सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का षष्ठ , सप्तम, अष्टम, नवम व दशम अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का षष्ठ , सप्तम, अष्टम, नवम व दशम अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]



                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【षष्ठ अध्याय:】


                               (श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)


"नारदजी के पूर्व चरित्र का शेष भाग"
श्रीसूतजी कहते हैं ;- शौनकजी! देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवती नन्दन भगवान श्रीव्यासजी ने उनसे फिर यह प्रश्न किया ।
श्रीव्यासजी ने पूछा ;- नारदजी! जब आपको ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया ? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी। स्वायम्भु! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया ? देवर्षे! काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है, उसने आपकी पूर्व कल्प की स्मृति का कैसे नाश नहीं किया ?
श्रीनारदजी ने कहा ;- मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार जीवन व्यतीत किया—यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी । मैं अपनी माँ का एकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी। मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था । वह मेरे योग क्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थीं, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी। जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन हैं । मैं भी अपनी माँ के स्नेह बन्धन में बँधकर उस ब्राम्हण-बस्ती में ही रहा। मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था । एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी । मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा । उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन-धान्य से सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरों की चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतों के तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियों ने तोड़ डाली थीं। शीतल जल से भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओं के काम में आने वाले कमल थे; उन पर पक्षी तरह-तरह की बोली बोल रहे थे और भौरें मँडरा रहे थे। यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था। इतना लम्बा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा। उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था। देखने में बड़ा भयावना लगता था । चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली। उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी । उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, ह्रदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरुप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा ।
 (अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

भक्तिभाव से वशीकृत चित्त द्वारा भगवान के चरण-कमलों का ध्यान करते ही भगवत्-प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और ह्रदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये । व्यासजी! उस समय प्रेमभाव के अत्यन्त उद्रेक से मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। ह्रदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया। उस आनन्द की बाढ़ में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तु का तनिक भी भान न रहा । भगवान का वह अनिर्वचीय रूप समस्त शोकों का नाश करने वाला और मन के लिये अत्यन्त लुभावना था। सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना-सा होकर आसन से उठा खड़ा हुआ । मैंने उस स्वरुप का दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मन को ह्रदय में समाहित करके बार-बार दर्शन की चेष्टा करने पर भी मैं उसे नहीं देख सका। मैं अतृप्त के समान आतुर हो उठा । इस प्रकार निर्जन वन में मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवान ने, जो वाणी के विषय नहीं हैं, बड़ी गंभीर और मधुर वाणी से मेरे शोक को शान्त करते हुए-से कहा । ‘खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ।

  निष्पाप बालक! तुम्हारे ह्रदय में मुझे प्राप्त करने की लालसा जाग्रत् करने के लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूप की झलक दिखायी है। मुझे प्राप्त करने की आकांशा से युक्त साधक धीरे-धीरे ह्रदय की सम्पूर्ण वासनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है । अल्पकालीन संत सेवा से ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है। अब तुम इस प्राकृत मलिन शरीर को छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे । मुझे प्राप्त करने का तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा। समस्त सृष्टि का प्रलय हो जाने पर भी मेरी कृपा से तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी’। आकाश के समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान् परमात्मा इतना कहकर चुप हो रहे। उनकी इस कृपा का अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठों से भी श्रेष्ठतर भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम किया । तभी से मैं लज्जा-संकोच छोड़कर भगवान के अत्यन्त रहस्यमय और मंगलमय मधुर नामों और लीलाओं का कीर्तन और स्मरण करने लगा। स्पृहा और मद-मत्सर मेरे ह्रदय से पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब मैं आनन्द से काल की प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा ।

     व्यासजी! इस प्रकार भगवान की कृपा से मेरा ह्रदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और मैं श्रीकृष्ण परायण हो गया। कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही समय पर मेरी मृत्यु आ गयी । मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद-शरीर प्राप्त होने का अवसर आने पर प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाने के कारण पांच भौतिक शरीर नष्ट हो गया । कल्प के अन्त में जिस समय भगवान नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र)—के जल में शयन करते हैं, उस समय उनके ह्रदय में शयन करने की इच्छा से इस सारी सृष्टि को समेटकर ब्रम्हाजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वास के साथ मैं ही उनके ह्रदय में प्रवेश कर गया ।

(षष्ठ अध्यायः श्लोक 31-39 का हिन्दी अनुवाद)

एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर जब ब्रम्हा जगे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया । तभी से मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ। मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्ड रूप से चलता रहता है । भगवान की दी हुई इस स्वर ब्रम्ह से विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ । जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरणकमल समस्त तीर्थों के उद्गम स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे ह्रदय में आकर दर्शन दे देते हैं । जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है । काम और लोभ की चोट से बार-बार घायल हुआ ह्रदय श्रीकृष्ण सेवा से जैसी प्रत्यक्ष शान्ति का अनुभव करता है, यम-नियम आदि योग मार्गों से वैसी शान्ति नहीं मिल सकती । व्यासजी! आप निष्पाप हैं। आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया ।
श्रीसूतजी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! देवर्षि नारद के व्यासजी के इस प्रकार कहकर जाने की अनुमति ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छन्द विचरण करने के लिये वे चल पड़े । अहा! ये देवर्षि नारद धन्य हैं; क्योंकि वे सारंगपाणि भगवान की कीर्ति को अपनी वीणा पर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत् को भी आनन्दित करते रहते हैं ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【सप्तम अध्याय:】


                               (श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों का मारा जाना और अर्जुन के द्वारा अश्वत्थामा का मान मर्दन"
श्रीशौनकजी ने पूछा ;- सूतजी! सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् व्यासभगवान ने नारदजी का अभिप्राय सुन लिया। फिर उनके चले जाने पर उन्होंने क्या किया ?
श्रीसूतजी ने कहा ;- ब्रम्हनदी सरस्वती के पश्चिम तट पर शम्याप्रास नाम का एक आश्रम है। वहाँ ऋषियों के यज्ञ चलते ही रहते हैं । वहीं व्यासजी का अपना आश्रम है। उसके चारों ओर बेर का सुन्दर वन है। उस आश्रम में बैठकर उन्होंने आचमन किया और स्वयं अपने मन को समाहित किया । उन्होंने भक्तियोग के द्वारा अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदि पुरुष परमात्मा और उनके आश्रय से रहने वाली माया को देखा । इसी माया से मोहित होकर यह जीव तीनों गुणों से अतीत होने पर भी अपने को त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यता के कारण होने वाले अनर्थों को भोगता है । इन अनर्थों की शान्ति का साक्षात् साधन है—केवल भगवान का भक्ति-योग। परन्तु संसार के लोग इस परमहंसों की संहिता श्रीमद्भावत की रचना की । इसके श्रवण मात्र से पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीव के शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं । उन्होंने इस भागवत-संहिता का निर्माण और पुनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्ति परायण पुत्र श्रीशुकदेवजी को पढ़ाया ।

श्रीशौनकजी ने पूछा ;- श्रीशुकदेवजी तो अत्यन्त निवृत्ति परायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है। वे सदा आत्मा में ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किसलिये इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ?

श्रीसूतजी ने कहा ;- जो लोग अज्ञानी हैं, जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, वे भी भगवान की हेतु रहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते हैं । फिर श्रीशुकदेवजी तो भगवान के भक्तों के अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान वेदव्यास के पुत्र हैं। भगवान के गुणों ने उनके ह्रदय को अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ।
   शौनकजी! अब मैं राजर्षि परीक्षित् के जन्म, कर्म और मोक्ष की तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हीं से भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों कथाओं का उदय होता है। जिस समय महाभारत युद्ध में कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के बहुत-से वीर वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और भीमसेन की गदा के प्रहार से दुर्योधन की जाँघ टूट चुकी थी, तब अश्वत्थामा ने अपने स्वामी दुर्योधन का प्रिय कार्य समझकर द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधन को भी अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्म की सभी निन्दा करते हैं । उन बालकों की माता द्रौपदी अपने पुत्रों का निधन सुनकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू छलछला आये—वह रोने लगी।
      अर्जुन ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा । ‘कल्याणि! मैं तुम्हारे आँसू तब पोछूँगा, जब उस आततायी ब्राम्हणाधम का सिर गाण्डीव-धनुष के बाणों से काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और पुत्रों की अन्त्येष्टि किया के बाद तुम उस पर पैर रखकर स्नान करोगी’ ।

