सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( तृतीय स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Third wing) ]



                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"उद्धव और विदुर की भेंट"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकाल में अपने सुख-समृद्धि से पूर्ण घर को छोड़कर वन में गये हुए विदुरजी ने भगवान् मैत्रेयजी से पूछी थी। जब सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोड़कर, उसी विदुरजी के घर में उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे।

राजा परीक्षित् ने पूछा ;- प्रभो! यह तो बतलाइये कि भगवान् मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेयजी से कोई साधारण प्रश्न नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी-जैसे साधुशिरोमणि ने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था।

सूतजी कहते हैं ;- सर्वज्ञ शुकदेवजी ने राजा परीक्षित् के इस प्रकार पूछने पर अति प्रसन्न होकर कहा—सुनो।

श्रीशुकदेवजी कहने लगे ;- परीक्षित्! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्याय पूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डु के अनाथ बालकों को लाक्षाभवन में भेजकर आग लगवा दी। जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिर की पटरानी द्रौपदी के केश दुःशासन ने भरी सभा में खींचे, उस समय द्रौपदी की आँखों से आँसुओं की धारा बह चली और उस प्रवाह से उसके वक्षःस्थल लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्र अपने पुत्र को उस कुकर्म से नहीं रोका। दुर्योधन सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिर का राज्य जुए में अन्याय से जीत लिया और उन्हें वन मने निकाल दिया। किन्तु वन से लौटने पर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को उनका हिस्सा नहीं दिया। महाराज युधिष्ठिर के भेजने पर जब जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण ने कौरवों की सभा में हित भरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनों को अमृत-से लगे, पर कुरुराज ने उनके कथन को कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे। फिर जब सलाह के लिये विदुरजी को बुलाया गया, तब मन्त्रियों में श्रेष्ठ विदुरजी ने राज्यभवन में जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्र के पूछने पर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्र के जानने वाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं।

उन्होंने कहा ;- ‘महाराज! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिर को उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहने योग्य अपराध को भी सह रहे है। भीम रूप काले नाग से तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयों के सहित बदला लेने के लिये बड़े क्रोध से फुफकारें मार रहा है। आपको पता नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को अपना लिया है। वे यदुवीरों के आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरी में विराजमान हैं। उन्होंने पृथ्वी के सभी बड़े-बड़े राजाओं को अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राम्हण और देवता भी उन्हीं के पक्ष में हैं। जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधन के रूप में तो मुर्तिमान् दोष ही आपके घर में घुसा बैठा है। यह तो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण से द्वेष करने वाला है। इसी के कारण आप भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुल की कुशल चाहते हैं तो इस दुष्ट को तुरन्त ही त्याग दीजिये’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

विदुजी का ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करने की इच्छा करते थे। किंतु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दुःशासन और शकुनि के सहित दुर्योधन के होठ अत्यन्त क्रोध से फड़कने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा—‘अरे! इस कुटिल दासी पुत्र को यहाँ किसने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हीं के प्रतिकूल होकर शत्रु का काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगर से तुरन्त बाहर दो’। भाई के सामने ही कानों में बाण के समान लगने वाले इन अत्यन्त कठोर वचनों से मर्माहत होकर भी विदुरजी ने कुछ बुरा न माना और भगवान् की माया को प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वार पर रख वे हस्तिनापुर से चल दिये। कौरवों को विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान् के क्षेत्रों में विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रम्हा, रूद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियों के रूप में विराजमान हैं।
 जहाँ-जहाँ भगवान् की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुंज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे। वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीयजन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धिवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थ में स्नान करते, जमीन पर सोते और भगवान् को प्रसन्न करने वाले व्रतों का पालन करते रहते थे। इस प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जब तक वे प्रभास क्षेत्र में पहुँचे, तब तक भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे। वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिड़कर उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न हुई आग से बाँसों का सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वती के तीर पर आये। वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह्य और श्राद्धदेव के नामों से प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थों का सेवन किया। इनके सिवा पृथ्वी में ब्राम्हण और देवताओं के स्थापित किये हुए जो भगवान् विष्णु के और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरों पर भगवान् के प्रधान आयुध चक्र के चिन्ह थे और जिनके दर्शन मात्र से श्रीकृष्ण का स्मरण हो आता था, उनका भी सेवन किया। वहाँ से चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजांगल आदि देशों में होते हुए जब कुछ दिनों में यमुनातट पर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजी का दर्शन किया। वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्त स्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजी के शिष्य रह चुके थे। विदुरजी ने उन्हें देखकर प्रेम से गाढ़ आलिंगन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनों का कुशल-समाचार पूछा।

