सम्पूर्ण विष्णु पुराण (षष्ठ अंश) का पहला, दुुसरा , व तिसरा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (षष्ठ अंश) का  पहला, दुुसरा , व तिसरा अध्याय}} {The first, second, and third chapters of the entire Vishnu Purana (six part)}

                                  "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
"नित्यानन्दं नित्यविहारं निरपाय निराधार नीरद कान्ति निरवद्य । नानानानाकारमनाकारमुदारं वन्दे विष्णुं नीरजनाभं नलिनाक्षम् ॥"


                                         श्री विष्णुपुराण
                                            ( षष्ठ अंश )

                                         "पहला अध्याय"                     

"कलिधर्मनिरूपण"
श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे महामुने ! आपने सृष्टि रचना, वंश-परम्परा और मन्वन्तरोंको स्थितिका तथा वंशों के चरित्रों का विस्तारसे वर्णन किया॥ १ ॥ अब मैं आपसे कल्पान्त में होनेवाले महाप्रलय नामक संसार के उपसंहार का यथावत् वर्णन सुनना चाहता हूँ ॥२॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! कल्पान्तके समय प्राकृत प्रलय में जिस प्रकार जीवों का उपसंहार होता है, वह सुनो ॥ ३॥ हे द्विजोत्तम ! मनुष्यों का एक मास पितृगणका, एक वर्ष देवगणका और दो सहस्र चतुर्युग ब्रह्मा का एक दिन-रात होता है ॥४॥ सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग हैं, इन सबका काल मिलाकर बारह हजार दिव्य वर्ष कहा जाता है ॥ ५॥ हे मैत्रेय ! [ प्रत्येक मन्वन्तर के ] आदि कृतयुग और अन्तिम कलियुग को छोड़कर शेष सब चतुर्युग स्वरूपसे एक समान हैं ॥ ६ ॥ जिस प्रकार आद्य ( प्रथम ) सत्ययुग में ब्रह्मा जी जगत की रचना करते हैं उसी प्रकार अन्तिम कलि- युग में वे उसका उपसंहार करते हैं ॥७।।

श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे भगवन् ! कलिके स्वरूप का विस्तारसे वर्णन कीजिये, जिसमें चार चरणों । वाले भगवान धर्म का प्रायः लोप हो जाता है ॥८॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! आप जो कलि- युग का स्वरूप सुनना चाहते हैं सो उस समय । जो कुछ होता है वह संक्षेपसे सुनिये ॥९॥
कलयुग में मनुष्यों की प्रवृत्ति वर्णाश्रम-धर्मानुकूल नहीं रहती और न वह ऋक्-साम-यजुरूप त्रयी धर्म का सम्पादन करनेवाली ही होती है ॥ १० ॥ उस समय धर्म-विवाह, गुरु-शिष्य-सम्बन्ध की स्थिति, दाम्पत्यक्रम और अग्निमें देवयज्ञक्रियाका क्रम ( अनुष्ठान ) भी नहीं रहता ।। ११ ।।

कलियुग में जो बलवान् होगा वही सबका स्वामी होगा। चाहे किसी भी कुल में क्यों न उत्पन्न हुआ हो; वह सभी वर्णों से कन्या ग्रहण करनेमें समर्थ होगा ।। १२ ।। उस समय द्विजातिगण जिस किसी उपायसे [ अर्थात् निषिद्ध द्रव्य आदिसे ] भी 'दीक्षित' हो जायँगे और जैसी-तैसी क्रियाएँ ही प्रायश्चित्त मान ली जायँगी ॥ १३ ॥ हे द्विज ! कलि- युग में जिसके मुखसे जो कुछ निकल जायगा वही शास्त्र समझा जायगा; उस समय सभी ( भूत-प्रेत- मशान आदि ) देवता होंगे और सभी के सभी आश्रम होंगे॥ १४॥ उपवास, तीर्थाटनादि काय-क्लेश, धन दान तथा तप आदि अपनी रूचि के अनुसार अनुष्ठान किये हुए ही धर्म समझे जायँगे ॥ १५ ॥

कलियुग में अल्प धन से ही लोगोंको धनाढ्यता का गर्व हो जायगा और केशों से ही स्त्रियों को सुन्दरताका अभिमान होगा ॥ १६ ॥ उस समय स्वर्ण, मणि, रत्न और वस्त्रों के क्षीण हो जानेसे स्त्रियाँ केश-कलापोंसे हो अपनेको विभूषित करेंगी ॥ १७॥ जो पति धनहीन होगा उसे स्त्रियाँ छोड़ देंगी। कलियुग में धनवान् पुरुष ही स्त्रियों का पति होगा ॥ १८॥ जो मनुष्य [ चाहे वह कितना ही निन्द्य हो ] अधिक धन देगा वही लोगोंका स्वामी होगा; उस समय स्वामित्व का कारण सम्बन्ध नहीं होगा, और न कुलीनता ही उसका कारण होगी ।॥ १९ ।

कलिमें सारा द्रव्य संग्रह घर बनानेमें ही समाप्त हो जायगा [ दान-पुण्यादिमें नहीं ], बुद्धि धन सञ्चय मेंं ही लगी रहेगी [ आत्मज्ञान में नहीं ] तथा सारी संपत्ति अपने उपभोग में ही नष्ट होगी [ उससे अतिथिसत्कारादि न होगा ] ।।२० ।।

कलिकाल में स्त्रियाँ सुन्दर पुरुष की कामना से स्वेच्छाचारिणी होंगी तथा पुरुष अन्यायोपार्जित धनके इच्छुक होंगे ॥ २१ ॥ हे द्विज ! कलियुग में अपने सुहृदों की प्रार्थना करनेपर भी लोग एक-एक दमड़ीके लिये भी स्वार्थ-हानि नहीं करेंगे ॥ २२ ॥ कलिमें ब्राह्मणों के साथ शूद्र आदि समानताका दावा करेंगे और दूध देनेके कारण ही गो का सम्मान होगा॥ २३ ॥

उस समय सम्पूर्ण प्रजा क्षुधा की व्यथा से व्याकुल हो प्रायः अनावृष्टि के भय से सदा आकाशकी ओर दृष्टि लगाये रहेगी ॥ २४ ॥ मनुष्य [ अन्नका अभाव होनेसे ] तपस्वियोंके समान केवल कन्द, मूल और फल आदिके सहारे ही रहेंगे तथा अनावृष्टि के कारण दुखी होकर आत्मघात करेंगे ॥ २५ ॥ कलियुग के असमर्थ लोग सुख और आनन्दके नष्ट हो जानेसे प्रायः सर्वदा दुर्भिक्ष तथा क्लेश ही भोगेंगे॥२६॥ कलिके आनेपर लोग बिना स्नान किये ही भोजन करेंगे, अग्नि, देवता और अतिथिका पूजा न करेंगे और न पिण्डोदकक्रिया ही करेंगे ॥ २७ ॥

 उस समयकी स्त्रियाँ विषयलोलुप, छोटे शरीरवाली, अति भोजन करनेवाली, अधिक सन्तान पैदा करने वाली और मन्दभाग्या होंगी ॥ २८ ॥ वे दोनों हाथोंसे शिर खुजाती हुई अपने गुरुजनों और पतियोंके आदेशका अनादरपूर्वक खण्डन करेंगी ।। २९ ॥ कलियुग स्त्रियाँ अपना ही पेट पालने में तत्पर, क्षुद्र चित्तवाली, शारीरिक शौचसे हीन तथा कटु और मिथ्या भाषण करनेवाली होंगी ॥ ३० । उस समयकी कुलाङ्गनाएँ निरन्तर दुश्चरित्र पुरुषोंकी इच्छा रखनेवाली एवं दुराचारिणी होंगी तथा पुरुषों के साथ असद्व्यवहार करेंगी । ३१ ।।

ब्रह्मचारी गण वैदिक व्रत आदिसे हीन रहकर ही वेदाध्ययन करेंगे तथा गृहस्थगण न तो हवन करेंगे और न सत्पात्रको उचित दान ही देंगे ॥ ३२ । वानप्रस्थ [ वनके कन्द-मूलादि छोड़कर ] ग्राम्य भोजन स्वीकार करेंगे और संन्यासी अपने मित्रा दी के स्नेह बन्धन में ही बँधे रहेंगे ॥ ३३ ।।