(सप्तम अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

अर्जुन ने इन मीठी और विचित्र बातों से द्रौपदी को सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण की सलाह से उन्हें सारथि बनाकर कवच धारण कर और अपने भयानक गाण्डीव धनुष को लेकर वे रथ पर सवार हुए तथा गुरु पुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े । बच्चों की हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँ तक भाग सकता था, रूद्र से भयभीत सूर्य की भाँति भागता रहा । जब उसने देखा कि मेरे रथ के घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रम्हास्त्र ही समझा । यद्यपि उसे ब्रम्हास्त्र लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राण संकट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रम्हास्त्र का सन्धान किया । उस अस्त्र से अब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब तो मेरे प्राणों पर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की ।
अर्जुन ने कहा ;- श्रीकृष्ण! तुम सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देने वाले हो। जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारने वाले एकमात्र तुम्हीं हो । तुम प्रकृति से परे रहने वाले आदि पुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्त-शक्ति (स्वरुप-शक्ति)—से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी माय को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरुप में स्थित हो । वही तुम अपने प्रभाव से माया-मोहित जीवों के लिये धर्मादि रुप कल्याण का विधान करते हो । तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिये है । स्वयम्प्रकाशस्वरुप श्रीकृष्ण! क्या है, कहाँ से, क्यों आ रहा है—इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है!।
भगवान ने कहा ;- अर्जुन! यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ ब्रम्हास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राण संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता । किसी भी दूसरे अस्त्र में इसको दबा देने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र विद्या को भलीभाँति जानते ही हो, ब्रम्हास्त्र के तेज से ही इस ब्रम्हास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा दो ।
सूतजी कहते हैं ;- अर्जुन विपक्षी वीरों को मारने में बड़े प्रवीण थे। भगवान की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान की परिक्रमा करके ब्रम्हास्त्र के निवारण के लिये ब्रम्हास्त्र का ही सन्धान किया । बाणों से वेष्ठित उन दोनों ब्रम्हास्त्रों के तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्नि के समान आपस में टकराकर सारे आकाश और दिशाओं में फैल गये और बढ़ने लगे । तीनों लोगों को जलाने वाली उन उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सांवर्तक अग्नि है । उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया ।

(सप्तम अध्यायः श्लोक 33-48 का हिन्दी अनुवाद)

अर्जुन की आँखें क्रोध से लाल-लाल हो रही थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामा को पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सी से पशु को बाँध ले, वैसे ही बाँध लिया । अश्वत्थामा को बलपूर्वक बाँधकर अर्जुन ने जब शिविर की ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने कुपित होकर कहा ;- ‘अर्जुन! इस बरम्हणाधम को छोड़ना ठीक नहीं हैं, इसको तो मार ही डालो। इसने रात में सोये हुए निरपराध बालकों की हत्या की है । धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मारते । परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मारकर अपने प्राणों का पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदत को लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापों के कारण नरकगामी होता है ।
   फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदी से प्रतिज्ञा की थी कि ‘मानवती! जिसने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है, उसका सिर मैं उतार लाउँगा’ । इस पापी कुलांगार आततायी ने तुम्हारे पुर्त्रों का वध किया है और अपने स्वामी दुर्योधन को भी दुःख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन! इसे मार ही डालो । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेने के लिये इस प्रकार प्रेरणा की, परन्तु अर्जुन का ह्रदय महान् था। यद्यपि अश्वत्थामा ने उनक पुत्रों की हत्या की थी, फिर भी अर्जुन के मन में गुरुपुत्र को मारने की इच्छा नहीं हुई । इसके बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्ण के साथ वे अपने युद्ध-शिविर में पहुँचे। वहाँ अपने मृत पुत्रों के शोक करती हुई द्रौपदी को सौंप दिया । द्रौपदी ने देखा कि अश्वत्थामा पशु की तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करने के कारण उसका मुख नीचे की ओर झुका हुआ है। अपना अनिष्ट करने वाले गुरु पुत्र अश्वत्थामा को इस प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदी का कोमल ह्रदय कृपा से भर आया और उसने अश्वत्थामा को नमस्कार किया । गुरुपुत्र का इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदी को सहन नहीं हुआ।

 उसने कहा ;- ‘छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो। ये ब्राम्हण हैं, हम लोगों के अत्यन्त पूजनीय हैं । जिनकी कृपा से आपने रहस्य के साथ सारे धनुर्वेद औ प्रयोग तथा उपसंहार के साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्र के रूप में आपके सामने खड़े हैं। उनकी अर्धांगिनी कृपी अपने वीर पुत्र की ममता से ही अपने पति का अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं । महाभाग्यवान् आर्यपुत्र! आप तो बड़े धर्मज्ञ हैं। जिस गुरुवंश की नित्य पूजा और वन्दना करनी चाहिये उसी को व्यथा पहुँचाना आपके योग्य कार्य नहीं है । जैसे अपने बच्चों के मर जाने से मैं दुःखी होकर रो रही हूँ और मेरी आँखों से बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इनकी माता पतिव्रता गौतमी न रोयें । जो उच्छ्रखल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राम्हण कुल को कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राम्हण कुल उन राजाओं को सपरिवार शकाग्नि में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है’।

 (सप्तम अध्यायः श्लोक 49-58 का हिन्दी अनुवाद)

