{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (षष्ठ अंश) का सातवाँ व आठवाँ अध्याय}} {The seventh and eighth chapters of the entire Vishnu Purana (six part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
"नित्यानन्दं नित्यविहारं निरपाय निराधार नीरद कान्ति निरवद्य । नानानानाकारमनाकारमुदारं वन्दे विष्णुं नीरजनाभं नलिनाक्षम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
( षष्ठ अंश )
------सातवाँ अध्याय-----
"ब्रह्मयोग का निर्णय"
केशिध्वज बोले ;- क्षत्रियों को तो राज्य-प्राप्ति से अधिक प्रिय और कुछ भी नहीं होता, फिर तुमने मेरा निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं माँगा ? । १ ॥खाण्डिक्य बोले ;- हे केशिध्वज ! मैंने जिस कारणसे तुम्हारा राज्य नहीं माँगा वह सुनो । इन राज्यादिकी आकांक्षा तो मूर्खो को हुआ करती है ।। २।। क्षत्रियों का धर्म तो यही है कि प्रजाका पालन करें। और अपने राज्य के विरोधियों का धर्म-युद्ध से वध करें ॥ ३ ॥ शक्तिहीन होने के कारण यदि तुमने मेरा राज्य हरण कर लिया है, तो [ असमर्थता वश प्रजापालन न करनेपर भी ] मुझे कोई दोष न होगा। [किन्तु राज्याधिकार होनेपर यथावत् प्रजापालन न करनेसे दोषका भागी होना पड़ता है ] क्योंकि यद्यपि यह (स्वकर्म) अविद्या ही है तथापि नियम विरुद्ध त्याग करनेपर यह बन्धनका कारण होती है ॥ ४ ॥ यह राज्यकी चाह मुझे तो जन्मान्तरके [ कर्मों द्वारा प्राप्त ] सुखभोगके लिये होती है; और वही मन्त्री आदि अन्य जनोंको राग एवं लोभ आदि दोषों से उत्पन्न होती है, केवल धर्मानुरोधसे नहीं ॥५॥ 'उत्तम क्षत्रियों का [ गाज्यादिकी ) याचना करना धर्म नहीं है' यह महात्माओंका मत है। इसीलिये मैंने अविद्या (पालनादि कर्म) के अन्तर्गत तुम्हारा राज्य नहीं माँगा ॥ ६ ॥ जो लोग अहंकार रूपी मदिराका पान करके उन्मत्त हो रहे हैं तथा जिनका चित्त ममताग्रस्त हो रहा है वे मूढ़जन ही राज्यकी अभिलाषा करते हैं; मेरे जैसे लोग राज्यकी इच्छा नहीं करते ॥ ७ ॥
श्रीपराशरजी बोले ;- तब राजा केशिध्वजने प्रसन्न होकर खाण्डिक्य जनकको साधुवाद दिया और प्रीतिपूर्वक कहा, मेरा वचन सुनो-॥ ८॥ मैं अविद्याद्वारा मृत्युको पार करनेकी इच्छासे ही राज्य तथा विविध यज्ञों का अनुष्ठान करता हूँ और नाना भोगों द्वारा अपने पुण्योंका क्षय कर रहा हूँ ॥ ९ ॥
हे कुलनन्दन ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा मन विवेकसम्पन्न हुआ है, अतः तुम अविद्या का स्वरूप सुनो ॥ १०॥ संसार-वृक्ष की बीजभूता यह अविद्या दो प्रकार की है - अनात्मा में आत्मबुद्धि और जो अपना नहीं है उसे अपना मानना ।।११।। यह कुमति जीव मोहरूपी अन्धकारसे आवृत होकर इस पंचभूतात्मक देह में "मैं" और 'मेरापन' का भाव करता है ॥ १२ ।। जब कि आत्मा आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी आदिसे सर्वथा पृथक है तो कौन बुद्धिमान् व्यक्ति शरीर में आत्मबुद्धि करेगा ? ॥ १३ ॥ और आत्मा के देह से परे होनेपर भी देह के उपभोग्य गृह-क्षेत्रादिको कौन प्राज्ञ पुरुष 'अपना' मान सकता है ॥ १४ ॥ इस प्रकार इस शरीरके अनात्मा होनेसे इससे उत्पन्न हुए पुत्र पौत्रादिमें भी कौन विद्वान् अपनापन करेगा।। १५।। मनुष्य सारे कर्म देहके ही उपभोगके लिये करता है; किन्तु जब कि यह देह अपनेसे पृथक् है, तो वे कर्म केवल बन्धन ( देहोत्पत्ति ) के ही कारण होते हैं । १६ । जिस प्रकार मिट्टी के घरको जल और मिट्टी से लीपते-पोतते हैं उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर भी मृत्तिका ( मृण्मय अन्न ) और जलकी सहायतासे ही स्थिर रहता है ॥ १७ ॥ यदि यह पंचभूतात्मक शरीर पांचभौतिक पदार्थों से पुष्ट होता है तो इसमें पुरुष ने क्या भोग किया ॥ १८ ॥ यह जीव अनेक सहस्र जन्मोंतक सांसारिक भोगोंमें पङे रहने से उन्हींकी वासनारूपी धूलिसे आच्छादित हो जानेके कारण केवल मोहरूपी श्रमको ही प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ जिस समय ज्ञानरूपी गर्म जलसे उसकी वह धूलि धो दी जाती है तब इस संसार-पथके पथिकका मोहरूपी श्रम शान्त हो जाता है । २० ॥ मोह-श्रमके शान्त हो जानेपर पुरुष स्वस्थ-चित्त हो जाता है और निरतिशय एवं निर्बाध परम निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है ।। २१ ॥ यह ज्ञानमय निर्मल आत्मा निर्वाण-स्वरूप ही है, दुःख आदि जो अज्ञात मय धर्म हैं वे प्रकृतिके हैं, आत्मा के नहीं ॥ २२ ॥ हे राजन् ! जिस प्रकार स्थाली ( बटलोई ) के जलका अग्नि से संयोग नहीं होता तथापि स्थाली के संसर्गसे ही उसमें खौलने के शब्द आदि धर्म प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रकृति के संसर्गसे ही आत्मा अहंकारादिसे दूषित होकर प्राकृत धर्मो को स्वीकार करता है। वास्तव में तो वह अव्ययात्मा उनसे सर्वथा पृथक है ॥ २३ -२४ ।। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह अविद्याका बीज बतलाया; इस अविद्यासे प्राप्त हुए क्लेशोंको नष्ट करने वाला योग से अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है ॥ २५ ॥
खाण्डिक्य बोले ;- हे योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ महा भाग केशिध्वज ! तुम निमिवंश में योगशास्त्र के मर्मज्ञ हो, अतः उस योग का वर्णन करो ।। २६ ॥
केशिध्वज बोले ;- हे खाण्डिक्य ! जिसमें स्थित होकर ब्रह्म में लीन हुए मुनिजन फिर स्वरूपसे च्युत नहीं होते, मैं उस योग का वर्णन करता हूँ; श्रवण करो ॥ २७ ॥
मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण केवल मन ही है; विषय का संग करनेसे वह बन्धनकारी और विषयशून्य होनेसे मोक्षकारक होता है । । २८॥ अतः विवेकज्ञानसम्पन्न मुनि अपने चित्त को विषयों से हटाकर मोक्ष प्राप्ति के लिये ब्रह्म स्वरूप परमात्मा का चिन्तन करे ॥ २९ ॥ जिस प्रकार अयस्कान्त मणि अपनी शक्तिसे लोहे को खींचकर अपने में संयुक्त कर लेता है उसी प्रकार ब्रह्म चिन्तन करने वाले मुनिको परमात्मा स्वभावसे ही स्वरूप में लीन कर देता है | ३० ।। आत्मज्ञान के प्रयत्नभूत यम, नियम आदि की अपेक्षा रखनेवाली जो मन की विशिष्ट गति है, उसका ब्रह्म के साथ संयोग होना ही 'योग' कहलाता है ॥ ३१ ॥ जिसका योग इस प्रकार के विशिष्ट धर्म से युक्त होता है वह मुमुक्षु योगी कहा जाता है ।। ३२ ।। जब मुमुक्षु पहले-पहले योगाभ्यास करता है तो उसे 'योगयुक्त योगी' कहते हैं और जब उसे परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है तो वह 'विनिष्पन्न-समाधि' कहलाता है ॥३३॥ यदि किसी विघ्नवश उस योगयुक्त योगीका चित्त दूषित हो जाता है तो जन्मान्तरमें भी उसी अभ्यास को करते रहने से वह मुक्त हो जाता है ॥ ३४ ॥
विनिष्पन्न समाधि योगी तो योगाग्निसे कर्म समूह के भस्म हो जानेके कारण उसी जन्म में थोड़े ही समय में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ ३५ ॥ योगी को चाहिये कि अपने चित्त को ब्रह्म चिन्तन के योग्य बनाता हुआ ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का निष्काम भाव से सेवन करे ॥ ३६ ॥ संयत चित्त से स्वाध्याय, शौच, सन्तोष और तप का आचरण करे तथा मनको निरन्तर परब्रह्म में लगाता रहे ॥ ३७॥ ये पाँच-पाँच यम और नियम बतलाये गये हैं। इनका सकाम आचरण करनेसे पृथक्-पृथक् फल मिलते हैं और निष्काम भाव से सेवन करनेसे मोक्ष प्राप्त होता है ।। ३८॥
