सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fourth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fourth wing) ]



                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【षष्ठ अध्याय:】६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रह्मादि देवताओं का कैलास जाकर श्रीमहादेव जी को मनाना"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार जब रुद्र के सेवकों ने समस्त देवताओं को हरा दिया और उनके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग भूत-प्रेतों के त्रिशूल, पट्टिश, खड्ग, गदा, परिघ और मुद्गर आदि आयुधों से छिन्न-भिन्न हो गये, तब वे ऋत्विज् और सदस्यों के सहित बहुत ही डरकर ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और प्रणाम करके उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया। भगवान् ब्रह्मा जी और सर्वान्तर्यामी श्रीनारायण पहले से ही इस भावी उत्पात को जानते थे, इसी से वे दक्ष के यज्ञ में नहीं गये थे। अब देवताओं के मुख से वहाँ की सारी बात सुनकर उन्होंने कहा, ‘देवताओं! परम समर्थ तेजस्वी पुरुष से कोई दोष भी बन जाये तो भी उसके बदले में अपराध करने वाले मनुष्यों का भला नहीं हो सकता। फिर तुम लोगों ने तो यज्ञ में भगवान् शंकर का प्राप्य भाग ने देकर उनका बड़ा भारी अपराध किया है। परन्तु शंकर जी बहुत शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं, इसलिये तुम लोग शुद्ध हृदय से उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न करो-उनसे क्षमा माँगो। दक्ष के दुर्वचनरूपी बाणों से उनका हृदय तो पहले से ही बिंध रहा था, उस पर उनकी प्रिया सती जी का वियोग हो गया। इसलिये यदि तुम लोग चाहते हो कि वह यज्ञ फिर से आरम्भ होकर पूर्ण हो, तो पहले जल्दी जाकर उनसे अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगो। नहीं तो उनके कुपित होने पर लोकपालों के सहित इन समस्त लोकों का भी बचना असम्भव है। भगवान् रुद्र परम स्वतन्त्र हैं, उनके तत्त्व और शक्ति-सामर्थ्य को न तो कोई ऋषि-मुनि, देवता और यज्ञ-स्वरूप देवराज इन्द्र ही जानते हैं और न स्वयं मैं ही जानता हूँ; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। ऐसी अवस्था में उन्हें शान्त करने का उपाय कौन कर सकता है।

देवताओं से इस प्रकार कहकर ब्रह्मा जी उनको, प्रजापतियों को और पितरों को साथ ले अपने लोक से पर्वतश्रेष्ठ कैलास को गये, जो भगवान् शंकर का प्रिय धाम है। उस कैलास पर ओषधि, तप, मन्त्र तथा योग आदि उपायों से सिद्धि को प्राप्त हुए और जन्म से ही सिद्ध देवता नित्य निवास करते हैं; किन्नर, गन्धर्व और अप्सरादि सदा वहाँ बने रहते हैं। उसके मणिमय शिखर हैं, जो नाना प्रकार की धातुओं से रंग-बिरंगे प्रतीत होते हैं। उस पर अनेक प्रकार के वृक्ष, लता और गुल्मादि छाये हुए हैं, जिनमें झुंड-के-झुंड जंगली पशु विचरते रहते हैं। वहाँ निर्मल जल के अनेकों झरने बहते हैं और बहुत-सी गहरी कन्दरा और ऊँचे शिखरों के कारण वह पर्वत अपने प्रियतमों के साथ विहार करती हुई सिद्धपत्नियों का क्रीड़ा-स्थल बना हुआ है। वह सब ओर मोरों के शोर, मदान्ध भ्रमरों के गुंजार, कोयलों की कुहू-कुहू ध्वनि तथा अन्यान्य पक्षियों के कलरव से गूँज रहा है। उसके कल्पवृक्ष अपनी ऊँची-ऊँची डालियों को हिला-हिलाकर मानो पक्षियों को बुलाते रहते हैं। तथा हाथियों के चलने-फिरने के कारण वह कैलास स्वयं चलता हुआ-सा और झरनों की कलकल-ध्वनि से बातचीत करता हुआ-सा जान पड़ता है। मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, शाल, ताड़, कचनार, असन और अर्जुन के वृक्षों से वह पर्वत बड़ा ही सुहावना जान पड़ता है। आम, कदम्ब, नीप, नाग, पुन्नाग, चम्पा, गुलाब, अशोक, मौलसिरी, कुन्द, कुरबक, सुनहरे शतपत्र कमल, इलायची और मालती की मनोहर लताएँ तथा कुब्जक, मोगरा और माधवी की बेलें भी उसकी शोभा बढाती हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)

कटहल, गूलर, पीपल, बड़, गूगल, भोजवृक्ष, ओषध जाति के पेड़ (केले आदि, जो फल आने के बाद काट दिये जाते हैं), सुपारी, राजपूग, जामुन, खजूर, आमड़ा, आम, पियाल, महुआ और लिसौड़ा आदि विभिन्न प्रकार के वृक्षों तथा पोले और ठोस बाँस के झुरमुटों से वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता है। उसके सरोवरों में कुमुद, उत्पल, कल्हार और शतपत्र आदि अनेक जाति के कमल खिले रहते हैं। उनकी शोभा से मुग्ध होकर कलरव करते हुए झुंड-के-झुंड पक्षियों से वह बड़ा ही भला लगता है। वहाँ जहाँ-तहाँ हरिन, वानर, सूअर, सिंह, रीछ, साही, नीलगाय, शरभ, बाघ, कृष्णमृग, भैंसे, कर्णान्त्र, एकपद, अश्वमुख, भेड़िये और कस्तूरी-मृग घूमते रहते हैं तथा वहाँ के सरोवरों के तट केलों की पंक्तियों से घिरे होने के कारण बड़ी शोभा पाते हैं। उसके चारों ओर नन्दा नाम की नदी बहती है, जिसका पवित्र जल देवी सती के स्नान करने से और भी पवित्र एवं सुगन्धित हो गया है।

भगवान् भूतनाथ के निवास स्थान उस कैलास पर्वत की ऐसी रमणीयता देखकर देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। वहाँ उन्होंने अलका नाम की एक सुरम्य पुरी और सौगान्धिक वन देखा, जिसमें सर्वत्र सुगन्ध फैलाने वाले सौगन्धिक नाम के कमल खिले हुए थे। उस नगर के बाहर की ओर नन्दा और अलकनन्दा नाम की दो नदियाँ हैं; वे तीर्थपाद श्रीहरि की चरण-रज के संयोग से अत्यन्त पवित्र हो गयी हैं। विदुर जी! उन नदियों में रतिविलास से थकी हुई देवांगनाएँ अपने-अपने निवास स्थान से आकर जलक्रीड़ा करती हैं और उसमें प्रवेश कर अपने प्रियतमों पर जल उलीचती हैं। स्नान के समय उनका तुरंत का लगाया हुआ कुचकुंकुम धुल जाने से जल पीला हो जाता है। उस कुंकुममिश्रित जल को हाथी प्यास न होने पर भी गन्ध के लोभ से स्वयं पीते और अपनी हथिनियों को पिलाते हैं।

अलकापुरी पर चाँदी, सोने और बहुमूल्य मणियों के सैकड़ों विमान छाये हुए थे, जिनमें अनेकों यक्षपत्नियाँ निवास करती थीं। इनके कारण वह विशाल नगरी बिजली और बादलों से छाये हुए आकाश के समान जान पड़ती थी। यक्षराज कुबेर की राजधानी उस अलकापुरी को पीछे छोड़कर देवगण सौगन्धिक वन में आये। वह वन रंग-बिरंगे फल, फूल और पत्तों वाले अनेकों कल्पवृक्षों से सुशोभित था। उसमें कोकिल आदि पक्षियों का कलरव और भौरों का गुंजार हो रहा था तथा राजहंसों के परमप्रिय कमलकुसुमों से सुशोभित अनेकों सरोवरों थे। वह वन जंगली हाथियों के शरीर की रगड़ लगने से घिसे हुए हरिचन्दन वृक्षों का स्पर्श करके चलने वाली सुगन्धित वायु के द्वारा यक्षपत्नियों के मन को विशेषरूप से मथे डालता था। बावलियों की सीढ़ियाँ वैदूर्य मणि की बनी हुई थीं। उसमें बहुत-से कमल खिले रहते थे। वहाँ अनेकों किम्पुरुष जी बहलाने के लिये आये हुए थे। इस प्रकार उस वन की शोभा निहारते जब देवगण कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें पास ही एक वट वृक्ष दिखलायी दिया। वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था तथा शाखाएँ पचहत्तर योजन तक फैली हुई थीं। उसके चारों ओर सर्वदा अविचल छाया बनी रहती थी, इसलिये घाम का कष्ट कभी नहीं होता था; तथा उसमे कोई घोंसला भी न था। उस महायोगमय और मुमुक्षों के आश्रयभूत वृक्ष के नीचे देवताओं ने भगवान् शंकर को विराजमान देखा। वे साक्षात् क्रोधहीन काल के समान जान पड़ते थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 34-45 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् भूतनाथ का श्रीअंग बड़ा ही शान्त था। सनन्दनादि शान्त सिद्धगण और सखा-यक्ष-राक्षसों के स्वामी कुबेर उनकी सेवा कर रहे थे। जगत्पति महादेव जी सारे संसार के सुहृद् हैं, स्नेहवश सबका कल्याण करने वाले हैं; वे लोकहित के लिये ही उपासना, चित्त की एकाग्रता और समाधि आदि साधकों का आचरण करते रहते हैं। सन्ध्याकालीन मेघ की-सी कान्ति वाले शरीर पर वे तपस्वियों के अभीष्ट चिह्न-भस्म, दण्ड, जटा और मृगचर्म एवं मस्तक पर चन्द्रकला धारण किये हुए थे। वे एक कुशासन पर बैठे थे और अनेकों साधु श्रोताओं के बीच में श्रीनारद जी के पूछने पर वे सनातन ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे। उनका बायाँ चरण दायीं जाँघ पर रखा था। वे बायाँ हाथ बायें घुटने पर रखे, कलाई में रुद्राक्ष की माला डाले तर्कमुद्रा से[1] विराजमान थे।

वे योगपट्ट (काठ की बनी हुई टेकनी) का सहारा लिये एकाग्रचित्त से ब्रह्मानन्द का अनुभव कर रहे थे। लोकपालों के सहित समस्त मुनियों ने मननशील में सर्वश्रेष्ठ भगवान् शंकर को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। यद्यपि समस्त देवता और दैत्यों के अधिपति भी श्रीमहादेव जी के चरणकमलों की वन्दना करते हैं, तथापि वे श्रीब्रह्मा जी को अपने स्थान पर आया देख तुरंत खड़े हो गये और जैसे वामनवातार में परमपूज्य विष्णु भगवान् कश्यप जी की वन्दना करते हैं, उसी प्रकार सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। इसी प्रकार शंकर जी के चारों ओर जो महर्षि सहित अन्यान्य सिद्धगण बैठे थे, उन्होंने भी ब्रह्मा जी को प्रणाम किया। सबके नमस्कार कर चुकने पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमौलि भगवान् से, जो अब तक प्रणाम की मुद्रा में ही खड़े थे, हँसते हुए कहा।

श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- देव! मैं जनता हूँ, आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं; क्योंकि विश्व की योनि शक्ति (प्रकृति) और उसके बीज शिव (पुरुष) से परे जो एकरस परब्रह्म है, वह आप ही हैं। भगवन्! आप मकड़ी के समान ही अपने स्वरूपभूत शिव-शक्ति के रूप में क्रीड़ा करते हुए लीला से ही संसार की रचना, पालन और संहार करते रहते हैं। आपने ही धर्म और अर्थ की प्राप्ति कराने वाले वेद की रक्षा के लिये दक्ष को निमित्त बनाकर यज्ञ को प्रकट किया है। आपकी ही बाँधी हुई ये वर्णाश्रम की मर्यादाएँ हैं, जिसका नियमनिष्ठ ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं।

मंगलमय महेश्वर! आप शुभ कर्म करने वालों को स्वर्गलोक अथवा मोक्षपद प्रदान करते हैं तथा पापकर्म करने वालों को घोर नरकों में डालते हैं। फिर भी किसी-किसी व्यक्ति के लिये इन कर्मों का फल उलटा कैसे हो जाता है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 46-53 का हिन्दी अनुवाद)

जो महानुभाव आपके चरणों में अपने को समर्पित कर देते हैं, जो समस्त प्राणियों में आपकी ही झाँकी करते हैं और समस्त जीवों को अभेद दृष्टि से आत्मा में ही देखते हैं, वे पशुओं के समान प्रायः क्रोध के अधीन नहीं होते। जो लोग भेदबुद्धि होने के कारण कर्मों में ही आसक्त हैं, जिनकी नीयत अच्छी नहीं है, दूसरों की उन्नति देखकर जिनका चित्त रात-दिन कुढ़ा करता है और जो मर्मभेदी अज्ञानी अपने दुर्वचनों से दूसरों का चित्त दु:खाया करते हैं, आप-जैसे महापुरुषों के लिये उन्हें भी मारना उचित नहीं हैं; क्योंकि वे बेचारे तो विधाता के ही मारे हुए हैं।

देवदेव! भगवान् कमलनाभ की प्रबल माया से मोहित हो जाने के कारण यदि किसी पुरुष की कभी किसी स्थान में भेदबुद्धि होती है, तो भी साधु पुरुष अपने परदुःखकातर स्वभाव के कारण उस पर कृपा ही करते हैं; दैववश जो कुछ हो जाता है, वे उसे रोकने का प्रयत्न नहीं करते।

प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, परम पुरुष भगवान् की दुस्तर माया ने आपकी बुद्धि का स्पर्श भी नहीं किया है। अतः जिनका चित्त उसके वशीभूत होकर कर्ममार्ग में आसक्त हो रहा है, उनके द्वारा अपराध बन जाये, तो भी उन पर आपको कृपा ही करनी चाहिये।

भगवन्! आप सबके मूल हैं। आप ही सम्पूर्ण यज्ञों को पूर्ण करने वाले हैं। यज्ञभाग पाने का भी आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्षयज्ञ के बुद्धिहीन याजकों ने आपको यज्ञभाग नहीं दिया। इसी से यह आपके द्वारा विध्वंस हुआ। अब आप इस अपूर्ण यज्ञ का पुनरुद्धार करने की कृपा करें। प्रभो! ऐसा कीजिये, जिससे यजमान दक्ष फिर जी उठे, भगदेवता को नेत्र मिल जायें, भृगु के दाढ़ी-मूँछ आ जायें और पूषा के पहले के ही समान दाँत निकल आयें। रुद्रदेव! अस्त्र-शस्त्र और पत्थरों की बौछार से जिन देवता और ऋत्विजों के अंग-प्रत्यंग घायल हो गये हैं, आपकी कृपा से वे फिर ठीक हो जायें। यज्ञ सम्पूर्ण होने पर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका भाग होगा। यज्ञविध्वंसक! आज यह यज्ञ आपके ही भाग से पूर्ण हो।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【सप्तम अध्याय:】७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"दक्ष यज्ञ की पूर्ति"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- महाबाहो! विदुर जी! ब्रह्मा जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा-सुनिये।

श्रीमहादेव जी ने कहा ;- ‘प्रजापते! भगवान् की माया से मोहित हुए दक्ष जैसे नासमझों के अपराध की न तो मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही। मैंने तो केवल सावधान करने के लिये ही उन्हें थोड़ा-सा दण्ड दे दिया। दक्ष प्रजापति का सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरे का सिर लगा दिया जाये; भगदेव मित्रदेवता के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें। पूषा पिसा हुआ अन्न खाने वाले हैं, वे उसे यजमान के दाँतों से भक्षण करें तथा अन्य सब देवताओं के अंग-प्रत्यंग भी स्वस्थ हो जायें; क्योंकि उन्होंने यज्ञ से बचे हुए पदार्थों को मेरा भाग निश्चित किया है। अध्वर्यु आदि याज्ञिकों में से जिसकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमार की भुजाओं से और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषा के हाथों से काम करें तथा भृगु जी के बकरे की-सी दाढ़ी-मूँछ हो जाये’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- वत्स विदुर! तब भगवान् शंकर के वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न चित्त से ‘धन्य! धन्य!’ कहने लगे। फिर सभी देवता और ऋषियों ने महादेव जी से दक्ष की यज्ञशाला में पधारने की प्रार्थना की और तब वे उन्हें तथा ब्रह्मा जी को साथ लेकर वहाँ गये। वहाँ जैसा-जैसा भगवान् शंकर ने कहा था, उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्ष की धड़ से यज्ञपशु का सिर जोड़ दिया। सिर जुड़ जाने पर रुद्रदेव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान् शिव को देखा। दक्ष का शंकरद्रोही की कालिमा से कलुषित हृदय उनका दर्शन करने से शरत्कालीन सरोवर के समान स्वच्छ हो गया। उन्होंने महादेव जी की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी हुई बेटी सती का स्मरण हो आने से स्नेह और उत्कण्ठा के कारण उनके नेत्रों में आँसू भर आये। उनके मुख से शब्द न निकल सका। प्रेम से विह्वल, परम बुद्धिमान् प्रजापति ने जैसे-तैसे अपने हृदय के आवेग को रोककर विशुद्धभाव से भगवान् शिव की स्तुति करनी आरम्भ की।

दक्ष ने कहा ;- भगवन्! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके बदले में मुझे दण्ड के द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है। अहो! आप और श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्र के ब्राह्मणों की भी उपेक्षा नहीं करते-फिर हम-जैसे यज्ञ-यागादि करने वालों को क्यों भूलेंगे। विभो! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्व की रक्षा के लिये अपने मुख से विद्या, तप और व्रतादि के धारण करने वालों ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणों की सब विपत्तियों से रक्षा करते हैं। मैं आपके तत्त्व को नहीं जानता था, इसी से मैंने भरी सभा में आपको अपने वाग्बाणों से बेधा था। किन्तु आपने मेरे उस अपराध का कोई विचार नहीं किया। मैं तो आप-जैसे पूज्यतम महानुभावों का अपराध करने के कारण नरकादि नीच लोकों में गिरने वाला था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टि से मुझे उबार लिया। अब भी आपको प्रसन्न करने योग्य मुझमें कोई गुण नहीं हैं; बस, आप अपने ही उदारतापूर्वक बर्ताव से मुझ पर प्रसन्न हों।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- आशुतोष शंकर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्ष ने ब्रह्मा जी के कहने पर उपाध्याय, ऋत्विज् आदि की सहायता से यज्ञकार्य आरम्भ किया। तब ब्राह्मणों ने यज्ञ सम्पन्न करने के उद्देश्य से रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचों के संसर्गजनित दोष की शान्ति के लिये तीन पात्रों में विष्णु भगवान् के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नाम चरु का हवन किया। विदुर जी! उस हवि को हाथ में लेकर खड़े हुए अध्वर्यु के साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित्त से श्रीहरि का ध्यान किया, त्यों ही सहसा भगवान् वहाँ प्रकट हो गये।

‘बृहत्’ एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, गरुड़ जी के द्वारा समीप लाये हुए भगवान् ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अंगकान्ति से सब देवताओं का तेज हर लिया-उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी। उनका श्याम वर्ण था, कमर में सुवर्ण की करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे। सिर पर सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौंरों के समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलों से शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तों की रक्षा के लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओं में वे शंख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधों के कारण वे फूले हुए कनेर के वृक्ष के समान जान पड़ते थे। प्रभु के हृदय में श्रीवत्स का चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्ष से सारे संसार को आनन्दमग्न कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंस के समान सफ़ेद पंखे और चँवर डुला रहे थे। भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा के समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था।

भगवान् पधारे हैं - यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेव जी आदि देवेश्वरों सहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदि ने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया। उनके तेज से सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी, जिह्वा लड़खड़ाने लगी, वे सब-के-सब सकपका गये और मस्तक पर अंजलि बाँधकर भगवान् के सामने खड़े हो गये। यद्यपि भगवान् की महिमा तक ब्रह्मा आदि की मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तों पर कृपा करने के लिये दिव्यरूप में प्रकट हुए श्रीहरि की वे अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करने लगे। सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्र में पूजा की सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदों से घिरे हुए, प्रजापतियों के परमगुरु भगवान् यज्ञेश्वर के पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभाव से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते प्रभु के शरणापन्न हुए।

दक्ष ने कहा ;- भगवन्! अपने स्वरूप में आप बुद्धि की जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं से रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय हैं। आप माया का तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूप से विराजमान हैं; तथापि जब माया से ही जीवभाव को स्वीकार कर उसी माया में स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी-से दीखने लगते हैं।

ऋत्विजों ने कहा ;- उपाधिरहित प्रभो! भगवान् रुद्र के प्रधान अनुचर नन्दीश्वर के शाप के कारण हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्ड में ही फँसी हुई है, अतएव हम आपके तत्त्व को नहीं जानते। जिसके लिये ‘इस कर्म का यही देवता है’ ऐसी व्यवस्था की गयी है-उस धर्म प्रवृत्ति के प्रयोजक, वेदत्रयी से प्रतिपादित यज्ञ को ही हम आपका स्वरूप समझते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 28-36 का हिन्दी अनुवाद)

सदस्यों ने कहा ;- जीवों को आश्रय देने वाले प्रभो! जो अनेक प्रकार के क्लेशों के कारण अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयंकर सर्प ताक में बैठा हुआ है, द्वन्दरूप अनेकों गढ़े हैं, दुर्जनरूप जंगली जीवों का भय है तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है-ऐसे, विश्राम-स्थल से रहित संसार मार्ग में जो अज्ञाघननी जीव कामनाओं से पीड़ित होकर विषयरूप मृगतृष्णा जल के लिये ही देह-गेह का भारी बोझा सिर पर लिये जा रहे हैं, वे भला आपके चरणकमलों की शरण में कब आने लगे।

रुद्र ने कहा ;- वरदायक प्रभो! आपके उत्तम चरण इस संसार में सकाम पुरुषों को सम्पूर्ण पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाले हैं; और जिन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहने के कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आहार भ्रष्ट कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रह से मैं उनके कहने-सुनने का कोई विचार नहीं करता।

भृगु जी ने कहा ;- आपकी गहन माया से आत्मज्ञान लुप्त हो जाने के कारण जो अज्ञान-निद्रा में सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञान में उपयोगी आपके तत्त्व को अभी तक नहीं जान सके। ऐसे होने पर भी आप अपने शरणागत भक्तों के तो आत्मा और सुहृद् हैं; अतः आप मुझ पर प्रसन्न होइये।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- प्रभो! पृथक्-पृथक् पदार्थों जानने वाली इन्द्रियों के द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि आप ज्ञान शब्दादि विषय और श्रोत्रादि इन्द्रियों के अधिष्ठान हैं-ये सब आपमें अध्यस्त हैं। अतएव आप इस मायामय प्रपंच से सर्वथा अलग हैं।

इन्द्र ने कहा ;- अच्युत! आपका यह जगत् को प्रकाशित करने वाला रूप देवद्रोहियों का संहार करने वाली आठ भुजाओं से सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना प्रकार के आयुध धारण किये रहते हैं। यह रूप हमारे मन और नेत्रों को परम आनन्द देने वाला है।

याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा ;- भगवन्! ब्रह्मा जी ने आपके पूजन के लिये ही इस यज्ञ की रचना की थी; परन्तु दक्ष पर कुपित होने के कारण इसे भगवान् पशुपति ने अब नष्ट कर दिया है। यज्ञमूर्ते! श्मशानभूमि के समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञ को आप नील कमल की-सी कान्तिवाले अपने नेत्रों से निराहार पवित्र कीजिये।

ऋषियों ने कहा ;- भगवन्! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं। दूसरे लोग वैभव की भूख से जिन लक्ष्मी जी की उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवा में लगी रहती हैं; तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे निःस्पृह रहते हैं।

सिद्धों ने कहा ;- प्रभो! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकार के क्लेश रूप दावानल से दग्ध एवं अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथा रूप विशुद्ध अमृतमयी सरिता में घुसकर गोता लगाये बैठा है। वहाँ ब्रह्मानन्द में लीन-सा हो जाने के कारण उसे न तो संसाररूप दावानल का ही स्मरण है और न वह उस नदी से बाहर ही निकलता है।

यजमानपत्नी ने कहा ;- सर्वसमर्थ परमेश्वर! आपका स्वागत है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न होइये। लक्ष्मीपते! अपनी प्रिय लक्ष्मी जी के सहित आप हमारी रक्षा कीजिये। यज्ञेश्वर! जिस प्रकार सिर के बिना मनुष्य का धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अंगों से पूर्ण होने पर भी आपके बिना यज्ञ की शोभा नहीं होती।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद)

लोकपालों ने कहा ;- अनन्त परमात्मन्! आप समस्त अन्तःकरण के साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है। तो क्या मायिक पदार्थों को ग्रहण करने वाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियों से कभी आप प्रत्यक्ष हो सके हैं? वस्तुतः आप हैं तो पंचभूतों से पृथक्; फिर भी पांचभौतिक शरीरों के साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह आपकी माया ही है।

योगेश्वरों ने कहा ;- प्रभो! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्व के आत्मा आपमें और अपने में कोई भेद नहीं देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है। तथापि भक्तवत्सल! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्ति से आपकी सेवा करते हैं, उन पर भी आप कृपा कीजिये। जीवों के अदृष्टवश जिसके सत्त्वादि गुणों में बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी माया के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी स्वरूप-स्थिति से आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणों से सर्वथा दूर हैं। ऐसे आपको हमारा नमस्कार है।

ब्रह्मस्वरूप वेद ने कहा ;- आप ही धर्मादि की उत्पत्ति के लिये शुद्ध सत्त्व को स्वीकार करते हैं, साथ ही आप निर्गुण भी हैं। अतएव आपका तत्त्व न तो मैं जानता हूँ और न ब्रह्मादि कोई और ही जानते हैं; आपको नमस्कार है।

अग्निदेव ने कहा ;- भगवन्! आपके ही तेज से प्रज्वलित होकर मैं श्रेष्ठ यज्ञों में देवताओं के पास घृतमिश्रित हवि पहुँचाता हूँ। आप साक्षात् यज्ञपुरुष एवं यज्ञ की रक्षा करने वाले हैं। अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और पशु-सोम- ये पाँच प्रकार के यज्ञ आपके ही स्वरूप हैं तथा ‘आश्रावय’, अस्तु श्रौषट्’, ‘यजे’, ‘ये यजामहे’ और ‘वषट्’- इन पाँच प्रकार के यजुर्मन्त्रों से आपका ही पूजन होता है। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

देवताओ ने कहा ;- देव! आप आदिपुरुष हैं। पूर्वकल्प का अन्त होने पर अपने कार्यरूप इस प्रपंच को उदर में लीन कर आपने ही प्रलयकालीन जल के भीतर शेषनाग की उत्तम शय्या पर शयन किया था। आपके अध्यात्मिक स्वरूप का जनलोकादिवासी सिद्धगण भी अपने हृदय में चिन्तन करते हैं। अहो! वही आप आज हमारे नेत्रों के विषय होकर अपने भक्तों की रक्षा कर रहे हैं।

गन्धर्वों ने कहा ;- देव! मरीचि आदि ऋषि और ये ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्रादि देवतागण आपके अंश के भी अंश हैं। महत्तम! यह सम्पूर्ण विश्व आपके खेल की सामग्री है। नाथ! ऐसे आपको हम सर्वदा प्रणाम करते हैं।

विद्याधरों ने कहा ;- प्रभो! परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के साधनरूप इस मानवदेह को पाकर भी जीव आपकी माया से मोहित होकर इसमें मैं-मेरेपन का अभिमान कर लेता है। फिर वह दुर्बुद्धि अपने आत्मीयों से तिरस्कृत होने पर भी असत् विषयों की ही लालसा करता रहता है। किन्तु ऐसी अवस्था में भी जो आपके कथामृत का सेवन करता है, वह इस अन्तःकरण के मोह को सर्वथा त्याग देता है।

ब्राह्मणों ने कहा ;- भगवन्! आप ही यज्ञ हैं, आप ही हवि हैं, आप ही अग्नि हैं, स्वयं आप ही मन्त्र हैं; आप ही समिधा, कुशा और यज्ञपात्र हैं तथा आप ही सदस्य, ऋत्विज्, यजमान एवं उसकी धर्मपत्नी, देवता, अग्निहोत्र, स्वधा, सोमरस, घृत और पशु हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 46-61 का हिन्दी अनुवाद)

वेदमूर्ते! यज्ञ और उसका संकल्प दोनों आप ही हैं। पूर्वकाल में आप ही अति विशाल वराहरूप धारणकर रसातल में डूबी हुई पृथ्वी को लीला से ही अपनी दाढ़ों पर उठाकर इस प्रकार निकाल लाये थे, जैसे कोई गजराज कमलिनी को उठा लाये। उस समय आप धीरे-धीरे गरज रहे थे और योगिगण आपका यह अलौकिक पुरुषार्थ देखकर आपकी स्तुति करते जाते थे। यज्ञेश्वर! जब लोग आपके नाम का कीर्तन करते हैं, तब यज्ञ के सारे विघ्न नष्ट हो जाते हैं। हमारा यह यज्ञस्वरूप सत्कर्म नष्ट हो गया था, अतः हम आपके दर्शनों की इच्छा कर रहे थे। अब आप हम पर प्रसन्न होइये। आपको नमस्कार है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भैया विदुर! जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान हृषीकेश की स्तुति करने लगे, तब परम चतुर दक्ष ने रुद्र पार्षद वीरभद्र के ध्वंस किये हुए यज्ञ को फिर आरम्भ कर दिया। सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभी के भोगों के भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल-पुरोडाशरूप अपने भाग से और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्ष को सम्बोधन करके कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- जगत् का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयंप्रकाश और उपाधिशून्य हूँ।

विप्रवर! अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत् की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मों के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर- ये नाम धारण किये हैं। ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसी में अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवों को विभिन्न रूप से देखता है। जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अंगों में ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्र को मुझसे भिन्न नहीं देखता। ब्रह्मन्! हम- ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- तीनों स्वरूपतः एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीव रूप हैं; अतः जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवान् के इस प्रकार आज्ञा देने पर प्रजापतियों के नायक दक्ष ने उनका त्रिकपाल-यज्ञ के द्वारा पूजन करके फिर अंगभूत और प्रधान दोनों प्रकार के यज्ञों से अन्य सब देवताओं का अर्चन किया। फिर एकाग्रचित्त हो भगवान् शंकर का यज्ञशेषरूप उनके भाग से यजन किया तथा समाप्ति में किये जाने वाले उदवसान नामक कर्म से अन्य सोमपायी एवं दूसरे देवताओं का यजन कर यज्ञ का उपसंहार किया और अन्त में ऋत्वियों के सहित अवभृथ-स्नान किया। फिर जिन्हें अपने पुरुषार्थ से ही सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त थीं, उन दक्ष प्रजापति को ‘तुम्हारी सदा धर्म में बुद्धि रहे’ ऐसा आशीर्वाद देकर सब देवता स्वर्गलोक को चले गये।

विदुर जी! सुना है कि दक्षसुता सतीजी ने इस प्रकार अपना पूर्व शरीर त्याकर फिर हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से जन्म लिया था। जिस प्रकार प्रलयकाल में लीन हुई शक्ति सृष्टि के आरम्भ में फिर ईश्वर का ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार अनन्यपरायणा श्रीअम्बिका जी ने उस जन्म में भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान् शंकर को ही वरण किया। विदुर जी! दक्ष-यज्ञ का विध्वंस करने वाले भगवान् शिव का चरित्र मैंने बृहस्पति जी के शिष्य परम भागवत उद्धव जी के मुख से सुना था। कुरुनन्दन! श्रीमहादेव जी का यह पावन चरित्र यश और आयु को बढ़ाने वाला तथा पापपुंज को नष्ट करने वाला है। जो पुरुष भक्तिभाव से इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है, वह अपनी पापराशि का नाश कर देता है।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【अष्टम अध्याय:】८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"ध्रुव का वन-गमन"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- शत्रुसूदन विदुर जी! सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति- ब्रह्माजी के इन नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रों ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया (अतः उनके कोई सन्तान नहीं हुई)। अधर्म भी ब्रह्माजी का ही पुत्र था, उसकी पत्नी का नाम था मृषा। उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नाम की कन्या हुई। उन दोनों को निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी। दम्भ और माया से लोभ और निकृति (शठता) का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिंसा तथा उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुई। साधुशिरोमणे! फिर दुरुक्ति से कलि ने भय और मृत्यु को उत्पन्न किया तथा उन दोनों के संयोग से यातना और निरय (नरक) का जोड़ा उत्पन्न हुआ।

निष्पाप विदुर जी! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें प्रलय का कारणरूप यह अधर्म का वंश सुनाया। यह अधर्म का त्याग कराकर पुण्य-सम्पादन में हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मन की मलिनता दूर कर देता है। कुरुनन्दन! अब मैं श्रीहरि के अंश (ब्रह्माजी) के अंश से उत्पन्न हुए पवित्रकीर्ति महाराज स्वायम्भुव मनु के पुत्रों के वंश का वर्णन करता हूँ।

महारानी शतरूपा और उनके पति स्वयाम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद- ये पुत्र हुए। भगवान् वासुदेव की कला से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे। उत्तानपाद के सुनीति और सुरुचि नाम की दो पत्नियाँ थीं। उनमें सुरुचि राजा को अधिक प्रिय थी; सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रिय नहीं थी।

एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय ध्रुव ने भी गोद में बैठना चाहा, परन्तु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया। उस समय घमण्ड से भरी हुई सुरुचि ने अपनी सौत के पुत्र को महराज की गोद में आने का यत्न करते देख उनके सामने ही उससे डाह भरे शब्दों में कहा। ‘बच्चे! तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है। तू भी राजा का ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोख में नहीं धारण किया। तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है; तभी तो ऐसे दुर्लभ विषय की इच्छा कर रहा है। यदि तुझे राजसिंहासन की इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायण की आराधना कर और उनकी कृपा से मेरे गर्भ में आकर जन्म ले’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जिस प्रकार डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँ के कठोर वचनों से घायक होकर ध्रुव क्रोध के मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँह से एक शब्द भी नहीं बोले। तब पिता को छोड़कर ध्रुव रोता हुआ अपनी माता के पास आया। उसके दोनों होंठ फड़क रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीति ने बेटे को गोद में उठा लिया और जब महल के दूसरे लोगों से अपनी सौत सुरुचि की कही हुई बातें सुनी, तब उसे भी बड़ा दुःख हुआ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)

उसका धीरज टूट गया। वह दावानल से जली हुई बेल के समान शोक से सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी। सौत की बातें याद आने से उसके कमल-सरीखे नेत्रों ने आँसू भर आये। उस बेचारी को अपने दुःखपारावार का कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था। उसने गहरी साँस लेकर ध्रुव से कहा, ‘बेटा! तू दूसरों के लिये किसी प्रकार के अमंगल की कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। सुरुचि ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराज को मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करने में भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनी के गर्भ से ही जन्म लिया है और मेरे ही दूध से तू पला है।

बेटा! सुरुचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अतः यदि राजकुमार उत्तम के समान राजसिंहासन पर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर उसी का पालन कर। बस, श्रीअधोयक्षज भगवान् के चरणकमलों की आराधना में लग जा। संसार का पालन करने के लिये सत्त्वगुण को अंगीकार करने वाले उन श्रीहरि के चरणों की आराधना करने से ही तेरे परदादा श्रीब्रह्माजी को वह सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है, जो मन और प्राणों को जीतने वाले मुनियों के द्वारा भी वन्दनीय है। इसी प्रकार तेरे दादा स्वयंभुव मनु ने भी बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों के द्वारा अनन्यभाव से उन्हीं भगवान् की आराधना की थी; तभी उन्हें दूसरों के लिये अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुख की प्राप्ति हुई। ‘बेटा! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान् का ही आश्रय ले। जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने की इच्छा करने वाले मुमुक्ष लोग निरन्तर उन्हीं के चरणकमलों के मार्ग की खोज किया करते हैं। तू स्वधर्मपालन से पवित्र हुए अपने चित्त में श्रीपुरुषोत्तम भगवान् को बैठा ले तथा अन्य सबका चिन्तन छोड़कर केवल उन्हीं का भजन कर। बेटा! उन कमल-दल-लोचन श्रीहरि को छोड़कर मुझे तो तेरे दुःख को दूर करने वाला और कोई दिखायी नहीं देता। देख, जिन्हें प्रसन्न करने के लिये ब्रह्मा आदि अन्य सब देवता ढूँढ़ते रहते हैं, वे श्रीलक्ष्मी जी भी दीपक की भाँति हाथ में कमल किये निरन्तर उन्हीं श्रीहरि की खोज किया करती हैं’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- माता सुनीति ने जो वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का मार्ग दिखलाने वाले थे। अतः उन्हें सुनकर ध्रुव ने बुद्धि द्वारा अपने चित्त का समाधान किया। इसके बाद वे पिता के नगर से निकल पड़े। यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बात को जानकर नारद जी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुव के मस्तक पर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन-ही-मन विस्मित होकर कहा। ‘अहो! क्षत्रियों का कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान-भंग नहीं सह सकते। देखो, अभी तो यह नन्हा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदय में सौतेली माता के कटु वचन घर कर गये हैं’।

तत्पश्चात् नारद जी ने ध्रुव से कहा ;- बेटा! अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूद में ही मस्त रहता है; हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बात से तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 28-44 का हिन्दी अनुवाद)

यदि तुझे मानापमान का विचार ही हो, तो बेटा! असल में मनुष्य के असन्तोष का कारण मोह के सिवा और कुछ नहीं है। संसार में मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान या सुख-दुःख आदि को प्राप्त होता है। तात! भगवान् की गति बड़ी विचित्र है! इसलिये उस पर विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि दैववश उसे जैसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, उसी में सन्तुष्ट रहे। अब, माता के उपदेश से तू योग साधन द्वारा जिन भगवान् की कृपा प्राप्त करने चला है-मेरे विचार से साधारण पुरुषों के लिये उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है। योगी लोग अनेकों जन्मों तक अनासक्त रहकर समाधियोग के द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ करते रहते हैं, परन्तु भगवान् के मार्ग का पता नहीं पाते। इसलिये तू यह व्यर्थ का हठ छोड़ दे और घर लौट जा; बड़ा होने पर जब परमार्थ-साधन का समय आवे, तब उसके लिये प्रयत्न कर लेना। विधाता के विधान के अनुसार सुख-दुःख जो कुछ भी प्राप्त हो, उसी में चित्त की सन्तुष्ट रखना चाहिये। यों करने वाला पुरुष मोहमय संसार से पार हो जाता है। मनुष्य को चाहिये कि अपने से अधिक गुणवान् को देखकर प्रसन्न हो; जो कम गुणवाला हो, उस पर दया करे और जो अपने समान गुण वाला हो, उससे मित्रता का भाव रखे। यों करने से उसे दुःख कभी नहीं दबा सकते।

ध्रुव ने कहा ;- भगवन्! सुख-दुःख से जिनका चित्त चंचल हो जाता है, उन लोगों के लिये आपने कृपा करके शान्ति का यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया। परन्तु मुझ-जैसे अज्ञानियों की दृष्टि यहाँ तक नहीं पहुँच पाती। इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रिय स्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनय का प्रायः अभाव है; सुरुचि ने अपने कटुवचनरूपी बाणों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता। ब्रह्मन्! मैं उस पद पर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकी में सबसे श्रेष्ठ है तथा जिस पर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसी की प्राप्ति का कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये। आप भगवान् ब्रह्माजी के पुत्र हैं और संसार के कल्याण के लिये ही वीणा बजाते सूर्य की भाँति त्रिलोकी में विचरा करते हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- ध्रुव की बात सुनकर भगवान् नारद जी बड़े प्रसन्न हुए और उस पर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे।

श्रीनारद जी ने कहा ;- बेटा! तेरी माता सुनीति ने तुझे जो कुछ बताया है, वही तेरे लिये परम कल्याण का मार्ग है। भगवान् वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तू चित्त लगाकर उन्हीं का भजन कर। जिस पुरुष को अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है। बेटा! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुना जी के तटवर्ती परमपवित्र मधुवन को जा। वहाँ श्रीहरि का नित्य-निवास है। वह श्रीकालिन्दी के निर्मल जल में तीनों समय स्नान करके नित्यकर्म से निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिरभाव से बैठना। फिर रेचक, पूरक और कुम्भक- तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रिय के दोषों को दूरकर धैर्ययुक्त मन से परमगुरु श्रीभगवान् का इस प्रकार ध्यान करना।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 45-60 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्त को वर देने के लिये उद्यत हैं। उनकी नासिका, भौंहें और कपोल बड़े ही सुहावने हैं; वे सभी देवताओं में परम सुन्दर हैं। उनकी तरुण अवस्था है; सभी अंग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं। वे प्रणतजनों को आश्रय देने वाले, अपार सुखदायक, शरणागतवत्सल और दया के समुद्र हैं। उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न है; उनका शरीर सजल जलधर के समान श्यामवर्ण है; वे परमपुरुष श्यामसुन्दर गले में वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं। उनके अंग-प्रत्यंग किरीट, कुण्डल, केयूर और कंकणादि आभूषणों से विभूषित हैं; गला कौस्तुभ मणि की भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीर में रेशमी पीताम्बर है। उनके कटिप्रदेश में कांचन की करधनी और चरणों में सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं।

भगवान् का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग प्रभु का मानस-पूजन करते हैं, उनके अन्तःकरण में वे हृदयकमल की कर्णिका पर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दों को स्थापित करके विराजते हैं। इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाये, तब उन वरदायक प्रभु का मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान करे कि वह मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टि से निहारते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं। भगवान् की मंगलमयी मूर्ति का इस प्रकार निरन्तर ध्यान करने से मन शीघ्र ही परमानन्द में डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँ से लौटता नहीं।

राजकुमार! इस ध्यान के साथ जिस परम गुह्य मन्त्र का जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ-सुन। इसका सात रात जप करने से मनुष्य आकाश में विचरने वाले सिद्धों का दर्शन कर सकता है। वह मन्त्र हैं- ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’। किस देश और किस काल में कौन वस्तु उपयोगी है-इसका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को इस मन्त्र के द्वारा तरह-तरह की सामग्रियों से भगवान् की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये। प्रभु का पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली मूल और फलादि, पूजा में विहित दुर्वादि अंकुर, वन में ही प्राप्त होने वाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसी से करना चाहिये। यदि शिला आदि की मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदि में ही भगवान् की पूजा करे। सर्वदा संयमचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फल-मूलादि का परिमित आहार करे। इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया माया के द्वारा अपनी ही इच्छा से अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करने वाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे। प्रभु की पूजा के लिये जिन-जिन उपचारों का विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरि को द्वादशाक्षर मन्त्र के द्वारा ही अर्पण करे। इस प्रकार जब हृदयस्थित हरि का मन, वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्छलभाव से भलीभाँति भजन करने वाले अपने भक्तों के भाव को बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षरूप कल्याण प्रदान करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 61-73 का हिन्दी अनुवाद)

यदि उपासक को इन्द्रियसम्बन्धी भोगों से वैराग्य हो गया हो तो वह मोक्ष प्राप्ति के लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक अविच्छिन्नभाव से भगवान् का भजन करे।

श्रीनारद जी से इस प्रकार उपदेश पाकर राजकुमार ध्रुव ने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर उन्होंने भगवान् के चरणचिह्नों से अंकित परमपवित्र मधुवन की यात्रा की। ध्रुव के तपोवन की ओर चले जाने पर नारद जी महाराज उत्तानपाद के महल में पहुँचे। राजा ने उनकी यथायोग्य उपचारों से पूजा की; तब उन्होंने आराम से आसन पर बैठकर राजा से पूछा।

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! तुम्हारा मुख सूखा हुआ है, तुम बड़ी देर से किस सोच-विचार में पड़े हो? तुम्हारे धर्म, अर्थ और काम में से किसी में कोई कमी तो नहीं आ गयी?

राजा ने कहा ;- ब्रह्मन्! मैं बड़ा ही स्त्रैण और निर्दय हूँ। हाय, मैंने अपने पाँच वर्ष के नन्हे-से बच्चे को उसकी माता के साथ घर से निकाल दिया। मुनिवर! वह बड़ा ही बुद्धिमान् था। उसका कमल-सा मुख भूख से कुम्हला गया होगा, वह थककर कहीं रास्ते में पड़ गया होगा। ब्रह्मन्! उस असहाय बच्चे को वन में कहीं भेड़िये न खा जायें। अहो! मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ! मेरी कुटिलता तो देखिये- वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मुझ दुष्ट ने उसका तनिक भी आदर नहीं किया।

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! तुम अपने बालक की चिन्ता मत करो। उसके रक्षक भगवान् हैं। तुम्हें उसके प्रभाव का पता नहीं है, उसका यश सारे जगत् में फैल रहा है। वह बालक बड़ा समर्थ है। जिस काम को बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही तम्हारे पास लौट आयेगा। उसके कारण तुम्हारा यश भी बहुत बढ़ेगा।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- देवर्षि नारद जी की बात सुनकर महाराज उत्तानपाद राजपाट की ओर से उदासीन होकर निरन्तर पुत्र की ही चिन्ता में रहने लगे। इधर ध्रुव जी ने मधुवन में पहुँचकर यमुना जी में स्नान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारद जी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्त से परमपुरुष श्रीनारायण की उपासना आरम्भ कर दी। उन्होंने तीन-तीन रात्रि के अन्तर से शरीर निर्वाह के लिये केवल कैथ और बेर के फल खाकर श्रीहरि की उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया। दूसरे महीने में उन्होंने छः-छः दिन के पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर भगवान् का भजन किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 74-82 का हिन्दी अनुवाद)

तीसरा महीना नौ-नौ दिन पर केवल जल पीकर समाधियोग के द्वारा श्रीहरि की आराधना करते हुए बिताया। चौथे महींने में उन्होंने श्वास को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोग द्वारा भगवान् आराधना की।

पाँचवाँ मास लगने पर राजकुमार ध्रुव श्वास को जीतकर परब्रह्म का चिन्तन करते हुए एक पैर से खंभे के समान निश्चल भाव से खड़े हो गये। उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियों के नियामक अपने मन को सब ओर से खींच लिया तथा हृदयस्थित हरि के स्वरूप का चिन्तन करते हुए चित्त को किसी दूसरी ओर न जाने दिया। जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्त्वों के आधार तथा प्रकृति और पुरुष के भी अधीश्वर परब्रह्म की धारणा की, उस समय (उनके तेज को न सह सकने के कारण) तीनों लोक काँप उठे।

जब राजकुमार ध्रुव एक पैर से खड़े हुए, तब उनके अँगूठे से दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर नाव झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर पद-पद पर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है। ध्रुव जी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राणों को रोककर अनन्य बुद्धि से विश्वात्मा श्रीहरि का ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास रुक गया। इससे समस्त लोक और लोकपालों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरि की शरण में गये।

देवताओं ने कहा ;- भगवन्! समस्त स्थावर-जंगम जीवों के शरीरों का प्राण एक साथ ही रुक गया है, ऐसा तो हमने पहले कभी अनुभव नहीं किया। आप शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं, अपनी शरण में आये हुए हम लोगों को इस दुःख से छुड़ाइये।

श्रीभगवान् ने कहा ;- दवताओं! तुम डरो मत। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ विश्वात्मा में लीन कर दिया है, इस समय मेरे साथ उसकी अभेद धारणा सिद्ध हो गयी है, इसी से उसके प्राणनिरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है। अब तुम अपने-अपने लोकों को जाओ, मैं उस बालक को इस दुष्कर तप से निवृत्त कर दूँगा।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【नवम अध्याय:】९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"ध्रुव का वर पाकर घर लौटना"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! भगवान् के इस प्रकार आश्वासन देने से देवताओं का भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोक को चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़ पर चढ़कर अपने भक्त को देखने के लिये मधुवन में आये। उस समय ध्रुव जी तीव्र योगाभ्यास से एकाग्र हुई बुद्धि के द्वारा भगवान् की बिजली के समान देदीप्यमान जिस मूर्ति का अपने हृदयकमल में ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान् के उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देखा। प्रभु का दर्शन पाकर बालक ध्रुव को बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेम में अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रों से उन्हें पी जायेंगे, मुख से चूम लेंगे और भुजाओं में कस लेंगे। वे हाथ जोड़े प्रभु के सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मन की बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ दिया। ध्रुव जी भविष्य में अविचल पद प्राप्त करने वाले थे। इस समय शंख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्म के स्वरूप का भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभाव से धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरि की स्तुति करने लगे।

ध्रुव जी ने कहा ;- प्रभो! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं; आप ही मेरी अन्तःकरण में प्रवेशकर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ।

भगवन्! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति से इस महदादि सम्पूर्ण प्रपंच को रचकर अन्तर्यामीरूप से उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणों में उनके अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में स्थित होकर अनेक रूप भासते हैं- ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरह की लकड़ियों में प्रकट हुई आग अपनी उपाधियों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में भासती है।

नाथ! सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञान के प्रभाव से ही इस जगत् को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था। दीनबन्धो! उन्हीं आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है? प्रभो! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोगे जाने वाला, इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को नरक में भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुख के लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा देने वाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत-प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गयी है। नाथ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्म में भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें काल की तलवार काटे डालती है, उन स्वर्गीय विमानों से गिरने वाले पुरुषों को तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद)

अनन्त परमात्मन्! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है; उनके संग से मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुःखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा।

कमलनाभ प्रभो! जिनका चित्त आपके चरणकमल की सुगन्ध से लुभाया हुआ है, उन महानुभावों का जो लोग संग करते हैं- वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदि की सुधि भी नहीं करते।

अजन्मा परमेश्वर! मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगने वाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदि से परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणों से सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूप को ही जनता हूँ; इससे परे जो आपका परमस्वरूप है, जिसमें वाणी की गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है।

भगवन्! कल्प का अन्त होने पर योगनिद्रा में स्थित जो परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्व को अपने उदर में लीन करके शेषजी के साथ उन्हीं की गोद में शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्र से प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमल से परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

प्रभो! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टि से बुद्धि की सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणों के अधीश्वर हैं। आप जीव से सर्वथा भिन्न हैं तथा संसार की स्थति के लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूप से विराजमान हैं। आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियों वाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूप से निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ। भगवन्! आप परमानन्द मूर्ति हैं- जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभाव से आपका निरन्तर भजन करते रहते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है। स्वामिन्! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तों पर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहने के कारण हम-जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूर्ण करते उनकी संसार-भय से रक्षा करते रहते हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जब शुभ संकल्प वाले मतिमान् ध्रुव जी ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा ;- उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार! मैं तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पद का प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो।

भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागण ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढी के[1] चारों ओर दँवरी के बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहने वाले अन्य लोकों का नाश हो जाने पर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण के सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद)

यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वन को चले जायेंगे; तब तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करेगा। तेरी इन्द्रियों की शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायेगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेम में पागल होकर उसे वन में खोजती हुई दावानल में प्रवेश कर जायेगी। यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम-उत्तम भोग भोगकर अन्त में मेरा ही स्मरण करेगा। इससे तू अन्त में सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और सप्तर्षियों से भी ऊपर मेरे निजधाम को जायेगा, वहाँ पहुँच जाने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना होता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- बालक ध्रुव से इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदान कर भगवान् श्रीगरुड़ध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये। प्रभु की चरण सेवा से संकल्पित वस्तु प्राप्त हो जाने के कारण यद्यपि ध्रुव जी का संकल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगर लौट गये।

विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! मायापति श्रीहरि का परमपद तो अत्यत्न दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलों की उपासना से ही है। ध्रुव जी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्म में उस परमपद को पा लेने पर भी उन्होंने अपने को अकृतार्थ क्यों समझा?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- ध्रुव जी का हृदय अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसी से उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरि से मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूल के लिये पश्चाताप हुआ। ध्रुव जी मन-ही-मन कहने लगे- अहो! सनकादि उर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधि द्वारा अनेकों जन्मों में प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छाया को मैंने छः महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्त में दूसरी वासना रहने के कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया।

अहो! मुझ मन्दभाग्य की मुर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाश को काटने वाले प्रभु के पादपद्मों में पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तु की ही याचना की! देवताओं को स्वर्गभोग के पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थिति को सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्ट ने नारदजी की यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की। यद्यपि संसार में आत्मा के सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्न में अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादि से डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान् की माया से मोहित होकर भाई को ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोग से जलने लगा। जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरि को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायुपुरुष के लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धन का नाश करने वाले प्रभु से मैंने संसार ही माँगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 35-49 का हिन्दी अनुवाद)

मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ। जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट् को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलों की कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करने वाले श्रीहरि से मुर्खतावश व्यर्थ का अभिमान बढ़ाने वाले उच्चपदादि ही माँगे हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- तात! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्द के ही मधुकर हैं-जो निरन्तर प्रभु की चरण-रज का ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान् से उनकी सेवा के सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते।

इधर जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसी के यमलोक से लौटने की बात पर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ’। परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारद की बात याद आ गयी। इससे उनका इस बात में विश्वास हुआ। वे आनन्द के वेग से अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लाने वाले को एक बहुमूल्य हार दिया। राजा उत्तानपाद ने पुत्र का मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनों को साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ों वाले सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर वे झटपट नगर के बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शंख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों मांगलिक बाजे बजते जाते थे। उनकी दोनों रानियाँ- सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो राजकुमार उत्तम के साथ पालकियों पर चढ़कर चल रही थीं।

ध्रुव जी उपवन के पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथ से उतर पड़े। पुत्र को देखने के लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी-लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुव को भुजाओं में भर लिया। अब ये पहले के ध्रुव नहीं थे, प्रभु के परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होने से इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे। राजा उत्तानपाद की एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्र का सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेम के कारण निकलने वाले ठंडे-ठंडे[1] आँसुओं से उन्हें नहला दिया।

तदनन्तर सज्जनों में अग्रगण्य ध्रुव जी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्नादि से सम्मानित हो दोनों माताओं को प्रणाम किया। छोटी माता सुरुचि ने अपने चरणों पर झुके हुए बालक ध्रुव को उठाकर हृदय से लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणी से ‘चिरंजीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया। जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचे की ओर बहने लगता है-उसी प्रकार मैत्री आदि गुणों के कारण जिस पर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं।

इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेम से विह्वल होकर मिले। एक-दूसरे के अंगों का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमांच हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओं की धारा बहने लगी। ध्रुव की माता सुनीति अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र को गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अंगों के स्पर्श से उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 50-67 का हिन्दी अनुवाद)

वीरवर विदुर जी! वीरमाता सुनीति के स्तन उसके नेत्रों से झरते हुए मंगलमय आनन्दाश्रुओं से भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा। उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानी! आपका लाल बहुत दिनों से खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करने वाला है। बहुत दिनों तक भूमण्डल की रक्षा करेगा। आपने अवश्य ही शरणागत भयभंजन श्रीहरि की उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करने वाले धीरपुरुष परमदुर्जय मृत्यु को भी जीत लेते हैं’।

विदुर जी! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुव के प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तम के सहित हथिनी पर चढ़ाकर महाराज उत्तानपाद ने बड़े हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्य की बड़ाई कर रहे थे। नगर में जहाँ-तहाँ मगर के आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलों के गुच्छों के सहित केले के खम्भे और सुपारी के पौधे सजाये गये थे। द्वार-द्वार पर दीपक के सहित जल के कलश रखे हुए थे-जो आम के पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोती की लकड़ियों से सुसज्जित थे। जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलों से नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्ण की सामग्रियों से सजाया गया था तथा उनके कँगूरे विमानों के शिखरों के समान चमक रहे थे। नगर के चौक, गलियों, अटारियों और सडकों को झाड़-बुहारकर उन पर चन्दन का छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य मांगलिक उपहार-सामग्रियाँ सजी रखी थीं।

ध्रुव जी राजमार्ग से जा रहे थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगर की शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखने को एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभाव से अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उन पर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलों की वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुव जी ने अपने पिता के महल में प्रवेश किया। वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियों से सुसज्जित था। उसमें अपने पिताजी के लाड़-प्यार सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्ग में देवता लोग रहते हैं। वहाँ दूध के फेन के समान सफेद और कोमल शय्याएँ, हाथी-दाँत के पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोने का सामान था। उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारों में रत्नों की बनी हुई स्त्रीमूर्तियों पर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे। उस महल के चारों ओर अनेक जाति के दिव्य वृक्षों से सुशोभित उद्यान थे, जिसमें नर और मादा पक्षियों का कलरव तथा मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था। उन बगीचों में वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियों से सुशोभित बावलियाँ थीं-जिनमें लाल, नीले और सफेद रंग के कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीड़ा करते रहते थे।

राजर्षि उत्तानपाद ने अपने पुत्र के अति अद्भुत प्रभाव की बात देवर्षि नारद से पहले ही सुन रखी थी; अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं तथा प्रजा का भी उन पर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डल के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए संसार से विरक्त होकर वन को चल दिये।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【दशम अध्याय:】१०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"उत्तम का मारा जाना, ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए।

महाबली ध्रुव की दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नाम के पुत्र और एक कन्यारत्न का जन्म हुआ। उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वत पर एक बलवान् यक्ष ने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी। ध्रुव ने जब भाई के मारे जाने का समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेग से भरकर एक विजयप्रद रथ पर सवार हो यक्षों के देश में जा पहुँचे। उन्होंने उत्तर दिशा में जाकर हिमालय की घाटी में यक्षों से भरी हुई अलकापुरी देखी, उसमें अनेकों भूत-प्रेत-पिशाचादि रुद्रानुचर रहते थे।

विदुर जी! वहाँ पहुँचकर महाबाहु ध्रुव ने अपना शंख बजाया तथा सम्पूर्ण आकाश और दिशाओं को गुँजा दिया। उस शंखध्वनि से यक्ष-पत्नियाँ बहुत ही डर गयीं, उनकी आँखें भय से कातर हो उठीं।

वीरवर विदुर जी! महाबलवान् यक्षवीरों को वह शंखनाद सहन न हुआ। इसलिये वे तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लेकर नगर के बाहर निकल आये और ध्रुव पर टूट पड़े। महारथी ध्रुव प्रचण्ड धनुर्धर थे। उन्होंने एक ही साथ उनमें से प्रत्येक को तीन-तीन बाण मारे। उन सभी ने जब अपने-अपने मस्तकों में तीन-तीन बाण लगे देखे, तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारी हार अवश्य होगी। वे ध्रुव जी के इस अद्भुत पराक्रम की प्रशंसा करने लगे। फिर जैसे सर्प किसी के पैरों का आघात नहीं सहते, उसी प्रकार ध्रुव के इस पराक्रम को न सहकर उन्होंने भी उनके बाणों के जवाब में एक ही साथ उनसे दूने- छः-छः बाण छोड़े। यक्षों की संख्या तेरह अच्युत (1,30,000) थी। उन्होंने ध्रुव जी का बदला लेने के लिये अत्यन्त कुपित होकर रथ और सारथी के सहित उन पर परिघ, खड्ग, प्रास, त्रिशूल, फरसा, शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डी तथा चित्र-विचित्र पंखदार बाणों की वर्षा की।

इस भीषण शस्त्रवर्षा से ध्रुव जी बिलकुल ढक गये। तब लोगों को उनका दीखना वैसे ही बंद हो गया, जैसे भारी वर्षा से पर्वत का। उस समय जो सिद्धगण आकाश में स्थित होकर यह दृश्य देख रहे थे, वे सब हाय-हाय करके कहने लगे- ‘आज यक्ष सेनारूप समुद्र में डूबकर यह मानव-सूर्य अस्त हो गया’। यक्ष लोग अपनी विजय की घोषणा करते हुए युद्ध क्षेत्र में सिंह की तरह गरजने लगे। इसी बीच में ध्रुव जी का रथ एकाएक वैसे ही प्रकट हो गया, जैसे कुहरे में से सूर्य भगवान् निकल आते हैं। ध्रुव जी ने अपने दिव्य धनुष की टंकार करके शत्रुओं के दिल दहला दिये और फिर प्रचण्ड बाणों की वर्षा करके उनके अस्त्र-शस्त्रों को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

उनके धनुष से छूटे हुए तीखे तीर यक्ष-राक्षसों के कवचों को भेदकर इस प्रकार उनके शरीरों में घुस गये, जैसे इन्द्र के छोड़े हुए वज्र पर्वतों में प्रवेश कर गये थे।

विदुर जी! महाराज ध्रुव के बाणों से कटे हुए यक्षों के सुन्दर कुण्डलमण्डित मस्तकों से, सुनहरी तालवृक्ष के समान जाँघों से, वलयविभूषित बाहुओं से, हार, भुजबन्ध, मुकुट और बहुमूल्य पगड़ियों से पटी हुई वह वीरों के मन को लुभाने वाली समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे क्षत्रियप्रवर ध्रुव जी के बाणों से प्रायः अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण युद्धक्रीड़ा में सिंह से परास्त हुए गजराज के समान मैदान छोड़कर भाग गये।

नरश्रेष्ठ ध्रुव जी ने देखा कि उस विस्तृत रणभूमि में अब एक भी शत्रु अस्त्र-शस्त्र लिये उनके सामने नहीं है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखने की हुई; किन्तु वे पुरी के भीतर नहीं गये। ‘ये मायावी क्या करना चाहते हैं, इस बात का मनुष्य को पता नहीं लग सकता’। सारथि से इस प्रकार कहकर वे उस विचित्र रथ में बैठे रहे तथा शत्रु के नवीन आक्रमण की आशंका से सावधान हो गये। इतने में ही उन्हें समुद्र की गर्जना के समान आँधी का भीषण शब्द सुनायी दिया तथा दिशाओं में उठती हुई धूल भी दिखायी दी। एक क्षण में ही सारा आकाश मेघमाला से घिर गया। सब ओर भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बिजली चमकने लगी।

निष्पाप विदुर जी! उन बादलों से खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बी की वर्षा होने लगी और ध्रुव जी के आगे आकाश से बहुत-से धड़ गिरने लगे। फिर आकाश में एक पर्वत दिखायी दिया और सभी दिशाओं में पत्थरों की वर्षा के साथ गदा, परिघ, तलवार और मूसल गिरने लगे। उन्होंने देखा कि बहुत-से सर्प वज्र की तरह फुफकार मारते रोषपूर्ण नेत्रों से आग की चिनगारियाँ उगलते आ रहे हैं; झुंड-के-झुंड मतवाले हाथी, सिंह और बाघ भी दौड़े चले आ रहे हैं। प्रलयकाल के समान भयंकर समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों से पृथ्वी को सब ओर से डूबाता हुआ बड़ी भीषण गर्जना के साथ उनकी ओर बढ़ रहा है। क्रूरस्वभाव असुरों ने अपनी आसुरी माया से ऐसे ही बहुत-से कौतुक दिखलाये, जिनसे कायरों के मन काँप सकते थे। ध्रुव जी पर असुरों ने अपनी दुस्तर माया फैलायी है, यह सुनकर वहाँ कुछ मुनियों ने आकर उनके लिये मंगल कामना की।

मुनियों ने कहा ;- उत्तानपादनन्दन ध्रुव! शरणागत-भयभंजन सारंगपाणि भगवान् नारायण तुम्हारे शत्रुओं का संहार करे। भगवान् का तो नाम ही ऐसा है, जिसके सुनने और कीर्तन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर मृत्यु के मुख से अनायास ही बच जाता है।

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