सूतजी ने कहा ;- शौनकादि ऋषियों! द्रौपदी की बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिर ने रानी के इन हित भरे श्रेष्ठ वचनों का अभिनन्दन किया । साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण और वहाँ पर उपस्थित सभी नर-नारियों ने द्रौपदी की बात समर्थन किया । उस समय क्रोधित होकर भीमसेन ने कहा, ‘जिसने सोते हुए बच्चों को न अपने लिये न अपने स्वामी के लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’। भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी और भीमसेन की बात सुनकर और अर्जुन की ओर देखकर कुछ हँसते हुए-से कहा ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले ;- ‘पतित ब्राम्हण का भी वध नहीं करना चाहिये और आततायी को मार ही डालना चाहिये’—शास्त्रों में मैंने ही ये दोनों बाते कहीं हैं। इसलिये मेरी दोनों आज्ञाओं का पालन करो । तुमने द्रौपदी को सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी सत्य करो; साथ भीमसेन, द्रौपदी और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो ।
सूतजी कहते हैं ;- अर्जुन भगवान के ह्रदय की बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर की मणि उसके बालों के साथ उतार ली । बालकों की हत्या करने से वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रम्हतेज से भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने रस्सी का बन्धन खोलकर उसे शिविर से निकाल दिया । मूँड देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकल देना—यही ब्रम्हणाधमों का वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक वध का विधान नहीं है । पुत्रों की मृत्यु से द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई बन्धुओं की दाहादि अन्त्येष्टि किया की ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【अष्टम अध्याय:】


                               (श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)


"गर्भ में परीक्षित् की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक"
सूतजी कहते हैं ;- इसके बाद पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ जलांजलि के इच्छुक मरे हुए स्वजनों का तर्पण करने के लिये स्त्रियों को आगे करके गंगातट पर गये । वहाँ उन सबने मृत बन्धुओं को जलदान दिया और उनके गुणों का स्मरण करके बहुत विलाप किया। तदनन्तर भगवान के चरण-कमलों की धूलि से पवित्र गंगाजल में पुनः स्नान किया । वहाँ अपने भाइयों के साथ कुरुपती महाराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, पुत्र शोक से व्याकुल गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी—सब बैठकर मरे हुए स्वजनों के लिये शोक करने लगे।

    भगवान श्रीकृष्ण ने धौम्यादि मुनियों के साथ उनको सान्त्वना दी और समझाया कि संसार के सभी प्राणी काल के अधीन हैं, मौत से किसी को कोई बचा नहीं सकता । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को उनका वह राज्य, जो धूर्तों ने छल से छीन लिया था, वापस दिलाया तथा द्रौपदी के केशों का स्पर्श करने से जिनकी आयु क्षीण हो गयी थी, उन दुष्ट राजाओं का वध कराया । साथ ही युधिष्ठिर के द्वारा उत्तम सामग्रियों से तथा पुरोहितों से तीन अश्वमेध यज्ञ कराये। इस प्रकार युधिष्ठिर के पवित्र यश को सौ यज्ञ करने वाले इन्द्र के यश की तरह सब ओर फैला दिया । इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ से जाने का विचार किया। उन्होंने इसके लिये पाण्डवों से विदा ली और व्यास आदि ब्राम्हणों का सत्कार किया। उन लोगों ने भी भगवान का बड़ा ही सम्मान किया। तदनन्तर सात्यकि और उद्धव के साथ द्वारका जाने के लिये वे रथ पर सवार हुए। उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भय से विह्वल होकर सामने से दौड़ी चली आ रही है ।

उत्तरा ने कहा ;- देवाधिदेव! जगदीश्वर! आप महायोगी हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये; रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देने वाला और कोई नहीं है; क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक-दूसरे की मृत्यु के निमित्त बन रहे हैं । प्रभो! आप सर्व-शक्तिमान् हैं। यह दहकते हुए लोहे का बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है। स्वामिन्! यह मुझे भले ही जला डाले, परन्तु मेरे गर्भ को नष्ट न करे—ऐसी कृपा कीजिये ।

सूतजी कहते हैं ;- भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही जान गये कि अश्वत्थामा ने पाण्डवों के वंश को निर्बीज करने के लिये ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया है । शौनकजी! उसी समय पाण्डवों ने भी देखा कि जलते हुए पाँच बाण हमारी ओर आ रहे हैं। इसलिये उन्होंने भी अपने-अपने अस्त्र उठा लिये । सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अनन्य प्रेमियों पर—शरणागत भक्तों पर बहुत बड़ी विपत्ति आयी जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन चक्र से उन निज जनों की रक्षा की । योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तरा के गर्भ को पाण्डवों की वंश परम्परा चलाने के लिये अपनी माया के कवच से ढक दिया । शौनकजी! यद्यपि ब्रम्हास्त्र अमोघ है और उसके निवारण का कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के तेज के सामने आकर वह शान्त हो गया ।


