{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का नवाँ, दसवाँ व ग्यारहवाँ अध्याय}} {The ninth, tenth and the Eleventh chapter of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"नवाँ अध्याय"
"प्रलम्ब-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- अपने अनुचरोंसहित उस गर्दभासुर के मारे जानेपर वह सुरम्य तालवन गोप और गोपियोंके लिये सुखदायक हो गया ॥ १ ॥ तदनन्तर धेनुकासुर को मारकर वे दोनों वासुदेव पुत्र ॥ प्रसन्न मनसे भाण्डीर नामक वट वृक्ष के तले आये ॥२॥
कन्धेपर गौ बांधने की रस्सी डाले और बनमालासे विभूषित हुए वे दोनों महात्मा बालक सिंहनाद करते, गाते, वृक्षों पर चढ़ते, दूर तक गौ चराते थे उनका नाम ले-लेकर पुकारते हुए नये सींगों वाले बछड़े के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ ३-४ ॥ उन दोनोंके वस्त्र [क्रमशः ] सुनहरी और श्याम रंगसे रंगे हुए थे अतः वे इन्द्रधनुष युक्त श्वेत और श्याम मेघ के समान जान पड़ते थे ॥ ५॥ वे समस्त लोकपालोंके प्रभु पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर नाना प्रकारकी लौकिक लीलाओं से परस्पर खेल रहे थे ॥६॥ मनुष्य-धर्म में तत्पर रहकर मनुष्यता का सम्मान करते हुए वे मनुष्य-जातिके गुणों की क्रिडाएँ करते हुए वन में विचर रहे थे ॥ ७ ॥ वे दोनों महाबली बालक कभी झूला में झूल कर, कभी परस्पर मल्लयुद्ध कर और कभी पत्थर फेंककर नाना प्रकारसे व्यायाम कर रहे थे ।॥ ८॥ इसी समय उन दोनों खेलते हुए बालकोंको उठा ले जानेकी इच्छासे प्रलम्ब नामक दैत्य गोपवेषमें अपनेको छिपाकर वहाँ आया ॥ ९ ॥ दानवश्रेष्ठ प्रलम्ब मनुष्य न होनेपर भी मनुष्य रुप धारणकर निश्शङ्कभावसे उन बालकोंके बीच घुस गया ॥ १० ॥ उन दोनोंकी असावधानताका | अवसर देखने वाले उस दैत्य ने कृष्ण को तो सर्वथा अजेय समझा; अतः उसने बलरामजीको मारनेका - निश्चय किया ॥ ११ ॥
तदनन्तर वे समस्त ग्वाल-बाल हरिणाक्रीडन* नामक खेल खेलते हुए आपसमें एक साथ दो-दो बालक उठे ॥ १२ ॥ तब श्रीदामा के साथ कृष्णचन्द्र, प्रलम्बके साथ बलराम और इसी प्रकार अन्यान्य गोपो के साथ और-और ग्वाल-बाल [ होड़ बदकर ] उछलते हुए चलने लगे ॥ १३ ॥ अंत में, कृष्णचन्द्रने श्रीदामाको, बलरामजीने प्रलम्बको तथा अन्यान्य कृष्णपक्षी गोपो ने अपने प्रतिपक्षियों को हरा दिया ॥ १४ ॥
उस खेलमें जो-जो बालक हारे थे वे सब जीतने वालोंको अपने-अपने कंधों पर चढ़कर भाण्डीरवट तक ले जाकर वहाँसे फिर लौट आये ॥१५॥ किन्तु प्रलम्बासुर अपने कन्धेपर बलरामजीको चढ़ाकर चन्द्रमा के सहित मेघके समान अंत्यन्त वेगसे आकाश | मण्डलको चल दिया ॥१६॥ वह दानवश्रेष्ठ रोहिणी नन्दन श्री बलभद्रजी के भार को सहन न कर सकनेके कारण वर्षाकालीन मेघ के समान बढ़कर अत्यन्त स्थूल शरीर वाला हो गया ॥ १७।। तब माला और आभूषण धारण किये, शिरपर मुकुट पहने गाड़ीके पहियोंके समान भयानक नेत्रोंवाले, अपने पादप्रहारसे पृथिवी को कम्पायमान करते हुए तथा दग्धर्पवत के समान आकारवाले उस दैत्यको देखकर उस निर्भय राक्षस के द्वारा ले जाये जाते हुए बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रसे कहा-॥ १८-१९ ॥ "भैया कृष्ण ! देखो, छद्म पूर्वक गोप वेष धारण करनेवाला कोई पर्वतके समान महाकाय दैत्य मुझे हरे लिये जाता है ॥ २० ॥ हे मधुसूदन ! अब मुझे क्या करना चाहिए, यह बतलाओ। देखो, यह दुरात्मा बड़ी शीघ्रतासे दौड़ा जा रहा है" ॥२१॥
श्री पराशर जी बोले ;- तब रोहिणीनन्दनके बल वीर्यको जाननेवाले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने मधुर मुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए उन बलरामजीसे कहा ॥ २२ ॥
श्रीकृष्णचन्द्र बोले ;- हे सर्वात्मन् ! आप सम्पूर्ण गुह्य पदार्थों में अत्यन्त गुह्यखरूप होकर भी यह स्पष्ट मानव-भाव क्यों अवलम्बन कर रहे है ? ॥ २३ ॥ आप अपने उस स्वरूपका स्मरण कीजिये जो समस्त संसारका कारण तथा कारणका भी पूर्व वर्ती है और प्रलयकालमें भी स्थित रहनेवाला है ॥ २४ ॥ क्या आपको मालूम नहीं है कि आप और मैं दोनों ही इस संसारके एकमात्र कारण हैं और पृथ्वी का भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोक में आये हैं ॥ २५ ॥ हे अनन्त ! आकाश आपका शिर है, मेघ केश हैं, पृथिवी चरण हैं, अग्नि मुख है, चन्द्रमा मन है, वायु श्वास-प्रश्वास हैं और चारों दिशाएँ बाहु है ॥ २६ ॥
हे भगवन् ! आप महाकाय हैं, आपके सहस्रों मुख हैं तथा सहस्रों हाथ, पाँव आदि शरीरके भेद हैं। आप सहस्रों ब्रह्माओंके आदिकारण हैं, मुनिजन आपका सहस्रों प्रकार वर्णन करते हैं ॥ २७॥ आपके दिव्य रूपको [आपके अतिरिक्त ] और कोई नहीं जानता, अतः समस्त देवगण आपके अवताररूपकी ही उपासना करते हैं। क्या आपको विदित नहीं है कि अन्तमें यह सम्पूर्ण विश्व आपहीमें लीन हो जाता है ॥२८॥हे अनन्त मूर्ते ! आपहीसे धारण की हुई यह पृथ्वी सम्पूर्ण चराचर विश्वको धारण करती है। हे अज ! निमेषादि कालस्वरूप आप ही कृतयुग आदि भेदों से इस जगत् का ग्रास करते हैं॥ २९ ॥ जिस प्रकार बडवानल से पीया हुआ जल वायुद्वारा हिमालयतक पहुँचाये जानेपर हिमका रूप धारण कर लेता है और फिर सूर्य-किरणोंका संयोग होनेसे जलरूप हो जाता है उसी प्रकार हे ईश! यह समस्त जगत् [ रुद्रादिरूपसे ] आपहीके द्वारा विनष्ट होकर आप [परमेश्वर ] के ही अधीन रहता है और फिर प्रत्येक कल्पमें आपके [ हिरण्यगर्भ रूप से ] सृष्टि-रचना में प्रवृत्त होनेपर यह [ विराट् रुप से ] स्थूल जगदृप हो जाता है ।। ३०-३१ ।। हे विश्वात्मन् ! आप और मैं दोनों ही इस जगत् के एकमात्र कारण है। संसारके हितके लिये ही हमने अपने भिन्न-भिन्न रूप धारण किये हैं ॥ ३२ ॥ अतः हे अमेयात्मन् ! आप अपने स्वरूपको स्मरण कीजिये और मनुष्य भाव का ही अवलम्बनकर इस दैत्य को मारकर बन्धुजनो का हित साधन कीजिये ॥ ३३ ॥
श्रीपराशरजी बोले ;- हे विप्र ! महात्मा कृष्ण चन्द्र द्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर महा बलवान् बलरामजी हँसते हुए प्रलम्बासुरको पीडित करने लगे।। ३४ ॥ उन्होंने क्रोधसे नेत्र लाल करके उसके मस्तकपर एक घूंसा मारा, जिसकी चोटसे उस दैत्य के दोनों नेत्र बाहर निकल आये ॥ ३५ ॥ तदनन्तर वह दैत्य श्रेष्ठ मगज फट जानेपर मुखसे रक्त वमन करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा और
मर गया ॥ ३६॥ अद्भुतकर्मा बलरामजीद्वारा प्रलम्बासुरको मरा हुआ देखकर गोप गण प्रसन्न होकर 'साधु, साधु, कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ।। ३७ । प्रलम्बासुरके मारे जाने पर बलराम जी गोपों द्वारा प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्र के साथ गोकुलमें लौट आये ॥ ३८ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे नवमोऽध्यायः"
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
"शरद्वर्णन तथा गोवर्धन की पूजा"
श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार उन राम और कृष्ण के ब्रज में बिहार करते-करते वर्षाकाल बीत गया और प्रफुल्लित कमलोंसे युक्त शरद् ऋतु आ गयी ॥१॥ जैसे गृहस्थ पुरुष पुत्र और क्षेत्र आदिमें लगी हुई ममतासे सन्ताप पाते हैं उसी प्रकार मछलियाँ गड्ढों के जलमें अत्यन्त ताप पाने लगीं ॥२॥संसार की असारताको जानकर जिस प्रकार योगाजन शान्त हो जाते हैं उसी प्रकार मयूरगण मदहीन होकर मौन हो गये॥ ३ ॥ विज्ञानिगण [सब प्रकार की ममता छोड़कर ] जैसे घरका त्याग कर देते हैं वैसे ही निर्मल श्वेत मेघोंने अपना जलरूप सर्वस्व छोड़कर आकाशमण्डलका परित्याग कर दिया ॥ ४ ॥ विविध पदार्थों में ममता करनेसे जैसे देहधारियोंके हृदय सारहीन हो जाते हैं वैसे ही शरत्कालीन सूर्य के तापसे सरोवर सूख गये ॥५॥ निर्मलचित्त पुरुषों के मन जिस प्रकार ज्ञान द्वारा समता प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार शरत्कालीन जलोंको [स्वच्छताके कारण ] कुमुदोंं से योग्य सम्बन्ध प्राप्त हो गया॥६॥ जिस प्रकार साधु-कुल में चरम देहधारी योगी सुशोभित होता है उसी प्रकार तारका-मण्डल-मण्डित निर्मल आकाश में पूर्ण चंद्र विराजमान हुआ ॥ ७ ॥
जिस प्रकार क्षेत्र और पुत्र आदिमें बढ़ी हुई ममता को विवेकीजन शनैः शनैः त्याग देते हैं वैसे ही जलाशयोंं का जल धीरे-धीरे अपने तट को छोड़ने लगा॥८॥
जिस प्रकार अन्तरायों (विघ्नों) से विचलित हुए कुयोगियोंका क्लेशों से पुनः संयोग हो जाता है उसी प्रकार पहले छोड़े हुए सरोवरके जलसे हंसका पुनः संयोग हो गया ॥९॥ क्रमशः महायोग (सम्प्रज्ञात समाधि ) प्राप्त कर लेनेपर जैसे यति निश्चलात्मा हो जाता है वैसे ही जलके स्थिर हो जानेसे समुद्र निश्चल हो गया ।।१०।।
सर्वगत भगवान विष्णु को जान लेनेपर मेधावी पुरुषों के चित्तोंके समान समस्त जलाशयोंका जल स्वच्छ हो गया ॥ ११ ॥
योगाग्निद्वारा जिनके क्लेशसमूह नष्ट हो गये हैं उन योगियों के चित्तोंके समान शीतके कारण मेघोंके लीन हो जानेसे आकाश निर्मल हो गया ॥ १२ ॥ जिस प्रकार अहंकार-जनित महान् दुःखको विवेक शान्त कर देता है उसी प्रकार सूर्यकिरणोंसे उत्पन्न हुए तापको चन्द्रमाने शान्त कर दिया ॥ १३ ॥ प्रत्याहार जैसे इन्द्रियों को उनके विषयोंसे खींच लेता है वैसे ही शरत्कालने आकाश मेघों को, पृथ्वी से धूलिको और जलसे मलको दूर कर दिया ॥ १४ ॥ [पानी से भर जाने के कारण ] मानो तालाबोंके जल पूरक कर चुकनेपर अब [ स्थिर रहने और सूखनेसे] रात-दिन कुम्भक एवं रेचक क्रिया द्वारा प्राणायाम का अभ्यास कर रहे है॥ १५॥
इस प्रकार ब्रजमंडल में निर्मल आकाश और नक्षत्रमय शरत्कालके आनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने समस्त ब्रजवासियोंको इन्द्रका उत्सव मनाने के लिये तैयारी करते देखा ॥ १६॥ महामति कृष्णचन्द्रने उन गोपों को उत्सवको उमंगसे अत्यन्त उत्साहपूर्ण देख कुतूहलवश अपने बड़े-बूढ़ों से पूछा - १७॥
"आपलोग जिसके लिये फूले नहीं समाते वह इन्द्र यज्ञ क्या है ?" इस प्रकार अत्यन्त आदरपूर्वक पूछने वाले श्रीकृष्णसे नन्दगोपने कहा-॥१८॥
नन्दगोप बोले ;- मेघ और जलका स्वामी देव राज इन्द्र है। उसकी प्रेरणासे ही मेघगण जलरूप रसकी वर्षा करते हैं ।। १९ ।| हम और अन्य समस्त देहधारी उस वर्षा से उत्पन्न हुए अन्नको ही बर्तते हैं तथा उसीको उपयोगमें लाते हुए देवताओं को भी तृप्त करते हैं ॥ २०॥ उस ( वर्षा ) से बढ़ी हुई घाससे ही तृप्त होकर ये गौएँ तुष्ट और पुष्ट होकर वत्सवती एवं दूध देनेवाली होती हैं ॥ २१ ॥ जिस भूमिपर बरसनेवाले मेघ दिखायी देते हैं उसपर कभी अन्न और तृणका अभाव नहीं होता और न कभी वहाँ के लोग भूखे रहते ही देखे जाते हैं ॥२२॥ यह पर्जन्यदेव (इन्द्र ) प्रथिवीके जलको सूर्यकिरणों- द्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियों की वृद्धि के लिये उसे मेघोंद्वारा पृथिवीपर बरसा देते हैं ॥ २३ ॥ इसलिये वर्षा ऋतु में समस्त राजालोग, हम और अन्य मनुष्य गण देवराज इंद्र की यज्ञों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक पूजा किया करते हैं॥ २४ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- इन्द्र की पूजा के विषय में नन्दजीके ऐसे वचन सुनकर श्री दामोदर देवराज को कुपित करने के लिये ही इस प्रकार कहने लगे ॥२५॥ "हे तात ! हम न तो कृषक हैं और न व्यापारी, हमारे देवता तो गौएँ ही हैं; क्योंकि हमलोग वनचर हैं ॥ २६ ॥ आन्वीक्षिकी ( तर्कशास्त्र ), त्रयी (धर्म काण्ड), दण्डनीति और वार्ता- ये चार विद्याएं हैं, इनमें से केवल वार्ता का विवरण सुनो ॥ २७ ॥ हे महाभाग ! वार्ता नामकी यह एक विद्या ही कृषि, वाणिज्य और पशुपालन इन तीन वृत्तियों की आश्रयभूता है ॥ २८ ॥ वार्ता की इन तीनों भेदों में से कृषि किसानों के, वाणिज्य व्यापारियोंकी और गोपालन हम लोगोंकी उत्तम वृत्ति है ॥ २९ ॥ जो व्यक्ति जिस विद्या से युक्त है उसकी वही इष्ट देवता है, वही पूजा-अर्चाके योग्य है और वही परम उपकारिणी है ॥ ३० ॥ जो पुरुष एक व्यक्ति से फल लाभ करके अन्यकी पूजा करता हैं उसका इहलोक अथवा परलोकमें कहीं भी शुभ नहीं होता॥ ३१ || खेतों के अंत में सीमा है, सीमाके अन्त में वन हैं और वनोंके अन्तमें समस्त । पर्वत हैं; वे पर्वत ही हमारी परमगति हैं ॥ ३२ ॥ हमलोग न तो किवाड़े तथा भित्तिके अंदर रहनेवाले हैं और न निश्चित गृह अथवा खेत वाले किसान ही हैं, हमलोग तो चक्रधारी मुनियोंकी भाँति समस्त जनसमुदायमें सुखी हैं ॥ ३३ ॥
सुना जाता है कि इस वन के पर्वतगण काम रूपी ( इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले ) हैं । वे मनोवांछित रूप धारण करके अपने अपने शिखरोंपर विहार किया करते हैं ॥ ३४ ॥ जब कभी वनवासी गण इन गिरिदेवोंको किसी तरहकी बाधा पहुँचाते हैं तो वे सिंहादिरूप धारणकर उन्हें मार डालते हैं ॥३५॥ अतः आजसे [ इस इन्द्र यज्ञ के स्थान में ] गिरियज्ञ अथवा गोयज्ञ का प्रचार होना चाहिये । हमें इंद्र से क्या प्रयोजन है ? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही हैं ॥ ३६ ॥ ब्राह्मण लोग मन्त्र-यज्ञ तथा कृषकगण सिर यज्ञ ( हलका पूजन ) करते है; अतः पर्वत और वनोंमें रहनेवाले हमलोगोंको गिर यज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये ॥ ३ ॥
"अतएव आपलोग विधिपूर्वक मेध्य पशुओंकी बलि देकर विविध सामग्रियों से गोवर्धन पर्वत की पूजा करें॥ ३८॥ आज सम्पूर्ण व्रज का दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों तथा अन्यान्य याचिका- को भोजन कराओ; इस विषयमें और अधिक सोच विचार मत करो ॥ ३९ ॥ गोवर्धन की पूजा, होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर शरद्-ऋतुके पुष्पोंसे सजे हुए मस्तकवाली गौएँ गिरिराज को प्रदक्षिणा करें ॥ ४० ॥ हे गोपगण ! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वक मेरी इस सम्मति के अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिराजको और मुझे अत्यन्त प्रसन्नता होगी" ॥४१॥
श्री पराशर जी बोले ;- कृष्णचंद्र के इन वाक्योंको सुनकर नन्द आदि बृजवासी गोपों ने प्रसन्नता से खिले हुए मुखसे 'साधु, साधु' कहा ॥ ४२ ॥ और बोले- हे वत्स! तुमने अपना जो विचार प्रकट किया है वह बड़ा ही सुन्दर है; हम सब ऐसा ही करेंगे; आज से गिरियज्ञ का प्रचार किया जाय ॥ ४३ ।।
तदनन्तर उन ब्रजवासियों ने गिर यज्ञ का अनुष्ठान क्रिया तथा दही, खीर और मांस आदि से पर्वतराज- को बलि दी ॥ ४४ ॥ सैकड़ों, हजारों ब्राह्मणोको भोजन कराया तथा पुष्पाचिंता गौओं और सजल जलधरके समान अत्यन्त गर्जनेवाले साँड़ोंने गोर्वधनकी परिक्रमा की ॥४५-४६ ॥ हे द्विज ! उस समय कृष्णचन्द्रने पर्वतके शिखरपर अन्य रूपसे प्रकट होकर यह दिखलाते हुए कि मैं मूर्तिमान् गिरिराज हूँ, उन गोपश्रेष्ठो के चढ़ाये हुए विविध व्यञ्जनोंको ग्रहण किया ॥४७॥ कृष्णचन्द्रने अपने निजरूपसे गोपों के साथ पर्वतराजके शिखरपर चढ़ कर अपने ही दूसरे स्वरूपका पूजन किया॥४८॥ तदनन्तर उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण अपने अभीष्ट वर पाकर गिरी यज्ञ समाप्त करके फिर अपने अपने गोष्ठोंमें चले आये ॥ ४९ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्नमेंऽशे दशमोऽध्यायः"
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
"इन्द्र का कोप और श्रीकृष्ण का गोवर्धन धारण"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! अपने यज्ञ के रुक जानेसे इन्द्रने अत्यन्त रोषपूर्वक संवर्तक नामक मेघोंके दलसे इस प्रकार कहा-॥१॥ "अरे मेघो! मेरा यह वचन सुनो और मैं जो कुछ कहूँ उसे मेरी आज्ञा सुनते ही, बिना कुछ सोचे-विचारे, तुरंत पूरा करो ॥२॥ देखो, अन्य गोपो के सहित दुर्बुद्धि नन्दगोपने कृष्णकी सहायताके बलसे अन्धे होकर मेरा यज्ञ भंग कर दिया है ।।३।।
अतः, जो उनकी परम जीविका और उनके गोपत्व- का कारण है उन गौओंको तुम मेरी आज्ञासे वर्षा और वायुके द्वारा पीडित कर दो || ४ ॥ मैं भी पर्वत - शिखरके समान अत्यन्त ऊँचे अपने ऐरावत हाथीपर चढ़कर वायु और जल छोड़ने के समय तुम्हारी सहायता करूँगा" ॥ ५॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विज ! इन्द्र की ऐसी आज्ञा होनेपर गौओंको नष्ट करनेके लिये मेघोंने अति प्रचण्ड वायु और वर्षा छोड़ दी ॥ ६॥ हे मुने ! उस समय एक क्षण में ही मेघों की छोड़ी हुई महान् जलधाराओंसे पृथिवी, दिशाएँ और आकाश एकरूप हो गये | ७ ॥ मेधगण मानो विद्युल्लता रूप दण्डाघात से भयभीत होकर महान् शब्द से दिशाओं को व्याप्त करते हुए मूसलाधार पानी बरसाने लगे ॥ ८॥ इस प्रकार मेघोंके अहर्निश बरसनेसे संसार के अन्धकारपूर्ण हो जानेपर ऊपर नीचे और सब ओर समस्त लोक जलमय-सा हो गया ॥ ९॥
वर्षा और वायुके वेगपूर्वक चलते रहनेसे गौओं के कटि, जंधा और ग्रीवा आदि सुन्न हो गये और काँपते काँपते अपने प्राण छोड़ने लगी [ अर्थात् मूर्च्छित हो गयी ] ॥ १० ॥ हे महामुने ! कोई गौएँ तो अपने बछड़ोंको अपने नीचे छिपाये खड़ी रहीं और कोई जल के वेग से वत्सहीना हो गयीं ॥ ११ ॥ वायुसे काँपते हुए दीनबदन बछड़े मानो व्याकुल होकर मन्द-स्वरसे से कृष्ण चन्द्र से रक्षा करो, रक्षा करो ऐसा कहने लगे ॥ १२ ।
हे मैत्रेय ! उस समय गो, गोपी और गोपगण के सहित सम्पूर्ण गोकुल अत्यन्त व्याकुल देखकर श्रीहरिने विचारा-॥१३।। यज्ञ-भंगके कारण विरोध मानकर यह सब करतूत इन्द्र ही कर रहा है; अतः अब मुझे सम्पूर्ण ब्रज की रक्षा करनी चाहिये ॥१४॥ अब मैं धैर्य पर्व को बड़ी-बड़ी शिलाओंसे घनीभूत इस पर्वत को उखाड़ कर इसे एक बड़े छत्रके समान ब्रज के ऊपर धारण करूँगा ॥ १५॥
श्री पराशर जी बोले ;- श्री कृष्णचन्द्र ने ऐसा विचारकर गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया और उसे लीलासे ही अपने एक हाथपर उठा लिया ॥ १६ ॥ पर्वत को उखाड़ लेने पर शूरनन्दन श्री श्याम- सुन्दरने गोपोंसे हँसकर कहा ;-"आओ, शीघ्र हो इस पर्वत के नीचे आ जाओ, मैंने वर्षासे बचनेका प्रबन्ध कर दिया है ।॥ १ । यहाँ वायुहीन स्थानों में आकर सुखपूर्वक बैठ जाओ; निर्भय होकर प्रवेश करो, पर्वतके गिरने आदिका भय मत करो" ॥१८॥
श्रीकृष्णचन्द्र को ऐसा कहनेपर जलकी धाराओंसे पीडित गोपी और गोप अपने बर्तन-भाँड़ोंको छकड़ों मैं रखकर गौओंके साथ पर्वत के नीचे चले गये ॥ १९ ॥ ब्रजवासियों द्वारा हर्ष और विस्मयपूर्वक टकटकी लगाकर देखे जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी गिरिराजको अत्यन्त निश्चलतापूर्वक धारण किये रहे ॥ २० ॥ जो प्रीतिपूर्वक आँखें. फाड़कर देख रहे थे उन हर्षित-चित्त गोप और गोपियोंसे अपने चरितोंका स्तवन होते हुए श्रीकृष्ण चन्द्र पर्वत धारण किये रहे ॥२१॥
हे विप्र! गोपोंके नाशकर्ता इन्द्रकी प्रेरणासे नन्दजीके गोकुल में सात रात्रितक महाभयंकर मेघ बरसते रहे ॥ २२ ॥ किन्तु जब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वत धारणकर गोकुलकी रक्षा की तो अपनी प्रतिज्ञा व्यर्थ हो जानेसे इन्द्रने मेघोंको रोक दिया ।।२३।। आकाश के मेघहीन हो जानेसे इन्द्रकी प्रतिज्ञा भंग हो जाने पर समस्त गोकुलवासी वहाँसे निकलकर प्रसन्नता पूर्वक फिर अपने-अपने स्थानोंपर आ गये ॥ २४ ॥ और कृष्णचन्द्रने भी इन ब्रजवासियों के विस्मय पूर्वक देखते-देखते गिरिराज गोवर्धन को अपने स्थानपर रख दिया ॥ २५ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्नमेंऽशे एकादशोऽध्यायः"
"प्रलम्ब-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- अपने अनुचरोंसहित उस गर्दभासुर के मारे जानेपर वह सुरम्य तालवन गोप और गोपियोंके लिये सुखदायक हो गया ॥ १ ॥ तदनन्तर धेनुकासुर को मारकर वे दोनों वासुदेव पुत्र ॥ प्रसन्न मनसे भाण्डीर नामक वट वृक्ष के तले आये ॥२॥
कन्धेपर गौ बांधने की रस्सी डाले और बनमालासे विभूषित हुए वे दोनों महात्मा बालक सिंहनाद करते, गाते, वृक्षों पर चढ़ते, दूर तक गौ चराते थे उनका नाम ले-लेकर पुकारते हुए नये सींगों वाले बछड़े के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ ३-४ ॥ उन दोनोंके वस्त्र [क्रमशः ] सुनहरी और श्याम रंगसे रंगे हुए थे अतः वे इन्द्रधनुष युक्त श्वेत और श्याम मेघ के समान जान पड़ते थे ॥ ५॥ वे समस्त लोकपालोंके प्रभु पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर नाना प्रकारकी लौकिक लीलाओं से परस्पर खेल रहे थे ॥६॥ मनुष्य-धर्म में तत्पर रहकर मनुष्यता का सम्मान करते हुए वे मनुष्य-जातिके गुणों की क्रिडाएँ करते हुए वन में विचर रहे थे ॥ ७ ॥ वे दोनों महाबली बालक कभी झूला में झूल कर, कभी परस्पर मल्लयुद्ध कर और कभी पत्थर फेंककर नाना प्रकारसे व्यायाम कर रहे थे ।॥ ८॥ इसी समय उन दोनों खेलते हुए बालकोंको उठा ले जानेकी इच्छासे प्रलम्ब नामक दैत्य गोपवेषमें अपनेको छिपाकर वहाँ आया ॥ ९ ॥ दानवश्रेष्ठ प्रलम्ब मनुष्य न होनेपर भी मनुष्य रुप धारणकर निश्शङ्कभावसे उन बालकोंके बीच घुस गया ॥ १० ॥ उन दोनोंकी असावधानताका | अवसर देखने वाले उस दैत्य ने कृष्ण को तो सर्वथा अजेय समझा; अतः उसने बलरामजीको मारनेका - निश्चय किया ॥ ११ ॥
तदनन्तर वे समस्त ग्वाल-बाल हरिणाक्रीडन* नामक खेल खेलते हुए आपसमें एक साथ दो-दो बालक उठे ॥ १२ ॥ तब श्रीदामा के साथ कृष्णचन्द्र, प्रलम्बके साथ बलराम और इसी प्रकार अन्यान्य गोपो के साथ और-और ग्वाल-बाल [ होड़ बदकर ] उछलते हुए चलने लगे ॥ १३ ॥ अंत में, कृष्णचन्द्रने श्रीदामाको, बलरामजीने प्रलम्बको तथा अन्यान्य कृष्णपक्षी गोपो ने अपने प्रतिपक्षियों को हरा दिया ॥ १४ ॥
उस खेलमें जो-जो बालक हारे थे वे सब जीतने वालोंको अपने-अपने कंधों पर चढ़कर भाण्डीरवट तक ले जाकर वहाँसे फिर लौट आये ॥१५॥ किन्तु प्रलम्बासुर अपने कन्धेपर बलरामजीको चढ़ाकर चन्द्रमा के सहित मेघके समान अंत्यन्त वेगसे आकाश | मण्डलको चल दिया ॥१६॥ वह दानवश्रेष्ठ रोहिणी नन्दन श्री बलभद्रजी के भार को सहन न कर सकनेके कारण वर्षाकालीन मेघ के समान बढ़कर अत्यन्त स्थूल शरीर वाला हो गया ॥ १७।। तब माला और आभूषण धारण किये, शिरपर मुकुट पहने गाड़ीके पहियोंके समान भयानक नेत्रोंवाले, अपने पादप्रहारसे पृथिवी को कम्पायमान करते हुए तथा दग्धर्पवत के समान आकारवाले उस दैत्यको देखकर उस निर्भय राक्षस के द्वारा ले जाये जाते हुए बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रसे कहा-॥ १८-१९ ॥ "भैया कृष्ण ! देखो, छद्म पूर्वक गोप वेष धारण करनेवाला कोई पर्वतके समान महाकाय दैत्य मुझे हरे लिये जाता है ॥ २० ॥ हे मधुसूदन ! अब मुझे क्या करना चाहिए, यह बतलाओ। देखो, यह दुरात्मा बड़ी शीघ्रतासे दौड़ा जा रहा है" ॥२१॥
श्री पराशर जी बोले ;- तब रोहिणीनन्दनके बल वीर्यको जाननेवाले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने मधुर मुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए उन बलरामजीसे कहा ॥ २२ ॥
श्रीकृष्णचन्द्र बोले ;- हे सर्वात्मन् ! आप सम्पूर्ण गुह्य पदार्थों में अत्यन्त गुह्यखरूप होकर भी यह स्पष्ट मानव-भाव क्यों अवलम्बन कर रहे है ? ॥ २३ ॥ आप अपने उस स्वरूपका स्मरण कीजिये जो समस्त संसारका कारण तथा कारणका भी पूर्व वर्ती है और प्रलयकालमें भी स्थित रहनेवाला है ॥ २४ ॥ क्या आपको मालूम नहीं है कि आप और मैं दोनों ही इस संसारके एकमात्र कारण हैं और पृथ्वी का भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोक में आये हैं ॥ २५ ॥ हे अनन्त ! आकाश आपका शिर है, मेघ केश हैं, पृथिवी चरण हैं, अग्नि मुख है, चन्द्रमा मन है, वायु श्वास-प्रश्वास हैं और चारों दिशाएँ बाहु है ॥ २६ ॥
हे भगवन् ! आप महाकाय हैं, आपके सहस्रों मुख हैं तथा सहस्रों हाथ, पाँव आदि शरीरके भेद हैं। आप सहस्रों ब्रह्माओंके आदिकारण हैं, मुनिजन आपका सहस्रों प्रकार वर्णन करते हैं ॥ २७॥ आपके दिव्य रूपको [आपके अतिरिक्त ] और कोई नहीं जानता, अतः समस्त देवगण आपके अवताररूपकी ही उपासना करते हैं। क्या आपको विदित नहीं है कि अन्तमें यह सम्पूर्ण विश्व आपहीमें लीन हो जाता है ॥२८॥हे अनन्त मूर्ते ! आपहीसे धारण की हुई यह पृथ्वी सम्पूर्ण चराचर विश्वको धारण करती है। हे अज ! निमेषादि कालस्वरूप आप ही कृतयुग आदि भेदों से इस जगत् का ग्रास करते हैं॥ २९ ॥ जिस प्रकार बडवानल से पीया हुआ जल वायुद्वारा हिमालयतक पहुँचाये जानेपर हिमका रूप धारण कर लेता है और फिर सूर्य-किरणोंका संयोग होनेसे जलरूप हो जाता है उसी प्रकार हे ईश! यह समस्त जगत् [ रुद्रादिरूपसे ] आपहीके द्वारा विनष्ट होकर आप [परमेश्वर ] के ही अधीन रहता है और फिर प्रत्येक कल्पमें आपके [ हिरण्यगर्भ रूप से ] सृष्टि-रचना में प्रवृत्त होनेपर यह [ विराट् रुप से ] स्थूल जगदृप हो जाता है ।। ३०-३१ ।। हे विश्वात्मन् ! आप और मैं दोनों ही इस जगत् के एकमात्र कारण है। संसारके हितके लिये ही हमने अपने भिन्न-भिन्न रूप धारण किये हैं ॥ ३२ ॥ अतः हे अमेयात्मन् ! आप अपने स्वरूपको स्मरण कीजिये और मनुष्य भाव का ही अवलम्बनकर इस दैत्य को मारकर बन्धुजनो का हित साधन कीजिये ॥ ३३ ॥
श्रीपराशरजी बोले ;- हे विप्र ! महात्मा कृष्ण चन्द्र द्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर महा बलवान् बलरामजी हँसते हुए प्रलम्बासुरको पीडित करने लगे।। ३४ ॥ उन्होंने क्रोधसे नेत्र लाल करके उसके मस्तकपर एक घूंसा मारा, जिसकी चोटसे उस दैत्य के दोनों नेत्र बाहर निकल आये ॥ ३५ ॥ तदनन्तर वह दैत्य श्रेष्ठ मगज फट जानेपर मुखसे रक्त वमन करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा और
मर गया ॥ ३६॥ अद्भुतकर्मा बलरामजीद्वारा प्रलम्बासुरको मरा हुआ देखकर गोप गण प्रसन्न होकर 'साधु, साधु, कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ।। ३७ । प्रलम्बासुरके मारे जाने पर बलराम जी गोपों द्वारा प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्र के साथ गोकुलमें लौट आये ॥ ३८ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे नवमोऽध्यायः"
---------दसवाँ अध्याय-----------
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"शरद्वर्णन तथा गोवर्धन की पूजा"
श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार उन राम और कृष्ण के ब्रज में बिहार करते-करते वर्षाकाल बीत गया और प्रफुल्लित कमलोंसे युक्त शरद् ऋतु आ गयी ॥१॥ जैसे गृहस्थ पुरुष पुत्र और क्षेत्र आदिमें लगी हुई ममतासे सन्ताप पाते हैं उसी प्रकार मछलियाँ गड्ढों के जलमें अत्यन्त ताप पाने लगीं ॥२॥संसार की असारताको जानकर जिस प्रकार योगाजन शान्त हो जाते हैं उसी प्रकार मयूरगण मदहीन होकर मौन हो गये॥ ३ ॥ विज्ञानिगण [सब प्रकार की ममता छोड़कर ] जैसे घरका त्याग कर देते हैं वैसे ही निर्मल श्वेत मेघोंने अपना जलरूप सर्वस्व छोड़कर आकाशमण्डलका परित्याग कर दिया ॥ ४ ॥ विविध पदार्थों में ममता करनेसे जैसे देहधारियोंके हृदय सारहीन हो जाते हैं वैसे ही शरत्कालीन सूर्य के तापसे सरोवर सूख गये ॥५॥ निर्मलचित्त पुरुषों के मन जिस प्रकार ज्ञान द्वारा समता प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार शरत्कालीन जलोंको [स्वच्छताके कारण ] कुमुदोंं से योग्य सम्बन्ध प्राप्त हो गया॥६॥ जिस प्रकार साधु-कुल में चरम देहधारी योगी सुशोभित होता है उसी प्रकार तारका-मण्डल-मण्डित निर्मल आकाश में पूर्ण चंद्र विराजमान हुआ ॥ ७ ॥
जिस प्रकार क्षेत्र और पुत्र आदिमें बढ़ी हुई ममता को विवेकीजन शनैः शनैः त्याग देते हैं वैसे ही जलाशयोंं का जल धीरे-धीरे अपने तट को छोड़ने लगा॥८॥
जिस प्रकार अन्तरायों (विघ्नों) से विचलित हुए कुयोगियोंका क्लेशों से पुनः संयोग हो जाता है उसी प्रकार पहले छोड़े हुए सरोवरके जलसे हंसका पुनः संयोग हो गया ॥९॥ क्रमशः महायोग (सम्प्रज्ञात समाधि ) प्राप्त कर लेनेपर जैसे यति निश्चलात्मा हो जाता है वैसे ही जलके स्थिर हो जानेसे समुद्र निश्चल हो गया ।।१०।।
सर्वगत भगवान विष्णु को जान लेनेपर मेधावी पुरुषों के चित्तोंके समान समस्त जलाशयोंका जल स्वच्छ हो गया ॥ ११ ॥
योगाग्निद्वारा जिनके क्लेशसमूह नष्ट हो गये हैं उन योगियों के चित्तोंके समान शीतके कारण मेघोंके लीन हो जानेसे आकाश निर्मल हो गया ॥ १२ ॥ जिस प्रकार अहंकार-जनित महान् दुःखको विवेक शान्त कर देता है उसी प्रकार सूर्यकिरणोंसे उत्पन्न हुए तापको चन्द्रमाने शान्त कर दिया ॥ १३ ॥ प्रत्याहार जैसे इन्द्रियों को उनके विषयोंसे खींच लेता है वैसे ही शरत्कालने आकाश मेघों को, पृथ्वी से धूलिको और जलसे मलको दूर कर दिया ॥ १४ ॥ [पानी से भर जाने के कारण ] मानो तालाबोंके जल पूरक कर चुकनेपर अब [ स्थिर रहने और सूखनेसे] रात-दिन कुम्भक एवं रेचक क्रिया द्वारा प्राणायाम का अभ्यास कर रहे है॥ १५॥
इस प्रकार ब्रजमंडल में निर्मल आकाश और नक्षत्रमय शरत्कालके आनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने समस्त ब्रजवासियोंको इन्द्रका उत्सव मनाने के लिये तैयारी करते देखा ॥ १६॥ महामति कृष्णचन्द्रने उन गोपों को उत्सवको उमंगसे अत्यन्त उत्साहपूर्ण देख कुतूहलवश अपने बड़े-बूढ़ों से पूछा - १७॥
"आपलोग जिसके लिये फूले नहीं समाते वह इन्द्र यज्ञ क्या है ?" इस प्रकार अत्यन्त आदरपूर्वक पूछने वाले श्रीकृष्णसे नन्दगोपने कहा-॥१८॥
नन्दगोप बोले ;- मेघ और जलका स्वामी देव राज इन्द्र है। उसकी प्रेरणासे ही मेघगण जलरूप रसकी वर्षा करते हैं ।। १९ ।| हम और अन्य समस्त देहधारी उस वर्षा से उत्पन्न हुए अन्नको ही बर्तते हैं तथा उसीको उपयोगमें लाते हुए देवताओं को भी तृप्त करते हैं ॥ २०॥ उस ( वर्षा ) से बढ़ी हुई घाससे ही तृप्त होकर ये गौएँ तुष्ट और पुष्ट होकर वत्सवती एवं दूध देनेवाली होती हैं ॥ २१ ॥ जिस भूमिपर बरसनेवाले मेघ दिखायी देते हैं उसपर कभी अन्न और तृणका अभाव नहीं होता और न कभी वहाँ के लोग भूखे रहते ही देखे जाते हैं ॥२२॥ यह पर्जन्यदेव (इन्द्र ) प्रथिवीके जलको सूर्यकिरणों- द्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियों की वृद्धि के लिये उसे मेघोंद्वारा पृथिवीपर बरसा देते हैं ॥ २३ ॥ इसलिये वर्षा ऋतु में समस्त राजालोग, हम और अन्य मनुष्य गण देवराज इंद्र की यज्ञों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक पूजा किया करते हैं॥ २४ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- इन्द्र की पूजा के विषय में नन्दजीके ऐसे वचन सुनकर श्री दामोदर देवराज को कुपित करने के लिये ही इस प्रकार कहने लगे ॥२५॥ "हे तात ! हम न तो कृषक हैं और न व्यापारी, हमारे देवता तो गौएँ ही हैं; क्योंकि हमलोग वनचर हैं ॥ २६ ॥ आन्वीक्षिकी ( तर्कशास्त्र ), त्रयी (धर्म काण्ड), दण्डनीति और वार्ता- ये चार विद्याएं हैं, इनमें से केवल वार्ता का विवरण सुनो ॥ २७ ॥ हे महाभाग ! वार्ता नामकी यह एक विद्या ही कृषि, वाणिज्य और पशुपालन इन तीन वृत्तियों की आश्रयभूता है ॥ २८ ॥ वार्ता की इन तीनों भेदों में से कृषि किसानों के, वाणिज्य व्यापारियोंकी और गोपालन हम लोगोंकी उत्तम वृत्ति है ॥ २९ ॥ जो व्यक्ति जिस विद्या से युक्त है उसकी वही इष्ट देवता है, वही पूजा-अर्चाके योग्य है और वही परम उपकारिणी है ॥ ३० ॥ जो पुरुष एक व्यक्ति से फल लाभ करके अन्यकी पूजा करता हैं उसका इहलोक अथवा परलोकमें कहीं भी शुभ नहीं होता॥ ३१ || खेतों के अंत में सीमा है, सीमाके अन्त में वन हैं और वनोंके अन्तमें समस्त । पर्वत हैं; वे पर्वत ही हमारी परमगति हैं ॥ ३२ ॥ हमलोग न तो किवाड़े तथा भित्तिके अंदर रहनेवाले हैं और न निश्चित गृह अथवा खेत वाले किसान ही हैं, हमलोग तो चक्रधारी मुनियोंकी भाँति समस्त जनसमुदायमें सुखी हैं ॥ ३३ ॥
सुना जाता है कि इस वन के पर्वतगण काम रूपी ( इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले ) हैं । वे मनोवांछित रूप धारण करके अपने अपने शिखरोंपर विहार किया करते हैं ॥ ३४ ॥ जब कभी वनवासी गण इन गिरिदेवोंको किसी तरहकी बाधा पहुँचाते हैं तो वे सिंहादिरूप धारणकर उन्हें मार डालते हैं ॥३५॥ अतः आजसे [ इस इन्द्र यज्ञ के स्थान में ] गिरियज्ञ अथवा गोयज्ञ का प्रचार होना चाहिये । हमें इंद्र से क्या प्रयोजन है ? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही हैं ॥ ३६ ॥ ब्राह्मण लोग मन्त्र-यज्ञ तथा कृषकगण सिर यज्ञ ( हलका पूजन ) करते है; अतः पर्वत और वनोंमें रहनेवाले हमलोगोंको गिर यज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये ॥ ३ ॥
"अतएव आपलोग विधिपूर्वक मेध्य पशुओंकी बलि देकर विविध सामग्रियों से गोवर्धन पर्वत की पूजा करें॥ ३८॥ आज सम्पूर्ण व्रज का दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों तथा अन्यान्य याचिका- को भोजन कराओ; इस विषयमें और अधिक सोच विचार मत करो ॥ ३९ ॥ गोवर्धन की पूजा, होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर शरद्-ऋतुके पुष्पोंसे सजे हुए मस्तकवाली गौएँ गिरिराज को प्रदक्षिणा करें ॥ ४० ॥ हे गोपगण ! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वक मेरी इस सम्मति के अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिराजको और मुझे अत्यन्त प्रसन्नता होगी" ॥४१॥
श्री पराशर जी बोले ;- कृष्णचंद्र के इन वाक्योंको सुनकर नन्द आदि बृजवासी गोपों ने प्रसन्नता से खिले हुए मुखसे 'साधु, साधु' कहा ॥ ४२ ॥ और बोले- हे वत्स! तुमने अपना जो विचार प्रकट किया है वह बड़ा ही सुन्दर है; हम सब ऐसा ही करेंगे; आज से गिरियज्ञ का प्रचार किया जाय ॥ ४३ ।।
तदनन्तर उन ब्रजवासियों ने गिर यज्ञ का अनुष्ठान क्रिया तथा दही, खीर और मांस आदि से पर्वतराज- को बलि दी ॥ ४४ ॥ सैकड़ों, हजारों ब्राह्मणोको भोजन कराया तथा पुष्पाचिंता गौओं और सजल जलधरके समान अत्यन्त गर्जनेवाले साँड़ोंने गोर्वधनकी परिक्रमा की ॥४५-४६ ॥ हे द्विज ! उस समय कृष्णचन्द्रने पर्वतके शिखरपर अन्य रूपसे प्रकट होकर यह दिखलाते हुए कि मैं मूर्तिमान् गिरिराज हूँ, उन गोपश्रेष्ठो के चढ़ाये हुए विविध व्यञ्जनोंको ग्रहण किया ॥४७॥ कृष्णचन्द्रने अपने निजरूपसे गोपों के साथ पर्वतराजके शिखरपर चढ़ कर अपने ही दूसरे स्वरूपका पूजन किया॥४८॥ तदनन्तर उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण अपने अभीष्ट वर पाकर गिरी यज्ञ समाप्त करके फिर अपने अपने गोष्ठोंमें चले आये ॥ ४९ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्नमेंऽशे दशमोऽध्यायः"
--------ग्यारहवाँ अध्याय---------
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"इन्द्र का कोप और श्रीकृष्ण का गोवर्धन धारण"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! अपने यज्ञ के रुक जानेसे इन्द्रने अत्यन्त रोषपूर्वक संवर्तक नामक मेघोंके दलसे इस प्रकार कहा-॥१॥ "अरे मेघो! मेरा यह वचन सुनो और मैं जो कुछ कहूँ उसे मेरी आज्ञा सुनते ही, बिना कुछ सोचे-विचारे, तुरंत पूरा करो ॥२॥ देखो, अन्य गोपो के सहित दुर्बुद्धि नन्दगोपने कृष्णकी सहायताके बलसे अन्धे होकर मेरा यज्ञ भंग कर दिया है ।।३।।
अतः, जो उनकी परम जीविका और उनके गोपत्व- का कारण है उन गौओंको तुम मेरी आज्ञासे वर्षा और वायुके द्वारा पीडित कर दो || ४ ॥ मैं भी पर्वत - शिखरके समान अत्यन्त ऊँचे अपने ऐरावत हाथीपर चढ़कर वायु और जल छोड़ने के समय तुम्हारी सहायता करूँगा" ॥ ५॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विज ! इन्द्र की ऐसी आज्ञा होनेपर गौओंको नष्ट करनेके लिये मेघोंने अति प्रचण्ड वायु और वर्षा छोड़ दी ॥ ६॥ हे मुने ! उस समय एक क्षण में ही मेघों की छोड़ी हुई महान् जलधाराओंसे पृथिवी, दिशाएँ और आकाश एकरूप हो गये | ७ ॥ मेधगण मानो विद्युल्लता रूप दण्डाघात से भयभीत होकर महान् शब्द से दिशाओं को व्याप्त करते हुए मूसलाधार पानी बरसाने लगे ॥ ८॥ इस प्रकार मेघोंके अहर्निश बरसनेसे संसार के अन्धकारपूर्ण हो जानेपर ऊपर नीचे और सब ओर समस्त लोक जलमय-सा हो गया ॥ ९॥
वर्षा और वायुके वेगपूर्वक चलते रहनेसे गौओं के कटि, जंधा और ग्रीवा आदि सुन्न हो गये और काँपते काँपते अपने प्राण छोड़ने लगी [ अर्थात् मूर्च्छित हो गयी ] ॥ १० ॥ हे महामुने ! कोई गौएँ तो अपने बछड़ोंको अपने नीचे छिपाये खड़ी रहीं और कोई जल के वेग से वत्सहीना हो गयीं ॥ ११ ॥ वायुसे काँपते हुए दीनबदन बछड़े मानो व्याकुल होकर मन्द-स्वरसे से कृष्ण चन्द्र से रक्षा करो, रक्षा करो ऐसा कहने लगे ॥ १२ ।
हे मैत्रेय ! उस समय गो, गोपी और गोपगण के सहित सम्पूर्ण गोकुल अत्यन्त व्याकुल देखकर श्रीहरिने विचारा-॥१३।। यज्ञ-भंगके कारण विरोध मानकर यह सब करतूत इन्द्र ही कर रहा है; अतः अब मुझे सम्पूर्ण ब्रज की रक्षा करनी चाहिये ॥१४॥ अब मैं धैर्य पर्व को बड़ी-बड़ी शिलाओंसे घनीभूत इस पर्वत को उखाड़ कर इसे एक बड़े छत्रके समान ब्रज के ऊपर धारण करूँगा ॥ १५॥
श्री पराशर जी बोले ;- श्री कृष्णचन्द्र ने ऐसा विचारकर गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया और उसे लीलासे ही अपने एक हाथपर उठा लिया ॥ १६ ॥ पर्वत को उखाड़ लेने पर शूरनन्दन श्री श्याम- सुन्दरने गोपोंसे हँसकर कहा ;-"आओ, शीघ्र हो इस पर्वत के नीचे आ जाओ, मैंने वर्षासे बचनेका प्रबन्ध कर दिया है ।॥ १ । यहाँ वायुहीन स्थानों में आकर सुखपूर्वक बैठ जाओ; निर्भय होकर प्रवेश करो, पर्वतके गिरने आदिका भय मत करो" ॥१८॥
श्रीकृष्णचन्द्र को ऐसा कहनेपर जलकी धाराओंसे पीडित गोपी और गोप अपने बर्तन-भाँड़ोंको छकड़ों मैं रखकर गौओंके साथ पर्वत के नीचे चले गये ॥ १९ ॥ ब्रजवासियों द्वारा हर्ष और विस्मयपूर्वक टकटकी लगाकर देखे जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी गिरिराजको अत्यन्त निश्चलतापूर्वक धारण किये रहे ॥ २० ॥ जो प्रीतिपूर्वक आँखें. फाड़कर देख रहे थे उन हर्षित-चित्त गोप और गोपियोंसे अपने चरितोंका स्तवन होते हुए श्रीकृष्ण चन्द्र पर्वत धारण किये रहे ॥२१॥
हे विप्र! गोपोंके नाशकर्ता इन्द्रकी प्रेरणासे नन्दजीके गोकुल में सात रात्रितक महाभयंकर मेघ बरसते रहे ॥ २२ ॥ किन्तु जब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वत धारणकर गोकुलकी रक्षा की तो अपनी प्रतिज्ञा व्यर्थ हो जानेसे इन्द्रने मेघोंको रोक दिया ।।२३।। आकाश के मेघहीन हो जानेसे इन्द्रकी प्रतिज्ञा भंग हो जाने पर समस्त गोकुलवासी वहाँसे निकलकर प्रसन्नता पूर्वक फिर अपने-अपने स्थानोंपर आ गये ॥ २४ ॥ और कृष्णचन्द्रने भी इन ब्रजवासियों के विस्मय पूर्वक देखते-देखते गिरिराज गोवर्धन को अपने स्थानपर रख दिया ॥ २५ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्नमेंऽशे एकादशोऽध्यायः"
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