सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]

 सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( प्रथम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (first wing) ]



                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】


                               (श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न"
                                  मंगलाचरण
जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं—क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयं प्रकाश है; जो ब्रम्हा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेद ज्ञान का दान दिया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्य रश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्य रूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं । महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवत महापुराण में मोक्ष पर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषों के जानने योग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करने वाली और परम कल्याण देने वाली है। अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृति पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके ह्रदय में आकर बन्दी बन जाता है । रस के मर्मज्ञ भक्तजन! यह श्रीमद्भागवत वेद रूप कल्प वृक्ष का पका हुआ फल है।

    श्रीशुकदेव रूप तोते के मुख का सम्बन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है। इस फल में छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मुर्तिमान् रस है। जब तक शरीर में चेतना रहे, तब तक इस दिव्य भगवद्रस का निरन्तर बार-बार पान करते रहो। यह पृथ्वी पर ही सुलभ है ।

                               "कथा प्रारम्भ"

एक बार भगवान विष्णु एवं देवताओं के परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने भगवत्प्राप्ति की इच्छा से सहस्त्र वर्षों में पूरे होने वाले एक महान् यज्ञ का अनुष्ठान किया । एक दिन उन लोगों ने प्रातःकाल अग्निहोत्र आदि नित्यकृत्यों से निवृत्त होकर सूतजी का पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाकर बड़े आदर से यह प्रश्न किया ।
    ऋषियों ने कह ;- सूतजी! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्म शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है । वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान बादरायण ने एवं भगवान के सगुण-निर्गुण रूप को जानने वाले दूसरे मुनियों ने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका ह्रदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसी से आप उनकी कृपा और अनुग्रह के पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं । आयुष्मान्! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहस साधन आपने क्या निश्चय किया है ।
(प्रथम अध्यायः श्लोक 10-23 का हिन्दी अनुवाद)

आप संत-समाज के भूषण हैं। इस कलियुग में प्रायः लोगों की आयु कम हो गयी हैं। साधन करने में लोगों की रूचि और प्रवृत्ति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं से घिरे हुए भी रहते हैं । शास्त्र भी बहुत-से हैं। परन्तु उनमें एक निश्चित साधन नहीं, अनेक प्रकार के कर्मों का वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धि से उनका सार निकालकर प्राणियों के परम कल्याण के लिये हम श्रद्धालुओं को सुनाइये, जिससे हमारे अन्तःकरण की शुद्धि प्राप्त हो । प्यारे सूतजी! आपका कल्याण हो। आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियों के रक्षक भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी के गर्भ से क्या करने की इच्छा से अवतीर्ण हुए थे । हम उसे सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान का अवतार जीवों के परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी समृद्धि के लिये ही होता है । यह जीव जन्म-मृत्यु के घोर चक्र में पड़ा हुआ है—इस स्थिति में भी यदि वह कभी भगवान के मंगलमय नाम का उच्चारण कर ले तो उसी क्षण उससे मुक्त हो जाय; क्योंकि स्वयं भय भी भगवान से डरता रहता है । सूतजी! परम विरक्त और परम शान्त मुनिजन भगवान के श्रीचरणों की शरण में रहते हैं, अतएव उनके स्पर्ष मात्र से संसार के जीव तुरंन्त पवित्र हो जाते हैं। इधर गंगाजी के जल का बहुत दिनों तक सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है । ऐसे पुण्यात्मा भक्त जिनकी लीलाओं का गान करते रहते हैं, उन भगवान का कलिमलहारी पवित्र यश भला आत्मशुद्धि की इच्छा वाला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो श्रवण न करे । वे लीला से ही अवतार धारण करते हैं। नारदादि महात्माओं ने उनके उदार कर्मों का गान किया है। हम श्रद्धालुओं के प्रति आप उनका वर्णन कीजिये । बुद्धिमान सूतजी! सर्वसमर्थ प्रभु अपनी योगमाया से स्वच्छन्द लीला करते हैं। आप उन श्रीहरि की मंगलमयी अवतार-कथाओं का अब वर्णन कीजिये । पुण्यकीर्ति भगवान की लीला सुनने से हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि रसज्ञ श्रोताओं को पद-पद पर भगवान की लीलाओं में नये-नये रस का अनुभव होता है । भगवान श्रीकृष्ण अपने को छिपाये हुए थे, लोगों के सामने ऐसी चेष्टा करते थे मानो कोई मनुष्य हों। परन्तु उन्होंने बलरामजी के साथ ऐसी लीलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर सकते । कलियुग को आया जानकर इस वैष्णव क्षेत्र में हम दीर्घकालीन सत्र का संकल्प करके बैठे हैं। श्रीहरि की कथा सुनने के लिये हमें अवकाश प्राप्त है । यह कलियुग अन्तःकरण की पवित्रता और शक्ति का नाश करने वाला है। इससे पार पाना कठिन है। जैसे समुद्र से पार जाने वालों को कर्णधार मिल जाय, उसी प्रकार इससे पार पाने की इच्छा रखने वाले हम लोगों से ब्रम्हा ने आपको मिलाया है । धर्म रक्षक, ब्राम्हण भक्त, योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के अपने धाम में पधार जाने पर धर्म ने अब किसकी शरण ली है—यह बताइये ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】


                               (श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का माहात्म्य"
श्रीव्यासजी कहते हैं ;- शौनकादि ब्रम्ह्वादी ऋषियों के ये प्रश्न सुनकर रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियों के इस मंगलमय प्रश्न का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ।
सूतजी ने कहा ;- जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे—‘बेटा! बेटा!’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया। ऐसे सबके ह्रदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ।

 यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय—रहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूप का अनुभव कराने वाला और समस्त वेदों का सार है। संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्ध्कार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये अध्यात्मिक तत्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है। वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्रीशुकदेवजी ने इसका वर्णन किया है। मैं उनको शरण ग्रहण करता हूँ। मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ भगवान के अवतार नर-नारायण ऋषियों को, सरस्वती देवि को और श्रीव्यासदेवजी को नमस्कार करके तब तब संसार और अन्तःकरण के समस्त विकारों पर विजय प्राप्त कराने वाले इस श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ करना चाहिये । ऋषियों! आपने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये यह बहुत सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि यह प्रश्न श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में है और इससे भलीभाँति आत्मशुद्धि हो जाती है । मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति हो—भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से ह्रदय आनन्दस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है । भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का अविर्भाव हो जाता है । धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है । धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिये है। भोग विलास उसका फल नहीं माना गया है । भोग विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं हैं, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्व जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है । तत्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरुप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रम्हा, कोई परमात्मा और कोई भगवान के नाम से पुकारते हैं । श्रद्धालु मुनिजन भागवत श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्य युक्त भक्ति से अपने ह्रदय में उस परम तत्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं । शौनकादि ऋषियों! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसी में है कि भगवान प्रसन्न हों । इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ।

 (द्वितीय अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)

कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है। विचारवान् पुरुष भगवान के चिन्तन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं। तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान की लीला कथा में प्रेम न करे । शौनकादि ऋषियों! पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत्सेवा, तदनन्तर श्रवण की इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत्-कथा में रूचि होती है । भगवान श्रीकृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं। वे अपनी कथा सुनने वालों के ह्रदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतों के नित्य सुहृद हैं । जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्र कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है । तब रजोगुण और तमोगुण के भाव—काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है । इस प्रकार भगवान की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त असक्तियाँ मिट जाती हैं, ह्रदय आनन्द से भर जाता है, तब भगवान के तत्व का अनुभव अपने-आप हो जाता है । ह्रदय में आत्मस्वरूप भगवान का साक्षात्कार होते ही ह्रदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्म बन्धन क्षीण हो जाता है । इसी से बुद्धिमान लोग नित्य-निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्म प्रसाद की प्राप्ति होती है ।
प्रकृति के तीन गुण हैं—सत्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रम्हा और रूद्र—ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है । जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि—क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादि के द्वारा अग्नि सद्गति देने वाला है—वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान का दर्शन कराने वाला है । प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिये विशुद्ध सत्वमय भगवान विष्णु की आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हीं के समान कल्याण भाजन होते हैं । जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोर रूप वाले—तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्वगुणी विष्णु भगवान और उनके अंश—कला स्वरूपों का ही भजन करते हैं । परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और सन्तान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) – से मिलता-जुलता होता है । वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है ।

 (द्वितीय अध्यायः श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद)


ज्ञान से ब्रम्हस्वरुप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी माया से, जो प्रपंच की दृष्टि से है और तत्व की दृष्टि से नहीं है—उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी । ये सत्व, रज और तम—तीनों गुण उसी माया के विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तव में तो वे परिपूर्ण विज्ञानघन हैं । अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परन्तु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान तो एक ही हैं, परन्तु प्राणियों की अनेकता से अनेक-जैसे जान पड़ते हैं । भगवान ही इस सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणों के विकार भूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन-उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं । वे ही सम्पूर्ण लोगों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】


                               (श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)


"भगवान के अवतारों का वर्णन"
श्रीसूतजी कहते हैं ;- सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महतत्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत—ये सोलह कलाएँ थीं ।
  उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रम्हाजी उत्पन्न हुए । भगवान के उस विराट् रूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्वमय श्रेष्ठ रूप है । योगी लोग दिव्यदृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है । भगवान का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है ।

     उन्हीं प्रभु ने पहले कौमार सर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—इन चार ब्राम्हणों के रूप में अवतार ग्रहण अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रम्हचर्य का पालन किया।

दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सुकर रूप ग्रहण किया ।

 ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र का (जिसे ‘नारद-पांचरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ।

धर्म पत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ।

 पाँचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्वों का निर्णय करने वाले सांख्य-शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राम्हण को उपदेश किया ।
अनसूया के वर माँगने पर छठे अवतार में वे अत्रि की सन्तान—दत्तात्रेय हुए। इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रम्हज्ञान का उपदेश किया।

सातवीं बार रूचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की ।

राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वन्दनीय है, दिखाया ।

ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियों! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ।

(तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद)


चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की ।

जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया ।

बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए

और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया ।

   चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त भगवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है ।

पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ।

सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राम्हणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया ।

इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रुप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति का देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं ।

अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ।

उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा ।

उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार)—में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा ।
इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का
 अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे ही जायँगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राम्हण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे ।
शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं । ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं । ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं । भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय—रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियम पूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है । प्राकृत स्वरुपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महतत्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है । जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसर पने का वायु में आरोप करते हैं—वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्य रूप जगत् का आरोप करते हैं ।

(तृतीय अध्यायः श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद)

इस स्थूल रूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणों वाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्म शरीर है। आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म होता है । उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित हैं। जिस अवस्था में आत्मस्वरुप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रम्ह का साक्षात्कार होता है । तत्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरुप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है ।

   वास्तव में जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं । भगवान की लीला अमोघ है। वे लीला सही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियों के अन्तःकरण में छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं—ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते । जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैस ही अपने अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता । चक्रपाणि भगवान की शक्ति औरर पराक्रम अनन्त है—उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत् के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरुप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है—सेवा भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है ।
     शौनकादि ऋषियों! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरण रूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पड़ना होता । भगवान वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है । उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराण को लोगों के परम कल्याण के लिये अपने आत्मज्ञान शिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया । इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित् को यह सुनाया । उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गंगा तट पर बैठे हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परम धाम को पधार गये, तब इस कलियुग में जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार से अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराण रूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियों! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपा पूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाउँगा ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】


                               (श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"महर्षि व्यास का असन्तोष"
व्यासजी कहते हैं ;- उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्यावयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ।
शौनकजी बोले ;- सूतजी! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं, जो कथा भगवान श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ।वह कथा किस युग में, किस स्थान पर और किस कारण से हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था । उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेद भावरहित, संसार निद्रा से एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थिर रहते हैं। वे छिपे रहने के कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं । व्यासजी जब संन्यास के लिये वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नगें शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परंतु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन किये थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यासजी ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परंतु आपके पुत्र की शुद्धि दृष्टि में यह भेद नहीं है’ कुरुजांगल देश में पहुँचकर हस्तिनापुर में वे पागल, गूँगे तथा जड़ के समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना ?
 पाण्डव नन्दन राजर्षि परीक्षित् का इन मौनी शुकदेवजी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवत संहिता कही गयी ? महाभाग श्रीशुकदेवजी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थस्वरुप बना देने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं, जितनी देर में एक गाय दुही जाती है । सूतजी! हमने सुना है कि अभिमन्यु नन्दन परीक्षित् भगवान के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मों का भी वर्णन कीजिये । वे तो पाण्डववंश के गौरव बढ़ाने वाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारण से साम्राज्य लक्ष्मी का परित्याग करके गंगा तट पर मृत्यु पर्यन्त अनशन का व्रत लेकर बैठे थे ? शत्रुगण अपने भले के लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखने की चौकी को नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मी को, अपने प्राणों के साथ भला, क्यों त्याग देने की इच्छा की । जिन लोगों का जीवन भगवान के आश्रित है, वे तो संसार के परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धि के लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरों के हित के लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया । वेदवाणी को छोड़कर अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूतजी! इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा है, वह सब कृपा करके हैं कहिये । सूतजी कहते हैं—इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापर में महर्षि पराशर के द्वारा वसुकन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कलावतार योगिराज व्यासजी का जन्म हुआ । एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थान पर बैठे हुए थे ।

 (चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद)

महर्षि भूत और भविष्य को जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्म संकरता और उसके प्रभाव से भौतिक वस्तुओं की भी शक्ति का ह्रास होता रहता है। संसार के लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगों की इस भाग्यहीनता को देखकर उन मुनीश्वर ने अपनी दिव्य दृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इस पर विचार किया । उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र कर्म लोगों का ह्रदय शुद्ध करने वाला है। इस दृष्टि से यज्ञों का विस्तार करने के लिये उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये ।
    व्यासजी के द्वारा ऋक्, यजुः, साम और अथर्व—इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण) हुआ। इतिहास और पुराणों को पाँचवाँ वेद कहा जाता है । उनमें से ऋग्वेद के पैल, सामगान के विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्नातक वैशम्पायन हुए । अथर्ववेद में प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि। इतिहास और पुराणों के स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे । इन पूर्वोक्त ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा को और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्यों द्वारा वेदों की बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं । कम समझने वाले पुरुषों पर कृपा करके भगवान वेदव्यास ने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगों को स्मरण शक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदों को धारण कर सकें । स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति—तीनों ही वेद-श्रवण के अधिकारी नहीं हैं। इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मों के आचरण में भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजी ने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहास रचना की । शौनकादि ऋषियों! यद्यपि व्याजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा-सर्वदा प्राणियों के कल्याण में ही लगे रहे, तथापि उनके ह्रदय को सन्तोष नहीं हुआ। उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे—‘मैंने निष्कपट भाव से ब्रम्ह्चर्यादी व्रतों का पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया है । महाभारत की रचना के बहाने मैंने वेद के अर्थ को खोल दिया है—जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । यद्यपि मैं ब्रम्हतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा ह्रदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है । अवश्य ही अब तक मैंने भगवान को प्राप्त कराने वाले धर्मों का प्रायः निरूपण नहीं किया है। वे ही धर्म परमहंसों को प्रिय हैं और वे ही भगवान को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णता का यही कारण है)’। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास इस प्रकार अपने को अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रम पर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे । उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओं के द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की ।

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【पञ्चम अध्याय:】


                               (श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)


"भगवान के यश-कीर्तन की महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्व चरित्र"
सूतजी कहते हैं ;- तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारद ने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रम्हर्षि व्यासजी से कहा ।
नारदजी ने प्रश्न किया ;- महाभाग व्यासजी! आपके शरीर एवं मन—दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तन से सन्तुष्ट हैं न ? अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह महाभारत की रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थों से परिपूर्ण है । सनातन ब्रम्हतत्व को भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है। फिर भी प्रभु! आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ?

  व्यासजी ने कह ;- आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होने पर भी मेरा ह्रदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रम्हाजी के मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ । नारदजी! आप समस्त गोपनीय रहस्यों को जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुष की उपासना की है, जो प्रकृति-पुरुष दोनों के स्वामी हैं और असंग रहते हुए ही अपने संकल्प मात्र से गुणों एक द्वारा संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं । आप सूर्य की भाँति तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं और योगबल से प्राण वायु के समान सबके भीतर रहकर अन्तःकरणों के साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमों के द्वारा परब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह दोनों की पूर्ण प्राप्ति कर लेने पर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये ।
नारदजी ने कहा ;- व्यासजी! आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधुरा है । आपने धर्म आदि पुरुषार्थों का जैसा निरूपण किया है, भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया । जिस वाणी से—चाहे रस-भाव-अलंकारादि से युक्त ही क्यों न हो—जगत् को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र मानी जाती हैं। मानसरोवर के कमनीय कमलवन में विरहने वाले हंसों की भाँति ब्रम्हधाम में विहार करने वाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते । इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान के सुयश सूचक नामों से युक्त है, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं । वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओं में सदा ही अमंगल रूप है, वह काम्य कर्म और जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है |


 (पञ्चम अध्यायः श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)

महाभाग व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यनारायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवों को बन्धन से मुक्त करने के लिये समाधि के द्वारा अचिन्त्य-शक्ति भगवान की लीलाओं का स्मरण कीजिये । जो मनुष्य भगवान की लीला के अतिरिक्त और कुछ कहने की इच्छा करता है, वह उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर मीन पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभाव से भर जाती है। जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई डोंगी को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता, वैस ही उसी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती । संसारी लोग स्वभाव से ही विषयों फँसे हुए हैं। धर्म के नाम पर आपने उन्हें निन्दित (पशु हिंसा युक्त) सकाम कर्म करने की भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्ख लोग आपके वचनों से पूर्वोक्त निन्दित कर्म को ही धर्म मानकर—‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करने वाले वचनों को ठीक नहीं मानते । भगवान अनन्त हैं। कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसार की ओर से निवृत्त होकर उनके स्वरुप भूत परमानन्द का अनुभव कर सकता है। अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धि से रहित हैं और गुणों के द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याण के लिये ही आप भगवान की लीलाओं सर्वसाधारण के हित की दृष्टि से वर्णन कीजिये । जो मनुष्य अपने धर्म का परित्याग करके भगवान के चरणकमलों का भजन-सेवन करता है—भजन परिपक्व हो जाने पर तो बात ही क्या है—यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमंगल हो सकता है ? परन्तु जो भगवान का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्म का पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है । बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि वह उसी वस्तु की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करे, जो तिनके से लेकर ब्रम्हापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियों में कर्मों के फलस्वरूप आने-जाने पर भी स्वयं प्राप्त नहीं होती। संसार के विषय सुख तो, जैसे बिना चेष्टा के दुःख मिलते हैं वैसे ही, कर्म के फलरूप में अचिन्त्य गति समय के फेर से सबको सर्वत्र स्वभाव से ही मिल जाते हैं । व्यासजी! जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का सेवक है वह भजन न करने वाले कर्मी मनुष्यों के समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जाने पर भी जन्म-मृत्युमय संसार में नहीं आता। वह भगवान के चरणकमलों के आलिंगन का स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रस का चसका जो लोग चुका है । जिनसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान ही इस विश्व के रूप में भी हैं। ऐसा होने पर भी वे इससे विलक्षण हैं। इस बात को आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है ।
     व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बात को जानिये कि आप पुरुषोत्तम-भगवान के कलावतार हैं। आपने अजन्मा होकर भी जगत् के कल्याण के लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेष रूप से भगवान की लीलाओं का कीर्तन कीजिये । विद्वानों ने इस बात का निरूपण किया है कि मनुष्य की तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दान का एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्ण के गुणों और लीलाओं का वर्णन किया जाय ।

 (पञ्चम अध्यायः श्लोक 23-36 का हिन्दी अनुवाद)

मुने! पिछले कल्प में अपने पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राम्हणों की एक दासी का लड़का था। वे योगी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपन में ही मैं उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया था । मैं यद्यपि बालक था, फिर भी किसी प्रकार की चंचलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था, खेल-कूद से दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था। मैं बोलता भी बहुत कम था। मेरे इस शील-स्वभाव को देखकर समदर्शी मुनियों ने मुझ सेवक पर अत्यन्त अनुग्रह किया । उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनों में लगा हुआ प्रसाद मैं एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे सारे पाप धुल गये। इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा ह्रदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रूचि हो गयी । प्यारे व्यासजी! उस सत्संग में उन लीला गान परायण महात्माओं के अनुग्रह से मैं प्रतिदिन श्रीकृष्ण की मनोहर कथाएँ सुना करता। श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवान में मेरी रूचि हो गयी । महामुने! जब भगवान में मेरी रूचि हो गयी, तब उन मनोहर कीर्ति प्रभु में मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धि से मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्-रूप जगत् को अपने परब्रम्ह स्वरुप आत्मा में माया से कल्पित देखने लगा ।
      इस प्रकार शरद् और वर्षा—इन दो ऋतुओं में तीनों समय उन महात्मा मुनियों ने श्रीहरि के निर्मल यश का संकीर्तन किया और मैं प्रेम से प्रत्येक बात सुनता रहा। अब चित्त के रजोगुण और तमोगुण के नाश करने वाली भक्ति का मेरे ह्रदय में प्रादुर्भाव हो गया । मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन लोगों की सेवा से मेरे पाप नष्ट हो चुके थे। मेरे ह्रदय में श्रद्धा थी, इन्द्रियों में संयम था एवं शरीर, वाणी और मन से मैं उनका आज्ञाकारी था । उन दीनवत्स महत्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्तम ज्ञान का उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से किया है । उस उपदेश से ही जगत् के निर्माता भगवान श्रीकृष्ण की माया के प्रभाव को मैं जान सका, जिसके जान लेने पर उनके परमपद की प्राप्ति हो जाती है । सत्यसंकल्प व्यासजी! पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों की एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको बतला दी । प्राणियों को जिस पदार्थ के सेवन से जो रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्सा विधि के अनुसार प्रयोग करने पर क्या उस रोग को दूर नहीं करता ? इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्यों को जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्र में डालने वाले हैं, तथापि जब वे भगवान को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है । इस लोक में जो शास्त्रविहित कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिये किये जाते हैं, उन्हीं से पराभक्ति युक्त ज्ञान की प्राप्ति होती है । उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान श्रीकृष्ण के गुण और नामों का कीर्तन तथा स्मरण करते हैं ।

(पञ्चम अध्यायः श्लोक 37-40 का हिन्दी अनुवाद)

‘प्रभो! आप भगवान श्रीवासुदेव को नमस्कार है। हम आपका ध्यान करते हैं। प्रदुम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है’। इस प्रकार जो पुरुष चतुर्व्यूह रूपी भगवन्मूर्तियों के नाम द्वारा प्राकृत मूर्ति रहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान यज्ञपरुष का पूजन करता है, उसी का ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है। ब्रम्हन्! जब मैंने भगवान की आज्ञा का इस प्रकार पालन किया, तब इस बात को जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आत्मज्ञान, ऐश्वर्य और अपनी भावरुपा प्रेमाभक्ति का दान किया । व्यासजी! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप भगवान की ही कीर्ति का—उनकी प्रेममयी लीला का वर्णन कीजिये। उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है। जो लोग दुःखों के द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःख की शान्ति इसी से हो सकती है और कोई उपाय नहीं है ।

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