सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fourth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fourth wing) ]



                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【एकादश अध्याय:】११.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"स्वायम्भुव-मनु का ध्रुव जी को युद्ध बंद करने के लिये समझाना"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ऋषियों का ऐसा कथन सुनकर महाराज ध्रुव ने आचमन कर श्रीनारायण के बनाये हुए नारायणास्त्र को अपने धनुष पर चढ़ाया। उस बाण के चढ़ाते ही यक्षों द्वारा रची हुई नाना प्रकार की माया उसी क्षण नष्ट हो गयी, जिस प्रकार ज्ञान का उदय होने पर अविद्यादि क्लेश नष्ट हो जाते हैं।

ऋषिवर नारायण के द्वारा आविष्कृत उस अस्त्र को धनुष पर चढ़ाते ही उससे राजहंस के-से पक्ष और सोने के फल वाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर केकारव करते वन में घुस जाते हैं, उसी प्रकार भयानक सांय-सांय शब्द करते हुए वे शत्रु की सेना में घुस गये। उन तीखी धार वाले बाणों ने शत्रुओं को बेचैन कर दिया। तब उस रणांगण में अनेकों यक्षों ने अत्यन्त कुपित होकार अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार गरुड़ के छेड़ने से बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधर से ध्रुव जी पर टूट पड़े। उन्हें सामने आते देख ध्रुव जी ने अपने बाणों द्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे, और उदर आदि अंग-प्रत्यंगों को छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ लोक (सत्यलोक) में भेज दिया, जिसमें उर्ध्वरेता मुनिगण सूर्यमण्डल का भेदन करके जाते हैं। अब उनके पितामह स्वयाम्भुव मनु ने देखा कि विचित्र रथ पर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षों को मार रहे हैं, तो उन्हें उन पर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियों को साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुव को समझाने लगे।

मनु जी ने कहा ;- बेटा! बस, बस! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी नरक का द्वार है। इसी के वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षों का वध किया है। तात! तुम तो निर्दोष यक्षों के संहार पर उतर रहे हो, यह हमारे कुल के योग्य कर्म नहीं है; साधु पुरुष इसकी बड़ी निन्दा करते हैं। बेटा! तुम्हारा अपने भाई पर अनुराग था, यह तो ठीक है; परन्तु देखो, उसके वध से सन्तप्त होकर तुमने एक यक्ष के अपराध करने पर प्रसंगवश कितनों की हत्या कर डाली। इस जड़ शरीर को ही आत्मा मानकर इसके लिये पशुओं की भाँति प्राणियों की हिंसा करना यह भगवत्सेवी साधुजनों का मार्ग नहीं है। प्रभु की आराधना करना बड़ा कठिन है, परन्तु तुमने तो लड़कपन में ही सम्पूर्ण भूतों के आश्रय-स्थान श्रीहरि की सर्वभूतात्मा भाव से आराधना करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया है। तुम्हें तो प्रभु भी अपना प्रिय भक्त समझते हैं तथा भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं। तुम साधुजनों के पथप्रदर्शक हो; फिर भी तुमने ऐसा निन्दनीय कर्म कैसे किया?

सर्वात्मा श्रीहरि तो अपने से बड़े पुरुषों के प्रति सहनशीलता, छोटों के प्रति दया, बराबर वालों के साथ मित्रता और समस्त जीवों के साथ समता का बर्ताव करने से ही प्रसन्न होते हैं और प्रभु के प्रसन्न हो जाने पर पुरुष प्राकृत गुण एवं उनके कार्यरूप लिंगशरीर से छूटकर परमानन्दस्वरूप ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है।

बेटा ध्रुव! देहादि के रूप में परिणत हुए पंचभूतों से स्त्री-पुरुष का आविर्भाव होता है और फिर उनके पारम्परिक समागम से दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद)

ध्रुव! इस प्रकार भगवान् की माया से सत्त्वादि गुणों में न्यूनाधिक भाव होने से ही जैसे भूतों द्वारा शरीरों की रचना होती है, वैसे ही उनकी स्थिति और प्रलय भी होते हैं। पुरुषश्रेष्ठ! निर्गुण परमात्मा तो इनमें केवल निमित्तमात्र है; उसके आश्रय से यह कार्यकरणात्मक जगत् उसी प्रकार भ्रमता रहता है, जैसे चुम्बक के आश्रय से लोहा। काल-शक्ति के द्वारा क्रमशः सत्त्वादि गुणों में क्षोभ होने से लीलामय भगवान् की शक्ति भी सृष्टि आदि के रूप में विभक्त हो जाती है; अतः भगवान् अकर्ता होकर भी जगत् की रचना करते हैं और संहार करने वाले न होकर भी इसका संहार करते हैं। सचमुच उन अनन्त प्रभु की लीला सर्वथा अचिन्तनीय है। ध्रुव! वे कालस्वरूप अव्यय परमात्मा ही स्वयं अन्तरहित होकर भी जगत् का अन्त करने वाले हैं तथा अनादि होकर भी सबके आदिकर्ता हैं। वे ही एक जीव से दूसरे जीव को उत्पन्न कर संसार की सृष्टि करते हैं तथा मृत्यु के द्वारा मारने वाले को भी मरवाकर उसका संहार करते हैं। वे काल भगवान् सम्पूर्ण सृष्टि में समान रूप से अनुप्रविष्ट हैं। उनका न तो कोई मित्र पक्ष है और न शत्रु पक्ष। जैसे वायु के चलने पर धूल उसके साथ-साथ उड़ती है, उसी प्रकार समस्त जीव अपने-अपने कर्मों के अधीन होकर काल की गति का अनुसरण करते हैं-अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःखादि फल भोगते हैं। सर्वसमर्थ श्रीहरि कर्मबन्धन में बँधे हुए जीव की आयु की वृद्धि और क्षय का विधान करते हैं, परन्तु वे स्वयं इन दोनों से रहित और अपने स्वरूप में स्थित हैं।

