सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]



                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【एकादश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"मन्वन्तरादि काल विभाग का वर्णन"
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- विदुरजी! पृथ्वी आदि कार्य वर्ग का जो सूक्ष्मतम अंश है—जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूप को प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओं के परस्पर मिलने से ही मनुष्यों को भ्रमवश उनके समुदाय रूप एक अवयवी की प्रतीति होती है।
यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरुप में स्थित उस पृथ्वी आदि कार्यों की एकता (समुदाय अथवा समग्र रूप)-का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्था भेद की स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेद की ही कल्पना होती है। साधुश्रेष्ठ! इस प्रकार यह वस्तु के सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरुप का विचार हुआ। इसी के सदृश्य से परमाणु आदि अवस्थाओं में व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थों को भोगने वाले सृष्टि आदि में समर्थ, अव्यक्तस्वरुप भगवान् काल की भी सूक्ष्मता और स्थूलता का अनुमान किया जा सकता है। जो काल प्रपंच की परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्थाओं में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टि से लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओं का भोग करता है, वह परम महान् है।

 दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिलने से एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखे में से होकर आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश में आकाश में उड़ता देखा जाता। ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौ गुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेध का एक ‘लव’ होता है।
तीन लव को एक ‘निमेष’ और तीन निमेष को एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षण की एक ‘काष्ठा’ होती है और पन्द्रह काष्ठा का एक ‘लघु’। पन्द्रह लघु कि एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिका का एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिन के घटने-बढ़ने के अनुसार (दिन एवं रात्रि की दोनों सन्धियों के दो मुहूर्तों को छोड़कर) छः या सात नाडिका का एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है। छः पल ताँबें का एक बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोने की चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वार उस बरतन के पेंदे में छेद करके उसे जल में छोड़ दिया जाय। जितने समय में एक प्रस्थ जल उस बरतन में भर जाय, वह बरतन जल में डूब जाय, उतने समय को एक ‘नाडिका’ कहते हैं। विदुरजी! चार-चार प्रहर के मनुष्य के ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पन्द्रह दिन—रात का के ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया। इन दोनों पक्षों को मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरों का एक दिन-रात है। जो मास का एक ’ऋतु’ और छः मास का एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और उत्तरायण’ भेद से दो प्रकार का है। ये दोनों अयन मिलकर देवताओं के एक दिन-रात होते है तथा मनुष्य लोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते है। ऐसे सौ वर्ष की मनुष्य की परम आयु बतायी गयी ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद)

चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारा-मण्डल के अधिष्ठाता काल स्वरुप भगवान् सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सर पर्यन्त काल में द्वादश राशि रूप सम्पूर्ण भुवनकोश की निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं। सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनों के भेद से यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है।
 विदुरजी! इन पाँच प्रकार के वर्षों की प्रवृत्ति करने वाले भगवान् सूर्य की तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पंचभूतों में से तेजःस्वरुप हैं और अपनी काल शक्ति से बीजादि पदार्थों की अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति को अनेक प्रकार के कार्योंन्मुख करते हैं। ये पुरुषों की मोहनिवृत्ति के लिये उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते रहते है तथा ये ही सकाम-पुरुषों को यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि मंगलमय फलों का विस्तार करते हैं।

विदुरजी ने कहा ;- मुनिवर! आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परम आयु का वर्णन तो किया। अब तो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक काल तक रहने वाले हैं, उनकी भी आयु का वर्णन कीजिये। आप भगवान् काल की गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानी लोग अपनी योग सिद्ध दिव्य दृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं।

मैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि—ये चार युग अपनी सन्ध्या और संध्यांशों के सहित देवतावों के बारह सहस्त्र वर्ष तक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है। इन सत्यादि चारों युगों में क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्त्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येक में जितने सहस्त्र वर्ष होते हैं उससे दुगुनी सौ वर्ष उनकी सन्ध्या होत्ती और संध्यांशों में होते हैं[1]। युग की आदि में सन्ध्या होती है और अन्त में संध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीच का जो काल होता है, उसी को काल वेत्ताओं ने युग कहा है। प्रत्येक युग में एक-एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है। प्यारे विदुरजी! त्रिलोकी से बाहर महलों महर्लोक से ब्रम्हलोक पर्यन्त यहाँ की एक सहस्त्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रम्हाजी शयन करते हैं। उस रात्रि का अन्त होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जब तक ब्रम्हाजी का दिन रहता है तब तक चलता रहता है। उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (71 6/12 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजा लोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं। यह ब्रम्हाजी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है। इन मन्वन्तरों में भगवान् सत्वगुण का आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियों के द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्व का पालन करते हैं। काल क्रम से जब ब्रम्हाजी का दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर अपने सृष्टि रचना रूप पौरुष को स्थगित करके निश्चेष्ट भाव से स्थित हो जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादि से रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भूः, भुवः, स्वः—तीनों लोको उन्हीं ब्रम्हाजी के शरीर में छिप जाते । उस अवसर पर तीनों लोक शेषजी के मुखसे निकली हुई अग्नि रुप भगवान् की शक्ति से जलने लगते हैं। इसलिये उसके ताप से व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं। इतने में ही सातों समुद्र प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन से उमड़कर अपनी उछलती हुई उत्ताल तरंगों से त्रिलोकी को डुबो देते हैं। तब उस जल के भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रा से नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोक निवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं। इस प्रकार काल की गति से एक-एक सहस्त्र चतुर्युग के रूप में प्रतीत होने वाले दिन-रात के हेर-फेर से ब्रम्हाजी की सौ वर्ष की परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है। ब्रम्हाजी की आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अब तक पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा । पूर्व परार्ध के आरम्भ में ब्राम्ह नामक महान् कल्प हुआ था। उसी में ब्रम्हाजी की उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्द ब्रम्ह कहते । उसी परार्ध के अन्त में जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान् के नाभि सरोवर से सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था। विदुरजी! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्ध का आरम्भक बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प-नाम से विख्यात है, इसमें भगवान् ने सूकर रूप धारण किया था। यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है। यह परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होने पर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादि में अभिमान रखने वाले जीवों का ही शासन करने में समर्थ है। प्रकृति, महतत्व, अहंकार और पंचतन्मात्र—इन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत—इन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रम्हाण्ड कोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें ऐसी करोड़ो ब्रम्हाण्ड राशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रम्ह कहलाता है और यही पुराण पुरुष परमात्मा श्रीविष्णु भगवान् का श्रेष्ठ धाम (स्वरुप) है।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【द्वादश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"सृष्टि का विस्तार"
श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! यहाँ तक मैंने आपको भगवान् की काल रूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रम्हाजी ने जगत् की रचना की, वह सुनिये। सबसे पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ—तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्त्र (द्वेष) और अन्ध तामिस्त्र (अभिनिवेश) रचीं। किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टि को देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मन को भगवान् के ध्यान से पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची। इस बार ब्रम्हाजी ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—ये चार निवृत्ति परायण उर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न कि। अपने इन पुत्रों से ब्रम्हाजी ने कहा, ‘पुत्रों! तुम लोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किंतु वे जन्म से ही मोक्ष मार्ग—(निवृत्ति मार्ग-) का अनुसरण करने वाले और भगवान् के ध्यान में तत्पर थे, इसलिये उन्होने ऐसा करना नहीं चाहा। जब ब्रम्हाजी ने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकने का प्रयत्न किया। किंतु बुद्धि-द्वारा उनके बहुत रोकने पर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापति की भौहों के बीच में से एक नील लोहित (नीचे और लाल रंग के) बालक के रूप में प्रकट हो गया। वे देवताओं के पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे—‘जगत्पिता! विधाता! मेरे नाम और रहने के स्थान बतलाइये’। तब कमलयोनि भगवान् ब्रम्हा ने उस बालक की प्रार्थना पूर्ण करने के लिये मधुर वाणी में कहा, ‘रोओ मत, मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ।
देवश्रेष्ठ! तुम जन्म लेते ही बालक के समान फूट-फुटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें ‘रूद्र’ नाम से पुकारेगी। तुम्हारे रहने के लिये मैंने पहले से ही ह्रदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप—ये स्थान रच दिये हैं। तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे। तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा—ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो’। लोकपिता ब्रम्हाजी से ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नील लोहित बल, आकार और स्वभाव में अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे। भगवान् रूद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रम्हाजी को बड़ी शंका हुई।

तब उन्होंने रूद्र से कहा ;- सुरश्रेष्ठ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयंकर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अतः ऐसी सृष्टि न रचो। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियों को सुख देने के लिये तप करो। फिर उस तप के प्रभाव से ही तुम पूर्ववत् इस संसार की रचना करना। पुरुष तप के द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योतिःस्वरुप श्रीहरि को सुगमता से प्राप्त कर सकता है’।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- जब ब्रम्हाजी ने ऐसी आज्ञा दी, तब रूद्र ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करने के लिये वन में चले गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रम्हाजी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। इसमें नारदजी प्रजापति ब्रम्हाजी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए। फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार ब्रम्हाजी के ह्रदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रम्हाजी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।
 विदुरजी! भगवान् ब्रम्हा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी। हमने सुना है—एक बार उसे देखकर ब्रम्हाजी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी। उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वास पूर्वक समझाया।
‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रम्हा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा। जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। जिन भगवान् ने अपने स्वरुप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पति ब्रम्हाजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया। वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। एक बार ब्रम्हाजी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ ?’ इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए। इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रम्हा—इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ—ये सब भी ब्रम्हाजी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।

