्रकार की मायाओं का प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझने लगी कि अब संसार का प्रलय होने वाला है। बड़ी प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जिसके कारण धूल से सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओर से पत्थरों की वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी क्षेपण यन्त्र (गुलेल) से फेंके जा रहे हों। बिजली की चमचमाहट और कड़क के साथ बादलों के घिर आने से आकाश में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीब, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियों की वर्षा होने लगी।

विदुर जी! ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी देने लगे, जो तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथ में त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियाँ दीखने लगीं। बहुत-से पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों पर चढ़े सनिकों के साथ आततायी यक्ष-राक्षसों का ‘मारो-मारो, काटो-काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी देने लगा। इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया-जाल का नाश करने के लिये यज्ञमूर्ति भगवान् वराह ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा। उस समय अपने पति का कथन स्मरण हो आने से दिति का हृदय सहसा काँप उठा और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा। अपना माया-जाल नष्ट हो जाने पर वह दैत्य फिर भगवान् के पास आया। उसने उन्हें क्रोध से दबाकर चूर-चूर करने की इच्छा से भुजाओं में भर लिया, किंतु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं। अब वह भगवान् को वज्र के समान कठोर मुक्कों से मारने लगा। तब इन्द्र ने जैसे वृत्रासुर पर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान् ने उसकी कनपटी पर एक तमाचा मारा।

विश्व विजयी भगवान् ने यद्यपि बड़ी उपेक्षा से तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोट से हिरण्याक्ष का शरीर घूमने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा। हिरण्याक्ष का तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ों वाले दैत्य को दाँतों से होठ चबाते पृथ्वी पर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है। अपनी मिथ्या उपाधि से छूटने के लिये जिनका योगिजन समाधियोग के द्वारा एकान्त में ध्यान करते हैं, उन्हीं के चरण-प्रहार उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराज ने अपना शरीर त्यागा। ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान् के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मों में ये फिर अपने स्थान पर पहुँच जायँगे’।

देवता लोग कहने लगे ;- 'प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप सम्पूर्ण यज्ञों का विस्तार करने वाले हैं तथा संसार की स्थिति के लिये शुद्धसत्त्वमय मंगलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्द की बात है कि संसार को कष्ट देने वाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब आपके चरणों की भक्ति के प्रभाव से हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी।'

मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध करके भगवान् आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धाम को पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 32-38 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् अवतार लेकर जैसी लीलाएँ करते हैं और जिस प्रकार उन्होंने भीषण संग्राम में खिलौने की भाँति महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध कर डाला, मित्र विदुर जी! वह सब चरित्र जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, तुम्हें सुना दिया।

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! मैत्रेय जी के मुख से भगवान् की कथा सुनकर परमभागवत विदुर जी को बड़ा आनन्द हुआ। जब अन्य पवित्रकीर्ति और परमयशस्वी महापुरुषों का चरित्र सुनने से ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान् की ललितललाम लीलाओं की तो बात ही क्या है।

जिस समय ग्राह के पकड़ने पर गजराज प्रभु के चरणों का ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दुःख से चिग्घाड़ने लगीं, उस समय जिन्होंने उन्हें तत्काल दुःख से छुड़ाया और जो सब ओर से निराश होकर अपनी शरण में आये हुए सरल हृदय भक्तों से सहज में ही प्रसन्न हो जाते हैं, किंतु दुष्ट पुरुषों के लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं-उन पर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभु के उपकारों को जानने वाला कौन ऐसा पुरुष है, जो उनका सेवन न करेगा?

शौनकादि ऋषियों! पृथ्वी का उद्धार करने के लिये वराहरूप धारण करने वाले श्रीहरि की इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीला को जो पुरुष सुनता, गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह ब्रह्महत्या-जैसे घोर पाप से भी सहज में ही छूट जाता हैं। यह चरित्र अत्यन्त पुण्यप्रद परमपवित्र, धन और यश की प्राप्ति कराने वाला तथा आयुवर्धक और कामनाओं की पूर्ति करने वाला तथा युद्ध में प्राण और इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाने वाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें अन्त में श्रीभगवान् का आश्रय प्राप्त होता है।


                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【विंश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रह्मा जी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन"
शौनक जी कहते हैं ;- सूत जी! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायम्भुव मनु ने आगे होने वाली सन्तति को उत्पन्न करने के लिये किन-किन उपायों का अवलम्बन किया?

