सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का पहले से पाँचवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का  पहले से पाँचवाँ अध्याय}} {The First to fifth chapter of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


                                 "पहला अध्याय"

"वसुदेव-देवकी का विवाह, भारपीडिता पृथिवीका देवताओं के सहित क्षीरसमुद्रपर जाना और भगवान् का प्रकट होकर उसे धैर्य बंधाना, कृष्णावतार का उपक्रम"

श्री मैत्रेय जी बोले ;- भगवन् ! अपने राजाओं के सम्पूर्ण वंश का विस्तार तथा उनके चिरित्रों का क्रमशः यथावत् वर्णन किया ॥१॥ अब हे ब्रह्मर्षे ! यदुकुल में जो भगवान विष्णु के अंशावतार हुआ था, उसे मैं विस्तारपूर्वक यथावत् सुनना चाहता हूँ ॥२॥ हे मुने ! भगवान् पुरुषोत्तम ने अपने अंशांशसे पृथिवीपर अवतीर्ण होकर जो-जो कर्म किये थे उन सबका आप मुझसे वर्णन कीजिये | ३ | |

श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! तुमने मुझसे जो पूछा है वह संसारमें परम मङ्गलकारी भगवान विष्णु के अंशावतार का चरित्र सुनो ॥ ४ ॥ हे महामुने ! पूर्वकालमें देवकी महाभाग्यशालिनी पुत्री देवी स्वरूपा देवकी के साथ वसुदेव जी का विवाह किया ॥५॥ वसुदेव और देवकी के वैवाहिक सम्बन्ध होनेके अनन्तर [ विदा होते समय ] भोजनन्दन कंस सारथी बनकर उन दोनोंका माङ्गलिक रथ हाँकने लगा॥६॥ उसी समय मेघके समान गम्भीर घोष करती हुई आकाशवाणी कंस को ऊँचे स्वरसे सम्बोधन करके यों बोली-७॥ "अरे मूढ़ ! पतिके साथ रथपर बैठी हुई जिस देवकी को तू लिये जा रहा है इसका आठवाँ गर्भ तेरे प्राण हर लेगा" ॥ ८॥

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श्री पराशर जी बोले ;- यह सुनते ही महबाली कंस [ म्यानसे ] खड्ग निकालकर देवकी को म के लिये उद्यत हुआ। तब वासुदेव जी  यों कहने लगे  ॥९॥
 "हे महाभाग ! हे अनघ ! आप देवकी का वध न करें; मैं इसके गर्भसे उत्पन्न हुए सभी बालक आपको सौंप दूंगा" । १० ।

श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विजोत्तम ! तब सत्यके गौरव से कंस ने वसुदेव जी से 'बहुत अच्छा'  कह देवकी का वध नहीं किया ॥ ११ ॥ इसी समय  अत्यन्त भार से पीड़ित होकर पृथिवी [ गौ का रूप धारण कर ] सुमेरु पर्वत पर देवताओं के दल में गयीं ॥ १२ ॥ वहाँ उसने ब्रह्माजी के सहित समस्त देेवताओंको प्रणामकर खेदपूर्वक करुणस्वरसे बोलती हुए अपना सारा वृत्तान्त कहा । १३ ।

पृथिवी बोली ;- जिस प्रकार अग्नि सवर्ण का तथा सूर्य गौ (किरण) समूहका परमगुरु है उसी प्रकार समस्त लोकों के गुरु श्री नारायण मेरे गुरु है ॥१४॥ वे प्रजापतियो के पति और पूर्वजों के पूर्वज ब्रह्माजी हैं तथा वे ही कला, काष्ठा, निमेष  आदि के रूपमें प्रतीत होनेवाला अव्यक्तस्वरूप हैं ॥ १५॥
 हे देवश्रेष्ठगण ! आप सब लोगोंका समूह भी उन्होंका अंशस्वरूप है। आदित्य, मरुद्ण, साध्यगण, रुद्र, वसु, अश्विनी कुमार, अग्नि, पितृगण और लोकों की सृष्टि करनेवाले अत्रि आदि प्रजापतिगण-- -ये सब अप्रमेय महात्मा विष्णु के ही रूप है ॥ १६-१७॥ यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिशाच, सर्प, दानव, गन्धर्व और अप्सरा आदि भी महात्मा विष्णु के ही रूप हैं ॥१८॥ ग्रह, नक्षत्र तथा तारागणों से
 चित्रित आकाश, अग्नि, जल, वायु, मैं और इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषय-यह सारा जगत् विष्णुमय ही है ॥ १९॥ तथापि उन अनेकरूपधारी विष्नु के ये रूप समुद्री तरंगों के समान रात दिन एक-दूसरे के बाध्य-बाधक होते रहते हैं॥ २० ॥
इस समय कालनेमि आदि दैत्य मर्त्यलोक पर अधिकार जमाकर अहर्निश जनताको क्लेशित कर रहे हैं॥ २१॥ जिस कालनेमि को सामर्थ्यवान भगवान विष्णु ने मारा था, इस समय वही उग्रसेन के

महान असुर कंस के रूप में उत्पन्न हुआ है ॥ २२ ॥ अरिष्ट, धेनुक, केशी, प्रलम्ब, नरक, सुन्द, बलिका पुत्र अति भयंकर बाणासुर तथा और भी जो महा बळवान दुरात्मा राक्षस राजाओंके घर में उत्पन्न हो गये हैं उनकी मैं गणना नहीं कर सकती ॥ २३-२४ ॥ हे दिव्यमूर्तिधारी देवगण ! इस समय मेरे ऊपर महाबलवान् और गर्वीले दैत्यराजों की अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ हैं ॥ २५ ॥ हे अमरेश्वरो ! मैं आप लोगों को यह बतलाये देती हूँ कि अब उनके अत्यन्त भारत से पीड़ित होनेके कारण मुझमें अपनेको धारण करनेकी भी शक्ति नहीं रह गयी है ॥ २६ ॥ अतः हे महाभागगण ! आपलोग मेरा भार उतारिये; जिससे मैं अत्यन्त व्याकुल होकर रसातलको न चली जाऊँ ॥ २७॥

पृथ्वी के इन वाक्योंको सुनकर उसके भार उतारने के विषयमें समस्त देवताओं की प्रेरणा से भगवान ब्रह्माजीने कहना आरम्भ किया ॥ २८ ।

ब्रह्माजी बोले ;- हे देवगन ! पृथ्वी ने जो कुछ | कहा है वह सब सत्य ही है। वास्तव में मैं, शंकर और आप सब लोग नारायण स्वरूप ही है॥ २९ ॥ उनकी जो-जो विभूतियाँ हैं, उनकी परस्पर न्यूनता और अधिकता हो बाध्य तथा बाधकरूपसे रहा करती हैं ।॥ ३० ॥ इसलिये आओ, अब हमलोग क्षीरसागर के पवित्र तटपर चलें और वहाँ श्रीहरिकी आराधना करके यह सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे निवेदन कर दें । ३१ । वे विश्वरूप सर्वात्मा सर्वथा संसारके हित के लिये ही अपने शुद्ध सत्वॉश से अवतीर्ण होकर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करते हैं ।। ३२ ।

श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कहकर देवताओं के सहित पितामह ब्रह्माजी वहाँ गये और एकाग्रचित्त से श्री गरुड़ध्वज भगवान को इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥

ब्रह्माजी बोले ;- हे वेदवाणीके अगोचर प्रभो! परा और अपरा-ये दोनों विद्याएँ आप ही है ।
हे नाथ! वे दोनों आपही के मूर्त और अमूर्त रूप हैं ॥ ३५ ॥

हे अत्यन्त सूक्ष्म ! हे विराट स्वरूप! हे  सर्व ! हे सर्वज्ञ ! शब्द ब्रह्म और परब्रह्म-ये दोनों आप ब्रह्ममयके ही रूप हैं ॥ ३५॥ आप ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं तथा आप ही शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष-शास्त्र है ॥३६॥ हे प्रभो ! हे अधोक्षज! इतिहास, पुराण, व्याकरण, मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्र -ये भी [ आप ही है ] ॥ ३७ ॥

हे आद्यपते ! जीवात्मा, परमात्मा, स्थूल-सूक्ष्म-देह तथा उनका कारण अव्यक्त इन सबके विचार से युक्त जो अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का बोधक वेदान्त-वाक्य है, वह भी आपसे भिन्न नहीं है ॥ ३८ ॥ आप अव्यक्त, अनिर्वाच्य, अचित्तय, नाम और वर्णसे रहित, हाथ-पाँव और रूप , शुद्ध, सनातन और परसे भी पर हैं । ३ ॥ आप कर्ण हीन होकर भी सुनते हैं, नेत्रहीन होकर देखते हैं, एक होकर भी अनेक रूपों में प्रकट होते है। हस्तपादादिसे रहित होकर भी बड़े वेगशाली ग्रहण करनेवाले हैं तथा सबके अवेद्य होकर भी सबको जाननेवाले हैं ॥ ४० ॥ हे परमात्मन् ! जिस धीर पुरुषकी बुद्धि आपके  श्रेष्ठतम रूपसे पृथक कुछ भी नहीं देखती, आपके अणुसे भी अणु ओर दृश्य-स्वरूप को देखनेवाले उस पुरुषकी आत्यन्तिक अशाननिवृत्ति हो जाती है ।। ४१॥ आप विश्वके केन्द्र ओर त्रिभुवन के रक्षक हैं; सम्पूर्ण भूत आपहीमें स्थित हैं तथा जो कुछ भूत, भविष्यत् और अणुसे भी अणु  हैं वह सब आप प्रकृतिसे परे एकमात्र परम पुरूष ही हैं ॥ ४२ ॥ आप ही चार प्रकारका अग्नि होकर । संसारको तेज और विभूति दान करते हैं । है अनन्तमूर्ते ! आपके नेत्र सब ओर हैं । हे धात: आप ही [ त्रिविक्रमावतारमें ] तीनों लोकमें अपने तीन पग रखते हैं ॥ ४३ ॥ हे ईश ! जिस प्रकार एक ही अविकारी अग्नि विकृत होकर नाना प्रकार से प्रज्वलित होता है उसी प्रकार सर्वगतरूप एक आप ही  अनन्त रूप धारण कर लेते हैं ॥ ४४।।

जो एकमात्र श्रेष्ठ परमपद है, वह आप ही है । ज्ञान- दृष्टिसे देखे जाने योग्य आपको ही ज्ञानी पुरुष देखा करते हैं। हे परमात्मन् ! भूत और भविष्यत् जो कुछ स्वरूप है वह आपसे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ॥ ४५ ॥ आप व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप हैं, समष्टि और व्यष्टिरूप हैं तथा आप ही सर्वे ज्ञ,. सर्वसाक्षी, सर्वशक्तिमान् एवं सम्पूर्ण ज्ञान, बल और ऐश्वर्यसे युक्त हैं ॥ ४६ ॥ आप ह्रास और वृद्धि से रहित, स्वाधीन, अनादि और जितेन्द्रिय हैं तथा आप श्रम, तन्द्रा, भय, क्रोध और काम आदिसे रहित हैं। ४७ ॥ आप अनिन्द्य, अप्राप्य, निराधार और अव्याहत-गति हैं; आप सबके स्वामी, अन्य ब्रह्मादिके आश्रय तथा सूर्यादि तेजोंके तेज एवं अविनाशी है ॥ ४८ ॥ आप समस्त आवरणशून्य, असहायों के पालक और सम्पूर्ण महाविभूतियों के आधार हैं, हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है ॥ ४९॥ आप किसी कारण, अकारण अथवा कारणाकारणसे शरीर-ग्रहण नहीं करते, बल्कि केवल धर्म-रक्षाके लिये ही करते हैं । ५० ॥

श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार स्तुति सुनकर भगवान अज
अपना विश्वरूप प्रकट करते हुए ब्रह्माजी से प्रसन्नचित्त से कहने लगे ॥ ५१ ॥
श्रीभगवान् बोले ;- हे ब्रह्मन् ! देवताओं के सहित तुम्हें मुझसे जिस वस्तुकी इच्छा हो वह सब कहो और उसे सिद्ध हुआ हो समझो ॥ ५२ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- तब श्रीहरिके उस दिव्य विश्वरूपको देखकर समस्त देवताओं के भय से विनीत हो जानेपर ब्रह्माजी पुनः स्तुति करने लगे ॥ ५३ ॥
ब्रह्माजी बोले ;- हे सहस्रबाहो ! हे अनन्तमुख एवं चरणवाले ! आपको हजारों बार नमस्कार हो! हे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करनेवाले ! हे अप्रमेय ! आपको बारम्बार  नमस्कार हो ॥ ५४॥ हे भगवन् ! आप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, गुरुसे भी गुरु और अति बृहत् प्रमाण हैं, तथा प्रधान (प्रकृति), महत्तत्त्व और अहंकारादिमें प्रधानभूत मूल पुरुषसे भी परे हैं; हे भगवन् ! आप हमपर प्रसन्न होइये ॥ ५५॥ हे देव ! इस पृथ्वी पर्वत रूपी मूलबन्ध इसपर उत्पन्न हुए महान असुरों के उत्पात से शिथिल हो गये हैं । अतः हे अपरिमितवीयें ! यह अपना भार उतरवाने के लिये आपकी शरणमें आयी है ॥ ५६ ॥ हे सुरनाथ ! हम और यह इन्द्र, अश्विनी कुमार तथा वरुण, ये रुद्रगण, वसुगण, सूर्य, वायु और अग्नि आदि अन्य समस्त देवगण यहाँ उपस्थित हैं। इन्हें अथवा मुझे जो कुछ करना उचित हो उन सब बातों के लिये आज्ञा कीजिये । हे ईश! आपकी आज्ञाका पालन करते हुए हम सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त हो सकेंगे ॥ ५७५८॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे महामुने ! इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान परमेश्वरन अपने श्याम और श्वेत दो केश उखाड़े ॥ ५ ९॥ और देवताओं से बोले-मेरे ये दोनों केश पृथ्वी पर अवतार लेकर | पृथिवीके भाररूप कष्टको दूर करेंगे ॥ ६० ॥ सब देवगण अपने-अपने अंशों से पृथ्वी पर अवतार लेकर अपनेसे पूर्व उत्पन्न हुए उन्मत्त दैत्यों के साथ युद्ध करें। ६१ ॥ तब मेरे दृष्टिपातसे दलित होकर पृथिवी तलपर सम्पूर्ण दैत्यगण सन्देह क्षीण हो जाएँगे ॥६२।। वसुदेवजी की जो देवीके समान देवकी नामकी भार्या है उसके आठवें गर्भसे मेरा यह (श्याम ) केश अवतार लेगा ॥६३॥ और इस प्रकार वहाँ अवतार लेकर यह कालनेमि का अवतार कंस का वध करेगा।' ऐसा कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ६४ ॥ हे महामुने ! भगवान के अदृश्य हो जानेपर उन्हें प्रणाम करके देवगण सुमेरु पर्वत पर चले गये और फिर पृथ्वीवर अवतीर्ण हुए ॥ ६५ ॥

इसी समय भगवान नारदजी ने कंस से आकर कहा कि देवकी के आठवें   गर्भ में भगवान धरणीधर जन्म लेंगे ॥ ६६॥ नारद जी से यह समाचार पाकर कंस ने कुपित होकर वसुदेव और देवकी को कारागृह में बंद कर दिया ॥ ६७ ॥ द्विज ! वसुदेव जी भी, जैसा कि उन्होंने पहले कह दिया था, अपना प्रत्येक पुत्र कंस को सौंपते रहे ॥ ६८ ॥
ऐसा सुना जाता है कि ये छः गर्भ पहले हिरण्य कशिपुके पुत्र थे। भगवान विष्णु की प्रेरणा से योगनिद्रा उन्हें क्रमशः गर्भ में स्थित करती रही ।। ६९ ॥ जिस अविद्या-रूपिणीसे सम्पूर्ण जगत् मोहित हो रहा है, वह योगनिद्रा भगवान विष्णु के महामाया है उससे भगवान श्री हरि ने कहा--॥ ७० ॥

श्रीभगवान् बोले ;- हे निद्रे ! जा, मेरी आज्ञा से तू पातालमें स्थित छः गर्भ को एक-एक करके देवकी की कुक्षी में स्थापित कर दे॥७१ ।। कंस द्वारा उन सबके मारे जानेपर शेषनामक मेरा अंश अपने अंशांश देवकी के सातवें गर्भ में स्थित होगा ॥ ७२ ॥ हे देवि ! गोकुल में वसुदेवजी की जो रोहिणी नामकी दूसरी भार्या रहती है उसके उदर में उस सातवें गर्भ को ले जाकर तू इस प्रकार स्थापित कर देना जिससे वह उसीके जठर से उत्पन्न हुएके समान जान पड़े ॥ ७३ ॥ उसके विषयमें संसार यही कहेगा कि कारागार में बन्द होने के कारण भोजराज कंस के भय से देवकी का सातवाँ गर्भ गिर गया ।॥ ७४ ॥ वह श्वेत शैलशिखरके समान वीर पुरुष गर्भ से आकर्षण किये जाने के कारण संसार में 'सङ्गर्षण' नामसे प्रसिद्ध | होगा॥ ७५॥

तदनन्तर, हे शुभे ! देवकी के आठवें गर्भमें मैं स्थित होऊँगा । उस समय तू भी तुरन्त ही यशोदा के गर्भ में चली जाना ॥७६॥ वर्षा ऋतु में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की रात्रि के समय मैं जन्म लूंगा और तू नवमीको उत्पन्न होगी। ७७ ॥ हे अनिन्दिते ! उस समय मेरी शक्तिसे अपनी मति फिर जानेके कारण वसुदेव जी मुझे तो यशोदा के और तुझे देवकी के शयनगृह में ले जाएंगे ॥ ७८ ॥ तब, हे देवि ! कंस तुझे पकड़कर पर्वत-शिलापर पटक देगा; उसके पटकते ही तू आकाशमें स्थित हो जायगी ॥ ७९ ।।

उस समय मेरे गौरवसे सहस्रनयन इन्द्र शिर झुकाकर प्रणाम करनेके अनन्तर तुझे भगिनीरूपसे स्वीकार करेगा॥ ८० ॥ तू भी शुम्भ, निशुम्भ आदि ,सहस्र दैत्योंको मारकर अपने अनेक स्थानोंसे समस्त पृथ्वी को सुशोभित करेगी॥८१॥ तू ही भूति, सन्नति, क्षान्ति और कन्ति है; तू ही आकाश, पृथिवी, धृति, लज्जा, पुष्टि और उषा है; इनके अतिरिक्त संसारमें और भी जो कोई शक्ति है वह सब तू ही है॥ ८२॥

जो लोग प्रातः काल और सायंकालमें अत्यन्त नम्रतापूर्वक तुझे आर्या, दुर्गा, वेद गर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा और भाग्यदा आदि कहकर तेरी स्तुति करेंगे उनकी समस्त कामनाएँ मेरी कृपासे पूर्ण हो जायँगी ॥ ८३-८४ ॥ मदिरा और मांस की भेंट चढ़ानेसे तथा भक्ष्य और भोज्य पदार्थोद्वारा पूजा करनेसे प्रसन्न होकर तू मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण कर देगी ॥ ८५ ॥ तेरे द्वारा दी हुई वे समस्त कामनाएँ मेरी कृपासे निस्सन्देह पूर्ण होंगी। हे देवि ! अब तू मेरे बतलाये हुए स्थानको जा ॥८६॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे प्रथमोऽध्यायः"

                   -------दूसरा अध्याय------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण

                                   (पञ्चम अंश)


"भगवान का गर्भ- प्रवेश तथा देवगणद्वारा देवकीकी स्तुति"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! देव देव श्री विष्णु भगवान ने जैसा कहा था उसके अनुसार जगद्धात्री योगमाया ने छः गर्भोको देवकीके उदर में स्थित किया और सातवेंको उसमें से निकाल लिया ॥१॥ इस प्रकार सातवें गर्भके रोहिणीके उदर में पहुँच जानेपर श्री हरि ने तीनों लोकोंका उद्धार करनेकी इच्छासे देवकी के गर्भ प्रवेश किया ॥२॥ जैसा कि भगवान परमेश्वरने उससे कहा था। योगमाया भी उसी दिन यशोदाके गर्भ में स्थित हुई ॥३॥ हे द्विज ! विष्णु अंशके पृथिवीमें पधारनेपर आकाशमें ग्रहगण ठीक ठीक गति से चलने लगे और ऋतुगण भी मंगलमय होकर शोभा पाने लगे ॥ ४ ॥ उस समय अत्यन्त तेजसे देदीप्यमान देवकीजी को कोई भी न देख सकता था। उन्हें देखकर [दर्शकों के] चित्त थकित हो जाते थे ॥ ५॥ तब देवतागण अन्य पुरुष तथा स्त्रियोंको दिखायी न देते हुए
अपने शरीर में [गगर्भ रूप से ] भगवान विष्णु को धारण करने वाली देवकीजी की अहर्निश स्तुति करने लगे ॥ ६ ॥

देवता बोले ;- हे शोभने! तू पहले ब्रह्म-प्रतिविम्ब धारिणी मूल प्रकृति हुई थी और फिर जगद्विधाताकी वेदगर्भा वाणी हुई ॥ ७ ॥
 हे सनातने ! तू ही सृज्य पदार्थों को उत्पन्न करनेवाली और तू ही सृष्टिरूपा है; तू ही सबकी बीज स्वरूपा यज्ञमयी, वेदत्रयी हुई है ॥ ८ ॥ तू ही फलमयी यज्ञ क्रिया और अग्निगर्भा अरणि है तथा तू ही देवमाता अदिति और दैस्य प्रसू दिति है ॥ ९॥ तू ही दिनकर प्रभाकर ज्ञानगर्भा गुरुशुश्रूषा है तथा तू ही न्यायमयी परमनीति
 और विनयकी मूलभूता लज्जा है ।। १० ।। तू ही काममयी इच्छा, सन्तोषमयी तुष्टि, बोधगर्भा प्रज्ञा और धैर्य धारिणी धृति है ॥ ११ ॥ ग्रह, नक्षत्र और तारागण को धारण करनेवाला तथा [व्रष्टि आदि के द्वारा इस अखिल विश्व का ] कारणस्वरूप आकाश तू ही है। हे जगद्धात्री ! हे देवि ! ये सब तथा और भी सहस्रों और असंख्य विभूतियाँ इस समय तेरे उदर में स्थित हैं । हे शुभे ! समुद्र, पर्वत, नदी, द्वीप, वन और नगरोंसे सुशोभित तथा ग्राम, खर्वट और खेटादिसे सम्पन्न समस्त पृथिवी, सम्पूर्ण अग्नि और जल तथा समस्त वायु, ग्रह, नक्षत्र एवं तारा गणों से चित्रित तथा जो सबको अवकाश देनेवाला है वह सैकड़ों विमानो से पूर्ण आकाश,भूर्लोक, भूवर्लोक, तथा मह:, जन, तप और ब्रह्मलोक पर्यंत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा उसके अन्तर्वर्ती देव, असुर, गन्धर्व, चारण, नाग, यक्ष, राक्षस, प्रेत, गुह्यक, मनुष्य, पशु और जो अन्यान्य जीव हैं, हे यशस्विनि ! वे सभी अपने अन्तर्गत होनेके कारण जो श्री अनन्त सर्वगामी और सर्वभावन हैं तथा जिनके रूप, कर्म, स्वभाव तथा [बालत्व महत्त्व आदि ] समस्त परिणाम परिच्छेद ( मर्यादा ) के विषय नहीं हो सकते वे ही श्री विष्णु भगवान तेरे गर्भ में स्थित है ॥ १२-१९ ॥ तू ही स्वाहा, स्वधा, विद्या, सुधा और आकाश स्थिता ज्योति है। सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये ही तूने पृथ्वी में अवतार लिया है ॥ २० ॥ हे देवि ! तू प्रसन्न हो। हे शुभे ! तू सम्पूर्ण जगत्का कल्याण कर । जिसने इस सारे संसार को धारण किया हुआ है उस प्रभुको तू प्रीतिपूर्वक अपने गर्भ धारण कर ॥ २१ ॥


          "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः"

                  ---------तीसरा अध्याय---------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण


                                   (पञ्चम अंश)


"भगवान का आविर्भाव तथा योगमायाद्वारा कंसकी वञ्चना"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! देवताओं से इस प्रकार स्तुति की जाती हुई देवकीजीने संसारकी रक्षाके कारण भगवान पुण्डरीकाक्षको गर्भ में धारण किया । १ ॥ तदनन्तर सम्पूर्ण संसाररूप कमलको विकसित करनेके लिये देवकीरूप पूर्व संध्या में महात्मा अच्युता रूप सूर्यदेव का आविर्भाव हुआ ॥२॥ चन्द्रमा की चाँदनी के समान भगवान का जन्म-दिन सम्पूर्ण जगत्को आह्वादित करनेवाला हुआ और उस दिन सभी दिशाएँ अत्यन्त निर्मल हो गयीं ॥ ३ ॥

श्री जनार्दन के जन्म लेनेपर संतजनोंको परम सन्तोष हुआ, प्रचण्ड वायु शान्त हो गया तथा नदियाँ अत्यन्त स्वच्छ हो गया | ४ ॥ समुद्रगण अपने घोषसे मनोहर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वराज गान करने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ५ ॥ श्रीजनार्दनके प्रकट होनेपर आकाशगामी देवगण पृथ्वी पर पुष्प वरसाने लगे तथा शान्त हुए यज्ञाग्नि फिर प्रज्वलित हो गये ॥ ६॥ हे द्विज ! अर्द्धरात्रि के समय सर्वाधार भगवान जनार्दन के आविर्भूत होनेपर पुष्पवर्षा करते हुए मेघगण मन्द-मन्द गर्जना करने लगे ॥ ७॥

उन्हें खिले हुए कमलदलकी-सी आभावाले, चतुर्भुज और वक्ष: स्थल में श्रीवत्सचिह्नसहित उत्पन्न हुए देख आनकदुन्दुभि वसुदेवजी स्तुति करने लगे ॥८॥ हे द्विजोत्तम! महामति वसुदेव जी ने प्रसाद युक्त वचनों से भगवान की स्तुति और कंस से भयभीत रहने के कारण इस प्रकार निवेदन किया ॥ ९ ॥

वसुदेव जी बोले ;- हे देवदेवेश्वर ! यद्यपि आप [ साक्षात् परमेश्वर ] प्रकट हुए हैं, तथापि हे देव ! मुझपर कृपा कर के अब अपने इस शंख-चक्र-गदाधारी दिव्य रूपका उपसंहार कीजिये ।। १०॥ हे देव ! यह पता लगते ही कि आप मेरे इस गृह में अवतीर्ण हुए हैं, कंस इसी समय तेरा सर्वनाश कर देगा॥११॥

देवकीजी बोली ;- जो अनन्तरूप और अखिल विश्वस्वरूप हैं, जो गर्भ में स्थित होकर भी अपने शरीरसे सम्पूर्ण लोकोंको धारण करते हैं तथा जिन्होंने अपनी मायासे ही बालरूप धारण किया है वे देवसेन हमपर प्रसन्न हों ॥ १२ ॥
हे सर्वात्मन् ! आप अपने इस चतुर्भुज रूपका उपसंहार कीजिये । भगवन् ! यह राक्षस के अंश से उत्पन्न कंस आपके इस अवतार का वृत्तान्त न जानने पावे ॥ १३ ॥

श्रीभगवान् बोले ;- हे देवि ! पूर्व जन्म में तूने जो पुत्रकी कामनासे मुझसे [ पुत्ररूपसे उत्पन्न होनेके लिये ] प्रार्थना की थी। आज मैंने तेरे गर्भसे जन्म लिया है-इससे तेरी वह कामना पूर्ण हो गयी॥१४॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर भगवान मौन हो गये तथा वसुदेवजी भी उन्हें उस रात्रि में ही लेकर बाहर निकले ।। १५ ।। वसुदेवजीके बाहर जाते समय कारागार रक्षक और मथुरा के द्वारपाल योग निद्रा के प्रभाव से अचेत हो गये ॥१६॥ उस रात्रिके समय घर्षण करते हुए मेघोंकी जलराशि को अपने फलों से रोककर श्रीशेषजी आनकदुन्दुभिके पीछे-पीछे चले ॥ १७ ॥ भगवान विष्णु को ले जाता हुए वसुदेव जी नाना प्रकारके सैकड़ों भँवरोंसे भरी हुई अत्यन्त गम्भीर यमुना जी को घुटनों तक रखकर ही पार कर गये ॥ १८ ॥ उन्होंने वहाँ यमुना जी के तटपर ही कंस को कर देनेके लिये आये हुए नन्द आदि वृद्ध गोपोंको भी देखा ॥ १९ ।।

हे मैत्रेय ! इसी समय योग निद्रा के प्रभाव से सब मनुष्यों के मोहित हो जानेपर मोहित हुई यशोदाने भी उसी कन्याको जन्म दिया ॥२०॥

तब अतिशय कान्तिमान् वसुदेवजी भी उस बालकको सुलाकर और कन्याको लेकर तुरन्त यशोदाके शयन-गृहसे चले आये ।॥ २१ ॥ जब यशोदाने जागनेपर देखा कि उसके एक नीलकमल दलके समान श्यामवर्ण पुत्र उत्पन्न हुआ है तो उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ २२ ॥
इधर वासुदेवजी ने कन्याको ले जाकर अपने महल में देवकीके शयन गृहमें सुला दिया और पूर्ववत् स्थित हो गये ॥ २३ ।। हे द्विज ! तदनन्तर बालकके रोनेका शब्द सुन कर कारागृह रक्षक सहसा उठ खड़े हुए और देवकी के सन्तान उत्पन्न होनेका वृत्तान्त कंसको सुना दिया ॥ २४ ।। यह सुनते ही कंस ने तुरन्त जाकर देवकीके रुँँधे हुए कण्ठ से 'छोड़, छोड़'-ऐसा कहकर रोकने- पर भी उस बालिकाको पकड़ लिया और उसे एक शिलापर पटक दिया। उसके पटकते ही वह आकाशमें स्थित हो गयी और उसने शस्त्र युक्त एक महान् अष्टभुज रूप धारण कर लिया ॥ २५-२६।॥

तब उसने ऊँचे स्वरसे अट्टहास किया और कंस से रोषपूर्ण कहा-'अरे कंस ! मुझे पटकनेसे तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ! जो तेरा वध करेगा उसने तो [ पहले ही ] जन्म ले लिया है ॥२७॥ देवताओं के सर्वस्वरूप वे हरि ही पूर्वजन्ममें भी तेरे काल थे। अतः ऐसा जानकर तू शीघ्र ही अपने हितका उपाय कर । २८ ॥ ऐसा कह, वह दिव्य माला और चन्दनादिसे विभूषिता तथा सिद्ध गण द्वारा स्तुति की जाती हुई देवी भोजराज कंस के देखते-देखते आकाशमार्गसे चली गयी॥ २९॥


           "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे तृतीयोऽध्यायः"


                  ---------चौथा अध्याय----------

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण

                                   (पञ्चम अंश)

"वसुदेव-देवकीका को कारागार से मोक्ष"
श्री पराशर जी बोले ;- तब कंस ने खिन्न चित्तसे प्रलम्ब और केशी आदि समस्त मुख्य-मुख्य असुरों को बुलाकर कहा ॥१॥

कंस बोला ;- हे प्रलम्ब ! हे महाबाहो केशिन !

हे धेनुक ! हे पूतने ! तथा हे अरिष्ट आदि अन्य असुरगण ! मेरा वचन सुनो-॥२॥ यह बात प्रसिद्ध हो रही है कि दुरात्मा देवताओं ने मेरे मारने के लिये कोई यत्न किया है; किन्तु मैं वीर पुरुष अपने वीर्यसे सताये हुए इन लोगोंको कुछ भी नहीं गिनता हूँ । ३ ॥ अल्पवीर्य इन्द्र, अकेले घूमनेवाले महादेव अथवा छिद्र (असावधानीका समय) ढूँढ़कर दैत्यों का वध करने वाले विष्णु से उनका क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ? | ४ ॥ मेंरे बाहुबल से दलित आदित्यों, अल्पवीर्य वसुगणो, अग्रियो अथवा अन्य समस्त देवताओं से भी मेरा क्या अनिष्ट हो सकता है ? ॥५॥

आपलोगोंने क्या देखा नहीं था कि मेरे साथ युद्ध भूमि में आकर देवराज इन्द्र, वक्ष:स्थल में नहीं, अपनी पीठपर वाणोंकी बौछार सहता हुआ भाग गया था ॥६॥ जिस समय इन्द्रने मेरे राज्य में वर्षाका हाना बंद कर दिया था उस समय क्या मेघोंने मेरे बाणों से बिंधकर ही यथेष्ट जल नहीं बरसाया ? ॥ ७॥ हमारे गुरु (श्वशुर ) जरासंध को छोड़कर क्या पृथ्वी के ओर सभी नृपतिगण मेरे बाहुबली से भयभीत होकर मेरे सामने शिर नहीं झुकाते ? ॥८॥

हे दैत्य श्रेष्ठगण ! देवताओं के प्रति मेरे चित्र में अवज्ञा हो है और हे वीरगण ! उन्हें अपने (मेरे) वध का यत्न करते देखकर तो मुझे हँसी आती है ॥९॥ तथापि हे दैत्येन्द्र ! उस दुष्ट और दुरात्माओं के अधिकार के लिये मुझे और भी अधिक प्रयत्न करना चाहिये ।। १०॥ अतः पृथ्वी में जो कोई यशस्वी और यज्ञकर्ता हों उनका देवताओं के अप कार के लिये सर्वे वध कर देना चाहिये ॥११॥ और केशी आदि समस्त मुख्य-मुख्य असुरों को बुलाकर कहा ॥१॥

कंस बोला ;- हे प्रडम्ब ! हे महाबाहो केशिन !

हे धेनुक ! हे पूतने ! तथा हे अरिष्ट आदि अन्य असुरों ! मेरा वचन सुनो-॥२॥ यह बात प्रसिद्ध हो रही है कि दुरात्मा देवताओं ने मेरे सामने के लिये काई यत्र किया है; किन्तु मैं वीर पुरुष अपने वीर्यसे सताये हुए इन लोगोंको कुछ भी नहीं गिनता हूँ । ३ ॥ अल्पवय इन्द्र, अकेले घूमनेवाले महादेव अथवा छिद्र (असावधानीका समय) ढूँढ़कर दैत्यों का वध करने वाले विष्णु से उनका क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ? | ४ ॥ नेरे बाहुबली से दलित आदित्यों, अल्पवीर्य वसुगगों, अनियों अथवा अन्य समस्त देवताओं से भी मेरा क्या अनिष्ट हो सकता है ? ॥५॥

आपलोगोंने क्या देखा नहीं था कि मेरे साथ युद्ध भूमि में आकर देवराज इन्द्र, वक्षस्थल में नहीं, अपनी पीठपर वाणोंकी बौछार सहता हुआ भाग गया था ॥६॥ जिस समय इन्द्रने मेरे राज्य में वर्षाका हाना बंद कर दिया था उस समय क्या मेघोंने मेरे बाणों से बिंधकर ही यथेष्ट जल नहीं बरसाया ? ॥ ७॥ हमारे गुरु (श्वशुर ) जरासंध को छोड़कर क्या पृथ्वी के आर सभा नृपतिगण मेरे बाहुबली से भयभीत होकर मेरे सामने शिर नहीं झुकाते ? ॥८॥

हे दैत्य श्रेष्ठ ! देवताओं के प्रति मेरे चित्र में अवज्ञा होता है और हे वीरगण ! उन्हें अपने (मेरे) वध का यत्न करते देखकर तो मुझे हँसी आती है ॥९॥ तथापि हे दैत्येन्द्रौ ! उस दुष्ट और दुरात्माओं के अपकार के लिये मुझे और भी अधिक प्रयत्न करना चाहिये ।। १०॥ अतः पृथ्वी में जो कोई यशस्वी और यज्ञकर्ता हों उनका देवताओं के अपकार के लिये सर्वेथा कर देना चाहिये ॥११॥

देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुई बालिकाने यह भी कहा है कि, वह मेरा भूतपूर्व (प्रथम जन्मका ) काल निश्चय ही उत्पन्न हो चुका हूं ॥ १२ ।। अतः आजकल पृथ्वी पर उत्पन्न हुए बालकों के विषयमें विशेष सावधानी रखनी चाहिये और जिस बालक में विशेष बलका उद्रेक हो उसे यत्नपूर्वक मार डालना चाहिये ॥ १३ ॥ असुरों को ऐसी आज्ञा दे कंस ने कारागृह में जाकर तुरंत ही वसुदेव और देवकीको बन्धनसे मुक्त कर दिया ॥ १४ ॥

कंस बोला ;- मैंने अबतक आप दोनों के बालको की तो वृथा ही हत्या की, मेरा नाश करनेके लिये तो कोई और ही बालक उत्पन्न हो गया है ।। १५ ॥ परन्तु आपलोग इसका कुछ दुःख न माने क्योंकि उन बालकोंकी होनहार ऐसी ही थो। आपलोगोंके प्रारब्ध-दोषसे ही उन बालकों को अपने जीवनसे हाथ धोना पड़ा है ॥ १६॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विजश्रेष्ठ! उन्हें इस प्रकार ढाँढस बँधा और बन्धनसे मुक्तकर कंसने शंकित चित्र से अपने अन्तःपुरमें प्रवेश किया ॥ १७ ॥

          "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे  चतुर्थोऽध्यायः"

                  ---------पाँचवाँ अध्याय--------

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण

                                   (पञ्चम अंश)
"पूतना-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- बन्दीगृह से छूटते ही वसुदेव जी नन्दजी के छकड़े के पास गये तो उन्हें इस समाचार से अत्यन्त प्रसन्न देखा कि 'मेरे पुत्रका जन्म हुआ है ॥ १ ॥
तब वासुदेव ने भी उनसे आदरपूर्वक कहा ;- अब वृद्धावस्था में भी आपने पुत्रका मुख देख लिया यह बड़े ही सौभाग्यकी बात है ॥२॥ आपलोग जिस लिये यहाँ आये थे वह राजाका सारा वार्षिक कर दे ही चुके हैं। यहाँ धनवान् पुरुषों को और अधिक न ठहरना चाहिये ॥३॥ आपलोग जिसलिये यहाँ आये थे वह कार्य पूरा हो चुका, अब और अधिक किसलिये ठहरे हुए हैं ? [ यहाँ देरतक ठहरना दिल नहीं है ] अतः हे नन्दजी ! आपलोग शीघ्र ही अपने गोकुल को जाइये ॥ ४ ॥ वहाँपर रोहिणीसे उत्पन्न हुआ जो मेरा पुत्र है उसकी भी आप उसी तरह रक्षा करें जैसे कि अपने इस बालककी ॥ ५ ॥

वासुदेवजी के ऐसा कहनेपर नन्द आदि महा बलवान् गोपगण छकड़ोंमें रखकर लाये हुए भाण्डोंसे कर चुकाकर चले गये ॥ ६ ॥ उनके गोकुल में रहते समय बालघाती पूतनाने रात्रि के समय सोये हुए कृष्ण को गोद में लेकर उसके मुंह में अपना स्तन दे दिया ॥७॥रात्रि के समय पूतना जिस-जिस बालक के मुखमें अपना स्तन दे देती थी उसीका शरीर तत्काल नष्ट हो जाता था ॥ ८॥ कृष्णचन्द्रने क्रोध पूर्वक उसके स्तन को अपने हाथोंसे खूब दबाकर पकड़ लिया और उसे उसके प्राणोंके सहित पीने लगे ॥९॥ तब स्नायु-बन्धनों के शिथिल हो जानेसे पूतना घोर शब्द करती हुई मरते समय महाभयङ्कर रूप धारणकर पृथिवीपर गिर पड़ी ॥ १०॥ उसके घोर नादको सुनकर भयभीत हुए व्रजवासीगण जाग उठे और देखा कि कृष्ण पूतना की गोद में हैं और वह मारी गयी है ॥ ११॥

हे द्विजोत्तम ! तब भयभीत माता यशोदा ने कृष्ण को गोद में लेकर उन्हें गौकी पूँछसे झाड़कर बालकका ग्रह-दोष निवारण किया ॥ १२ ॥ नन्दगोपने भी आगेके वाक्य कहकर विधिपूर्वक रक्षा करते हुए कृष्ण के मस्तक पर गोबर का चूर्ण लगाया ॥ १३ ॥

नन्दगोप बोले ;- जिनकी नाभि से प्रकट हुए कमलसे सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है वे समस्त भूतोंके आदिस्थान श्रीहरि तेरी रक्षा करें ॥ १४ ॥ जिनकी दाढ़ो के अग्रभागपर स्थापित होकर भूमि सम्पूर्ण जगत् को धारण करती है वे वराह-रूपधारी श्रीकेशव तेरी रक्षा करें ॥ १५ ॥ जिन विभुने अपने नखाग्रो से शत्रू के वक्षःस्थलको विदीर्ण कर दिया था वे नृसिंहरूपी जनार्दन तेरी सर्वत्र रक्षा करें ॥१६॥ जिन्होंने क्षणमात्रमें सशस्त्र त्रिविक्रमरूप धारण करके अपने तीन पगोंसे त्रिलोकीको नाप लिया था वे वामन भगवान तेरी सर्वदा रक्षा करें ॥ १७ ॥

गोविन्द तेरे शिरकी, केशव कण्ठकी, विष्णु गुह्यस्थान और जठरकी तथा जनार्दन जंघा और चरणोंकी रक्षा करें॥ १८॥ तेरे मुख, बाहु, प्रबाहु,' मन और सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी अखण्ड ऐश्वर्या सम्पन्न अविनाशी श्री नारायण रक्षा करें ॥ १९ ॥ तेरे अनिष्ट करनेवाले जो प्रेत, कूष्माण्ड और राक्षस हों वे शाङ्ग धनुष, चक्र और गदा धारण करनेवाले विष्णु भगवान की शंख-ध्वनि से नष्ट हो जायँ ॥ २० ॥ भगवान वैकुण्ठ दिशाओं में, मधुसूदन विदिशाओं (कोणों) में, हृषीकेश आकाश में तथा पृथिवी को धारण करनेवाले श्रीशेषजी पृथ्वी पर तेरी रक्षा करें॥२१॥

श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार स्वस्तिवाचन कर नन्दगोपने बालक कृष्ण को छकड़े के नीचे एक खटोलेपर सुला दिया ॥ २२ ॥ मरी हुई पूतनाके महान् कलेवरको देखकर उन सभी गोपो को अत्यन्त भय और विस्मय हुआ ॥ २३

       "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः"

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