विदुरजी ने पूछा ;- तमोधन! विश्व रचयिताओं के स्वामी श्रीब्रम्हाजी ने जब अपने मुखों से इन वेदादि को रचा, तो उन्होंने अपने किस मुख से कौन वस्तु उत्पन्न की—यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! ब्रम्हा ने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के मुख से क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेदों को रचा तथा इसी क्रम से शस्त्र (होता का कर्म), इज्या (अध्वर्यु अक कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाता का कर्म) और प्रायश्चित (ब्रम्हा का कर्म)—इन चारों की रचना की।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 38-56 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्सा शास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्र विद्या), गान्धर्ववेद (संगीत शास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्प विद्या)—इन चार उपवेदों को भी क्रमशः उन पूर्वादी मुखो से ही उत्पान किया। फिर सर्वदर्शी भगवान् ब्रम्हा ने अपने चारों मुखों से इतिहास-पुराण रूप पाँचवाँ वेद बनाया। इसी क्रम से षोडशी और उक्थ, चयन और अग्निष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसव—ये दो-दो याग भी उनके पूर्वादी मुखों से ही उत्पन्न हुए। विद्या, दान, तप और सत्य—ये धर्म के चार पाद और वृत्तियों के सहित चार आश्रम भी इसी क्रम से प्रकट हुए।
सावित्र, प्राजापत्य, बाह्म और बृहत्,—ये चार वृत्तियाँ ब्रम्हचारी की हैं
तथा वार्ता, संचय, शालीन और शिलोञ्छ —ये चार वृत्तियाँ ग्रहस्थ की हैं।
इसी प्रकार वृत्ति भेद से वैखानस, वालखिल्य, औदुम्बर और फेनप—ये चार भेद वानप्रस्थों के तथा कुटीचक, बहूदक, हंस और निष्क्रिय (परमहंस)—ये चार भेद संन्यासियों के हैं।
इसी क्रम से आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति––ये चार विद्याएँ तथा चार व्याहृतियाँ भी ब्रम्हाजी के चार मुखों से उत्पन्न हुईं तथा उनके हृदयाकाश से ॐकार प्रकट हुआ।

 उनके रोमों से उष्णिक्, त्वचा से गायत्री, मांस से त्रिष्टुप्, स्नायु से अनुष्टुप्, अस्थियों से जगती, मज्जा से पंक्ति और प्राणों से बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पंचवर्ग) और देह स्वर वर्ण (अकारादि) कहला। उनकी इन्द्रियों को उष्मवर्ण (श ष स ह) और बल को अन्तःस्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीडा से निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम––ये सात स्वर हुए। हे तात! ब्रम्हाजी शब्दब्रम्हस्वरुप हैं। वे वैखरीरूप से व्यक्त और ओंकार रूप से अव्यक्त हैं तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रम्ह है, वही अनेकों प्रकार की शक्तियों से विकसित होकर इन्द्रादि रूपों में भास् रहा है। विदुरजी! ब्रम्हाजी ने पहला कामासक्त शरीर जिससे कुहरा बना था—छोड़ने के बाद दूसरा शरीर धारण करके विश्व विस्तार का विचार किया; वे देख चुके थे कि मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियों से भी सृष्टि का विस्तार अधिक नहीं हुआ, अतः वे मन-ही-मन पुनः चिन्ता करने लगे—‘अहो! बड़ा आश्चर्य है, मेरे निरन्तर प्रयत्न करने पर भी प्रजा की वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्न डाल रहा है। ‘जिस समय यथोचित क्रिया करने वाले श्रीब्रम्हाजी इस प्रकार दैव के विषय में विचार कर रहे थे उसी समय अकस्मात् उनके शरीर के दो भाग हो गये। ‘क’ ब्रम्हाजी का नाम है, उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को ‘काय’ कहते हैं। उन दोनों विभागों से एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। उनमें जो पुरुष था वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुई। तब से मिथुन धर्म (स्त्री-पुरुष-सम्भोग)-से प्रजा की वृद्धि होने लगी। महाराज स्वायम्भुव मनु ने शतरूपा से पाँच सन्ताने उत्पन्न कीं।
साधुशिरोमणि विदुरजी! उनमें प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति——तीन कन्याएँ थीं। मनुजी ने आकूति का विवाह रूचि प्रजापति से किया, मझली कन्या देवहूति कर्दमजी को दी और प्रसूति दक्ष प्रजापति को। इन तीनों कन्याओं की सन्तति से सारा संसार भर गया।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【त्रयोदश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"वाराह-अवतार की कथा"
श्रीशुकदेवजी ने कहा ;- राजन्! मुनिवर मैत्रेयजी के मुख से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुरजी ने फिर पूछा; क्योंकि भगवान् की लीला-कथा में इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था।

विदुरजी ने कहा ;- मुने! स्वयम्भू ब्रम्हाजी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भु मनु ने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया ? आप साधुशिरोमणि हैं। आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र सुनाइये। वे श्रीविष्णु भगवान् के शरणापन्न थे, इसलिये उनका चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है। जिनके ह्रदय में श्रीमुकुन्द के चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यास के श्रम का मुख्य फल है, ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत है।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- राजन्! विदुरजी सहस्त्रशीर्षा भगवान् श्रीहरि के चरणाश्रित भक्त थे। उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान् की कथा के लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेय का रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा।

श्रीमैत्रेयजी बोले ;- जब अपनी भार्या शतरूपा के साथ स्वायम्भुव मनु का जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर श्रीब्रम्हा से कहा। ‘भगवन्! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता और जीविका प्रदान करने वाले पिता है। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके ? पूज्यपाद! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो सके’।

श्रीब्रम्हाजी ने कहा ;- तात! पृथ्वीपते! तुम दोनों का कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भाव से ‘मुझे आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है। वीर! पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँ तक बने, उनकी आज्ञा का आदर पूर्वक सावधानी से पालन करें। तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो। राजन्! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे। जिन पर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान् प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं।

मनुजी ने कहा ;- पाप का नाश करने वाले पिताजी! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये स्थान बतलाइ। देव! सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजि। श्रीमैत्रेयजी ने कहा—पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रम्हाज बहुत देर तक मन में यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ। जिस समय मैं लोक रचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल में चली गयी। हम लोग सृष्टि कार्य में नियुक्त हैं, अतः इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके संकल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

निष्पाप विदुरजी! ब्रम्हाजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासिकाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वाराह-शिशु निकला। भारत! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वाराह-शिशु ब्रम्हाजी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षण भर में हाथी के बराबर हो गया। उस विशाल वाराह-मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रम्हाजी तरह-तरह के विचार करने लगे—। अहो! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था। पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हम लोगों के मन को मोहित कर रहे हैं। ब्रम्हाजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे।

 सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रम्हा और श्रेष्ठ ब्राम्हणों को हर्ष से भर दिया। अपना खेद दूर करने वाली मायामय वराह भगवान् की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोक निवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् के स्वरुप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया है; अतः उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराज की-सी लीला करते हुए जल में घुस गये।
पहले से सूकर रूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़े सफ़ेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकर रूप धारण करने के कारण अपनी नाक से सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे।
 उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों की और बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया। जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की गड़गड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरंग रूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आर्तस्वर से ‘हे यज्ञेश्वर! मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार पुकार रहा है। तब भगवान् यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्दत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद)

फिर वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मारकर आया हो। तात! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफ़ेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराह भगवान् को देखकर ब्रम्हा, मरीचि आदि को निश्चय को हो गया कि ये भगवान् ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे।
ऋषियों ने कहा ;- भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपसे पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूक्ष्मरूप धारण किया है; आपको नमस्कार है। देव! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रम्हा—इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं। ईश! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग)—में स्त्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्त्रुवा है, उदार में इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रम्ह भाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है।
भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरुप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ( हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति की इष्टि हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जाने वला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसभ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं।
देव! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमरहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठान रूप इष्टियाँ आपके अंगों को मिलाये रखने वाली मांसपेशियाँ हैं। समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरुप हैं; आपको नमसकर है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरुप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद)

नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं। प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चार्यमय विश्व की रचना की। जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल बूँदें गिरती हैं। ईश! उनसे भोगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहने वाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं। जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है। आपकी योगमाया के सात्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्! आप इसका कल्याण कीजिये।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- विदुरजी! उन ब्रम्हवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करने वाले वराहभगवान् अपने खुरों से जल को स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। इस प्रकार रसातल से लीला पूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। विदुरजी! भगवान् के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनिय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के पाप-तापों को दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मंगलमयी मंजुल कथा को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् अन्तस्तल से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान् तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परमपद ही दे देते हैं। अरे! संसार में पशुओं को छोड़कर अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देने वाली भगवान् की प्राचीन कथाओं में से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【चतुर्दश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"दिति का गर्भधारण"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- राजन्! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुख से सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी की पूर्ण तृप्ति न हुई; अतः उन्होंने हाथ जोड़कर फिर पूछा।

विदुरजी ने कहा ;- मुनिवर! हमने यह बात आपके मुख से अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्ष को भगवान् यज्ञमूर्ति ने ही मारा था। ब्रह्मन्! जिस समय भगवान् लीला से ही अपनी दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जल में से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मूठभेड़ किस कारण हुई ?

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! तुम्हारा प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतार कथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्यों के मृत्युपाश का छेदन करने वाली है। देखो! उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिर पर पैर रखकर भगवान् के परमपद पर आरूढ़ हो गया था। पूर्वकाल में एक बार इसी वराह भगवान् और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न करने पर करने पर देवदेव श्रीब्रम्हा जी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसी के परम्परा से मैंने सुना है। विदुरजी! एक बार दक्ष की पुत्री दिति ने पुत्रप्राप्ति की इच्छा से कामातुर होकर सायंकाल के समय ही अपने पति मरीचिनन्दन कश्यपजी से प्रार्थना की। उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिन्ह भगवान् यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त का समय जान अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे।

दिति ने कहा ;- विद्वन्! मतवाला हाथी जैसे केले के वृक्ष को मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्धर कामदेव मुझ अबला पर जोर जताकर आपके लिये मुझे बेचैन कर रहा है। अपनी पुत्रवती सौतों की सुख-समृद्धि को देखकर मैं ईर्ष्या की आग से जलील जाती हूँ। अतः आप मुझ पर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो। जिनके गर्भ से आप-जैसा पति पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियाँ अपने पतियों से सम्मानिता समझी जाती हैं। उनका सुयश संसार में सर्वत्र फैल जाता । हमारे पिता प्रजापति दक्ष का अपनी पुत्रियों पर बड़ा स्नेह था। एक बार उन्होंने हम सबको अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ‘तुम किसे अपना पति बनाना चाहती हो ?’ वे अपनी सन्तान की सब प्रकार की चिन्ता रखते थे। अतः हमारा भाव जानकर उन्होंने उनमें से हम तेरह पुत्रियों को, जो आपके गुण-स्वभाव के अनुरूप थीं, आपके साथ ब्याह दिया। अतः मंगलमूर्ते! कमलनयन! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये; क्योंकि हे महत्तम! आप-जैसे महापुरुषों के पास दीनजनों का आना निष्फल नहीं होता।
विदुरजी! दिति कामदेव के वेग से अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी बातें बनाते हुए दीन होकर कश्यपजी से प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा। ‘भीरु! तुम्हारी इच्छा के अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, कर्म और काम—तीनों की सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नी की कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? जिस जहाज पर चढ़कर मनुष्य महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार ग्रहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रम द्वारा स्वयं भी दुःखसमुद्र के पार हो जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्धः चतुर्दश अध्यायः श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

मानिनी! स्त्री को तो विविध पुरुषार्थ की कामना वाले पुरुष का आधा अंग कहा गया है। उस पर अपनी गृहस्थी का भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर बिचरता है। इन्द्रिय रूप शत्रु अन्य आश्रम वालों के लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लूटने वाले शत्रुओं को अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नी का आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओं को सहज में ही जीत लेते हैं।

गृहेश्वरि! तुम-जैसी भार्या के उपकारों का बदला तो हम अथवा और कोई गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र अथवा जन्मान्तर में भी पूर्णरूप से नहीं चुका सकते। तो भी तुम्हारी इस सन्तान प्राप्ति की इच्छा को मैं यथाशक्ति अवश्य पूर्ण करूँगा। परन्तु अभी तुम एक मुहूर्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें। यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर जीवों का है और देखने में भी बड़ा भयानक है। इसमें भगवान् भूतनाथ के गण भूत-प्रेतादि घूमा करते हैं। साध्वी! इस सन्ध्याकाल में भूतभावन भूतपति भगवान् शंकर अपने गण भूत-प्रेतादि को साथ लिये बैल पर चढ़कर बिचरा करते हैं। जिनका जटाजूट श्मशाम भूमि से उठे हुए बवंडर की धूलि से धूसरित होकर देदीप्यमान हो रहा है तथा जिनके सुवर्ण-कान्तिमय गौर शरीर में भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (श्वशुर) महादेव जी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रों से सभी को देखते रहते हैं। संसार में उनका कोई अपना या पराया नहीं है। न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही है। हम लोग तो अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करके उनकी माया को ही ग्रहण करना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भोगकर लात मार दी है। विवेकी पुरुष अविद्या के आवरण को हटाने की इच्छा से उनके निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं, उनसे बढ़कर तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उन तक केवल सत्पुरुषों की ही पहुँच है। यह सब होने पर भी वे स्वयं पिशाचों का-सा आचरण करते हैं। यह नर शरीर कुत्तों का भोजन है; जो अविवेकी पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादि से इसी को सजाते-सँवारते रहते हैं वे अभागे ही आत्माराम भगवान् शंकर के आचरण पर हँसते हैं। हम लोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हीं की बाँधी हुई धर्म-मर्यादा का पालन करते हैं; वे ही इस विश्व के अधिष्ठान हैं तथा यह माया भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करने वाली है। ऐसे होकर भी वे प्रेतों का-सा आचरण करते हैं। अहो! उन जगद्व्यापक प्रभु की यह अद्भुत लीला कुछ समझ में नहीं आती।

मैत्रेय जी ने कहा ;- पति के इस प्रकार समझाने पर भी कामातुरा दिति ने वेश्या के समान निर्लज्ज होकर ब्रह्मार्षि कश्यप जी का वस्त्र पकड़ लिया। तब कश्यप जी ने उस निन्दित कर्म में अपनी भार्या का बहुत आग्रह देख दैव को नमस्कार किया और एकान्त में उसके साथ समागम किया। फिर जल में स्नान कर प्राण और वाणी का संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसी का जप करने लगे।
। विदुर जी! दिति को भी उस निन्दित कर्म के कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रह्मार्षि के पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कहने लगी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः चतुर्दश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद)

दिति बोली ;- ब्रह्मन्! भगवान रुद्र भूतों के स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है, किन्तु वे भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें। मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेव को नमस्कार करती हूँ। वे सत्पुरुषों के लिये कल्याणकारी एवं दण्ड देने के भाव से रहित हैं, किन्तु दुष्टों के लिये क्रोध मूर्ति दण्डपाणि हैं। हम स्त्रियों पर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु हैं; अतः वे मुझ पर प्रसन्न हों।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुर जी! प्रजापति कश्यप ने सायंकालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्म से निवृत्त होने पर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तान की लौकिक और पारलौकिक उन्नति के लिये प्रार्थना कर रही है। तब उन्होंने उससे कहा।

कश्यप जी ने कहा ;- तुम्हारा चित्त कामवासना से मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुमने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओं की भी अवहेलना की। अमंगलमयी चण्डी! तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमंगलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालों को अपने अत्याचारों से रुलायेंगे। जब उनके हाथ से बहुत-से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियों पर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओं को क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करने वाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वतों का दमन करता है, उसी प्रकार उनका वध करेंगे।

दिति ने कहा ;- प्रभो! यही मैं भी चाहती हूँ कि यदि मेरे पुत्रों का वध हो तो वह साक्षात् भगवान् चक्रपाणि के हाथ से ही हो, कुपित ब्राह्मणों के शापादि से न हो। जो जीव ब्राह्मणों के शाप से दग्ध अथवा प्राणियों को भय देने वाला होता है, वह किसी भी योनि में जाये-उस पर नारकी जीव भी दया नहीं करते।

कश्यप जी ने कहा ;- देवि! तुमने अपने किये पर शोक और पश्चाताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचित का विचार भी हो गया तथा भगवान विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है; इसलिये तुम्हारे एक पुत्र के चार पुत्रों में से एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पवित्र यश को भक्तजन भगवान् के गुणों के साथ गायेंगे। जिस प्रकार खोटे सोने को बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभाव का अनुकरण करने के लिये निर्वेता आदि उपायों से अपने अन्तःकरण को शुद्ध करेंगे। जिनकी कृपा से उन्हीं का स्वरूपभूत यह जगत् आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान् भी उसकी अनन्यभक्ति से सन्तुष्ट हो जायेंगे।
दिति! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान् पुरुषों का भी पूज्य होगा तथा प्रौढ़ भक्तिभाव से विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्तःकरण में श्रीभगवान् को स्थापित करके देहाभिमान को त्याग देगा। वह विषयों में अनासक्त, शीलवान्, गुणों का भंडार तथा दूसरों की समृद्धि में सुख और दुःख में दुःख मानने वाला होगा उसका कोई शत्रु न होगा तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतु के ताप को हर लेता है, वैसे ही वह संसार के शोक को शान्त करने वाला होगा जो इस संसार के बाहर भीतर सब और विराजमान हैं, अपने भक्तों के इच्छानुसार समय-समय पर मंगलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललना की भी शोभा बढ़ाने वाले हैं तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलों से सुशोभित है-उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरि का तुम्हारे पौत्र को प्रत्यक्ष दर्शन होगा।

श्री मैत्रेय जी कहते हैं ;-  विदुर जी! दिति ने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान् का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात् श्रीहरि के हाथ से मारे जायेंगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【पञ्चदश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"जय-विजय को सनकादि का शाप"
श्री मैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! दिति को अपने पुत्रों से देवताओं को कष्ट पहुँचने की आशंका थी इसलिये उसने दूसरों के तेज का नाश करने वाले उस कश्यप जी के तेज (वीर्य) को सौ वर्षों तक अपने उदर में ही रखा। उस गर्भस्थ तेज से ही लोकों में सूर्यादि का प्रकाश क्षीण होने लगा तथा इन्द्रादि लोकपाल भी तेजोहीन हो गये तब उन्होंने ब्रह्मा जी के पास जाकर कहा कि सब दिशाओं में अन्धकार के कारण बड़ी अव्यवस्था हो रही है।

देवताओं ने कहा ;- भगवन्! काल आपकी ज्ञानशक्ति को कुण्ठित नहीं कर सकता, इसलिये आपसे कोई बात छिपी नहीं है। आप इस अन्धकार के विषय में भी जानते ही होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं। देवाधिदेव! आप जगत् के रचयिता और समस्त लोकपालों के मुकुटमणि हैं। आप छोटे-बड़े सभी जीवों का भाव जानते हैं। देव! आओ विज्ञानबल सम्पन्न हैं; आपने माया से ही यह चतुर्भुजरूप और रजोगुण स्वीकार किया है; आपकी उत्पत्ति के वास्तविक कारण को कोई नहीं जान सकता। हम आपको नमस्कार करते हैं। आपमें सम्पूर्ण भुवन स्थित हैं, कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच आपका ही शरीर है; किन्तु वास्तव में आप इससे परे हैं। जो समस्त जीवों के उत्पत्ति स्थान आपका अनन्य भाव से ध्यान करते हैं, उन सिद्ध योगियों का किसी प्रकार भी ह्रास नहीं हो सकता; क्योंकि वे आपके कृपाकटाक्ष से कृतकृत्य हो जाते हैं तथा प्राण, इन्द्रिय और मन को जीत लेने के कारण उनका योग भी परिपक्व हो जाता है।

रस्सी में बँधे हुए बैलों की भाँति आपकी वेदवाणी से जकड़ी हुई सारी प्रजा आपकी अधीनता में नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान करके आपको बलि समर्पित करती है। आप सबके नियन्ता मुख्य प्राण हैं, हम आपक नमस्कार करते हैं। भूमन्! इस अन्धकार के कारण दिन-रात का विभाग अस्पष्ट हो जाने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे वे दुःखी हो रहे हैं। उनका कल्याण कीजिये और हम शराणागतों की ओर अपनी अपार दयादृष्टि से निहारिये। देव! आग जिस प्रकार ईधन पकड़कर बढ़ती रहती है, उसी प्रकार कश्यप जी के वीर्य से स्थापित हुआ यह दिति का गर्भ सारी दिशाओं को अन्धकारमय करता हुआ क्रमशः बढ़ रहा है।

श्री मैत्रेय जी कहते हैं ;- महाबाहो! देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान ब्रह्मा जी हँसे और उन्हें अपनी मधुर वाणी से आनन्दित करते हुए कहने लगे।
श्री ब्रह्मा जी ने कहा ;- देवताओं! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानस पुत्र सनकादि लोकों की आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाश मार्ग से विचरा करते थे। एक बार वे भगवान विष्णु के शुद्ध-सत्त्व मय सब लोकों के शिरोभाग में स्थित, वैकुण्ठ धाम में जा पहुँचे। वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और वह प्राप्त भी उन्हीं को होता है, जो अन्य सब प्रकार की कामनाएँ छोड़कर केवल भगवच्चरण-शरण की प्राप्ति के लिये ही अपने धर्म द्वारा उनकी आराधना करते हैं। वहाँ वेदान्तप्रति पाद्य धर्ममूर्ति श्रीआदि नारायण हम अपने भक्तों को सुख देने के लिये शुद्ध सत्त्वमयस्वरूप धारण कर हर समय विराजमान रहते हैं। उस लोक में नैःश्रेयस नाम का एक वन है, जो मूर्तिमान् कैवल्य-सा ही जान पड़ता है। वह सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाले वृक्षों से सुशोभित है, जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध पञ्चदश अध्यायः श्लोक 17-25 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ विमानचारी गन्धर्व गण अपनी प्रियाओं के सहित अपने प्रभु की पवित्र लीलाओं का गान करते रहते हैं, जो लोगों की सम्पूर्ण पापराशि को भस्म कर देने वाली हैं। उस समय सरोवर में खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लता की सुमधुर गन्ध उनके चित्त को अपनी ओर

खींचना चाहती हैं, परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वरन उस गन्ध को उड़ाकर लाने वाले वायु को ही बुरा-भला कहते हैं। जिस समय भ्रमराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरि कथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का कोलाहल बंद हो जाता है-मानो वे भी उस कीर्तानानन्द में बेसुध हो जाते हैं। श्रीहरि तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्ध का ही अधिक आदर करते हैं-यह देखकर वहाँ के मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलक वृक्ष), उत्पल (रात्रि में खिलने वाले कमल), चम्पक, वर्ण, पुन्नाग, नाग केसर, वकील (मौलसिरी), अम्बुज (दिन में खिलने वाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होने पर भी तुलसी का ही तप अधिक मानते हैं।

वह लोक वैदूर्य, मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्ण के विमानों से भरा हुआ है। ये सब किसी कर्मफल से नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरि के पाद पद्मों की वन्दना करने से ही प्राप्त होते हैं। उन विमानों पर चढ़े हुए कृष्णप्राण भगवद्भक्तों के चिट्टों में बड़े-बड़े नितम्बों वाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी मन्द मुस्कान एवं मनोहर हास-परिहास से कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं। परम सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मी जी, जिनकी कृपा प्राप्त करने के लिये देवगण भी यत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवन में चंचलतारूप दोष को त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरणकमलों के नूपुरों की झनकार करती हुई वे अपना लीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवन कि स्फटिकमय दीवारों में उनका प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें बुहार रही हों।
प्यारे देवताओं! जिस समय दासियों को साथ लिये वे अपने क्रीडावन में तुलसीदल द्वारा भगवान् का पूजन करती हैं, तब वहाँ के निर्मल जल से भरे हुए सरोवरों में, जिनमें मूँगे के घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर अलकावली और उन्नत नासिका से सुशोभित मुखारविन्द देखकर यह भगवान् का चुम्बन किया हुआ है' यों जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती हैं। जो लोग भगवान् की पापहारिणी लीला कथाओं को छोड़कर बुद्धि को नष्ट करने वाली अर्थ-काम सम्बन्धिनी अन्य निन्दित कथाएँ सुनते हैं, वे उस वैकुण्ठलोक में नहीं जा सकते। हाय! जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातों को सुनते हैं, तब ये उनके पुण्यों को नष्टकर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकों में डाल देती हैं। अहा! इस मनुष्य योनि की बड़ी महिमा है, हम देवता लोग भी इसकी चाह करते हैं। इसी में तत्त्वज्ञान और धर्म की भी प्राप्ति हो सकती है। इसे पाकर भी जो लोग भगवान् की आराधना नहीं करते, वे वास्तव में उनकी सर्वत्र फैली हुई माया से ही मोहित हैं। देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन करते रहने के कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभु के सुयश की चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है तथा शरीर में रोमांच हो जाता है और जिनके-से शील स्वभाव की हम लोग भी इच्छा करते हैं-वे परमभागवत ही । हमारे लोकों से ऊपर उस वैकुण्ठधाम में जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 26-34 का हिन्दी अनुवाद)

जिस समय सनकादि मुनि विश्व गुरु श्री हरि के निवास स्थान, सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानों से विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवद्दर्शन की लालसा से अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठ धाम की छः ड्योढ़ियाँ पार करके जब वे सातवीं पर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयु वाले देव श्रेष्ठ दिखायी दिये- जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणों से अलंकृत थे। उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच में मतवाले मधुकारों से गुंजायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाँकी भौंहें, फड़कते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनों के कारण उनके चेहरे पर कुछ क्षोभ के-से चिह्न दिखायी दे रहे थे।