(अष्टम अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान तो सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति माया से स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसार की सृष्टि रक्षा और संहार करते हैं । जब भगवान श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रम्हास्त्र की ज्वाला से मुक्त अपने पुत्रों के और द्रौपदी के साथ सती कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की ।
कुन्ती ने कहा ;- आप समस्त जीवों के बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृति से परे आदि पुरुष परमेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ । इन्द्रियों से जो कुछ जाना जाता है, उसकी तह में आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही माया के परदे से अपने को ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को भला कैसे जान सकती हूँ ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते । आप शुद्ध ह्रदय वाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के ह्रदय में अपनी प्रेममयी भक्ति अक सृजन करने के लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं । आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द गोप के लाड़ले लाल गोविन्द को हमारा बारंबार प्रणाम है ।
जिनकी नाभि से ब्रम्हा का जन्म स्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरणकमलों में कमल का चिन्ह है—श्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है । हृषीकेश! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण! कहाँ तक गुनाऊँ—विष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, हिडिम्ब आदि राक्षसों की दृष्टि से, दुष्टों की द्युतसभा से, वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्धों में अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी-अभी इस अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है । जगद्गुरो! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चितरूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके ही दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता । ऊँचे कुल में जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगों को दर्शन देते हैं जो अकिंचन है । आप निधनों के परम धन हैं। माया का प्रपंच आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने-आपमें ही विहार करने वाले, परम शान्तस्वरुप हैं। आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ । मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबके नियन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती हूँ। संसार के समस्त पदार्थ और प्राणी आपस में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परंतु आप सबमें समान रूप से विचर रहे हैं ।

(अष्टम अध्यायः श्लोक 29-39 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! आप जब मनुष्यों की-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैं—यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोइ न प्रिय है और न अप्रिय। आपके सम्बन्ध में लोगों की बुद्धि ही विषम हुआ करती है । आप विश्व के आत्मा हैं, विश्वरूप हैं। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदि में आप जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है । जब बचपन में आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को खिझा दिया था और उन्होंने आपको बाँधने के लिये हाथ में रस्सी ली थी, तब आपकी आँखों में आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेत्र चंचल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका लिया था! आपकी उस दशा का—लीला-छवि का ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ।

 भला, जिससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा! आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचल की कीर्ति का विस्तार करने के लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु की कीर्ति का विस्तार करने के लिये ही आपने उनके वंश में अवतार ग्रहण किया है । दूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकी ने पूर्व जन्म में (सुतपा और पृश्नि के रूप में) आपसे यही वरदान प्राप्त किया था, इसलिये आप अजन्मा होते हुए भी जगत् के कल्याण और दैत्यों के नाश के लिये उनके पुत्र बने हैं । कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यन्त भार समुद्र में डूबते हुई जहाज की तरह डगमगा रही थी—पीड़ित हो रही थी, तब ब्रम्हा की प्रार्थना से उसका भार उतारने के लिये ही आप प्रकट हुए । कोई महापुरुष कहते है कि जो लोग इस संसार में अज्ञान, कामना और कर्मों के बन्धन में जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं उन लोगों के लिये श्रवण और स्मरण करने योग्य लीला करने के विचार से ही आपने अवतार ग्रहण किया है । भक्तजन बार-बार आपके चरित्र का श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं; वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमल का दर्शन कर पाते हैं; जो जन्म-मृत्यु के प्रवाह को सदा के लिये रोक देता है । भक्तवाञ्छा कल्प तरु प्रभो! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हैं। आप जानते हैं कि आपके चरणकमलों के अतिरिक्त हमें और किसी का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं । जैसे जीव के बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियों के और हमारे पुत्र पाण्डवों के नाम तथा रूप का अस्तित्व ही क्या रह जाता है । गदाधर! आपके विलक्षण चरणचिन्ह से चिन्हित यह कुरुजांगल-देश कि भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी ।

 (अष्टम अध्यायः श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद)

आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं । आप विश्व के स्वामी हैं, विश्व के आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीजिये । श्रीकृष्ण! जैसे गंगा की अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे । श्रीकृष्ण! अर्जुन के प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे! आप पृथ्वी के भार रूप राज वेष धारी दैत्यों को जलाने के लिये अग्नि-स्वरुप हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द! आपका यह अवतार गौ, ब्राम्हण और देवताओं का दुःख मिटाने के लिये ही है। योगेश्वर! चराचर के गुरु भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।
सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार कुन्ती ने बड़े मधुर शब्दों में भगवान की अधिकांश लीलाओं का वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी माया से उसे मोहित करते हुए-से मन्द-मन्द मुसकुराने लगे । उन्होंने कुन्ती से कह दिया—‘अच्छा ठीक है’ और रथ के स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियों से विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से उन्हें रोक लिया । राजा युधिष्ठिर को अपने भाई-बन्धुओं के मरे जाने का बड़ा शोक हो रहा था। भगवान की लीला का मर्म जानने वाले व्यास आदि महर्षियों ने और स्वयं अद्भुत चरित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझाने की बहुत चेष्टा की; परन्तु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा । शौनकादि ऋषियों! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को अपने स्वजनों के वध से बड़ी चिन्ता हुई।