राजन्! इन परमात्मा को ही मीमांसक लोग कर्म, चार्वाक, स्वभाव, वैशेषिक मतावलम्बी काल, ज्योतिषी दैव और कामशास्त्री काम कहते हैं। वे किसी भी इन्द्रिय या प्रमाण के विषय नहीं हैं। महदादि अनेक शक्तियाँ भी उन्हीं से प्रकट हुईं हैं। वे क्या करना चाहते हैं, इस बात को भी संसार में कोई नहीं जानता; फिर अपने मूल कारण उन प्रभु को तो जान ही कौन सकता है। बेटा! ये कुबेर के अनुचर तुम्हारे भाई को मारने वाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य के जन्म-मरण का वास्तविक कारण तो ईश्वर है। एकमात्र वही संसार को रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकारशून्य होने के कारण इसके गुण और कर्मों से वह सदा निर्लेप रहता है। वे सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा, नियन्ता और रक्षा करने वाले प्रभु ही अपनी मायाशक्ति से युक्त होकर समस्त जीवों का सृजन, पालन और संहार करते हैं। जिस प्रकार नाक में नकेल पड़े हुए बैल अपने मालिक का बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरी से बँधे हुए उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हैं। वे अभक्तों के लिये मृत्युरूप और भक्तों के लिये अमृतरूप हैं तथा संसार के एकमात्र आश्रय हैं।

तात! तुम सब प्रकार उन्हीं परमात्मा की शरण लो। तुम पाँच वर्ष की ही अवस्था में अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर माँ की गोद छोड़कर वन को चले गये थे। वहाँ तपस्या द्वारा जिन हृषीकेश भगवान् की आराधना करके तुमने त्रिलोकी से ऊपर ध्रुवपद प्राप्त किया है और जो तुम्हारे वैरभावहीन सरल हृदय में वात्सल्यवश विशेष रूप से विराजमान हुए थे, उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्मा को अध्यात्म दृष्टि से अपने अन्तःकरण में ढूँढो। उनमें यह भेदभावमय प्रपंच न होने पर भी प्रतीत हो रहा है। ऐसा करने से सर्वशक्तिसम्पन्न परमानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी भगवान् अनन्त में तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति होगी और उसके प्रभाव से तुम मैं-मेरेपन के रूप में दृढ़ हुई अविद्या की गाँठ को काट डालोगे।

राजन्! जिस प्रकार ओषधि से रोग शान्त किया जाता है-उसी प्रकार मैंने तुम्हें जो कुछ उपदेश दिया है, उस पर विचार करके अपने क्रोध को शान्त करो। क्रोध कल्याण मार्ग का बड़ा ही विरोधी है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें। क्रोध के वशीभूत हुए पुरुष से सभी लोगों को बड़ा भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि मुझसे किसी भी प्राणी को भय न हो और मुझे भी किसी से भय न हो, उसे क्रोध के वश में कभी न होना चाहिये। तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाई के मारने वाले हैं, इतने यक्षों का संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शंकर के सखा कुबेर जी का बड़ा अपराध हुआ है। इसलिये बेटा! जब तक कि महापुरुषों का तेज हमारे कुल को आक्रान्त नहीं कर लेता; इसके पहले ही विनम्र भाषण और विनय के द्वारा शीघ्र उन्हें प्रसन्न कर लो।

इस प्रकार स्वयाम्भुव मनु ने अपने पौत्र ध्रुव को शिक्षा दी। तब ध्रुव जी ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियों के सहित अपने लोक को चले गये।


                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【द्वादश अध्याय:】१२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नर लोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुव जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेर ने कहा।

श्रीकुबेर जी बोले ;- शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार! तुमने अपने दादा के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग कर दिया; इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में न तुमने यक्षों को मारा है और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को। समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है। यह मैं-तू आदि मिथ्या बुद्धि तो जीव को अज्ञानवश स्वप्न के समान शरीरादि को ही आत्मा मानने से उत्पन्न होती है। इसी से मनुष्य को बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति होती है।

ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। तुम संसारपास से मुक्त होने के लिये सब जीवों में समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरि का भजन करो। वे संसारपाश का छेदन करने वाले हैं तथा संसार की उत्पत्ति आदि के लिये अपनी त्रिगुणात्मिक मायाशक्ति से युक्त होकर भी वास्तव में उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करने योग्य हैं। प्रियवर! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों के समीप रहने वाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पाने योग्य हो। ध्रुव! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! यक्षराज कुबेर ने जब इस प्रकार वर माँगने के लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुव जी ने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसार सागर को पार कर जाता है। इडविडा के पुत्र कुबेर जी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रुव जी भी अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफल के दाता भी हैं। सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युत में प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुव जी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे।

ध्रुव जी बड़े ही शील सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादा के रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्य भोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया। जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुव ने इसी तरह अर्थ, धर्म और काम के सम्पादन में बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया। इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच को अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगर के समान माया से अपने में ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहार भूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य- ये सभी काल के गाल में पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रम को चले गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 17-19 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ उन्होंने पवित्र जल में स्नान कर इन्द्रियों को विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसन से बैठकर प्राणायाम द्वारा वायु को वश में किया। तदनन्तर मन के द्वारा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को भगवान् के स्थूल विराट्स्वरूप में स्थिर कर दिया। उसी विराट्रूप का चिन्तन करते-करते अन्त में ध्याता और ध्येय के भेद से शून्य निर्विकल्प समाधि में लीन हो गये और उस अवस्था में विराट्रूप का भी परित्याग कर दिया। इस प्रकार भगवान् श्रीहरि के प्रति निरन्तर भक्तिभाव का प्रवाह चलते रहने से उनके नेत्रों में बार-बार आनन्दाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती थी। इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीर में रोमांच हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जाने से उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इसकी स्मृति भी न रही।

इसी समय ध्रुव जी ने आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाश से दसों-दिशाओं को आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमा का चन्द्र ही उदय हुआ हो। उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओं का सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमल के समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरि के सेवक जान ध्रुव जी हड़बड़ाहट में पूजा आदि का क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान् के पार्षदों में प्रधान हैं-ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदन के नामों का कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। ध्रुव जी का मन भगवान् के चरणकमलों में तल्लीन हो गया और वे हाथ जोडकर बड़ी नम्रता से सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरि के प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा।

सुनन्द और नन्द कहने लगे- राजन्! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था। हम उन्हीं निखिल जगन्नियन्ता सारंगपाणि भगवान् विष्णु के सेवक हैं और आपको भगवान् के धाम में ले जाने के लिये यहाँ आये हैं। आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक का अधिकार प्राप्त किया है, जो औरों के लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँ तक नहीं पहुँच सके, वे नीचे से केवल उसे देखते रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाम में निवास कीजिये। प्रियवर! आज तक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पद पर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान् विष्णु का वह परमधाम सारे संसार में वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों। आयुष्मन्! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोक शिखामणि श्रीहरि ने आपके लिये ही भेजा है, आप इस पर चढ़ने योग्य हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवान् के प्रमुख पार्षदों के ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुव जी ने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्य-कर्म से निवृत्त हो मांगलिक अलंकारादि धारण किये। बदरिकाश्रम में रहने वाले मुनियों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। इसके बाद उस श्रेष्ठ विमान की पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदों को प्रणाम कर सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिव्यरूप धारण कर उस पर चढ़ने को तैयार हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 30-52 का हिन्दी अनुवाद)

इतने में ही ध्रुव जी ने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्यु के सिर पर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमान पर चढ़ गये। उस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी। विमान पर बैठकर ध्रुव जी ज्यों-ही भगवान् के धाम को जाने के लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें माता सुनीति का स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा? नन्द और सुनन्द ने ध्रुव के हृदय की बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमान पर जा रही हैं। उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्ग में जहाँ-तहाँ विमानों पर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलों की वर्षा करते जाते थे।

उस दिव्य विमान पर बैठकर ध्रुव जी त्रिलोकी को पारकर सप्तर्षिमण्डल से भी ऊपर भगवान् विष्णु के नित्यधाम में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की। यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, इसी के प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवों पर निर्दयता करने वाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हीं की पहुँच होती है, जो दिन-रात प्राणियों के कल्याण के लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं। जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियों को प्रसन्न रखने वाले हैं तथा भगवद्भक्तों को ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद मानते हैं- ऐसे लोग सुगमता से ही इस भगवद्धाम को पाप्त कर लेते हैं। इस प्रकार उत्तानपाद के पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुव जी तीनों लोकों के ऊपर उसकी निर्मल चूड़ामणि के समान विराजमान हुए।

कुरुनन्दन! जिस प्रकार दायँ चलाने के समय खम्भे के चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेग वाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोक के आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है। उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारद ने प्रचेताओं की यज्ञशाला में वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे।

नारद जी ने कहा ;- इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव ने तपस्या द्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मों की आलोचना करके वेदवाणी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है। अहो! वे पाँच वर्ष की अवस्थाओं में ही सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर दुःखी हृदय से वन में चले गये और मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभु को जीत लिया, जो केवल अपने भक्तों के गुणों से ही वश में होते हैं। ध्रुव जी ने तो पाँच-छः वर्ष की अवस्था में कुछ दिनों की तपस्या से ही भगवान् को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पद को भूमण्डल में कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षो तक तपस्या करके भी पा सकता है?

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुव जी के चरित्र के विषय में पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्र की बड़ी प्रशंसा करते हैं। यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, परम पवित्र और अत्यत्न मंगलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह देवत्व की प्राप्ति कराने वाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समत पापों का नाश करने वाला है। भगवद्भक्त ध्रुव के इस पवित्र चरित्र को जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। इसे श्रवण करने वाले को शीलादि गुणों की प्राप्ति होती है, जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्व की प्राप्ति कराने वाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियों का मान बढ़ता है।

पवित्रकीर्ति ध्रुव जी के इस महान् चरित्र का प्रातः और सायंकाल ब्रह्माणादि द्विजातियों के समान में एकाग्रचित्त से कीर्तन करना चाहिये। भगवान् के परम पवित्र चरणों की शरण में रहने वाला जो पुरुष इसे निष्कामभाव से पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवार के दिन श्रद्धालु पुरुषों को सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है। यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं- उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुष पर देवता अनुग्रह करते हैं। ध्रुव जी के कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं; वे अपनी बाल्यावस्था में ही माता के घर और खिलौनों का मोह छोड़कर श्रीविष्णु भगवान् की शरण में चले गये थे। कुरुनन्दन! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【त्रयोदश अध्याय:】१३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"ध्रुववंश का वर्णन, राजा अंग का चरित्र"
श्रीसूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! श्रीमैत्रेय मुनि के मुख से ध्रुव जी के विष्णुपद पर आरूढ़ होने का वृत्तान्त सुनकर विदुर जी के हृदय में भगवान् विष्णु की भक्ति का उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेय जी से प्रश्न करना आरम्भ किया।

विदुर जी ने पूछा ;- भगवत्परायण मुने! ये प्रचेता कौन थे? किसके पुत्र थे? किसके वंश में प्रसिद्ध थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था? भगवान् के दर्शन से कृतार्थ नारद जी परम भागवत हैं- ऐसा मैं मानता हूँ। उन्होंने पांचरात्र का निर्माण करके श्रीहरि की पूजा पद्धतिरूप क्रियायोग का उपदेश किया है। जिस समय प्रचेतागण स्वधर्म का आचरण करते हुए भगवान् यज्ञेश्वर की आराधना कर रहे थे, उसी समय भक्तप्रवर नारद जी ने ध्रुव का गुणगान किया था। ब्रह्मन्! उस स्थान पर उन्होंने भगवान् की जिन-जिन लीला-कथाओं का वर्णन किया था, वे सब पूर्णरूप से मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुनने की बड़ी इच्छा है।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! महाराज ध्रुव के वन चले जाने पर उनके पुत्र उत्कल ने अपने पिता के सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासन को अस्वीकार कर दिया। वह जन्म से ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य और समदर्शी था; तथा सम्पूर्ण लोकों को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को सपूर्ण लोकों में स्थित देखता था। उसके अन्तःकरण का वासनारूप मल अखण्ड योगाग्नि से भस्म हो गया था। इसलिये वह अपनी आत्मा को विशुद्ध बोधरस के साथ अभिन्न, आनन्दमय और सर्वत्र व्याप्त देखता था। सब प्रकार के भेद से रहित प्रशान्त ब्रह्म को ही वह अपना स्वरूप समझता था; तथा अपनी आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं देखता था। वह अज्ञानियों को रास्ते आदि साधारण स्थानों में बिना लपट की आग के समान मूर्ख, अंधा, बहिरा, पागल अथवा गूँगा-सा प्रतीत होता था- वास्तव में ऐसा था नहीं। इसलिये कुल के बड़े-बूढ़े तथा मन्त्रियों ने उसे मूर्ख और पागल समझकर उसके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सर को राजा बनाया।

वत्सर की प्रेयसी भार्या स्वर्वीथि के गर्भ से पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु और जय नाम के छः पुत्र हुए। पुष्पार्ण के प्रभा और दोषा नाम की दो स्त्रियाँ थीं; उनमें से प्रभा के प्रातः, मध्यन्दिन और सायं- ये तीन पुत्र हुए। दोषा के प्रदोष, निशीथ और वयुष्ट- ये तीन पुत्र हुए। वयुष्ट ने अपनी भार्या पुष्करिणी से सर्वतेजा नाम का पुत्र उत्पन्न किया। उसकी पत्नी आकूति से चक्षुः नामक पुत्र हुआ। चाक्षुष मन्वन्तर में वही मनु हुआ। चक्षु मनु की स्त्री नड्वला से पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिबि और उल्मुक- ये बारह सत्त्वगुणी बालक उत्पन्न हुए। इसमें उल्मुक ने अपनी पत्नी पुष्करिणी से अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय- ये छः उत्तम पुत्र उत्पन्न किये। अंग की पत्नी सुनीथा ने क्रूरकर्मा वेन को जन्म दिया, जिसकी दुष्टता से उद्विग्न होकर राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गये थे।

प्यारे विदुर जी! मुनियों के वाक्य वज्र के समान अमोघ होते हैं; उन्होंने कुपित होकर वेन को शाप दिया और जब वह मर गया, तब कोई राजा न रहने के कारण लोक में लुटेरों के द्वारा प्रजा को बहुत कष्ट होने लगा। यह देखकर उन्होंने वेन की दाहिन भुजा का मन्थन किया, जिससे भगवान् विष्णु के अंशावतार आदि सम्राट् महाराज पृथु प्रकट हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)

विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! महाराज अंग तो बड़े शीलसम्पन्न, साधुस्वभाव, ब्राह्मण-भक्त और महात्मा थे। उनके वेन जैसा दुष्ट पुत्र कैसे हुआ, जिसके कारण दुःखी होकर उन्हें नगर छोड़ना पड़ा। राजदण्डधारी वेन का भी ऐसा क्या अपराध था, जो धर्मज्ञ मुनीश्वरों ने उसके प्रति शापरूप ब्रह्मदण्ड का प्रयोग किया। प्रजा का कर्तव्य है कि वह प्रजापालक राजा से कोई पाप बन जाये तो भी उसका तिरस्कार न करे; क्योंकि वह अपने प्रभाव से आठ लोकपालों के तेज को धारण करता है। ब्रह्मन्! आप भूत-भविष्य की बातें जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिये आप मुझे सुनीथा के पुत्र वेन की सब करतूतें सुनाइये। मैं आपका श्रद्धालु भक्त हूँ।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! एक बार राजर्षि अंग ने अश्वमेध महायज्ञ का अनुष्ठान किया। उसमें वेदवादी ब्राह्मणों के आवाहन करने पर भी देवता लोग अपना भाग लेने नहीं आये। 
तब ऋत्विजों ने विस्मित होकर यजमान अंग से कहा- ‘राजन्! हम आहुतियों के रूप में आपका जो घृत आदि पदार्थ हवन कर रहे हैं, उसे देवता लोग स्वीकार नहीं करते। हम जानते हैं आपकी होम-सामग्री दूषित नहीं है; आपने उसे बड़ी श्रद्धा से जुटाया है तथा वेदमन्त्र भी किसी प्रकार बलहीन नहीं हैं; क्योंकि उनका प्रयोग करने वाले ऋत्विज् गण याजकोचित सभी नियमों का पूर्णतया पालन करते हैं। हमें ऐसी कोई बात नहीं दीखती कि इस यज्ञ में देवताओं का किंचित् भी तिरस्कार हुआ है- फिर भी कर्माध्यक्ष देवता लोग क्यों अपना भाग नहीं ले रहे हैं?

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- ऋत्विजों की बात सुनकर यजमान अंग बहुत उदास हुए। तब उन्होंने याजकों की अनुमति से मौन तोड़कर सदस्यों से पूछा। ‘सदस्यों! देवता लोग आवाहन करने पर भी यज्ञ में नहीं आ रहे हैं और न सोमपात्र ही ग्रहण करते हैं; आप बतलाइये मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ है?

सदस्यों ने कहा ;- राजन्! इस जन्म में तो आपसे तनिक भी अपराध नहीं हुआ; हाँ पूर्वजन्म का एक अपराध अवश्य है, जिसके कारण आप ऐसे सर्वगुण-सम्पन्न होने पर भी पुत्रहीन हैं। आपका कल्याण हो! इसलिये पहले आप सुपुत्र प्राप्त करने का कोई उपाय कीजिये। यदि आप पुत्र की कामना से यज्ञ करेंगे, तो भगवान् यज्ञेश्वर आपको अवश्य पुत्र प्रदान करेंगे। जब सन्तान के लिये साक्षात् यज्ञपुरुष श्रीहरि का आवाहन किया जायेगा, तब देवता लोग स्वयं ही अपना-अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करेंगे। भक्त जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, श्रीहरि उसे वही-वही पदार्थ देते है। उनकी जिस प्रकार आराधना की जाती है उसी प्रकार उपासक को फल भी मिलता है।

इस प्रकार राजा अंग को पुत्र प्राप्ति कराने का निश्चय कर ऋत्विजों ने पशु में यज्ञरूप से रहने वाले श्रीविष्णु भगवान् के पूजन के लिये पुरोडश नामक चरु समर्पण किया। अग्नि में आहुति डालते ही अग्निकुण्ड से सोने के हार और शुभ्र वस्त्रों से विभूषित एक पुरुष प्रकट हुए; वे एक स्वर्णपात्र में सिद्ध खीर लिये हुए थे। उदार बुद्धि राजा अंग ने याजकों की अनुमति से अपनी अंजलि में वह खीर ले ली और उसे स्वयं सूँघकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी को दे दिया। पुत्रहीना रानी ने वह पुत्रप्रदायिनी खीर खाकर अपने पति के सहवास से गर्भ धारण किया। उससे यथा समय उसके एक पुत्र हुआ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद)

वह बालक बाल्यावस्था से ही अधर्म के वंश में उत्पन्न हुए अपने नाना मृत्यु का अनुगामी था (सुनीथा मृत्यु की ही पुत्री थी); इसलिये वह भी अधार्मिक ही हुआ। वह दुष्ट वेन धनुष-बाण चढ़ाकर वन में जाता और व्याध के समान बेचारे भोले-भाले हरिणों की हत्या करता। उसे देखते ही पुरवासी लोग ‘वेन आया! वेन आया!’ कहकर पुकार उठते। वह ऐसा क्रूर और निर्दयी था कि मैदान में खेलते हुए अपनी बराबरी के बालकों को पशुओं की भाँति बलात् मार डालता।

वेन की ऐसी दुष्ट प्रकृति देखकर महाराज अंग ने उसे तरह-तरह से सुधारने की चेष्टा की; परन्तु वे उसे सुमार्ग पर लाने में समर्थ न हुए। इससे उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ। (वे मन-ही-मन कहने लगे-) ‘जिन गृहस्थों के पुत्र नहीं हैं, उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्म में श्रीहरि की आराधना की होगी; इसी से उन्हें कुपूत की करतूतों से होने वाले असह्य क्लेश नहीं सहने पड़ते। जिसकी करनी से माता-पिता का सारा सुयश मिट्टी में मिल जाये, उन्हें अधर्म का भागी होना पड़े, सबसे विरोध हो जाये, कभी न छूटने वाली चिन्ता मोल लेनी पड़े और घर भी दुःखदायी हो जाये-ऐसी नाममात्र की सन्तान के लिये कौन समझदार पुरुष ललचावेगा? वह तो आत्मा के लिये एक प्रकार का मोहमय बन्धन ही है। मैं तो सपूत की अपेक्षा कुपूत को ही अच्छा समझता हूँ; क्योंकि सपूत को छोड़ने में बड़ा क्लेश होता है। कुपूत घर को नरक बना देता है, इसलिये उससे सहज ही छुटकारा हो जाता है’।

इस प्रकार सोचते-सोचते महाराज अंग को रात में नींद नहीं आयी। उनका चित्त गृहस्थी से विरक्त हो गया। वे आधी रात के समय बिछौने से उठे। इस समय वेन की माता नींद में बेसुध पड़ी थी। राजा ने सबका मोह छोड़ दिया और उसी समय किसी को भी मालूम न हो, इस प्रकार चुपचाप उस महान् ऐश्वर्य से भरे राजमहल से निकलकर वन को चल दिये। महाराज विरक्त होकर घर से निकल गये हैं, यह जानकर सभी प्रजाजन, पुरोहित, मन्त्री और सुहृद्गण आदि अत्यन्त शोकाकुल होकर पृथ्वी पर उनकी खोज करने लगे। ठीक वैसे ही, जैसे योग का यथार्थ रहस्य न जानने वाले पुरुष अपने हृदय में छिपे हुए भगवान् को बाहर खोजते हैं।

जब उन्हें अपने स्वामी का कहीं पता न लगा, तब वे निराश होकर नगर में लौट आये और वहाँ जो मुनिजन एकत्रित हुए थे, उन्हें यथावत् प्रणाम करके उन्होंने आँखों में आँसू भरकर महाराज के न मिलने का वृत्तान्त सुनाया।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【चतुर्दश अध्याय:】१४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1- 17 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा वेन की कथा"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- वीरवर विदुर जी! सभी लोकों की कुशल चाहने वाले भृगु आदि मुनियों ने देखा कि अंग के चले जाने से अब पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं रह गया है, सब लोग पशुओं के समान उच्छ्रंखल होते जा रहे हैं। तब उन्होंने माता सुनीथा की सम्मति से, मन्त्रियों के सहमत न होने पर भी वेन को भूमण्डल के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया। वेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर-डाकुओं ने सुना कि वही राजसिंहासन पर बैठा है, तब सर्प से डरे हुए चूहों के समान वे सब तुरंत ही जहाँ-तहाँ छिप गये।

राज्यासन पाने पर वेन आठों लोकपालों की ऐश्वर्यकला के कारण उन्मत्त हो गया और अभिमानवश अपने को ही सबसे बड़ा मानकर महापुरुषों का अपमान करने लगा। वह ऐश्वर्यमद से अंधा हो रथ पर चढ़कर निरंकुश गजराज के समान पृथ्वी और आकाश को कँपाता हुआ सर्वत्र विचरने लगा। ‘कोई भी द्विजातिय वर्ण का पुरुष कभी प्रकार का यज्ञ, दान और हवन न करे’ अपने राज्य में यह ढिंढोरा पिटवाकर उसने सारे धर्म-कर्म बंद करवा दिये। दुष्ट वेन का ऐसा अत्याचार देख सारे ऋषि-मुनि एकत्र हुए और संसार पर संकट आया समझकर करुणावश आपस में कहने लगे- ‘अहो! जैसे दोनों ओर जलती हुई लकड़ी के बीच में रहने वाले चीटी आदि जीव महान् संकट में पड़ जाते हैं, वैसे ही इस समय सारी प्रजा एक ओर राजा के और दूसरी ओर चोर-डाकुओं के अत्याचार से महान् संकट में पड़ रही है। हमने अराजकता के भय से ही अयोग्य होने पर भी वेन को राजा बनाया था; किन्तु अब उससे भी प्रजा को भय हो गया। ऐसी अवस्था में प्रजा को किस प्रकार सुख-शान्ति मिल सकती है? सुनीथा की कोख से उत्पन्न हुआ यह वेन स्वभाव से ही दुष्ट है। परन्तु साँप को दूध पिलाने के समान इसको पालना, पालने वालों के लिये अनर्थ का कारण हो गया। हमने इसे प्रजा की रक्षा करने के लिये नियुक्त किया था, यह आज उसी को नष्ट करने पर तुला हुआ है। इतना सब होने पर भी हमें इसे समझाना अवश्य चाहिये; ऐसा करने से इसके किये हुए पाप हमें स्पर्श नहीं करेंगे। हमने जान-बूझकर दुराचारी वेन को राजा बनाया था। किन्तु यदि समझाने पर भी यह हमारी बात नहीं मानेगा, तो लोक के धिक्कार से दग्ध हुए इस दुष्ट को हम अपने तेज से भस्म कर देंगे।’ ऐसा विचार करके मुनि लोग वेन के पास गये और अपने क्रोध को छिपाकर उसे प्रिय वचनों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे।

मुनियों ने कहा ;- राजन्! हम आपसे जो बात कहते हैं, उस पर ध्यान दिजिय। इससे आपकी आयु, श्री, बल और कीर्ति की वृद्धि होगी। तात! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का आचरण करे, तो उसे स्वर्गादि शोकरहित लोकों की प्राप्ति होती है। यदि उसका निष्कामभाव हो, तब तो वही धर्म उसे अनन्त मोक्षपद पर पहुँचा देता है। इसलिये वीरवर! प्रजा का कल्याणरूप वह धर्म आपके कारण नष्ट नहीं होना चाहिये। धर्म के नष्ट होने से राजा भी ऐश्वर्य से च्युत हो जाता है। जो राजा दुष्ट मन्त्री और चोर आदि से अपनी प्रजा की रक्षा करते हुए न्यायाकूल रहता है, वह इस लोक में और परलोक में दोनों जगह सुख पाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

जिसके राज्य अथवा नगर में वर्णाश्रम-धर्मों का पालन करने वाले पुरुष स्वधर्मपालन के द्वारा भगवान् यज्ञपुरुष की आरधना करते हैं, महाभाग! अपनी आज्ञा का पालन करने वाले उस राजा से भगवान् प्रसन्न रहते हैं; क्योंकि वे ही सारे विश्व की आत्मा तथा सम्पूर्ण भूतों के रक्षक हैं। भगवान् ब्रह्मादि जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं, उनके प्रसन्न होने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तभी तो इन्द्रादि लोकपालों के सहित समस्त लोक उन्हें बड़े आदर से पूजपोहार समर्पण करते हैं।

राजन्! भगवान् श्रीहरि समस्त लोक, लोकपाल और यज्ञों के नियन्ता है; वे वेदत्रयीरूप, द्रव्यरूप और तपःस्वरूप हैं। इसलिये आपके जो देशवासी आपकी उन्नति के लिये अनेक प्रकार के यज्ञों से भगवान् का यजन करते हैं, आपको उनके अनुकूल ही रहना चाहिये। जब आपके राज्य में ब्राह्मण लोग यज्ञों का अनुष्ठान करेंगे, तब उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान् के अंशस्वरूप देवता आपको मनचाहा फल देंगे। अतः वीरवर! आपको यज्ञादि धर्मानुष्ठान बंद करके देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिये।

वेन ने कहा ;- तुम लोग बड़े मूर्ख हो! खेद है, तुमने अधर्म में ही धर्मबुद्धि कर रखी है। तभी तो तुम जीविका देने वाले मुझ साक्षात् पति को छोड़कर किसी दूसरे जारपति की उपासना करते हो। जो लोग मूर्खतावश राजारूप परमेश्वर का अनादर करते हैं, उन्हें न तो इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में ही। अरे! जिसमें तुम लोगों की इतनी भक्ति है, वह यज्ञपुरुष है कौन? यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कुलटा स्त्रियाँ अपने विवाहिता पति से प्रेम न करके किसी परपुरुष में आसक्त हो जायें। विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि और वरुण तथा इनके अतिरिक्त जो दूसरे वर और शाप देने में समर्थ देवता हैं, वे सब-के-सब राजा के शरीर में रहते हैं; इसलिये राजा सर्वदेवमय है और देवता उसके अंशमात्र हैं। इसलिये ब्राह्मणों! तुम मत्सरता छोड़कर अपने सभी कर्मों द्वारा एक मेरा ही पूजन करो और और मुझी को बलि समर्पण करो। भला मेरे सिवा और कौन अग्रपूजा का अधिकारी हो सकता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार विपरीत बुद्धि होने के कारण वह अत्यन्त पापी और कुमार्गगामी हो गया था। उसका पुण्य क्षीण हो चुका था, इसलिये मुनियों के बहुत विनयपूर्वक प्रार्थना करने पर भी उसने उनकी बात पर ध्यान न दिया।

कल्याणरूप विदुर जी! अपने को बड़ा बुद्धिमान् समझने वाले वेन ने जब उन मुनियों का इस प्रकार अपमान किया, तब अपनी माँग को व्यर्थ हुई देख वे उस पर अत्यन्त कुपित हो गये। ‘मार डालो! इस स्वभाव से ही दुष्ट पापी को मार डालो! यह यदि जीता रह गया तो कुछ ही दिनों में संसार को अवश्य भस्म कर डालेगा। यह दुराचारी किसी प्रकार राजसिंहासन के योग्य नहीं है, क्योंकि यह निर्जलज्ज साक्षात् यज्ञपति श्रीविष्णु भगवान् की निन्दा करता है। अहो! जिनकी कृपा से इसे ऐसा ऐश्वर्य मिला, उन श्रीहरि की निन्दा अभागे वेन को छोड़कर और कौन कर सकता है’? इस प्रकार अपने छिपे हुए क्रोध को प्रकट कर उन्होंने उसे मारने का निश्चय कर लिया। वह तो भगवान् की निन्दा करने के कारण पहले ही मर चुका था, इसलिये केवल हुंकारों से ही उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 35-46 का हिन्दी अनुवाद)

जब मुनिगण अपने-अपने आश्रमों को चले गये, तब इधर वेन की शोकाकुल माता सुनीथा मन्त्रादि के बल से तथा अन्य युक्तियों से अपने पुत्र के शव की रक्षा करने लगी।

एक दिन वे मुनिगण सरस्वती के पवित्र जल में स्नान कर अग्निहोत्र से निवृत्त हो नदी के तीर पर बैठे हुए हरिचर्चा कर रहे थे। उन दिनों लोकों में आतंक फैलाने वाले बहुत-से उपद्रव होते देखकर वे आपस में कहने लगे, ‘आजकल पृथ्वी का कोई रक्षक नहीं है; इसलिये चोर-डाकुओं के कारण उसका कुछ अमंगल तो नहीं होने वाला है? ऋषि लोग ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने सब दिशाओं में धावा करने वाले चोरों और डाकुओं के कारण उठी हुई बड़ी भारी धूल देखी। देखते ही वे समझ गये कि राजा वेन के मर जाने के कारण देश में अराजकता फैल गयी है, राज्य शक्तिहीन हो गया है और चोर-डाकू बढ़ गये हैं; यह सारा उपद्रव लोगों का धन लूटने वाले तथा एक-दूसरे के खून के प्यासे लुटेरों का ही है।

अपने तेज से अथवा तपोबल से लोगों को ऐसी कुप्रवृत्ति से रोकने में समर्थ होने पर भी ऐसा करने में हिंसादि दोष देखकर उन्होंने इसका कोई निवारण नहीं किया। फिर सोचा कि ‘ब्राह्मण यदि समदर्शी और शान्तस्वभाव भी हो तो भी दोनों की उपेक्षा करने से उसका तप उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे फूटे हुए घड़े में से जल बह जाता है। फिर राजर्षि अंग का वंश भी नष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक अमोघ-शक्ति और भगवत्परायण राजा हो चुके हैं’।

ऐसा निश्चय कर उन्होंने मृत राजा की जाँघ को बड़े जोर से मथा तो उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। वह कौए के समान काला था; उसके सभी अंग और खासकर भुजाएँ बहुत छोटी थीं, जबड़े बहुत बड़े, टाँगे छोटी, नाक चपटी, नेत्र लाल और केश ताँबे के-से रंग के थे। उसने बड़ी दीनता और नम्रताभाव से पूछा कि ‘मैं क्या करूँ?’ तो ऋषियों ने कहा- ‘निषीद (बैठ जा)।’ इसी से वह ‘निषाद’ कहलाया। उसने जन्म लेते ही राजा वेन के भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया, इसीलिये उसके वंशधर नैषाद भी हिंसा, लूट-पाट आदि पापकर्मों में रत रहते हैं; अतः वे गाँव और नगर में न टिककर वन और पर्वतों में ही निवास करते हैं।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【पंचदश अध्याय:】१५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचदश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज पृथु का आविर्भाव और राज्याभिषेक"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इसके बाद ब्राह्मणों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मन्थन किया, तब उनसे एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। ब्रह्मवादी ऋषि उस जोड़े को उत्पन्न हुआ देख और उसे भगवान् का अंश जान बहुत प्रसन्न हुए और बोले।

ऋषियों ने कहा ;- यह पुरुष भगवान् विष्णु की विश्वपालिनी कला से प्रकट हुआ है और वह स्त्री उन परमपुरुष की अनपायिनी (कभी अलग न होने वाली) शक्ति लक्ष्मी जी का अवतार है। इनमें से जो पुरुष है, वह अपने सुयश का प्रथन-विस्तार करने के कारण परमयशस्वी ‘पृथु’ नामक सम्राट् होगा। राजाओं में यही सबसे पहला होगा। यह सुन्दर दाँतों वाली एवं गुण और आभूषणों को भी विभूषित करने वाली सुन्दरी इन पृथु को ही अपना पति बनायेगी। इसका नाम अर्चि होगा। पृथु के रूप में साक्षात् श्रीहरि के अंश ने ही संसार की रक्षा के लिये अवतार लिया है और अर्चि के रूप में, निरन्तर भगवान् की सेवा में रहने वाली उनकी नित्य सहचरी श्रीलक्ष्मी जी ही प्रकट हुई हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! उस समय ब्राह्मण लोग पृथु की स्तुति करने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्वों ने गुणगान किया, सिद्धों ने पुष्पों की वर्षा की, अप्सराएँ नाचने लगीं। आकाश में शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे। समस्त देवता, ऋषि और पितर अपने-अपने लोकों से वहाँ आये। जगद्गुरु ब्रह्मा जी देवता और देवेश्वरों के साथ पधारे। उन्होंने वेनकुमार पृथु के दाहिने हाथ में भगवान् विष्णु की हस्तरेखाएँ और चरणों में कमल का चिह्न देखकर उन्हें श्रीहरि का ही अंश समझा; क्योंकि जिसके हाथ में दूसरी रेखाओं से बिना कटा हुआ चक्र का चिह्न होता है, वह भगवान् का ही अंश होता है।

वेदवादी ब्राह्मणों ने महाराज पृथु के अभिषेक का आयोजन किया। सब लोग उसकी सामग्री जुटाने में लग गये। उस समय नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गौ, पक्षी, मृग, स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्य सब प्राणियों ने भी उन्हें तरह-तरह के उपहार भेंट किये। सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत महाराज पृथु का विधिवत् राज्याभिषेक हुआ। उस समय अनेकों अलंकारों से सजी हुई महारानी अर्चि के साथ वे दूसरे अग्निदेव के सदृश जान पड़ते थे।

वीर विदुर जी! उन्हें कुबेर ने बड़ा ही सुन्दर सोने का सिंहासन दिया तथा वरुण ने चन्द्रमा के समान श्वेत और प्रकाशमय छत्र दिया, जिससे निरन्तर जल की फुहियाँ झरती रहती थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचदश अध्यायः श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद)

वायु ने दो चँवर, धर्म ने कीर्तिमयी माला, इन्द्र ने मनोहर मुकुट, यम ने दमन करने वाला दण्ड, ब्रह्मा ने वेदमय कवच, सरस्वती ने सुन्दर हार, विष्णु भगवान् ने सुदर्शन चक्र, विष्णुप्रिया लक्ष्मी जी ने अविचल सम्पत्ति, रुद्र ने दस चन्द्राकर चिह्नों से युक्त कोषवाली तलवार, अम्बिका जी ने सौ चन्द्राकर चिह्नों वाली ढाल, चन्द्रमा ने अमृतमय अश्व, त्वष्टा (विश्वकर्मा) ने सुन्दर रथ, अग्नि ने बकरे और गौ के सींगों का बना हुआ सुदृढ़ धनुष, सूर्य ने तेजोमय बाण, पृथ्वी ने चरणस्पर्श-मात्र से अभीष्ट स्थान पर पहुँचा देने वाली योगमयी पादुकाएँ, आकाश के अभिमानी द्यौ देवता ने नित्य नूतन पुष्पों की माला, आकाशविहारी सिद्ध-गन्धर्वादी ने नाचने-गाने, बजाने और अन्तर्धान हो जाने की शक्तियाँ, ऋषियों ने अमोघ आशीर्वाद, समुद्र ने अपने से उत्पन्न हुआ शंख तथा सातों समुद्र, पर्वत और नदियों ने उनके रथ के लिये बरोक-टोक मार्ग उपहार में दिये। इसके पश्चात् सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति करने के लिये उपस्थित हुए। तब उन स्तुति करने वालों का अभिप्राय समझकर वेनपुत्र परमप्रतापी महाराज पृथु ने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा।

पृथु ने कहा ;- सौम्य सूत, मागध और वन्दीजन! अभी तो लोक में मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ। फिर तुम किन गुणों को लेकर मेरी स्तुति करोगे? मेरे विषय में तुम्हारी वाणी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये। इसलिये मुझसे भिन्न किसी और की स्तुति करो।

मृदुभाषियों! कालान्तर में जब मेरे अप्रकट गुण प्रकट हो जायें, तब भरपेट अपनी मधुर वाणी से मेरी स्तुति कर लेना। देखो, शिष्टपुरुष पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणानुवाद के रहते हुए तुच्छ मनुष्यों की स्तुति नहीं किया करते। महान् गुणों को धारण करने में समर्थ होने पर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है, जो उसके न रहने पर भी केवल सम्भावनामात्र से स्तुति करने वालों द्वारा अपनी स्तुति करायेगा? यदि यह विद्याभ्यास करता तो इसमें अमुक-अमुक गुण हो जाते-इस प्रकार की स्तुति से तो मनुष्य की वंचना की जाती है। वह मन्दमति यह नहीं समझता कि इस प्रकार तो लोग उसका उपहास ही कर रहे हैं। जिस प्रकार लज्जाशील उदारपुरुष अपने किसी निन्दित पराक्रम की चर्चा होनी बुरी समझते हैं; उसी प्रकार लोकविख्यात समर्थ पुरुष अपनी स्तुति को भी निन्दित मानते हैं।

सूतगण! अभी हम अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा लोक में अप्रसिद्ध ही हैं; हमने अब तक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जा सके। तब तुम लोगों से बच्चों के समान अपनी कीर्ति का किस प्रकार गान करावें?

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध:" के 15 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब पञ्चम स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

3 टिप्‍पणियां:

  1. महाराज पृथु ने भगवान से क्या वरदान मांगा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. पृथु राजा वेन के पुत्र थे। भूमण्डल पर सर्वप्रथम सर्वांगीण रूप से राजशासन स्थापित करने के कारण उन्हें पृथ्वी का प्रथम राजा माना गया है। साधुशीलवान् अंग के दुष्ट पुत्र वेन को तंग आकर ऋषियों ने हुंकार-ध्वनि से मार डाला था। तब अराजकता के निवारण हेतु निःसन्तान मरे वेन की भुजाओं का मन्थन किया गया जिससे स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम 'पृथु' रखा गया तथा स्त्री का नाम 'अर्चि'। वे दोनों पति-पत्नी हुए। उन्हें भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का अंशावतार माना गया है। महाराज पृथु ने ही पृथ्वी को समतल किया जिससे वह उपज के योग्य हो पायी। महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाजन नहीं था; लोग अपनी सुविधा के अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे। महाराज पृथु अत्यन्त लोकहितकारी थे। उन्होंने 99 अश्वमेध यज्ञ किये थे। सौवें यज्ञ के समय इन्द्र ने अनेक वेश धारण कर अनेक बार घोड़ा चुराया, परन्तु महाराज पृथु के पुत्र इन्द्र को भगाकर घोड़ा ले आते थे। इन्द्र के बारंबार कुकृत्य से महाराज पृथु अत्यन्त क्रोधित होकर उन्हें मार ही डालना चाहते थे कि यज्ञ के ऋत्विजों ने उनकी यज्ञ-दीक्षा के कारण उन्हें रोका तथा मन्त्र-बल से इन्द्र को अग्नि में हवन कर देने की बात कही, परन्तु ब्रह्मा जी के समझाने से पृथु मान गये और यज्ञ को रोक दिया। सभी देवताओं के साथ स्वयं भगवान् विष्णु भी पृथु से परम प्रसन्न थे।
      भगवान विष्णु ने जब खुश होकर वरदान मांगने को कहा, तब पृथु ने एक हजार कान मांगे, जिससे वो भगवान का भजन सुन सकें.

      फिर पृथु ने अपना राज पाट विजितश्व को सोप दी और खुद संन्यासी बनकर जंगल में चले गए.

      हटाएं
    2. (श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 16-27 में इसका विस्तृत वर्णन है जरूर पड़े)

      हटाएं