उनके इस प्रकार देखते रहने पर भी वे मुनिगण उनके बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ों से युक्त पहली छः ड्योढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वार में भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और वे निःशंक होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोक के विचरते थे। वे चारों कुमार पूर्ण त्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्मा की सृष्टि में आयुध में सबसे बड़े होने पर भी देखने में पाँच वर्ष के बालकों से जान पड़ते थे और दिगम्बर वृत्ति से (नंग-धडंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार निःसंकोच रूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालों ने भगवान् के शील स्वभाव के विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहार के योग्य नहीं थे जब उन द्वारपालों ने वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्न पड़ने के कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे।

मुनियों ने कहा ;- अरे द्वारपालों! जो लोग भगवान् की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान् के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हीं में से हो, किन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है? भगवान् तो परमशान्त स्वभाव हैं, उनका किसी से विरोध भी नहीं है, फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिस पर शंका की जा सके? तुम स्वयं कपटी हो, इसी से अपने ही समान दूसरों पर शंका करते हो। भगवान् के उदर में यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है, इसीलिए यहाँ रहने वाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरि से अपना कोई भेद नहीं देखते, बल्कि महाकाश में घटाकाश की भाँति उनमें अपना अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देवरूपधारी हो; फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान् के साथ कुछ भेदभाव के कारण होने वाले भय की कल्पना कर ली। तुम हो तो इन भगवान् वैकुण्ठनाथ के पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा कल्याण करने के लिये हम तुम्हारे अपराध के योग्य दण्ड का विचार करते हैं। तुम अपनी मन्द भेदबुद्धि के दोष से इस वैकुण्ठ लोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ, जहाँ काम क्रोध, लोभ-प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 35-43 का हिन्दी अनुवाद)

सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होने योग्य न जानकर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर लोट गये वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं। फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा- 'भगवन्! हम अवश्य अपराधी हैं; अतः आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्ड से सर्वथा धुल जायेगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जाने पर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट करने वाला मोह न प्राप्त हो।

इधर जब साधु जनों के हृदयधन भगवान कमलनाभ को मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालों ने सनकादि साधुओं का अनादर किया है, तब वे लक्ष्मी जी के सहित अपने उन्हीं श्रीचरणों से चलकर ही वहाँ पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन ढूँढ़ते रहते हैं- सहज में पाते नहीं। सनकादि ने देखा कि उनकी समाधि के विषय श्री वैकुंठनाथ स्वयं उनके नेत्रगोचर होकर पधारे है, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चमरादि लिये चल रहे हैं तथा प्रभु के दोनों ओर राजहंस के पंखों के समान दो श्वेत चँवर डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायु से उनके श्वेत छत्र में लगी हुई मोतियों की झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही हैं मानो चन्द्रमा की किरणों से अमृत की बूंदें झर रही हों। प्रभु समस्त सद्गुणों के आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे हैं।
अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्षःस्थल पर स्वरिखा के रूप में जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूड़ामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन पहने अपना एक हाथ गरुड़ जी के कंधे पर रख दूसरे से कमल का पुष्प घुमा रहे थे उनके अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजाने वाले मकराकृत कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई उघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिर पर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभ मणि की अपूर्व शोभा थी।
भगवान् का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तों के मन में ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने लक्ष्मी जी का सौंदर्याभिमान भी गलित हो गया है। ब्रह्मा जी कहते हैं- देवताओं! इस प्रकार मेरे, महादेव जी के और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करने वाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे। सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान् कमलनयन के चरणारविन्द मकरन्द से मिली हुई

तुलसी मंजरी के गंध से सुवासित वायु को नासिका रंध्र के द्वारा उनके अन्तःकरण में प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीर को सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मन में भी खलबली पैदा कर दी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध पञ्चदश अध्यायः श्लोक 44-50 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् का मुख नीलकमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हास से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये और फिर पद्मराग के समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे। इसके पश्चात् वे मुनिगण अन्य साधनों से सिद्ध न होने वाली स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न श्रीहरि की स्तुति करने लगे-जो योगमार्ग द्वारा मोक्ष पद की खोज करने वाले पुरुषों के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की वृद्धि करने वाले पुरुषरूप प्रकट करते हैं।
सनकादि मुनियों ने कहा ;- अनन्त! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूप से दुष्टचित्त पुरुषों के हृदय में भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। किन्तु आज हमारे नेत्रों के सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो! जिस समय आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्मा जी ने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणरन्ध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे; किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान् सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है। भगवन्! हम आपको साक्षात् परमात्मातत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध सत्त्वमय विग्रह से अपने इन भक्तों को आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार मूर्ति को राग और अहंकार से मुक्त मुनिजन आपकी कृपा दृष्टि से प्राप्त हुए सुदृढ़ भक्ति योग के द्वारा अपने हृदय में उपलब्ध करते हैं।

प्रभो! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तन और सांसारिक दुःखों की निवृत्ति करने वाला है। आपके चरणों की शरण में रहने वाले जो महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपद को कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन इन्द्रपद आदि अन्य भोगों के विषय में तो कहना ही क्या है।

भगवन्! यदि हमारा चित्त भौरे की तरह आपके चरणकमलों में ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसी के समान आपके चरणसम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधा से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियों में हो जाये इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है। विपुलकीर्ति प्रभो! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है, विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात् भगवान् हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं।

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