विदुर जी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को, उनके पुत्र दुर्योधन के सहित, भगवान् श्रीकृष्ण का अनादर करने के कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था। वे महर्षि द्वैपायन के पुत्र थे और महिमा में उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रित और कृष्णभक्तों के अनुगामी थे। तीर्थ सेवन से उनका अन्तःकरण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्त क्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ मैत्रेय जी के पास जाकर और क्या पूछा?

सूत जी! उन दोनों में वार्तालाप होने पर श्रीहरिके चरणों से सम्बन्ध रखने वाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणों से निकले हुए गंगाजल के समान सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली होंगी। सूत जी! आपका मंगल हो, आप हमें भगवान् की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभु के उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं। भला, ऐसा कौन रसिक होगा जो श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते तृप्त हो जाये।

नैमिषारण्यवासी मुनियों के इस प्रकार पूछने पर उग्रश्रवा सूत जी ने भगवान् में चित्त लगाकर उनसे कहा- ‘सुनिये’।

सूत जी ने कहा ;- मुनिगण! अपनी माया से वराहरूप धारण करने वाले श्रीहरि की रसातल से पृथ्वी को निकालने और खेल में ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्ष को मार डालने की लीला सुनकर विदुर जी को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेय जी से कहा।

विदुर जी ने कहा ;- ब्रह्ममन्! आप परोक्ष विषयों को भी जानने वाले हैं; अतः यह बतलाइये कि प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्मा जी ने मरीचि आदि प्रजापतियों को उत्पन्न करके फिर सृष्टि को बढ़ाने के लिये क्या किया। मरीचि आदि मुनीश्वरों ने और स्वायम्भुव मनु ने भी ब्रह्मा जी की आज्ञा से किस प्रकार प्रजा की वृद्धि की? क्या उन्होंने इस जगत् को पत्नियों के सहयोग से उत्पन्न किया या अपने-अपने कार्य में स्वतन्त्र रहकर अथवा सबने एक साथ मिलकर इस जगत् की रचना की?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन है-उन जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियन्ता पुरुष और काल-इन तीनों हेतुओं से तथा भगवान् की सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। दैव की प्रेरणा से रजःप्रधान महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस- तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वों के अनेक वर्ग प्रकट किये। वे सब अलग-अलग रहकर भूतों के कार्यरूप ब्रह्माण्ड की रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान् की शक्ति से परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्ड की रचना की। वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्था में एक हजार वर्षों से भी अधिक समय तक कारणाब्धि के जल में पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान् ने प्रवेश किया। उसमें अधिष्ठित होने पर उनकी नाभि से सहस्र सूर्यों के समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदाय का आश्रय था। उसी से स्वयं ब्रह्मा जी का भी आविर्भाव हुआ है। जब ब्रह्माण्ड के गर्भरूप जल में शयन करने वाले श्रीनारायणदेव ने ब्रह्मा जी के अन्तःकरण में प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पों में अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्था के अनुसार लोकों की रचना करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

सबसे पहले उन्होंने अपनी छाया से तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह- यों पाँच प्रकार की अविद्या उत्पन की। ब्रह्मा जी को अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया। तब जिससे भूख-प्यास की उत्पत्ति होती है-ऐसे रात्रिरूप उस शरीर को उसी से उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसों ने ग्रहण कर लिया। उस समय भूख-प्यास से अभिभूत होकर वे ब्रह्मा जी को खाने को दौड़ पड़े और कहने लगे- ‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’, क्योंकि वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे। ब्रह्मा जी ने घबराकर उनसे कहा- ‘अरे यक्ष-राक्षसों! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो!’ (उनमें से जिन्होंने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा ‘रक्षा मत करो’, वे राक्षस कहलाये)।

फिर ब्रह्मा जी ने सात्त्विक प्रभा से देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की। उन्होंने क्रीड़ा करते हुए, ब्रह्मा जी के त्यागने पर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने जघनदेश से कामासक्त असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होने के कारण उत्पन्न होते ही मैथुन के लिये ब्रह्मा जी की ओर चले। यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरों को अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोर से भागे। तब उन्होंने भक्तों पर कृपा करने के लिये उनकी भावना के अनुसार दर्शन देने वाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरि के पास जाकर कहा-