यतिको चाहिये कि भद्रासनादि आसनों में किसी एकका अवलम्बनकर यम-नियमादि गुणोंसे युक्त हो योगाभ्यास करे ॥ ३ || अभ्यास के द्वारा जो प्राणवायु को वश में किया जाता है उसे 'प्राणा- याम' समझना चाहिए । वह सबीज (ध्यान तथा मन्त्र पाठ आदि आलम्बनयुक्त ) और निर्बीज (निरालम्ब भेद से) दो प्रकारका है ॥ ४० ॥ सद्गुरुके उपदेशसे जब योगी प्राण और अपान वायुद्वारा एक-दूसरेका निरोध करता है तो [क्रमशः रेचक और पूरक नामक ] दो प्राणायाम होते हैं और इन दोनोंका एक ही समय संयम करनेसे [ कुम्भक नामक ] तोसरा प्राणायाम होता है ॥ ४१॥ हे द्विजोत्तम ! जब योगी सबीज प्राणायाम का अभ्यास आरम्भ करता है तो उसका आलम्बन भगवान अनन्तका हिरण्यगर्भ आदि स्थूल रूप होता है ॥ ४२ ॥ तदनन्तर वह प्रत्याहार का अभ्यास करते हुए शब्दादि विषय में अनुरक्त हुई अपनी इन्द्रियों को रोककर अपने चित्त की अनुगामिनी बनाता है | ४३ ।। ऐसा करनेसे अत्यन्त चञ्चल इन्द्रियाँ उसके वशीभूत हो जाती हैं । इन्द्रियों को वश में किये बिना कोई योगी योग-साधन नहीं कर सकता ॥ ४४ ॥ इस प्रकार प्राणायाम से वायु और प्रत्याहार से इन्द्रियों को वशीभूत करके चित्तको उसके शुभ आश्रयमें स्थित करे ॥ ४५ ॥
खाण्डिक्य बोले ;- हे महाभाग ! यह बतलाइये कि जिसका आश्रय करने से चित्त के सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं वह चित्त का शुुभााश्रय क्या है ? ।। ४६ ।।
केशिध्वज बोले ;- हे राजन् ! चित्तका आश्रय ब्रह्म है जो कि मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर-रूपसे स्वभाव से ही दो प्रकारका है ॥४७॥ हे भूप ! इस जगत में ब्रह्म, कर्म और उभयात्मक नामसे तीन प्रकार की भावनाएँ हैं ॥ ४८ ॥ इनमें पहली कर्मभावना, दूसरी ब्रह्मभावना और तीसरी उभयात्मिकाभावना कहलाती है । इस प्रकार ये त्रिविध भावनाएँ हैं ॥ ४९ ॥ सनन्दनादि मुनिजन ब्रह्मभावना से युक्त हैं और देवताओं से लेकर स्थावर-जंगम पर्यन्त समस्त प्राणी कर्म-भावना युक्त हैं ॥५०॥ तथा [ स्वरूपविषयक ] बोध और [ स्वर्गादि विषयक ] अधिकार से युक्त हिरण्यगर्भादिमे ब्रह्माकर्ममयी उभ यात्मिका-भावना है ॥ ५१ ॥
हे राजन् ! जबतक विशेष ज्ञान के हेतु कर्म क्षीण नहीं होते तभीतक अहंकारादि भेदके कारण भिन्न दृष्टि रखनेवाले मनुष्यों को ब्रह्म और जगत् कि भिन्नता प्रतीत होती है ॥ ५२॥ जिसमें सम्पूर्ण भेद शान्त हो जाते हैं, जो सत्तामात्र और वाणीका अविषय है तथा स्वयं ही अनुभव करने योग्य है, वही ब्रह्म ज्ञान कहलाता है ॥ ५३ ॥ वही परमात्मा विष्णु का अरूप नामक परम रूप है, जो उनके विश्वरूपसे विलक्षण है ॥५४॥
हे राजन् ! योगाभ्यासी जन पहले-पहल उस रूपका चिन्तन नहीं कर सकते, इसलिये उन्हें श्रीहरिके विश्वमय स्थूल रूपका ही चिंतन करना चाहिये ॥ ५५ ॥ हिरण्यगर्भ, भगवान वासुदेव, प्रजापति, मरुत्, वसु, रुद्र, सूर्य, तारे, ग्रहगण, गन्धर्व, यक्ष और दैत्य आदि समस्त देव योनियाँ तथा मनुष्य, पशु, पर्वत, समुद्र, नदी, वृक्ष, सम्पूर्ण भूत एवं प्रधानसे लेकर विशेष (पञ्चतन्मात्रा) पर्यन्त उनके कारण तथा चेतन, अचेतन, एक, दो अथवा अनेक चरणोंवाले प्राणी और बिना चरणों वाले जीव-ये सब भगवान हरि के भावनात्रयात्मक मूर्तरूप हैं ॥ ५६-५९ ॥ यह सम्पूर्ण चराचर जगत्, परब्रह्मस्वरूप भगवान विष्णुका, उनकी शक्तिसे सम्पन्न 'विश्व' नामक रूप है ॥ ६० ॥
विष्णुशक्ति परा है, क्षेत्रज्ञ नामक शक्ति अपरा है और कर्म नामकी तीसरी शक्ति अविद्या कहलाती है ॥ ६१ ॥ हे राजन् ! इस अविद्या-शक्ति से आवृत होकर वह सर्वगामिनी क्षेत्रज्ञ शक्ति सब प्रकारके अति विस्तृत सांसारिक कष्ट भोगा करती है ॥ ६२॥ हे भूपाल ! अविद्या-शक्ति से तिरोहित रहने के कारण ही क्षेत्रज्ञशक्ति सम्पूर्ण प्राणियों में तारतम्यसे दिख लायी देती है ॥ ६३ ॥ वह सबसे कम जड पदार्थों में है, उनसे अधिक वृक्ष-पर्वतादि स्थावरोंमें, स्थावरोंसे अधिक सरीसृृृपादि में और उनसे अधिक पक्षियों में | है ॥ ६४ ॥ पक्षियों से मृगों में और मृगोंसे पशुओंमें वह शक्ति अधिक है तथा पशुओं की अपेक्षा मनुष्य भगवान् की उस (क्षेत्रज्ञ) शक्ति से अधिक प्रभावित हैं ॥ ६५ ॥ मनुष्योंं से नाग, गन्धर्व और यक्ष आदि समस्त देवगणोंमें, देवताओंसे इन्द्र मैं, इन्द्र से प्रजा पतिमें और प्रजापति से हिरण्यगर्भ में उस शक्ति का विशेष प्रकाश है ॥ ६६-६७ ।। हे राजन् ! ये सम्पूर्ण रूप उस परमेश्वर के ही शरीर है, क्योंकि ये सब आकाशके समान उनकी शक्ति से व्याप्त हैं ॥ ६८ ॥
