सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का षष्ठ , सप्तम, अष्टम, नवम व दशम अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का षष्ठ , सप्तम, अष्टम, नवम व दशम अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]




                           {तृतीय स्कन्ध:}

                        【षष्ठ अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"विराट् शरीर की उत्पत्ति"
मैत्रेयजी ऋषि ने कहा ;- सर्वशक्तिमान्! भगवान् ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महतत्व आदि शक्तियाँ विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे काल शक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महतत्व, अहंकार, पंचभूत, पंचतन्मात्रा और मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ—इन तेईस तत्वों के समुदाय में प्रविष्ट हो गये।
 उसमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए। उस तत्व समूह को अपनी क्रिया शक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया। इस प्रकार जब भगवान् ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्वों के समूह ने भगवान् की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष—विराट् को उत्पन्न किया। अर्थात् जब भगवान् ने अंश रूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्व रचना करने वाला महतत्वादि समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणाम को प्राप्त हुआ। यह तत्वों का परिणाम हो विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है। जल के भीतर जो अण्ड रुप आश्रय स्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा ॥ ६ ॥
वह विश्व रचना करने वाले तत्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्मशक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमशः एक (ह्रदय रूप), दस (प्राण रूप) और तीन (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) विभाग किये। यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव रूप होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीव रूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान् का आदि-अवतार है। यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है। यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव रूप से तीन प्रकार का, प्राण रूप से दस प्रकार का और ह्रदय रूप से एक प्रकार का है।

फिर विश्व की रचना करने वाले महतत्वादि के अधिपति श्रीभगवान ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतन रूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया। उसके जाग्रत् होते ही देवताओं के लिये कितने स्थान प्रकट हुए—यह मैं बतलाता हूँ,
सुनो। विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है। फिर विराट् पुरुष के तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रिय के सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता । इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उसमें दोनों अश्विनीकुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रिय के प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है। इसी प्रकार जब उस विराट् देह में आँखें प्रकट हुईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित—लोकपति सूर्य ने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रिय से पुरुष विविध रूपों का ज्ञान होता है ॥ १५ ॥
 फिर उस विराट् विग्रह में त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता । जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उसमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है।


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुईं, जिन रोमों से जीव खुजली आदि का अनुभव करता है। अब उसके लिंग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है। फिर विराट् के गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मल त्याग करता है। इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्याग रूपा शक्ति के सहित देवराज इन्द्र ने प्रवेश किया, इस शक्ति से जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है। जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णु ने प्रवेश किया—इस गति शक्ति द्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है। फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थान में अपने अंश बुद्धि शक्ति के साथ वाक्पति ब्रम्हा ने प्रवेश किया, इस बुद्धि शक्ति से जीव ज्ञातव्य विषयों को जान सकता । फिर इसमें ह्रदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मन के सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मनःशक्ति के द्वारा जीव संकल्प-विकल्पादि रूप विकारों को प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विराट् पूरुष में अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रय में क्रिया शती सहित अभिमान (रूद्र)-ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्य को स्वीकार करता है। अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्त शक्ति के सहित महतत्व (ब्रम्हा) स्थित हुआ; इस चित्त शक्ति से जीव विज्ञान (चेतना)-को उपलब्ध करता है। इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्ग लोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमशः सत्व, रज और तम—इन तीन गुणों के परिणाम रूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं।
इनमें देवता लोग सत्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्ग लोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाव वाले होने से रूद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेम आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान् के नाभि स्थानीय अन्तरिक्ष लोक में रहते हैं।
विदुरजी! वेद और ब्राम्हण भगवान् के मुख से प्रकट हुए। मुख से प्रकट होने के कारण ही ब्राम्हण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सबका गुरु है। उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करने वाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान् का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है। भगवान् की दोनों जाँघों से सब लोगों का निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हीं से वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्ति से सब जीवों की जीविका चलाता है। फिर सब धर्मों की सिद्धि के लिये भगवान् के चरणों से सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्र वर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं। ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियों के सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरि का अपने-अपने धर्मों से चित्त शुद्धि के लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

विदुरजी! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभाव शक्ति से युक्त भगवान् की योगमाया के प्रभाव को प्रकट करने वाला है। इसके स्वरुप का पूरा-पूरा वर्णन करने का कौन साहस कर सकता है। तथापि प्यारे विदुजी! अन्य व्यावहारिक चर्चाओं से अपवित्र हुई अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरु मुख से सुना है वैसा, श्रीहरि का सुयश वर्णन करता हूँ। महापुरुषों का मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरि के गुणों का गान करना ही मनुष्यों की वाणी का तथा विद्वानों के मुख से भगवत्कथामृत का पान करना ही उनके कानों का सबसे बड़ा लाभ है।
वत्स! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रम्हाजी ने एक हजार दिव्य वर्षों तक अपनी योग परिपक्व बुद्धि से विचार किया; तो भी क्या वे भगवान् की अमित महिमा का पार पा सके ? अतः भगवान् की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देने वाली है। उसकी चक्कर में डालने वाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान् भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। जहाँ न पहुँचकर मन के सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रूद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान् को हम नमस्कार करते हैं।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                        【सप्तम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"विदुरजी के प्रश्न"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- मैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजी ने उन्हें अपनी वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा।
विदुरजी ने पूछा ;- ब्रह्म्न! भगवान् तो शुद्ध बोधस्वरुप, निर्विकार और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का सम्बन्ध कैसे हो सकता। बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है, इसी से वह खेलने के लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान् तो स्वतः नित्यतृप्त—पूर्णकाम और सर्वदा असंग हैं, वे क्रीडा के लिये भी क्यों संकल्प करें। भगवान् ने अपनी गुणमयी माया से जगत् की रचना की है, उसी से वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे। जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका माया के साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है। एकमात्र ये भगवान् ही समस्त क्षेत्रों में उनके साक्षीरूप से स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकार के कर्मजनित कलेश की प्राप्ति कैसे हो सकता है। भगवन्! इस अज्ञान संकट में पड़कर मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मन के इस महान् मोह को कृपा करके दूर कीजिये।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- तत्व जिज्ञासु विदुरजी की यह प्रेरणा प्राप्त कर अहंकार हीन श्रीमैत्रेयजी ने भगवान् का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा।
श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरुप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो—यह बात युक्ति विरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुतः यही तो भगवान् की माया है। जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं। यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वर में इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जल में होने वाली कम्प आदि क्रिया जल में दीखने वाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब में न होने पर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमा में नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीव में ही देह के मिथ्या धर्मों की प्रतीति होती है परमात्मा में नहीं। निष्कामभाव से धर्मों का आचरण करने पर भगवत्कृपा से प्राप्त हुए भक्तियोग के द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है। जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चल भाव से स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दुःखराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे ह्रदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है ?

विदुरजी ने कहा ;- भगवन्! आपके युक्तियुक्त वचनों की तलवार से मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान् की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता—दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है। विद्वान्! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीव को जो क्लेशादि की प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान् की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्व का मूल कारण ही माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)

इस संसार में दो ही प्रकार के लोग सुखी हैं—या तो जो अत्यन्त मूढ़ (अज्ञानग्रस्त) हैं या जो बुद्धि आदि से अतीत श्रीभगवान् को प्राप्त कर चुके हैं। बीच की श्रेणी के संशयापन्न लोग तो दुःख ही भोगते रहते हैं।
भगवन्! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म पदार्थ वस्तुतः हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं। अब मैं आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा दूँगा। इन श्रीचरणों की सेवा से नित्यसिद्ध भगवान् श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में उत्कट प्रेम और आनन्द की बुद्धि होती है, जो आवागमन की यन्त्रणा का नाश कर देती हैं। महात्मा लोग भगवत्प्राप्ति के साक्षात् मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव श्रीहरि के गुणों का गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुष को उनकी सेवा का अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है। भगवन्! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने क्रमशः महदादि तत्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट् को उत्पन्न किया और इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें प्रविष्ट हो ग। उन विराट् के हजारों पैर, जाँघें और बाँहें हैं; उन्हीं को वेद आदि पुरुष कहते हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृत रूप से स्थित। उन्हीं में इन्द्रिय, विषय और इन्द्रियाभिमानी देवताओं के सहित दस प्रकार प्राणों का—जो इन्द्रियबल, मनोबल और शारीरिक बल रूप से तीन प्रकार के हैं—आपने वर्णन किया है और उन्हीं से ब्राम्हणादि वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रम्हादि विभूतियों का वर्णन सुनाइये—जिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और कुटुम्बियों के सहित तरह-तरह की प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रम्हाण्ड भर गया।
वह विराट् ब्रम्हादि प्रजापतियों का भी प्रभु है। उसने किन-किन प्रजापतियों को उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और मन्वन्तरों के अधिपति मनुओं की भी किस क्रम से रचना की ?
मैत्रेयजी! उन मनुओं के वंश और वंशधर राजाओं के चरित्रों का, पृथ्वी के ऊपर और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी वर्णन कीजिये तथा यह भी बतलाइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्पादि रेंगने वाले जन्तु) और पक्षी तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकार के प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए। श्रीहरि ने सृष्टि करते समय जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये अपने गुणावतार ब्रम्हा, विष्णु और महादेवरूप से जो कल्याणकारी लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये। वेष, आचरण और स्वभाव के अनुसार वर्णाश्रम का विभाग, ऋषियों के जन्म-कर्मादि, वेदों का विभाग, यज्ञों का विस्तार, योग का मार्ग, ज्ञान मार्ग और उसका साधन सांख्य मार्ग तथा भगवान् के कहे हुए नारद पांचरात्र आदि तन्त्रशास्त्र, विभिन्न पाखण्ड मार्गों के प्रचार से होने वाली विषमता, नीच वर्ण के पुरुष से उच्च वर्ण की स्त्री में होने वाली सन्तानों के प्रकार तथा भिन्न-भिन्न गुण और कर्मों के कारण जीव की जैसी और जितनी गतियाँ होती हैं, वे सब हैं सुनाइये। ब्रह्मन्! धर्म, अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति के परस्पर अविरोधी साधनों का, वाणिज्य, दण्डनीति और शास्त्र श्रवण की विधियों का, श्राद्ध की विधि का, पितृगुणों की सृष्टि का तथा कालचक्र में ग्रह, नक्षत्र और तारागण की स्थिति का भी अलग-अलग वर्णन कीजिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद)

दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का क्या फल है ? प्रवास और आपत्ति के समय मनुष्य का क्या धर्म होता है ? निष्पाप मैत्रेयजी! धर्म के मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान् किस आचरण से सन्तुष्ट होते हैं और किन पर अनुग्रह करते हैं, यह वर्णन कीजिये।
द्विजवर! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रों को बिना पूछे भी उनके हित की बात बलता दिया करते हैं। भगवन्! उन महदादि तत्वों का प्रलय कितने प्रकार का है ? तथा जब भगवान् योगनिद्रा में शयन करते हैं, तब उनमें से कौन-कौन तत्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? जीव का तत्व, परमेश्वर का स्वरुप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्य का पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? पवित्रात्मन् विद्वानों ने उस ज्ञान की प्राप्ति के क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ? क्योंकि मनुष्यों को ज्ञान, भक्ति अथवा वैराग्य की प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती। ब्रह्मन्! माया-मोह के कारण मेरी विचार दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे परम सुहृद् हैं; अतः श्रीहरि लीला का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से मैंने जो प्रश्न किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये। पुण्यमय मैत्रेयजी! भगवतत्व के उपदेश द्वारा जीव को जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर उसे अभय कर देने में जो पुण्य होता है, समस्त वेदों के अध्ययन, यज्ञ, तपस्या और दानादि से होने वाला पुण्य उस पुण्य के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकता।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- राजन्! जब कुरु-श्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार पुराण विषयक प्रश्न किये, तब भगवच्चर्या के लिये प्रेरित किये जाने के कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                        【अष्टम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रम्हाजी की उत्पत्ति"
श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पुरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधु-पुरुषों के लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य है! आप निरन्तर पद-पद पर श्रीहरि की कीर्तिमयी माला को नित्य नूतन बना रहे हैं। अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से महान् दुःख को मोल लेने वाले पुरुषों की दुःख निवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवत पुराण प्रारम्भ करता हूँ—जिसे स्वयं श्रीसंकर्षण भगवान् ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था।
अखण्ड ज्ञान सम्पन्न आदि देव भगवान् संकर्षण पाताल लोक में विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने परम पुरुषोत्तम ब्रम्ह का तत्व जानने के लिए उनसे प्रश्न किया। उस समय शेषजी अपने आश्रय-स्वरुप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे, जिनका वेद वासुदेव के नाम से निरूपण करते हैं। उनके कमलकोश सरीखे नेत्र बंद थे। प्रश्न करने पर सनत्कुमारादि ज्ञानी जनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुले नेत्रों से देखा। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने मन्दाकिनी के जल से भीगे अपने जटा समूह से उनके चरणों की चौकी के रूप में स्थित कमल का स्पर्श किया, जिसकी नागराज कुमारियाँ अभिलषित वर की प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियों से पूजा करती हैं। सनत्कुमारादि उनकी लीला के मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणी से उनकी लीला का गान किया। उस समय शेष भगवान् के उठे हुए सहस्त्रों फण किरीटों की सहस्त्र-सहस्त्र श्रेष्ठ मणियों की छिटकती हुई रश्मियों से जगमगा रहे थे।
भगवान् संकर्षण ने निवृत्ति परायण सनत्कुमारजी को यह भागवत सुनाया तथा—ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमारजी ने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनि को, उनके प्रश्न करने पर सुनाया। परमहंसों में प्रधान श्रीसांख्यायनजी को जब भगवान् की विभूतियों का वर्णन करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजी को और बृहस्पतिजी को सुनाया। इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजी ने पुलस्त्य मुनि के कहने से वह आदि पुराण मुझसे कहा। वत्स! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ। सृष्टि के पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जल में डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेष शय्या पर पौढ़े हुए थे। वे अपनी ज्ञान शक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्रा का आश्रय ले, अपने नेत्र मूँदे हुए थे। सृष्टि कर्म से अवकाश लेकर आत्मानन्द में मग्न थे। उनमें किसी भी क्रिया का उन्मेष नहीं था।
जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियों को छिपाये हुए काष्ठ में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् ने सम्पूर्ण प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन करके अपने आधार भूत उस जल में शयन किया, उन्हें सृष्टि काल आने पर पुनः जगाने के लिये केवल काल शक्ति को जाग्रत् रखा। इस प्रकार अपनी स्वरुपभूता चिच्छिक्ति के साथ एक सहस्त्र चतुर्युग पर्यन्त जल में शयन करने के अनन्तर जब उन्हीं के द्वारा नियुक्त उनको काल शक्ति ने उन्हें जीवों के कर्मों की प्रवृत्ति के लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीर में लीन हुए अनन्त लोक देखे। जिस समय भगवान् की दृष्टि अपने में निहित लिंग शरीरादि सूक्ष्म तत्व पर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टि रचना के निमित्त उनके नाभि देश से बाहर निकला।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

कर्म शक्ति को जाग्रत् करने वाले काल के द्वारा विष्णु भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्म तत्व कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया। सम्पूर्ण गुणों को प्रकाशित करने वाले उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णु भगवान् ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हो गये। तब उसमें से बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदों को जानने वाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रम्हाजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भु कहते हैं। उस कमल की कर्णिका (गद्दी)—में बैठे हुए ब्रम्हाजी को जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाश में चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओं में चार मुख हो गये। उस समय प्रलयकालीन पवन के थपेड़ों से उछलती हुई जल की तरंगमालाओं के कारण उस जलराशि से ऊपर उठे हुए कमल पर विराजमान आदि देव ब्रम्हाजी को अपना तथा उस लोक तत्वरूप कमल का कुछ भी रहस्य न जान पड़ा। वे सोचने लगे, ‘इस कमल की कर्णिका पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधार पर यह स्थित है’। ऐसा सोचकर वे उस कमल की नाल के सूक्ष्म छिद्रों में होकर उस जल में घुसे।
किन्तु उस नाल के आधार कोई खोजते-खोजते नाभि-देश के समीप पहुँच जाने पर भी वे उसे पा न सके। विदुरजी! उस अपार अन्धकार में अपने उत्पत्ति-स्थान को खोजते-खोजते ब्रम्हाजी को बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान् का चक्र है, जो प्राणियों को भयभीत (करता हुआ उनकी आयु को क्षीण) करता रहता है। अन्त में विफल मनोरथ हो वे वहाँ से लौट आये और पुनः अपने आधार भूत कमल पर बैठकर धीरे-धीरे प्राण वायु को जीतकर चित्त को निःसंकल्प किया और समाधि में स्थित हो गये। इस प्रकार पुरुष की पूर्ण आयु के बराबर काल तक (अर्थात् दिव्य सौ वर्ष तक) अच्छी तरह योगाभ्यास करने पर ब्रम्हाजी को ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठान को, जिसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्तःकरण में प्रकाशित होते देखा।
 उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जल में शेषजी के कमलनाल सदृश गौर और विशाल विग्रह की शय्या पर पुरुषोत्तम भगवान् अकेले ही लेते हुए हैं। शेषजी के दस हजार फण छत्र के समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकों पर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्ति से चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया है। वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकतमणि के पर्वत की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमर का पीटपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर सुशोभित सुवर्ण मुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वत के रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की शोभा को परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का तिरस्कार करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद)

उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लंबाई-चौड़ाई में त्रिलोकी का संग्रह किये हुए हैं। वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों की शोभा को सुशोभित करने वाला होने पर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष भूषा से सुसज्जित है। अपनी-अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करने वाले भक्तजनों को कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलों का दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अँगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं। सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्णी भौहें, कानों में झिलमिलाते हुए कुण्डलों की शोभा, बिम्बाफल के समान लाल-लाल अधरों की कान्ति एवं कोलार्तिहारी मुसकान से युक्त मुखारविन्द के द्वारा वे अपने उपासकों का सम्मान—अभिनन्दन कर रहे हैं। वत्स! उनके नितम्बदेश में कदम्ब कुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्षःस्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखा वाले श्रीवत्स चिन्ह की अपूर्व शोभा हो रही है।
 वे अव्यक्तमूल चन्दन वृक्ष के समान हैं। महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियों से सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्त्रों शाखाएँ हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेषजी के फणों ने लपेट रखा है। वे नागराज अनन्त के बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जल से घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वत पर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचर के आश्रय हैं; शेषजी के फणों पर जो सहस्त्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वत के सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्षःस्थल में विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भ से प्रकट हुआ रत्न है। प्रभु के गले में वेदरूप भौरों से गुंजायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओं को भी आप तक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवन मीन बेरोक-टोक विचरण करने वाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभु के आस-पास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं। तब विश्व रचना की इच्छा वाले लोक विधाता ब्रम्हाजी ने भगवान् के नाभि सरोवर से प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इसके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया। रजोगुण से व्याप्त ब्रम्हाजी प्रजा की रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टि के कारण रूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोक रचना के लिये उत्सुक होने के कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरि से चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभु की स्तुति करने लगे।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                        【नवम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रम्हाजी द्वारा भगवान् की स्तुति"
ब्रम्हाजी ने कहा ;- आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरुप को नहीं जान पाते। भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरुपतः सत्य नहीं है, क्योंकि माया के गुणों के क्षुभित होने के कारण केवल आप ही अनेकों रूपों में प्रतीत हो रहे हैं।
देव! आपकी चित्त शक्ति के प्रकाशित रहने के कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभिकमल से मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारों का मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है। परमात्मन्! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरुप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्व की रचना करने वाले होने पर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूप की ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियों का भी अधिष्ठान है। हे विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हित के लिये ही मुझे ध्यान में अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूप में बार-बार नमस्कार करता हूँ। मेरे स्वामी! जो लोग वेद रूप वायु से लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनों के ह्रदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्ति रूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं।
जब तक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्धुजनों के कारण प्राप्त होने वाले, भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभी तक उसे मैं-मेरेपन का दुराग्रह रहता है, जो दुःख का एकमात्र का कारण है। जो लोग सब प्रकार के अमंगलों को नष्ट करने वाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसंगों से इन्द्रियों को हटाकर लेशमात्र विषय-सुख के लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारों की बुद्धि दैव ने हर ली है। अच्युत! उरुक्रम! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गरमी, हवा और वर्षा से, परसपर एक-दूसरे से तथा कामाग्नि और दुःसह क्रोध से बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है।
स्वामिन्! जब तक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी माया के प्रभाव से आपसे अपने को भिन्न देखता है, तब तक उसके लिये इस संसार चक्र की निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्म फल भोग का क्षेत्र होने के कारण उसे नाना प्रकार के दुःखों में डालता रहता है। देव! औरों की तो बात ही क्या—जो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथा प्रसंग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार में फँसना पड़ता है। वे दिन में अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रि में निद्रा में अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरह के मनोरथों के कारण क्षण-क्षण में उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैवदेश उनकी अर्थ सिद्धि के सा उद्दोग भी विफल होते रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

नाथ! आपका मार्ग केवल गुण श्रवण से ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्यों के भक्तियोग के द्वारा परिशुद्ध हुए ह्रदयकमल में निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभो! आपके भक्तजन जिस-जिस भावना से आपका चिन्तन करते है, उन साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये आप वही-वही रूप धारण कर लेते हैं। भगवन्! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा हैं।
इसलिये यदि देवता लोग भी ह्रदय में तरह-तरह की कामनाएँ रखकर भाँति-भाँति की विपुल सामग्रियों से आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियों पर दया करने से होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ हैं। जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता—वह अक्षय हो जाता है। अतः नाना प्रकार के कर्म—यज्ञ, दान, कठिन तपस्या और व्रतादि के द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्म फल है, क्योंकि आपकी प्रसन्नता होने पर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता। आप सर्वदा अपने स्वरुप के प्रकाश से ही प्राणियों से भेद-भ्रमरूप अन्धकार का नाश करते रहते हैं तथा ज्ञान के अधिष्ठान साक्षात् परम पुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के निमित्त से जो माया की लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अतः आप परमेश्वर को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। जो लोग प्राण त्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कर्मों को सूचित करने वाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामों का विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायादि आवरणों से रहित ब्रम्ह पद प्राप्त करते हैं।
आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ। भगवन्! इस विश्व वृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं। आप ही अपनी मूल प्रकृति को स्वीकार करके जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये मेरे, अपने और महादेवजी के रूप में तीन प्रधान शाखाओं में विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा-प्रशाखाओं के के रूप में फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। भगवन्! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओर से उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मों में लगे रहते हैं। ऐसी प्रमाद की अवस्था में पड़े हुए इस जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रता से काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ। यद्यपि मैं सत्यलोक का अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्द्ध पर्यन्त रहने वाला और समस्त लोकों का वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हूँ।
उससे बचने और आपको प्राप्त करने के लिये ही मैंने बहुत समय तक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञ रूप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता । आप पूर्णकाम हैं, आपको किसी विषयसुख की इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादा की रक्षा के लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीव योनियों में अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान् को मेरा नमस्कार है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश—पाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसार को अपने उदर में लीनकर भयंकर तरंगमालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनन्त विग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्प की कर्म परम्परा से श्रमित हुए जीवों को विश्राम देने के लिये ही हैं। आपके नाभिकमल रूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचना रूप उपकारों में प्रवृत्त हुआ हूँ।
इस समय योगनिद्रा का अन्त हो जाने के कारण आपके नेत्रकमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है। आप सम्पूर्ण जगत् के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतों पर कृपा करने वाले हैं। अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्व को आनन्दित करते हैं, उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करें—जिससे मैं पूर्वकल्प के समान इस समय भी जगत् की रचना कर सकूँ। आप भक्तवांछाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत् की रचना करने का उद्दम भी उन्हीं में से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करें—शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टि रचना विषयक अभिमान रूप मल से दूर रह सकूँ। प्रभो! इस प्रलयकालीन जल में शयन करते हुए आप अनन्त शक्ति परमपुरुष के नाभिकमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी विज्ञान शक्ति; अतः इस जगत् के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेद रूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो। आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकान के सहित अपने नेत्र कमल खोलिये और शेष शय्या से उठकर विश्व के उद्धव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- विदुरजी! इस प्रकार तप, विद्या और समाधि के द्वारा अपने उत्पत्ति स्थान श्रीभगवान् को देखकर तथा अपने मन और वाणी की शक्ति के अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रम्हाजी थके-से होकर मौन हो गये। श्रीमधुसूदन भगवान् ने देखा कि ब्रम्हाजी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोक रचना के विषय में कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्राय को जानकर वे अपनी गम्भीर वाणी से उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा ;- वेदगर्भ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टि रचना के उद्दम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चुका हूँ। तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञान का अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकों को स्पष्टतया अपने अन्तःकरण में देखो। फिर भक्तियुक्त और समाहित चित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे। जिस समय जीव काष्ठ में व्याप्त अग्नि के समान समस्त भूतों में मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मल से मुक्त हो जाता है। जब वह अपने को भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित तथा स्वरुपतः मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद)