     वे अविवेकयुक्त चित्त से स्नेह और मोह के वश में होकर कहने लगे—भला, मुझ दुरात्मा के ह्रदय में बद्धमूल हुए इस अज्ञान को तो देखो; मैंने सियार-कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिये अनेक अक्षौहिणी सेना का नाश कर डाला । मैंने बालक, ब्राम्हण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा-ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनों से द्रोह किया है। करोंड़ो बरसों से भी नरक से मेरा छुटकारा नहीं हो सकता । यद्यपि शास्त्र का वचन है कि राजा यदि प्रजा का पालन करने के लिये धर्मयुद्ध में शत्रुओं को मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ।स्त्रियों के पति और भाई-बन्धुओं को मारने से उसका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है। उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकों के द्वारा मार्जन करने में समर्थ नहीं हूँ । जैसे कीचड़ से गँदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरा से मदिरा की पवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैस ही बहुत-सी हिंसाबहुल यज्ञों के द्वारा एक भी प्राणी की हत्या का प्रायश्चित नहीं किया जा सकता ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【नवम अध्याय:】




                               (श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना और भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राण त्याग करना"

सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोह से भयभीत हो गये। फिर सब धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्या पर पड़े हुए थे । शौनकादि ऋषियों! उस समय उन सब भाईयों ने स्वर्णजटित रथों पर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिर का अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राम्हण भी थे । शौनकजी! अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण भी रथ पर चढ़कर चले। उन सब भाइयों के साथ महाराज युधिष्ठिर की ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षों से घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों । अपने अनुचरों और भगवान श्रीकृष्ण के साथ वहाँ जाकर पाण्डवों ने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। उन लोगों ने उन्हें प्रणाम किया । शौनकजी! उसी समय भरतवंशियों के गौरव रूप भीष्म पितामह को देखने के लिये सभी ब्रम्हर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये । पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, इन्द्प्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध-ह्रदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, अंगिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे । भीष्मपितामह धर्म को और देश-काल के विभाग को—कहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बात को जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया । वे भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में ह्रदय में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की । पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्मपितामह की आँखें प्रेम से आँसुओं से भर गयीं।
उन्होंने कहा ;- ‘धर्मपुत्रों! हाय! हाय! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुम लोगों को ब्राम्हण, धर्म और भगवान के आश्रित रहने पर भी इतने कष्ट के साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे । अतिरथी पाण्डु की मृत्यु के समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुम लोगों के लिये कुन्तीरानी को और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट झेलने पड़े । जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार काल भगवान के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुम लोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला है । नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हों—भला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना है ? ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बात को कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ।

(नवम अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)

युधिष्ठिर! संसार की ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छा के अधीन हैं। उसी का अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो । ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान हैं। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं । इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर! उसे भगवान शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान कपिल ही जानते हैं । जिन्हें तुम अपना ममेरा, भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं । इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकार-रहित और निष्पाप परमात्मा में उन ऊँचे-नीचे कार्यों के कारण कभी किसी प्रकार की विषमता नहीं होती । युधिष्ठिर! इस प्रकार सर्वत्र सम होने पर भी देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तों पर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है । भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर के बन्धन से छूट जाते हैं । वे ही देवदेव भगवान अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमल के समान औरन नेत्रों से उल्लासित मुखवाले चतुर्भुतरूप से, जिसका और लोगों को केवल ध्यान में दर्शन होता है, तब तक यही स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जब तक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जब तक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूँ ।
सूतजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ने उनकी यह बात सुनकर शरशय्या पर सोये हुए भीष्मपितामह से बहुत-से ऋषियों के सामने ही नाना प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध में अनेकों रहस्य पूछे । तब तत्वेत्ता भीष्मपितामह ने वर्ण और आश्रमों के अनुसार पुरुष के स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा राग के कारण विभिन्न रूप से बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप द्विध धर्म, दान धर्म, राज धर्म, मोक्ष धर्म, स्त्री धर्म और भगद्धर्म—इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया। शौनकजी! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों का तथा इनकी प्राप्ति के साधनों का अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया । भीष्मपितामह इस प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुँचा जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखने वाले भगवत्परायण योगी लोग चाहा करते हैं । उस समय हजारों रथियों के नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मन को सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर चतुर्भुज विग्रह पर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजी की आँखें उसी पर एकटक लग गयीं । उनको शस्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी वह तो भगवान के दर्शनमात्र से ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोड़ने के समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों के वृत्तिविलास को रोक दिया और बड़े प्रेम से भगवान की स्तुति की ।

(नवम अध्यायः श्लोक 32-39 का हिन्दी अनुवाद)

भीष्मजी ने कहा ;- अब मृत्यु के समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंशशिरोमणि अनन्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरुप में स्थित रहते हुए ही कही विहार करने की—लीला करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है । जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमाल के समान सांवला है, जिस पर सूर्यरश्मियों के समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुख पर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो । मुझे युद्ध के समय की उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है। उनके मुख पर लहराते हुए घुन्घ्राले बाल घोंड़ो की टॉप की धूल से मटमैले हो गये थे और पसीने की छोटी-छोटी बूँधें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुन्दर कवच मण्डित भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जायँ । अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेना के बीच में अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टि से ही शत्रुपक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली, उन पार्थ सखा भगवान श्रीकृष्ण में मेरी परम प्रीति हो । अर्जुन ने जब दूर से कौरवों की सेना के मुखिया हम लोगों को देखा तब पाप समझकर वह अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीता के रूप में आत्माविद्या का उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञान का नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रीति बनी रहे ।
      मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोडूँगा; उसे सत्य एवं ऊँची करने के लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथ से नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने के लिये उस पर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेकर मुझ पर झपट पड़े। उस समय वे इतने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी। मुझ आततायी ने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों—आश्रय हों । अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिन श्रीकृष्ण के बायें हाथ में घोडों की रास थी और दाहिने हाथ में चाबुक, इन दोनों की शोभा से उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारत युद्ध में मरने वाले वीर जिनकी इस छवि का दर्शन करते रहने के कारण सारुप्य मोक्ष को प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थ सारथि भगवान श्रीकृष्ण में मुझ मरणासन्न की परम प्रीति हो ।

(नवम अध्यायः श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद)

जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भाव युक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो । जिस समय युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनीयों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले सबकी ओर से इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण की मेरी आँखों के सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं । जैसे एक एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रहित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप-से जान पड़ते हैं; वास्तव में तो वे एक और सबके ह्रदय में विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ।
सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरुप भगवान श्रीकृष्ण में अपने-आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं पर विलीन हो गये और वे शान्त हो गये । उन्हें अनन्त ब्रम्ह में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप गये, जैसे दिन बीत जाने पर पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है । उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी । शौनकजी! युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिये शोकमग्न हो गये । उस समय मुनियों ने बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयों को श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमों को लौट गये । तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढाढ़श बँधाया । फिर धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश परम्परागत साम्राज्य का धर्मपूर्वक शासन करने लगे ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【दशम अध्याय:】


                               (श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)


"श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन"

शौनकजी ने पूछा ;- धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिर ने अपनी पैतृक सम्पत्ति हड़प जाने के इच्छुक आततायियों का नाश करके अपने भाइयों के साथ किस प्रकार से राज्य-शासन किया और कौन-कौन-से काम किये, क्योंकि भोगों में तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं ।
सूतजी कहते हैं ;- सम्पूर्ण सृष्टि को उज्जीवित करने वाले भगवान श्रीहरि परस्पर की कलहाग्नि से दग्ध कुरुवंश को पुनः अंकुरित कर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए । भीष्मपितामह और भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों के श्रवण से उनके अन्तःकरण में विज्ञान का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान के आश्रय में रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी का इन्द्र के समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई पूर्ण रूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे । युधिष्ठिर के राज्य में आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वी में समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनों वाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूध से सींचती रहती थीं ।

 नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतु में यथेष्ट रूप से अपनी-अपनी वस्तुएँ राजा को देती थीं । अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर के राज्य में किसी प्राणी को कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे । अपने बन्धुओं का शोक मिटाने के लिये और अपनी बहिन सुभद्रा की प्रसन्नता के लिये भगवान श्रीकृष्ण कई महीनों तक हस्तिनापुर में ही रहे । फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिर से द्वारका जाने की अनुमति माँगी तब राजा ने उन्हें अपने ह्रदय से लगाकर स्वीकृति दे दी। भगवान उनको प्रणाम करके रथ पर सवार हुए। कुछ लोगों (समान उम्र वालों)—ने उनका आलिंगन किया और कुछ (छोटी उम्र वालों)—ने प्रणाम । उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य और सत्यवती आदि सब मुर्च्छित-से हो गये। वे शारंगपाणि श्रीकृष्ण का विरह नहीं सह सके ।
भगवद्भक्त सत्पुरुषों के संग से जिसका दुःसंग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान के मधुर-मनोहर सुयश को एक बार भी सुन लेने पर फिर उसे छोड़ने की कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं भगवान के दर्शन तथा स्पर्श से, उनके साथ आलाप करने से तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठने और भोजन करने से जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे । उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निर्निमेष नेत्रों से भगवान को देखते हुए स्नेह बन्धन से बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे । भगवान श्रीकृष्ण के घर से चलते समय उनके बन्धुओं की स्त्रियों के नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओं से भर आये; परंतु इस भय से कि कहीं यात्रा के समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाई से उन्हें रोक लिया । भगवान के प्रस्थान के समय मृदंग, शंख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे । भगवान के दर्शन की लालसा से कुरुवंश की स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुसकान से युक्त चितवन से भगवान को देखती हुई उन पर पुष्पों कि वर्षा करने लगीं ।

(दशम अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद)

उन समय भगवान के प्रिय सखा घुँघराले बालों वाले अर्जुन ने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का वह श्वेत छत्र, जिसमें मोतियों की झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नों का बना हुआ था, अपने हाथ में ले लिया । उद्धव और सायकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण पर चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी । जहाँ-तहाँ ब्राम्हणों के दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान के तो अनुरूप ही थे; क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुण के अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है । हस्तिनापुर की कुलीन रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रहीं थीं, जो सबके काल और मन को आकृष्ट कर रहीं थीं ।

   वे आपस में कह रही थीं ;- ‘सखियों! ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलय के समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरुप में स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टि के मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते। जगदात्मा ईश्वर में जीव भी लीन हो जाते हैं और महतत्वादि समस्त शक्तियाँ अपने कारण अव्यक्त में सो जाती हैं । उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित स्वरुप में नाम रूप के निर्माण की इच्छा की तथा अपनी काल-शक्ति से प्रेरित प्रकृति का, जो कि उनके अंशभूत जीवों को मोहित कर लेती है और सृष्टि की रचना में प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और व्यवहार के लिये वेदादि शास्त्रों की रचना की । इस जगत् में जिसके स्वरुप का साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणों को वश में करके भक्ति से प्रफुल्ल्ति निर्मल ह्रदय में किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात् परब्रम्ह हैं। वास्तव में इन्हीं की भक्ति से अन्तःकरण की पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादि के द्वारा नहीं । सखी! वास्तव में ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी

ऋषियों ने किया है ;- जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीला से जगत् की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते । जब तामसी बुद्धि वाले राजा अधर्म से अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही सत्वगुण को स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते और संसार के कल्याण के लिये युग-युग में अनेकों अवतार धारण करते हैं । अहो! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने जन्म ग्रहण करके इस वंश को सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन (ब्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है जिसे इन्होंने अपने शैशव एवं किशोरावस्था में घूम-फिरकर सुशोभित किया है । बड़े हर्ष की बात है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश का तिरस्कार करके पृथ्वी के पवित्र यश को बढ़ाया है। क्यों न हो, वहाँ की प्रजा अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को जो बड़े प्रेम से मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपा दृष्टि से देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती हैं । सखी! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है उन स्त्रियों ने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के द्वारा इन परमात्मा की आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस अधर-सुधा का पान करती हैं जिसके स्मरणमात्र से ही ब्रज बालाएँ आनन्द से मुर्च्छित हो जाया करती थीं ।

(दशम अध्यायः श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद)

ये स्वयंवर में शिशुपाल आदि मतवाले राजाओं का मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबल से हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्दुम्न, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुर को मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तव में धन्य हैं। क्योंकि इन सभी ने स्वतन्त्रता और पवित्रता से रहित स्त्री जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी महिमा का वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकार की प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओं की भेंट से इनके ह्रदय में प्रेम एवं आनन्द की अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षण के लिये भी इन्हें छोड़कर दूसरी जगह नहीं जाते ।
    हस्तिनापुर स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेम पूर्ण चितवन से उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँ से विदा हो गये । अजातशत्रु युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा के लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शंका हो आयी थी कि कहीं रास्ते में शत्रु इन पर आक्रमण न कर दें । सुदृढ़ प्रेम के कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान के साथ बहुत दूर तक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरह से व्याकुल हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रों के साथ द्वारका की यात्रा की । शौनकजी! वे कुरुजांगल, पांचाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश ब्रम्हावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देश को पार करके सौवीर और आभीर देश के पश्चिम आनर्त देश में आये। उस समय अधिक चलने के कारण भगवान के रथ के घोड़े कुछ थक-से गये थे । मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान का सम्मान करते, सायंकाल होने पर वे रथ पर से भूमि पर उतर आते और जलाशय पर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्चा थी ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें