सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का बारहवाँ, तेरहवाँ व चौदहवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का  बारहवाँ, तेरहवाँ व चौदहवाँ अध्याय}} {The twelfth, thirteenth and fourteenth chapters of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}
                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


                                 "बारहवाँ अध्याय"

"इन्द्रका आगमन और इन्द्रकृत श्रीकृष्णाभिषेक"
श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार गोवर्धन पर्वत का धारण और गोकुलकी रक्षा हो जानेपर देवराज इन्द्रको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेकी इच्छा हुई ॥१॥ अतः शत्रुजित् देवराज गजराज ऐरावत पर चढ़कर गोवर्धनपर्वतपर आये और वहाँ सम्पूर्ण जगत्के रक्षक गोपवेषधारी महाबलवान् श्रीकृष्ण चन्द्र को ग्वाल बालों के साथ गौएँ चराते देखा ।। २-३॥ हे द्विज ! उन्होंने यह भी देखा कि पश्चिश्रेष्ठ गरुड़ अदृश्यभावसे उनके ऊपर रहकर अपने पन्खोंं से उनकी छाया कर रहे हैं ॥ ४॥ तब वे ऐरावत से उतर पड़े और एकांत में श्री मधुसूदन की ओर प्रीतिपूर्वक दृष्टि फैलाते हुए मुसकराकर बोले ॥ ५ ॥

इन्द्र ने कहा ;- हे श्रीकृष्णचन्द्र ! मैं जिसलिये आपके पास आया हूँ, वह सुनिये-हे महाबाहो ! आप इसे अन्यथा न समझे ॥ ६ ॥ हे अखिलाधार परमेश्वर ! आपने पृथ्वी का भार उतारनेके लिये ही पृथ्वी पर अवतार लिया है ।। ७॥यज्ञ भंग से विरोध मानकर ही मैंने गोकुलको नष्ट करनेके लिये महामेघा को आज्ञा दी थी, उन्होंने यह संहार मचाया था ॥ ८॥ किन्तु आपने पर्वतको उखाड़कर गौओंको बचा लिया। हे वीर ! आपके इस अद्भुत कर्मसे मैं अति प्रसन्न हूँ ॥९॥ हे कृष्ण ! आपने जो अपने एक हाथपर गोवर्धन धारण किया है इससे मैं देवताओं का प्रयोजन [ आपके द्वारा] सिद्ध हुआ ही समझता हूँ ॥१०॥ [गोवंश की रक्षा द्वारा] आपसे रक्षित [ कामधेनु आदि ] गौओंसे प्रेरित होकर ही मैं आपका विशेष सत्कार करने के लिये यहाँ आपके पास आया हूँ ॥ ११ ॥ हे कृष्ण ! अब मैं गौओंके वाक्यानुसार ही आपका उपेन्द्र-पदपर अभिषेक करूँगा तथा आप गौओंके इन्द्र (स्वामी) हैं इसलिये आपका नाम 'गोविन्द' भी होगा । १२ ॥।

श्रीपराशरजी बोले ;- तदनन्तर इन्द्रने अपने वाहन गजराज ऐरावत का घण्टा लिया और उसमें । पवित्र जल भरकर उससे कृष्णचन्द्रका अभिषेक किया ॥ १३ ॥

श्रीकृष्णचन्द्रका अभिषेक होते समय गौओंने तुरंत ही अपने स्तनों से टपकते हुए दुग्धसे पृथ्वी को भिगो दिया ॥ १४ ॥

इस प्रकार गौओंके कथनानुसार श्री जनार्दन को उपेन्द्र-पदपर अभिषिक्तकर शचीपति इन्द्रने पुनः प्रीति और विनयपूर्वक कहा-॥ १५ ॥ हे महाभाग ! यह तो मैंने गौओंका वचन पूरा किया, अब पृथिवी के भार उतारनेकी इच्छासे मैं आपसे जो कुछ और निवेदन करता हूँ वह भी सुनिये ॥ १६ ॥ हे पृथिवीधर ! हे पुरुषसिंह ! अर्जुन नामक मेरे अंश ने पृथ्वी पर अवतार लिया है; आप कृपा करके उसकी सर्वदा रक्षा करें ॥ १७ ॥ हे मधुसूदन ! वह वीर पृथ्वी का भार उतारने में आपका साथ देगा, अतः आप उसकी अपने शरीरके समान ही रक्षा करें" ॥ १८ ॥

श्रीभगवान् बोले ;- भरतवंशमें में पृथा के पुत्र अर्जुन ने तुम्हारे अंश से अवतार लिया है -यह मैं जानता हूँ। मैं जब तक पृथ्वी पर रहूँगा, उसकी रक्षा करूँगा ।। १९ ।। हे शत्रुसूदन देवेन्द्र ! जबतक महीतलपर रहूँगा तब तक अर्जुन को युद्ध में कोई भी न जीत सकेगा॥ २० ॥ हे देवेन्द्र! विशाल भुजाओं वाला कंस नामक दैत्य, अरिष्टासुर, केशी, कुवलया पीड और नरकासुर आदि अन्यान्य दैत्यों का नाश होनेपर यहाँ महाभारत-युद्ध होगा। हे सहस्राक्ष ! उसी समय पृथ्वी का भार उतरा हुआ समझना ॥ २१-२२ ॥ अब तुम प्रसन्नतापूर्वक जाओ, अपने पुत्र अर्जुन के लिये तुम किसी प्रकारकी चिन्ता मत करो; मेरे रहते हुए अर्जुन का कोई भी शत्रु सफल न हो सकेगा ॥ २३ ॥ अर्जुन के लिये ही मैं महाभारत के अंत में युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवोंं को अक्षत शरीरसे कुन्तीको ढूँगा ॥ २४ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- कृष्ण चंद्र के ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र उनका आलिङ्गन कर ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हो स्वर्ग को चले गये ।। २५ ॥ तदनन्तर कृष्ण चन्द्र भी गोपियों के दृष्टिपात से पवित्र हुए मार्गद्वारा गोपकुमारों और गौओं के साथ व्रजको लौट आये ॥ २६ ॥
          "इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः"


                  ----- -- तेरहवाँ अध्याय---------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)

                        【तेरहवाँ अध्याय】

"गोपोंद्वारा भगवान् का प्रभाववर्णन तथा भगवान का गोपियों के साथ रासक्रीडा करना"
श्री पराशर जी बोले ;- इन्द्र के चले जानेपर, निर्दोष कर्म करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रको गोवर्धन पर्वत धारण करते देख गोपगण उनसे प्रीतिपूर्वक बोले-॥१॥ हे भगवन् ! हे महाभाग! आपने गिरिराजको धारण कर हमारी और गौओंकी इस महान भयसे रक्षा की है ॥२॥ हे तात ! कहाँ आपकी यह अनुपम बाललीला, कहाँ निन्दित गोपजाति और कहाँ ये दिव्य कर्म ? यह सब क्या है, कृपया हमें बतलाइये ॥ ३ ॥ आपने यमुना जी में कालिया नाग का दमन किया; धेनुकासुरको मारा और फिर यह गोवर्धन पर्वत धारण किया; आपके इन अद्भुत कर्मों से हमारे चित्त में बड़ी शंका हो रही है | ४ ॥ हे अमितविक्रम ! हम भगवान हरि के चरणों की शपथ करके आपसे सच-सच कहते हैं कि आपके ऐसे बल वीर्य को देखकर हम आपको मनुष्य नहीं मान सकते ॥५॥ हे केशव ! स्त्री और बालकोंके सहित सभी ब्रजवासियों की आप पर अत्यन्त प्रीति है। आपका यह कर्म तो देवताओं के लिये भी दुष्कर है ॥ ६॥ हे कृष्ण ! आपकी यह बाल्यावस्था, विचित्र बलवीर्य और हम-जैसे नीच पुरुषों में जन्म लेना । हे अमेयात्मन् ! ये सब बातें विचार करनेपर हमें शंकामें डाल देती हैं ॥७॥ आप देवता हों, दानव हों, यक्ष हों अथवा गन्धर्व हों, इन बातोंका विचार करनेसे हमें क्या प्रयोजन है ? हमारे तो आप बन्धु ही हैं, अतः आपको नमस्कार है ।। ८॥

श्री पराशर जी बोले ;- गोपगण के ऐसा कहनेपर महामति कृष्णचन्द्र कुछ देरतक चुप रहे और फिर कुछ प्रणयजन्य कोपपूर्वक इस प्रकार कहने लगे-॥९॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- है गोपी गण! यदि आप लोगों को मेरे संबंध से किसी प्रकार की लज्जा न हो, तो मैं आपलोगोंसे प्रशंसनीय हूँ इस बातका विचार करनेकी भी क्या आवश्यकता है ? ॥ १० ॥ यदि मुझमें आपकी प्रीति है और यदि मैं आपकी प्रशंसा का पात्र हूँ तो आपलोग मुझमें बान्धव-बुद्धि ही करें ॥ ११ ॥ मैं न देव हूँ, न गन्धर्व हूँ, न यक्ष हूँ और न दानव हूँ। मैं तो आपके बान्धवरूपसे ही उत्पन्न हुआ हूँ; आप लोगों को इस विषयमें और कुछ विचार न करना चाहिये ।। १२ ।।

श्री पराशर जी बोले ;- हे महाभाग! श्रीहरिके इन वाक्योंको सुनकर उन्हें प्रणयकोपयुक्त देख वे समस्त गोपगण चुपचाप वनको चले गये ॥ १३ ॥ तब श्री कृष्णचन्द्र निर्मल आकाश, शरच्चन्द्र की चन्द्रिका और दिशाओंको सुरभित करनेवाली विकसित कुमुदिनी तथा वन-खण्डीको मुखर मधुकरोंसे मनोहर देखकर गोपियोंके साथ रमण करनेकी इच्छा की ॥ १४-१५ ॥ उस समय बलराम जीके बिना ही श्रीमुरलीमनोहर स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाला अत्यन्त मधुर, अस्फुट एवं मृदुल पद ऊँचे और धीमे स्वरसे गाने लगे ॥ १६ ॥ उनकी उस सूरम्य गीत ध्वनि को सुनकर गोपियाँ अपने-अपने घरोंको छोड़कर तत्काल जहाँ श्री मधुसूदन थे वहाँ चली आयीं ॥ १७ ॥

वहाँ आकर कोई गोपी तो उनके स्वर में स्वर मिलाकर धीरे-धीरे गाने लगी और कोई मन-ही मन उन्हींका स्मरण करने लगी ॥ १८ ॥ कोई 'हे कृष्ण, हे कृष्ण' ऐसा कहती हुई लज्जावश संकुचित हो गयी और कोई प्रेमोन्मादिनी होकर तुरंत उनके पास जा खड़ी हुई ॥ १९ ॥ कोई गोपी बाहर गुरुजनोंको देखकर अपने घरमें ही रहकर आँख । मूंदकर तन्मय भाव से श्री गोविंद का ध्यान करने लगी ॥ २० ॥ तथा कोई गोपकुमारी जगत् के कारण परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णचन्द्रका चिन्तन करते-करते [र्मुछा वस्थामें] प्राणापानके रुक जानेसे मुक्त हो गयी, क्योंकि भगवद्थान के विमल आह्वादसे उसकी समस्त पुण्य राशि क्षीण हो गयी और भगवान की अप्राप्तिके महान् दुःखसे उसके समस्त पाप लीन हो गये थे ।।२१-२२।।

गोपियों से घिरे हुए रासारम्भरूप रसके लिये उत्कण्ठित श्री गोविंद ने उस शरच्चन्द्र सुशोभिता रात्री को [ रास करके ] सम्मानित किया ॥ २३ ॥

उस समय भगवान कृष्ण के अन्यत्र चले जाने पर कृष्ण चेष्टा के अधीन हुईं गोपियाँ यूथ बनाकर वृन्दावन के भीतर विचरने लगी ॥ २४ ॥ कृष्ण में निबद्धचित्त हुई वे व्रजाङ्गनाएँ परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगी-॥२५।। [ उनमें से एक गोपी बोली-]मैं ही कृष्ण हूँ; देखो, कैसी सुन्दर चालसे चलता हूँ; तनिक मेरी गति तो देखो।" दूसरी कहने लगी-"कृष्ण तो मैं हूँ, अहा ! मेरा गाना तो सुनो ॥ २६ ।। कोई अन्य गोपी भुजाएँ ठोंककर बोल उठी-"अरे दुष्ट कालिय ! मैं कृष्ण हूँ, तनिक ठहर तो"-ऐसा कहकर वह कृष्ण के सारे चरित्रोंका लीलापूर्वक अनुकरण करने लगती ॥ २७ ॥ [ किसी और गोपी ने कहा-] "अरे गोपगण ! मैंने गोवर्धन धारण कर लिया है, तुम वर्षासे मत डरो, निश्शंक होकर इसके नीचे आकर बैठ जाओ" ॥२८॥कोई दूसरी गोपी कृष्णलीला ओ का अनुकरण करती हुई कहने लगी-“मैंने धेनुकासुर को मार दिया है, अब यहाँ गौएँ स्वच्छन्द होकर विचरें" ॥ २९ ।

इस प्रकार समस्त गोपियाँ श्रीकृष्ण चन्द्र की नाना प्रकार की चेष्टाओं में व्यग्र होकर साथ-साथ अति सूरम्य वृन्दावन में विचरने लगीं ॥ ३० ॥
खिले हुए कमल-जैसे नेत्रोंवाली एक सुन्दरी गोपाङ्गना सर्वांग में पुलकित हो पृथ्वी की ओर देखकर कहने लगी- ३१ । अरी आली ! ये लीलाललितगामी कृष्ण चन्द्र के ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल आदि की रेखाओं से सुशोभित पदचिह्न तो देखो ॥ ३२ |। और देखो, उसके साथ कोई पुण्यवती मदमाती युवती भी गयी है, उसके ये घने छोटे-छोटे और पतले चरण-चिह्न दिखायी दे रहे हैं ॥ ३३ ॥ यहाँ निश्चय ही दामोदरने ऊँचे होकर पुष्पचयन किया है; इसीसे यहाँ उन महात्माके चरणोंके केवल अग्रभाग ही अङ्गित हुए है ॥ ३४ ॥

यहाँ बैठकर उन्होंने निश्चय ही किसी बड़भागिनीका पुष्पोंसे शृङ्गार किया है; अवश्य ही उसने अपने पूर्वजन्ममें सर्वात्मा श्री विष्णु भगवान की उपासना की होगी।। ३५।। और यह देखो, पुष्प बंधन के सम्मान से गर्विता होकर उसके मना करने पर श्री नन्दनन्दन उसे छोड़कर इस मार्गसे चले गये हैं ॥ ३६ ॥ अरी सखियो ! देखो, यहाँ कोई नितम्बभार के कारण मन्दगामिनी गोपी कृष्ण चन्द्र के पीछे -पीछे गयी है। वह अपने गन्तव्य स्थानको तीव्रगतिसे गयी है, इसीसे उसके चरणचिह्नोंके अग्रभाग कुछ नीचे दिखायी देते हैं ॥ ३७॥ यहाँ वह सखी उनके हाथ में अपना पाणिपल्लव देकर चली है इसीसे उसके चरणचिह्न पराधीन-से दिखलायी देते हैं ॥ ३८ ॥ देखो, यहाँसे उस मन्दगामिनीके निराश होकर लौटनेके चरणचिह्न दीख रहे हैं; मालूम होता है, उस धूर्त ने केवल एक स्पर्श करके उसका अपमान किया है ॥ ३९ ॥ यहाँ कृष्ण ने अवश्य उस गोपी से कहा है [तू यहीं बैठ ] मैं शीघ्र ही जाता हूँ [ इस वनमें रहनेवाले राक्षसको मारकर ] पुनः तेरे पास लौट आऊंगा। इसीलिये यहाँ उनके चरणोंके चिह्न शीघ्र गतिके-से दीख रहे हैं ॥ ४० । यहाँसे कृष्णचन्द्र गहन वनमें चले गये हैं; इसीसे उनके चरण चिह्न दिखलायी नहीं देते; अब लौट चलो; इस स्थान पर चन्द्रमा की किरणें नहीं पहुंच सकतीं ॥ ४१ ॥

तदनन्तर वे गोपियाँ कृष्ण-दर्शनसे निराश होकर लौट आयीं और यमुनातटपर आकर उनके चरितों को गाने लगीं ॥ ४२ ॥ तब गोपियों ने प्रसन्नमुखारविन्द त्रिभुवनरक्षक अक्लिष्टकर्मा श्रीकृष्णचन्द्रको वहाँ आते देखा ॥ ४३ ॥ उस समय कोई गोपी तो श्री गोविंद को आते देखकर अति हर्षित हो केवल "कृष्ण ! कृष्ण !! कृष्ण !!!" इतना ही कहती रह गयी और कुछ न बोल सकी ॥ ४४ ॥ कोई [प्रणय कोपवश ] अपनी भ्रूभंगीसे ललाट सिकोड़कर श्री हरि को देखते हुए अपने नेत्ररूप भ्रमरोंद्वारा उनके मुखकमल का मकरन्द पान करने लगी ॥ ४५ ॥

कोई गोपी गोविन्दको देख नेत्र मूँदकर उन्हीं के रूपका ध्यान करती हुई योगरूढ़-सी भासित होने लगी ॥ ४६ ॥

तब श्री माधव किसीसे प्रिय भाषण करके, किसीकी ओर भ्रूभंगीसे देख कर और किसीका हाथ पकड़कर उन्हें मनाने लगे ॥ ४७ ॥ फिर उदारचित्त श्री हरि ने उन प्रसन्नचित्त गोपियों के साथ रासमण्डल बनाकर आदरपूर्वक रमण किया ॥ ४८ ॥ किन्तु उस समय कोई भी गोपी कृष्णचन्द्र की सन्निधि को नहीं छोड़ना चाहती थी; इसलिये एक ही स्थानपर स्थिर रहने के कारण रासोचित मण्डल न बन सका ॥४९॥ तब उन गोपियों में से एक-एकका हाथ पकड़कर श्रीहरिने रासमण्डलकी रचना की। उस समय उनके स्पर्श से प्रत्येक गोपी की आँखें आनन्द से मूंद जाती थीं ॥ ५० ॥


तदनन्तर रासक्रीडा आरम्भ हुई। उसमें गोपियों के चञ्चल कंगणो की झनकार होने लगी और फिर क्रमशः शरद्वर्णन-सम्बन्धी गीत होने लगे ॥ ५१ ॥ उस समय कृष्ण चन्द्र चन्द्रमा, चन्द्रिका और कुमुद वनसम्बन्धी गान करने लगे; किन्तु गोपियों ने तो बारंबार केवल कृष्ण नाम का ही गाना किया ॥५२॥ फिर एक गोपी ने नृत्य करते-करते थककर चञ्चल कङ्कणकी झनकार करती हुई अपनी बाहुलता श्रीमधुसूदनके गलेमें डाल दी ॥ ५३ ॥ किसी निपुण गोपी ने भगवान के गानकी प्रशंसा करनेके बहाने भुजा फैलाकर श्री मधुसूदन को आलिङ्गन करके चूम लिया ।। ५४ ।। श्री हरि की भुजाएं गोपियों के कपोलों का चुम्बन पाकर उन ( कपोलों ) में पुलकावलिरूप धान्यकी उत्पत्तिके लिये स्वेदरूप जलके मेध बन गयीं ॥ ५५॥

कृष्ण चन्द्र जितने उच्च स्वर से रासोचित गान गाते थे उससे दूने शब्द से गोपियाँ "धन्य कृष्ण ! धन्य कृष्ण !!" की ही ध्वनि लगा रही थीं ॥ ५६ ॥

भगवान के आगे जानेपर गोपियाँ उनके पीछे जाती और लौटने पर सामने चलती, इस प्रकार वे अनुलोम और प्रतिलोम-गतिसे श्रीहरिका साथ देती थीं॥ ५७॥ श्री मधुसूदन भी गोपियों के साथ इस प्रकार रासक्रीडा कर रहे थे कि उनके बिना एक क्षण भी गोपियों को करोड़ों वर्षोंके समान बीतता था ।। ५८ ।। वे रास रसिक गोपाङ्गनाएँ पति, माता-पिता और भ्राता आदिके रोकने पर भी रात्रिमें श्रीश्यामसुन्दरके साथ बिहार करती थीं ॥ ५९॥ शत्रुहन्ता अमेयात्मा श्री मधुसूदन भी अपनी किशोरावस्था का मान करते हुए रात्रिके समय उनके साथ रमण करते थे। ६०॥ वे सर्वव्यापी ईश्वर भगवान कृष्ण तो गोपियों में, उनके पतियों में तथा समस्त प्राणियों में आत्मस्वरूप से वायुके समान व्याप्त थे॥ ६१ ॥ जिस प्रकार आकाश, अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आत्मा समस्त प्राणियों में व्याप्त है उसी प्रकार वे भी सब पदार्थों में व्यापक हैं ॥ २ ॥


           "इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः"

               ----------चौदहवाँ अध्याय---------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)

                       【चौदहवाँ अध्याय】


"वृषभासुर-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- एक दिन सायंकाल के समय जब श्रीकृष्ण चन्द्र रासक्रीडा में आसक्त थे, अरिष्ट नामक एक मदोन्मत्त असुर [ वृषभ रुप धारणकर ] सबको भयभीत करता ब्रजमें आया ॥१॥ उसकी कान्ति सजल जलधर के समान थी, सींग अत्यन्त तीक्ष्ण थे, नेत्र सूर्य के समान तेजस्वी थे और अपने खुरों की चोट से वह मानो पृथ्वी को फाड़े डालता था ।। २ ॥ वह दाँत पीसता हुआ पुनः पुनः अपनी जिह्वासे ओठोंको चाट रहा था, उसने क्रोधवश अपनी पूंछ उठा रखी थी तथा उसके स्कन्धबन्धन कठोर थे ।। ३ ॥ उसके ककुद (कुहान ) और शरीर का प्रमाण अत्यन्त ऊँचा एवं दुर्लङ्घ्य  था, पृष्ठभाग गोबर और मूत्र से लिथड़ा हुआ था तथा वह समस्त गौओंको भयभीत कर रहा था ।। ४ ।। उसकी ग्रीवा अत्यन्त लम्बी और मुख वृक्ष के खोंंखले के समान अति गम्भीर था । वह वृषभ रूपधारी दैत्य गौओंके गर्भ को गिराता और तपस्वियोंको मारता हुआ सदा वन मे विचरा करता था ।। ५-६ ।।

तब उस अति भयानक नेत्रोंवाले दैत्यको देख कर, गोप और गोपाङ्गनाएँ भयभीत होकर 'कृष्ण, कृष्ण' पुकारने लगी॥ उनका शब्द सुनकर श्रीकेशवने घोर सिंहनाद किया और ताली बजायी। उसे सुनते ही वह श्रीदामोदरके पास आया ॥८॥ दुरात्मा वृषभासुर आगेको सींग करके तथा कृष्ण चन्द्र की कुक्षी में दृष्टि लगाकर उनकी ओर दौड़ा ॥ ९ ॥ किन्तु महाबली कृष्ण वृषभासुरको अपनी ओर आता देख अवहेलनासे लीलापूर्वक मुसकाते हुए उस स्थानसे विचलित न हुए ॥ १० ॥ निकट आने. पर श्री मधुसूदन ने उसे इस प्रकार पकड़ लिया जैसे ग्राह किसी क्षुद्र जीवको पकड़ लेता है; तथा सोंग पकड़नेसे अचल हुए उस दैत्य की कोख में घुदनेसे प्रहार किया ॥११॥

इस प्रकार सींग पकड़े हुए उस दैत्यका दर्प भंगकर भगवान् ने  अरिष्टासुरकी ग्रीवाको गीले वस्त्र के समान मरोड़ दिया ।। १२ ।। तदनन्तर उसका एक सींग उखाड़कर उसीसे उसपर आघात किया जिससे वह महादैत्य मुखसे रक्त वमन करता हुआ मर गया ॥ १३ ॥ पूर्वकालमें जम्भके मरनेपर जैसे देवताओं इन्द्र की स्तुति की थी उसी प्रकार अरिष्टासुरके मरनेपर गोपगण श्रीजनार्दनकी प्रशंसा करने लगे॥ १४॥

          "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः"

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