सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, व उन्नीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, and nineteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, व उन्नीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, and nineteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]



                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【षोडश अध्याय:】


                               (श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)


"परीक्षित् की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद"
सूतजी कहते हैं ;- शौनकजी! पाण्डवों के महाप्रयाण के पश्चात् भगवान के परम भक्त राजा परीक्षित् श्रेष्ठ ब्राम्हणों की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी का शासन करने लगे। उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने उनके सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, वास्तव वे सभी महान् गुण उनमें विद्यमान थे । उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किया । तथा कृपाचार्य को आचार्य बनाकर उन्होंने गंगा के तटपर तीन अश्वमेध यज्ञ किये, जिनमें ब्राम्हणों को पुष्कल दक्षिणा दी गयी। उन यज्ञों में देवताओं ने प्रत्यक्षरूप में प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था । एक बार दिग्विजय करते समय उन्होंने देखा कि शूद्र के रूप में कलियुग राजा का वेष धारण करके एक गाय और बैल के जोड़े को ठोकरों से मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक पकड़कर दण्ड दिया ।
शौनकजी ने पूछा ;- महाभाग्यवान् सूतजी! दिग्विजय के समय महाराज परीक्षित् ने कलियुग को दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया—मार क्यों नहीं डाला ? क्योंकि राजा का वेष धारण करने पर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिसने गाय को लात स मारा था ? यदि वह प्रसंग भगवान श्रीकृष्ण की लीला से अथवा उनके चरणकमलों के मकरन्द-रस का पान करने वाले रसिक महानुभावों से सम्बन्ध रखता हो तो उसमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ।

 प्यारे सूतजी! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होने के कारण मृत्यु से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याण के लिये भगवान यम का आवाहन करके उन्हें यहाँ शामित्र कर्म में नियुक्त कर दिया गया है। जब तक यमराज यहाँ इस कर्म में नियुक्त हैं, तब तक किसी की मृत्यु नहीं होगी। मृत्यु से ग्रस्त मनुष्यलोक के जीव भी भगवान की सुधातुल्य लीला-कथा का पान कर सकें; इसीलिये महर्षियों ने भगवान यम को यहाँ बुलाया है । एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्था में संसार के मन्द भाग्य विषयी पुरुषों की आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है—नींद में रात और व्यर्थ के कामों में दिन !
सूतजी ने कहा ;- जिस समय राजा परीक्षित् कुरुजांगल देश में सम्राट् के रूप में निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेना द्वारा सुरक्षित साम्राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है। इस समाचार से उन्हें दुःख तो अवश्य हुआ; परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करने का अवसर हाथ लगा, वे उतने दुःखी नहीं हुए। इसके बाद युद्ध वीर परीक्षित् ने धनुष हाथ में ले लिया । वे श्यामवर्ण के घोड़ों से जुते हुए, सिंह की ध्वजा वाले, सुसज्जित रथ पर सवार होकर दिग्विजय करने के लिये नगर से बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षों को जीतकर वहाँ के राजाओं से भेंट ली । उन्हें उन देशों में सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओं का सुयश सुनने को मिला। उस यशोगान से पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की महिमा प्रकट होती थी । इसके साथ ही उन्हें यह भी सुनने को मिलता था कि भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र की ज्वाला से किस प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवों में परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवों की भगवान श्रीकृष्ण में कितनी भक्ति थी ।

"श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः षोडश अध्यायः श्लोक 15-23 का हिन्दी अनुवाद"

जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उन पर महामना राजा परीक्षित् बहुत प्रसन्न होते; उनके नेत्र प्रेम से खिल उठते। वे बड़ी उदारता से उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियों के हार उपहार रूप में देते । वे सुनते कि भगवान श्रीकृष्ण ने प्रेम पर वश होकर पाण्डवों के सारथि का काम किया, उनके सभासद् बने—यहाँ तक कि उनके मन के अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की। उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रात को शस्त्र ग्रहण करके वीरासन से बैठ जाते और शिविर का पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवों के चरणों में उन्होंने सारे जगत को झुका दिया। तब परीक्षित् की भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों में और भी बढ़ जाती । इस प्रकार वे दिन-दिन पाण्डवों के आचरण का अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे।
उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही दूर पर एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह मैं आपको सुनाता हूँ । धर्म बैल का रूप धारण करके एक पैर से घूम रहा था। एक स्थान पर उसे गाय के रूप में पृथ्वी मिली। पुत्र की मृत्यु से दुःखिनी माता के समान उसके नेत्रों से आँसुओं के झरने झर रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वी से पूछने लगा ।
धर्म ने कहा ;- कल्याणि! कुशल से तो हो न ? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे ह्रदय में कुछ-न-कुछ दुःख अवश्य है। क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देश में चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिन्ता कर रही हो ? कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है ? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शूद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हें इन देवताओं के लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञों में आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजा के लिये भी, जो वर्षा न होने के कारण अकाल एवं दुर्भिक्ष से पीड़ित हो रही है ।

 देवि! क्या तुम राक्षस—सरीखे मनुष्यों के द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं आर्टबालकों के लिये शोक कर रही हो ? सम्भव है, विद्या अब कुकर्मी-ब्राम्हणों के चंगुल में पड़ गयी है और ब्राम्हण विप्रद्रोही राजाओं की सेवा करने लगे हैं, और इसी का तुम्हें दुःख हो । आज के नाममात्र के राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशों को भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशों के लिये शोक कर रही हो ? आज की जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदि में शास्त्रीय नियमों का पालन न करके स्वेछाचार कर रही है; क्या इसके लिये तुम दुःखी हो ?
माँ पृथ्वी! अब समझ में आया, हो-न-हो तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण की याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतारने के लिये ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएँ की थीं, जो मोक्ष का भी अवलम्बन हैं। अब उनके लीला-संवरण कर लेने पर उनके परित्याग से तुम दुःखी हो रही हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः षोडश अध्यायः श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद)

देवि! तुम तो धन-रत्नों की खान हो। तुम अपने क्लेश का कारण, जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ। मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानों को भी हरा देने वाले काल ने देवताओं के द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्य को छीन लिया है ।
      
      पृथ्वी ने कहा ;- धर्म! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान के सहारे तुम सारे संसार को सुख पहुँचाने वाले अपने चारों चरणों से युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहंकारता—ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्वकांक्षी पुरुषों के द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत वत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी सेवा करने के लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षण के लिये भी उनसे अलग नहीं होते—उन्हीं समस्त गुणों के आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय इस लोक से अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है । अपने लिये, देवताओं में श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमों के मनुष्यों के लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ । जिनका कृपा कटाक्ष प्राप्त करने के लिये ब्रम्हा आदि देवता भगवान के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मीजी अपने निवासस्थान कमलवन का परित्याग करके बड़े प्रेम से जिनके चरणकमलों की सुभग छत्रछाया का सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान के कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि चिन्हों से युक्त श्रीचरणों से विभूषित होने के कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकों से बढ़कर शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्य का अब अन्त हो गया! भगवान ने मुझ अभागिनी को छोड़ दिया! मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्य पर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ।

 तुम अपने तीन चरणों के कम हो जाने से मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अतः अपने पुरुषार्थ से तुम्हें अपने ही अन्दर पुनः सब अंगों से पूर्ण एवं स्वस्थ कर देने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रह से यदुवंश में प्रकट हुए और मेरे बड़ी भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की सैकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे । जिन्होंने अपनी प्रेम भरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियों के मान के साथ धीरज को भी छीन लिया था और जिनके चरणकमलों के स्पर्श से मैं निरन्तर आनन्द से पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्त भगवान श्रीकृष्ण का विरह भला कौन सह सकती है । धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित् पूर्व वाहिनी सरस्वती के तट पर आ पहुँचे ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【सप्तदश अध्याय:】