विदुरजी कहने लगे ;- उद्धवजी! पुराण पुरुष बलरामजी और श्रीकृष्ण ने अपने ही नाभि कमल से उत्पन्न हुए ब्रम्हाजी की प्रार्थना से इस जगत् में अवतार लिया है। वे पृथ्वी का भार उतारकर सबको आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजी के घर कुशल से रह रहे हैं न ?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 27-39 का हिन्दी अनुवाद)

प्रियवर! हम कुरुवंशियों के परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिता के समान उदारता पूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनों को उनके स्वामियों का सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्द पूर्वक हैं न ? प्यारे उद्धवजी! यादवों के सेनापति वीरवर प्रद्दुम्नजी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्म में कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणीजी ने ब्राम्हणों की आराधना करके भगवान् से प्राप्त किया था। सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशार्हवंशी यादवों के अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुख से हैं न, जिन्होंने राज्य पाने की आशा का सर्वथा परित्याग कर दिया था किंतु कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने जिन्हें फिर से राजसिंहासन पर बैठाया। सौम्य! अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्ण तनय साम्ब सकुशल तो हैं न ? ये पहले पार्वतीजी के द्वारा गर्भ में धारण किये हुए स्वामिकार्तिक हैं। अनेकों व्रत करके जाम्बवती ने इन्हें जन्म दिया था। जिन्होंने अर्जुन से रहस्ययुक्त धनुर्विद्या की शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं ? वे भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा से अनायास ही भगवज्जनों की उस महान् स्थिति पर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है। भगवान् के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्ण के चरणचिन्हों से अंकित व्रज के के मार्ग की रज में प्रेम से अधीर होकर लोटने लगे थे ? भोजवंशी देवक की पुत्री देवकीजी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदिति के समान ही साक्षात् विष्णु भगवान् की माता हैं ? जैसे वेदत्रयी यज्ञ विस्तार रूप अर्थको अपने मन्त्रों में धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को अपने गर्भ में धारण किया था।
आप भक्तजनों की कामनाएँ पूर्ण करने वाले भगवान् अनिरुद्धजी सुखपूर्वक हैं न, जिन्हें शास्त्र वेदों के आदिकारण और अन्तःकरण चतुष्टय के चौथे अंश मन के अधिष्ठाता बतलाते हैं । सौम्यस्वभाव उद्धवजी! अपने ह्रदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का अनन्यभाव से अनुसरण करने वाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारूदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान् के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न ? महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्ण-रूप दोनों भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न ? मयदानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्य वैभव और दबदबे को देखकर दुर्योधन को बड़ा डाह हुआ था। अपराधियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेन ने सर्प के समान दीर्घकालीन क्रोध को छोड़ दिया है क्या ? जब वे गदायुद्ध में तरह-तरह के पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरों की धमक से धरती डोलने लगती थी। जिनके बाणों के जाल से छिपकर किरात वेषधारी, अतएव किसी की पहचान में न आने वाले भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियों का सुयश बढ़ाने वाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे ? पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्ती ने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्री के यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशल से तो हैं न ? उन्होंने युद्ध में में शत्रु से अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्र के मुख से अमृत निकाल लायें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 40-45 का हिन्दी अनुवाद)

अहो! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए हैं। रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था। सौम्यस्वभाव उद्धवजी! मुझे तो अधःपतन की ओर जाने वाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथ अपने पुत्रों की हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगर से निकलवा दिया।
किंतु भाई! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगाद्विधाता भगवान् श्रीकृष्ण ही मनुष्यों की-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं। मैं तो उन्हीं की कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ। यद्यपि कौरवों ने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान् ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दुःख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जाति के मद से अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओं से पृथ्वी को कंपा रहे थे।
उद्धवजी! भगवान् श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं, फिर भी दुष्टों का नाश करने के लिये और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान् की तो बात ही क्या—दूसरे जो लोग गुणों से पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देह के बन्धन में पड़ना चाहेगा। अतः मित्र! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरण में आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तों का प्रिय करने के लिये यदुकुल में जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरि की बातें सुनाओ।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"उद्धवजी द्वारा भगवान् की बाल लीलाओं का वर्णन"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- जब विदुरजी ने परम भक्त उद्धव से इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखने वाली बातें पूछीं, तब उन्हें अपने स्वामी का स्मरण हो आया और वे ह्रदय भर आने के कारण कुछ भी उत्तर न दे सके। जब ये पाँच वर्ष के थे, तब बालकों की तरह खेल में ही श्रीकृष्ण की मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजा में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवे के लिये माता के बुलाने पर भी उसे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे ।

अब तो दीर्घकाल से उन्हीं की सेवा में रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अतः विदुरजी के पूछने से उन्हें अपने प्यारे प्रभु के चरणकमलों का स्मरण हो आया—उनका चित्त विरह से व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे। उद्धवजी श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द सुधा से सराबोर होकर दो घड़ी तक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोग से उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्न हो गये। उनके सारे शरीर में रोमांच हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रों से प्रेम के आँसुओं की धारा बहने लगी। उद्धवजी को इस प्रकार प्रेमप्रवाह में डूबे हुए देखकर विदुरजी ने उन्हें कृतकृत्य माना। कुछ समय बाद जब उद्धवजी भगवान् के प्रेमधाम से उतरकर पुनः धीरे-धीरे संसार में आये, तब अपने नेत्रों को पोंछकर भगवल्लीलाओं का स्मरण हो आने से विस्मित हो विदुरजी से इस प्रकार कहने लगे।

उद्धवजी बोले ;- विदुरजी! श्रीकृष्ण रूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को कालरूप अजगर ने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ। ओह! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी इन्हें नहीं पहचाना—जिस तरह अमृतमय चन्द्रमा के समुद्र में रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं।
यादव लोग मन के भाव को ताड़ने वाले, बड़े समझदार और भगवान् के साथ एक ही स्थान में रहकर क्रीडा करने वाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्व के आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्ण को एक श्रेष्ठ यादव ही समझा। किंतु भगवान् की माया से मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थ का वैर ठानने वाले शिशुपाल आदि के अवहेलना और निन्दासूचक वाक्यों से भगवत्प्राण महानुभावों की बुद्धि भ्रम में नहीं पड़ती थी। जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इतने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान् श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रों को ही छीन लिया है। भगवान् ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिये मानव लीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरता की पराकष्ठा थी उस रूप में। उससे आभूषण (अंगों में गहने) भी विभूषित हो जाते । धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब भगवान् के उस नयनभिराम रूप पर लोगो की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानव-सृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूप में पूरी हो गयी है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)

उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओं की आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घर के काम-धंधों को अधुरा छोड़कर जड़ पुतलियों की तरह खड़ी रह जाती थीं। चराचर जगत् और प्रकृति के स्वामी भगवान् ने जब अपने शान्तरूप महात्माओं को अपने ही घोर रूप असुरों से सताये जाते देखा, तब वे ही करुणा भाव से द्रवित हो गये और अजन्मा होने पर भी अपने अंश बलरामजी के साथ काष्ठ में अग्नि के समान प्रकट हुए। अजन्मा होकर भी वसुदेवजी के यहाँ जन्म लेने की लीला करना, सबको अभय देने वाले होने पर भी मानो कंस के भय से व्रज में जाकर छिप रहना और अनन्त पराक्रमी होने पर भी कालयवन के सामने मथुरापुरी को छोड़कर भाग जाना-भगवान् की ये लीलाएँ याद आ-आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं। उन्होंने जो देवकी-वसुदेव की चरण-वन्दना करके कहा था—‘पिताजी, माताजी! कंस का बड़ा भय रहने के कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराध पर ध्यान न देकर मुझ पर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्ण की ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है। जिन्होंने कालरूप अपने भृकुटीविलास से ही पृथ्वी का सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्ण के पादपद्मपराग का सेवन करने वाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके। आप लोगों ने राजसूय यज्ञ में प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्ण से द्वेष करने वाले शिशुपाल को वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भलीभाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है। शिशुपाल के ही समान महाभारत-युद्ध में जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान् श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुखकमल का मकरन्द पान करते हुए अर्जुन के बाणों से बिंधकर प्राण त्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान् के परमधाम को प्राप्त हो गये। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकों के अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढ़कर तो कौन होगा। वे अपने स्वतःसिद्ध ऐश्वर्य से ही सर्वदा पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकार की भेंटे ला-लाकर अपने-अपने मुकुटों के अग्रभाग से उनके चरण रखने की चौकी को प्रणाम किया करते हैं।

विदुरजी! वे ही भगवान् श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर बैठे हुए उग्रसेन के सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव! हमारी प्रार्थना सुनिये।’ उनके इस सेवा-भाव की याद आते ही हम-जैसे सेवकों का चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है। पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नियत से उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवान् ने वह परम गति दी, जो धाय को मिलनी चाहिये। उन भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें। मैं असुरों को भी भगवान् का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैर भाव जनित क्रोध के कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था और उन्हें रणभूमि में सुदर्शन चक्रधारी भगवान् को कंधे पर चढ़ाकर झपटते हुए गरुड़जी के दर्शन हुआ करते थे। ब्रम्हाजी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारकर उसे सुखी करने के लिये कंस के कारागार में वसुदेव-देवकी के यहाँ भगवान् के अवतार लिया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 26-34 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय कंस के डर से पिता वसुदेवजी ने उन्हें नन्दबाबा के व्रज में पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजी के साथ ग्यारह वर्ष तक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव व्रज के बाहर किसी पर प्रकट नहीं हुआ। यमुना के उपवन में, जिसके हरे-भरे वृक्षों पर कलरव करते हुए पक्षियों के झुंड-के-झुंड रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्ण बछड़ों को चराते हुए ग्वालबालों की मण्डली के साथ विहार किया था। वे व्रजवासियों की दृष्टि आकृष्ट करने के लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी रोने-से लगते, कभी हँसते और कभी सिंहशावक के समान मुग्ध दृष्टि से देखते।
फिर कुछ बड़े होने पर वे सफ़ेद बैल और रंग-बिरंगी शोभा की मूर्ति गौओं को चराते हुए अपने साथी गोपों को बाँसुरी बजा-बजाकर रिझाने लगे। इसी समय जब कंस ने उन्हें मारने के लिये बहुत-से मायावी और मनमाना रूप धारण करने वाले राक्षस भेजे, तब उनको खेल-ही-खेल में भगवान् ने मार डाला—जैसे बालक खिलौनों को तोड़-फोड़ डालता । कालियनाग का दमन करके विष मिला हुआ जल पीने से मरे हुए ग्वालबालों और गौओं को जीवित कर उन्हें कालियदह का निर्दोष जल पीने की सुविधा दी। भगवान् श्रीकृष्ण ने बढ़े हुए धन का सद्व्यय कराने की इच्छा से श्रेष्ठ ब्राम्हणों के द्वारा नन्दबाबा से गोवर्धन पूजा रूप गोयज्ञ करवाया। भद्र! इससे अपना मान भंग होने के कारण जब इन्द्र ने क्रोधित होकर व्रज का विनाश करने के लिये मूसलधार जल बरसना आरम्भ किया, तब भगवान् ने करुणावश खेल-ही-खेल में छत्ते के समान गोवर्धन पर्वत को उठा लिया और अत्यन्त घबराये हुए व्रजवासियों की तथा उनके पशुओं की रक्षा की। सन्ध्या के समय जब सारे वृन्दावन में शरत् के चन्द्रमा की चाँदनी छिटक जाती, तब श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और गोपियों के मण्डल की शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ रासविहार करते।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान् के अन्य लीला चरित्रों का वर्णन"
उद्धवजी कहते हैं ;- इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को सुख पहुँचाने की इच्छा से बलदेवजी के साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रु समुदाय के स्वामी कंस को ऊँचे सिंहासन से नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाश को बड़े जोर से पृथ्वी पर घसीटा। सान्दीपनि मुनि के द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए सांगोपांग वेद का अध्ययन करके दक्षिणा स्वरुप उनके मरे हुए पुत्र को पंचजन नामक राक्षस के पेट से (यमपुरी से) लाकर दे दिया।
 भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी के सौन्दर्य से अथवा रुक्मी के बुलाने से जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिर पर पैर रखकर गान्धर्व विधि के द्वारा विवाह करने के लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणी को वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड़ अमृत कलश को ले आये थे। स्वयंवर में सात बिना नथे हुए बैलों को नाथकर नाग्नजिती (सत्या)-से विवाह किया। इस प्रकार मानभंग हो जाने पर मूर्ख राजाओं ने शस्त्र उठाकर राजकुमारी को छिनना चाहा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रों से उन्हें मार डाला। भगवान् विषयी पुरुषों की-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामा को प्रसन्न करने की इच्छा से उनके लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्र ने क्रोध से अंधे होकर अपने सैनिकों सहित उन पर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियों का क्रीडा मृग बना हुआ है।
अपने विशाल डील डौल से आकाश को भी ढक देने वाले अपने पुत्र भौमासुर को भगवान् के हाथ से मरा हुआ देखकर पृथ्वी ने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्तःपुर में प्रवेश किया। वहाँ भौमासुर द्वारा हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही खड़ी हो गयीं और सबसे महान् हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवन से तत्काल ही भगवान् को पतिरूप में वरण कर लिया।
 तब भगवान् ने अपनी निजशक्ति योगमाया से उन ललनाओं के अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग महलों में एक ही मुहूर्त में विधिवत् पाणिग्रहण किया। अपनी लीला का विस्तार करने के लिये उन्होंने उनमें से प्रत्येक के गर्भ से सभी गुणों में अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादि ने अपनी सेनाओं से मथुरा और द्वारकापुरी को घेरा था, तब भगवान् ने निजजनों को अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था। शम्बर, द्विविद्, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओं में से भी किसी को उन्होंने स्वयं मारा था किसी को दूसरों से मरवाया। इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं का भी संहार किया, जिनके सेना सहित कुरुक्षेत्र में पहुँचने पर पृथ्वी डगमगाने लगी थीं। कर्ण, दुःशासन और शकुनि की खोटी सलाह से जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थी तथा भीमसेन की गदा से जिसकी जाँघ टूट चुकी थीं, उस दुर्योधन को अपने साथियों के सहित पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)

वे सोचने लगे—यदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेन के द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेना का विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वी का कितना भार हलका हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्दुम्न आदि के बल से बढ़े हुए यादवों का दुःसह दल बना ही हुआ है। जब ये मधुपान से मतवाले हो लाल-लाल आँखें करके आपस में लड़ने लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असल में मेरे संकल्प करने पर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायँगे।
 यों सोंचकर भगवान् ने युधिष्ठिर को अपनी पैतृक राजगद्दी पर बैठाया और अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को सत्पुरुषों का मार्ग दिखाकर आनन्दित किया। उतरा के उदर में जो अभिमन्यु ने पुरुवंश का बीज स्थापित किया था, वह भी अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र से नष्ट-सा हो चुका था; किन्तु भगवान् ने उसे बचा लिया। उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से तीन अश्वमेध यज्ञ करवाये और वे भी श्रीकृष्ण के अनुगामी होकर अपने छोटे भाइयों की सहायता से पृथ्वी की रक्षा करते हुए बड़े आनन्द से रहने लगे। विश्वात्मा श्रीभगवान् ने भी द्वारकापुरी में रहकर लोक और वेद की मर्यादा का पालन करते हुए सब प्रकार के भोग भोगे, किन्तु सांख्य योग की स्थापना करने के लिये उनमें कभी आसक्त नहीं हुए। मधुर मुसकान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरता के निवास अपने श्रीविग्रह से लोक-परलोक और विशेषतया यादवों को आनन्दित किया तथा रात्रि में अपनी प्रियाओं के साथ क्षणिक अनुराग युक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया। इस तरह बहुत वर्षों तक विहार करते-करते उन्हें गृहस्थ-आश्रम-सम्बन्धी भोग-सामग्रियों से वैराग्य हो गया। ये भोग-सामग्रियाँ ईश्वर के अधीन हैं और जीव भी उन्हीं के अधीन है। जब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को ही उनसे वैराग्य हो गया तथा भक्तियोग के द्वारा उनका अनुगमन करने वाला भक्त तो उन पर विश्वास ही कैसे करेगा ?
 एक बार द्वारकापुरी में खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकों ने खेल-खेल में कुछ मुनीश्वरों को चिढ़ा दिया। तब यादवकुल का नाश ही भगवान् को अभीष्ट है—यह समझकर उन ऋषियों ने बालकों को शाप दे दिया। इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्ष से रथों पर चढ़कर प्रभास क्षेत्र को गये। वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थ के जल से पितर, देवता और ऋषियों का तर्पण किया तथा ब्राम्हणों को श्रेष्ठ गौएँ दीं। उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीविका चल सके तथा नाना प्रकार के सरस अन्न भी भगवदर्पण करके ब्राम्हणों को दिये। इसके पश्चात् गौ और ब्राम्हणों के लिये ही प्राण धारण करने वाले उन वीरों ने पृथ्वी पर सिर टेककर उन्हें प्रणाम की।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"उद्धवजी से विदा होकर विदुरजी का मैत्रेय ऋषि के पास जाना"
उद्धवजी ने कहा ;- फिर ब्राम्हणों की आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी। उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनों से एक-दूसरे के ह्रदय को चोट पहुँचाने लगे। मदिरा के नशे से उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपस की रगड़ से बाँसों में आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी। भगवान् अपनी माया की उस विचित्र गति को देखकर सरस्वती के जल से आचमन करके एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। इससे पहले ही शरणागतों का दुःख दूर करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ। विदुरजी! इससे यद्यपि मैं उनका आशय समझ गया था, तो भी स्वामी के चरणों का वियोग न सह सकने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे प्रभास क्षेत्र में पहुँच गया।
वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभि शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वती के तट पर अकेले ही बैठे हैं। दिव्य विशुद्ध-सत्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्ति से भरी रतनारी आँखें हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूर से ही पहचान लिया। वे एक पीपल के छोटे-से वृक्ष का सहारा लिये बायीं जाँघ पर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे। भोजन-पान का त्याग कर देने पर भी वे आनन्द से प्रफुल्लित हो रहे थे। इसी समय व्यासजी के प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकों में स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे। मैत्रेय मुनि भगवान् के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और भक्तिभाव से उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरि ने प्रेम एवं मुसकान युक्त चितवन से मुझे आनन्दित करते हुए कहा।

श्रीकृष्ण भगवान् कहते हैं ;- मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। उद्धव! तुम पूर्वजन्म में वसु थे। विश्व की रचना करने वाले प्रजापतियों और वसुओं के यज्ञ में मुझे पाने की इच्छा सही तुमने मेरी आराधना की थी। साधुस्वभाव उद्धव! संसार में तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मर्त्यलोक को छोड़कर अपने धाम में जाना चाहता हूँ।
 इस समय यहाँ एकान्त में तुमने अपनी अनन्य भक्ति के कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। पूर्वकाल (पाद्मकल्प)—के आरम्भ में मैंने अपने नाभिकमल पर बैठे हुए ब्रम्हा को अपनी महिमा के प्रकट करने वाले जिस श्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वही मैं तुम्हें देता हूँ।
विदुरजी! मुझ पर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुष की कृपा बरसा करती थी। इस समय उनके इस प्रकार आदर पूर्वक कहने से स्नेहवश मुझे रोमांच हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। उस समय मैंने हाथ जोड़कर उनसे कहा—। ‘स्वामिन्! आपके चरणकमलों की सेवा करने वाले पुरुषों को इस संसार में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—इस चारों में से कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि मुझे उनमें से किसी की इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलों की सेवा के लिये ही लालायित रहता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! आप निःस्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, काल रूप होकर भी शत्रु के डर से भागते हैं और द्वारका के किले में जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियों एक साथ रमण करते हैं—इन विचित्र चरित्रों को देखकर विद्वानों की बुद्धि भी चक्कर में पड़ जाती है। देव! आपका स्वरुप ज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेने के लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानी से मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो! आपकी वह लीला मेरे मन को मोहित-सा कर देती है। 

स्वामिन्! अपने स्वरुप का गूढ़ रहस्य प्रकट करने वाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रम्हाजी को बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी संसार-दुःख को सुगमता से पार कर जाऊँ’। जब मैंने इस प्रकार अपने ह्रदय का भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे अपने स्वरुप की परम स्थिति का उपदेश दिया। इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्ण से आत्म तत्व की उपलब्धि का साधन सुनकर तथा उन प्रभु के चरणों की वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस समय उनके विरह से मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। विदुरजी! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे ह्रदय को उनकी विरह व्यथा अत्यन्त पीड़ित कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रम को जा रहा हूँ, जहाँ भगवान् श्रीनारायणदेव और नर—ये दोनों ऋषि लोगों पर अनुग्रह करने के लिये दीर्घकालीन सौम्य, दूसरों को सुख पहुँचाने वाली एवं कठिन तपस्या कर रहे हैं।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- इस प्रकार उद्धवजी के मुख से अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञान द्वारा शान्त कर दिया। जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरों में प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा।

विदुरजी ने कहा ;- उद्धवजी! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरुप के गूढ़ रहस्य को प्रकट करने वाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान् के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य सिद्ध करने के लिये ही विचरा करते हैं। उद्धवजी ने कहा ;- उस तत्व ज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोक को छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान् ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा दी थी।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- इस प्रकार विदुरजी के साथ विश्वमूर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा होने से उस कथामृत के द्वारा उद्धवजी का वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया। यमुनाजी के तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। फिर प्रातःकाल होते ही वे वहाँ से चल दिये।

राजा परीक्षित् ने पूछा ;- भगवन्! वृष्णिकुल और भोजवंश के सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो गये थे। यहाँ तक कि त्रिलोकीनाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोड़ना पड़ा था। फिर उन सबके मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 29-33 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेवजी ने कहा ;- जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरि ने ब्राम्हणों के शाप रूप काल के बहाने अपने कुल का संहार कर अपने श्रीविग्रह को त्यागते समय विचार किया। ‘अब इस लोक से मेरे चले जाने पर संयमी शिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं। उद्धव मुझसे अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अतः लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा देते हुए वे यहीं रहे’। वेदों के मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधियोग द्वारा श्रीहरि की आराधना करने लगे। 
कुरुश्रेष्ठ परीक्षित्! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ाने वाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषों के लिये अत्यन्त दुष्कर था। परम भागवत उद्धवजी के मुख से उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होने का समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान् ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजी के चले जाने पर प्रेम से विह्वल होकर रोने लगे। इसके पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुना तट से चलकर कुछ दिनों में गंगाजी के किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी रहते थे।

                           {तृतीय स्कन्ध:}

                      【पञ्चम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"विदुरजी का प्रश्न और मैत्रेयजी का सृष्टि क्रम वर्णन"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वार क्षेत्र में) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए ह्रदय वाले विदुरजी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा।

विदुरजी ने कहा ;- भगवन्! संसार में सब लोग सुख के लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःख की वृद्धि ही होती है। अतः इस विषय में क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये। जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुःखी हैं, उन पर कृपा करने के लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसार में विचरा करते हैं। साधुशिरोमणि! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधन का उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करने से भगवान् अपने भक्तों के भक्तिपूत ह्रदय में आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरुप का अपरोक्ष अनुभव कराने वाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं। त्रिलोकी के नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टि की रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत् के जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होने पर भी इस ब्रम्हाण में अन्तर्यामी रूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपों में प्रकट होते हैं—वह सब रहस्य आप हमें समझाइये। ब्राम्हण, गौ और देवताओं के कल्याण के लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकार के दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये।
यशस्वियों के मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता। हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियों के स्वामी श्रीहरि ने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वत से बाहर के भोगों को, जिसमें ये सब प्रकार के प्राणियों के अधिकारानुसार भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्वों से रचा है।
 द्विजवर! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजा के स्वभाव, कर्म, रूप और नामों के भेद की किस प्रकार रचना की है ? भगवन्! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्ण कथामृत के प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प-सुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है। उन तीर्थपाद श्रीहरि के गुणानुवाद से तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओं के समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्यों के कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसार चक्र में डालने वाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं। भगवन्! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छा से ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषय सुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है। यह भगवत्कथा की रूचि श्रद्धालु पुरुष के ह्रदय में जब बढ़ने लगती है, तब अन्य विषयों से उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणों के निरन्तर चिन्तन से आनन्द मग्न हो जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)

मुझे तो उन शोचनीयों के भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषों के लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापों के कारण श्रीहरि की कथाओं से विमुख रहते हैं। हाय! काल भगवान् उनके अमूल्य जीवन को काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मन से व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तन में लगे रहते हैं। मैत्रेयजी! आप दीनों पर कृपा करने वाले हैं; अतः भौर जैसे फूलों में से रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओं में से इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्र-कीर्ति श्रीहरि की कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याण के लिये सुनाइये। उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने के लिये अपनी माया शक्ति को स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारों के द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये। 
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- जब विदुरजी ने जीवों के कल्याण के लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेयजी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा।

श्रीमैत्रेयजी बोले ;- साधुस्वभाव विदुरजी! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान् में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा। आप श्रीव्यासजी के औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्य भाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं। आप प्रजा को दण्ड देने वाले भगवान् यम ही हैं। माण्डव्य ऋषि का शाप होने के कारण ही आपने श्रीव्यासजी के वीर्य से उनके भाई विचित्रवीर्य की भोगपत्नी दासी के गर्भ से जन्म लिया । 

आप सर्वदा ही श्रीभगवान् और उनके भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा दे गये हैं। इसलिये अब मैं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये योगमाया के द्वारा विस्तारित हुई भगवान् कि विभिन्न लीलाओं का क्रमशः वर्णन करता हूँ। सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे—न द्रष्टा था न दृश्य! सृष्टिकाल में अनेक् वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी।
वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के समान समझने लगे। वस्तुतः वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्त्याँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था। इस द्रष्टा और दृश्य का अनुसन्धान करने वाली शक्ति ही—कार्यकारण रूपा माया है।
 महाभाग विदुरजी! इस भावाभाव रूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही भगवान् ने इस विश्व का निर्माण किया है। काल शक्ति से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश पुरुष रूप से उसमें चिदाभास रूप बीज स्थापित किया। तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महतत्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञान स्वरुप और अपने में सूक्ष्म रूप से स्थित प्रपंच की अभिव्यक्ति करने वाला था। फिर चिदाभास, गुण और काल के अधीन उस महतत्व ने भगवान् की दृष्टि पड़ने पर इस विश्व की रचना के लिये अपना रूपान्तर किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद)

महतत्व के विकृत होने पर अहंकार की उत्पत्ति हुई—जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्ता (अधिदैव) रूप होने के कारण भूत, इन्द्रिय और मन का कारण है। वह अहंकार वैकारिक (सात्विक), तैजस (राजस) और तामस-भेद से तीन प्रकार का है; अतः अहंतत्व के विकार होने पर वैकारिक अहंकार से मन और जिनसे विषयों का ज्ञान होता है वे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए। तैजस अहंकार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्द-तन्मात्र हुआ और उससे दृष्टान्त रूप से आत्मा का बोध कराने वाला आकाश उत्पन्न हुआ। भगवान् की दृष्टि जब आकाश पर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभास के योग से स्पर्श तन्मात्र हुआ और उसके विकृत होने पर उससे वायु की उत्पत्ति हुई। अत्यन्त बलवान् वायु ने आकाश के सहित विकृत होकर रूप तन्मात्र की रचना की और उससे संसार का प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ। फिर परमात्मा की दृष्टि पड़ने पर वायु युक्त तेज ने काल, माया और चिदंश के योग से विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जल को उत्पन्न किया। तदनन्तर तेज से युक्त जल ने ब्रम्हा का दृष्टिपात होने पर काल, माया और चिदंश के योग से गन्धगुणमयी पृथ्वी को उत्पन्न किया। विदुरजी! इन आकाशादि भूतों में से जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समझने चाहिये। ये महतात्वादि के अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांश विशिष्ट देवगण श्रीभगवान् के ही अंश हैं किन्तु पृथक्-पृथक् रहने के कारण जब वे विश्व रचना रूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान् से कहने लगे।

देवताओं ने कहा ;- देव! हम आपके चरण-कमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरण में आये हुए जीवों का ताप दूर करने के लिये छत्र के समान हैं तथा इनका आश्रय लेने से यतिजन अनन्त संसार दुःख को सुगमता से ही दूर फेंक देते हैं। जगत्कर्ता जगदीश्वर! इस संसार में तापत्रय से व्याकुल रहने के कारण जीवों को जरा भी शान्ति नहीं मिलती। 
इसलिये भगवन्! हम आपके चरणों की ज्ञानमयी छाया का आश्रय लेते हैं। मुनिजन एकान्त स्थान में रहकर आपके मुखकमल का आश्रय लेने वाले वेद मन्त्र रूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगाजी के उद्गम स्थान हैं, आपके उन परम पावन पाद पद्मों का हम आश्रय लेते हैं। हम आपके चरणकमलों की उस चौकी का आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवण-कीर्तनादि रूप भक्ति से परमार्जित अन्तःकरण में धारण करके करके वैराग्य पुष्ट ज्ञान के द्वारा परम धीर हो जाते हैं। ईश! आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करने वाले भक्तजनों को अभय कर देते हैं। जिन पुरुषों का देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममता का दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीर में (आपके अन्तर्यामी रूप से) रहने पर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दों को हम भजते हैं। परम यशस्वी परमेश्वर! इन्द्रियों के विषयाभिमुख रहने के कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामर लोग आपके विलास पूर्ण पाद विन्यास की शोभा के विशेषज्ञ भक्तजनों के दर्शन नहीं कर पाते; इसी से वे आपके चरणों से दूर रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 45-50 का हिन्दी अनुवाद)

देव! आपके कथामृत का पान करने से उमड़ी हुई भक्ति के कारण जिनका अन्तःकरण निर्मल हो गया है, वे लोग—वैराग्य ही जिसका सार है—ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधाम को चले जाते हैं। दूसरे धीरे पुरुष चित्त निरोध रूप समाधि के बल से आपकी बलवती माया को जीतकर आपमें ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवा के मार्ग में कुछ भी कष्ट नहीं है। आदिदेव! आपके सृष्टि रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाव वाले होने के कारण हम आपस में मिल नहीं पाते और इसी से आपकी क्रीडा के साधन रूप ब्रम्हाण्ड की रचना करके उसे आपको समर्पण करने में असमर्थ हो रहे हैं।
 अतः जन्मरहित भगवन्! जिससे हम ब्रम्हाण्ड रचकर आपको सब प्रकार के भोग समय पर समर्पण कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी आपनी योग्यता के अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को भोग समर्पण करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजि। आप निर्विकार पुराण पुरुष ही अन्य कार्य वर्ग के सहित हम देवताओं के आदि कारण हैं। देव! पहले आप अजन्मा ही ने सत्ववादि गुण और जन्मादि कर्मों की कारण रूपा माया शक्ति में चिदाभास रूप वीर्य स्थापित किया था। परमात्मादेव! महतत्वादि रूप हम देवगण जिस कार्य के लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्ध में हम क्या करें ? देव! हम पर आप ही अनुग्रह करने वाले हैं। इसलिये ब्रम्हाण्ड रचना के लिये आप हमें क्रिया शक्ति के सहित अपनी ज्ञान शक्ति भी प्रदान कीजिये।

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