सम्पूर्ण विष्णु पुराण (षष्ठ अंश) का चौथा, पाँचवाँ व छठा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (षष्ठ अंश) का  चौथा, पाँचवाँ , व छठा अध्याय}} {The fourth, fifth, and sixth chapters of the entire Vishnu Purana (six part)}

                                  "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
"नित्यानन्दं नित्यविहारं निरपाय निराधार नीरद कान्ति निरवद्य । नानानानाकारमनाकारमुदारं वन्दे विष्णुं नीरजनाभं नलिनाक्षम् ॥"


                                         श्री विष्णुपुराण
                                            ( षष्ठ अंश )

         -------चौथा अध्याय-----


"प्राकृत प्रलय का वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- हे महामुने ! जब जल सप्तर्षियों के स्थान को भी पार कर जाता है तो यह सम्पूर्ण त्रिलोकी एक महा समुद्र के समान हो जाती है॥ १ ॥ हे मैत्रेय ! तदनन्तर, भगवान विष्णु के मुख-निःश्वाससे प्रकट हुआ वायु उन मेघोंको नष्ट करके पुनः सौ वर्ष तक चलता रहता है । २ ॥ फिर जनलोकनिवासी सनकादि सिद्ध गण स्तुत और ब्रह्मलोक को प्राप्त हुए मुमुक्षुओंसे ध्यान किये जाते हुए ब्रह्ममूर्तिधारी, सर्वभूतमय, अचिन्त्य, अनादि, जगत् के आदिकारण, आदिकर्ता, भूतभावन, मधु सूदन भगवान हरि विश्वके सम्पूर्ण वायुको पीकर अपनी दिव्यमायारूपिणी योगनिद्राका आश्रय ले अपने वासुदेवात्मक स्वरूपका चिन्तन करते हुए उस महासमुद्र में शेषशय्यापर शयन करते हैं ॥ ३-६॥ हे मैत्रेय ! इस प्रलयके होने में ब्रह्मा रूप धारी भगवान हरिका शयन करना ही निमित्त है; इसलिये यह नैमित्तिक प्रलय कहलाता है ॥ ७ ॥ जिस समय सर्वात्मा भगवान विष्णु जागते रहते हैं उस समय सम्पूर्ण संसारकी चेष्टाएँ होती रहती हैं और जिस समय वे अच्युत मायारूपी शय्यापर सो जाते हैं उस समय संसार भी लीन हो जाता है ॥ ८ ॥ जिस प्रकार ब्रह्माजी का दिन एक हजार चतुर्युग का होता है उसी प्रकार संसारके एकार्णवरूप हो जानेपर उनकी रात्रि भी उतनी ही बड़ी होती है ॥९॥ उस रात्रिका अन्त होनेपर अजन्मा भगवान विष्णु जागते हैं और ब्रह्मा रुप धारणकर, जैसा तुम से पहले कहा था उसी क्रमसे फिर सृष्टि रचते हैं ॥ १० ॥

हे द्विज ! इस प्रकार तुमसे कल्पान्तमें होनेवाले नैमित्तिक एवं अवान्तर-प्रलय का वर्णन किया । अब दूसरे प्राकृत प्रलय का वर्णन सुनो ॥ ११ ॥ हे मुने ! अनावृष्टि आदि के संयोग से सम्पूर्ण लोक और निखिल । पाताल के नष्ट हो जानेपर तथा भगवदिच्छासे उसप्रलय काल के उपस्थित होनेपर जब महत्त्व से लेकर [पृथ्वी आदि पंच ] विशेषपर्यन्त सम्पूर्ण विकार क्षीण हो जाते हैं तो प्रथम जल पृथ्वी के गुण गंधको अपने में लीन कर लेता है। इस प्रकार गन्ध छिन जाने से पृथ्वी का प्रलय हो जाता है । १२-१४ ॥ गन्ध-तन्मात्राके नष्ट हो जानेपर पृथिवी जलमय हो जाती है, उस समय बड़े वेग से घोर शब्द करता हुआ जल बढ़कर इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर लेता है । यह जल कभी स्थिर होता और कभी बहने लगता है । इस प्रकार तरङ्गमालाओंसे पूर्ण इस जलसे सम्पूर्ण लोक सब ओरसे व्याप्त हो जाते हैं ॥१५-१६॥ तदनन्तर जलके गुण रसको तेज अपनेमें लीन कर लेता है । फिर रस-तन्मात्राका क्षय हो जानेसे जल भी नष्ट हो जाता है ॥ १७ ॥ तब रसहीन हो जानेसे जल अग्निरूप हो जाता है तथा अग्नि के सब ओर व्याप्त हो जानेसे जलके अग्निमें स्थित हो जानेपर वह अग्नि सब ओर फैलकर सम्पूर्ण जलको सोख लेता है और धीरे-धीरे यह सम्पूर्ण जगत् ज्वालासे पूर्ण हो जाता है ।। १८-१९ ।। जिस समय सम्पूर्ण लोक ऊपर-नीचे तथा सब ओर अग्निशिखाओंसे व्याप्त हो जाता उस समय अग्नि के प्रकाशक स्वरूपको वायु अपने में लीन कर लेता है ॥ २० ॥ सबके प्राणस्वरूप उस वायु में जब अग्नि का प्रकाशक रूप लीन हो जाता है तो रूप-तन्मात्रा के नष्ट हो जानेसे अग्नि रूपहीन हो जाता है ॥ २१ ॥ उस समय संसारके प्रकाशहीन और तेज वायु में लीन हो जानेसे अग्नि शान्त हो जाता है और अति प्रचण्ड वायु चलने लगता है ॥ २२ । तब अपने उद्भवस्थान आकाशका आश्रयकर वह प्रचण्ड वायु ऊपर-नीचे तथा सब ओर दशों दिशाओं में बड़े वेग से चलने लगता है ॥ २३ ॥ तदनन्तर वायु के गुण स्पर्शको आकाश लीन कर लेता है; तब वायु शान्त हो जाता है और आकाश आवरणहीन हो जाता है ॥ २४ | उस समय रूप, रस, स्पर्श, गंध तथा आकार से रहित अत्यन्त महान् एक आकाश ही सबको व्याप्त करके प्रकाशित होता है ॥२५॥