कलियुग के आने पर राजा लोग प्रजा की रक्षा नहीं करेंगे, बल्कि कर लेने के बहाने प्रजाका ही धन छीनेंगे ।। ३४ । उस समय जिस जिसके पा बहुत से हाथी, घोड़े और रथ होंगे वह-वह ही राजा होगा तथा जो-जो शक्तिहीन होगा वह वह ही सेवक होगा ॥ ३५ । वैश्य गण कृषि-वाणिज्यादि अपने कर्मों को छोड़कर शिल्पकारी आदिसे जीवन-निर्वाह करते हुए शूद्र वृत्तियों में ही लग जायँगे ।। ३६ ॥ अधम शूद्रगण संन्यास-आश्रमके के चिन्ह धारणकर भिक्षावृत्ति में तत्पर रहेंगे और लोगोंसे सम्मानित होकर पाषण्ड-वृत्तिका आश्रय लेंगे ॥ ३७ ॥ प्रजाजन दुर्भिक्ष और करकी पीड़ासे अत्यन्त खिन्न और दुःखित होकर ऐसे देशों में चले जायँगे जहाँ गेहूँ और जौकी अधिकता होगी॥ ३८ ॥

उस समय वेद-मार्ग का लोप, मनुष्यों में पाषण्ड की प्रचुरता और अधर्मकी वृद्धि हो जानेसे प्रजाकी आयु अल्प हो जायगी ॥ ३१ || लोगोंके शास्त्रविरुद्ध घोर तपस्या करनेसे तथा राजा के दोष से प्रजाओं की बाल्यावस्था में मृत्यु होने लगेगी । ४० ॥ कलिमें पाँच-छः अथवा सात वर्ष की स्त्री और आठ नौ या दस वर्ष के पुरुषों के ही सन्तान हो जायगी ॥ ४१।॥। बारह वर्ष की अवस्था में ही लोगोंके बाल पकने लगेंगे और कोई भी व्यक्ति बीस वर्ष से अधिक जीवित न रहेगा ।। ४२ ॥ कलियुगमें लोग मन्द बुद्धि, व्यर्थ चिह्न धारण करनेवाले और दुष्ट चित्तवाले होंगे, इसलिये वे अल्पकालमें ही नष्ट हो जायँगे ।। ४३ ॥

    हे मैत्रेय ! जब-जब धर्म की अधिक हानि दिखलायी दे तभी-तभी बुद्धिमान् मनुष्य को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिये ॥ ४४ ॥ हे मैत्रेय ! जब जब पाषण्ड बढ़ा हुआ दीखे तभी-तभी महात्माओंको कलयुग की वृद्धि समझनी चाहिये ।। ४५ ।। जब जब वैदिक मार्गका अनुसरण करनेवाले सत्पुरुषों का अभाव हो तभी-तभी बुद्धिमान् मनुष्य कलिकी वृद्धि हुई जाने ॥ ४६ ॥ हे मैत्रेय ! जब धर्मात्मा पुरुषों के आरम्भ किये हुए कार्यों में असफलता हो तब पण्डितजन कलियुगकी प्रधानता समझे ॥ ४७ ॥
जब-जब यज्ञों के अधीश्वर भगवान् पुरुषोत्तमका लोग यज्ञों द्वारा यजन न करें तब-तब कलिका प्रभाव ही समझना चाहिये ।। ४८॥ जब वेद-वाद में प्रीतिका अभाव हो और पाषण्डमें प्रेम हो तब बुद्धिमान् प्राज्ञ पुरुष कलियुगको बढ़ा हुआ जाने ॥ ४९ ।।

हे मैत्रेय ! कलयुग में लोग पाषण्डके वशीभूत हो जानेसे सबके रचयिता और प्रभु जगत्पति भगवान विष्णु की पूजा नहीं करेंगे । ५० ॥ हे विप्र ! उस समय लोग पाषण्डके वशीभूत होकर कहेंगे-'इन देव, द्विज, वेद और जलसे होनेवाले शौचादिमें क्या रक्खा है ?' ॥५१॥ हे विप्र! कलिके आनेपर वृष्टि अल्प जलवाली होगी, खेती थोड़ी उपज वाली होगी और फलादि अल्प सारयुक्त होंगे॥५२॥ कलियुग में प्रायः सनके बने हुए सबके वस्त्र होंगे, अधिकतर शमी के वृक्ष होंगे और चारों वर्ण बहुधा शूद्रवत् हो जाएंगे ॥ ५३ ॥ कलिके आनेपर धान्य अत्यन्त अणु होंगे, प्रायः बकरियों का ही दूध मिलेगा और उशीर ( खस) ही एकमात्र अनुलेपन होगा ॥ ५४ ॥

   हे मुनिश्रेष्ठ ! कलियुग में सास और ससुर ही लोगों के गुरुजन होंगे और हृदयहारिणी भार्या तथा साले ही सुहृद् होंगे ॥ ५५ ॥ लोग अपने ससुरके अनुगामी होकर कहेंगे कि 'कौन किसका पिता है और कौन किसकी माता; सब पुरुष अपने कर्मानुसार जन्मते-मरते रहते हैं ॥५६॥ उस समय अल्पबुद्धि पुरुष बारंबार वाणी, मन और शरीर आदि के दोषोंके वशीभूत होकर प्रतिदिन पुनः पुनः पाप कर्म करेंगे॥ ५७॥ शक्ति, शौच और लज्जाहीन पुरुषोंको जो-जो दुःख हो सकते हैं कलयुग में वे सभी दुःख उपस्थित होंगे ॥ ५८॥ उस समय संसारके स्वाध्याय और वषट्कारसे हीन तथा स्वधा और स्वाहासे वर्जित हो जानेसे कहीं-कहीं कुछ-कुछ धर्म रहेगा ॥ ५९ ।। किन्तु कलियुग में मनुष्य थोड़ा-सा प्रयत्न करनेसे ही जो अत्यन्त उत्तम पुण्यराशि प्राप्त करता है वही सतयुग में महान तपस्या से प्राप्त किया जा सकता है ॥ ६० ॥

            "इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेऽशे प्रथमोऽध्यायः"


              ---श्री विष्णु पुराण---

                   (षष्ठ अंश)


                ---दूसरा अध्याय---


"श्री व्यास जी द्वारा कलयुग, शूद्र और स्त्रियोंका महत्त्व-वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- हे महाभाग ! इसी विषय- में महामति व्यासदेवने जो कुछ कहा है वह में यथावत् वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ १ ॥ एक बार मुनियों में [ परस्पर ] पुण्यके विषय में यह वार्तालाप हुआ कि 'किस समयमें थोड़ा-सा पुण्य भी महान् फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं ? ॥२॥ हे मैत्रेय ! वे समस्त मुनि श्रेष्ठ इस संदेह का निर्णय करने के लिये महामुनि व्यासजी के पास यह प्रश्न पूछने गये ॥३॥ हे द्विज ! वहाँ पहुँचनेपर उन मुनिजनों ने मेरे पुत्र महाभाग व्यासजी को गंगाजी में आधा स्नान किये देखा ॥४॥ वे महर्षिगण व्यासजीके स्नान कर चुकनेकी प्रतीक्षामें उस महानदीके तटपर वृक्षों के तले बैठे रहे ॥ ५॥

उस समय गंगाजी में डुबकी लगाये मेरे पुत्र व्यास ने जलसे उठकर उन मुनिजनोंके सुनते हुए 'कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ है' यह वचन कहा। ऐसा कहकर उन्होंने फिर जलमें गोता लगाया  और फिर उठकर कहा- 'शूद्र ! तुम ही श्रेष्ठ हो, तुम ही धन्य हो' ॥ ६-७ ॥ यह कहकर वे महामुनि फिर जलमें मग्न हो गये और फिर खड़े होकर बोले-"स्त्रियाँ ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है ?" ॥८॥ तदनन्तर जब मेरे महाभाग पुत्र व्यासजी स्नान करनेके अनन्तर नियमानुसार नित्यकर्मसे निवृत्त होकर आये तो वे मुनिजन उनके पास पहुँचे ॥ ९ ॥ वहाँ आकर जब वे यथा योग्य अभिवादन के अनन्तर आसनोंपर बैठ गये तो सत्यवती नंदन व्यासजी ने उनसे पूछा "आपलोग कैसे आये हैं ?" ॥ १० ॥

तब मुनियोंने उनसे कहा ;- 'हम लोग आपसे एक सन्देह पूछने के लिये आये थे, किन्तु इस समय उसे तो जाने दीजिये, एक और बात हमें बतलाइये ॥ ११॥ भगवन् ! आपने जो स्नान करते समय कई बार कहा था कि 'कलियुग ही श्रेष्ठ है, शुद्र ही श्रेष्ठ हैं , स्त्रियाँ ही साधु और धन्य है', सो क्या बात है ? हम यह सम्पूर्ण विषय सुनना चाहते हैं । हे महामुने! यदि गोपनीय न हो तो कहिये । इसके पीछे हम आपसे अपना आन्तरिक सन्देह पूछेंगे" ॥ १२-१३ ।।

श्री पराशर जी बोले ;- मुनियों के इस प्रकार पूछनेपर व्यासजीने हँसते हुए कहा-“हे मुनि श्रेष्ठो ! मैंने जो इन्हें बारंबार साधु साधु कहा था, उसका कारण सुनो ॥ १४॥

श्री व्यास जी बोले ;- हे द्विजगण! जो फल सत्ययुग में दस वर्ष तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदि करनेसे मिलता है उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास और कलयुग में केवल एक दिन-रातमें प्राप्त कर लेता है, इस कारण ही मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है ॥ १५-१६ । जो फल सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करनेसे प्राप्त होता है वही कलिमें श्रीकृष्णचन्द्रका नाम कीर्तन करनेसे मिल जाता है । १ ॥ हे धर्मज्ञगण ! कलीयुग में थोड़े-से परिश्रमसे ही पुरुषको महान् धर्म की प्राप्ति हो जाती है; इसलिये मैं कलयुग से अति सन्तुष्ट हूँ ॥१८॥

[ अब शूद्र क्यों श्रेष्ठ हैं; यह बतलाते हैं ] द्विजातियों को पहले ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है और फिर स्वधर्माचरण से उपार्जित धन के द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करने पड़ते हैं ॥ १९ ॥ इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतनके कारण होते हैं; इसलिये उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक है ॥ २०॥ सभी कामोंमें अनुचित ( विधिके विपरीत ) करनेसे उन्हें दोष लगता है, यहाँतक कि भोजन और पानादि भी वे अपनी इच्छानुसार नहीं भोग सकते॥२१॥ क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण कार्यों में परतन्त्रता रहती है। हे द्विज गण ! इस प्रकार वे अत्यन्त क्लेशसे पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं॥ २२॥ किन्तु जिसे केवल [मन्त्रहीन] पाक-यज्ञ का ही अधिकार है वह शूद्र द्विजोंं की सेवा करनेसे ही सद्गति प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह अन्य जातियों की अपेक्षा धन्यतर है ॥ २३ ॥

हे मुनिशार्दूलो ! शूद्रक भक्ष्याभक्ष्य अथवा पेया पेय का कोई नियम नहीं है, इसलिये मैंने उसे साधु कहा है ॥ २४ ॥

[ अब स्त्रियोंको किसलिये श्रेष्ठ कहा, यह बतलाते हैं-] पुरुषोंको अपने धर्मानुकूल प्राप्त किये हुए धनसे ही सर्वदा सुपात्रको दान और विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये ॥ २५ ॥ हे द्विजोत्तमगण ! इस द्रव्य के उपार्जन तथा रक्षण में महान् क्लेश होता है और उसको अनुचित कार्य में लगाने से भी मनुष्यों को जो कष्ट भोगना पड़ता है वह मालूम ही है ॥ २६ ॥ इस प्रकार,      हे द्विजसत्तमो ! पुरुषगण इन तथा ऐसे ही अन्य कष्टसाध्य उपायोंसे क्रमशः प्राजापत्य आदि शुभ लोकों को प्राप्त करते हैं ॥ २७॥ किन्तु स्त्रियां तो तन-मन-वचनसे पतिकी सेवा करने से ही उनकी हितकारिणी होकर पति के समान शुभ लोकों को अनायास ही प्राप्त कर लेती हैं जो कि पुरुषोंको अत्यन्त परिश्रमसे मिलते हैं । इसीलिये मैंने तीसरी बार यह कहा था कि 'स्त्रियां साधु हैं' ॥ २८-२९ ॥ हे विप्रगण ! मैंने आपलोगोंसे यह [ अपने साधुवादका रहस्य ] कह दिया, अब आप जिसलिये पधारे हैं वह इच्छानुसार पूछिये । मैं आपसे सब बातें स्पष्ट करके कह दूंगा ॥ ३० ॥

तब ऋषियों ने कहा ;- “है महामुने ! हमें जो कुछ पूछना था उसका यथावत् उत्तर आपने इसी प्रश्न में दे दिया है । [ इसलिये अब हमें और कुछ पूछना नहीं है ]" ॥ ३१ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;- तब मुनिवर कृष्णद्वैपायनने विस्मयसे खिले हुए नेत्रोंवाले उन समागत तपस्वियोंसे हँसकर कहा ॥ ३२ ॥ मैं दिव्य दृष्टि से आपके इस प्रश्न को जान गया था इसीलिये मैंने आप लोगों के प्रसंगसे हो 'साधु साधु' कहा था॥३३॥ जिन पुरुषोंने गुणरूप जलसे अपने समस्त दोष धो डाले हैं उनके थोड़े-से प्रयत्नसे ही कलियुग का धर्म सिद्ध हो जाता है ॥ ३४॥ हे द्विजश्रेष्ठ! शूद्रों को द्विजसेवा परायण होनेसे और स्त्रियों को पतिकी सेवामात्र करने. से ही अनायास धर्म की सिद्धि हो जाती है ।। ३५ ॥
इसलिये मेरे विचार से ये तीनों धन्यतर हैं, क्योंकि सत्ययुगादि अन्य तीन युगों में भी द्विजातियों को ही धर्म सम्पादन करने में महान् क्लेश उठाना पड़ता है ॥ ३६॥ हे धर्मज्ञ ब्राह्मणो ! इस प्रकार आप लोगोंका जो अभिप्राय था वह मैंने आपके बिना पूछे ही कह दिया, अब और क्या करूँ ?" ॥ ३७॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर उन्होंने व्यासजी का पूजनकर उनकी बारंबार प्रशंसा की और उनके कथनानुसार निश्चयकर जहाँसे आये थे वहाँ चले गये ॥३८॥ हे महाभाग मैत्रेयजी ! आपसे भी मैंने यह रहस्य कह दिया ।। ३९ ।। इस अत्यन्त दुष्ट कलियुग में यही एक महान् गुण है कि इस युग में केवल कृष्णचन्द्र का नाम-संर्कीतन करनेसे ही मनुष्य परमपद प्राप्त कर लेता है ।। ४० ॥ अब आपने मुझसे जो संसारके उपसंहार-प्राकृत प्रलय और अवान्तर प्रलय के विषय में पूछा था वह भी सुनाता हूँ ॥ ४१ ।।


       "इति श्रीविष्णुपुराणे पष्ठेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः"

              ---श्री विष्णु पुराण---

         

                    (षष्ठ अंश)


               ---तीसरा अध्याय---


"निमेषादि काल-मान तथा नैमित्तिक प्रलयका वर्णन"
श्री पाराशर जी बोले ;- सम्पूर्ण प्राणियों का प्रलय नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यन्तिक तीन प्रकारका होता है ॥ १ ॥ उनमें से जो कल्पान्त में ब्रह्म प्रलय होता है वह नैमित्तिक, जो मोक्ष नामक प्रलय है वह आत्यन्तिक और जो दो परार्द्ध के अंत में होता है वह प्राकृत प्रलय कहलाता है ॥२॥

श्री मैत्रेय जी बोले ;- भगवन् ! आप मुझे परार्द्ध- की संख्या बतलाइये, जिसको दूना करनेसे प्रकृत प्रलय का परिणाम जाना जा सके ॥ ३ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विज ! एक से लेकर क्रमशः दशगुण गिनते-गिनते जो अठारहवीं बार गिनी जाती है वह संख्या परार्द्ध कहलाती है ॥४॥
हे द्विज ! इस परार्द्ध की दूनी संख्या वाला प्राकृत प्रलय है, उस समय यह सम्पूर्ण जगत् अपने कारण अव्यक्तमें लीन हो जाता है ।। ५ ॥ मनुष्य का निमेष ही एक मात्रा वाले अक्षर के उच्चारण-काल के समान परिमाण वाला होने से मात्रा कहलाता है; उन पंद्रह निमेषों की एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठा की एक कला कही जाती है ॥ ६॥ पंद्रह कला एक नाडिकाका प्रमाण है। वह नाडिका साढ़े बारह पल तांबे के बने हुए जलके पात्रसे जानी जा सकती है । मगधदेशीय मापसे वह पात्र जलप्रस्थ कहलाता है; उसमें चार अङ्गुल लम्बी चार मासेकी सुवर्ण-शलाका से छिद्र किया रहता है [ उसके छिद्रको ऊपर करके जलमें डुबो देनेसे जितनी देर में वह पात्र भर जाय उतने ही समय का एक नाडिका समझना चाहिये ] ॥ ७८।। हे द्विजसत्तम ! ऐसी दो नाडिकाओंका एक मुहूर्त होता है, तीस मुहूर्त का एक दिन-रात होता है तथा इतने ( तीस ) ही दिन-रातका एक मास होता है ॥९॥ बारह मासका एक वर्ष होता है, देवलोक में यही एक दिन-रात होता है। ऐसे तीन सौ साठ वर्षों देवताओं का एक वर्ष होता है ॥ १०॥ ऐसे बारह हजार दिव्य वर्षों का एक चतुर्युग होता है और एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है ॥ ११ ॥

हे महामुने! यही एक कल्प है। इसमें चौदह मनु बीत जाते हैं। हे मैत्रेय ! इसके अंत में ब्रह्मा का नैमित्तिक प्रलय होता है । १२ ॥ हे मैत्रेय ! सुनो, मैं उस नैमित्तिक प्रलय का अत्यन्त भयानक रूप वर्णन करता हूँ। इसके पीछे मैं तुमसे प्राकृत प्रलय का भी वर्णन करूँगा ॥ १३ ॥ एक सहस्र चतुर्युग बीतनेपर जब पृथिवी क्षीणप्राय हो जाती है तो सौ वर्ष तक अति घोर अनावृष्टि होती है ॥ १४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय जो पार्थिव जीव अल्प शक्ति वाले होते हैं वे सब अनावृष्टि पीड़ित होकर सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥ १५॥ तदनन्तर, रुद्ररूपधारी अव्ययात्मा भगवान विष्णु संसार का क्षय करनेके लिये सम्पूर्ण प्रजाको अपने में लीन कर लेनेका प्रयत्न करते हैं ॥ १६ ॥
हे मुनिसत्तम ! उस समय भगवान विष्णु सूर्य की सातों किरणों में स्थित होकर सम्पूर्ण जलको सोख लेते हैं ॥ १७ ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार प्राणियों तथा पृथ्वी के अन्तर्गत सम्पूर्ण जलको सोखकर वे समस्त भूमण्डलको शुष्क कर देते हैं ॥ १८ ॥ समुद्र तथा नदियों में, पर्वतीय सरिताओं और स्रोतों में तथा विभिन्न पातालों में जितना जल है वे उस सबको सुखा डालते हैं ॥ १९ ॥ तब भगवान के प्रभाव से प्रभावित होकर तथा जालपान से पुष्ट होकर वे सातों सूर्यरश्मियाँ सात सूर्य हो जाती हैं ॥२०॥ हे द्विज! उस समय ऊपर-नीचे सब ओर देदीप्यमान होकर वे सातों सूर्य पातालपर्यन्त सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म कर डालते हैं ।| २१ ॥ हे द्विज ! उन प्रदीप्त भास्करोंसे दग्ध हुई त्रिलोकी पर्वत, नदी और समुद्रादि के सहित सर्वथा नीरस हो जाती है ॥२२॥ उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीके वृक्ष और जल आदिके दग्ध हो जानेसे यह पृथिवी कछुएकी पीठके समान कठोर हो जाती है ॥ २३ ॥

 तब, सबको नष्ट करनेके लिये उद्यत हुए श्री हरि कालाग्निरुद्र रूप से शेषनाग के मुख से प्रकट होकर नीचेसे पातालोंको जलाना आरम्भ करते है ॥ वह महान् अग्नि समस्त पातालों को जलाकर पृथ्वी पर पहुँचता है और सम्पूर्ण भूतलको भस्म कर डालता है ॥ २५ ॥ तब वह दारुण अग्नि भुवर्लोक तथा स्वर्गलोकको जला डालता है और वह ज्वाला समूहका महान् आवर्त वहीं चक्कर लगाने लगता है ॥ २६ । इस प्रकार अग्नि के आवर्तो से घिरकर सम्पूर्ण चराचरके नष्ट हो जानेपर समस्त त्रिलोकी एक तप्त कराह के समान प्रतीत होने लगती है ॥ २७॥ हे महामुने! तदनन्तर अवस्थाके परिवर्तनसे परलोक की चाहवाले भुवर्लोक और स्वर्गलोकमें रहनेवाले [ मन्वादि] अधिकारिगण अग्निज्वालासे सन्तप्त होकर महलों को चले जाते हैं किन्तु वहाँ भी उस उग्र कालानलके महातापसे सन्तप्त होनेके कारण वे उससे बचने के लिये जनलोकमें चले जाते हैं । २८-२९॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर रुद्ररूपी भगवान विष्णु सम्पूर्ण संसारको दग्ध करके अपने मुख-निःश्वास से मेघोंको उत्पन्न करते हैं ॥ ३०॥ तब विद्युत से युक्त भयङ्कर गर्जना करने वाले गजसमूह के समान बृहदा कार संवर्तक नामक घोर मेघ आकाश में उठते हैं ॥३१॥ उनमेंसे कोई मेघ नील कमल के समान श्याम वर्ण, कोई कुमुद कुसुम के समान श्वेत, कोई धूम्रवर्ण और कोई पीतवर्ण होते हैं ॥ ३२॥ कोई गधेके-से वर्णवाले, कोई लाखके-से रंगवाले, कोई वैडूर्य-मणि के समान और कोई इंद्रनील-मणि के समान होते हैं ॥ ३३ ॥ कोई शङ्ख और कुन्दके समान श्वेत-वर्ण, कोई जाती ( चमेली ) को समान उज्ज्वल और कोई काजल के समान श्याम वर्ण, कोई इन्द्रगोप के समान रक्तवर्ण और कोई मयूरके समान विचित्र वर्णवाले होते हैं ॥३४॥ कोई गेरू के समान, कोई हरितालके समान और कोई महामेघ, नील-कण्ठके पंख के समान रंग वाले होते हैं ॥ ३५ ॥ कोई नगर के समान, कोई पर्वतके समान और कोई कूटागार (गृह विशेष ) के समान बृहदाकार होते हैं तथा कोई पृथिवी तल के समान विस्तृत होते हैं ॥ ३६ ॥ वे घनघोर शब्द करनेवाले महाकाय मेघगण आकाश को आच्छादित कर लेते हैं और मूसलाधार जल बरसाकर त्रिलोक व्यापी भयङ्कर अग्निको शान्त कर देते है ॥ ३७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्नि के नष्ट हो जानेपर भी अहर्निश निरन्तर बरसते हुए वे मेघ सम्पूर्ण जगत् को जलमें डुबो देते हैं॥ ३८ ॥ हे द्विज ! अपनी अति स्थूल धाराओंसे भूर्लोकको जलमें डुबोकर वे भुवर्लोक तथा उसके भी ऊपरके लोकों को जलमग्न कर देते हैं ॥३९॥ इस प्रकार सम्पूर्ण संसारके अन्धकारमय हो जानेपर तथा सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम जीवों को नष्ट हो जानेपर भी वे महामेघ सौ वर्ष अधिक कालतक बरसते रहते हैं ॥ ४०॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सनातन परमात्मा वासुदेव के माहात्म्यसे कल्पान्तमें इसी प्रकार यह समस्त विप्लव होता है ।। ४१ ।।

         "इति श्रीविष्णुपुराणे पष्ठेंऽशे तृतीयोऽध्यायः"



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