{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का छठा, सातवाँ व आठवाँ अध्याय}} {Sixth, seventh and eighth chapters of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"छठा अध्याय"
"शकटभज्जन, यमलार्जुन-उद्धार, व्रजवासियोंका गोकुल से वृन्दावन में जाना और वर्षा-वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- एक दिन छकड़ेके नीचे सोये हुए मधुसूदनने के दूध के लिये रोते-रोते ऊपरको लात मारी ॥ १ ॥ उनकी लात लगते ही वह छकड़ा लोट गया, उसमें रखे हुए कुम्भ और भाण्ड आदि फूट गये और वह उलटा जा पड़ा ॥२॥ हे द्विज ! उस समय हाहाकार मच गया, समस्त गोप-गोपी गण वहाँ आ पहुँचे और उस बालकको उतान सोये हुए देखा ॥ ३ ॥ तब गोपीगण पूछने लगे कि 'इस छकड़े को किसने उलट दिया, किसने उलट दिया ?' तो वहाँपर खेलते हुए बालकोंने कहा-"इसे कृष्ण ने ही गिराया है॥४ हमने अपनी आँखोंसे देखा है कि रोते-रोते इसकी लात लगनेसे ही यह छकड़ा गिरकर उलट गया । यह और किसीका काम नहीं है"॥ ५ ॥
यह सुनकर गोपी के चित्र में अत्यन्त विस्मय हुआ तथा नन्दगोपने अत्यन्त चकित होकर बालक को उठा लिया ॥६॥ फिर यशोदा ने भी छोड़ने में रखे हुए फूटे भांण्डो के टुकड़ों की और उस छकड़े की दही, पुष्प, अक्षत और फल आदि से पूजा की ॥७ ॥
इस समय वसुदेव जी के कहने से गर्गाचार्य ने गोपियों से छिपे-छिपे, गोकुलमें आकर उन दोनों बालकों के [द्विजोचित] संस्कार किये ॥ ८॥ उन दोनों के नामकरण संस्कार करते हुए महामति गर्गजीने बड़ेका नाम राम और छोटे का कृष्ण बतलाया ॥९॥ हे विप्र ! वे दोनों बालक थोड़े ही दिनों में गौओंके गोष्ठमें रेंगते-रेंगते हाथ और घुटनों के बल चलनेवाले हो गये ॥ १० ॥ गोबर और राखभरे शरीरसे इधर-उधर घूमते हुए उन बालकों को यशोदा और रोहिणी रोक नहीं सकती थीं ।। ११ ।। कभी वे गौओं के घोष में खेलते और कभी बछड़ोंके मध्य में चले जाते तथा कभी उसी दिन जन्मे हुए बछड़ोंकी पूंछ पकड़कर खींचने लगते ॥ १२ ।।
एक दिन जब यशोदा, सदा एक ही स्थानपर साथ-साथ खेलनेवाले उन दोनों अत्यन्त चंन्चल बालकोंको न रोक सकी तो उसने निर्दोष कर्म करनेवाले कृष्णको रस्सीसे कटिभागमें कसकर ऊखल में बांध दिया और रोषपूर्वक इस प्रकार कहने लगी-॥ १३-१४ ॥ अरे चन्चल ! अब तुझमें सामर्थ्य हो तो चला जा।' ऐसा कहकर कुटुम्बिनी यशोदा अपने घरके धन्धेमें लग गयी॥ १५ ॥
उसके गृहकार्य में व्यग्र हो जानेपर कमल नयन कृष्ण ऊखलको खींचते-खींचते यमलार्जुन के बीच में गये॥ १६॥ और उन दोनों वृक्षों के बीच में तिरछी पड़ी हुई ऊखलको खींचते हुए उन्होंने ऊँची शाखाओंवाले यमलार्जुन नामक दो वृक्षों को उखाड़ डाला ॥ १७ ॥ तब उनके उखड़नेका कट-कट शब्द सुनकर वहाँ ब्रजवासी लोग दौड़ आये और उन दोनों महावृक्षोंको तथा उनके बीच में कमरमें रस्सी से कसकर बँधे हुए बालकको नन्हें-नन्हें अल्प दांतों की श्वेत किरणोंसे शुभ्र हास करते देखा। तभी से रस्सीसे बँधनेके कारण उनका नाम दामोदर पड़ा।॥१८-२०॥
तब नन्दगोप आदि समस्त वृद्ध गोपोंने महान् उत्पातोंके कारण अत्यन्त भयभीत होकर आपसमें यह सलाह की- ॥ २१ ॥ 'अब इस स्थानपर रहनेका हमारा कोई प्रयोजन नहीं है, हमें किसी और महावनको चलना चाहिए। क्योंकि यहाँ नाशके कारणस्वरूप, पूतना-वध, छकड़ेका लोट जाना तथा आँधी आदि किसी दोष के बिना ही वृक्षों का गिर पड़ना इत्यादि बहुत-से उत्पात दिखायी देने लगे हैं ॥ २२-२३ ॥ अतः जबतक कोई भूमि सम्बन्धी महान् उत्पात व्रज को नष्ट न करे तबतक शीघ्र ही हमलोग इस स्थान से वृन्दावन को चल दें ॥ २४ ॥
इस प्रकार वे समस्त व्रजवासी चलनेका विचार कर अपने-अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहने लगे-शीघ्र ही चलो, देरी मत करो' । २५ ।। तब वे व्रजवासी वत्सपाल दल बाँधकर एक क्षण में ही छकड़ों और गौओंके साथ उन्हें हांकते हुए चल दिये ॥ २६ ॥ हे द्विज ! वस्तुओं के अवशिष्टांशोंसे युक्त वह व्रजभूमि क्षणभरमें ही काक तथा भास आदि पक्षियों से व्याप्त हो गयी॥ २७ ॥
तब लीला बिहारी भगवान कृष्ण ने गौओ की अभिवृद्धि की इच्छा से अपने शुद्धचित्तसे वृन्दावन ( नित्य वृन्दावन धाम ) का चिन्तन किया ॥२८॥ इससे हे द्विजोत्तम ! अत्यन्त रूक्ष ग्रीष्म काल में भी वहाँ वर्षा ऋतु के समान सब ओर नवीन दूब उत्पन्न हो गयी ॥ २९ ॥ तब वह व्रज चारों ओर अर्द्ध चन्द्राकार छकड़ोंकी बाड़ लगाकर स्थित हुए व्रजवासियोंसे बस गया॥ ३० ॥
तदनन्तर राम और कृष्ण भी बछड़ोंके रक्षक हो गये और एक स्थानपर रहकर गोष्ठमें बाललीला करते हुए बिखरने लगे ॥ ३१ ॥ वे काकपक्षधारी दोनों बालक शिरपर मयूरपिच्छका मुकुट धारण कर तथा वन्यपुष्पोंके कर्णभूषण पहन ग्वालोचित बंसी आदि सब प्रकारके बाजोंकी ध्वनि करते तथा पत्तोंके बाजेसे ही नाना प्रकारकी ध्वनि निकालते, स्कन्धके अंशभूत शाख-विशाख कुमारों के समान हँसते और खेलते हुए उस महावन में विचरने लगे ॥ ३२-३३ ।। कभी एक-दूसरेको अपने पीठपर ले जाते हुए खेलते तथा कभी अन्य ग्वालबालोंके साथ खेलते हुए वे बछड़ोंको चराते साथ-साथ घूमते रहते ॥ ३४ ॥ इस प्रकार उस में महाव्रज में रहते-रहते कुछ समय बीतनेपर वे निखिललोक पालक वत्सपाल सात वर्ष के हो गये ॥ ३५ ॥
तब मेघसमूहसे आकाशको आच्छादित करता हुआ तथा अतिशय वारिधाराओंसे दिशाओंको एकरूप करता हुआ वर्षोंकाल आया ॥ ३६ ।। उस समय नवीन दूर्वा के बढ़ जाने और वीरबहूटीयों से* व्यस्त हो जानेके कारण पृथिवी पद्मरागविभूषिता मरकतमयी-सी जान पड़ने लगी॥३७॥ जिस प्रकार नया धन पाकर दुष्ट पुरुषोंका चित्त उच्छूख्ड़ल हो जाता है। उसी प्रकार नदियों का जल सब ओर अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़कर बहने लगा॥ ३८ ॥ जैसे मूर्ख मनुष्यो को धृष्टता पूर्ण उक्तियों से अच्छे वक्ताकी वाणी भी मलिन पड़ जाती है वैसे ही मलिन मेघोंसे आच्छादित रहने के कारण निर्मल चन्द्रमा शोभा हीन हो गया ॥ ३ | जिस प्रकार विवेकहीन राजाके संगमें गुणहीन मनुष्य भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार आकाशमण्डलमें गुणरहित इंद्रधनुष स्थित हो गया ॥ ४० ॥ दुराचारी पुरुषमें कुलीन पुरुषकी निष्कपट शुभ चेष्टाके समान मेघ मण्डलमें बगुलोंकी निर्मल पंक्ति सुशोभित होने लगी ।। ४१ ॥ श्रेष्ठ पुरुषके साथ दुर्जन की मित्रता के समान अत्यन्त चञ्चल विद्युत आकाश में स्थिर न रह सकी ॥ ४२ ॥ महामूर्ख मनुष्यों की अन्याथिका उक्तियों के समान मार्ग तृण और दूब समूह अच्छा- दित होकर अस्पष्ट हो गये॥ ४३ ।
उस समय उन्मत्त मयूर और चातकगणसे सुशोभित महावनमें कृष्ण और राम प्रसन्नतापूर्वक गोपीकुमारो के साथ विचरने लगे। ४४ ॥ वे दोनों कभी गौओंके साथ मनोहर गान और तान छेड़ते तथा कभी अत्यन्त शीतल वृक्षतल का आश्रय लेते हुए विचरते रहते ॥ ४५ ॥ वे कभी तो कदम्ब पुष्पोंके हारसे विचित्र वेष बना लेते, कभी मयूर- पिच्छकी मालासे सुशोभित होते और कभी नाना प्रकारकी पर्वतीय धातुओं से अपने शरीरको लिप्त कर लेते ।। ४६ ॥ कभी कुछ झपकी लेने की इच्छा से पत्तोंकी शय्या पर लेट जाते और कभी मेघ गर्जने पर 'हा हा' करके कोलाहल मचाने लगते ॥ ४७ ॥ कभी दूसरे गोपों के गाने पर आप दोनों उसकी प्रशंसा करते और कभी ग्वालोंकी-सी बाँसुरी बजाते हुए मयूरकी बोलीका अनुकरण करने लगते ॥ ४८ ॥
इस प्रकार वे दोनों अत्यन्त प्रीति के साथ नाना प्रकारके भावोंसे परस्पर खेलते हुए प्रसन्नचित्तसे उस वनमें विचरने लगे ॥ ४९ ॥
सायंकाल के समय वे महाबली बालक वनमें यथायोग्य विहार करने के अनन्तर गौ और ग्वाल बालों के साथ व्रज में लौट आते थे । ५० ॥ इस तरह अपने समवयस्क गोपगण के साथ देवताओं के समान क्रीडा करते हुए वे महातेजस्वी राम और कृष्ण वहाँ रहने लगे । ५१ ॥
"इति विष्णु पुराणे पञ्चमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः"
---------सातवाँ अध्याय--------
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"कालिय-दमन"
श्री पराशर जी बोले ;- एक दिन रामको बिना साथ लिये कृष्ण अकेले ही वृन्दावन को गये और वहाँ वन्य पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित हो गोपगणसे घिरे हुए विचरने लगे ॥ १ ॥ घूमते-घूमते वे चंन्चल तरङ्गोंवाली यमुनाजीके तटपर जा पहुँचे जो किनारोंपर फेनके इखट्टे हो जानेसे मानो सब जोरसे हँस रही थी॥२॥ यमुनाजीमें उन्होंने विषाग्निसे सन्तप्त जलवाला कालियानाग का महाभयंकर कुण्ड देखा ॥ ३ ॥ उसकी विषाग्निके प्रसारसे किनारेके वृक्ष जल गये थे और वायुके थपेड़ोंसे उछलते हुए जलकणों का स्पर्श होनेसे पक्षीगण दग्ध हो जाते थे ॥४॥
मृत्यु के दूसरे मुखके समान उस महाभयंकर कुण्ड को देखकर भगवान मधुसूदन ने विचार किया-॥५॥
'इसमें दुष्टात्मा कालिया नाग रहता है जिसका विष ही शस्त्र है और जो दुष्ट मुझ [ अर्थात् मेरी विभूति गरुड ] से पराजित हो समुद्र को छोड़कर भाग आया है ॥ ६ ॥ इसने इस समुद्रगामिनी सम्पूर्ण यमुनाको दूषित कर दिया है, अब इसका जल प्यासे मनुष्यों और गौओं के भी काममें नहीं आता ॥ ७॥ अतः मुझे इस नागराजका दमन करना चाहिये, जिससे बृजवासी लोग निर्भय होकर सुख पूर्वक रह सकें ॥ ८ ॥ 'इन कुमार्गामी दुरात्माओं को शान्त करना चाहिये, इसलिये ही तो मैंने इस लोकमें अवतार लिया है ॥९॥ अतः अब मैं इस ऊँची-ऊँची शाखाओं वाले पास ही कदम्ब वृक्ष पर चढ़कर वायुभक्षी नागराज के कुंड में कूदता हूँ॥ १० ॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! ऐसा विचार कर भगवान अपनी कमर कसकर वेगपूर्वक नागराजके कुण्ड में कूद पड़े ॥ ११ ॥ उनके कूदनेसे उस महाह्रदय ने अत्यन्त क्षोभित होकर दूर स्थित वृक्षों को भी भिगो दिया ॥ १२ ।। उस सर्प के विषम विषकी ज्वालासे तपे हुए जलसे भीगने के कारण वे वृक्ष तुरंत ही जल उठे और उनकी ज्वालाओ से सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो गई ॥ १३ ॥
तब कृष्णचन्द्र ने उस नाग कुंड में अपनी भुजाओं को ठोका; उनका शब्द सुनते हो वह नागराज तुरंत उनके सम्मुख आ गया ॥ १४ ॥ उसके नेत्र क्रोधसे कुछ ताम्रवर्ण हो रहे थे, मुखोंसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं और वह महाविषैले अन्य वायुभक्षी सर्पों से घिरा हुआ था ॥ १५ ॥ उसके साथमें मनोहर हारोंसे भूषिता और शरीर-कम्पनसे हिलते हुए कुण्डलोंकी कान्तिसे सुशोभिता सैकड़ों नागपत्नियाँ थीं ॥ १६ ॥ तब सर्पोंने कुण्डलाकार होकर कृष्णचन्द्रको अपने शरीरसे बाँध लिया और । अपने विषाग्नि-सन्तप्त मुखोंसे काटने लगे ॥ १७ ॥
तदनन्तर गोपी कृष्ण चन्द्र को नागकुण्ड में गिरा हुआ और सर्पोके फोंसे पीडित होता देख व्रज में चले आये और शोक से व्याकुल होकर रोने लगे॥१८॥
गोपगण बोले ;- आओ, आओ, देखो! यह कृष्ण कालीदहमें डूबकर मूर्छित हो गया है, देखो, इसे नागराज खाये जाता है ! ॥ १९ ॥ वज्रपातके समान उनके इन अमंगल वाक्योंको सुनकर गोप गण और यशोदा आदि गोपियाँ तुरंत ही कालीदह पर दौड़ आयीं ॥ २० ॥ हाय ! हाय ! वे कृष्ण कहाँ गये ?' इस प्रकार अत्यन्त व्याकुलता पूर्वक रोती हुई गोपियाँ यशोदाके साथ शीघ्रतासे गिरती पड़ती चलीं ॥ २१ ॥ नन्दजी तथा अन्यान्य गोपगण और अद्भुत विक्रमशाली बलरामजी भी कृष्णदर्शन की लालसासे शीघ्रतापूर्वक यमुना-तटपर आये ॥ २२ ॥
वहाँ आकर उन्होंने देखा कि कृष्णचन्द्र सर्प राजके चंगुल में फंसे हुए हैं और उसने उन्हें अपने शरीरसे लपेटकर निरुपाय कर दिया है ॥ २३ ॥ हे मुनिसत्तम ! महाभागा यशोदा और नन्द गोप भी पुत्रके मुखपर टकटकी लगाकर चेष्टाशून्य हो गये ।। २४ । अन्य गोपियोंने भी जब कृष्ण चन्द्र को इस दशामें देखा तो वे शोकाकुल होकर रोने लगीं और भय तथा व्याकुलताके कारण गद्ग़द वाणीसे उनसे प्रीतिपूर्वक कहने लगीं ॥ २५ ॥
गोपियाँ बोली ;- अब हम सब भी यशोदा के साथ इस सर्पराजके महाकुण्ड में ही डूबी जाती है, अब हमें ब्रज में जाना उचित नहीं है ॥ २६ ।। सूर्य के बिना दिन कैसा ? चन्द्रमा के बिना रात्रि कैसी ? सांड़ के बिना गौएँ क्या ? ऐसे ही कृष्ण के बिना ब्रज में भी क्या रखा है ? ॥ २७ ॥ कृष्ण को बिना साथ लिये अब गोकुल नहीं जायँगी; क्योंकि इनके बिना वह जलहीन सरोवरके समान अत्यन्त अभव्य और असेव्य है ॥ २८ ॥ जहाँ नीलकमलदलको-सी आभावाले ये श्यामसुन्दर हरि नहीं हैं उस मातृ मन्दिरसे भी प्रीति होना अत्यन्त आश्चर्य ही है ॥ २९ ॥ अरी ! खिले हुए कमलदलके सदृश कान्तियुक्त नेत्रोंवाले श्रीहरिको देखे बिना अत्यन्त दीन हुईं तुम किस प्रकार ब्रज में रह सकोगी ? ॥ ३० ॥ जिन्होंने अपनी अत्यन्त मनोहर बोली से हमारे सम्पर्ण मनोरथोंकी अपने वशीभूत कर लिया है उन कमलनयन कृष्ण चन्द्र के बिना हम नन्दजीके गोकुलको नहीं जाएँगी ॥ ३१ ॥ अरी गोपियों ! देखो, सर्पराजके फणसे आवृत होकर भी श्रीकृष्ण के मुख हमें देखकर मधुर मुस्कान से सुशोभित हो रहा है ॥ ३२ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- गोपियों के ऐसे वचन सुनकर तथा त्रासविह्वल चकितनेत्र गोपो को, पुत्र के मुख पर दृष्टि लगाये अत्यन्त दीन नन्दजीको और मूर्छा कुल यशोदा को देखकर महाबली रोहिणीनन्दन बलरामजीने अपने संकट में श्रीकृष्ण से कहा-॥३३-३४॥ "हे देवदेवेश्वर ! क्या आप अपने को अनन्त नहीं जानते ? फिर किस लिये यह अत्यन्त मानव-भाव व्यक्त कर रहे हैं ॥ ३५ ॥ पहियोंकी नाभि जिस प्रकार अरोंका आश्रय होती है उसी प्रकार आप ही जगत् के आश्रय, कर्ता, हर्ता और रक्षक हैं तथा आप ही त्रैलोक्य स्वरूप और वेदत्रयीमय हैं ॥ ३६ ॥ हे अचिन्त्यत्मन् ! इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वसु, आदित्य, मरुद्गण
और अश्विनी कुमार तथा समस्त योगिजन आपहीका चिन्तन करते हैं ॥३७॥ हे जगन्नाथ ! संसारके हित के लिये पृथिवीका भार उतारनेकी इच्छासे ही आपने मर्त्यलोक में अवतार लिया है। आपका अग्रज मैं भी आपका अंश हूँ ॥ ३८ ॥ हे भगवान ! आपके मनुष्य-लीला करनेपर ये गोपवेषधारी समस्त देवगण भी आपकी लीलाओंका अनुकरण करते हुए आपहीके साथ रहते हैं ॥ ३९ ॥ हे शाश्वत ! पहले अपने विहारार्थ देवाङ्गनाओंको गोपीरूपसे गोकुलमें अवतीर्णकर पीछे अपने अवतार लिया है ॥ १० ॥ हे कृष्ण ! यहाँ अवतीर्ण होनेपर इन दोनोंके तो ये गोप और गोपियाँ ही बान्धव हैं; फिर अपने इने दुखी बान्धवोंकी आप क्यों उपेक्षा करते हैं ॥ ४१ ॥ हे कृष्ण | यह मनुष्य भाव और बालचापल्य तो आप बहुत दिखा चुके, अब तो शीघ्र ही इस दुष्टात्माका, जिसके शस्त्र दाँत ही हैं, दमन कीजिये" ॥ ४२ ॥
श्रीपराशरजी बोले ;- इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर, मधुर मुस्कान से अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए श्रीकृष्ण चन्द्रने उछलकर अपने शरीरको सर्प के बन्धन छुड़ा लिया || ४३ ॥ और फिर अपने दोनों हाथोंसे उसका बीचका फण झुकाकर उस नतमस्तक सर्पके ऊपर चढ़कर बड़े वेगसे नाचने लगे ॥ ४४ ॥
कृष्ण चन्द्र के चरणों की धमकसे उसके प्राण मुखमें आ गए, वह अपने जिस मस्तक को उठाया उसी पर कूदकर भगवान उसे झुका देते ॥ ४५ ॥ श्रीकृष्णचन्द्र जीकी भ्रान्ति ( भ्रम ), रेचक तथा दण्डपात नामकी [ नृत्यसम्बन्धिनी ] गतियोंके ताडनसे वह महासर्प मूर्छित हो गया और उसने बहुत-सा रुधिर वमन किया ॥४६॥ इस प्रकार उसके सिर और ग्रीवाओं को झुके हुए तथा मुखोंसे रुधिर बहता देख उसकी पत्नियाँ करुणासे भरकर श्रीकृष्णचन्द्रके पास आयी ।।४७ ॥
नागपत्नियाँ बोलीं ;- हे देव देवेश्वर ! हमने आप
को पहचान लिया; आप सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ हैं; जो अचिन्त्य और परम ज्योति है आप उसीके अंश परमेश्वर हैं, ॥ ४८ ॥ जिन स्वयम्भू और व्यापक प्रभुकी स्तुति करनेमें देवगण भी समर्थ नहीं है उन्हीं आपके स्वरूपका हम स्त्रियां किस प्रकार वर्णन कर सकती हैं ॥ ४९ ॥ पृथिवी, आकाश, जल, अग्नि और वायुस्वरूप यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका छोटे-से छोटा अंश है, उनकी स्तुति हम किस प्रकार कर सकेंगी ॥ ५० ॥ योगिजन जिनके नित्यस्वरूप को यत्न करनेपर भी नहीं जान पाते तथा जो परमार्थरूप अणुसे भी अणु और स्थूलसे भी स्थूल है उसे हम नमस्कार करती हैं ॥ ५१ ॥ जिनके जन्ममें विधाता और अन्तमें काल हेतु नहीं हैं तथा जिनका स्थितिकर्ता भी कोई अन्य नहीं है उन्हें सर्वदा नमस्कार है ॥ ५२ ॥ इस कालियनागके दमनमें आपको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं है, केवल लोक रक्षक ही इसका हेतु है; अतः हमारा निवेदन सुनिये ॥ ५३ ॥
हे क्षमाशीलोंमें श्रेष्ट ! साधु पुरुषोंको . स्त्रियों तथा मूढ़ और दीन जन्तुओं पर सदा ही कृपा करनी चाहिये: अतः आप हम दीन का अपराध क्षमा कीजिये ॥ ५४ ॥ प्रभों ! आप सम्पूर्ण संसारके अधिष्ठान हैं और यह सर्प तो [ आपकी अपेक्षा ] अत्यन्त बलहीन है । आपके चरणोंसे पीडित होकर तो यह आगे मुहूर्त में ही अपने प्राण छोड़ देगा ॥ ५५ ॥
हे अव्यय ! प्रीति समानसे और द्वेष उत्कृष्टसे देखे जाते हैं; फिर कहाँ तो यह अल्पवीर्य सर्प और कहाँ अखिलभुवनाश्रय आप ! [ इसके साथ आपका द्वेष कैसा ? ] ॥ ५६॥ अतः हे जगत स्वामिन् ! इस दीनपर दया कीजिये । हे प्रभो ! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है, कृपया हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५७ ॥ हे भुवनेश्वर ! हे जगन्नाथ ! हे महापुरुष ! हे पूर्वज ! यह नाग अब अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है ? कृपया आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५८ ॥ हे वेदान्तवेद्य देवत्श्वर ! हे दुष्ट-दैत्य-दलन ! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; आप हमें पतिकी मिक्षा
दीजिये ॥ ५९ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- नागपत्नियों के ऐसा कहने पर थका-माँदा होनेपर भी नागराज कुछ ढाँढस बाँध कर धीरे-धीरे कहने लगा-'हे देवदेव ! प्रसन्न होइये" ॥ ६० ॥
कालिया नाग वोला ;- हे नाथ ! आपका स्वभावीक अष्टगुणविशिष्ट परम ऐश्वर्य निरतिशय है [ अर्थात् आपसे बढ़कर किसीका भी ऐश्वर्य नहीं है ], अतः में किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६१॥ आप पर हैं, आप पर ( मूल प्रकृति ) के भी आदिकारण हैं, हे परात्मक ! परकी प्रवृत्ति भी आपसे हुई है, अतः आप परसे भी पर हैं; फिर मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा ? ॥६२॥ जिनसे ब्रह्मा, रुद्र, चन्द्र, इन्द्र, मरुद्गण, अश्विनी कुमार, वसुगण और आदित्य आदि सभी उत्पन्न हुए हैं; उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६३ ॥ यह सम्पूर्ण जगत् जिनके काल्पनिक अवयवका एक सूक्ष्म अवयवांशमात्र है, उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६४ ॥ जिन सदसत् ( कार्य-कारण ) स्वरूपके वास्तविक रूपको ब्रह्मा आदि देवेश्वरगण भी नहीं जानते उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ॥ ६५ ॥ जिनकी पूजा ब्रह्मा आदि देवगण नंदनवन पुष्प, गन्ध और अनुलेपन आदिसे करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ॥६६॥ देवराज इंद्र जिनके अवतार रूपों को सर्वदा पूजा करते हैं तथा यथार्थ रूपको नहीं जान पाते, उन आपकी । मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ? ॥६७॥ योगिगण अपनी समस्त इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींचकर जिनका ध्यानद्वारा पूजन करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ॥ ६८॥ जिन प्रभुके स्वरूपकी चित्तमें भावना करके योगिजन भावमय पुष्प आदिसे ध्यानद्वारा उपासना करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ? ॥ ६९ ॥
हे देवदेवेश्वर ! आपकी पूजा अथवा स्तुति करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ, मेरी चित्तवृत्ति तो केवल आपकी कृपाकी ओर ही लगी हुई है, अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ७०।।
हे केशव ! मेरा जिसमें जन्म हुआ है वह सर्पजाति अत्यन्त क्रूर होती है, यह मेरा जातीय स्वभाव है। हे अच्युत ! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है ॥ ७१ ॥ इस सम्पूर्ण जगत् की रचना और संहार आप ही करते हैं। संसारकी रचनाके साथ उसके जाति, रूप और स्वभावों को भी आप ही बनाते हैं ॥ ७२ ॥
हे ईश्वर ! आपने मुझे जाति, रूप और स्वभावसे । युक्त करके जैसा बनाया है उसीके अनुसार मैंने यह चेष्टा भी की है ॥ ७३ ॥ हे देव देव' ! यदि मेरा आचरण विपरीत हो तब तो अवश्य आपके कथनानुसार मुझे दण्ड देना उचित है ॥ ७४ ॥ तथापि हे जगत- स्वमिन् ! आपने मुझ अज्ञको जो दण्ड दिया है वह आपसे मिला हुआ दण्ड मेरे लिये कहीं अच्छा है, किन्तु दूसरेका वर भी अच्छा नहीं ॥ ७५ ॥ हे अच्युत ! आपने मेरे पुरुषार्थ और विषको नष्ट करके मेरा भली प्रकार मानमर्दन कर दिया है। अब केवल मुझे प्राणदान दीजिये और आज्ञा कीजिये की में क्या करूँ ।।७६।।
श्रीभगवान् बोले ;- हे सर्प ! अब तुझे इस यमुना जलमें नहीं रहना चाहिये । तू शीघ्र ही अपने पुत्र और परिवारके सहित समुद्र के जलमें चला जा ||७७|| तेरे मस्तकपर मेरे चरण-चिह्नोंको देखकर समुद्र में रहते हुए भी सर्पों का शत्रु गरुड तुझपर प्रहार ! नहीं करेगा ।। ७८ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- सर्पराज कालियसे ऐसा कह भगवान हरि ने उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम करके समस्त प्राणियों के देखते-देखते अपने सेवक, पुत्र, बन्धु और समस्त स्त्रीयो के सहित अपने उस कुण्डको छोड़कर समुद्र को चला गया । ७९-८० ॥ सर्पके चले जानेपर गोपगण, लौटे हुए मृत पुरुषके समान कृष्णचन्द्रको आलिङ्गन कर प्रीतिपूर्वक उनके मस्तक को नेत्रजलसे भिगोने लगे ॥ ८१ ॥ कुछ अन्य गोपगण यमुना को स्वच्छ जलवाली देख प्रसन्न होकर लीला बिहारी कृष्ण चन्द्र की विस्मित-चित् से स्तुति करने लगे ।। ८२ ॥ तदनन्तर अपने उत्तम चरित्रोंके कारण गोपियोंसे गीयमान और गोपों से प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्र ब्रज में चले गये ॥ ८३
"इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तमोऽध्यायः"
------- ---आठवाँ अध्याय---------
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"धेनुकासुर-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- एक दिन बलराम और कृष्ण साथ-साथ गौ चराते अति रमणीय तालवनमें आये ॥१॥ उस दिव्य तालवनमें धेनुक नामक एक गधेके आकार वाला दैत्य मृगमांसका आहार करता हुआ सदा रहा करता था॥ २ ॥ उस तालवनको पके फलों की सम्पत्तिसे सम्पन्न देखकर उन्हें तोड़ने की इच्छा से गोपगण बोले. ॥ ३॥
गोपी ने कहा ;- भैया. राम और कृष्ण ! इस भूमि प्रदेशकी रक्षा. सदा धेनुकासुर करता है, इसीलिये यहाँ ऐसे पके-पके फल लगे हुए हैं ॥ ४ ॥
अपनी गन्धसे सम्पूर्ण दिशाओंको आमोदित करनेवाले ये ताल-फल तो देखो हमें इन्हें खानेकी इच्छा है; यदि आपको अच्छा लगे तो [ थोड़े-से ] झाड़ दीजिये ॥ ५॥
श्री पराशर जी बोले ;- गोपकुमारों के ये वचन सुन | कर बलरामजी ने 'ऐसा ही करना चाहिए' यह कह कर फल गिरा दिये और पीछे कुछ फल कृष्णचन्द्रने भी पृथ्वी पर गिराये ॥६॥ गिरते हुए फलों का शब्द सुनकर वह दुद्धर्प और दुरात्मा गर्दभासुर क्रोधपूर्वक दौड़ आया ॥ ७ ॥ उस महाबलवान असुर ने अपने पिछले दो पैरों से बलरामजी की छाती में लात मारी । बलरामजी ने उसके उन पैरोंको पकड़ लिया ॥ ८ ॥ और उसे पकड़ कर आकाश में घुमाने लगे। जब वह निर्जीव हो गया तो उसे अत्यन्त वेग से उस ताल वृक्षपर ही दे मारा ॥९॥ उस गधेने गिरते-गिरते उस तालवृक्षसे बहुत-से फल इस प्रकार गिरा दिये जैसे प्रचण्ड वायु बादलों को गिरा दे ॥ १० ॥ उसके सजातीय अन्य गर्दभासुरों के आनेपर भी कृष्ण और राम ने उन्हें अनायास ही ताल-वृक्षोंपर पटक दिया ॥ ११ ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार एक क्षणमें ही पके हुए ताल फलों और गर्दभासुरोंके देहोंसे विभूषिता होकर पृथ्वी, अत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥ १२ ॥ हे द्विज ! तबसे उस तालवनमें गौएँ निर्विघ्न होकर सुखपूर्वक नवीन तृण चरने लगीं जो उन्हें पहले कभी चरनेको नसीब नहीं हुआ था ॥ १३ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे अष्टमोऽध्यायः"
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