उस समय चारों ओरसे गोल, छिद्रस्वरूप, शब्द- लक्षण आकाश ही शेष रहता है; और वह शब्द मात्र आकाश सबको आच्छादित किये रहता है । २६ ॥ तदनन्तर, आकाश के गुण शब्द को भूतादि ग्रस लेता है। इस भूतादिमें ही एक साथ पंचभूत और इन्द्रियों का भी लय हो जानेपर केवल अहंकारात्मक रह जानेसे यह तामस ( तम: प्रधान ) कहलाता है। फिर इस भूतादिको भी [ सत्त्वप्रधान होनेसे ] बुद्धिरूप महत्तत्व ग्रस लेता है ॥ २७.२८॥

जिस प्रकार पृथ्वी और महत्तत्त्व ब्रह्माण्ड के अन्तर्जगत् की आदि और अन्तिम सीमाएँ हैं उसी प्रकार उसके बाह्य जगत् कि भी हैं । २९ ॥ हे महाबुद्धे ! इसी तरह जो सात आवरण बताये गये हैं वे सब भी प्रलय काल में [ पूर्ववत् पृथ्वी आदि क्रमसे ] परस्पर ( अपने-अपने कारणों में ) लीन हो जाते हैं ॥ ३० ॥ जिससे यह समस्त लोक व्याप्त है । वह सम्पूर्ण भूमण्डल सातों द्वीप, सातों समुद्र, सातों लोक और सकल पर्वत-श्रेणियों के सहित जल में लीन हो जाता है  ।।३१ ॥ फिर जो जलका आवरण है उसे अग्नि पी जाता है तथा अग्नि वायु में और वायु आकाश में लीन हो जाता है । ३२ ॥ हे द्विज ! आकाशको भूतादि (तामस अहंकार ) , भूतादिको महत्तत्व और इन सबके सहित महत्तत्त्व को मूल प्रकृति अपनेमें लीन कर लेती है ।। ३३ । हे महामुने ! न्यूनाधिकसे रहित जो सत्त्वादि तीनों गुणों की साम्यावस्था है उसीको प्रकृति कहते हैं; इसीका नाम प्रधान भी है। यह प्रधान ही सम्पूर्ण जगत् का परम कारण है ।। ३४ ॥ यह प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त रूप से सर्वमयी है । हे मैत्रेय ! इसीलिये अव्यक्त में व्यक्तरूप लीन हो जाता है ॥ ३५ ॥
इससे पृथक् जो एक शुद्ध, अक्षर, नित्य और सर्वव्यापक पुरुष है वह भी सर्वभूत परमात्मा का अंश ही है॥ ३६ ॥ जिस सत्तामात्रस्वरूप आत्मा (देहादि संघात ) से पृथक् रहने वाले ज्ञानात्मा एवं ज्ञातव्य सर्वेश्वर में नाम और जाति आदिकी कल्पना नहीं है वही सबका परम आश्रय परब्रह्म परमात्मा है और वही ईश्वर है। वह विष्णु ही इस अखिल विश्वरूपसे अवस्थित है । उसको प्राप्त हो जानेपर योगिजन फिर इस संसार में नहीं लौटते ॥३७-३८॥ 
जिस व्यक्त और अव्यक्त स्वरूपिणी प्रकृति का मैंने वर्णन किया है वह तथा पुरुष-ये दोनों भी उस परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं ॥ ३९ ॥ वह परमात्मा सबका आधार और एकमात्र अधीश्वर है; उसीका वेद और वेदान्तोंमें विष्णुनामसे वर्णन किया है ॥ ४० ॥ वैदिक कर्म दो प्रकारका है --- प्रवृत्तिरूप ( कर्म योग ) और निवृत्ति रूप ( संख्य योग )। इन दोनों प्रकार के कर्मो से उस सर्वभूत पुरुषोत्तम का ही यजन किया जाता है ॥ ४१ । मनुष्यों द्वारा ऋक् , यजुः और सामवेदोक्त प्रवृत्ति मार्गसे उन यज्ञपति पुरुषोत्तम यज्ञ पुरुष का ही पूजन किया जाता है ।। ४२ ।। तथा निवृत्ति-मार्ग में स्थित योगिजन भी उन्हीं ज्ञानात्मा ज्ञानस्वरूप मुक्ति-फल दायक भगवान विष्णु का ही ज्ञान योग द्वारा यजन करते हैं ॥ ४३ ॥ ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत-इन त्रिविध स्वरों से जो कुछ कहा जाता है तथा जो वाणीका विषय नहीं है वह सब भी अव्ययात्मा विष्णु ही है ॥ ४४ ॥ वह विश्वरूपधारी विश्वरूप परमात्मा श्री हरि ही व्यक्त, अव्यक्त एवं अविनाशी पुरुष हैं ॥ ४५ ॥ हे मैत्रेय ! उन सर्वव्यापक और अविकृत रूप परमात्मा में ही व्यक्ताव्यक्तरूपिणी प्रकृति और पुरुष लीन हो जाते हैं ॥ ४६॥


हे मैत्रेय ! मैंने तुमसे जो द्विपरार्द्ध काल कहा है वह उन [ ब्रह्मा रूपधारी] विष्णु भगवान का केवल एक दिन है । ४७ ।। हे महामुने ! व्यक्त जगत के अव्यक्त प्रकृतिमें और प्रकृतिके पुरुषमें लीन हो जानेपर इतने ही काल की विष्णु भगवान की रात्रि होती है ॥ ४८ ॥ हे द्विज ! वास्तव में तो उन नित्य परमात्मा का न कोई दिन है और न रात्रि तथापि केवल उपचार ( अध्यारोप) से ऐसा कहा जाता है ॥ ४९ ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे यह प्राकृत प्रलय का वर्णन किया, अब तुम आत्यन्तिक प्रलय का वर्णन और सुनो ॥ ५० ॥


       "इति श्रीविष्णुपुराणे ष्ठेऽशे चतुर्थोऽध्यायः"


   ------ "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " ------
         

                    (षष्ठ अंश)


          -----पाँचवाँ अध्याय---

"आध्यात्मिकादि त्रिविध तापों का वर्णन, भगवान तथा वासुदेव शब्दों की व्याख्या और भगवान् के पारमार्थिक स्वरूपका वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-तीनों तापोंको जानकर ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होनेपर पण्डित जन आत्यन्तिक प्रलय प्राप्त करते हैं । १ ॥ आध्यात्मिक ताप शारीरिक और मानसिक दो प्रकारके होते हैं; उनमें शारीरिक तापके भी कितने ही भेद हैं, वह सुनो ॥ २ ॥ शिरोरोग, प्रतिश्याय (पीनस ), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म, अर्श (बवासीर), शोथ (सूजन), श्वास (दमा), छर्दि तथा नेत्ररोग, अतिसार और कुष्ठ आदि शारीरिक कष्ट-भेदसे दैहिक तापके कितने ही भेद हैं। अब मानसिक तापोंको सुनो ॥ ३-४ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ! काम, क्रोध, भय, द्वेष , लोभ, मोह, विषाद, शोक, असूया ( गुणोंमें दोषारोपण ), अपमान, ईर्ष्या और मात्सर्य आदि भेदोंसे मानसिक तापके अनेक भेद हैं। ऐसे ही नाना प्रकारके भेदोंसे युक्त तापको आध्यात्मिक कहते हैं ।॥ ५-६॥ मनुष्यों को जो दुःख मृग, पक्षी, मनुष्य, पिशाच, सर्प, राक्षस और सरीसृप ( बिच्छू ) आदिसे प्राप्त होता है, उसे आधिभौतिक कहते हैं ॥ ७॥ तथा हे द्विजवर ! शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत आदिसे प्राप्त हुए दुःख को श्रेष्ठ पुरुष आधिदैविक कहते हैं ॥८॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! इनके अतिरिक्त गर्भ, जन्म, जरा, अज्ञात, मृत्यु और नरकसे उत्पन्न हुए दु:ख के भी सहस्त्रों प्रकार के भेद हैं ॥९॥ अत्यन्त मलपूर्ण गर्भाशय में उल्ब (गर्भ की झिल्ली) से लिपटा हुआ यह सुकुमारशरीर जीव, जिसकी पीठ और ग्रीवा की अस्थियां कुण्डलाकार मुड़ी रहती हैं माताके खाये हुए अत्यन्त तापप्रद खट्टे, कड़वे, चरपरे, गर्म और खारे पदार्थोंसे जिसकी वेदना बहुत बढ़ जाती है, जो मल-मूत्ररूप महापङ्कमें पड़ा-पड़ा सम्पूर्ण अंगों में अत्यन्त पीड़ित होनेपर भी अपने अंगों को फैलाने या सिकोड़नेमें समर्थ नहीं होता और चेतनायुक्त होनेपर भी श्वास नहीं ले सकता, अपने सैकड़ों पूर्व जन्मों का स्मरण कर कर्मों से बंधा हुआ अत्यन्त दुःखपूर्वक गर्भ में पड़ा रहता है || १० -१३ ॥ उत्पन्न होने के समय उसका मुख मल, मूत्र, रक्त और वीर्य आदिमें लिपटा रहता है और उसके सम्पूर्ण अस्थि बंधन प्राजापत्य (गर्भ को संकुचित करने वाली) वायुसे अत्यन्त पीड़ित होते हैं ।। १४ ॥ प्रबल प्रसूति- वायु उसका मुख नीचेको कर देती है और वह आतुर होकर बड़े क्लेशके साथ माता के गर्भाशय से बाहर निकल पाता है ।। १५ ।।

हे मुनिसत्तम ! उत्पन्न होनेके अनन्तर बाह्य वायुका स्पर्श होनेसे अत्यन्त मूर्छित होकर वह बेसुध हो जाता है ॥ १६ ॥ उस समय वह जीव दुर्गन्धयुक्त फोड़े में से गिरे हुए किसी कण्टक विद्ध अथवा आरेसे चीरे हुए कीड़ेके समान पृथ्वी पर गिरता है ॥ १७ ॥ उसे स्वयं खुजलाने अथवा करवट लेनेकी भी शक्ति नहीं रहती। वह स्नान तथा दुग्ध पानादि आहार भी दूसरेहीकी इच्छासे प्राप्त करता है ॥ १८॥ अपवित्र ( मल-मूत्रादिमें सने हुए ) बिस्तरपर पड़ा रहता है, उस समय कीड़े और डाँस आदि उसे काटते हैं तथापि वह उन्हें दूर करने में भी समर्थ नहीं होता ॥ १९ ॥

इस प्रकार जन्म के समय और उसके अनन्तर बाल्यावस्थामें जीव आधिभौतिकादि अनेकों दुःख भोगता है ॥ २० ॥ अज्ञानरूप अन्धकारसे आवृत होकर मूढ़ह्र्दय पुरुष पर यह नहीं जानता कि 'मैं कहाँसे आया हूँ ? कौन हूँ ? कहाँ जाऊँगा ? तथा मेरा स्वरूप क्या है ? ॥ २१ ॥ मैं किस बंधन से बँधा हुआ हूँ ? इस बंधन का क्या कारण है ? अथवा यह अकारण ही प्राप्त हुआ है ? मुझे क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिये ? तथा क्या कहना चाहिये और क्या न कहना चाहिये ? ॥ २२ ॥ धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? किस अवस्थामें मुझे किस प्रकार रहना चाहिये ? क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है ? अथवा क्या गुणमय और क्या दोषमय है ?' ॥ २३ ॥ इस प्रकार पशुके समान विवेकशून्य शिश्ऩोदरपरायण पुरुष अज्ञानजनित महान् दुःख भोगते हैं । २४ ॥

हे द्विज ! अज्ञान तामसिक भाव (विकार) है; अतः अज्ञानी पुरुषों की ( तामसिक) कर्मों के आरम्भमें प्रवृत्ति होती है। इससे वैदिक कर्मोंका लोप हो जाता है ।। २५ ।। मनीषिजनोंने कर्म-लोप का फल नरक बतलाया है; इसलिये अज्ञानी पुरुषों को इहलोक और परलोक दोनों जगह अत्यंत ही दुःख भोगना पड़ता है ॥ २६ ॥ शरीर के जरा-जर्जरित हो जाने पर पुरुष के अङ्ग प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं, उसके दाँत पुराने होकर उखड़ जाते हैं और शरीर झुर्रियों तथा नस-नाड़ियोंसे आवृत हो जाता है ।। २७ ।। उसकी दृष्टि दूरस्थ विषयके ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती है, नेत्रों के तारे गोलकोंमें घुस जाते हैं; नासिकाके रन्ध्रोंमेंसे बहुत-से रोम बाहर निकल आते हैं और शरीर काँपने लगता है ॥ २८ ॥ उसकी समस्त हड्डियाँ दिखलायी देने लगती हैं, मेरुदण्ड झुक जाता है तथा जठराग्निके मन्द पड़ जानेसे उसके आहार और पुरुषार्थ कम हो जाते हैं ॥ २९ ॥ उस समय उसकी चलना-फिरना, उठना बैठना और सोना आदि सभी चेष्टाएँ बड़ी कठिनता से होती हैं। उसके श्रोत्र और नेत्रोंकी शक्ति मन्द पड़ जाती है तथा लार बहुते रहनेसे उसका मुख मलिन हो जाता है ॥ ३० ॥ अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ स्वाधीन न रहने के कारण वह सब प्रकार मरणासन्न हो जाता है तथा [स्मरणशक्ती के क्षीण हो जानेसे ] वह उसी समय अनुभव किये हुए समस्त पदार्थों को भी भूल जाता है ॥ ३१ ।। उसे एक वाक्य उच्चारण करने में भी महान् परिश्रम होता है तथा श्वास और खाँसी आदिके महान् कष्टके कारण वह [दिन-रात ] जागता रहता है ।।३२।। वृद्ध पुरुष औरोंकी सहायता से ही उठता तथा औरोंके बिठानेसे ही बैठ सकता है, अतः वह अपने सेवक और स्त्री-पुत्रादिके लिये सदा अनादर का पात्र बना रहता है ॥ ३३ ॥

उसका समस्त शौचाचार नष्ट हो जाता है तथा भोग और भोजन की लालसा बढ़ जाती है। उसके परिजन भी उसकी हँसी उड़ाते हैं और समस्त बन्धुजन उससे उदासीन हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ अपनी युवा वस्थाकी चेष्टाओंको अन्य जन्ममें अनुभव की हुई सो स्मरण करके वह अत्यन्त सन्तापवश दीर्घ निःश्वास छोड़ता रहता है ॥ ३५ ॥

इस प्रकार वृद्धावस्था में ऐसे ही अनेकों दुःख अनुभव कर उसे मरण काल में जो कष्ट भोगने पड़ते हैं वे भी सुनो ॥ ३६ ॥ उसके कण्ठ और हाथ-पैर शिथिल पड़ जाते, शरीर में अत्यन्त कम्प छा जाता है, उसे बार-बार ग्लानि होती और कभी कुछ चेतना भी आ जाती है ॥ ३७॥ उस समय वह अपने हिरण्य ( सोना ), धान्य, पुत्र-स्त्री, भृत्य और गृह आदिके प्रति 'इन सबका क्या होगा ?' इस प्रकार अत्यन्त ममतासे व्याकुल हो जाता है ।। ३८ ॥ उस समय मर्मभेदी क्रकच ( आरे ) तथा यमराजके विकराल बाणके समान महाभयङ्कर रोगोंसे उसके प्राण बन्धन कटने लगते हैं ॥ ३९ ॥ उसकी आँखोंके तारे चढ़ जाते हैं, वह अत्यन्त पीड़ासे बारंबार हाथ-पैर पटकता है तथा उसके तालु और ओंठ सूखने लगते हैं ॥ ४० ॥ फिर क्रमशः दोष-समूहसे उसका कण्ठ रुक जाता है; अतः वह 'घर्घर' शब्द करने लगता है, तथा ऊर्ध्वश्वाससे पीड़ित और महान् तापसे व्याप्त होकर क्षुधा-तृष्णा से व्याकुल हो उठता है ॥४१॥ ऐसी अवस्थामें भी यमदूतोंसे पीड़ित होता हुआ वह बड़े क्लेशसे शरीर छोड़ता है और अत्यन्त कष्टसे कर्मफल भोगनेके लिये यातना-देह प्राप्त करता है ॥४२॥ मरणकालमें मनुष्योंको ये और ऐसे ही अन्य भयानक कष्ट भोगने पड़ते हैं; अब, मरणोपरान्त उन्हें नरकमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं वह सुनो-॥ ४३ ॥
प्रथम यम-किङ्कर अपने पाशों में बाँधते हैं, फिर उनके दण्ड-प्रहार सहने पड़ते हैं, तदनन्तर यमराज का दर्शन होता है और वहाँँ तक पहुँचने मेंं बड़ा दुर्गम मार्ग देखना पड़ता हैं ।। ४४।।

हे द्विज ! फिर तप्त बालुका, अग्नि-यन्त्र और शस्त्रादि से महाभयंकर नरकोंमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती है वे अत्यन्त असह्य होती हैं ॥ ४५ ॥ आरेसे चीरे जाने, मूसमें तपाये जाने, कुल्हाड़ी से काटा जाने, भूमिमें गाड़े जाने, शूलीपर चढ़ाये जाने, सिंह के मुख में डाले जाने, गिद्धोंके नोचने, हाथियों से दलित होने, तेलमें पकाये जाने, खारे दलदलमें फँसने, ऊपर ले जाकर नीचे गिराये जाने और ॥ क्षेपण-यंत्र द्वारा दूर फेंके जानेसे नरकनिवासियोंको अपने पाप कर्मों के कारण जो-जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उनकी गणना नहीं हो सकती ॥ ४६-४९॥

हे द्विजश्रेष्ठ ! केवल नर में ही दुःख हों, सो बात नहीं है; स्वर्गमें भी पतनके भयसे डरे हुए क्षयकी आशंकावाले उस जीवको कभी शान्ति नहीं मिलती॥५०॥ [नरक अथवा स्वर्ग भोग के अनन्तर] बार-बार वह गर्भमें आता है और जन्म ग्रहण करता है तथा फिर कभी गर्भ में ही नष्ट हो जाता है और कभी जन्म लेते ही मर जाता है ।। ५१ ॥ जो उत्पन्न हुआ है वह जन्मते ही बाल्यावस्था में, युवा- वस्थामें, मध्यमवयमें अथवा जराग्रस्त होने पर अवश्य मर जाता है ॥ ५२ ॥ जब तक जीता है तबतक नाना प्रकारके कष्टोंसे घिरा रहता है, जिस तरह कि कपासका बीज तन्तुओंके कारण सूत्रोंसे घिरा रहता है ।। ५३ ।। द्रव्य के उपार्जन,  रक्षण और नाशमें तथा इष्ट मित्रों के विपत्तिग्रस्त होनेपर भी मनुष्यों को अनेकों दुःख उठाने पड़ते हैं ॥ ५४ ॥

हे मैत्रेय ! मनुष्यों को जो-जो वस्तुएँ प्रिय हैं, वे भी दुःखरूपी वृक्षका बीज हो जाती हैं । ५५ ॥ स्त्री पुत्र, मित्र, अर्थ, गृह, क्षेत्र और धन आदिसे पुरुषों को जैसा दुःख होता है वैसा सुख नहीं होता ॥५६॥ इस प्रकार सांसारिक दुःखरूप सूर्य के तापसे जिनका अन्तःकरण तप्त हो रहा है उन पुरुषोंको मोक्षरूपी वृक्षकी [ धनी ] छायाको छोड़ कर और कहाँ सुख मिल सकता है ? ॥ ५७ ।॥ अतः मेरे मत में गर्भ, जन्म और जरा आदि स्थानों में प्रकट होनेवाले आध्यात्मिकादि त्रिविध दुःखसमूहकी एकमात्र सनातन ओषधि भगवत्प्राप्ति ही है जिसका एकमात्र लक्षण निरतिशय आनन्दरूप सुखकी प्राप्ति ही है ।। ५८-५९ । इसलिये पण्डितजनोंको भगवत् प्राप्तिका प्रयत्न करना चाहिये । हे महामुने ! कर्म और ज्ञान-ये दो ही उसकी प्राप्ति के कारण कहे गये हैं ॥ ६० ॥

ज्ञान दो प्रकार का है --- शास्त्रजन्य तथा विवेकज । शब्द ब्रह्म का ज्ञान शास्त्रजन्य है और परब्रह्म का बोध विवेकज ॥ ६१ ॥ हे विप्रर्षे ! अज्ञान घोर अंधकार के समान है। उसको नष्ट करनेके लिये इन्द्रियोद्भव ज्ञान दीपकवत् और विवेकज ज्ञान सूर्य के समान है ॥ ६२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस विषयमें वेदार्थका स्मरण कर मनुजीने जो कुछ कहा है वह बतलाता हूँ, श्रवण करो ॥ ६३ ॥

ब्राह्मण दो प्रकार का है --- शब्द ब्रह्म और परब्रह्म । शब्दब्रह्म (शास्त्र जन्य ज्ञान ) में निपुण हो जानेपर जिज्ञासु [ विवेकज ज्ञान के द्वारा ] परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ॥ ६४ ॥ अथर्ववेद की श्रुति है कि विद्या दो प्रकार की है ---- परा और अपरा । परासे अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है और अपरा ऋगादि वेदत्रयी रूपा है ॥ ६५॥ जो अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, पाणि-पादादिशून्य, व्यापक, सर्वगत, नित्य, भूतोंका अधिकारण, स्वयं कारणहीन तथा जिससे सम्पूर्ण व्याप्य और व्यापक प्रकट हुआ है और जिसे पंडितजन  [ज्ञान नेत्रोंं से ] देखते हैं वह परमधाम ही ब्रह्म है, मुमुक्षुओंको उसीका ध्यान करना चाहिये और वही भगवान विष्णु का वेद वचनों से प्रतिपादित अति सूक्ष्म परम पद है।६६-६८॥ परमात्मा का वह स्वरूप ही 'भगवत्' शब्द का वाच्य है और भगवत् शब्द ही उस आद्य एवं अक्षय स्वरूपका वाचक है ॥ ६९ ॥
       जिसका ऐसा स्वरूप बतलाया गया है उस परमात्मा के तत्त्वका जिसके द्वारा वास्तविक ज्ञान होता है वही परमज्ञान (परा विद्या ) है। त्रयीमय ज्ञान (कर्मकाण्ड) इससे पृथक् (अपरा विद्या) है ॥ ७० ।।
     हे द्विज ! ब्रह्म यद्यपि शब्द का विषय नहीं है तथा उपासनाके लिये उसका 'भगवत्' शब्द से उपचारतः कथन किया जाता है ।। ७१ ॥ हे मैत्रेय ! समस कारणों के कारण, महाविभूतिसंज्ञक परब्रह्म के लिए ही भगवत्' शब्द का प्रयोग हुआ है ॥ ७२ ॥ इस ( 'भगवत्' शब्द ) में भकारके दो अर्थ हैं -पोषण करनेवाला और सबका आधार तथा गकारके अर्थ कर्म-फल प्राप्त करनेवाला लय करने वाला और रचयिता हैं ॥ ७३ ॥ सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य ---- इन छः का नाम 'भग' है ॥७४॥ उस अखिल भूतात्मामें समस्त भूतगण निवास करते हैं और वह स्वयं भी समस्त भूतोंमें विराजमान है इसलिये वह अव्यय (परमात्मा ) ही वकारका अर्थ है ॥ ७५ ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार यह महान् 'भगवान' शब्द परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेवका ही वाचक है, किसी औरका नहीं ॥ ७६ । । पूज्य पदार्थो को सूचित करनेके लक्षणसे युक्त इस 'भगवान' शब्द का परमात्मा में मुख्य प्रयोग है तथा औरों के लिये गौण ॥ ७७ ॥ क्योंकि जो समस्त प्राणियों के उत्पत्ति और नाश, आना और जाना तथा विद्या और अविद्या को जानता है वही भगवान कहलानेयोग्य है ॥ ७८॥ त्याग करनेयोग्य [त्रिविध ] गुण [ और उनके क्लेश ] आदि को छोड़कर ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि सद्गुण ही 'भगवत्' शब्द के वाच्य हैं ॥ ७९ ॥
    उन परमात्मा में ही समस्त भूत बसते हैं और वे स्वयं भी सबके आत्मारूपसे सकल भूतोंमें विराजमान हैं, इसलिये उन्हें वासुदेव भी कहते हैं ॥ ८० ॥ पूर्वकालमें खाण्डिक्यजनकके पूछनेपर केशिध्वजने उनसे भगवान अनन्तके 'वासुदेव' नाम की यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की थी ॥ ८१ ॥ 'प्रभु समस्त भूतोंमें व्याप्त हैं और सम्पूर्ण भूत भी उन्ही में रहते हैं तथा वे ही संसारके रचयिता और रक्षक हैं; इसलिये वे 'वासुदेव' कहलाते हैं। ॥८॥ हे मुने! वे सर्वात्मा समस्त आवरणोंसे परे हैं । वे समस्त भूतोंकी प्रकृति,
प्रकृति के विकार तथा गुण और उनके कार्य आदि दोषोंसे विलक्षण हैं । पृथिवी और आकाशके बीच में जो कुछ स्थित है वह सब उनसे व्याप्त है ॥ ८३ ॥ वे सम्पूर्ण कल्याण-गुणोंके स्वरूप हैं, उन्होंने अपनी मायाशक्तिके लेशमात्रसे ही सम्पूर्ण प्राणियों को व्याप्त किया है और वे अपनी इच्छासे स्वमनोऽनुकूल महान् शरीर धारणकर समस्त संसारका कल्याण साधन करते हैं ॥ ८४ ॥ वे तेज, बल, ऐश्वर्य, महाविज्ञान, वीर्य और शक्ति आदि गुणोंकी एक मात्र राशि हैं, प्रकृति आदिसे भी परे हैं और उन परावरेश्वरमें अविद्यादि सम्पूर्ण क्लेशों का अत्यंता भाव है ।। ८५ ॥ वे ईश्वर ही समष्टि और व्यष्टिरूप हैं, वे ही व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, वे ही सबके स्वामी, सबके साक्षी और सब कुछ जाननेवाले हैं तथा उन्हीं सर्वशक्तिमान का परमेश्वर संज्ञा है॥८६॥ जिसके द्वारा वे निर्दोष, विशुद्ध, निर्मित और एक रूप परमात्मा देखे या जाने जाते हैं उसीका नाम ज्ञान (परा विद्या) है और जो इसके विपरीत है वही अज्ञान ( अपरा विद्या ) है ॥| ८७ ॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेऽशे पञ्चमोऽध्यायः"

   ------ "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " ------
         

                    (षष्ठ अंश)


         ------छठा अध्याय----



केशिध्वज और खाण्डिक्यकी कथा
श्री पराशर जी बोले ;- वे पुरुषोत्तम स्वाध्याय और संयमद्वारा देखे जाते हैं, ब्रह्म की प्राप्तिका कारण होनेसे ये भी ब्रह्म ही कहलाते हैं ॥१॥ स्वाध्याय से योग का और योग से स्वाध्याय का आश्रय करे । इस प्रकार स्वाध्याय और योग रूप संपत्ति से परमात्मा प्रकाशित ( ज्ञान के विषय ) होते हैं ॥२॥ ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को मां समय चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता, उन्हें देखने के लिये स्वाध्याय और योग ही दो नेत्र है ॥ ३ ॥
    श्री मैत्रेयजी बोले ;- भगवन् ! जिसे जान लेनेपर मैं अखिलाधार परमेश्वरको देख सकूँगा उस योग को मैं जानना चाहता हूँ; उसका वर्णन कीजिये ॥४॥
    श्री पराशर जी बोले ;- पूर्वकाल में जिस प्रकार इस योग का केशिध्वजने महात्मा खाण्डिक्य जनकसे वर्णन किया था मैं तुम्हें वही बतलाता हूँ ॥ ५ ॥
     श्रीमत्रेयजी बोले ;- ब्रह्मन् ! यह खाण्डिक्य और विद्वान् केशिध्वज कौन थे? और उनका योग सम्बन्धी संवाद किस कारणसे हुआ था ? ॥६॥
     श्री पराशर जी बोले ;- पूर्व कालमें धर्मध्वज जनक नामक एक राजा थे। उनके अमितध्वज और कृतध्वज नामक दो पुत्र हुए। इनमें कृतध्वज सर्वदा अध्यात्मशास्त्र में रत रहता था | ७ ॥ कृतघ्वज का पुत्र केशिध्वज नाम से विख्यात हुआ और अमित ध्वज का पुत्र खाण्डिक्य जनक हुआ।॥ ८॥ पृथिवी मण्डलमें खाण्डिक्य कर्म-मार्गमें अत्यन्त निपुण था और केशिध्वज अध्यात्मविद्या का विशेषज्ञ था ॥९॥ वे दोनों परस्पर एक-दूसरेको पराजित करनेकी चेष्टामें लगे रहते थे । अन्तमें कालक्रमसे केशिध्वज ने खाण्डिक्यको राज्यच्युत कर दिया ॥ १० ॥ राज्य भ्रष्ट होनेपर खाण्डिक्य पुरोहित और मंत्रियों के सहित थोड़ी-सी सामग्री लेकर दुर्गम वनों में चला गया।। ११॥ केशिध्वज ज्ञाननिष्ठ था, तो भी अविद्या (कर्म ) द्वारा मृत्यु को पार करने के लिये ज्ञान-दृष्टि रखते हुए उसने अनेकों यज्ञों का अनुष्ठान किया ॥ १२ ॥

हे योगिश्रेष्ठ ! एक दिन जब राजा केशिध्वज यज्ञानुष्ठान में स्थित थे, उनकी धर्मधेनु (हवि के लिये दूध देनेवाली गौ ) को निर्जन वन में एक भयंकर सिंहने मार डाला ।। १३ ।। व्याघ्र द्वारा गौ को मारी गयी सुन राजाने ऋत्विजोंसे पूछा कि 'इसमें क्या प्रायश्चित करना चाहिये ?' ॥ १४ ॥ ऋत्विजोंने कहा-हम [इस विषय में] नहीं जानते; आप कशेरुसे पूछिये' । जब राजाने कशेरुसे यह बात पूछी तो उन्होंने भी उसी प्रकार कहा कि हे राजेन्द्र ! मैं इस विषय में नहीं जानता। आप भृगुपुत्र शुनक से पूछिये, वे अवश्य जानते होंगे।' हे मुने ! जब राजाने शुनकसे जाकर पूछा तो उन्होंने भी जो कुछ कहा, वह सुनिये-॥१५-१६ ॥

   "इस समय भूमण्डल में इस बातको न कशेरु जानता है, न मैं जानता हूँ और न कोई और ही जानता है, केवल जिसे तुमने परास्त किया है वह तुम्हारा शत्रु खाण्डिक्य ही इस बातको जानता है" ॥ १७ ॥ यह सुनकर केशिध्वजने कहा-"है मुनिश्रेष्ठ ! मैं अपने शत्रु खाण्डिक्यसे ही यह बात पूछने जाता हूँ। यदि उसने मुझे मार दिया तो भी मुझे महायज्ञका फल तो मिल ही जायगा और यदि मेरे पूछने पर उसने मुझे सारा प्रायश्चित यथावत् बतला दिया तो मेरा यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण हो जायगा" ॥ १८-१९ ।।

     श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कह राजा केशिध्वज, कृष्ण मृगचर्म धारणकर रथपर आरूढ़ हो वन में, जहाँ महामति खाण्डिक्य रहते थे, आये ॥२०॥ खाण्डिक्यने अपने शत्रुको आते देखकर धनुष चढ़ा लिया और क्रोधसे नेत्र लाल करके कहा-। २१ ॥

खाण्डिक्य बोले ;- अरे ! क्या तू कृष्णाजिन. रूप कवच बाँधकर हमलोगोंको मारेगा ? क्या तू यह समझता है कि कृष्ण मृगचर्म धारण किये हुए मुझपर यह प्रहार नहीं करेगा ? ॥ २२ ॥ हे मूढ़ ! मृगोंकी पीठपर क्या कृष्ण मृगचर्म नहीं होता, जिन पर कि मैंने और तूने दोनोंही ने तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा की है॥ २३ ॥ अतः अब मैं तुझे अवश्य मारूँगा, तू मेरे हाथसे जीवित बचकर नहीं जा सकता। हे दुर्बुद्धे ! तू मेरा राज्य छीननेवाला शत्रु है, इसलिये आततायी है ॥ २४ ॥

केशिध्वज बोले ;- हे खाण्डिक्य ! मैं आपसे एक सन्देह पूछनेके लिये आया हूँ, आपको मारनेके लिये नहीं आया, इस बात को सोचकर आप मुझपर क्रोध अथवा बाण छोड़ दीजिये ॥ २५ ॥
     श्री पराशर जी बोले ;- यह सुनकर महामति खाण्डिक्यने अपने सम्पूर्ण पुरोहित और मंत्रियों से एकांत में सलाह की ॥ २६ ॥ मंत्रियों ने कहा कि 'इस समय शत्रु आपके वश में है, इसे मार डालना चाहिये । इसको मार देनेपर यह सम्पूर्ण पृथ्वी आपके अधीन हो जाएगी' ॥ २७ ॥ खाण्डिक्य ने कहा -- "यह निस्सन्देह ठीक है, इसके मारे जानेपर अवश्य सम्पूर्ण पृथ्वी मेरे अधीन हो जायगी; किन्तु इसे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और मुझे सम्पूर्ण पृथिवी। परन्तु यदि इसे नहीं मारूँगा तो मुझे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और इसे सारी पृथ्वी ॥ २८-५९॥ मैं पारलौकिक जय से पृथ्वी को अधिक नहीं मानता; क्योंकि परलोक-जय अनंतकाल के लिये होती है और पृथिवी तो थोड़े ही दिन रहती है। इसलिये मैं इसे मारूँगा नहीं, यह जो कुछ पूछेगा, बतला दूंगा" ।। ३०-३१॥
    श्री पराशर जी बोले ;- तब खाण्डिक्य जनकने अपने शत्र केशिध्वजके पास आकर कहा-'तुम्हें जो कुछ पूछना हो पूछ लो, मैं उसका उत्तर दूंगा' ।। ३२॥
       हे द्विज ! तब केशिध्वजने जिस प्रकार धर्म धेनु मारी गयी थी वह सब वृत्तान्त खाण्डिक्यसे कहा और उसके लिये प्रायश्चित्त पूछा ॥ ३३ ॥ खाण्डिक्य- ने भी वह सम्पूर्ण प्रायश्चित्त, जिसका कि उसके लिये विधान था, केशिध्वज को विधिपूर्वक बतला दिया ॥ ३४ ।। तदनन्तर पूछे हुए अर्थको जान लेने पर महात्मा खाण्डिक्यकी आज्ञा लेकर वे यज्ञ भूमि में आये और क्रमशः सम्पूर्ण कर्म समाप्त किया॥ ३५||
   फिर कालक्रम से यज्ञ समाप्त होनेपर अवभृथ ( यज्ञान्त ) स्नान के अनन्तर कृतकृत्य होकर राजा केशिध्वजने सोचा ॥ ३६ ॥ " मैंने सम्पूर्ण ऋत्विज ब्राह्मणों का पूजन किया, समस्त सदस्योंका मान किया, याचकोंं को उनकी इच्छित वस्तुएँ दी, लोकाचार के अनुसार जो कुछ कर्तव्य था वह सभी मैंने किया, तथापि न जाने, क्यों मेरे चित्त में किसी क्रिया का अभाव खटक रहा है ?" ॥ ३७-३८ ।।

इस प्रकार सोचते सोचते राजा को स्मरण हुआ कि मैंने अभीतक खाण्डिक्यको गुरु-दक्षिणा नहीं दी ॥ ३९ ॥ हे मैत्रेय ! तब वे रथपर चढ़कर फिर उसी दुर्गम वनमें गये, जहाँ खाण्डिक्य रहते थे ।| ४० ॥ खाण्डिक्य भी उन्हें फिर शस्त्र धारण किये आते देख मारनेके लिये उद्यन हुए। तब राजा केशिध्वजने कहा-॥४१॥ "खाण्डिक्य ! तुम क्रोध न करो, मैं तुम्हारा कोई अनिष्ट करनेके लिये नहीं आया, बल्कि तुम्हें गुरु दक्षिणा देने के लिये आया हूँ -ऐसा समझो ॥ ४२ ।। मैंने तुम्हारे उपदेशानुसार अपना यज्ञ भली प्रकार समाप्त कर दिया है, अब मै तुम्हें गुरु-दक्षिणा देना चाहता हूं, तुम्हें जो इच्छा हो. माँग लो"॥ ४३ ॥

    श्री पराशर जी बोले ;- तब खाण्डिक्यने फिर अपने मंत्रियों से परामर्श किया कि 'यह मुझे गुरु दक्षिणा देना चाहता है, मैं इससे क्या माँँगूँ ?' ॥४४॥ मंत्रियों ने कहा- "आप इससे सम्पूर्ण राज्य माँग लीजिये, बुद्धिमान लोग शत्रुओं से अपनी सैनिकों को कष्ट दिये बिना राज्य ही माँगा करते हैं " ॥ ४५ ॥ तब महामति राजा खाण्डिक्यने उनसे हँसते हुए कहा-'मेरे जैसे लोग कुछ ही दिन रहने वाला राज्यपद कैसे मांग सकते हैं ? | ४६ ।। यह ठीक है आप लोग स्वार्थ साधन के लिये ही परामर्श देनेवाले हैं; किन्तु 'परमार्थ क्या और कैसा है ? इस विषय में आपको विशेष ज्ञान नहीं है " ॥ ४७ ।।

   श्री पराशर जी बोले ;- यह कह कर राजा खाण्डिक्य केशिध्वजके पास आये और उनसे कहा, 'क्या तुम मुझे अवश्य गुरु-दक्षिणा दोगे' ॥४८॥ जब केशिध्वजने कहा कि 'मैं अवश्य दूँगा' तो खाण्डिक्य बोले-"आप अध्यात्म ज्ञान रूप परमार्थ -विद्या में बड़े कुशल है । ४९ ॥ सो यदि आप मुझे गुरु दक्षिणा देना ही चाहते हैं तो जो कर्म समस्त क्लेशोंकी शान्ति करने में समर्थ हो वह बतलाइये" |॥ ५० ॥

         "इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेऽशे षष्ठोऽध्यायः"

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