सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( द्वितीय स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Second wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( द्वितीय स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Second wing) ]



                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】

                   

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

                      "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय"

"ध्यान-विधि और भगवान के विराट् स्वरुप का वर्णन"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! तुम्हारा लोकहित के लिये किया हुआ यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। मनुष्यों के लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करने की हैं, उन सबमें यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न का बड़ा आदर करते हैं । राजेन्द्र! जो गृहस्थ घर के काम-धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरुप को नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करने की रहती हैं । उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसंग से कटती है और दिन धन की हाय-हाय या कुटुम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है । संसार में जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोह में ऐसा पागल-सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं । इसलिये परीक्षित्! जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये । मनुष्य-जन्म का यही—इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो—ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे । परीक्षित्! जो निर्गुण स्वरुप में स्थित हैं एवं विधि-निषेध की मर्यादा को लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान के अनन्त कल्याणमय गुणगणों के वर्णन में रमे रहते हैं ।

 द्वापर के अन्त में इस भगवदरूप अथवा वेद तुल्य श्रीमद्भागवत नाम के महापुराण का अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन से मैंने अध्ययन किया था । राजर्षे! मेरी निर्गुणस्वरुप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं ने बलात् मेरे ह्रदय को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराण का अध्ययन किया । तुम भगवान के परम भक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाउँगा। जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम के साथ बहुत शीघ्र लग जाती है । जो लोग लोक या परलोक की किसी भी वस्तु की इच्छा रखते हैं या इसके विपरीत संसार में दुःख का अनुभव करते जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्ष पद को प्राप्त करना चाहते हैं, उनसाधकों के लिये तथा योग सम्पन्न सिद्ध ज्ञानियों के लिये भी समस्त शास्त्रों का यही निर्णय है कि वे भगवान के नामों का प्रेम से संकीर्तन करें । अपने कल्याण-साधन की ओर से असावधान रहने वाले पुरुष की वर्षों लम्बी आयु भी अनजान में ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ! सावधानी से ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती है । राजर्षि खट्वांग अपनी अपनी आयु की समाप्ति का समय जानकर दो घड़ी में ही सब कुछ त्यागकर भगवान के अभयपद को प्राप्त हो गये । परीक्षित्! अभी तो तुम्हारे जीवन की अवधि सात दिन की है। इस बीच में ही तुम अपने परम कल्याण के लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

मृत्यु का समय आने पर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्य के शस्त्र से शरीर और उससे सम्बन्ध रखने वालों के प्रति ममता को काट डाले । धैर्य के साथ घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थान में विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय । तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओं से युक्त प्रणव का मन-ही-मन जप करे। प्राण वायु को वश में करके मन का दमन करे और एक क्षण के लिये भी प्रणव को न भूले । बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा ले और कर्म की वासनाओं से चंचल हुए मन को विचार के द्वारा रोक कर भगवान के मंगलमय रूप में लगाये । स्थिर चित्त से भगवान के श्रीविग्रह में से किसी एक अंग का ध्यान करते-करते विषय-वासना से रहित मन को पूर्ण रूप से भगवान में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषय का चिन्तन ही न हो। वही भगवान विष्णु का परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेम रूप आनन्द से भर जाता है । यदि भगवान का ध्यान करते समय मन रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्य के साथ योग धारणा के द्वारा उसे वश में करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणों के दोषों को मिटा देती है ॥ २० ॥ धारणा स्थिर हो जाने पर ध्यान में जब योगी अपने परम मंगलमय आश्रय (भगवान्) को देखता है तब उसे तुरंत ही भक्ति योग की प्राप्ति हो जाती है ।
परीक्षित् ने पूछा ;- ब्रम्हन्! धारणा किस साधन से किस वस्तु में किस प्रकार की जाती है और उसका क्या स्वरुप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्य के मन का मैल मिटा देती है ?
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धि के द्वारा मन को भगवान के के स्थूल रूप में लगाना चाहिये । यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सब-का-सब जिसमें दीख पड़ता है वही भगवान का स्थूल-से-स्थूल आर विराट् शरीर है।

 जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महतत्व और प्रकृति—इन सात आवरणों से घिरे हुए इस ब्रम्हाण्ड शरीर में जो विराट् पुरुष भगवान हैं, वे ही धारणा के आश्रय हैं, उन्हीं की धारणा की जाती है । तत्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं—पाताल विराट् पुरुष के तलवे हैं, उनकी एडियाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ—एड़ी के ऊपर की गाँठें महातल हैं, उनके पैर के पिंडे तलातल हैं,। विश्व-मूर्ति भगवान के दोनों घुटने सुतल हैं, जाँघें वितल और अतल हैं, पेंडू भूतल है और परीक्षित्! उनके नाभिरूप सरोवरों को ही आकाश कहते हैं । आदिपुरुष परमात्मा की छाती को स्वर्गलोक, गले को महर्लोक, मुख को जनलोक और ललाट को तपोलोक कहते हैं। उस सहस्त्र सिर वाले भगवान का मस्तक समूह ही सत्यलोक है । इन्द्रादि देवता उनकी भुजाएँ हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय हैं। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिका के छिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान विष्णु के नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उसमें देखने की शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रम्हलोक है। तालु जल है और जिह्वा रस । वेदों को भगवान का ब्रम्हरन्ध्र कहते हैं और यम को दाढ़ें। सब प्रकार के स्नेह दाँत हैं और उन्क्की जगन्मोहिनी माया को ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी माया का कटाक्ष-विक्षेप है । लज्जा ऊपर का होठ और लोभ नीचे का होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं । राजन्! विश्वमूर्ति विराट् पुरुष की नाड़ियाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणों का चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है । परीक्षित्! बादलों को उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्त का वस्त्र है। महात्माओं ने अव्यक्त (मूल प्रकृति)—को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारों का खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है ।
महतत्व को सर्वात्मा भगवान का चित्त कहते हैं और रूद्र उनके अहंकार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वन में रहने वाले सारे मृग और पशु उनके कटि प्रदेश में स्थित हैं । तरह-तरह के पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनु की सन्तान मनुष्य उनके निवास स्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरों की स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं । ब्राम्हण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओं के नाम से जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं ।

परीक्षित्! विराट् भगवान के स्थूल शरीर का यही स्वरुप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसी में मुमुक्षु पुरुष बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है । जैसे स्वप्न देखने वाला स्वप्नावस्था में अपने-आपको ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करने वाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरुप आनन्द निधि भगवान का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीव के अधःपतन का हेतु है ।

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान के स्थूल और सूक्ष्मरूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्दोमुक्ति का वर्णन"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रम्हाजी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न हुए भगवान से वह सृष्टि विषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलयकाल में विलुप्त हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी तब उन्होंने इस जगत् को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलय के पहले था । वेदों की वर्णन शैली ही इस प्रकार की है कि लोगों की बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामों के फेर में फँस जाती है, जीव वहाँ सुख की वासना में स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किंतु उस मायामय लोकों में कहीं भी उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती ।
इसलिये विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह विविध नाम वाले पदार्थों से उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजननीय हो। अपनी बुद्धि को उनकी निस्सारता के निश्चय से परिपूर्ण रखे और एक क्षण के लिये भी असावधान न हो। यदि संसार के पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रम के यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जन का परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे । जब जमीन पर सोने से काम चल सकता है तब पलँग के लिये प्रयत्न करने से क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपने को भगवान की कृपा से स्वयं ही मिली हुई हैं तब तकियों की क्या आवश्यकता। जब अंजलि से काम चल सकता है तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्ष की छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रों की क्या आवश्यकता , पहनने को क्या रास्तों में चिथड़े नहीं हैं ? भूख लगने पर दूसरों के लिये ही शरीर धारण करने वाले वृक्ष क्या फल-फूल की भिक्षा नहीं देते ? जल चाहने वालों के लिये नदियाँ या बिलकुल सूख गयी हैं ? रहने के लिये क्या पहाड़ों की गुफाएँ बंद कर दी गयीं हैं ?
अरे भाई! सब न सही, क्या भगवान भी अपने शरणागतों की रक्षा नहीं करते ? ऐसी स्थिति में बुद्धिमान लोग भी धन के नशे में चूर घमंडी धनियों की चापलूसी क्यों करते हैं ? इस प्रकार विरक्त हो जाने पर अपने हृदय में नित्य विराजमान, स्वतःसिद्ध, आत्मस्वरुप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान हैं, बड़े प्रेम और आनन्द से दृढ़ निश्चय करके उन्हीं का भजन करें; क्योंकि उनके भजन से जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले अज्ञान का नाश हो जाता है । पशुओं की बात तो अलग है; परन्तु मनुष्यों में भला ऐसा कौन है जो लोगों को इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरकर अपने कर्मजन्य दुःखों को भोगते हुए देखकर भी भगवान का मंगलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगों में ही अपने चित्त को भटकने देगा ?
कोई-कोई साधक अपने शरीर के भीतर हृदयाकाश में विराजमान भगवान के प्रादेशमात्र स्वरुप की धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान की चार भुजाओं में, शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं । उनके मुख पर प्रसन्नता झलक रही है। कमल के समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्ब के पुष्प की केसर के समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जड़े हुए सोने के बाजूबंद शोभायमान हैं। सिर पर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानों में कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद)

उनके चरणकमल योगेश्वरों के खिले हुए हृदयकमल की कर्णिका पर विराजित हैं। उनके ह्रदय पर श्रीवत्स का चिन्ह—एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि लटक रही है। वक्षःस्थल कभी न कुम्हलाने वाली वनमाला घिरा हुआ है । वे कमर में करधनी, अँगुलियों में बहुमूल्य अँगूठी, चरणों में नूपुर और हाथों में कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालों की लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकान से खिल रहा है । लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवन से शोभायमान भौहों के द्वारा वे भक्तोजनों पर अनन्त अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं। जब तक मन इस धारणा के द्वारा स्थिर न हो जाय, तब तक बार-बार इन चिन्तन स्वरुप भगवान को देखते रहने की चेष्टा करनी चाहिये । भगवान के चरण-कमलों से लेकर उनके मुसकान युक्त मुखकमल पर्यन्त समस्त अंगों की एक-एक करके बुद्धि के द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अंग का ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दूसरे अंग का ध्यान करना चाहिये ।
 ये विश्वेश्वर भगवान का दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हीं का स्वरुप है। जब तक इनमें अनन्य प्रेममय भक्ति योग न हो जाय तब तक साधक को नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बाद एकाग्रता से भगवान के उपर्युक्त स्थूलरूप का ही चिन्तन करना चाहिये । परीक्षित्! जब योगी पुरुष इस मनुष्य लोक को छोड़ना चाहे तब देश और काल में मन को न लगाये। सुख पूर्वक स्थिर आसन से बैठकर प्राणों को जीतकर मन से इन्द्रियों का संयम करे । तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धि से मन को नियमित करके मन के साथ बुद्धि को क्षेत्रज्ञ में और क्षेत्रज्ञ को अन्तरात्मा में लीन कर दे। फिर अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उस समय शान्तिमय अवस्था में स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । इस अवस्था में सत्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुण की तो बात ही क्या है। अहंकार, महतत्व और प्रकृति का भी वहाँ अस्तित्व नहीं है। उस स्थिति में जब देवताओं के नियामक काल की भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहने वाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ? योगी लोग ‘यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थों में आत्मबुद्धि का त्याग करके हृदय के द्वारा पद-पद पर भगवान के जिस परम पूज्य स्वरुप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम से परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान विष्णु का परम पद है—इस विषय में समस्त शास्त्रों की सम्मति है । ज्ञान दृष्टि के बल से जिसके चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रम्हनिष्ठ योगी को इस प्रकार अपने शरीर का त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहट के प्राण वायु को षट्चक्र भेदन की रीति से ऊपर ले जाय । मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में, वहाँ से उदानवायु के द्वारा वक्षःस्थल के ऊपर विशुद्ध चक्र में, फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्रभाग में) चढ़ा दे ।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 21-29 का हिन्दी अनुवाद)

तदनन्तर दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायु को भौंहों के बीच आज्ञाचक्र में ले जाय। यदि किसी लोक में जाने की इच्छा न हो तो आधी घड़ी तक उस वायु को वहीं रोककर स्थिर लक्ष्य के साथ उसे सहस्त्रासर में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रम्हरन्ध्र का भेदन करके शरीर-इन्द्रियादि को छोड़ दे ।
परीक्षित्! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रम्हलोक में जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रम्हाण के किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये । योगियों का शरीर वायु की भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञान का सेवन करने वाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ।
परीक्षित्! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णा के द्वारा जब ब्रम्हलोक के लिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाश मार्ग से अग्नि लोक में जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँ से ऊपर भगवान श्रीहरि के शिशुमार नामक ज्योतिर्मयचक्र पर पहुँचता है । भगवान विष्णु का यह शिशुमारचक्र विश्व-ब्रम्हाण्ड के भ्रमण का केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीर से व अकेला ही महर्लोक में जाता है। वह लोक वेत्ताओं के द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्प पर्यन्त जीवित रहने वाले देवता विहार करते रहते हैं । फिर जब प्रलय का समय आता है, तब नीचे के लोकों को शेष के मुख से निकली हुई आग के द्वारा भस्म होते देख वह ब्रम्हलोक में चला जाता है, जिस ब्रम्हलोक में बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानों पर निवास करते हैं। उस ब्रम्हलोक की आयु ब्रम्हा की आयु के समान ही दो परार्द्ध की है । वहाँ न शोक है न दुःख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकार का उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दुःख है तो केवल एक बात का। वह यही है कि इस परम पद को न जानने वाले लोगों के जन्म-मृत्युमय अत्यन्त घोर संकटों को देखकर दयावश वहाँ के लोगों के मन में बड़ी व्यथा होती है । सत्यलोक में पहुँचने के पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणों का भेदन करता है। पृथ्वी रूप से जल को और जल रूप से अग्निमय आवरणों को प्राप्त होकर वह ज्योति रूप से वायु रूप आवरणों में आ जाता है और वहाँ से समय पर ब्रम्ह की अनन्तता का बोध कराने वाले आकाश रूप आवरणों को प्राप्त करता है । इस प्रकार स्थूल आवरणों को पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठान में लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रा में, नेत्र रूपतन्मात्रा में, त्वचा स्पर्शतन्मात्रा में, श्रोत्र शब्दतन्मात्रा में और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रिया शक्ति में मिलकर अपने-अपने सूक्ष्मस्वरुप को प्राप्त हो जाती हैं ।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 30-37 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार योगी पंचभूतों के स्थूल-सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतो को तामस अहंकार में, इन्द्रियों को राजस अहंकार में तथा मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को सात्विक अहंकार में लीन कर देता है। इसके बाद अहंकार के सहित लयरूप गति के द्वारा महतत्व में प्रवेश करके अन्त में समस्त गुणों के लयस्थान प्रकृति रूप आवरण में जा मिलता है ।
परीक्षित्! महाप्रलय के समय प्रकृति रूप आवरण का भी लय हो जाने पर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरुप होकर अपने उस निवारण उप से आनन्दस्वरुप शान्त परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गति की प्राप्ति हो जाती है उसे फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता । परीक्षित्! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तर में मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्दोमुक्ति और क्रममुक्ति का तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रम्हाजी ने भगवान वासुदेव की आरधना करके उनसे जब पश्न किया था, तब उन्होंने उत्तर में इन्हीं दोनों मार्गों की बात ब्रम्हाजी से कही थी । संसारचक्र में पड़े हुए मनुष्य के लिये जिस साधन के द्वारा उसे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है । भगवान ब्रम्हा ने एकाग्रचित्त से सारे वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं । समस्त चर-अचर प्राणियों में उनके आत्मारूप से भगवान श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान कराने वाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं ।
परीक्षित्! इसलिये मनुष्यों को चाहिये कि सब समय सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करे । राजन्! संत पुरुष आत्मस्वरुप भगवान की कथा का मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कान के दोनों में भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके ह्रदय से विषयों का विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ।

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                       【तृतीय अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओं की उपासना तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! तुमने मुझसे जो पूछा था कि मरते समय बुद्धिमान मनुष्य को क्या करना चाहिये, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया । जो ब्रम्हतेज का इच्छुक हो वह बृहस्पति की; जिसे इन्द्रियों की विशेष शक्ति की कामना हो वह इन्द्र की और जिसे सन्तान की लालसा हो वह प्रजापतियों की उपासना करे । जिसे लक्ष्मी चाहिये वह मायादेवी की, जिसे तेज चाहिये वह अग्नि की, जिसे धन चाहिये वह वसुओं की और जिस प्रभावशाली पुरुष को वीरता की चाह हो उसे रुद्रों की उपासना करनी चाहिये ।

जिसे बहुत अन्न प्राप्त करने की इच्छा हो वह अदिति का; जिसे स्वर्ग की कामना हो वह अदिति के पुत्र देवताओं का, जिसे राज्य की अभिलाषा हो वह विश्वदेवों का और जो प्रजा को अपने अनुकूल बनाने की इच्छा रखता हो उसे साध्य देवताओं का आराधन करना चाहिये ।
आयु की इच्छा से अश्विनी कुमारों का, पुष्टि की इच्छा से पृथ्वी का और प्रतिष्ठा की चाह हो तो लोक-माता पृथ्वी और द्वौ (आकाश)—का सेवन करना चाहिये ।

 सौन्दर्य की चाह से गन्धर्वों की, पत्नी की प्राप्ति के लिये उर्वशी अप्सरा की और सबका स्वामी बनने के लिये ब्रम्हा की आराधना करनी चाहिये ।

जिसे यश की इच्छा हो वह यज्ञ पुरुष की, जिसे खजाने की लालसा हो वह वरुण की; विद्या प्राप्त करने की आकांक्षा हो तो भगवान शंकर की और पति-पत्नी में परस्पर प्रेम बनाये रखने के लिये पार्वतीजी की उपासना करनी चाहिये ।

 धर्म-उपार्जन करने के लिये विष्णु-भगवान की, वंशपरम्परा की रक्षा के लिये पितरों की, बाधाओं से बचने के लिये यक्षों की और बलवान् होने के लिये मरुद्गणों की आराधना करनी चाहिये ।

राज्य के लिये मन्वन्तरों के अधिपति देवों को, अभिचार के लिये निर्ऋतिको, भोगों के लिये चन्द्रमा को और निष्कामता प्राप्त करने के लिये परम पुरुष नारायण को भजना चाहिये ।

और जो बुद्धिमान पुरुष हैं—वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओं से युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो—उसे तीव्र भक्ति योग के द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान की ही आराधना करनी चाहिये ।

जितने भी उपासक हैं, उनका सबसे बड़ा हित इसी में है कि वे भगवान के प्रेमी भक्तों का संग करके भगवान में अविचल प्रेम प्राप्त कर लें । ऐसे पुरुषों के सत्संग में जो भगवान की लीला-कथाएँ होती हैं, उनसे उस दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे संसार-सागर की त्रिगुणमयी तरंगमालाओं के थपेड़े शान्त हो जाते हैं, इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति नहीं रहती, कैवल्य मोक्ष का सर्वसम्मत मार्ग भक्ति योग प्राप्त हो जाता है। भगवान की ऐसी रसमयी कथाओं का चस्का लग जाने पर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे ।
शौनकजी ने कहा ;- सूतजी! राजा परीक्षित् ने शुकदेवजी की यह बात सुनकर उनसे और क्या पूछा ? वे तो सर्वज्ञ होने के साथ-ही-साथ मधुर वर्णन करने में भी बड़े निपुण थे । सूतजी! आप तो सब कुछ जानते हैं, हम लोग उनकी वह बातचीत बड़े प्रेम से सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। क्योंकि संतों की सभा में ऐसी ही बातें होतीं हैं जिनका पर्यवसान भगवान की रसमयी लीला-कथा में ही होता है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

पाण्डुनन्दन महारथी राजा परीक्षित् बड़े भगवद्भक्त थे। बाल्यावस्था में खिलौनों से खेलते समय भी वे श्रीकृष्ण लीला का ही रस लेते थे । भगवन्मय श्रीशुकदेवजी भी जन्म से ही भगवत्परायण हैं। ऐसे संतों के सत्संग में भगवान के मंगलमय गुणों की दिव्य चर्चा अवश्य ही हुई होगी ।
जिसका समय भगवान श्रीकृष्ण के गुणों के गान अथवा श्रवण में व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्यों की आयु व्यर्थ जा रही है। ये भगवान सूर्य प्रतिदिन अपने उदय और अस्त से उनकी आयु छीनते जा रहे हैं । क्या वृक्ष नहीं जीते ? क्या लुहार की धौंकनी साँस नहीं लेती ? गाँव के अन्य पालतू पशु क्या मनुष्य—पशु की ही तरह खाते-पीटे या मैथुन नहीं करते ? जिसके कान में भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा नहीं पड़ी, वह नर पशु, कुत्ते ग्रामसूकर, ऊँट और गधे से भी गया बीता है ।

 सूतजी! जो मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिल के समान हैं। जो जीभ भगवान की लीलाओं का गायन नहीं करती, वह मेढक की जीभ के समान टर्र-टर्र करने वाली हैं; उसका तो न रहना ही अच्छा है । जो सिर कभी भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में झुकता नहीं, वह रेशमी वस्त्र से सुसज्जित और मुकुट से युक्त होने पर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सोने के कंगन से भूषित होने पर भी मुर्दे के हाथ हैं । जो आँखें भगवान की याद दिलाने वाली मूर्ति, तीर्थ, नदी आदि का दर्शन नहीं करतीं, वे मोरों की पाँख में बने हुए आँखों के चिन्ह के समान निरर्थक हैं। मनुष्यों के वे पैर चलने की शक्ति रखने पर भी न चलने वाले पेड़ों-जैसे ही हैं, जो भगवान की लीला-स्थलियों की यात्रा नहीं करते । जिस मनुष्य ने भगवत्प्रेमी संतों के चरणों की धूल कभी सिर पर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा है। जिस मनुष्य ने भगवान के चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी की सुगन्ध लेकर उसकी सराहना नहीं की, वह श्वास लेता हुआ भी श्वासरहित शव है ।
सूतजी! वह ह्रदय नहीं लोहा है, जो भगवान के मंगलमय नामों का श्रवण-कीर्तन करने पर भी पिघलकर उन्हीं की ओर बह नहीं जाता। जिस समय ह्रदय पिघल जाता है, उस समय नेत्रों में आँसू छलकने लगते हैं और शरीर का रोम-रोम खिल उठता है । प्रिय सूतजी! आपकी वाणी हमारे हृदय को मधुरता से भर देती है। इसलिये भगवान के परम भक्त, आत्मविद्या-विशारद श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित् के सुन्दर प्रश्न करने पर जो कुछ कहा, वह संवाद आप कृपा करके हम लोगों को सुनाइये ।

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                       【चतुर्थ अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा का सृष्टि विषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ"
सूतजी कहते हैं ;- शुकदेवजी के वचन भगवतत्व का निश्चय कराने वाले थे। उत्तरानन्दन राजा परीक्षित् ने उन्हें सुनकर अपनी शुद्ध बुद्धि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य भाव से समर्पित कर दी । शरीर, पत्नी, पुत्र, महल, पशु, धन, भाई-बन्धु और निष्कण्टक राज्य में नित्य के अभ्यास के कारण उनकी दृढ़ ममता हो गयी थी। एक क्षण में ही उन्होंने उस ममता का त्याग कर दिया । शौनकादि ऋषियों! महामनस्वी परीक्षित् ने अपनी मृत्यु का निश्चित समय जान लिया था। इसलिये उन्होंने धर्म, अर्थ और काम से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी कर्म थे, उसका संन्यास कर दिया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण में सुदृढ़ आत्मभाव को प्राप्त होकर बड़ी श्रद्धा से भगवान श्रीकृष्ण की महिमा सुनने के लिये उन्होंने श्रीशुकदेवजी से यही प्रश्न किया, जिसे आप-लोग मुझसे पूछ रहे हैं ।
परीक्षित् ने पूछा ;- भगवत्स्वरूप मुनिवर! आप परम पवित्र और सर्वज्ञ हैं। आपने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं उचित है। आप ज्यों-ज्यों भगवान की कथा कहते जा रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे अज्ञान का परदा फटता जा रहा है । मैं आपसे फिर भी यह जानना चाहता हूँ कि भगवान अपनी माया से इस संसार की सृष्टि कैसे करते हैं। इस संसार की रचना तो इतनी रहस्यमयी है कि ब्रम्हादि समर्थ लोकपाल भी इसके समझने में भूल कर बैठते हैं । भगवान कैसे इस विश्व की रक्षा और फिर संहार करते हैं ? अनन्त शक्ति परमात्मा किन-किन शक्तियों का आश्रय लेकर अपने-आपको ही खिलौने बनाकर खेलते हैं ? वे बच्चों के बनाये हुए घरौंदों की तरह ब्रम्हाण्डो को कैसे बनाते हैं और फिर किस प्रकार बात-की-बात में मिटा देते हैं ?
भगवान श्रीहरि की लीलाएँ बड़ी ही अद्भुत—अचिन्त्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी उनकी लीला का रहस्य समझना अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है । भगवान तो अकेले ही हैं। वे बहुत-से कर्म करने के लिये पुरुष रूप से प्रकृति के विभिन्न गुणों को एक साथ ही धारण करते हैं अथवा अनेकों अवतार ग्रहण करके उन्हें क्रमश धारण करते हैं । मुनिवर! आप वेद और ब्रम्हतत्व दोनों के पूर्ण मर्मज्ञ हैं, इसलिये मेरे इस सन्देह का निवारण कीजिये ।
सूतजी कहते हैं ;- जब राजा परीक्षित् ने भगवान के गुणों का वर्णन करने के लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजी ने भगवान श्रीकृष्ण का बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों में मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करने एक लिये सत्व, रज तथा तमोगुण रूप तीन शक्तियों को स्वीकार कर ब्रम्हा, विष्णु और शंकर का रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियों के ह्रदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं, जिसका स्वरुप और उसकी उपलब्धि का मार्ग बुद्धि के विषय नहीं है; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है । हम पुनः बार-बार उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषों का दुःख मिटाकर उन्हें अपने प्रेम का दान करते हैं, दुष्टों की सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रम में स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तु का दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हीं की मूर्ति हैं, इसलिये किसी से भी उनका पक्षपात नहीं है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)

जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करने वाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसी का ऐश्वर्य नहीं है; फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्य से युक्त होकर जो निरन्तर ब्रम्हस्वरुप अपने धाम में विहार करते रहते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ । जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है । विवेकी पुरुष जिनके चरणकमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रम के ही ब्रम्हपद को प्राप्त कर लेते हैं, उन मंगलमय कीर्ति वाले भगवान श्रीकृष्ण को अनेक बार नमस्कार है । बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, सदाचारी और मन्त्रवेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को तथा अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित नहीं कर देते, तब तक उन्हें कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्म समर्पण की ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्ति वाले भगवान को बार-बार नमस्कार है ।
किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तों की शरण ग्रहण करने से ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् भगवान को बार-बार नमस्कार है । वे ही भगवान ज्ञानियों के आत्मा हैं, भक्तों के स्वमी हैं, कर्मकाण्डियों के लिये वेदमूर्ति हैं, धार्मिकों के लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियों के लिये तपःस्थल हैं। ब्रम्हा, शंकर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध ह्रदय से उनके स्वरुप का चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझ पर अपने अनुग्रह की—प्रसाद की वर्षा करें । जो समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मीदेवी के पति हैं, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजा के रक्षक हैं, सबके अन्तर्यामी और समस्त लोकों के पालनकर्ता हैं तथा पृथ्वी देवी के स्वामी हैं, जिन्होंने यदुवंश में प्रकट होकर अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है तथा जो उन लोगों के एकमात्र आश्रय रहे हैं—वे भक्तवत्सल, संतजनों के सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों । विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलों के चिन्तन रूप समाधि से शुद्ध हुई बुद्धि के द्वारा आत्म तत्व का साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शन के अनन्तर अपनी-अपनी मति और रूचि के अनुसार जिनके स्वरुप का वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्ति के लुटाने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों । जिन्होंने सृष्टि के समय ब्रम्हा के ह्रदय में पूर्वकल्प की स्मृति जागरित करने के लिये ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को प्रेरित किया और वे अपने अंगों के सहित वेद के रुप में उनके मुख से प्रकट हुईं, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान मुझ पर कृपा करें, मेरे ह्रदय में प्रकट हों । भगवान ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का निर्माण करके इनमें जीव रूप से शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन—इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दें । संत पुरुष जिनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतर सर्वज्ञ भगवान व्यास के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार है । परीक्षित्! वेद गर्भ स्वयम्भू ब्रम्हा ने नारद के प्रश्न करने पर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कर रहा हूँ) ।

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                       【पञ्चम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"सृष्टि-वर्णन"
नारदजी ने कहा ;- पिताजी! आप केवल मेरे ही नहीं, सबके पिता, समस्त देवताओं से श्रेष्ठ एवं सृष्टिकर्ता हैं। आपको मेरा प्रणाम है। आप मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिससे आत्म तत्व का साक्षात्कार हो जाता है । पिताजी! इस संसार का क्या लक्षण है ? इसका आधार क्या है ? इसका निर्माण किसने किया है ? इसका प्रलय किसमें होता है ? यह किसके अधीन है ? और वास्तव में यह है क्या वस्तु ? आप इसका तत्व बतलाइये । आप तो यह सब कुछ जानते हैं; क्योंकि जो कुछ हुआ है, हो रहा है या होगा, उसके स्वामी आप ही हैं। यह सारा संसार हथेली पर रखे हुए आँवले के समान आपकी ज्ञान की दृष्टि के अन्तर्गत ही हैं । पिताजी! आपको यह ज्ञान कहाँ से मिला ? आप किसके आधार पर ठहरे हुए है ? आपका स्वामी कौन है ? और आपका स्वरुप क्या है ? आप अकेले ही अपनी माया से पंचभूतों के द्वारा प्राणियों की सृष्टि कर लेते हैं, कितना अद्भुत है! जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँह से जाला निकाल कर उसमें खेलने लगती हैं, वैसे ही आप अपनी शक्ति के आश्रय से जीवों को अपने में ही उत्पन्न करते हैं और फिर आप में कोई विकार नहीं होता । जगत् में नाम, रूप और गुणों से जो कुछ जाना जाता है उसमें मैं ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता जो आपके सिवा और किसी से उत्पन्न हुई हो । इस प्रकार सबके ईश्वर होकर भी आपने एकाग्रचित्त से घोर तपस्या की, इस बात से मुझे मोह के साथ-साथ बहुत बड़ी शंका भी हो रही है कि आपसे बड़ा भी कोई है क्या । पिताजी! आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेश को ठीक-ठीक समझ सकूँ ।
ब्रम्हाजी ने कहा ;- बेटा नारद! तुमने जीवों के प्रति करुणा के भाव से भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि इससे भगवान के गुणों का वर्णन करने की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है । तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है; क्योंकि जब तक मुझसे परे का तत्व—जो स्वयं भगवान ही हैं—जान नहीं लिया जाता, तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है । जैस सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हीं के प्रकाश से प्रकाशित होकर जगत् में प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयं प्रकाश भगवान के चिन्मय प्रकाश से प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ । उन भगवान वासुदेव की मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय माया से मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं । यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूर से ही भाग जाती हैं। परन्तु संसार के अज्ञानीजन उसी से मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं । भगवत्स्वरूप नारद! द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव—वास्तव में भगवान से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

वेद नारायण के परायण हैं। देवता भी नारायण के ही अंगों में कल्पित हुए हैं और समस्त यज्ञ भी नारायण की प्रसन्नता के लिये ही हैं तथा उनसे जिन लोकों की प्राप्ति होती है, वे भी नारायण में ही कल्पित हैं । सब प्रकार के योग भी नारायण की प्राप्ति के ही हेतु हैं। सारी तपस्याएँ नारायण की ओर ही ले जाने वाली हैं, ज्ञान के द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं। समस्त साध्य और साधकों का पर्यवसान भगवान नारायण ही हैं । वे द्रष्टा होने पर भी ईश्वर हैं, स्वामी हैं; निर्विकार होने पर भी सर्वस्वरुप हैं। उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टि से ही प्रेरित होकर मैं उनके इच्छानुसार सृष्टि-रचना करता हूँ ।
भगवान के माया के गुणों से रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलय के लिये रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण—ये तीन गुण माया के द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं । ये ही तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रिया का आश्रय लेकर मायातीत नित्य मुक्त पुरुष को ही माया में स्थित होने पर कार्य, कारण और कर्तापन के अभिमान से बाँध लेते हैं । नारद! इन्द्रियातीत भगवान गुणों के इन तीन अवरणों से अपने स्वरुप को भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये लोग उनको नहीं जान पाते। सारे संसार के और मेरे भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं । मायापति भगवान ने एक से बहुत होने की इच्छा होने पर अपनी माया से अपने स्वरुप में स्वयं प्राप्त काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लिया । भगवान की शक्ति से ही काल ने तीनों गुणों में क्षोभ उत्पन्न कर दिया, स्वभाव ने उन्हें रुपान्ततरित कर दिया और कर्म ने महतत्व को जन्म दिया । रजोगुण और सत्वगुण की वृद्धि होने पर महतत्व का जो विकार हुआ, उससे ज्ञान, क्रिया और द्रव्यरूप तमःप्रधान विकार हुआ । वह अहंकार कहलाया और विकार को प्राप्त होकर तीन प्रकार का हो गया। उसके भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस। नारदजी! वे क्रमशः ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और द्रव्यशक्ति प्रधान हैं । जब पंचमहाभूतों के कारणरूप तामस अहंकार में विकार हुआ, तब उससे आकाश की उत्पत्ति हुई। आकाश की तन्मात्रा और गुण शब्द हैं। इस शब्द के द्वारा ही द्रष्टा और दृश्य का बोध होता है । जब आकाश में विकार हुआ, तब उससे वायु की उत्पत्ति हुई; उसका गुण स्पर्श है। अपने कारण का गुण आ जाने से यह शब्द वाला भी है। इन्द्रियों में स्फूर्ति, शरीर में जीवनी शक्ति, ओर और बल इसी के रूप हैं । काल, कर्म और स्वभाव से वायु में भी विकार हुआ। उससे तेज की उत्पत्ति हुई। इसका प्रधान गुण रूप है। साथ ही इसके कारण आकाश और वायु के गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें हैं । तेज के विकार से जल की उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस; कारण-तत्वों के गुण शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें हैं । जल के विकार से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई, इसका गुण है गन्ध। कारण के गुण कार्य में आते हैं—इस न्याय से शब्द, स्पर्श, रूप और रस—ये चारों गुण भी उसमें विद्यमान हैं ।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 30-42 का हिन्दी अनुवाद)

वैकारिक अहंकार से मन की और इन्द्रियों के दस अधिष्ठातृ देवताओं की भी उत्पत्ति हुई।
उनके नाम हैं—दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति । तैजस, अहंकार के विकार से श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण—ये पाँच कर्मेंदियाँ उत्पन्न हुईं। साथ ही ज्ञानशक्ति रूप बुद्धि और क्रियाशक्ति रूप प्राण भी तैजस अहंकार से ही उत्पन्न हुए ।
 श्रेष्ठ ब्रम्हवित्! जिस समय ये पंचभूत, इन्द्रिय, मन और सत्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे तब अपने रहने के लिये भोगों के साधन रूप शरीर की रचना कर सके । जब भगवान ने इन्हें अपनी शक्ति से प्रेरित किया तब वे तत्व परस्पर एक-दूसरे के साथ मिल गये और उन्होंने आपस में कार्य-कारण भाव स्वीकार करके व्यष्टि-समष्टि पिण्ड और ब्रम्हाण दोनों की रचना की । वह ब्रम्हाण रूप अंडा एक सहस्त्र वर्ष तक निर्जीव रूप से जल में पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार करने वाले भगवान ने उसे जीवित कर दिया । उस अंडे को फोड़कर उसमें से वही विराट् पुरुष निकला, जिसकी जंघा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्त्रों की संख्या में हैं । विद्वान् पुरुष (उपासना के लिये) उसी के अंगों में समस्त लोक और उनमें रहने वाली वस्तुओं की कल्पना करते हैं। उसकी कमर से नीचे के अंगों में सातों पाताल की और उसके पेडू से ऊपर के अंगों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है । ब्राम्हण इस विराट् पुरुष का मुख है, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं । पैरों से लेकर कटीपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोक की कपना की गयी है; नाभि में भुवर्लोक की, ह्रदय में स्वर्लोक की और परमात्मा के वक्षःस्थल में महर्लोक की कल्पना की गयी है । उसके गले में जनलोक, दोनों स्तनों में तपोलोक और मस्तक में ब्रम्हा का नित्य निवास स्थान सत्य लोक है । उस विराट् पुरुष की कमर में अतल, जाँघों में वितल, घुटनों में पवित्र सुतललोक और जंघाओं में तलातल की कल्पना की गयी है । एड़ी के ऊपर की गाँठों में महातल, पंजे और एड़ियों में रसातल और तलुओं में पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है । विराट् भगवान के अंगों में इस प्रकार भी लोकों की कल्पना की जाती है उनके चरणों में पृथ्वी है, नाभि में भुवर्लोक है और सिर में स्वर्लोक है ।

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