                       
(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज परीक्षित् के द्वारा कलियुग का दमन"
सूतजी कहते हैं ;- शौनकजी! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित् ने देखा कि एक राज वेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के जोड़े को इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो । वह कमलतन्तु के समान श्वेत रंग का बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्र की ताड़ना से पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था । धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थों को देने वाली वह गाय भी बार-बार शूद्र के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे । स्वर्णजटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित् ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उसको ललकारा ।

अरे! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्य के इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है ? तूने नट की भाँति वेष तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शूद्र जान पड़ता है। हमारे दादा अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जाने पर इस प्रकार निर्जन स्थान एन निरपराधों पर प्रहार करने वाला तू अपराधो है, अतः वध के योग्य है ।
उन्होंने धर्म से पुछा—कमल-नाल के समान आपका श्वेतवर्ण है। तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैल के रूप में कोई देवता हैं ? अभी ययह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबल से सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोक के आँसू बहते मैंने नहीं देखे । धेनुपुत्र! अब आप शोक न करें। इस शूद्र से निर्भय हो जायँ। गोमाता! मैं दुष्टों को दण्ड देने वाला हूँ। अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो । देवि! जिस राजा के राज्य में दुष्टों के उपद्रव से सारी प्रजा त्रस्त रहती है उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं । राजाओं का परम धर्म यही है कि वे दुःखियों का दुःख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियों को पीड़ित करने वाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा । सुरभिनन्दन! आप तो चार पैर वाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले ? श्रीकृष्ण के अनुयायी राजाओं के राज्य में कभी कोई भी आपकी तरह दुःखी न हो । वृषभ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप-जैसे निरपराध साधुओं का अंग-भंग करके किस दुष्ट ने पाण्डवों की कीर्ति में कलंक लगाया है ? जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टों का दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है । जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा । बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः सप्तदश अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)

धर्म ने कहा ;- राजन्! आप महाराज पाण्डु के वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुःखियों को आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों ने भगवान श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ।
नरेन्द्र! शास्त्रों के विभिन्न वचनों से मोहित होने के कारण हम उस पुरुष को नहीं जानते, जिससे क्लेशों के कारण उत्पन्न होते हैं । जो लोग किसी भी प्रकार के द्वैत को स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दुःख का कारण बतलाते है। कोई प्रारब्ध को कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्म को। कुछ लोग स्वभाव को, तो कुछ लोग ईश्वर को दुःख का कारण मानते हैं । किन्हीं-किन्हीं का ऐसा भी निश्चय है कि दुःख का कारण न तो तर्क के द्वारा जाना जा सकता है और न वाणी के द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धि से ही विचार लीजिये ।
सूतजी कहते हैं ;- ऋषिश्रेष्ठ शौनकजी! धर्म का यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित् बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा— परीक्षित् ने कहा—धर्म का तत्व जानने वाले वृषभदेव! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभ के रूप में स्वयं धर्म हैं। (आपने अपने को दुःख देने वाले का नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करने वाले को जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करने वाले को भी मिलते हैं । अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियों के मन और वाणी से परमेश्वर की माया के स्वरुप का निरूपण नहीं किया जा सकता । धर्मदेव! सत्ययुग में आपके चार चरण थे—तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्म के अंश गर्व, आसक्ति और मद से तीन चरण नष्ट हो चुके हैं । अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बल पर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास करे लेना चाहता है । ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं।
 भगवान ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरने वाले चरणचिन्हों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं । अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनी के समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजा का स्वाँग बनाकर ब्राम्हणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ।
 महारथी परीक्षित् ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी । कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अतः झटपट उसने अपने राजचिन्ह उतार डाले और भयविह्वल होकर उनके चरणों में अपना सिर रख दिया । परीक्षित् बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुग को अपने पैरों पर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ।

परीक्षित् बोले ;- जब तू हाथ जोड़कर शरण आ गया, तब अर्जुन के यशस्वी वंश में उत्पन्न हुए किसी भी वीर से तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्म का सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्य में बिलकुल नहीं रहना चाहिये ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः सप्तदश अध्यायः श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद)

तेरे राजाओ के शरीर में रहने से ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्म-त्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापों की बढ़ती हो रही है । अतः अधर्म के साथी! इस ब्रम्हावर्त में तू एक क्षण के लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्य का निवासस्थान है। इस क्षेत्र में यज्ञ विधि जानने वाले महात्मा यज्ञों के द्वारा यज्ञ पुरुष-भगवान की आराधना करते रहते हैं । इस देश में भगवान श्रीहरि यज्ञों के रूप में निवास करते हैं, यज्ञों के द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करने वालों का कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान वायु की भाँति समस्त चराचर जीवों के भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओं को पूर्ण करते रहते हैं ।
सूतजी कहते हैं ;- परीक्षित् की आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराज के समान मारने के लिये उद्दत, हाथ में तलवार लिये हुए परीक्षित् से वह बोला— कलि ने कहा—सार्वभौम! आपकी आज्ञा से जहाँ कहीं भी मैं रहने का विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुष पर बाण चढ़ाये खड़े है । धार्मिकशिरोमणे! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञा का का पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ।
सूतजी कहते हैं ;- कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित् ने उसे चार स्थान दिये—द्दुत, मद्दपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमशः असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं। उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित् ने उसे रहने के लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)—दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये—झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण । परीक्षित् के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा । इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजा वर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ।
राजा परीक्षित् ने इसके बाद वृषभ रूप धर्म के तीनों चरण—तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वी का संवर्धन किया । वे ही महाराजा परीक्षित् इस समय अपने राजसिंहासन पर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिर ने वन में जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं । वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित इस समय हस्तिनापुर में कौरव-कुल की राज्यलक्ष्मी से शोभायमान हैं । अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित वास्तव में ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकाल में आप लोग इस दीर्घकालीन यज्ञ के लिये दीक्षित हुए है।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【अष्टादश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज परीक्षित् के द्वारा कलियुग का दमन , राजा परीक्षित् को श्रृंगी ऋषि का शाप"
सूतजी कहते हैं ;- अद्भुत कर्मा भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से राजा परीक्षित् अपनी माता की कोख में अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र से जल जाने पर भी मरे नहीं । जिस समय ब्राम्हण के शाप से उन्हें डसने के लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राण नाश के महान् भय से भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था । उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गंगातट पर जाकर श्रीशुकदेवजी से उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान के स्वरुप को जानकर अपने शरीर को त्याग दिया । जो लोग भगवान श्रीकृष्ण की लीला कथा कहते रहते हैं, उस कथामृत का पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनों के द्वारा उनके चरण-कमलों का स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकाल में भी मोह नहीं होता । जब तक पृथ्वी पर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित् सम्राट् रहे, तब तक चारों ओर व्याप्त हो जाने पर भी कलियुग का कुछ भी प्रभाव नहीं था । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का परित्याग किया, उसी समय पृथ्वी में अधर्म का मूलकारण कलियुग आ गया था । भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित् कलियुग से कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें वह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो संकल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है; संकल्पमात्र से नहीं । ये भेड़िये के समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है। वह प्रमादी मनुष्यों को अपने वश में करने के लिये ही सदा सावधान रहता है ।
शौनकादि ऋषियों! आप लोगों को मैंने भगवान की कथा से युक्त राजा परीक्षित् का पवित्र चरित्र सुनाया। आप लोगों ने यही पूछा था । भगवान श्रीकृष्ण कीर्तन करने योग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओं से सम्बन्ध रखने वाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषों को उन सबका सेवन करना चाहिये ।
ऋषियों ने कहा ;- सौम्यस्वभाव सूतजी! आप युग-युग जीयें; क्योंकि मृत्यु के प्रवाह में पड़े हुए हम लोगों को आप भगवान श्रीकृष्ण की अमृतमयी उज्ज्वल कीर्ति का श्रवण कराते हैं । यज्ञ करते-करते उसके धुएँ से हम लोगों का शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्म का कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमान में ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं । भागवत्-प्रेमी भक्तों के लवमात्र के सत्संग से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है । ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषों के एकमात्र जीवन सर्वस्व श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं से तृप्त ही जाय ? समस्त प्राकृत गुणों से का पार तो ब्रम्हा, शंकर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके । विद्वान्! आप भगवान को ही अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान के उदार और विशुद्ध चरित्रों का हम श्रद्धालु श्रोताओं के लिये विस्तार से वर्णन कीजिये ।

"श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद'

भगवान के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्षस्वरुप भगवान के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होंगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण क्या या होगा। उसमें पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा। भगवान के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसंग सुनने में बड़ा रस मिलता है ।
सूतजी कहते हैं ;- अहो! विलोम जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करने मात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है । फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान का नाम लेते हैं! भगवान की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है । भगवान के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करने वाले ब्रम्हादि देवताओं को छोड़कर भगवान के न चाहने पर भी उनके चरणकमलों की रज का ही सेवन करती हैं ।

ब्रम्हाजी ने भगवान के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरण नखों से निकालकर गंगाजी के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजी सहित सारे जगत् को पवित्र करता है। ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ‘भगवान्’ शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है। जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिनमें किसी को कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है । सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं! आप लोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं । एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी ।
जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्त भाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं । इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के अनिरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रम्हरूप तुरीय पद में वे स्थित थे । उसका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था। राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद)

जब राजा को वहाँ बैठने के लिये तिनके का आसन भी न मिला, किसी ने उन्हें पर भूमि पर भी बैठने को न कहा—अर्घ्य और आदर भरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतीं—तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये । शौनकजी! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राम्हण के प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था । वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोध वश धनुष की नोक से एक मरा साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये ।
उनके मन में यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तव में इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियों का निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढ़ोंग रच रखा है । उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषि कुमारों के साथ पास ही खेल रहा था।
जब उस बालक ने सुना कि राजा मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा ;-  ‘ये नरपति कहलाने वाले लोग उच्छिष्ट भोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे है! ब्राम्हणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देने वाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं । ब्राम्हणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है । अतएव उन्मार्गगामीयों के शासक भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम जाने पर इन मर्यादा तोड़ने वालों को आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो’। अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल-लाल आँखों वाले उस ऋषि कुमार ने कौशिकी नदी के जल से आचमन करके अपने वाणी-रूपी वज्र का प्रयोग किया । ‘कुलांगार परीक्षित् ने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’।

इसके बाद वह बालक अपने आश्रम पर आया और अपने पिता के गले में साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा । विप्रवर शौनकजी! शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है । उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्र से पूछा—‘बेटा! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया ।
ब्रम्हर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टि में परीक्षित् शाप के योग्य नहीं थे।
उन्होंने कहा ;- ‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया । तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजा के दुस्सह तेज से सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 43-50 का हिन्दी अनुवाद)

जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षण में ही लोगों का नाश हो जायगा । राजा के नष्ट हो जाने पर धन आदि चुराने वाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होने पर भी वह हम पर भी लागू होगा। क्योंकि राजा के न रहने पर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लुट लेते हैं । उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचार-युक्त वैदिक आर्य धर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्ण संकर हो जाते हैं। सम्राट् परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शाप के योग्य कदापि नहीं हैं ।
इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें । भगवान ने भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरों के द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते । महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चाताप हुआ। राजा परीक्षित् ने जो उसका अपमान किया था, उस पर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया । महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत् में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्दों में डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरुप तो गुणों से सर्वथा परे है ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【एकोनविंश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"परीक्षित् का अनशनव्रत और शुकदेवजी का आगमन"
सूतजी कहते हैं ;- राजधानी में पहुँचने पर राजा परीक्षित् को अपने उस निन्दनीय कर्म के लिये बड़ा पश्चाताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे—‘मैंने निरपराध एवं तेज छिपाये हुए ब्राम्हण के साथ अनार्य पुरुषों के समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेद की बात है ।
अवश्य ही उन महात्मा के अपमान के फलस्वरुप शीग्र-से-शीघ्र मुझ पर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पाप का प्रायश्चित हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करने का दुःसाहस नहीं करूँगा ।
ब्राम्हणों की क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजाने को जलाकर खाक कर दे—जिससे फिर कभी मुझ दुष्ट की ब्राम्हण, देवता और गौओं के प्रति ऐसी पाप बुद्धि न हो । वे इस प्रकार की चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ—ऋषि कुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आग के समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम उन्होंने सोचा कि बहुत दिनों से मैं संसार के आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होने का कारण प्राप्त हो गया । वे इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहले से ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरुपतः त्याग करके भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा को ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशनव्रत लेकर वे गंगा तट पर बैठ गये । गंगाजी का जल भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसी की गन्ध से मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालों के सहित ऊपर-नीचे के समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? इस प्रकार गंगाजी के तट पर आमरण अनशन का निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियों का व्रत स्वीकार करके अनन्य भाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने लगे । उस समय त्रिलोकी को पवित्र करने वाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। संतजन प्रायः तीर्थ यात्रा के बहाने स्वयं उन तीर्थ स्थानों को ही पवित्र करते हैं । उस समय वहाँ पर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगु, अंगिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रम्हर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्यो का शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रों के मुख्य-मुख्य ऋषियों को एकत्र देखकर राजा ने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणों पर सिर रखकर वन्दना की । जब सब लोग आराम से अपने-अपने आसनों पर बैठ गये, तब महाराज परीक्षित् ने उन्हें फिर से प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध ह्रदय से अंजलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ।

राजा परीक्षित् ने कहा ;- अहो! समस्त राजाओं में हम धन्य हैं। धन्यतम हैं; क्योंकि अपने शील-स्वभाव के कारण हम आप महापुरुषों के कृपा पात्र बन गये हैं। राजवंश के लोग प्रायः निन्दित कर्म करने के कारण ब्राम्हणों के चरण-धोवन से दूर पड़ जाते हैं—यह कितने खेद की बात है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)

मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह-गेह में आसक्त रहने के कारण मैं भी पाप रूप ही हो गया हूँ। इसी से स्वयं भगवान ही ब्राम्हण के शाप के रूप में मुझ पर कृपा करने के लिये पधारे हैं। यह शाप वैराग्य उत्पन्न करने वाला है। क्योंकि इस प्रकार के शाप से संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं । ब्राम्हणों! अब मैंने अपने चित्त को भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। आप लोग और माँ गंगाजी शरणागत जानकर मुझ पर अनुग्रह करें, ब्राम्हण कुमार के शाप से प्रेरित कोई दूसरा कपट से तक्षक का रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर डस ले; इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं है। आप लोग कृपा करके भगवान की रसमयी लीलाओं का गायन करें । मैं आप ब्राम्हणों के चरणों में प्रणाम करके पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में में जन्म लेना पड़े, भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग हो, उनके चरणाश्रित महात्माओं से विशेष प्रीति हो और जगत् के समस्त प्राणियों के प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे। ऐसा ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये । महाराज परीक्षित् परम धीर थे। वे ऐसा दृढ़ निश्चय करके गंगाजी के दक्षिण तट पर पूर्वाग्र कुशों एक आसन पर उत्तर मुख होकर बैठ गये। राज-काज का भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया था । पृथ्वी एक एकच्छत्र सम्राट् परीक्षित् जब इस प्रकार आमरण अनशन का निश्चय करके बैठ गये, तब आकाश में स्थित देवता लोग बड़े आनन्द से उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ पृथ्वी पर पुष्पों की वर्षा करने लगे तथा उनके नगारे बार-बार बजने लगे । सभी उपस्थित महर्षियों ने परीक्षित् के निश्चय की प्रशंसा की और ‘साधु-साधु’ कहकर उनका अनुमोदन किया। ऋषि लोग तो स्वभाव से ही लोगों पर अनुग्रह की वर्षा करते रहते हैं; यही नहीं, उनकी सारी शक्ति लोक पर कृपा करने के लिये ही होती है। उन लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण के गुणों से प्रभावित परीक्षित् के प्रति उनके अनुरूप वचन कहे ।
‘राजर्षिशिरोमणे! भगवान श्रीकृष्ण के सेवक और अनुयायी आप पाण्डुवंशियों के लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आप लोगों ने भगवान की सन्निधि प्राप्त करने की आकांक्षा से उस राजसिंहासन का एक क्षण में ही परित्याग कर दिया, जिसकी सेवा बड़े-बड़े राजा अपने मुकुटों से करते थे । हम सब तब तक यहीं रहेंगे, जब तक ये भगवान के परम भक्त परीक्षित् अपने नश्वर शरीर को छोड़कर माया दोष एवं शोक से रहित भगवद्धाम में नहीं चले जाते’। ऋषियों के ये वचन बड़े ही मधुर, गम्भीर, सत्य और समता से युक्त थे। उन्हें सुनकर राजा परीक्षित् ने उन योगयुक्त मुनियों का अभिनन्दन किया और भगवान के मनोहर चरित्र सुनने की इच्छा से ऋषियों से प्रार्थना की । ‘महात्माओं! आप सभी सब ओर से यहाँ पधारे हैं। आप सत्य लोक में रहने वाले मूर्तिमान् वेदों के समान हैं। आप लोगों का दूसरों पर अनुग्रह करने के अतिरिक्त, जो आपका सहज स्वभाव ही है, इस लोक या परलोक में और कोई स्वार्थ नहीं है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः श्लोक 24-35 का हिन्दी अनुवाद)

विप्रवरों! आप लोगों पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूँ। आप सभी विद्वान् परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओं में और विशेष करके थोड़े ही समय में मरने वाले पुरुषों के लिये अन्तःकरण और शरीर से करने योग्य विशुद्ध कर्म कौन-सा है। उसी समय पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करते हुए, किसी की कोई अपेक्षा न रखने वाले व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रम के बाह्य चिन्हों से रहित एवं आत्मानुभूति में सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियों ने उन्हें घेर रखा था। उनका वेष अवधूत का था । सोलह वर्ष की अवस्था थी। चरण, हाथ, जंघा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब अंग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी।
कान बराबर थे। सुन्दर भौंहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शंख ही था । हँसली ढकी हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवली से युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, मुख पर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे । श्याम रंग था। चित्त को चुराने वाली भरी जवानी थी। वे शरीर की छटा और मधुर मुसकान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जानने वाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए । राजा परीक्षित ने अतिथि रूप से पधारे हुए श्रीशुकदेवजी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरुप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँ से लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए । ग्रह, नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान ब्रम्हार्षि, देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत श्रीशुकदेवजी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तव में वे महात्माओं के भी आदरणीय थे । जब प्रखर बुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्त भाव से बैठ गये, तब भगवान के परम भक्त परीक्षित ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणी से उनसे यह पूछा ।
 परीक्षित ने कहा ;- ब्रम्हस्वरुप भगवन्! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होने पर भी हमें संत-समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथि रूप से पधार कर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया । आप-जैसे महात्माओं के स्मरणमात्र से ही गृहस्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पाद प्रक्षालन और आसन-दानादि का सुअवसर मिलने पर तो कहना ही क्या है । महायोगिन्! जैसे भगवान विष्णु के सामने दैत्य लोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधि से बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं । अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद् भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयों की प्रसन्नता के लिये उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपन का व्यवहार किया है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः श्लोक 36-40 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण की कृपा न होती तो आप-सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्यु के समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते । आप योगियों के परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरुप और साधन के सम्बन्ध में प्रश्न कर रहा हूँ। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये ? भगवन्! साथ यह भी बतलाइये कि मनुष्यमात्र को क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ? भगवत्स्वरूप मुनिवर! आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि जितनी देर एक गाय दुही जाती है, गृहस्थों के घर पर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते ।
सूतजी कहते हैं ;- जब राजा ने बड़ी ही मधुर वाणी में इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये, तब समस्त धर्मों के मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर देने लगे ।

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्ध:" के १९ अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब द्वितीय स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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