सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]



                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【एकादश अध्याय:】


                               (श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)


"द्वारका में श्रीकृष्ण का राजोचित स्वागत"
सूतजी कहते हैं ;- श्रीकृष्ण ने अपने समृद्ध आनर्त देश में पहुँचकर वहाँ के लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पांचजन्य नामक शंख बजाया । भगवान के होंठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेतवर्ण का शंख बजते समय उनके करकमलों में ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंग के कमलों पर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो ।

  भगवान के शंख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करने वाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से नगर के बाहर निकल आयी । भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं, फिर भी जैसे लोग बड़े आदर से भगवान सूर्य को भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार की भेंटों से प्रजा ने श्रीकृष्ण का स्वागत किया । सबके मुख कमल प्रेम से खिल उठे। वे हर्ष गद्गद वाणी से सबके सुहृद और संरक्षक भगवान श्रीकृष्ण की ठीक वैसी स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पिता से अपनी तोतली बोली में बातें करता हैं । ‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलों को सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जो इस संसार में परम कल्याण चाहने वालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बाल तक बाँका नहीं कर सकता ।

     विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणों की सेवा से हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें । अहा! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्य सार अनुपम रूप का हम दर्शन करते रहते हैं। कितन सुन्दर मुख है। प्रेम पूर्ण मुसकान से स्निग्ध चितवन! यह दर्शन तो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । कमलनयन श्रीकृष्ण! जब आप अपने बन्धु-बान्धवों से मिलने के लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (ब्रजमण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षों के समान लम्बा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसे सूर्य के बिना आँखों की भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रजा के मुख से ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टि से उन पर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारका में प्रविष्ट हुए ।
 जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी)–की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान की वह द्वारकापुरी भी मधु, भोज, दशार्द, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों से, जिनके पराक्रम की तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी । वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुंजों से युक्त थीं। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीच में कमल युक्त सरोवर नगर की शोभा बढ़ा रहे थे । नगर के फाटकों, महल के दरवाजों और सडकों पर भगवान के स्वागतार्थ बदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानों पर घाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था । उसके राजमार्ग, अन्यान्य सड़कें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जल से सींच दिये गये थे और भगवान के स्वागत के लिये बरसायें हुए फल-फूल, अक्षत-अंकुर चारों बिखरे हुए थे ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

घरों के प्रत्येक द्वार पर दही, अक्षत, फल, ईख, जल से भरे हुए कलश, उपहार की वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे। उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्दुम्न, चारुदेष्ण और जाम्बन्तीनन्दन साम्ब ने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मन में इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगों ने अपने सभी आवश्यक कार्य—सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेम के आवेग से उनका ह्रदय उछलने लगा। वे मंगलशकुन के लिये एक गजराज को आगे करके स्वस्तयन पाठ करते हुए और मांगलिक सामग्रियों से सुसज्जित ब्राम्हणों को साथ लेकर चले। शंख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और देवध्वनि होने लगी। वे सब हर्षित होकर रथों पर सवार हुए और बड़ी आदर बुद्धि से भगवान की अगवानी करेने चले । साथ ही भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलो पर चमचमाते हुए कुण्डलों की कान्ति पड़ने से बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियों पर चढ़कर भगवान की अगवानी के लिये चलीं । बहुत-से नट, नाचने वाले, गाने वाले, विरद बखानने वाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान श्रीकृष्ण के अद्भुत चरित्रों का गायन करते हुए चले ।
भगवान श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया । किसी को सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसी को वाणी से अभिवादन किया, किसी को ह्रदय से लगाया, किसी से हाथ मिलाया, किसी की ओर देखकर मुसकुरा भर दिया और किसी को केवल प्रेम भरी दृष्टि से देख दिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डाल पर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राम्हण और वृद्धों का तथा दूसरे लोगों का भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनों से विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया ।
     शौनकजी! जिस समय भगवान राज मार्ग से जा रहे थे, उस समय द्वारका की कुल-कामिनियाँ भगवान के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं । भगवान का वक्षःस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्य लक्ष्मी का निवास स्थान है। उनका मुखाविन्द नेत्रों के द्वारा पान करने के लिये सौन्दर्य-सुधा से भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालों को भी शक्ति देने वाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसों के आश्रय हैं। उनके अंग-अंग शोभा के के धाम हैं। भगवान की इस छवि को द्वारकवासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षण के लिये भी तृप्त नहीं होतीं । द्वारका के राजपथ पर भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर श्वेतवर्ण का छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजली से शोभायमान हो । भगवान सबसे पहले अपने माता-पिता के महल में गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्द से देवकी आदि सातों माताओं को चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओं ने उन्हें अपने ह्रदय से लगाकर गोद में बैठा लिया। स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध कि धारा बहने लगी, उनका ह्रदय हर्ष से विह्वल हो गया और वे आनन्द के आँसुओं से उनका अभिषेक करने लगीं ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद)

माताओं से आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियों से सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवन में गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे । अपने प्राण नाथ भगवान श्रीकृष्ण को बहुत दिन बाहर रहने के बाद घर आया देखकर रानियों के ह्रदय में बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोड़कर उठ खड़ी हुई; उन्होंने केवल आसन को ही नहीं; बल्कि उन नियमों को भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होने पर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रो में लज्जा छा गयी । भगवान के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रों के द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिंगन किया।
   शौनकजी! उस समय उनके नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थें, उन्हें संकोंच वश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभाव से ही चंचल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी सनिधि से किस स्त्री की तृप्ति हो सकती है । जैस वायु बाँसों के संघर्ष से दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परसपर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेना सहित एक-दूसरे से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये ।
   साक्षात् परमेश्वर ही अपनी लीला से इस मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे और सहस्त्रों रमणी-रत्नों में रहकर उन्होंने साधारण मनुष्य की तरह क्रीड़ा की । जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके ह्रदय के उन्मुक्त भावों को सूचित करने वाली थी, जिनकी लजीली चितवन की चोट से बेसुध होकर विश्व विजयी कामदेव ने भी अपने धनुष का परित्याग कर दिया था—वे कमनीये कामिनियाँ अपने काम-विलासों से जिनके मन में तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असंग भगवान श्रीकृष्ण को संसार के लोग अपने ही समान कर करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं—यह उनकी मूर्खता है । यही तो भगवान की भगवत्ता है कि वे प्रकृति में स्थित होकर भी उसके गुणों से कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान की शरणागत बुद्धि अपने में रहने वाले प्राकृत गुणों से लिप्त नहीं होती ।
वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्ण को अपना एकान्त सेवी, स्त्री परायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामी के ऐश्वर्य को नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे अहंकार की वृत्तियाँ ईश्वर को अपने धर्म से युक्त मानती हैं ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【द्वादश अध्याय:】

                         
(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"परीक्षित् का जन्म"
शौनकजी! ने कहा ;- अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रम्हास्त्र चलाया था, उससे उत्तर का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान ने उसे पुनः जीवित कर दिया । उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित के, जिन्हें शुकदेवजी ने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हम लोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं ।
   सूतजी ने कहा ;- धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से निःस्पृह हो गये थे । शौनकादि ऋषियों! उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी । उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवता लोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी । शौनकजी! उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित् जब अवश्त्थामा के ब्रम्हास्त्र के तेज से जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है । वह देखने में तो अँगूठे भर का है, परन्तु उसका स्वरुप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल है, आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है । जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रम्हास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था। उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है ।
इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्म रक्षक अप्रमेय भगवान श्रीकृष्ण ब्रहास्त्र के तेज को शान्त करे वहीं अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सद्गुणों को विकसित करने वाले शुभ समय में पाण्डु के वंश धर परीक्षित् का जन्म हुआ। जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो । पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राम्हणों से मंगल वाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये । महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे। उन्होंने प्रजा तीर्थ नामक काल में अर्थात् नाल काटने के पहले ही ब्राम्हणों को सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जाति के हाथी-घोड़े और उत्तम अन्न का दान दिया ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद)

ब्राम्हणों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिर से कहा ;- ‘पुरुषवंशशिरोमणे! काल की दुर्निवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुम लोगों पर कृपा करने के लिये भगवान विष्णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी । इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा। निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी, भगवान का परम भक्त और महापुरुष होगा’।

 युधिष्ठिर ने कहा ;- महात्माओं! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यश से हमारे वश के पवित्र कीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण करेगा ?
ब्राम्हणों ने कहा ;- धर्मराज! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के समान ब्राम्हणभक्त और सत्य प्रतिज्ञ होगा । यह उशीरनर नरेश शिबि के समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा । धनुर्धरों में यह सहस्त्राबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा। यह अग्नि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा । यह सिंह के समान पराक्रमी, हिमाचल की तरह आश्रय लेने योग्य, पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता-पिता के समान सहनशील होगा । इसमें पितामह ब्रम्हा के समान समता रहेगी, भगवान शंकर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने में यह लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा । यह समस्त सद्गुणों की महिमा धारण करने में श्रीकृष्ण का अनुयायी होगा, रन्तिदेव के समान उदार होगा और ययाति के समान धार्मिक होगा ।
धैर्य में बलि के समान और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लाद के समान होगा। यह बहुत से अश्वमेधयज्ञों का करने वाला और वृद्धों का सेवक होगा । इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को यह दण्ड देगा। यह पृथ्वी माता और धर्म की रक्षा के लिये कलियुग का भी दमन करेगा । ब्राम्हण कुमार के शाप से तक्षक के द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान के चरणों की शरण लेगा ।

राजन्! व्यासनन्दन शुकदेवजी से यह आत्मा के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्त में गंगा तट पर अपने शरीर को त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा । ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राम्हण राजा युधिष्ठिर को इस प्रकार बालक के जन्म लग्न का फल बताकर और भेँट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये । वही यह बालक संसार में परीक्षित् के नाम से प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भ में जिस पुरुष का दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसी की परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है । जैसे शुक्लपक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालन से क्रमशः अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया । इसी समय स्वजनों के वध का प्रायश्चित् करने के लिये राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेधयज्ञ के द्वारा भगवान की आराधना करने का विचार किया, परन्तु प्रजा से वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने)—की रकम के अतिरिक्त और धन न होने के कारण वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 33-36 का हिन्दी अनुवाद)

उनका अभिप्राय समझकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उनके भाई उत्तर दिशा में राजा मरुत्त और ब्राम्हणों द्वारा छोड़ा हुआ[1] बहुत-सा धन ले आये । उससे यज्ञ की सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिर ने तीन अश्वमेधयज्ञों के द्वारा भगवान की पूजा की । युधिष्ठिर के निमन्त्रण से पधारे हुए भगवान ब्राम्हणों द्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये कई महीनों तक वहीं रहे । शौनकजी! इसके बाद भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी से अनुमति लेकर अर्जुन के साथ यदुवंशियों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका के लिये प्रस्थान किया ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【त्रयोदश अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और गान्धारी का वन में जाना"
सूतजी कहते हैं ;- विदुरजी तीर्थ यात्रा में महर्षि मैत्रेय से आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जानने की इच्छा थी वह पूर्ण हो गयी थी । विदुरजी ने मैत्रेय ऋषि से जितने प्रश्न किये थे, उनका उत्तर सुनने के पहले ही श्रीकृष्ण में अनन्य भक्ति हो जाने के कारण वे उत्तर सुनने से उपराम हो गये । शौनकजी! अपने चाचा विदुरजी को आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डव-परिवार के अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रों सहित दूसरी स्त्रियाँ—सब-के-सब बड़ी प्रसन्नता से, मानो मृत शरीर में प्राण आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानी के लिये सामने गये। यथायोग्य आलिंगन और प्रणामादि के द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठा से कातर होकर सबने प्रेम के आँसू बहाये। युधिष्ठिर ने आसन पर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया । जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसन पर बैठे थे तब युधिष्ठिर ने विनय से झुककर सबके सामने ही उनसे कहा ।

युधिष्ठिर ने कहा ;- चाचाजी! जैसे पक्षी अपने अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने करकमलों की छत्रछाया में हम लोगों को पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विष दान और लाक्षागृह के दाह आदि विपत्तियों से बचाया है। क्या आप कभी हम लोगों की भी याद करते रहे हैं ? आपने पृथ्वी पर विचरण करते समय किस वृत्ति से जीवन-निर्वाह किया ? आपने पृथ्वीतल पर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रों का सेवन किया ?

प्रभो! आप-जैसे भगवान के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थ स्वरुप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजमान भगवान के द्वारा तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं । चाचाजी! आप तीर्थ यात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादव लोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरी में सुख से तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ।
युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर विदुरजी ने तीर्थों और यदुवंशियों के सम्बन्ध में जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रम से बतला दिया, केवल यदुवंश के विनाश की बात नहीं कही । करुण ह्रदय विदुरजी पाण्डवों को दुःखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवों को नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होने वाली थी ।

पाण्डव विदुरजी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की कल्याण कामना से सब लोगों को प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुर में ही रहे । विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषि के शाप से ये सौ वर्ष के लिये शूद्र बन गये थे । इतने दिनों तक यमराज के पद पर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे । राज्य प्राप्त हो जाने पर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयों के साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित को देखकर अपनी अतुल सम्पत्ति से आनन्दित रहने लगे ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः त्रयोदश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार पाण्डव गृहस्थ के काम-धंधों में रम गये और उन्हीं के पीछे एक प्रकार से यह बात भूल गये कि अनजान में ही हमारा जीवन मृत्यु की ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ।
परन्तु विदुरजी ने काल की गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र से कहा—‘महाराज! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँ से निकल चलिये । हम सब लोगों के सिर पर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालने का कहीं भी कोई उपाय नहीं है । काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है ।
आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे-सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापे का शिकार हो गया, आप पराये घर में पड़े हुए हैं । ओह! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! इसी के कारण तो आप भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्ते का-सा जीवन बिता रहे हैं । जिनको आपने आग में जलाने की चेष्टा की, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभा में जिनकी विवाहिता पत्नी को अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्न से पले हुए प्राणों को रखने में क्या गौरव है । आपके अज्ञान की हद हो गयी कि अब भी जीना चाहते हैं! परन्तु आपके चाहने से क्या होगा; पुराने वस्त्र की तरह बुढ़ापे से गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहने पर भी क्षीण हुआ जा रहा है । अब इस शरीर से आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत; इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है । चाहे अपनी समझ से हो या दूसरे के समझाने से—जो इस संसार को दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरण को वश में करके ह्रदय में भगवान को धारणकर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है । इसके आगे जो समय आने वाला है, वह प्रायः मनुष्यों के गुणों को घटाने वाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ।
जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओं के सुदृढ़ स्नेह-पाशों को काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्ग से निकल पड़े । जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालय की यात्रा कर रहे हैं जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है जैसा वीर पुरुषों को लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहार से होता है। तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं । अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दन तथा अग्निहोत्र करके ब्राम्हणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्ण का दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरण वन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारी के दर्शन नहीं हुए ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः त्रयोदश अध्यायः श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद)

युधिष्ठिर ने उद्विग्न चित्त होकर वहीं बैठे हुए संजय से पूछा—‘संजय!
मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? पुत्र शोक से पीड़ित दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के मारे जाने दुःखी थे। मैं मन्दबुद्धि हूँ—कहीं मुझसे किसी अपराध की आशंका करके वे माता गान्धारी सहित गंगाजी में तो नहीं कूद पड़े । जब हमारे पिता पाण्डु की मृत्यु हो गयी थी और हम लोग नन्हें-नन्हें बच्चे थे, तब उन्हीं दोनों चाचाओं ने बड़े-बड़े दुःखों से हमें बचाया था। वे हम पर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय! वे यहाँ से कहाँ चले गये ?’
   सूतजी कहते हैं ;- संजय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलता से अत्यन्त पीड़ित और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिर को कुछ उत्तर न दे सके । फिर धीरे-धीरे बुद्धि के द्वारा उन्होंने अपने चित्त को स्थिर किया, हाथों से आँखों के आसूँ पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्र के चरणों का स्मरण करते हुए युधिष्ठिर से कहा।
   संजय बोले ;- कुलनन्दन! मुझे आपने दोनों चाचा और गान्धारी के संकल्प का कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो! मुझे तो उन महात्माओं ने ठग लिया । संजय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले ;- युधिष्ठिर ने कहा—‘भगवन्! मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोक से व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँ से कहाँ चले गये । भगवन्! अपार समुद्र में कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’
तब भगवान के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारद ने कहा—‘धर्मराज! तुम किसी के लिये शोक मत करो; क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वर के वश में है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वर की ही आज्ञा का पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणी को दूसरे से मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है । जैसे बैल बड़ी रस्सी में बँधे और छोटी रस्सी से रथे रहकर अपने स्वामी का भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नामों से वेदरूप रस्सी में बँधकर ईश्वर की ही आज्ञा का अनुसरण करते हैं । जैसे संसार में खिलाड़ी की इच्छा से ही खिलौनों का संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान की इच्छा से ही मनुष्यों का मिलना-बिछुड़ना होता है । तुम लोगों को जीव रूप से नित्य मानो या देह रूप से अनित्य अथवा जड़ रूप से अनित्य और चेतन रुप से नित्य अथवा शुद्ध ब्रम्ह रूप एन नित्य-अनित्य कुछ भी न मानो—किसी भी अवस्था में मोहजन्य आसक्ति के अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं है । इसलिये धर्मराज! वे दीन-दुःखी चाचा-चाची असहाय अवस्था में मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञान जन्य मन की विकलता को छोड़ दो । यह पांच भौतिक शरीर काल, कर्म और गुणों के वश में है। अजगर के मुँह में पड़े हुए पुरुष के समान यह पराधीन शरीर दूसरों की रक्षा ही क्या कर सकता है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः त्रयोदश अध्यायः श्लोक 46-59 का हिन्दी अनुवाद)

हाथ वालों के बिना हाथ वाले, चार पैर वाले पशुओं के बिना पैर वाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवों के छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जीवन का कारण हो रहा है । इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयं प्रकाश भगवान्, जो सम्पूर्ण आत्माओं के आत्मा हैं, माया के द्वारा अनेकों प्रकार से प्रकट हो रहे हैं; तुम केवल उन्हीं को देखो । महाराज! समस्त प्राणियों को जीवन दान देने वाले वे ही भगवान इस समय इस पृथ्वीतल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिये कालरूप से अवतीर्ण हुए हैं । अब वे देवताओं का कार्य पूरा कर चुके हैं। थोडा-सा काम और शेष है, उसी के लिये वे रुके हुए हैं। जब तक वे प्रभु यहाँ हैं तब तक तुम लोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो । धर्मराज! हिमालय के दक्षिण भाग में, जहाँ सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गंगाजी ने अलग-अलग सात धाराओं के रूप में अपने को सात भागों में विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्त्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियों के आश्रम पर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुर के साथ गये हैं । वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते हैं। अब उनके चित्त में किसी प्रकार की कामना नहीं हैं, वे केवल जल पीकर शान्ति चित्त से निवास करते हैं । आसन जीतकर प्राणों को वश में करके उन्होंने अपनी छहों इन्द्रियों को विषयों से लौटा लिया है। भगवान की धारणा से उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्वगुण के मल नष्ट हो चुके हैं । उन्होंने अहंकार को बुद्धि के साथ जोड़कर और उसे क्षेत्रज आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में घटाकाश के समान सर्वाधिष्ठान ब्रम्ह में एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मन को रोककर समस्त विषयों को बाहर से ही लौटा दिया है और माया के गुणों से होने वाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मों का संन्यास करके वे इस समय ठूँठ की तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अतः तुम उनके मार्ग में विघ्न रूप मत बनना।

धर्मराज! आज से पाँचवें दिन वे अपने शरीर का परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा । गार्हपत्यादि अग्नियों के द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृत देह की जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पति का अनुगमन करती हुई उसी आग में प्रवेश कर जायँगी । धर्मराज! विदुरजी अपने भाई का आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुःखित होते हुए वहाँ से तीर्थ-सेवन के लिये चले जायँगे । देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरु के साथ स्वर्ग को चले गये को चले गये। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके उपदेशों को ह्रदय में धारण करके शोक को त्याग दिया ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【चतुर्दश अध्याय:】

                    
(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना"
सूतजी कहते हैं ;- स्वजनों से मिलने और पुण्य श्लोक भगवान श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं—यह जानने के लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे । कई महीने बात जाने पर भी अर्जुन वहाँ से लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिर को बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे । उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्य परायण हो गये हैं। अपने जीवन-निर्वाह के लिये लोग पाप पूर्ण व्यापार करने लगे हैं । सारा व्यवहार कपट से भरा हुआ होता है, यहाँ तक कि मित्रता में भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे-सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नी में भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है । कलिकाल के आ जाने से लोगों का स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्म से अभिभूत हो गया है और प्रकृति में भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा ।
युधिष्ठिर ने कहा ;- भीमसेन! अर्जुन को हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्य श्लोक भगवान श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं—इसका पता लगा आये और सम्बन्धियों से मिल भी आये ।तब से सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अब तक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आने का क्या कारण है । कहीं देवर्षि नारद के द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रह का संवरण करना चाहते हैं ? उन्हीं भगवान की कृपा से हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकों का अधिकार प्राप्त हुआ है ।

भीमसेन! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही—आकाश में उल्कापातादि, पृथ्वी में भुकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। इनसे इन बात की सूचना मिलती हैं कि शीघ्र ही हमारी बुद्धि को मोह में डालने वाला कोई उत्पात होने वाला है । प्यारे भीमसेन! मेरी बायीं, जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फड़क रही है। ह्रदय जोर से धड़क रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होने वाला है । देखो, यह सियारिन उदय होते ही सूर्य की ओर मुँह करके रो रही है। अरे! उसके मुँह से तो आग भी निकल रही है। यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है ।
भीमसेन! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं । यह मृत्यु का दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रात को अपने कर्ण-कठोर शब्दों से मेरे मन को कँपाते हुए विश्व को सूना कर देना चाहते हैं । दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ों के साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोर से गरजते हैं और जहाँ तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः चतुर्दश अध्यायः श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद)