ब्रम्हाजी! नाना प्रकार के कर्म संस्कारों के अनुसार अनेक प्रकार की जीव सृष्टि को रचने की इच्छा होने पर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपा का ही फल है। तुम सबसे पहले मन्त्र द्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसी से पापमय रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता। तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है कि यद्यपि देहधारी जीवों को मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया। ‘मेरा आश्रय कोई है या नहीं’ इस सन्देह से तुम कमलनाल के द्वारा जल में उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरुप अन्तःकरण में ही दिखलाया है। प्यारे ब्रम्हाजी! तुमने जो मेरी कथाओं के वैभव से युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्या में जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपा का फल है। लोक रचना की इच्छा से तुमने सगुण प्रतीत होने पर भी जो निर्गुण रूप से मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; तुम्हारा कल्याण हो। मैं समस्त कामनाओं और मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्य प्रति इस स्त्रोत द्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उस पर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा।

तत्ववेत्ताओं का मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनों से प्राप्त होने वाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है। विधाता! मैं आत्माओं का भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अतः मुझसे ही प्रेम करना चाहिये। ब्रम्हाजी! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्वदेवमय स्वरुप से स्वयं ही रचो।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- प्रकृति और पुरुष के स्वामी कमलनाभ भगवान् सृष्टिकर्ता ब्रम्हाजी को इस प्रकार जगत् की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूप से अदृश्य हो गये।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                        【दशम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन"
विदुरजी ने कहा ;- मुनिवर! भगवान् नारायण के अन्तर्धान हो जाने पर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रम्हाजी ने अपने देह और मन से कितने प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की ? भगवन्! इनके सिवा मैंने आपसे और जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका भी क्रमशः वर्णन कीजिये और मेरे सब संशयों को दूर कीजिये; क्योंकि आप सभी बहुज्ञों में श्रेष्ठ हैं।

सूतजी कहते हैं ;- शौनकजी! विदुरजी के इस प्रकार पूछने पर मुनिवर मैत्रेयजी बड़े प्रसन्न हुए और अपने ह्रदय में स्थित उन प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देने लगे।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- अजन्मा भगवान् श्रीहरि ने जैसा कहा था, ब्रम्हाजी भी उसी प्रकार चित्त को अपने आत्मा श्रीनारायण में लगाकर सौ दिव्य वर्षों तक तप किया। ब्रम्हाजी ने देखा कि प्रलयकालीन प्रबल वायु के झकोरों से, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिस पर वे बैठे हुए हैं वह कमल तथा जल काँप रहे हैं। प्रबल तपस्या एवं ह्रदय में स्थित आत्मज्ञान से उनका विज्ञान बल बढ़ गया और उन्होंने जल के साथ वायु को पी लिया। फिर जिस पर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाश व्यापी कमल को देखकर उन्होंने विचार किया कि ‘पूर्वकल्प में लीन हुए लोकों को मैं इसी से रचूँगा’। तब भगवान् के द्वारा सृष्टि कार्य में नियुक्त ब्रम्हाजी ने उस कमलकोश में प्रवेश किया और उस एक के ही भूः, भुवः, स्वः—ये तीन भाग किये, यद्यपि वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकों के रूप में विभाग किये जा सकते थे। जीवों के भोग स्थान के रूप में इन्हीं तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है; जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें महः, तपः, जनः और सत्यलोक रूप ब्रम्हलोक की प्राप्ति होती है। विदुरजी ने कहा ;- ब्रह्मन्! आपने अद्भुत कर्मा विश्वरूप श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति कि बात कही थी, प्रभो! उसका कृपया विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विषयों का रूपान्तर (बदलना) ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बनाकर भगवान् खेल-खेल में अपने-आपको ही सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान् की माया से लीन होकर ब्रम्हरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्तमूर्ति काल के द्वारा भगवान् ने पुनः पृथक् रूप से प्रकट किया है। यह जगत् जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। इसकी सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत-वैकृत-भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है।
 और इसका प्रलय काल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार से होता है। (अब पहले मैं दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन करता हूँ) पहली सृष्टि महतत्व की है। भगवान् की प्रेरणा से सात्वादि गुणों में विषमता होना ही इसका स्वरुप है। दूसरी सृष्टि अहंकार की है, जिससे पृथ्वी अहंकार की है, जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पंचभूतो को उत्पन्न करने वाला तन्मात्रावर्ग रहता है। चौथी सृष्टि इन्द्रियों की है, यह ज्ञान और क्रिया शक्ति से सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अन्तर्गत है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)

छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तामिस्त्र, अन्ध्तामिस्त्र, तम, मोह और महामोह—ये पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की बुद्धि का आवरण और विक्षेप करने वाली है। ये छः प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत सृष्टियों का भी विवरण सुनो। जो भगवान् अपना चिन्तन करने वालों के समस्त दुःखों को हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरि की है।
वे ही ब्रम्हा के रूप में रजोगुण को स्वीकार करके जगत् की रचना करते हैं। छः प्रकार की प्राकृत सृष्टियों के बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छः प्रकार के स्थानवर वृक्षों की होती है। वनस्पति,  ओषधि, लता, त्वक्सार, वीरुध और द्रुम इनका संचार नीचे (जड़)—से ऊपर की ओर होता है, इनमें प्रायः ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, ये भीतर-ही-भीतर केवल स्पर्श का अनुभव करते हैं तथा इनमें से प्रत्येक में कोई विशेष गुण रहता है।
आठवीं सृष्टि तिर्यग् योनियों (पशु-पक्षियों)-की है। वह अट्ठाईस प्रकार की मानी जाती है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता, तमोगुण कि अधिकता के कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना आदि ही जानते हैं, इन्हें सूँघने मात्र से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके ह्रदय में विचार शक्ति या दुर्दाशिता नहीं होती। साधुश्रेष्ठ! इन तिर्कों में गौ, बकरा, भैंसा, कृष्ण-मृग, सूअर, नीलगाय, रुरु नाम मृग, भेंड़ और ऊँट—ये द्विशफ़ (दो खुरों वाले) पशु कहलाते हैं। गधा, घोडा, खच्चर, गौरमृग, शरफ और चमरी—ये एकशफ़ (एक खुरवाले) हैं। अब पाँच नख वाले पशु-पक्षियों के नाम सुनो। कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बन्दर, हाथी, कछुआ, गोह और मगर आदि (पशु) हैं। कंक (बगुला), गिद्ध, बटेर, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौआ और उल्लू आदि उड़ने वाले जीव पक्षी कहलाते हैं। विदुरजी! नवीं सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार की है। इसके आहार का प्रवाह ऊपर (मुँह)-से नीचे की ओर होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःख रूप विषयों में ही सुख मानने वाले होते हैं। स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य—ये तीनों प्रकार की सृष्टियाँ तथा आगे कहा जाने वाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि है तथा जो महतत्वादी रूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टि में की जा चुकी है।
इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियों का जो कौमारसर्ग है, वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकार है। देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेद से देव सृष्टि आठ प्रकार की है। विदुरजी! इस प्रकार जगत्कर्ता श्रीब्रम्हाजी की रची हुई यह दस प्रकार की सृष्टि मैंने तुमसे कही। अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादि का वर्णन करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प भगवान् हरि ही ब्रम्हा के रूप से प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत् के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।

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