हे महामते ! विष्णु नामक ब्रह्म का दूसरा अमृत ( आकारहीन ) रूप है, जिसका योगिजन ध्यान करते हैं और जिसे बुधजन 'सत्' कहकर पुकारते हैं । ६९ ॥ हे नृप ! जिसमें कि ये सम्पूर्ण शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं वही भगवान का विश्वरूपसे विलक्षण द्वितीय रूप है, ॥ ७० ।। हे नरेश ! भगवान का वही रूप अपनी लीलासे देव, तिर्यक और मनुष्यादि की चेष्टाओंसे युक्त सर्वशक्तिमय रूप धारण करता है ॥ ७१ ॥ इन रूपोंमें अप्रमेय भगवान की जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है वह संसारके उपकारके लिये ही होती है, कर्मजन्य नहीं होती । ७२ ॥ हे राजन् ! योगाभ्यासी को आत्म शुद्धि के
लिये भगवान विश्वरूप के उस सर्वपापनाशक रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥ ७३ ॥ जिस प्रकार वायुसहित अग्नि ऊँची ज्वालाओं से युक्त होकर शुष्क तृणसमूहको जला डालता है उसी प्रकार चित्तमें स्थित हुए भगवान विष्णु योगियों के समस्त पाप नष्ट कर देते है ॥ ७४ ॥
इसलिये सम्पूर्ण शक्तियों के आधार भगवान विष्णु में चित्त को स्थिर करे, यही शुद्ध धारणा है ।। ७५ ॥
हे राजन् ! तीनों भावनाओं से अतीत भगवान विष्णु ही योगिजनोंकी मुक्ति के लिये उनके [ स्वतः ] चन्चल तथा [ किसी अनूठे विषयमें ] स्थिर रहने वाले चित्त के शुभ आश्रय हैं ।। ७६ ॥ हे पुरुषसिंह ! इसके अतिरिक्त मनके आश्रयभूत जो अन्य देवता आदि कर्म योनियाँ हैं, वे सब अशुद्ध हैं ॥ ७७ । भगवान का यह मूर्त रूप चित्त को अन्य आलम्बनोंसे निःस्पृह कर देता है। इस प्रकार चित्त का भगवान में स्थिर करना ही धारणा कहलाती है ॥ ७८ ॥
हे नरेन्द्र ! धारणा बिना किसी आधार के नहीं हो सकती; इसलिये भगवान के जिस मूर्त रूपका जिस प्रकार ध्यान करना चाहिये, वह सुनो ॥७१ ॥ जो प्रसन्नवदन और कमलदलके समान सुन्दर नेत्रों वाले हैं, सुन्दर कपोल और विशाल भालसे अत्यन्त सुशोभित हैं तथा अपने सुन्दर कानों में मनोहर कुंडल पहने हुए हैं, जिनकी ग्रीवा शंख के समान और विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्स चिह्न से सुशो- भित है, जो तग्ङ्गाकार त्रिवली तथा नीची नाभिवाले उदर से सुशोभित है, जिसकी लंबी-लंबी आठ अथवा चार भुजाएँ हैं तथा जिनके जङ्घा एवं ऊरु समान भावसे स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द सुघड़ता से विराजमान हैं उन निर्मल पीताम्बरधारी ब्रह्म स्वरूप भगवान विष्णु का चिन्तन करे ॥ ८०-८३ ॥
हे राजन् ! किरीट, हार, केयूर और कटक आदि आभूषणोंसे विभूषित, शाङ्गधनुष, शंख गदा, खड्ग, चक्र तथा अक्षमालासे युक्त वरद और अभययुक्त हाथों वाले [ तथा अँगुलियोंमें धारण की हुई ] रत्नमयी मुद्रिकासे शोभायमान भगवान के दिव्य रूपका योगीको अपना चित्त एकाग्र करके तन्मयभावसे तबतक चिन्तन करना चाहिये जब तक यह धारणा दृढ़ न हो जाय ॥ ८४-८६ ।।
जब चलते-फिरते, उठते-बैठते अथवा स्वेच्छानुकूल कोई और कर्म करते हुए भी ध्येय मूर्ति अपने चित्तसे दूर न हो तो इसे सिद्ध हुई माननी चाहिये ।। ८७ ।। इसके दृढ़ होनेपर बुद्धिमान व्यक्ति शंख, चक्र, गदा और शाङ्गआदिसे रहित भगवान के स्फटिकाक्ष माला और यज्ञोपवीतधारी शान्त स्वरूपका चिन्तन करे ॥ ८८ ।। जब यह धारणा भी पूर्ववत् स्थिर हो जाय तो भगवान के किरीट, केयूरादि आभूषणोंसे रहित रूपका स्मरण करे ॥ ८९ ।। तदनन्तर विज्ञ पुरुष अपने चित्तमें एक ( प्रधान ) अवयव विशिष्ट भगवान का हृदय से चिंतन करे और फिर सम्पूर्ण अवयवोंको छोड़कर केवल अवयवोका ध्यान करे ।। ९०॥
हे राजन् ! जिसमें परमेश्वर के रूपकी ही प्रतीति होती है, ऐसी जो विषयान्तरकी स्पृहासे रहित एक अनवरत धारा है उसे ही ध्यान कहते हैं; यह अपने से पूर्व यम-नियमादि छः अङ्गोंं से निष्पन्न होता है ॥९१ ॥ उस ध्येय पदार्थका ही जो मनके द्वारा ॥ ध्यानसे सिद्ध होनेयोग्य कल्पनाहीन ( ध्याता, ध्येय और ध्यान के भेदसे रहित ) स्वरूप ग्रहण किया जाता है उसे ही समाधि कहते हैं ॥९२ ॥ हे राजन ! [समाधि से होनेवाला भगवत्साक्षात्काररूप] विज्ञान ही प्राप्तव्य परब्रह्म तक पहुंचाने वाला है तथा सम्पूर्ण भावनाओं से रहित एकमात्र आत्मा ही प्रापणीय ( वहाँतक पहुँच सकनेवाला ) है ।। ९३ ।। मुक्ति-लाभमें क्षेत्रज्ञ कर्ता है और ज्ञान करण है; [ ज्ञानरूपी करणके द्वारा क्षेत्रज्ञके ] मुक्ति रुपी कार्य को सिद्ध करके वह विज्ञान कृतकृत्य होकर निवृत्त हो जाता है ॥ ९४ ॥ उस समय वह भगवद् भाव से भरकर परमात्मा से भिन्न हो जाता है। इसका भेद-ज्ञान तो अज्ञानजनित ही है ॥९५ ॥ भेद उत्पन्न करनेवाले अज्ञान के सर्वथा नष्ट हो जानेपर ब्रह्म और आत्मा में असत् ( अविद्यमान ) भेद कौन कर सकता है ? ॥ ९६ ॥ हे खाण्डिक्य ! इस प्रकार तुम्हारे पूछने के अनुसार मैंने संक्षेप और विस्तारसे योग का वर्णन किया; अब मैं तुम्हारा और क्या कार्य करूँ ? ॥ ९७ ॥
खाण्डिक्य बोले ;- आपने इस महायोगका वर्णन करके मेरा सभी कार्य कर दिया, क्योंकि आपके उपदेश से मेरे चित्तका सम्पूर्ण मल नष्ट हो गया है ।। ९८ ।। हे राजन् ! मैंने जो 'मेरा' कहा यह भी असत्य ही है, अन्यथा ज्ञेय वस्तुको जाननेवाले तो यह भी नहीं कह सकते ॥ ९९ ॥ 'मैं' और 'मेरा' ऐसी बुद्धि और इनका व्यवहार भी अविद्या ही है, परमार्थ तो कहने-सुनने की बात नहीं है क्योंकि वह वाणीका अविषय है ॥ १०० ॥ हे केशिध्वज ! आपने इस मुक्तिप्रद योग का वर्णन करके मेरे कल्याण के लिये सब कुछ कर दिया, अब आप सुख पूर्व के पधारिये ॥ १० ।।
श्री पराशर वोले ;- हे ब्रह्मन् तदनन्तर खाण्डिक्यसे यथोचित रूपसे पूजित हो राजा केशिध्वज अपने नगर में चले आये ॥ १०२ ॥ तथा खाण्डिक्य भी अपने पुत्र को राज्य दे श्री गोविंद में चित्त लगाकर योग सिद्ध करने के लिये [ निर्जन ] वनको चले गये ॥ १०३ । वहाँ यमादि गुणोंसे युक्त होकर एकाग्रचित्तसे ध्यान करते हुए राजा खाण्डिक्य विष्णु नामक निर्मल ब्रह्म में लीन हो गये ॥१०४॥ किन्तु केशिध्वज, विदेह मुक्ति के लिये अपने कर्मों को क्षय करते हुए समस्त विषय भोगते रहे । उन्होंने फल की इच्छा न करके अनेकों शुभ कर्म किये । १०५ ।। हे द्विज ! इस प्रकार अनेकों कल्याणप्रद भोगो को भोगते हुए उन्होंने पाप और मल ( प्रारब्ध- कर्म) का क्षय हो जानेपर तापत्रयको दूर करने वाली आत्यन्तिक सिद्धि प्राप्त कर ली ।। १०६ ।।
"इति श्रीविष्णुपुराणे पष्ठेंऽशे सप्तमोऽध्यायः"
----- सम्पूर्ण विष्णु पुराण ----
(षष्ठ अंश)
-------- आठवाँ अध्याय ------
"शिष्यपरम्परा, माहात्म्य और उपसंहार"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे तीसरे आत्यन्तिक प्रलय का वर्णन किया, जो सनातन ब्रह्म में लयरूप मोक्ष ही है ॥१॥ मैंने तुमसे संसारके उत्पत्ति, प्रलय, वंश, मन्वन्तर तथा वंशोंके चरित्रोंका वर्णन किया ॥२॥ हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हें सुननेके लिये उत्सुक देखकर यह सम्पूर्ण शास्त्रों में श्रेष्ठ सर्वपापविनाशक और पुरुषार्थ के प्रतिपादक वैष्णवपुराण सुना दिया। अब तुम्हें जो और कुछ पूछना हो पूछो । मैं तुम्हें सुनाऊँगा ॥ ३-४॥
श्री मैत्रेय जी बोले ;- भगवन् ! मैंने आपसे जो कुछ पूछा था वह सभी आप कह चुके और मैंने भी उसे श्रद्धा भक्ति पूर्वक सुना, अब मुझे और कुछ भी पूछना नहीं है ॥ ५॥ हे मुने! आपकी कृपासे मेरे समस्त सन्देह निवृत्त हो गये और मेरा चित्त निर्मल हो गया तथा मुझे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का ज्ञान हो गया ॥ ६॥ हे गुरो ! मैं चार प्रकारकी राशि और तीन प्रकारकी शक्तियाँ जान गया तथा मुझे त्रिविध भाव-भावनाओं का भी सम्यक् बोध हो गया ॥७॥ हे द्विज ! आपकी कृपासे मैं, जो जानना चाहिये वह भली प्रकार जान गया कि यह सम्पूर्ण जगत् श्री विष्णु भगवान से भिन्न नहीं है, इसलिये अब मुझे अन्य बातोंके जाननेसे कोई लाभ नहीं॥ ८ ॥ हे महामुने ! आपके प्रसादसे मैं निःसन्देह कृतार्थ हो गया, क्योंकि मैंने वर्ण-धर्म आदि सम्पूर्ण धर्म और प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप समस्त कर्म जान लिये । हे विप्रवर! आप प्रसन्न रहें; अब मुझे और कुछ भी पूछना नहीं है ॥ ९-१०। हे गुरो ! मैंने आपको जो इस सम्पूर्ण पुराण के कथन करनेका कष्ट दिया है, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें; साधुजनोंकी दृष्टिमें पुत्र और शिष्यमें कोई भेद नहीं होता ॥ ११॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मुने ! मैंने तुमको जो यह वेद सम्मत पुराण सुनाया है इसके श्रवणमात्रसे सम्पूर्ण दोषोंसे उत्पन्न हुआ पापपुञ्ज नष्ट हो जाता है ॥ १२ ।। इसमें मैंने तुमसे सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय, वंश, मन्वन्तर और वंश के चरित-इन सभीका वर्णन किया है ॥१३।। इस ग्रन्थमें देवता, दैत्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, यक्ष, विद्याधर, सिद्ध और अप्सरागण का भी वर्णन किया गया है ॥ १४ ॥ आत्माराम और तपोनिष्ठ मुनिजन, चातुर्वर्ण्य विभाग, महापुरुषोंके विशिष्ट चरित, पृथ्वी के पवित्र क्षेत्र, पवित्र नदी और समुद्र, अत्यन्त पावन पर्वत, बुद्धिमान् पुरुषों के चरित, वर्ण-धर्म आदि धर्म तथा वेद और शास्त्रों का भी इसमें सम्यक् रूप से निरूपण हुआ है, जिनके स्मरणमात्रसे मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है ॥ १५-१७॥
जो अव्ययात्मा भगवान हरि संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के एकमात्र कारण हैं उनका भी इसमें कीर्तन किया गया है ॥ १८ ॥ जिनके नाम का विवश होकर कीर्तन करनेसे भी मनुष्य समस्त पापों से इस प्रकार मुक्त हो जाता है जैसे सिंहसे डरे हुए भेड़िये ॥ १ ।॥ हे मैत्रेय ! जिनका भक्तिपूर्वक किया हुआ नाम-संकीर्तन सम्पूर्ण धातुओं को पिघ- लानेवाले अग्नि के समान समस्त पापों का सर्वोत्तम विलायन ( लीन कर देने वाला ) है ।। २० ॥ जिनका एक बार भी स्मरण करने से मनुष्यों को नरक-यातनाएँ देनेवाला अति उग्र कलि-कल्मष तुरंत नष्ट हो जाता है ॥ २१ ॥ हे द्विजोत्तम ! हिरण्यगर्भ, देवेन्द्र, रुद्र, आदित्य, अश्विनी कुमार, वायु, अग्नि, वसु, साध्य और विश्वेदेव आदि देवगन, यक्ष, राक्षस, उरग, सिद्ध, दैत्य, गन्धर्व, दानव, अप्सरा, तारा, नक्षत्र, समस्त ग्रह, सप्तर्षि, लोक, लोकपाल, ब्राह्मणादि मनुष्य, पशु, मृग, सरीसृप, विहंग, पलाश आदि वृक्ष, वन, अग्नि, समुद्र, नदी, पाताल तथा पृथिवी आदि और शब्दादि विषयोंके सहित यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनके आगे सुमेरुके सामने एक रेणुके समान है तथा जो इसके उपादान-कारण है उन सर्व सर्वज्ञ सर्वस्वरूप रूपरहित और पापनाशक भगवान विष्णु का इसमें कीर्तन किया गया है ॥ २-२७ ॥
हे मुनिसत्तम! अश्वमेध-यज्ञमें अवभृथ (यज्ञान्त) स्नान करनेसे जो फल मिलता है वही फल मनुष्य इसको सुनकर प्राप्त कर लेता है ॥ २८ ॥ प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा समुद्र तट पर रहकर उपवास करनेसे जो फल मिलता है वही इस पुराण को सुनने से प्राप्त हो जाता है ॥ २९ ।।
एक वर्ष तक नियमानुसार अग्निहोत्र करनेसे मनुष्य को जो महान पुण्यफल मिलता है वही इसे एक बार सुननेसे हो जाता है ॥३०॥ ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन मथुरापुरी मेंं यमुना-स्नान करके कृष्णचन्द्र का दर्शन करनेसे जो फल मिलता है हे विप्रर्षे ! वही भगवान कृष्ण में चित्त लगाकर इस पुराणके एक अध्यायको सावधानतापूर्वक सुननेसे मिल जाता है ॥ ३१-३२ ।।
.हे मुनिश्रेष्ठ ! ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को मथुरापुरीमें उपवास करते हुए यमुना -स्नान करके समाहित चित्त से श्री अच्युत का भली प्रकार पूजन करने से मनुष्य को अश्वमेध-यज्ञ का सम्पूर्ण फल मिलता है ।। ३३-३४ ॥ कहते हैं अपने वंशजों द्वारा [ यमुना तट पर पिंडदान करनेसे ] उन्नति लाभ किये हुए अन्य पितरों की समृद्धि देखकर दूसरे लोगों के पितृ-पितामहोंने [अपने वंशजों को लक्ष्य करके ] इस प्रकार कहा था-।। ३५ ।। क्या हमारे कुल में उत्पन्न हुआ कोई पुरुष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में [ द्वादशी तिथि को ] मथुरा में उपवास करते हुए यमुना जल में स्नान करके श्री गोविंद का पूजन करेगा, जिससे हम भी अपने वंशजोंद्वारा उद्धार पाकर ऐसा परम ऐश्वर्य प्राप्त कर सकेंगे ? जो वड़े भाग्य वान् होते हैं उन्हीं के वंशधर ज्येष्ठमासीय शुक्ल पक्ष में भगवान का अर्चन करके यमुना में पितृगण को पिण्ड- दान करते है ३६ - ३८ ।। उस समय यमुना जल में स्नान करके सावधानतापूर्वक भली प्रकार भगवान का पूजन करनेसे और पितृगणको पिण्ड देनेसे अपने पितामहों को तारता हुआ पुरुष जिस पुण्यका भागी होता है वही पुण्य भक्तिपूर्वक इस पुराण का एक अध्याय सुननेसे प्राप्त हो जाता है ।॥ ३९ ४० ।। यह पुराण संसारसे भयभीत हुए पुरुषोंका अति उत्तम रक्षक, अत्यन्त श्रवणयोग्य तथा पवित्रोंमें परम उत्तम है ॥ ४१ ।। यह मनुष्यों के दुःस्वप्नो को नष्ट करने वाला, सम्पूर्ण दोषोंको दूर करनेवाला, माङ्गलिक वस्तुओं में परम माङ्गलिक और सन्तान तथा सम्पत्तिका देनेवाला है ॥ ४२ ॥
इस आर्षपुराण को सबसे पहले भगवान ब्रह्माजी ने ऋभु को सुनाया था। ऋभु ने प्रियव्रत को सुनाया और प्रियव्रत ने भागुरि से कहा ॥ ४३ ॥ फिर इसे भगुरिने स्तम्भ मित्र को, स्तम्भ मित्र ने दधीचि को, दधीचि ने सारस्वतको और सारस्वतने भृगुको सुनाया ॥ ४४॥ तथा भृगु ने पुरुकुत्स से, पुरुकुत्सने नर्मदा से और नर्मदा ने धृतराष्ट्र एवं पूरणनागसे कहा ॥ ४५ ॥ हे द्विज ! इन दोनोंने यह पुराण नागराज वासुकिको सुनाया । वासुकिने वत्सको, वत्सने अश्वतरको, अश्वतरने कम्बलको और कम्बलने एलापुत्रको सुनाया। इसी समय मुनिवर वेदशिरा पाताललोकमें पहुँचे, उन्होंने यह समस्त पुराण प्राप्त किया और फिर प्रमतिको सुनाया और प्रमतिने उसे परम बुद्धिमान् जातुकर्णको दिया ॥ ४६-४८॥ तथा जातुकर्ण ने अन्यान्य पुण्यशील महात्माओंको सुनाया।
[ पूर्व-जन्म में सारस्वतके मुखसे सुना हुआ यह पुराण ] पुलस्त्य जी के वरदान से मुझे भी स्मरण रह गया ॥ ४९ ॥ सो मैंने ज्यों-का-त्यों तुम्हें सुना दिया। अब तुम भी कलियुग के अन्त में उसे शिनीक को सुनाओगे ॥ ५० ॥
जो पुरुष इस अति गुह्य और कलिकल्मषनाशक पुराण को भक्तिपूर्वक सुनता है वह सब पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ५१ ॥ जो मनुष्य इसका प्रतिदिन श्रवण करता है उसने तो मानो सभी तीर्थोंमें स्नान कर लिया और सभी देवताओं की स्तुति कर ली ॥ ५२ ॥ इसके दश अध्यायोंका श्रवण करनेसे निःसन्देह कपिला गौके दानका अति दुर्लभ पुण्य फल प्राप्त होता है ।। ५३ ॥ जो पुरुष सम्पूर्ण जगत्के आधार, आत्मा के अवलम्ब, सर्वस्वरूप, सर्वमय, ज्ञान और ज्ञेयरूप आदि-अन्तरहित तथा समस्त देवताओं के हितकारक श्री विष्णु भगवान का चित्तमें ध्यानकर इस सम्पूर्ण पुराण को सुनता है उसे निःसन्देह अश्वमेध-यज्ञका समग्र फल प्राप्त होता है ॥ ५४ ॥ जिसके आदि, मध्य और अंत में अखिल जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा संहार में समर्थ ब्रह्मज्ञानमय चरा-चर गुरु भगवान अच्युत का ही कीर्तन हुआ है उस परम श्रेष्ठ और अमल पुराण को सुनने, पढ़ने और धारण करनेसे जो फल प्राप्त होता है वह सम्पूर्ण त्रिलोकीमें और कहीं प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि एकांत मुक्ति रूप सिद्धि को देनेवाले भगवान विष्णु ही इसके प्राप्तव्य फल हैं ॥ ५५॥
जिनमें चित्त लगानेवाला कभी नरकमें नहीं जा सकता, जिनके स्मरणमें स्वर्ग भी विघ्नरूप है, जिनमें चित्त लग जानेपर ब्रह्मलोक भी अति तुच्छ प्रतीत होता है तथा जो अव्यय प्रभु निर्मलचित्त पुरुषोंके हृदयमें स्थित होकर उन्हें मोक्ष देते हैं उन्हीं अच्युतका कीर्तन करनेसे यदि पाप विलीन हो जाते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥५६॥ यज्ञ वेत्ता कर्मनिष्ठ लोग यज्ञों द्वारा जिनका यज्ञेश्वर रूप से यजन करते हैं, ज्ञानीजन जिनका परावरमय ब्रह्मस्वरूपसे ध्यान करते हैं, जिनका स्मरण करनेसे पुरुष न जन्मता है, न मरता है, न बढ़ता है और न क्षीण ही होता है तथा जो न सत् ( कारण ) हैं और न असत् ( कार्य ) ही हैं उन श्रीहरिके अतिरिक्त और क्या सुना जाय ? ॥ ५७॥ जो अनादिनिधन भगवान विभु पितृरुप धारणकर स्वधासंज्ञक कव्यको और देवता होकर अग्नि में विधिपूर्वक हवन किये हुए स्वाहा नामक हव्यको ग्रहण करते हैं तथा जिन समस्त शक्तियोंके आश्रय. भूत भगवान के विषयमें बड़े-बड़े प्रमाण कुशल पुरुषों के प्रमाण भी इयत्ता करने में समर्थ नहीं होते वे श्रीहरि श्रवण-पथमें जाते ही समस्त पापों को नष्ट कर देते हैं ।। ५८ ॥
जिन परिणामहीन प्रभुका न आदि है, न अन्त है, न वृद्धि है और न क्षय ही होता है। जो नित्य निर्विकार पदार्थ हैं उन स्तवनीय प्रभु पुरुषोत्तमको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५९॥
जो उन्हीं के समान गुणों को भोगने वाला है, एक होकर भी अनेक रूप है तथा शुद्ध होकर भी विभिन्न रूपोंके कारण अशुद्ध (विकारवान्) सा प्रतीत होता है और जो ज्ञानस्वरूप एवं समस्त भूत तथा विभूतियोंका कर्ता है उस नित्य अव्यय पुरुष को नमस्कार है ॥ ६० ।। जो ज्ञान ( सत्त्व ), प्रवृत्ति (रज) और नियमन (तम) की एकतारूप है, पुरुष को भोग प्रदान करने में कुशल है, त्रिगुणात्मक तथा अव्याकृत है, संसारकी उत्पत्तिका कारण है; उस स्वतः सिद्ध तथा जराशून्य प्रभुको सर्वदा नमस्कार करता हूँ॥ ६१ ॥ जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी रूप है, शब्दादि भोग्य विषयोंकी प्राप्ति कराने में समर्थ है और पुरुष का उसकी समस्त इन्द्रियों द्वारा उपकार करता है उस सूक्ष्म और विराट् रूप व्यक्त परमात्मा को नमस्कार करता हूँ ॥ ६२ ॥
इस प्रकार जिन नित्य सनातन परमात्मा के प्रकृति-पुरुषमय में ऐसे अनेक रूप हैं वे भगवान हरि समस्त पुरुषों को जन्म और जरा आदिसे रहित । ( मुक्ति रूप ) सिद्धि प्रदान करें ॥ ६३ ।।
"इति श्रीविष्णुपुराणे पृष्ठेंंऽशे अष्टमोऽध्यायः"
इति श्री पराशर मुनि विरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमती विष्णु महापुराणे पष्ठोऽशः समाप्तः।
"इति श्री विष्णुमहापुराणं सम्पूर्णम्"
॥ श्रीविष्ण्वर्पणमस्तु ।।
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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