शरीर को छेदने वली एवं धूलिवर्षा से अंधकार फैलाने वाली आँधी चलने लगी है। बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं । देखो! सूर्य की प्रभा मन्द पड़ गयी है। भूतों की धनी भीड़ में पृथ्वी और अन्तरिक्ष में आग-सी लगी हुई है । नदी, नद, तालाब और लोगों के मन क्षुब्ध हो रहे हैं। घी से आग नहीं जलती। यह भयंकर काल न जाने क्या करेगा । बछड़े दूध नहीं पीते, गौएँ दुहने नहीं देंतीं, गोशाला में गौएँ आँसू बहा-बहाकर रो रही है। बैल भी उदास हो रहे हैं । देवताओं की मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमें से पसीना चूने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं। भाई! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्द रहित हो गये हैं। पता नहीं ये हमारे किस दुःख की सूचना दे रहे हैं । इन बड़े-बड़े उत्पातों को देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवान के उन चरणकमलों से, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र अंकुशादी-विलक्षण चिन्ह और किसी में भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है ।
 शौनकजी! राजा युधिष्ठिर इन भयंकर उत्पातों को देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारका से लौटकर अर्जुन आये । युधिष्ठिर ने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे। मुँह लटका हुआ है, कमल-सरीखे नेत्रों से आँसू बह रहे हैं और शरीर में बिलकुल कान्ति नहीं है। उनको इस रूप में अपने चरणों में पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। देवर्षि नारद की बातें याद करके उन्होंने सुहृदों के सामने ही अर्जुन से पूछा।

युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘भाई! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज, दशार्द, आर्ह, सात्वत, अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशल से तो हैं ? हमारे माननीय नाना शूरसेनजी प्रसन्न है ? अपने छोटे भाई सहित मामा वसुदेवजी तो कुशल पूर्वक हैं ? उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिने अपने पुत्रों और बहुओं के साथ आनन्द से तो हैं ? जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवक के साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवों के प्रभु बलरामजी तो आनन्द से हैं ? वृष्णिवंश के सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्दुम्न सुख से तो हैं ? युद्ध में बड़ी फुर्ती दिखलाने वाले भगवान अनिरुद्ध आनन्द से हैं न ? सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रों के सहित ऋषभ आदि भगवान श्रीकृष्ण के अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न ? भगवान श्रीकृष्ण के सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के बाहुबल से सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल हैं न ? हमसे अत्यन्त प्रेम करने वाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मंगल भी पूछते हैं ? भक्तवत्सल ब्राम्हणभक्त भगवान श्रीकृष्ण अपने स्वजनों के साथ द्वारका की सुधर्मा सभा में सुख पूर्वक विराजते हैं न ?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः चतुर्दश अध्यायः श्लोक 35-44 का हिन्दी अनुवाद)

वे आदिपुरुष बलरामजी के साथ संसार के परम मंगल, परम कल्याण और उन्नति के लिये यदुवंश रूप क्षीरसागर में विराजमान हैं। उन्हीं के बाहुबल से सुरक्षित द्वारकापुरी में यदुवंशी लोग सारे संसार के द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्द से विष्णु भगवान के पार्षदों के समान विहार कर रहे हैं । सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूप से उनके चरणकमलों की सेवा में ही रत रहकर उनके द्वारा युद्ध में इन्द्रादि देवताओं को भी हराकर इन्द्राणी के भोग योग्य तथा उन्हीं की अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओं का उपभोग करती हैं । यदुवंशी वीर श्रीकृष्ण के बाहुदण्ड के प्रभाव से सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओं के बैठने योग्य सुधर्मा सभा को अपने चरणों से आक्रान्त करते हैं ।

भाई अर्जुन! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशल से हो न ? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनों तक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मान में तो किसी प्रकार की कमी नहीं हुई ? किसी ने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? कहीं किसी ने दुर्भावपूर्ण अमंगल शब्द आदि के द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशा से तुम्हारे पास आये हुए याचकों को उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओर से कुछ देने की प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके ? तुम सदा शरणागतों की रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राम्हण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणी का, जो तुम्हारी शरण में आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? कहीं तुमने अगम्या स्त्री से समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करने योग्य स्त्री के साथ असत्कार पूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्ग में अपने से छोटे अथवा बराबरी वालों से हार तो नहीं गये ? अथवा भोजन कराने योग्य बालक और बूढ़ों को छोड़कर तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो । हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्न ह्रदय परम सुहृद भगवान श्रीकृष्ण से तुम रहित हो गये हो। इसी से अपने को शून्य मान रहे हो। इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【पञ्चदश अध्याय:】

                            
(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"कृष्ण विरह व्यथित पाण्डवों का परीक्षित् को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना"
सूतजी कहते हैं ;- भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरह से कृश हो रहे थे, उस पर राजा युधिष्ठिर ने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषय में कई प्रकार की आशंकाएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी । शोक से अर्जुन का मुख और हृदय-कमल सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाई के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सके । श्रीकृष्ण की आँखों से ओझल हो जाने के कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठा के परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदि के समय भगवान ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेम से भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी; बड़े कष्ट से उन्होंने अपने शोक का वेग रोका, हाथ से नेत्रों के आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गले से अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिर से कहा।
अर्जुन बोले ;- महाराज! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्र का रूप धारणकर श्रीकृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रम से बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्य में डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया । जैसे यह शरीर प्राण से रहित होने पर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षण भर के वियोग से यह संसार अप्रिय दीखने लगता है । उनके आश्रय से द्रौपदी-स्वयंवर में राजा द्रुपद के घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओं का तेज मैंने हरण कर लिया, धनुष पर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदी को प्राप्त किया था । उनकी सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओं के साथ इन्द्र को अपने बल से जीतकर अग्निदेव को उनकी तृप्ति के लिये खाण्डव वन का दान कर दिया और मयदानव की निर्माण की हुई, अलौकिक कला कौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटे समर्पित कीं ।
 दस हजार हाथियों की शक्ति और बल से सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की शक्ति से राजाओं के सिर पर पैर रखने वाले अभिमानी जरासन्ध का वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान ने उन बहुत-से राजाओं को मुक्त किया, जिनको जरासन्ध ने महाभैरव-यज्ञ बलि चढ़ाने के लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओं ने आपके यज्ञ में अनेकों प्रकार के उपहार दिये थे । महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञ के महान् अभिषेक से पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशों को, जिन्हें दुष्टों ने भरी सभा में छूने का साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखों में आँसू भरकर जब श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा करके उन धूर्तों की स्त्रियों की ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े । वनवास के समय हमारे वैरी दुर्योधन के षड्यन्त्र से दस हजार शिष्यों को साथ बिठाकर भोजन करने वाले महर्षि दुर्वासा ने हमें दुस्तर संकट में डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदी के पात्र में बची हुई शाक की एक पत्ती का ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदी में स्नान करती हुई मुनि मण्डली को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 12-20 का हिन्दी अनुवाद)

उनके प्रताप से मैंने युद्ध में पार्वती सहित भगवान शंकर को आश्चर्य में डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया; साथ ही दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपा से मैं इसी शरीर से स्वर्ग में गया और देवराज इन्द्र की सभा में उनके बराबर आधे आसन पर बैठने का सम्मान मैंने प्राप्त किया । उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनों तक रह गया, तब इन्द्र के साथ समस्त देवताओं ने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करने वाली भुजाओं का निवातकवच आदि दैत्यों को मारने के लिये आश्रय लिया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपा का फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आज ठग लिया ? महाराज! कौरवों की सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्यों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी, परन्तु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हीं की सहायता से, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट का सारा गोधन तो वापस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अंगों के अलंकार तक छीन लिये थे ।

  भाईजी! कौरवों की सेना, भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथों से शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टि से ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बल को छीन लिया करते थे । द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों ने मुझ पर अपने कभी न चूकने वाले अस्त्र चलाये थे; परन्तु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों के अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लाद का सपर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू तक नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहने का ही प्रभाव था ।
श्रेष्ठ पुरुष संसार से मुक्त होने के लिये जिनके चरणकमलों का सेवन करते हैं, अपने-आप तक को दे डालने वाले उन भगवान को मुझ दुर्बुद्धि ने सारथि तक बना डाला। अहा! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथ से उतरकर पृथ्वी पर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझ पर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी । महाराज! माधव के उन्मुक्त और मधुर मुसकान से युक्त, विनोदभरे एवं ह्रदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे ‘पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन’ आदि कहकर पुकारना, मुझे याद आने पर मेरे ह्रदय में उथल-पुथल मचा देते हैं । सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करने में हम प्रायः एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्य से उन्हें कह बैठता, ‘मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो!’ उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावता के कारण, जैसे मित्र अपने मित्र का और पिता अपने पुत्र का अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धि के अपराधों को सह लिया करते थे। महाराज! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र—नहीं-नहीं मेरे ह्रदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान की पत्नियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका ।

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 21-35 का हिन्दी अनुवाद

वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्ण के बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सार शून्य हो गये—ठीक उसी तरह, जैसे भस्म में डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ।
राजन्! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद-सम्बन्धियों की बात पूछी है, वे ब्राम्हणों के शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारूणी मदिरा के पान से मदोन्मत्त होकर परिचितों की भाँति आपस में ही एक-दूसरे से भिड़ गये और घूँसों से मार-पीट करके सब-के-सब नष्ट हो गये। उनमे से केवल चार-पाँच ही बचे हैं । वास्तव में यह सर्वशक्तिमान् भगवान की ही लीला है कि संसार के प्राणी परस्पर एक-दूसरे का पालन-पोषण भी करते हैं और एक-दूसरे को मार डालते हैं । राजन्! जिस प्रकार जलचरों में बड़े जन्तु छोटों को, बलवान् दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियों के द्वारा भगवान ने दूसरे राजाओं का संहार कराया। तत्पश्चात् यदुवंशियों के द्वारा ही एक से दूसरे यदुवंशी का नाश करा के पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया । भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा ह्रदय के ताप को शान्त करने वाली थीं; स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती हैं ।
सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करते-करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी । उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेग ने उनके ह्रदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया । उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुनः स्मरण हो आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ।
 ब्रम्हज्ञान की प्राप्ति से माया का आवरण भंग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैत का संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्म शरीर भंग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्यु के चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये । भगवान के स्वधामगमन और यदुवंश के संहार का वृतान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया । कुन्ती ने भी अर्जुन के मुख से यदुवंशियों के नाश और भगवान के स्वधामगमन की बात सुनकर अनन्य भक्ति से अपने ह्रदय को भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया और सदा के लिये इस जन्म-मृत्यु रूप संसार से अपना मुँह मोड़ लिया ।
भगवान श्रीकृष्ण ने लोकदृष्टि में जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटें से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान थे । जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं, वैसे ही उन्होंने जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 36-51 का हिन्दी अनुवाद)

जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करने योग्य हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण ने जब अपने मनुष्य के-से शरीर से इस पृथ्वी का परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगों को अधर्म में फँसाने वाला कलियुग आ धमका ।
 महाराज युधिष्ठिर से कलियुग का फैलाना छिपा न रहा। उन्होंने देखा—देश में, नगर में, घरों में और प्राणियों में लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मों की बढ़ती हो गयी हैं। तब उन्होंने महाप्रस्थान का निश्चय किया । उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित् को, जो गुणों में उन्हीं के समान थे, समुद्र से घिरी हुई पृथ्वी के सम्राट् पद पर हस्तिनापुर में अभिषिक्त किया। उन्होंने मथुरा में शूरसेनाधिपति के रूप में अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके बाद समर्थ युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्नियों को अपने में लीन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रम के धर्म से मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया । युधिष्ठिर ने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकार से रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले । इस प्रकार शरीर को मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुण में मिला दिया, त्रिगुण को मूल प्रकृति में, सर्वकारणरूपा प्रकृति को आत्मा में और आत्मा को अविनाशी ब्रम्ह में विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपंच ब्रम्हस्वरुप है ।

 इसके पश्चात् उन्होंने शरीर पर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जल का त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूप को ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड़, उन्मत्त या पिशाच हो । फिर वे बिना किसी की बाट देखे तथा बहरे की तरह बिना किसी की बात सुने, घर से निकल पड़े। ह्रदय में उस परब्रम्ह का ध्यान करते हुए, जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशा की यात्रा की, जिस ओर पहले बड़ी-बड़ी महात्माजन जा चुके हैं । भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिर के छोटे भाइयों ने भी देखा कि अब पृथ्वी में सभी लोगों को अधर्म के सहायक कलियुग ने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्ण चरणों की प्राप्ति का दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाई के पीछे-पीछे चल पड़े । उन्होंने जीवन के सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें ह्रदय में धारण किया । पाण्डवों के ह्रदय में भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ध्यान से भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण के उस सर्वोत्त्कृष्ट स्वरुप में अनन्य भाव से स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलतः उन्होंने अपने विशुद्ध अन्तः’करण से स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्यों को कभी प्राप्त नहीं हो सकती । संयमी एवं श्रीकृष्ण के प्रेमोवेश में मुग्ध भगवन्मय विदुरजी ने भी अपने शरीर क प्रभासक्षेत्र में त्याग दिया। उस समय उन्हें लेने के लिये आये हुए पितरों के साथ वे अपने लोक (यमलोक)—को चले गये । द्रौपदी ने देखा कि अब पाण्डव लोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्य प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं । भगवान के प्यारे भक्त पाण्डवों के महाप्रयाण की इस परम पवित्र और मंगलमयी कथा को जो पुरुष श्रद्धा से सुनता है, वह निश्चय ही भगवान की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें