सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( द्वितीय स्कन्धः ) का षष्ठ , सप्तम, अष्टम, नवम व दशम अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Second wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( द्वितीय स्कन्धः ) का षष्ठ , सप्तम, अष्टम, नवम व दशम अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Second wing) ]




                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【षष्ठ अध्याय:】



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"विराट्स्वरुप की विभूतियों का वर्णन"
ब्रम्हाजी कहते हैं ;- उन्हीं विराट् पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि उत्पन्न हुए है। सातों छन्द उनकी सात धातुओं से निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओं के भोजन करने योग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकार के रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृ वरुण विराट् पुरुष की चिह्वा से उत्पन्न हुए हैं । उनके नासाछिद्रों से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान—ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्विकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं । उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेज की तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्य की जन्मभूमि हैं। 
समस्त दिशाएँ और पवित्र करने वाले तीर्थ कानों से तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। उनका शरीर संसार की सभी वस्तुओं का सार भाग तथा सौन्दर्य का खजाना है । सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी त्वचा से निकले हैं; उनके रोम सभी उद्धिज्ज पदार्थों का जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हीं के, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं । उनके केश, दाढ़ी-मूँछ और नखों से मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओं से प्रायः संसार की रक्षा करने वाले लोकपाल प्रकट हुए हैं ।
 उनका चलना-फिरना भूः, भुवः, स्वः—तीनों लोकों का आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्त की रक्षा करते हैं और भयों को भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति उन्हीं से होती है । विराट् पुरुष का लिंग जल,वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी जननेद्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है । नारदजी विराट् पुरुष की पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मल त्याग का तथा गुदा द्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरक का उत्पत्ति स्थान है । 


उनकी पीठ से पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाड़ियों से नद-नदी और हड्डियों से पर्वतों का निर्माण हुआ है । उनके उदार में मूल प्रकृति, रस नाम की धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका ह्रदय ही मन की जन्मभूमि है । नारद! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शंकर, विज्ञान और अन्तःकरण—सब-के-सब उनके चित्त के आश्रित हैं । (कहाँ तक गिनायें—) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शंकर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगने वाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और नाना प्रकार के जीव—जो आकाश, जल या स्थल में रहते हैं—ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे) तारे, बिजली और बादल—ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्व—जो कुछ कभी था, है या होगा—सबको वह घेरे हुए है और उसके अन्दर यह विश्व उसके केवल दस अंगुल एक परिमाण में ही स्थित है । जैसे सूर्य अपने मण्डल को प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराण पुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर—सर्वत्र एक रस प्रकाशित हो रहा है । 
मुनिवर! जो कुछ मनुष्य की क्रिया और संकल्प से बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभय पद (मोक्ष)-का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमा का पार नहीं पा सकता ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

सम्पूर्ण लोक भगवान् के एक पाद मात्र (अंश मात्र) हैं, तथा उनके अंश मात्र लोकों में समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्य लोकों में क्रमशः अमृत, क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है । जन, तप और सत्य—इन तीनों लोकों में ब्रम्हचारी, वानप्रस्थ एवं सन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रम्हचर्य से रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के भीतर ही निवास करते हैं ।
 शास्त्रों में दो मार्ग बतलाये गये हैं—एक अविद्या रूप कर्म मार्ग, जो सकाम पुरुषों के लिये है और दूसरा उपासना रूप विद्या का मार्ग, जो निष्काम उपासकों के लिये है। मनुष्य दोनों में से किसी एक का आश्रय लेकर भोग प्राप्त कराने वाले दक्षिण मार्ग से अथवा मोक्ष प्राप्त कराने वाले उत्तर मार्ग से यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम-भगवान् दोनों के आधारभूत हैं । जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मा से इस अण्ड की और पंचभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट् की उत्पत्ति हुई है—वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओं के अन्दर और उनके रूप में रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं । जिस समय इस विराट् पुरुष के नाभि कमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुष के अंगों के अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञ की सामग्री नहीं मिली । 
तब मैंने उनके अंगों में ही यज्ञ के पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञ के योग्य उत्तम काल की कल्पना की । ऋषिश्रेष्ठ! यज्ञ के लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल आदि ओषधियाँ,, घृत आदि स्नेह पदार्थ, छः रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजुः, साम, चातुर्होत्र, यज्ञों के नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओं के नाम, पद्धति ग्रन्थ, संकल्प, तन्त्र (अनुष्ठान की रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित और समर्पण—यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुष के अंगों से ही इकट्ठी की । इस प्रकार विराट् पुरुष के अंगों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरुप परमात्मा का यज्ञ के यजन किया । तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियों ने अपने चित्त को पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामी रूप से स्थित उस पुरुष की आराधना की । इसके पश्चात् समय-समय पर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्यों ने यज्ञों के द्वारा भगवान् की आराधना की । 


नारद! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायण में स्थित है जो स्वयं तो प्राकृत गुणों से रहित हैं, परन्तु सृष्टि के प्रारम्भ में माया के द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं । उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूँ। उन्हीं के अधीन होकर रूद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु के रूप से इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्व, रज और तम की तीन शक्तियाँ-स्वीकार कर रखी हैं । बेटा! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान् से भिन्न हो ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 33-45 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे नारद! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित ह्रदय से भगवान् के स्मरण में मग्न रहता हूँ, इसी से मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादा का उल्लंघन करके कुमार्ग में नहीं जातीं । मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठा से योग का सर्वांग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूल कारण परमात्मा के स्वरुप को नहीं जान सका । (क्योंकि वे तो एकमात्र भक्ति से ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मंगलमय एवं शरण आये हुए भक्तों को जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले परम कल्याण स्वरुप भगवान् के चरणों को ही नमस्कार करता हूँ। उनकी माया की शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्त को नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमा का विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थिति में दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं ? मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शंकरजी भी उनके सत्यस्वरुप को नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी माया के द्वारा रचे हुए जगत् को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही अटकल लगाते हैं । हम लोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्व को नहीं जानते—उन भगवान् के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ । वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्प में वे स्वयं अपने-आप में अपने-आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं। वे माया के लेश से रहित, केवल ज्ञान स्वरुप हैं और अन्तरात्मा के रूप में एकरस स्थित हैं। वे तीनों काल में सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि न अन्त। वे तीनों गुणों से रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं ।
 नारद! महात्मा लोग जिस समय अपने अन्तःकरण, इन्द्रिय और शरीर को शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषों के द्वारा कुतर्कों का जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते । परमात्मा का पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्राम्हण-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जंगम जीव—सब-के-सब उन अनन्त भगवान् के ही रूप हैं । मैं, शंकर, अन्य भक्तजन, स्वर्ग लोक के रक्षक, पक्षियों के राजा, मनुष्य लोक के राजा, नीचे के लोकों के राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणों के अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागों के स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेम-पिशाच, भूत-कुष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियों के स्वामी; एवं संसार में और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमा से युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैं—वे सब-के-सब परमतत्वमय भगवत्स्वरूप ही हैं । नारद! इनके सिवा परम पुरुष परमात्मा के परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रों में वर्णित हैं। उनका मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुनने में बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रिय के दोषों को दूर को दूर करने वाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ।

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【सप्तम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तमअध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान् के लीलावतारों की कथा"
ब्रम्हाजी कहते हैं ;- अनन्त भगवान् ने प्रलय के जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने के लिये समस्त यज्ञमय वराह शरीर ग्रहण किया था। आदि दैत्य हिरण्याक्ष जल के अंदर ही लड़ने के लिये उनके सामने आया। जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पर्वतों के पंख काट डाले थे, वैसे ही वराह भगवान् ने अपनी दाढ़ों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । 
फिर उन्हीं प्रभु ने रूचि नामक प्रजापति की पत्नी आकृति के गर्भ से सुयज्ञ के रूप में अवतार ग्रहण किया। उस अवतार में उन्होंने दक्षिणा नाम की पत्नी से सुयम नाम के देवताओं को उत्पन्न किया और तीनों लोकों के बड़े-बड़े संकट हर लिये। इसी से स्वायम्भुव मनु ने उन्हें ‘हरि’ के नाम से पुकारा । 


नारद! कर्दम प्रजापति के घर देवहूति के गर्भ से नौ बहिनों के साथ भगवान् ने कपिल के रूप में अवतार ग्रहण किया। उन्होंने अपनी माता को उस आत्मज्ञान का उपदेश किया, जिससे वे इसी जन्म में अपने ह्रदय के सम्पूर्ण मल—तीनों गुणों की आसक्ति का सारा कीचड़ धोकर कपिल भगवान् के वास्तविक स्वरुप को प्राप्त हो गयीं । महर्षि अत्रि भगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त करना चाहते थे। उन पर प्रसन्न होकर भगवान् ने उनसे एक दिन कहा कि ‘मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया।’ इसी से अवतार लेने पर भगवान् का नाम ‘दत्त’ (दत्तात्रेय) पड़ा। उनके चरणकमलों के पराग से अपने शरीर को पवित्र करके राजा यदु और सहस्त्रार्जुन आदि ने योग की, भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त कीं । नारद! सृष्टि के प्रारम्भ में मैंने विविध लोकों को रचने की इच्छा से तपस्या की। मेरे उस अखण्ड तप से प्रसन्न होकर उन्होंने ‘तप’ अर्थ वाले ‘सन’ नाम से युक्त होकर सनद, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार के रूप में अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने प्रलय के कारण पहले कल्प के भूले हुए आत्मज्ञान का ऋषियों के प्रति यथावत् उपदेश किया, जिससे उन लोगों ने तत्काल परम तत्व का अपने ह्रदय में साक्षात्कार कर लिया । धर्म की पत्नी दक्ष कन्या मूर्ति के गर्भ से वे नर-नारायण के रूप में प्रकट हुए। उनकी तपस्या का प्रभाव उन्हीं के जैसा है। इन्द्र की भेजी हुई काम की सेना अप्सराएँ उनके सामने जाते ही अपना स्वभाव खो बैठीं। वे अपने हाव-भाव से उन आत्मस्वरुप भगवान् की तपस्या में विघ्न नहीं डाल सकीं । नारद! शंकर आदि महानुभाव अपनी रोष भरी दृष्टि से कामदेव को जला देते हैं, परंतु अपने-आपको जलाने वाले असह्य क्रोध को वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायण के निर्मल ह्रदय में प्रवेश करने के पहले ही दर्द के मारे काँप जाता है। फिर भला, उनके ह्रदय में काम का प्रवेश तो हो ही कैसे सकता है ।
 अपने पिता राजा उत्तानपाद के पास बैठे हुए पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को उनकी सौतेली माता सुरुचि ने अपने वचन-बाणों से बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होने पर भी वे उस ग्लानि से तपस्या करने के लिये वन में चले गये। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान् प्रकट हुए और उन्होंने ध्रुव को ध्रुवपद का वरदान किया। आज भी ध्रुव के ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तमअध्यायः श्लोक 9-17 का हिन्दी अनुवाद)

कुमार्गगामी वेन का ऐश्वर्य और पौरुष ब्राम्हणों के हुंकार रूपी वज्र से जलकर भस्म हो गया। वह नरक में गिरने लगा। ऋषियों की प्रार्थना पर भगवान् ने उसके शरीर मन्थन से पृथु के रूप में अवतार धारण कर उसे नरकों से उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र’ शब्द को चरितार्थ किया। उसी अवतार में पृथ्वी को गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत् के लिये समस्त ओषधियों का दोहन किया । राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से भगवान् ने ऋषभ देव के रूप में जन्म लिया। इस अवतार में समस्त आसक्तियों से रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरुप में स्थित होकर समदर्शी के रूप में उन्होंने जड़ों की भाँति योगचर्या का आचरण किया। इस स्थिति को महर्षि लोग परमहंस पद अथवा अवधूतचर्या करते हैं । इसके बाद स्वयं उन्हीं यज्ञपुरुष ने मेरे यज्ञ में स्वर्ण के समान कान्ति वाले हयग्रीव के रूप में अवतार ग्रहण किया। भगवान् का यह विग्रह, वेदमय, यज्ञमय और सर्वदेवमय है। उन्हीं की नासिका से श्वास के रूप में वेदवाणी प्रकट हुई । चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में भावी मनु सत्यव्रत ने मत्स्यरूप में भगवान् को प्राप्त किया था। उस समय पृथ्वी रूप नौका के आश्रय होने के कारण वे ही समस्त जीवों के आश्रय बने। प्रलय के उस भयंकर जल में मेरे मुख से गिरे हुए वेदों को लेकर वे उसी में विहार करते रहे । जब मुख्य-मुख्य देवता और दानव अमृत की प्राप्ति के लिये क्षीरसागर को मथ रहे थे, तब भगवान् ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर पर मंदराचल धारण किया। उस समय पर्वत के घूमने के कारण उसकी रगड़ से उनकी पीठ की खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणों तक सुख की नींद सो सके । देवताओं का महान् भय मिटाने के लिये उन्होंने नृसिंह का रूप धारण किया। फड़कती हुई भौंहों और तीखी दाढ़ों से उनका मुख बड़ा भयावना लगता था। हिरण्यकशिपु उन्हें देखते ही हाथ में गदा लेकर उन पर टूट पड़ा। इस पर भगवान् नृसिंह ने दूर से ही उसे पकड़कर अपनी जाँघों पर डाल लिया और उसके छटपटाते रहने पर भी अपने नखों से उसका पेट फाड़ डाला । 
बड़े भारी सरोवर में महाबली ग्राह ने गजेन्द्र का पैर पकड़ लिया। जब बहुत थककर वह घबरा गया, तब उसने सूँड में कमल लेकर भगवान् को पुकारा—‘हे आदि पुरुष! हे समस्त लोकों के स्वामी! हे श्रवणमात्र से कल्याण करने वाले!’ । उसकी पुकार सुनकर अनन्तशक्ति भगवान् चक्रपाणि गरुड़ की पीठ पर चढ़कर वहाँ आये और अपने चक्र से उन्होंने ग्राह का मस्तक उखाड़ डाला। इस प्रकार कृपा परवश भगवान् ने अपने शरणागत गजेन्द्र की सूँड पकड़कर उस विपत्ति से उसका उद्धार किया ।
 भगवान् वामन अदिति के पुत्रों में सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों की दृष्टि से वे सबसे बड़े थे। क्योंकि यज्ञ पुरुष भगवान् ने इस अवतार में बलि के संकल्प छोड़ते ही सम्पूर्ण लोकों को अपने चरणों से ही नाप लिया था। वामन बनकर उन्होंने तीन पग पृथ्वी के बहाने बलि से सारी पृथ्वी ले तो ली, परन्तु इससे यह बात सिद्ध कर दी कि सन्मार्ग पर चलने वाले पुरुषों याचना के सिवा और किसी उपाय से समर्थ पुरुष भी अपने स्थान से नहीं हटा सकते, ऐश्वर्य से च्युत नहीं कर सकते ।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तमअध्यायः श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)

दैत्यराज बलि ने अपने सिर पर स्वयं वामन भगवान् का चरणामृत धारण किया था। ऐसी स्थिति में उन्हें जो देवताओं के राजा इन्द्र की पदवी मिली, इसमें कोई बलि का पुरुषार्थ नहीं था। अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी वे अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए। और तो क्या, भगवान् का तीसरा पग पूरा करने के लिये उनके चरणों में सिर रखकर उन्होंने अपने-आप को भी समर्पित कर दिया । 
नारद! तुम्हारे अत्यन्त प्रेम भाव से परम प्रसन्न होकर हंस के रूप में भगवान् ने तुम्हें योग, ज्ञान और आत्मतत्व को प्रकाशित करने वाले भागवत धर्म का उपदेश किया। वह केवल भगवान् के शरणागत भक्तों को ही सुगमता से प्राप्त होता है । वे ही भगवान् स्वायम्भुव आदि मन्वन्तरों में मनु के रूप में अवतार लेकर मनुवंश की रक्षा करते हुए दासों दिशाओं में अपने सुदर्शन चक्र के समान तेज से बरोक-टोक—निष्कण्टक राज्य करते हैं। तीनों लोकों के ऊपर सत्यलोक तक उनके चरित्रों की कमनीय कीर्ति फैल जाती है और उसी रूप में वे समय-समय पर पृथ्वी के भारभूत दुष्ट राजाओं का दमन भी करते रहते हैं । स्वनामधन्य भगवान् धन्वन्तरि अपने नाम से ही बड़े-बड़े रोगियों के रोग तत्काल नष्ट कर देते हैं। उन्होंने अमृत पिलाकर देवताओं को अमर कर दिया और दैत्यों के द्वारा हरण किये हुए उनके यज्ञभाग उन्हें फिर से दिला दिये। उन्होंने ही अवतार लेकर संसार में आयुर्वेद का प्रवर्तन किया । जब संसार में ब्राम्हणद्रोही आर्य मर्यादा का उल्लंघन करने वाले नारकीय क्षत्रिय अपने नाश के लिये ही देववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वी के काँटें बन जाते हैं, तब भगवान् महापराक्रमी परशुराम के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धार वाले फरसे से इक्कीस बार उनका संहार करते हैं । मायापति भगवान् हम पर अनुग्रह करने के लिये अपनी कलाओं—भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण एक साथ श्रीराम के रूप से इक्ष्वाकु के वंश में अवतीर्ण होते हैं। इस अवतार में अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये अपनी पत्नी और भाई के साथ वे वन में निवास करते हैं। उसी समय उनसे विरोध करके रावण उनके हाथों मरता है । त्रिपुर विमान की जलाने के लिये उद्दत शंकर के समान, जिस समय भगवान् राम शत्रु की नगरी लंका को भस्म करने के लिये समद्र तट पर पहुँचते हैं, उस समय सीता के वियोग के कारण बढ़ी हुई क्रोधाग्नि से उनकी आँखें इतनी लाल हो जाती हैं कि उनकी दृष्टि से ही मगरमच्छ, साँप और ग्राह आदि जीव जलने लगते हैं और भय से थर-थर काँपता हुआ समुद्र झटपट उन्हें मार्ग दे देता है ।
 जब रावण की कठोर छाती से टकराकर इन्द्र के वाहन ऐरावत के दाँत चूर-चूर होकर चारों ओर फैल गये थे, जिससे दिशाएँ सफेद हो गयी थीं, तब दिग्विजयी रावण घमंड से फूलकर हँसने लगा था। वही रावण जब श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी सीताजी को चुराकर ले जाता है और लड़ाई के मैदान में उनसे लड़ने के लिये गर्वपूर्वक आता है, तब भगवान् श्रीराम के धनुष की टंकार से ही उसका वह घमंड प्राणों के साथ तत्क्षण विलीन हो जाता है ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तमअध्यायः श्लोक 26-33 का हिन्दी अनुवाद)

जिस समय झुंड-के-झुंड दैत्य पृथ्वी को रौंद डालेंगे उस समय उसका भार उतारने के लिये भगवान् अपने सफ़ेद और काले केश से बलराम और श्रीकृष्ण के रूप में कलावतार ग्रहण करेंगे। वे अपनी महिमा को प्रकट करने वाले इतने अद्भुत चरित्र करेंगे कि संसार के मनुष्य उनकी लीलाओं का रहस्य बिलकुल नहीं समझ सकेंगे । बचपन में ही पूतना के प्राण हर लेना, तीन महीने की अवस्था में पैर उछालकर बड़ा भारी छकड़ा उलट देना और घुटनों के बल चलते-चलते आकाश को छूने वाले यमलार्जुन वृक्षों के बीच में जाकर उन्हें उखाड़ डालना—ये सब ऐसे कर्म हैं, जिन्हें भगवान् के सिवा और कोई नहीं कर सकता । जब कालियनाग के विष से दूषित हुआ यमुना-जल पीकर बछड़े और गोप बालक मर जायँगे, तब वे अपनी सुधामयी कृपा-दृष्टि की वर्षा से ही उन्हें जीवित कर देंगे और यमुना-जल शुद्ध करने के लिये वे उसमें विहार करेंगे तथा विष की शक्ति से जीभ लपलपाते हुए कालियनाग को वहाँ से निकाल देंगे । उसी दिन रात को जब सब लोग वहीं यमुना-तट पर सो जायँगे और दावाग्नि से आस-पास का मूँज का वन चारों ओर से जलने लगेगा, तब बलरामजी के साथ वे प्राण संकट में पड़े हुए व्रजवासियों को उनकी आँखें बंद कराकर उस अग्नि से बचा लेंगे। उनकी यह लीला भी अलौंकिक ही होगी। उनकी शक्ति वास्तव में अचिन्त्य है । उनकी माता उन्हें बाँधने के लिये जो-जो रस्सी लायेंगी वही उनके उदर में पूरी नहीं पड़ेगी, दो अंगुल छोटी ही रह जायगी। तथा जँभाई लेते समय श्रीकृष्ण के मुख में चौदहों भुवन देखकर पहले तो यशोदा भयभीत हो जायँगी, परन्तु फिर वे सँभल जायँगी । वे नन्दबाबा को अजगर के भय से और वरुण के पाश से छुडायेंगे। मय दानव का पुत्र व्योमासुर जब गोपबालों को पहाड़ की गुफाओं में बन्द कर देगा, तब वे उन्हें भी वहाँ से बचा लायेंगे। गोकुल के लोगों को, जो दिन भर तो काम-धंधों में व्याकुल रहते हैं और रात को अत्यन्त थककर सो जाते हैं, साधानाहीन होने पर भी, वे अपने परमधाम में ले जायँगे । निष्पाप नारद! जब श्रीकृष्ण की सलाह से गोप लोग इन्द्र का यज्ञ बंद कर देंगे, तब इन्द्र व्रजभूमि का नाश करने के लिये चारों ओर से मूसलधार वर्षा करने लगेंगे। उससे उनकी तथा उनके पशुओं की रक्षा करने के लिये भगवान् कृपापरवश हो सात वर्ष की अवस्था में ही सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत को एक ही हाथ से छत्रकपुष्प (कुकुरमुत्ते)—की तरह खेल-खेल में ही धारण किये रहेंगे । वृन्दावन में विहार करते हुए रास करने की इच्छा से वे रात के समय, जब चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी चारों ओर छिटक रही होगी, अपनी बाँसुरी पर मधुर संगीत की लम्बी तान छेड़ेंगे। उससे प्रेमविवश होकर आयी हुई गोपियों को जब कुबेर का सेवक शंखचूड़ हरण करेगा, तब वे उसका सिर उतार लेंगे ।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तमअध्यायः श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद)

और भी बहुत-से प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, अरिष्टासुर आदि दैत्य, चाणूर आदि पहलवान, कुवलयापीड हाथी, कंस, कालयवन, भौमासुर, मिथ्या वासुदेव, शाल्व, द्विविद वानर, बल्वल, दन्तवक्त्र, राजा नग्नजित् के सात बैल, शम्बरासुर, विदूरथ और रुक्मी आदि तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, कैकय और सृंजय आदि देशों के राजा लोग एवं जो भी योद्धा धनुष धारण करके युद्ध के मैदान में सामने आयेंगे, वे सब बलराम, भीमसेन और अर्जुन आदि नामों की आड़ से स्वयं भगवान् के द्वारा मारे जाकर उन्हीं के धाम में चले जायँगे । 
समय के फेर से लोगों की समझ कम हो जाती है, आयु भी कम होने लगती है। उस समय जब भगवान् देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्व को बतलाने वाली वेदवाणी को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्प में सत्यवती के गर्भ से व्यास के रूप में प्रकट होकर वे वेदरूपी वृक्ष का विभिन्न शाखाओं के रूप में विभाजन कर देते हैं । देवताओं के शत्रु दैत्य लोग भी वेद मार्ग का सहारा लेकर मयदानव के बनाये हुए अदृश्य वेग वाले नगरों में रहकर लोगों का सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान् लोगों की बुद्धि में मोह और अत्यन्त लोभ उत्पन्न करने वाला वेष धारण करके बुद्ध के रूप में बहुत-से उपधर्मों का उपदेश करेंगे । कलियुग के अन्त में जब सत्पुरुषों के घर भी भगवान की कथा होने में बाधा पड़ने लगेगी; ब्राम्हण, क्षत्रिय तथा वैश्य पाखण्डी और शूद्र राजा हो जायँगे, यहाँ तक कि कहीं भी स्वाहा’, ‘स्वथा’ और ‘वषट्कार’ की ध्वनि—देवता-पितरों के यज्ञ श्राद्ध की बात तक नहीं सुनायी पड़ेगी, तब कलियुग का शासन करने के लिये भगवान् कल्कि अवतार ग्रहण करेंगे । जब संसार की रचना का समय होता है, तब तपस्या, नौ प्रजापति, मरीचि आदि ऋषि और मेरे रूप में; जब सृष्टि की रक्षा का समय होता है, तब धर्म, विष्णु, मनु, देवता और राजाओं के रूप में तथा जब सृष्टि के प्रलय का समय होता है, तब अधर्म, रूद्र तथा क्रोधवन नाम के सर्प एवं दैत्य आदि के रूप में सर्वशक्तिमान् भगवान् की माया-विभूतियाँ ही प्रकट होती हैं । अपनी प्रतिभा के बल से पृथ्वी के एक-एक धूलिकण को गिन चुकने पर भी जगत् में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान् की शक्तियों की गणना कर सके। जब वे त्रिविक्रम-अवतार लेकर त्रिलोकी को नाप रहे थे, उस समय उनके चरणों में अदम्य वेग से प्रकृति रूप अन्तिम आवरण से लेकर सत्यलोक तक सारा ब्राम्हण काँपने लगा था। तब उन्होंने ही अपनी शक्ति से उसे स्थिर किया था । समस्त सृष्टि की रचना और संहार करने वाली माया उनकी एक शक्ति है। ऐसी-ऐसी अनन्त शक्तियों के आश्रय उनके स्वरुप को न मैं जानता हूँ और न वे तुम्हारे बड़े भाई सनकादि ही; फिर दूसरों का तो कहना ही क्या है। आदि देव भगवान् शेष सहस्त्र मुख से उनके गुणों का गायन करते आ रहे हैं; परन्तु वे अब भी उसके अन्त की कल्पना नहीं कर सके । जो निष्कपट भाव से अपना सर्वस्व और अपने-आपको भी उनके चरणकमलों में निछावर कर देते हैं, उन पर वे अनन्त भगवान् स्वयं ही अपनी ओर से दया करते हैं और उनकी दया के पात्र ही उनकी दुस्तर माया का स्वरुप जानते हैं और उसके पार जा जाते हैं। वास्तव में ऐसे पुरुष ही कुत्ते और सियारों के कलेवा रूप अपने और पुत्रादि के शरीर में ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव नहीं करते ।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तमअध्यायः श्लोक 43-53 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे नारद! परम पुरुष की उस योगमाया को मैं जानता हूँ तथा तुम लोग, भगवान् शंकर, दैत्यकुलभूषण प्रह्लाद, शतरूपा, मनु, मनुपुत्र प्रियव्रत आदि, प्राचीनबर्हि, ऋभु और ध्रुव भी जानते हैं । इनके सिवा इक्ष्वाकु, पुरुरवा, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, ययाति आदि तथा मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि अमूर्तरय, दिलीप, सौभरि, उर्तक, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिशेण एवं विभीषण, हनुमान्, शुकदेव, अर्जुन, आरिर्ष्टिषेण, विदुर और श्रुतदेव आदि महात्मा भी जानते हैं । 
जिन्हें भगवान् के प्रेमी भक्तों का-सा स्वभाव बनाने की शिक्षा मिली हैं, वे स्त्री, शूद्र, हूण, भील और पाप के कारण पशु-पक्षी आदि योनियों में रहने वाले भी भगवान् की माया का रहस्य जान जाते हैं और इस संसार सागर से सदा के लिये पार हो जाते हैं; फिर जो लोग वैदिक सदाचार का पालन करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है । परमात्मा का वास्तविक स्वरुप एकरस, शान्त, अभय एवं केवल ज्ञानस्वरुप है। न उसमें माया का मल है और न तो उसके द्वारा रची हुई विषमताएँ ही। वह सत् और असत् दोनों से परे है। किसी भी वैदिक या लौकिक शब्द की वहाँ तक पहुँच नहीं है। अनेक प्रकार के साधनों से सम्पन्न होने वाले कर्मों का फल भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकता। और तो क्या, स्वयं माया भी उसके सामने नहीं जा पाती, लजाकर भाग खड़ी होती है । परमपुरुष भगवान् का वही परमपद है। महात्मा लोग उसी का शोकरहित अनन्त आनन्दस्वरुप ब्रम्ह के रूप में साक्षात्कार करते हैं। सयंमशील पुरुष उसी में अपने मन को सम्माहित करके स्थित हो जाते हैं। जैसे इन्द्र स्वयं मेघ रूप से विद्यमान होने के कारण जल के लिये कुआँ खोदने की कुदाल नहीं रखते वैसे ही वे भेद दूर करने वाले ज्ञान-साधनों को भी छोड़ देते हैं । समस्त कर्मों के फल भी भगवान् ही देते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार जो शभ कर्म करता है, वह सब उन्हीं की प्रेरणा से होता है। इस शरीर में रहने वाले पंचभूतों के अलग-अलग हो जाने पर जब—यह शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी इसमें रहने वाला अजन्मा पुरुष आकाश के समान नष्ट नहीं होता । बेटा नारद! संकल्प से विश्व की रचना करने वाले षडैश्वर्य सम्पन्न श्रीहरि का मैंने तुम्हारे सामने संक्षेप से वर्णन किया। जो कुछ कार्य-कारण अथवा भाव-अभाव है, वह सब भगवान् से भिन्न नहीं है। फिर भी भगवान् तो इससे पृथक् भी हैं ही । भगवान् ने मुझे जो उपदेश किया था, वह यही ‘भागवत’ है। इसमें भगवान् की विभूतियों का संक्षिप्त वर्णन है। तुम इसका विस्तार करो । जिस प्रकार सबके आश्रय और सर्वस्वरुप भगवान् श्रीहरि में लोगों की प्रेममयी भक्ति हो, ऐसा निश्चय करके इसका वर्णन करो । जो पुरुष भगवान् की अचिन्त्य शक्ति माया का वर्णन या दूसरे के द्वारा किये हुए वर्णन का अनुमोदन करते हैं अथवा श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण करते हैं, उनका चित्त माया से कभी मोहित नहीं होता ।

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【अष्टम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्न
राजा परीक्षित् ने कहा ;- भगवन्! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रम्हाजी ने निर्गुण भगवान् के गुणों का वर्णन करने के लिये नारदजी को आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किन को किस रुप में उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियों के आश्रय भगवान् की कथाएँ ही लोगों का परम मंगल करने वाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सबको भगवद्दर्शन कराने का स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये महाभाग्यवान् शुकदेवजी! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मन को सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ । जो लोग उनकी लीलाओं का श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदय में थोड़े ही समय में भगवान् प्रकट हो जाते हैं । श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों भक्तों के भावमय ह्रदयकमल पर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जल का गँदलापन मिटा देती है, वैस ही वे भक्तों के मनोमल का नाश कर देते हैं । जिसका ह्रदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के के चरणकमलों को एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ता—जैसे मार्ग के समस्त क्लेशों से छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घर को नहीं छोड़ता । भगवन्! जीव का पंचभूतों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी इसका शरीर पंचभूतों से ही बनता है। तो क्या स्वभाव से ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारण वश—आप इस बात का मर्म पूर्णरीति से जानते हैं । (आपने बतलाया कि) भगवान् की नाभि से वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकों की रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवों से जैसे परिच्छिन्न है, वैसे ही आपने परमात्मा को भी सीमित अवयवों से परिच्छिन्न-सा वर्णन किया (यह क्या बात है ?) । जिनकी कृपा से सर्वभूतमय ब्रम्हाजी प्राणियों की सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमल से पैदा होने पर भी जिनकी कृपा से ही ये उनके रूप का दर्शन कर सके थे, वे संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के हेतु, सर्वान्तर्यामी और माया के स्वामी परमपुरुष परमात्मा अपनी माया का त्याग करके किसमें किस रूप से शयन करते हैं ? पहले आपने बतलाया था कि विराट् पुरुष के अंगों से लोक और लोकपालों की रचना हुई और फिर यह भी बतलाया कि लोक और लोकपालों के रूप में उसके अंगों की कल्पना हुई। इन दोनों बातों का तात्पर्य क्या है ? महाकल्प और उनके अन्तर्गत अवान्तर कल्प कितने हैं ? भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल का अनुमान किस प्रकार किया जाता है ? क्या स्थूल देहाभिमानी जीवों की आयु भी बँधी हुई है । ब्राम्हण श्रेष्ठ! काल की सूक्ष्म गति त्रुटि आदि और स्थूल गति वर्ष आदि किस प्रकार से जानी जाती है ? विविध कर्मों से जीवों की कितनी और कैसी गतियाँ होती हैं । देव, मनुष्य आदि योनियाँ सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों के फलस्वरुप ही प्राप्त होती हैं। उनको चाहने वाले जीवों में से कौन-कौन किस-किस योनि को प्राप्त करने के लिये किस-किस प्रकार से कौन-कौन कर्म स्वीकार करते हैं ? पृथ्वी, पाताल, दिशा, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप और उनमें रहने वाले जीवों की उत्पत्ति कैसे होती है ? ।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

ब्रम्हाण का परिमाण भीतर और बाहर—दोनों प्रकार से बतलाइये। साथ ही महापुरुषों के चरित्र, वर्णाश्रम के भेद और उनके धर्म का निरूपण कीजिये । युगों के भेद, उनके परिमाण और उनके अलग-अलग धर्म तथा भगवान् के विभिन्न अवतारों के परम आश्चर्यमय चरित्र भी बतलाइये । मनुष्यों के साधारण और विशेष धर्म कौन-कौन-से हैं ? विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों के, राजर्षियों के और विपत्ति में पड़े हुए लोगों के धर्म का भी उपदेश कीजिये । तत्वों की संख्या कितनी है, उनके स्वरुप और लक्षण क्या हैं ? भगवान् की आराधना की और अध्यात्मयोग की विधि क्या है ? योगेश्वरों को क्या-क्या ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं, तथा अन्त में उन्हें कौन-सी गति मिलती है ? योगियों का लिंग शरीर किस प्रकार भंग होता है ? वेद, उपवेद, धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराणों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कैसे होता है ? बावली, कुआँ खुदवाना आदि स्मार्त, यज्ञ-यागादि वैदिक एवं काम्य कर्मों की तथा अर्थ-धर्म-काम के साधनों की विधि क्या है ? प्रलय के समय जो जीव प्रकृति में लीन रहते हैं, उनकी उत्पत्ति कैसे होती है ? पाखण्ड की उत्पत्ति कैसे होती है ? आत्मा के बन्ध-मोक्ष का स्वरुप क्या है ? और वह अपने स्वरुप में किस प्रकार स्थित होता है ? भगवान् तो परम स्वतन्त्र हैं। वे अपनी माया से किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोड़कर साक्षी के समान उदासीन कैसे हो जाते हैं ? भगवन्! मैं यह सब आपसे पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरण में हूँ। महामुने! आप कृपा करके क्रमशः इनका तात्विक निरूपण कीजिये । इस विषय में आप स्वयम्भू ब्रम्हा के समान परम प्रमाण हैं। दूसरे लोग तो अपनी पूर्व परम्परा से सुनी-सुनायी बातों का ही अनुष्ठान करते हैं । ब्रम्हन्! आप मेरी भूख-प्यास की चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राम्हण के शाप के अतिरिक्त और किसी कारण से निकल नहीं सकते; क्योंकि मैं आपके मुखारविन्द से निकलने वाली भगवान् की अमृतमयी लीला कथा का पान कर रहा हूँ । 
सूतजी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! जब राजा परीक्षित् ने संतों की सभा में भगवान् की लीला-कथा सुनाने के लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत-महापुराण सुनाया, जो ब्राम्हकल्प के आरम्भ में स्वयं भगवान् के ब्रम्हाजी को सुनाया था । पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित् ने उनसे जो-जो प्रश्न किये थे, वे उन सबका उत्तर क्रमशः देने लगे ।



                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【नवम अध्याय:】


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रम्हाजी का भगवद्धाम दर्शन और भगवान् के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! जैसे स्वप्न में देखे जाने वाले पदार्थों के साथ उसे देखने वाले का कोई सबंध नहीं होता, वैसे ही देहादि से अतीत अनुभव स्वरप आत्मा का माया के बिना दृश्य पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । विविध रूप वाली माया के कारण वह विविध रूप वाला प्रतीत होता है और जब उसके गुणों में रम जाता हूँ तब ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार मानने लगता है । किन्तु जब यह गुणों के क्षुब्ध करने वाले काल और मोह उत्पन्न करने वाली माया—इन दोनों से परे अपने अनन्त स्वरुप में मोह रहित होकर रमण करने लगता है—आत्माराम हो जाता है; तब यह ‘मैं, मेरा’ का भाव छोड़कर पूर्ण उदासीन—गुणातीत हो जाता है । 
ब्रम्हाजी की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और आत्मतत्व के ज्ञान के लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तु का उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) । तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रम्हाजी अपने जन्म स्थान कमल पर कमल पर बैठकर सृष्टि करने की इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञान दृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि-व्यापार के लिये वांछनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई । एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यंजनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित्! महात्मा लोग इस तप को इस वक्ता को देखने की इच्छा से चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमल पर बैठ गये और ‘मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चय कर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मन को तपस्या में लगा दिया । ब्रम्हाजी तपस्वियों से सबसे बड़े तपस्वी हैं। उसका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने एक समय एक सहस्त्र दिव्य वर्ष पर्यन्त एकाग्र चित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ हो सके । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उनकी स्तुति करते रहते हैं । वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्वगुण भी नहीं है। वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान् के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं । उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर शतदल कमल के समान कोअल नेत्र और पीले रंग के वस्त्र से शोभायमान है। अंग-अंग से राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलता की मूर्ति हैं। सभी के चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान हैं। उनके कानों में कुण्डल, मस्तक पर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभायमान हैं ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 12-22 का हिन्दी अनुवाद)

जिस प्रकार आकाश बिजली सहित बादलों से शोभायमान होता है, वैस ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थान पर सुशोभित होता रहता है । उस वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियों के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की अनेकों प्रकार से सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूले पर बैठकर अपने प्रियतम भगवान् की लीलाओं का गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभि से उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजी का गुण-गान करने लगते हैं । ब्रम्हाजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं। 


सुनन्द, नन्द, प्रबल और अर्हण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभु की सेवा कर रहे हैं । उनका मुख कमल प्रसाद-मधुर मुसकान से युक्त हैं। आँखों में लाल-लाल डोरियों हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्त को अपना सर्वस्व दे देंगे। सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कंधे पर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्षःस्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्री लक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं । वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसन पर विराजमान हैं। 
पुरुष, प्रकृति, महतत्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पंचभूत—ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य—इन छः नित्य सिद्ध स्वरुपभूत शक्तियों से वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूप से निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरुप में ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं । उनका दर्शन करते ही ब्रम्हाजी का हृदय आनन्द के उद्रेक से लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रम्हाजी ने भगवान् के उन चरणकमलों में, जो परमहंसों के निवृत्ति मार्ग से प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया । ब्रम्हाजी के प्यारे भगवान् अपने प्रिय ब्रम्हाको प्रेम और दर्शन के आनन्द में निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टि के लिये आदेश देने के योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रम्हाजी से हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकान से अलंकृत वाणी में कहा— श्रीभगवान् ने कहा ;- ब्रम्हाजी! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टि रचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भलीभाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मन में कपट रखकर योग साधन करने वाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते । तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लग। क्योंकि मैं मुँह माँगी वस्तु देने में समर्थ हूँ। 
ब्रम्हाजी! जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम पर्यवसान मेरे दर्शन में ही है । तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जल में मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है, इसी से मेरी इच्छा से तुम्हें मेरे लोक का दर्शन हुआ है । तुम उस समय सृष्टि रचना का कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसी से मैंने तुम्हें तपस्या मेरा करने की आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप! तपस्या मेरा ह्रदय है और मैं स्वयं तपस्या का आत्मा हूँ ।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 23-34 का हिन्दी अनुवाद)

मैं तपस्या से ही इस संसार की सृष्टि करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लंघ्य शक्ति है । ब्रम्हाजी ने कहा—भगवन्! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में साक्षी रूप से विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ । नाथ! आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूप रहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ । आप माया के स्वामी हैं, आपका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँह से जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी माया का आश्रय लेकर इस विविध-शक्ति सम्पन्न जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिये अपने-आपको ही अनेक रूपों में बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं।
 इस प्रकार आप कैसे करते हैं—इस मर्म को मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये । आप मुझे पर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानी से आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान बँध न जाऊँ । प्रभो! आपने एक मित्र के समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अतः जब मैं आपकी इस सेवा—सृष्टिरचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ । 
श्रीभगवान् ने कहा ;- अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनों से युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरुप का ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो । मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं—मेरी कृपा से तुम उनका तत्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो । सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीति हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ । वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीति हो रही है अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये । जैसे प्राणियों के पंचभूतरहित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्य रूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारण रूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ।


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 35-45 का हिन्दी अनुवाद)

यह ब्रम्ह नहीं, यह ब्रम्ह नहीं—इस प्रकार निषेध की पद्धति से, और यह ब्रम्ह है, यह ब्रम्ह है—इस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरुप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने कि आवश्यकता है । ब्रम्हाजी! तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस सिद्धान्त में पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे तुम्हें कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टिरचना करते रहने पर भी कभी मोह नहीं होगा । 
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- लोकपितामह ब्रम्हाजी को इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान् ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूप को छिपा लिया । जब सर्वभूतस्वरुप ब्रम्हाजी ने देखा कि भगवान् ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरुप को हमारे नेत्रों के सामने से हटा लिया है, तब उन्होंने अंजलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्प में जैसी सृष्टि थी, उसी रूप में इस विश्व की रचना की । एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रम्हाजी ने सारी जनता का कल्याण हो, अपने इस स्वार्थ को पूर्ति के लिये विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया । उस समय उनके पुत्रों में सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजी ने मायापति भगवान् की माया का तत्व जानने की इच्छा से बड़े संयम, विनय और सौम्यता से अनुगत होकर उनकी सेवा की और उन्होंने सेवा से ब्रम्हाजी को ही सन्तुष्ट कर लिया ।
 परीक्षित्! जब देवर्षि नारद ने देखा कि मेरे लोक पितामह पिताजी मुझ पर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्न किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो । उनके प्रश्न से ब्रम्हाजी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षण वाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया, जिसका स्वयं भगवान् ने उन्हें उपदेश किया था । परीक्षित्! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वती के तट पर बैठकर परमात्मा के ध्यान में मग्न थे, उस समय देवर्षि नारदजी ने वही भागवत उन्हें सुनाया । तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट्पुरुष से इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराण के रूप में देता हूँ ।



                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【दशम अध्याय:】



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"भागवत के दस लक्षण"
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! इस भागवतपुराण में सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय—इन दस विषयों का वर्णन है । इसमें जो दसवाँ आश्रय-तत्व है, उसी का ठीक-ठीक निश्चय करने के लिये कहीं श्रुति से, कहीं तात्पर्य से और कहीं दोनों के अनुकूल अनुभव से महात्माओं ने अन्य नौ विषयों का बड़ी सुगम रीति से वर्णन किया है । ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होकर रूपान्तर होने से जो आकाशादि पंचभूत, शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महतत्व की उत्पत्ति होती है, उसो ‘सर्ग’ कहते हैं। उस विराट् पुरुष से उत्पन्न ब्रम्हाजी के द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है, उसका नाम ‘विसर्ग’। प्रतिपद नाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान् विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’ है। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तो के ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम है ‘पोषण’। मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजापालन रूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसे ‘मन्वन्तर’ कहते हैं। जीवों की वे वासनाएँ, जो कर्म के द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं, ‘ऊति’ नाम से कही जाती हैं । 
भगवान् के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ‘ईश्कथा’ हैं । जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीव का अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो जाना ‘निरोध’ है। अज्ञान कल्पित कार्तृत्व, भोगतृत्व आदि अनात्म भाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा में स्थित होना ही ‘मुक्ति’ है । 
परीक्षित्! इस चराचर जगत् की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्व से प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रम्ह ही ‘आश्रय’ है। शास्त्रों में उसी को परमात्मा कहा गया है । जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सूर्य आदि के रूप में भी हैं और जो नेत्र गोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग-अलग करता है । इन तीनों में यदि एक का भी अभाव हो जाय तो दूसरे दो की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः जो इन तीनों को जानता है, वह परमात्मा ही सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं । जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रम्हाण्ड को फोड़कर निकला, तब वह अपने रहने का स्थान ढूँढने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्ध-संकल्प पुरुष ने अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की । विराट् पुरुष रूप ‘नर’ से उत्पन्न होने के कारण ही जल का नाम ‘नार’ पड़ा और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’ में वह पुरुष एक हजार वर्षों तक रहा, इसी से उसका नाम ‘नारायण’ हुआ । उन नारायण भगवान् की कृपा से ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदि की सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देने पर और किसी का अस्तित्व नहीं रहता । उन अद्वितीय भगवान् नारायण ने योगनिद्रा से जगकर अनेक होने की इच्छा की। तब अपनी माया से उन्होंने अखिल ब्रम्हाण्ड के बीज स्वरुप सुवर्णमय वीर्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। 


परीक्षित्! विराट् पुरुष का एक ही वीर्य तीन भागों में कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो । विराट् पुरुष के हिलने-डोलने पर उनके शरीर में रहने वाले आकाश से इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सबके शरीरों में प्राण के प्रबल रहने पर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती हैं। जब प्राण जोर-जोर से आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुष को भूख-प्यास अनुभव हुआ। खाने-पीने की इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीर में मुख प्रकट हुआ। मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकार के रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है। जब उनकी इच्छा बोलने की हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि और उसका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट हुए। 
इसके बाद बहुत दिनों तक उस जल में ही वे रुके रहे। श्वास के वेग से नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघने की इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्ध को फैलाने वाले वायुदेव प्रकट हुए। पहले उनके शरीर में प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को देखने की इच्छा हुई, तब नेत्रों के छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हीं से रूप का ग्रहण होने लगा। जब वेद रूप ऋषि विराट् पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगाने लगे, तब उन्हें सुनने की इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी अधिष्ठातृ देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसी से शब्द सुनायी पड़ता है। जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीर में चर्म प्रकट हुआ।
पृथ्वी में से जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्म में रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहने वाला वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करने वाली त्वचा-इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीर में चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्श का अनुभव होने लगा। जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करने की इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उसके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों के आश्रय से होने वाला ग्रहण रूप कर्म भी प्रकट हो गया। जब उन्हें अभीष्ट स्थान पर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणों के साथ ही चरण-इन्द्रिय के अधिष्ठाता रूप में वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु स्थित हो गये और उन्हीं में चलना रप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रिय से चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं। सन्तान, रति और स्वर्ग-भोग की कामना होने पर विराट् पुरुष के शरीर में लिंग की उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनों के आश्रय रहें वाला काम सुख का आविर्भाव हुआ। जब उन्हें मल त्याग की इच्छा हुई, तब गुदा द्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। उन्हीं दोनों के द्वारा मल त्याग की क्रिया सम्पन्न होती है। अपान मार्ग द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने की इच्छा होने नाभि द्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनों के आश्रय से ही प्राण और अपान का बिछोह यानी मृत्यु होती है।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद)

जब विराट् पुरुष को अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा हुई, तब कोख, आँते और नाड़ियाँ उत्पन्न हुईं। साथ कुक्षि के देवता समुद्र, नाड़ियों के देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए। जब उन्होंने अपनी माया पर विचार करना चाहा, तब ह्रदय की उत्पत्ति हुई। उससे मन रूप इन्द्रिय और मन से उसका देवता चन्द्रमा, तथा विषय, कामना और संकल्प प्रकट हुए। विराट् पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल और तेज से सात धातुएँ प्रकट हुईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायु से प्राणों की उत्पत्ति हुई। श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाली है। वे विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारों का उत्पत्ति स्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध कराने वाली है। मैंने भगवान् के स्थूल रूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहर की ओर से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महतत्व और प्रकृति—इन आठ आवरणों से घिरा हुआ है। 

इससे परे भगवान् का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्त से रहित एवं नित्य है। वाणी और मन की वहाँ तक पहुँच नहीं । मैंने तुम्हें भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान् की माया के द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं कर। वास्तव में भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी शक्ति से ही वे सक्रीय बनते हैं। फिर तो वे ब्रम्हा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं।
परीक्षित्! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सरयाएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कुष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, ग्रह, पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि जितने भी संसार में नाम-रूप हैं, सब भगवान् के ही हैं। संसार में चर और अचर भेद से दो प्रकार के तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मों के तदनुरूप फल हैं । सत्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणों में भी जब एक गुण दूसरे दो गुणों से अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गति के तीन-तीन भेद और हो जाते हैं। वे भगवान् जगत् के धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का पालन-पोषण करते हैं। प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्निस्वरुप रूद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते हैं, वैसे वायु मेघमाला को। 



परीक्षित्! महात्माओं ने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान् इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्वज्ञानी पुरुषों को केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करने वाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 45-51 का हिन्दी अनुवाद)

सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापन का सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो माया से आरोपित होने के कारण कर्तृत्व का निषेध करने के लिये ही है। यह मैंने ब्रम्हाजी के महाकल्प का अवान्तर कल्पों के साथ वर्णन किया है। सब कल्पों में सृष्टि-क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्प के प्रारम्भ में प्रकृति क्रमशः महतत्वादि की उत्पत्ति होती है और कल्पों के प्रारम्भ में प्राकृत सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियों की वैकृत सृष्टि नवीन रूप से होती है। परीक्षित्! काल का परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरों का वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम पाद्म कल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो।

शौनकजी ने पूछा ;- सूतजी! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान् के परम भक्त विदुरजी ने अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोड़कर पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों में विचरण किया था। उस यात्रा में मैत्रेय ऋषि के साथ अध्यात्म के सम्बन्ध में उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजी ने उनके प्रश्न करने पर किस तत्व का उपदेश किया ? सूतजी! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ?

सूतजी ने कहा ;- शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित् ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेवजी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही अं आप लोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये।

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध:" के १० अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब तृतीय स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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