ब्रह्मा जी बोले ;- ‘परमात्मन्! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी ही आज्ञा से प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप में प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है। नाथ! एकमात्र आप ही दुःखी जीवों का दुःख दूर करने वाले हैं और जो आपकी चरणशरण में नहीं आते, उन्हें दुःख देने वाले भी एकमात्र आप ही हैं’।

प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदय की जानने वाले हैं। उन्होंने ब्रह्मा जी की आतुरता देखकर कहा-
भगवान बोले ;- ‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीर को त्याग दो।’ भगवान् के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया। (ब्रह्मा जी का छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री-संध्यादेवी के रूप में परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब झंकृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित सजीली साड़ी से ढकी हुई थी। उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरे से सटे हुए थे कि उनके बीच में कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरों की ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टि से देख रही थी। वह नीली-नीली अलकावली से सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जा के मारे अपने अंचल में ही सिमटी जाती थी।

विदुर जी! उस सुन्दरी को देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये। ‘अहो! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीड़ितों के बीच में यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’।

इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्यों ने स्त्रीरूपिणी सन्ध्या के विषय में तरह-तरह के तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा- ‘सुन्दरि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? भामिनी! यहाँ तुम्हारे आने का क्या प्रयोजन है? तुम अपने अनूप रूप का यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागों को क्यों तरसा रही हो। अबले! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ-यह बड़े सौभाग्य की बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकों के मन को मथे डालती हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद)

सुन्दरि! जब तुम उछलती हुई गेंद पर अपनी हथेली की थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनों के भार से थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टि से भी थकावट झलकने लगती है। अहो! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’। इस प्रकार स्त्रीरूप से प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्या ने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ों ने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया।

तदनन्तर ब्रह्मा जी ने गम्भीर भाव से हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्ति से, जो अपने सौन्दर्य का मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओं को उत्पन्न किया। उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका) रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीर को त्याग दिया। उसी को विश्वावसु आदि गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्मा ने अपनी तन्द्रा से भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं। ब्रह्मा जी के त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीर को भूत-पिशाचों ने ग्रहण किया। इसी को निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवों की इन्द्रियों में शिथिलता आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुँह सो जाता है तो उस पर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसी को उन्माद कहते हैं।

फिर भगवान् ब्रह्मा ने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्यरूप से साध्यगण एवं पितृगण को उत्पन्न किया। पितरों ने अपनी उत्पत्ति के स्थान उस अदृश्य शरीर को ग्रहण कर लिया। इसी को लक्ष्य में रखकर पण्डितजन श्राद्धादि के द्वारा पितर और साध्यगणों को क्रमशः कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं। अपनी तिरोधान शक्ति से ब्रह्मा जी ने सिद्ध और विद्याधरों की सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धान नामक अद्भुत शरीर दिया।

एक बार ब्रह्मा जी ने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपने को बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये। उन्होंने ब्रह्मा जी के त्याग देने पर उनका वह प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उषःकाल में अपनी पत्नियों के साथ मिलकर ब्रह्मा जी के गुण-कर्मादी का गान किया करते हैं। एक बार ब्रह्मा जी सृष्टि की वृद्धि न होने के कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवों को फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीर को त्याग दिया। उससे जो बाल झड़कर गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोड़कर चलने से क्रूर स्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फणरूप से कंधे के पास बहुत फैला होता है।

एक बार ब्रह्मा जी ने अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्त में उन्होंने अपने मन से मनुओं की सृष्टि की। ये सब प्रजा की वृद्धि करने वाले हैं। मनस्वी ब्रह्मा जी ने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओं को देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्मा जी की स्तुति करने लगे। वे बोले, ‘विश्वकर्ता ब्रह्मा जी! आपकी यह (मनुओं की) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्निहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इसकी सहायता से हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे’। फिर आदिऋषि ब्रह्मा जी ने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगण की रचना की और उनमें से प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीर का अंश दिया।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें