{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का अड़तीसवाँ अध्याय}} {Thirty-eight chapter of the entire Vishnu Purana (fifth part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"अड़तीसवाँ अध्याय"
"यादवोंका अन्त्येष्टि-संस्कार, परीक्षित का राज्याभिषेक तथा पांडवों का स्वर्गारोहण"
श्री पराशर जी बोले ;- अर्जुन ने राम और कृष्ण तथा अन्यान्य मुख्य-मुख्य यादवोंके मृत देहों की खोज कराकर क्रमशः उन सबके औध्र्व दैहिक संस्कार किये ॥ १ ॥ भगवान कृष्ण की जो रुक्मिणी आदि आठ पटरानी बतलायी गयी हैं उन सबने उनके शरीरका आलिङ्गन कर अग्निमें प्रवेश किया ॥२॥ सती रेवतीजी भी बलरामजीके देहका आलिङ्गन कर, उनके अंग-संगके आह्वादसे शीतल प्रतीत होती हुई प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर गयी ॥३॥ इस सम्पूर्ण अनिष्टका समाचार सुनते ही उग्रसेन, वसुदेव, देवकी और रोहिणीने भी अग्निमें प्रवेश किया ॥४॥तदनन्तर अर्जुन उनका विधिपूर्वक प्रेत-कर्म कर वज्र तथा अन्यान्य कुटुम्बियोंको साथ लेकर द्वारका से बाहर आये ।। ५ ॥ द्वारका से निकली हुई कृष्णचन्द्रकी सहस्रों पत्तियों तथा वज्र और अन्यान्य बान्धवोंकी [ सावधानतापूर्वक ] रक्षा करते हुए अर्जुन धीरे-धीरे चले ॥ ६ ॥ हे मैत्रेय ! कृष्ण चन्द्र के मर्त्यलोक का त्याग करते ही सुधर्मा सभा और पारिजात-वृक्ष भी स्वर्गलोक को चले गये ॥ ७॥ जिस दिन भगवान पृथ्वी को छोड़ कर स्वर्ग सिधारे थे उसी दिनसे यह मलिन देह मह़ाबली कलियुग पृथिवी पर आ गया ।।८।।
इस प्रकार जनशून्य द्वारका को समुद्र ने डुबो दिया, केवल एक कृष्णचन्द्र के भवनको ही वह नहीं डूबता ॥९॥ हे ब्रह्मन् ! उसे डुबानेमें समुद्र आज भी समर्थ नहीं है; क्योंकि उसमें भगवान कृष्ण चन्द्र सर्वदा निवास करते हैं । १० । वह भगवदैश्वर्य: सम्पन्न स्थान अति पवित्र और समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है; उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है ॥ ११ ॥
हे मुनि श्रेष्ठ! अर्जुन ने उन समस्त द्वारका वासियों को अत्यन्त धन-धान्य-सम्पन्न पश्चनद (पंजाब ] देश में बसाया १२॥ उस समय अनाथा स्त्रियोंको अकेले धनुर्धारी अर्जुन को ले जाते देख लुटेरोंको लोभ उत्पन्न हुआ ॥ १३ ॥ तब उन अत्यन्त दुर्मद, पापकर्मा और लुब्ध हृदय आभीर दस्युओंने परस्पर मिलकर सम्मति की-॥१४॥ 'देखो, यह धनुर्धारी अर्जुन अकेला ही हमारा अतिक्रमण करके इन अनाथा स्त्रियोंको लिये जाता है; हमारे ऐसे बल पुरुषार्थ को धिक्कार है ! ॥ १५ ॥ यह भीष्म, द्रोण, जयद्रथ और कर्ण आदि [ नगरनिवासियों ] को मारकर ही इतना अभिमानी हो गया है, अभी हम ग्रामीणों के बल को यह नहीं जानता ॥ १६ | हमारे हाथों में लाठी देखकर यह दुर्मति धनुष लेकर हम सबकी अवज्ञा करता है फिर हमारी इन ऊँची-ऊँची भुजाओंसे क्या लाभ है ?' ॥ १७ ॥
ऐसी सम्मतिकर वे सहस्रों लुटेरे लाठी और ढेले लेकर उन अनाथ द्वारकावासियोंपर टूट पड़े ॥ १८॥ तब अर्जुन ने उन लुटेरोंको झिड़ककर हँसते हुए कहा-"अरे पापियो! यदि तुम्हें मरनेकी इच्छा न हो तो अभी लौट जाओ" ॥ १९ ॥ किन्तु हे मैत्रेय ! लुटेरोंने उनके कथनपर कुछ भी क्यान न दिया और भगवान कृष्ण के सम्पूर्ण धन और स्त्रीधनको अपने अधीन कर लिया ।। २० । तब वीरवर अर्जुन ने युद्ध में अक्षीण अपने गाण्डीव धनुष को चढ़ाना चाहा; किन्तु वे ऐसा न कर सके ॥ २१॥ उन्होंने जैसे-तैसे अति कठिनतासे उसपर प्रत्यंञ्चा ( डोरी) चढ़ा भी ली तो फिर वे शिथिल हो गये और बहुत कुछ सोचनेपर भी उन्हें अपने अस्त्रों का स्मरण न हुआ ॥ २२ ॥
तब वे क्रुद्ध होकर अपने शत्रुओंपर बाण बरसाने लगे; किन्तु गाण्डीवधारी अर्जुन के छोड़े हुए उन बाणोंने केवल उनकी त्वचा को ही बींधा ॥ २३ ॥ अर्जुन का उद्भव क्षीण हो जानेके कारण अग्निके दिये हुए उनके अक्षय बाण भी उन अहीरों के साथ लड़ने में नष्ट हो गये ॥ २४ ॥
तब अर्जुन ने सोचा कि मैंने जो अपने शरसमूह से अनेकों राजाओं को जीता था वह सब कृष्णचन्द्र का ही प्रभाव था ।। २५ ॥ अर्जुन को देखते देखते वे अहीर उन स्त्री रत्नों को खींच-खींचकर ले जाने लगे तथा कोई-कोई अपनी इच्छानुसार इधर-उधर भाग गयीं ॥ २६ ॥ बाणों के समाप्त हो जानेपर धनञ्जय अर्जुन ने धनुष की नोंंकसे ही प्रहार करना आरम्भ किया, किन्तु हे मुने! वे दस्युगण उन प्रहारोंकी और भी हंसी उड़ाने लगे ॥ २७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अर्जुन को देखते देखते वे म्लेच्छ गण वृष्णि और अंधक वंश की उन समस्त स्त्रियों को लेकर चले गये ॥ २८ ॥ तब सर्वदा जय शील अर्जुन अत्यन्त दुखी होकर 'हा ! कैसा कष्ट है, कैसा कष्ट है ?' ऐसा कहकर रोने लगे [ और बोले-] "अहो ! मुझे उन भगवान ने ही ठग लिया ॥ २९ ।। देखो, वही धनुष है, वे ही शस्त्र है, वही रथ है और वे ही अश्व हैं; किन्तु अश्रोत्रियको दिये हुए दानके समान आज सभी एक साथ नष्ट हो गये ॥३०॥ अहो ! दैव बड़ा प्रबल है, जिसने आज उन महात्मा कृष्ण के न रहनेपर असमर्थ और नीच आभीरोंको जय दे दो ॥ ३१ ॥ देखो! मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही मेरी मुष्टि (मुठ्टी) है, वही (कुरुक्षेत्र) स्थान है और मैं भी वही अर्जुन हूँ तथापि पुण्यदर्शन कृष्ण के बिना आज सब सारहीन हो गये ॥ ३२ ॥ अवश्य ही मेरा अर्जुनत्व और भीम का भिमत्व भगवान कृष्ण की कृपा से ही था। देखो, उसके बिना आज महारथियों में श्रेष्ठ मुझको तुच्छ आभीरोंने जीत लिया"॥३३॥
श्री पराशर जी बोले ;- अर्जुन इस प्रकार कहते हुए अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में आये और वहाँ यादव नन्दन वज्र का राज्याभिषेक किया ॥ ३४ ॥
तदनन्तर वे विपिनवासी व्यासमुनिसे मिले और उन महाभाग मुनिवर के निकट जाकर उन्हें विनय पूर्वक प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ अर्जुन को बहुत देरतक अपने चरणोंकी वन्दना करते देख मुनिवरने कहा "आज तुम ऐसे कान्तिहीन क्यों हो रहे हो ? ॥३६। क्या तुमने भेड़ोंकी धूलिका अनुगमन किया है अथवा ब्रह्म हत्या की है या तुम्हारी कोई सुदृढ़ आश भंग हो गयी है ? जिसके दुःखसे तुम इस समय इतने श्रीहीन हो रहे हो ॥ ३७ ॥ तुमने किसी सन्तानके इच्छुकका विवाह के लिये याचना करनेपर निरादर तो नहीं किया अथवा किसी अगम्य स्त्रीसे रमण तो नहीं किया, जिससे तुम ऐसे तेजोहीन हो रहे हो ? ॥ ३८॥ हे अर्जुन ! तुम ब्राह्मणों को बिना दिये अकेले ही तो मिष्टान्न नहीं खा लेते, अथवा तुमने किसी कृपणका धन तो नहीं हर लिया है ? ॥३९॥ हे अर्जुन ! तुम सूप की वायु का तो सेवन नहीं किया ? क्या तुम्हारी आँखें दुखती हैं अथवा तुम्हें किसीने मारा है ? तुम इस प्रकार श्रीहीन कैसे हो रहे हो ? ॥ ४० ॥ तुमने नख-जलका स्पर्श तो नही किया ? तुम्हारे ऊपर घड़े से छलके हुए जलकी छींटे तो नहीं पड़ गयीं अथवा तुम्हें किसी हीन पुरुष ने युद्ध में पराजित तो नहीं किया ? फिर तुम इस तरह हतप्रभ कैसे हो रहे हो ?" ॥ ४१ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- तब अर्जुन ने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए कहा-"भगवन् ! सुनिये" ऐसा कहकर उन्होंने अपने पराजयका सम्पूर्ण वृत्तान्त व्यास जी. को ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥ ४२ ॥
अर्जुन बोले ;- जो हरि मेरे एकमात्र बल, तेज, वीर्य, पराक्रम, श्री और कान्ति थे वे हमें छोड़कर चले गये ।। ४३ ॥ जो सब प्रकार समर्थ होकर भी हमसे मित्रवत् हँस-हँसकर बातें किया करते थे, हे मुने.! उन हरिके बिना हम आज तृणमय पुतलेके समान निःसत्व हो गये हैं ॥४४॥ जो मेरे दिव्यास्त्रों, दिव्य बाणों और गाण्डीव धनुषके मूर्तिमान् सार थे वे पुरुषोत्तम भगवान हमें छोड़कर चले गये हैं ।।४५ ॥
जिनकी कृपा-दृष्टि से श्री, जय, सम्पत्ति और उन्नतिने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा वे ही भगवान गोविन्द हमें छोड़कर चले गये हैं। ४६ ॥ जिनकी प्रभावाग्नि में भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि अनेकों शूरवीर दग्ध हो गये थे, उन कृष्णचन्द्रने इस भूमण्डलको छोड़ दिया है ॥४७॥ हे तात ! उन चक्रपाणि कृष्णचन्द्र के विरहमें एक मैं ही क्या, सम्पूर्ण पृथ्वी ही यौवन, श्री और कान्तिसे हीन प्रतीत होती है ॥ ४८ ॥ जिनके प्रभाव से अग्नि रूप मुझमें भीष्म आदि महारथीगण पतंगवत् भस्म हो गये थे, आज उन्हीं कृष्ण के बिना मुझे गोपोंने हरा दिया!।। ४९ । जिनके प्रभावसे यह गाण्डीव धनुष तीनों लोकों में विख्यात हुआ था उन्हींके बिना आज यह अहीरों की लाठियों से तिरस्कृत हो गया !५० ॥ हे महामुने ! भगवान की जो सहस्रों स्त्रियां मेरी देखरेख में आ रही थीं उन्हें, मेरे सब प्रकार यत्न करते रहनेपर भी दस्युगण अपनी लाठियों के बलसे ले गये ॥५१॥ हे कृष्णद्वैपायन ! लाठियाँ ही जिसके हथियार हैं उन आभीरोंने आज मेरे बलको कुण्ठित कर मेरे द्वारा साथ लाये हुए सम्पूर्ण कृष्ण-परिवार- को हर लिया ॥ ५२ ॥ ऐसी अवस्थामें मेरा श्रीहीन होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है; हे पितामह ! आश्चर्य तो यह है कि नीच पुरुषोंद्वारा अपमान पंक में सनकर भी मैं निर्लज्ज अभी जीवित हूँ ।। ५३ ॥
श्री व्यास जी बोले ;- हे पार्थ ! तुम्हारी लज्जा व्यर्थ है, तुम्हें शोक करना उचित नहीं है। तुम सम्पूर्ण भूतोंमें कालकी ऐसी ही गति जानो ।। ५४॥ हे पाण्डव ! प्राणियों की उन्नति और अवनतिका कारण काल ही है, अतः हे अर्जुन ! इन जय पराजयोंको कालके अधीन समझकर तुम स्थिरता धारण करो॥ ५५ ॥नदियाँ, समुद्र, गिरिगण, सम्पूर्ण पृथिवी, देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और सरीसृप आदि सम्पूर्ण पदार्थ कालके ही रचे हुए हैं और फिर कालहीसे ये क्षीण हो जाते हैं, अतः इस सारे प्रपञ्च को कालात्मक जानकर शान्त होओ ॥ ५६-५७॥
हे धनंजय ! तुमने कृष्णचन्द्रका जैसा माहात्म्य बतलाया है वह सब सत्य ही है; क्योंकि कमलनयन भगवान कृष्ण साक्षात् कालस्वरूप ही है ॥ ५८॥ उन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही मत्युलोक - में अवतार लिया था । एक समय पूर्वकालमें में पृथ्वी भाराक्रांत होकर देवताओं की सभा में गई थी ॥ ५९ ॥ कालस्वरूपी श्रीजनार्दनने उसीके लिये अवतार लिया था । अब सम्पूर्ण दुष्ट राजा मारे जा चुके, अतः वह कार्य सम्पन्न हो गया ॥ ६० ॥ हे पार्थ! वृष्णि और अन्धक आदि सम्पूर्ण यदुकुल का भी उपसंहार हो गया; इसलिये उन प्रभुके लिये अब पृथ्वी तल पर और कुछ भी कर्तव्य नहीं रहा ॥ ६१ ।। अतः अपना कार्य समाप्त हो चुकनेपर भगवान स्वेच्छानुसार चले गये, ये देवदेव प्रभु सर्ग के आरम्भमें सृष्टि-रचना करते हैं, स्थिति के समय पालन करते हैं और अन्तमें ये ही उसका नाश करने में समर्थ हैं-जैसे इस समय वे [ राक्षस आदिका संहार करके ] चले गये हैं ।। ६२ ।।
अतः हे पार्थ ! तुझे अपनी पराजयसे दुखी न होना चाहिये, क्योंकि अभ्युदय-काल उपस्थित होने पर ही पुरुषोंसे ऐसे कर्म बनते हैं जिनसे उनकी स्तुति होती है ॥ ६३ ॥ हे अर्जुन ! जिस समय तुझ अकेलेने ही युद्ध में भीष्म, द्रोण और कर्ण आदिको मार डाला था वह क्या उन वीरोंका कालक्रम से प्राप्त हीनबल पुरुषसे पराभव नहीं था ? ॥ ६४ ॥ जिस प्रकार भगवान विष्णु के प्रभाव से तुमने उन सबों को नीचा दिखलाया था उसी प्रकार तुझे दस्युओंसे दबना पड़ा है ॥ ६५ ॥ वे जगत्पति देवेश्वर ही शरीरोंमें प्रविष्ट होकर जगत की स्थिति करते हैं और वे ही अन्तमें समस्त जीवों का नाश करते हैं ॥६६॥
हे कौन्तेय ! जिस समय तेरा भाग्योदय हुआ था, उस समय श्री जनार्दन तेरे सहायक थे और जब उस ( सौभाग्य ) का अन्त हो गया तो तेरे विपक्षियोंपर श्रीकेशवकी कृपादृष्टि हुई ॥ ६७॥ तू गङ्गा नन्दन भीष्म पितामह के सहित सम्पूर्ण कौरवों को मार डालेगा-इस बात को कौन मान सकता था और फिर यह भी किसे विश्वास होगा कि तू आभीरों से हार जायेगा ।। ६८ ।।
हे पार्थ ! यह सब सर्वात्मा भगवान की लीला ही कौतुक है कि तुझ अकेले ने कौरवों को नष्ट कर दिया और फिर स्वयं अहीरों से पराजित हो गया।। ६९ ॥
हे अर्जुन ! तू जो उन दस्युओंद्वारा हरण की गयी स्त्रियों के लिये शोक करता है सो मैं तुझे उसका यथावत् रहस्य बतलाता हूँ ॥ ७० ॥ एक बार पूर्व कालमें विप्रवर अष्टावक्र जी सनातन ब्रह्म की स्तुति करते हुए अनेकों वर्षतक जेल में रहे ।। ७१ । उसी समय दैत्यों पर विजय प्राप्त करने से देवताओं ने सुमेरु पर्वत पर एक महान् उत्सव किया। उसमें सम्मिलित होनेके लिये जाती हुई रम्भा और तिलोत्तमा आदि सैकड़ों-हजारों देवाङ्गनाओंने मार्ग में उन मुनिवरको देखकर उनकी अत्यन्त स्तुति और प्रशंसा की ॥ ७२-७३ ॥ वे देवाङ्गनाएँ उन जटाधारी मुनिवरको कण्ठपर्यन्त जलमें हूबे देखकर विनयपूर्वक स्तुति करती हुई प्रणाम करने लगीं ॥ ७४॥ हे कौरव श्रेष्ठ ! जिस प्रकार वे द्विजश्रेष्ठ अष्टावक्र जी प्रसन्न हों उसी प्रकार वे अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं ॥ ७ ॥
अष्टावक्र जी बोले ;- हे महाभागाओ ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे वही वर माँग लो; मैं अति दुर्लभ होनेपर भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ॥ ७६ ॥ तब रम्भा और तिलोत्तमा आदि वैदिकी ( वेद प्रसिद्ध) अप्सराओं ने उनसे कहा-“हे द्विज! आपके प्रसन्न हो जानेपर हमें क्या नहीं मिल गया"||७७॥ तथा अन्य अप्सराओं ने कहा-"यदि भगवान हमपर प्रसन्न है तो हे विप्रेन्द्र ! हम साक्षात् पुरुषोत्तम भगवान को पति रूपसे प्राप्त करना चाहती हैं" ॥७८॥
श्री व्यास जी बोले ;- तब 'ऐसा ही होगा'- यह कहकर मुनि अष्टावक्र जलसे बाहर आये। उनके बाहर आते समय अप्सराओं ने आठ स्थानों में टेढ़े उनके कुरूप देहको देखा ॥ ७९॥ उसे देखकर जिन अप्सराओं की हँसी छिपानेपर भी प्रकट हो गयी, कुरुनन्दन ! उन्हें मुनिवरने क्रुद्ध होकर यह शाप दिया-॥८०॥
"मुझे कुरूप देखकर तुमने हँसते हुए मेरा अपमान किया है इसलिये मैं तुम्हें यह शाप देता हूँ कि मेरी कृपासे श्रीपुरुषोत्तमको पतिरूपसे पाकर भी तुम मेरे शाप के वशीभूत होकर लुटेरों के हाथों में पड़ोगी" ।। ८१-८२ ॥
श्री व्यास जी वाले ;- मुनिका यह वाक्य सुनकर उन अप्सराओंं ने उन्हें फिर प्रसन्न किया, तब मुनिवर. ने उनसे कहा-"उसके पश्चात् तुम फिर स्वर्गलोक में चली जाओगी” ॥ ८३ ॥ इस प्रकार मुनिवर अष्टावक्र के शापसे ही वे देवाङ्गनाएँ श्रीकृष्णचन्द्रको पति पाकर भी फिर दस्युओंके हाथमें पड़ी हैं ।।८४।।
हे पाण्डव ! तुझे इस विषयमें तनिक भी शोक न करना चाहिये; क्योंकि उन अखिलेश्वरने ही सम्पूर्ण यदुकुलका उपसंहार किया है ॥ ८५ ॥ तथा तुमलोगोंका अन्त भी अब निकट ही है; इसलिये उन सर्वेश्वरने तुम्हारे बल, तेज, वीर्य और माहात्म्यका संकोच कर दिया है ॥ ८६ ॥ जो उत्पन्न हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है, उन्नतिका पतन अवश्यम्भावी है, संयोगका अन्त वियोग ही है तथा संचय ( एकत्र करने ) के अनन्तर क्षय (व्यय ) होना सर्वथा निश्चित ही है'-ऐसा जानवर जो बुद्धिमान् पुरुष [ लाभ या हानिमें ] हर्ष अथवा शोक नहीं करते उन्हींकी चेष्टाका अवलम्बनकर अन्य मनुष्य भी अपना वैसा आचरण बनाते है । ८७-८८ | इसलिये हे नरश्रेष्ठ ! तुम ऐसा जानकर अपने भाइयों सहित सम्पूर्ण राज्यको छोड़कर तपस्याके लिये वनको जाओ ॥ ८९ ॥ अब तुम जाओ तथा धर्मराज युधिष्ठिर से मेरी ये सारी बातें कहो और जिस तरह परसों भाइयों सहित वन को चले जा सको वैसा यत्न करो॥ १०॥
मुनिवर व्यासजीके ऐसा कहने पर अर्जुन [हस्तिनापुर में ] आकर पृथापुत्र (युधिष्ठिर और भीमसेन) तथा यमजों (नकुल और सहदेव ) को उन्होंने जो कुछ जैसा-जैसा देखा और सुना, सब ज्यों का-त्यों सुना दिया॥ ९१ ॥ उन सब पाण्डुपुत्रोंने अर्जुन के मुख से व्यासजीका सन्देश सुनकर राज्य पद पर परीक्षित को अभिषिक्त किया और स्वयं वनको चले गये ॥९२।।
हे मैत्रेय! भगवान वासुदेव ने यदुवंश में जन्म लेकर जो-जो लीलाएँ की थीं वह सब मैंने विस्तार र्पूवक तुम्हें सुना दी ॥ ९३ ॥ जो पुरुष भगवान कृष्ण के इस चरित्र को सर्वदा सुनता है वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर अंत में विष्णु लोक को जाता है ।। ९४ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे अष्टात्रिंशोऽध्यायः"
इति श्रीपराशर मुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके
श्रीमती विष्णुमहापुराणे पञ्चमोंऽशः समाप्तः ।
!!सम्पूर्ण विष्णु पुराण का पञ्चम अंश के कुल 38 अध्याय अब समाप्त हुए !!
(अब सम्पूर्ण विष्णु पुराण का षष्ठ अंश के 8 अध्याय सुरू होते है ।।)
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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