{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का चौबीसवाँ अध्याय}} {Twenty-fourth chapter of the entire Vishnu Purana (fourth part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(चतुर्थ अंश)
"चौबीसवाँ अध्याय"
"कलियुगी राजाओं और कालिधर्मोका वर्णन तथा राजवंश-वर्णन का उपसंहार"
श्री पराशर जी बोले ;- बृहद्रथ वंश का रिपुञ्जय नामक जो अन्तिम राजा होगा उसका सुनिक नामक एक मन्त्री होगा। वह अपने स्वामी रिपुञ्जय को मारकर अपने पुत्र प्रद्योत का राज्याभिषेक करेगा। उसका पुत्र बलाक होगा, बलाकका विशाखयूप विशाखयूपका जनक, जनक का नन्दिवर्धन तथा नन्दिवर्धनका पुत्र नन्दी होगा। ये पाँच प्रद्योत वंशीय नृपतिगण एक सौ अड़तीस वर्ष पृथ्वी का पालन करेंगे ।।
नन्दीका पुत्र शिशुनाभ होगा, शिशुनाभ का काकवर्ण, काकवर्ण का क्षेमधर्मा, क्षेमधर्माका क्षतौजा, क्षतौजाका विधिसार, विधिसारका अजातशत्रु, अजातशत्रु का अर्भक, अर्भकका उदयन, उदयनका नन्दिवर्धन और नन्दिवर्धन का पुत्र महानन्दी होगा।
ये शिशुनाभवंशीय नृपतिगण तीन सौ बासठ वर्ष पृथ्वी का शासन करेंगे ॥ ९ १९ ।
महानन्दी के शूद्र के गर्भ से उत्पन्न अत्यन्त लोभी और महाबलवान् महापद्म नामक नन्द दूसरे परशुराम के समान सम्पूर्ण क्षत्रियों का नाश करनेवाला होगा। तबसे शूद्रजातीय राजा राज्य करेंगे। राजा महापद्म सम्पूर्ण पृथ्वी का एक छात्र और अनुल्लङ्ित राज्य-शासन करेगा। उसके सुमाली आदि आठ पुत्र होंगे जो महापद्म के पीछे पृथिवीका राज्य भोगेंगे । २० -२४ । महापद्म और उसके पुत्र सौ वर्ष तक पृथ्वी शासन करेंगे ।
तदनन्तर इन नवों नन्दोंको कौटिल्य नामक एक ब्राह्मण नष्ट करेगा, उनका अन्त होनेपर मौर्य नृपतिगण पृथ्वी को भोगेंगे। कौटिल्य ही [मुरा नाम की दासीसे नन्दद्वारा ] उत्पन्न हुए चन्द्रगुप्त को राजा भिषिक्त करेगा ॥ २५-२८॥
चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार, बिन्दुसारका अशोक वर्द्धन, अशोकवर्द्धनका सुयशा, सुयशाका दशरथ,
दशरथ का संयुत, संयुतका शालिशूक, शालिशूकका सोमशर्मा, सोमशर्माका शतधन्वा तथा शतधन्वाका पुत्र बृहद्रथ होगा । इस प्रकार एक सौ तिहत्तर वर्ष तक ये दश मौर्यवंशी राजा राज्य करंगे ॥ २९-३२ ॥
इनके अनन्तर पृथ्वी में दस शुङ्गवंशीय राजा गण होंगे ॥ ३३ ॥ उनमें पहला पुष्यमित्र नामक सेना पति अपने स्वामीको मारकर स्वयं राज्य करेगा, उसका पुत्र अग्निमित्र होगा । ३४ ॥
अग्निमित्र का पुत्र सुज्येष्ठ, सुज्येष्ठका वसुमित्र, वसुमित्रका उदंक, उदंकका पुलिन्दक, पुलिन्दक का घोषवसु, घोषवसुका वज्रमित्र, वज्रमित्र की भागवत और भागवत के पुत्र देवभूति होगा ॥ ३५-३६ ॥
ये शुङ्गनरेश एक सौ बारह वर्ष पृथ्वी का भोग करेंगे ॥ २० ॥
इसके अनन्तर यह पृथ्वी कण्व भोपाल के अधिकार में चली जायगी ॥ ३८ ॥ शुङ्गवंशीय अति व्यसनशील राजा देवभूतिको कण्ववंशीय वसुदेव नामक उसका मन्त्री मारकर स्वयं राज्य भोगेगा ॥ ३९॥ उसका पुत्र भूमित्र, भूमित्रका नारायण तथा नारायण के पुत्र सुशर्मा होगा। ४०-४१॥ ये चार कण्व भूपतिगण पैंतालीस वर्ष पृथिवीके अधिपति रहेंगे ॥ ४२ ॥ कण्ववंशीय सुशर्मा को उसका बलिपुच्छक नाम
वाला आन्ध्रजातीय सेवक मारकर स्वयं पृथिवीका भोग करेगा॥४३ ॥ उसके पीछे उसका भाई कृष्ण पृथ्वी का स्वामी होगा ॥ ४४ ॥ उसका पुत्र शांतकर्णि, शांतकर्णी का पुत्र पूर्णोत्संग, पूर्णोत्संगका शातकर्णी होगा, शातकर्णी का लम्बोदर, लम्बोदरका पिलक, पिलकका मेघस्वाति, मेघस्वातिका पटुमान्, पटुमान् का अरिष्टकर्मा, अरिष्टकर्माका हालाहल, हालाहलका पललक, पललकका पुलिन्दसेन, पुलिन्दसेन का सुन्दर, सुन्दरका शातकर्णि [ दूसरा ], शातकर्णी का शिवस्वाति, शिवस्वाति का गौतमीपुत्र, गोमतिपुत्रका अलिमान् अलिमान् का शान्तकर्णि [ दूसरा ], शान्तकर्णि का शिवश्रीत,,, शिवश्रीत का शिवस्कन्ध, शिवस्कन्धका यज्ञश्री, यज्ञश्रीका द्वियज्ञ, द्वियज्ञका चन्द्रश्री तथा चन्द्रश्रीका पुत्र पुलोमाचि होगा ॥ ४५-४९ ।।
इस प्रकार ये तीस आंध्रभृत्य राजा गण चार सौ छप्पन वर्ष पृथ्वी को भोगेंगे ॥ ५०॥ इनके पीछे सात आभीर और दश गर्दभिल राजा होंगे ॥५१॥ फिर सोलह शक राजा होंगे ॥५२॥ उनके पीछे आठ यवन, चौदह तुर्क, तेरह मुण्ड (गुरुण्ड ) और ग्यारह मौन जातिय राजा लोग एक हजार नब्बे वर्ष पृथ्वी का शासन करेंगे ।॥ ५ ॥ इनमें से भी ग्यारह मौन राजा पृथ्वी को तीन सौ वर्ष तक भोगेंगे ॥ ५४ ॥
इनके उच्छिन्न होनेपर कैंकिल नामक यवनजातीय अभिषेकरहित राजा होंगे॥५५॥ उनका वंशधर विन्ध्यशक्ति होगा। विन्ध्यशक्तिका पुत्र पुरञ्जय होगा। पुरञ्षय का रामचन्द्र, रामचन्द्रका धर्मवर्मा, धर्मवर्मा का वंग, वंगका नन्दन तथा नन्दनका पुत्र सुनन्दी होगा। सुनन्दीके नन्दियशा, शुक्र और प्रवीर ये तीन भाई होंगे। ये सब एक सौ छः वर्ष राज्य करेंगे ॥५६ ।।
इसके पीछे तेरह इनके वंशके और तीन बाह्रिक राजा होंगे ॥ ५७ ॥ उसके बाद तेरह पुष्पमित्र और पटुमित्र आदि तथा सात आन्ध्र माण्डलिक भूपतिगण होंगे ॥ ५८॥ तथा नों राजा क्रमशः कौशल देश में राज्य करेंगे ॥ ५९॥ निषध देश के स्वामी भी ये ही होंगे ॥ ६० ॥
मगध देश में विश्वस्फटिक नामक राजा अन्य वर्णों को प्रवृत्त करेगा ।। ६१ ॥ वह कैवर्त, वटु, पुलिन्द और ब्राह्मणों को राज्य में नियुक्त करेगा ॥२॥ सम्पूर्ण क्षत्रिय-जाति का उच्छिन्न कर पद्मावतीपुरी में नागगण तथा गंगा के निकटवर्ती प्रयाग और गयामें मागध और गुप्त राजा लोग राज्य-भोग करेंगे ॥ ६३ । कोशल, आन्ध्र, पुण्डू, ताम्रलिप्त और समुद्र तटवर्तिनी पुरीको देवरक्षित नामक एक राजा रक्षा करेगा ॥ ६४ ॥ कलिङ्ग, माहिष, महेन्द्र और भौम आदि देशों को गुह नरेश भोगेंगे ॥ ६५ ।। नैषध, नैमिषक और कालकोशक आदि जनपदोंको मणिधान्यक-वंशीय राजा भोगेंगे ॥ ६६ ॥ त्रैराज्य और मुषिक देशों पर कनक नामक राजा का राज्य होगा ॥ ६७ ।। सौराष्ट्र, अवन्ति, शूद्र, आभीर तथा नर्मदा तटवर्ती मरुभूमिपर ब्रात्य, द्विज, आभीर और शूद्र आदी का आधिपत्य होगा ॥ ६८ ॥ समुद्र तट, दावी- कोर्वी, चन्द्रभागा और काश्मीर आदि देशों का ब्रात्य, म्लेच्छ और शूद्र आदि राजागण भोग करेंगे।। ६९ ॥
ये सम्पूर्ण राजा लोग पृथ्वी में एक ही समयमें होंगे ॥ ७० ॥ ये थोड़ी प्रसन्नता वाले, अत्यंत क्रोधी, सर्वदा अधर्म और मिथ्या भाषणमें रुचि रखनेवाले, स्त्री-बालक और गौओंकी हत्या करनेवाले, पर-धन हरणमें रुचि रखनेवाले, अल्पशक्ति, तमःप्रधान, उत्थानके साथ ही पतनशील, अल्पायु, महती कामना वाले, अल्पपुण्य और अत्यन्त लोभी होंगे ॥७१॥ ये सम्पूर्ण देशों को परस्पर मिला देंगे तथा उन राजाओं के आश्रयसे ही बलवान् और उन्हीं के स्वभावका अनुकरण करनेवाले म्लेच्छ तथा आर्यविपरीत आचरण करते हुए सारी प्रजाको नष्ट-भ्रष्ट कर देंगे ॥ ७२ ॥
तब दिन-दिन धर्म और अर्थका थोड़ा-थोड़ा ह्रास तथा क्षय होनेके कारण संसारका क्षय हो जायगा ॥ ७३ ॥ उस समय अर्थ ही कुलीनताका हेतु होगा; बल ही सम्पूर्ण धर्मका हेतु होगा; पारस्परिक रुचि ही दाम्पत्य-सम्बन्धों हेतु होगी, स्त्रीत्व ही उपभोग का हेतु होगा [ अर्थात् स्त्रीकी जाति-कुल आदिका विचार न होगा] ; मिथ्या भाषण ही व्यवहार में सफलता प्राप्त करनेका हेतु होगा; जलकी सुलभता और सुगमता ही पृथ्वी की स्वीकृतिका हेतु होगी [ अर्थात् पुण्यक्षेत्रादिका कोई विचार न होगा। जहाँकी जलवायु उत्तम होगी वही भूमि उत्तम मानी जायगी ]; यज्ञोपवीत ही ब्राह्मणत्व का हेतु होगा; रत्नादि धारण करना ही प्रशंसाका हेतु होगा; बाह्य चिह्न ही आश्रमोंके हेतु होंगे; अन्याय ही आजीविका हेतु होगा; दुर्बलता ही बेकारीका हेतु होगी; निर्भयतापूर्वक धृष्टताके साथ बोलना ही पाण्डित्यका हेतु होगा; निर्धनता ही साधुत्वका हेतु होगी; स्नान ही साधनका हेतु होगा; दान ही धर्म का हेतु होगा; स्वीकार कर लेना ही विवाह हेतु होगा [ अर्थात् संस्कार आदिकी अपेक्षा न कर पारस्परिक स्नेहबन्धनसे ही दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित हो जायगा ]; भली प्रकार बन ठनकर रहनेवाला ही सुपात्र समझा जायगा; दूरदेशका जल ही तीर्थोदकत्व का हेतु होगा तथा छद्मवेश धारण ही गौरवका कारण होगा ॥७४ ९२ ॥ इस प्रकार पृथ्वी मंडल में विविध दोषों के फैल जानेसे सभी वर्गों में जो-जो बलवान होगा वही-वही राजा बन बैठेगा ॥ ९३ ॥
इस प्रकार अतिलोलुप राजाओं के कर-भार को सहन न कर सकनेके कारण प्रजा पर्वत-कन्दराओं का आश्रय लेगी तथा मधु, शाक, मूल, फल, पत्र और पुष्प आदि खाकर दिन काटेगी ॥ ९४-९५ ॥ वृक्षों के पत्र और वल्कल ही उनके पहनने तथा ओढ़नेके कपड़े होंगे। अधिक सन्ताने होंगी । सब लोग शीत, वायु, घाम और वर्षा आदिके कष्ट सहेंगे ॥९६॥ कोई भी तेईस वर्ष तक जीवित न रह सकेगा। इस प्रकार कलियुगमें यह सम्पूर्ण जनसमुदाय निरन्तर क्षीण होता रहेगा ॥ ९७ ॥
इस प्रकार श्रौत और स्मार्त धर्म का अत्यन्त ह्रास हो जाने तथा कलियुग के प्रायः बीत जानेपर शम्भल (सम्भल) ग्रामनिवासी ब्राह्मण श्रेष्ठ विष्णुयशा के घर सम्पूर्ण संसार के रचयिता, चराचरगुरु, आदिमध्यान्तशून्य, ब्रह्ममय आत्म स्वरूप भगवान वासुदेव अपने अंशसे अष्टैश्वर्ययुक्त कल्कि रूप से संसारमें अवतार लेकर असीम शक्ति और माहात्म्यसे सम्पन्न हो सकल म्लेच्छ, दस्यु, दुष्टाचारी तथा दुष्टचित्तोंका क्षय करने और समस्त प्रजाको अपने-अपने धर्ममें नियुक्त करेंगे ॥ ९८ । इसके पश्चात् समस्त कलयुग समाप्त हो जानेपर रात्रिके अन्तमें जागे हुओंके समान तत्कालीन लोगों की बुद्धि स्वच्छ, स्फटिक मणि के समान निर्मल हो जायगी ॥ ९९ ॥ उन बीजभूत समस्त मनुष्योंसे उनकी अधिक अवस्था होनेपर भी उस समय सन्तान उत्पन्न हो सकेगी ॥ १०० ॥ उनकी वे सन्तानें सत्य- युग के ही धर्मों का अनुसरण करने वाली होगी।।१०१।।
इस विषय में ऐसा कहा जाता है कि ;- जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति पुष्य नक्षत्र में स्थित होकर एक राशि पर एक साथ आएंगे उसी समय सतयुग का आरंभ हो जायगा ।। १०२ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! तुमसे मैंने यह समस्त वंशोंके भूत, भविष्य और वर्तमान सम्पूर्ण राजाओंका वर्णन कर दिया ॥ १०३ ॥
परीक्षित्के जन्मसे नन्दके अभिषेकतक एक हजार पांच सौ वर्ष का समय जानना चाहिए ॥१०४।। सप्तर्षियों में से जो [ पुलस्त्य और क्रतु ] दो नक्षत्र आकाशमें पहले दिखायी देते हैं, उनके बीच में रात्रि के समय जो[ दक्षिणोत्तर रेखा पर] समदेशमें स्थित [ अश्विनी आदि ] नक्षत्र हैं, उनमेंसे प्रत्येक नक्षत्र पर सप्तर्षिगण एक-एक सौ वर्ष रहते हैं । हे द्विजोत्तम ! परीक्षित के समय में वे सप्तर्षिगण मघा नक्षत्र पर थे। उसी समय बारह सौ वर्ष प्रमाण वाला कलियुग आरम्भ हुआ था ॥ १०५-१०७॥ हे द्विज ! जिस समय श्री विष्णु के अंशावतार एवं वासुदेव जी के वंशधर भगवान कृष्ण निजधामको पधारे थे उसी समय पृथ्वी पर कलयुग का आगमन हुआ था॥१०८॥
जबतक भगवान अपने चरणकमलोंसे इस पृथ्वी को स्पर्श करते रहे तबतक पृथिवी संसर्ग करने की कलयुग की हिम्मत न पड़ी ॥ १० ॥
सनातन पुरुष भगवान विष्णु के अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्र को स्वर्गलोक पधारने पर भाइयों के सहित धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिरने अपने राज्यको छोड़ दिया ।। ११० ॥ कृष्ण चन्द्र के अन्तर्धान हो जानेपर विपरीत लक्षणोंको देखकर पांडवों ने परीक्षित को राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया ॥ १११ । जिस समय ये सप्तर्षि गण पूर्वाषाढ़ानक्षत्र पर जायँगे उसी समय राजा नन्द के समय से कलयुग का प्रभाव बढ़ेगा ॥ ११२ ॥ जिस दिन भगवान कृष्ण चन्द्र परमधाम को गए थे उसी दिन कलयुग उपस्थित हो गया था। अब तो कलयुग का वर्ष-संख्या सुनो ॥ ११३ ॥
हे द्विज! मानवी वर्ण गणना के अनुसार कलियुग तीन लाख साठ हजार वर्ष रहेगा ॥ ११४॥ इसके पश्चात् बारह सौ दिव्य वर्ष बीतनेतक कृतयुग रहेगा॥ ११५॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! प्रत्येक युग में हजारों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र महात्मागण हो गये हैं ॥११६ ॥ उनके बहुत अधिक संख्या में होने से तथा समानता होने के कारण कुलोंमें पुनरुक्ति हो जानेके भय से मैंने उन सबके नाम नहीं बतलाये हैं ॥ ११७ ॥
पुरुवंशीय राजा देवापि तथा इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न राजा मरु-ये दोनों अत्यन्त योगबलसम्पन्न है और कलापग्राममें रहते हैं ॥ ११८॥ सतयुग का आरम्भ होनेपर ये पुनः मर्त्यलोक में आकर क्षत्रिय-कुलके प्रवर्तक होंगे। वे आगामी मनुवंशके बीजरूप हैं ॥ ११९॥ सत्ययुग, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगों में इसी क्रम से मनु पुत्र पृथ्वी का भोग करते हैं ॥ १२० ॥ फिर कलयुग में उन्हीं में से कोई-कोई आगामी मनु संतान के बीज रूप से स्थित रहते हैं जिस प्रकार कि आजकल देवापि और मरु हैं ।।१२१॥
इस प्रकार मैंने तुमसे सम्पूर्ण राजवंशोंका यह संक्षिप्त वर्णन कर दिया है, इनका पूर्णतया वर्णन तो सौ वर्ष में भी नहीं किया जा सकता ॥ १२२ ॥ इस हेय शरीरके मोहसे अन्धे हुए ये तथा और भी ऐसे अनेक भूपतिगण हो गये हैं जिन्होंने इस पृथ्वी मण्डलमें ममता की थी। १२३ ॥ 'यह पृथिवी किस प्रकार अचलभावसे मेरी, मेरे पुत्र की अथवा मेरे वंशकी होगी ! इसी चिन्तामें व्याकुल हुए इन सभी राजाओंका अन्त हो गया ॥ १२४ ।। इसी चिन्तामें डूबे रहकर इन सम्पूर्ण राजाओंके के पूर्व-पूर्ववर्ती राजा चले गये और इसीमें मग्न रहकर आगामी भूपतिगण भी मृत्यु-मुख में चले जायँगे ॥ १२५ ॥ इस प्रकार अपने को जीतने के लिये राजाओंको अथक उद्योग करते देखकर वसुन्धरा शरत्कालीन पुष्पोंके रूपमें मानो हँस रही है ॥ १२६ ।।
हे मैत्रेय ! अब तुम पृथ्वी के कहे हुए कुछ श्लोकों को सुनो। पूर्वकालमें इन्हें असित मुनिने धर्मध्वजी राजा जनक को सुनाया था । १२७ ।।
पृथ्वी कहती है ;- अहो ! बुद्धिमान् होते हुए भी इन राजाओंको यह कैसा मोह हो रहा है जिसके कारण ये बुलबुले के समान क्षणस्थायी होते हुए भी अपनी स्थिरतामें इतना विश्वास रखते हैं ।। १२८ ॥ ये लोग प्रथम अपने को जीतते हैं और फिर अपने मंत्रियों तथा इसके अनन्तर ये क्रमशः अपने भृत्य, पुरवासी एवं शत्रुओंको जीतना चाहते हैं ॥ १२९ ॥ 'इसी क्रमसे हम समुद्रपर्यन्त इस सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लेंगे, ऐसी बुद्धि से मोहित हुए ये लोग अपनी निकटवर्तिनी मृत्युको नहीं देखते ।। १३० ।। यदि समुद्र से घिरा हुआ यह सम्पूर्ण भूमण्डल अपने वशमें हो ही जाय तो भी मनोजयके सामने इसका मूल्य भी क्या है !क्योंकि मोक्ष तो मनोजयसे ही प्राप्त होता है॥ १३१ ॥ जिसे छोड़कर इनके पूर्वज चले गये तथा जिसे अपने साथ लेकर इनके पिता भी नहीं गये उसी मुझको अत्यन्त मूर्खता के कारण ये राजा लोग जीतना चाहते हैं | १३२ ।। जिनका चित्त ममतामय है उन पिता-पुत्र और भाइयोंमें अत्यन्त मोहके कारण मेरे ही लिये परस्पर कलह होता है ॥ १३३ ।।
जो-जो राजालोग यहाँ हो चुके हैं उन सभी की एसी कुबुद्धि रही है कि यह सम्पूर्ण पृथ्वी मेरी ही है , और मेरे पीछे भी यह मेरी सन्तानकी ही रहेगी ॥ १३४ ॥ इस प्रकार मेरे में ममता करनेवाले एक राजा को, मुझे छोड़कर मृत्युके मुखमें जाते हुए देखकर भी न जाने कैसे उसका उत्तराधिकारी अपने हृदय में मेरे लिये ममताको स्थान देता है ? ॥ १३५ । जो राजालोग दूतों के द्वारा अपने शत्रुओंसे इस प्रकार कहलाते हैं की यह पृथ्वी मेरी है, तुमलोग इसे तुरंत छोड़ चले जाओ' उनपर मुझे बड़ी हँसी आती है और फिर उन मूढ़ोंपर मुझे दया भी आ जाती है ।
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! पृथिवी हुए इन श्लोकों को जो पुरुष सुनेगा उसकी ममता इसी प्रकार लीन हो जायगी जैसे सूर्यके तपते बर्फ पिघल जाता है । १३७ ॥ इस प्रकार मैंने तुमसे भली प्रकार मनुके वंशका वर्णन कर दिया जिस वंशके राजागण स्थितिकारक भगवान् विष्णु के अंश-के-अंश थे । १३८ । जो पुरुष इस मनुवंशका क्रमशः श्रवण करता है उस शुद्धात्माके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है
॥ १३९ ॥ जो मनुष्य जितेन्द्रिय होकर सूर्य और चन्द्रमा के इन प्रशंसनीय वंशोंका सम्पूर्ण वर्णन सुनता है, वह अतुलित धन-धान्य और संपत्ति प्राप्त करता है ॥ १४० । महाबलवान महावीर्यंशाली अनन्त धन सन्चय करने वाले तथा परम निष्ठावान इक्ष्वाकु, जह्रु, मान्धाता, सगर, आविक्षित रघुवंशी राजागण तथा नहुष और ययाति आदि के चरित्रोंको सुनकर; जिन्हें कि कालने आज कथा मात्र ही शेष रखा है, प्रज्ञावान् मनुष्य पुत्र, स्त्री, गृह, क्षेत्र और धन आदिमें ममता न करेगा ।। १४१-१
जिन पुरुष श्रेष्ठोंने ऊर्ध्वबाहु होकर अनेक वर्षपर्यन्त कठिन तपस्या की थी तथा विविध प्रकर के यज्ञो का अनुष्ठान किया था, आज उन अति बलवान और वीर्यशाली राजाओंकी कालने केवल कथामात्र ही छोड़ दी है ॥ १४४ ॥ जो पृथु अपने शत्रुसमूह को जीतकर स्वच्छन्द-गति से समस्त लोकों विचरता था आज वही काल-बायुकी प्रेरणा से फेंके हुए सेमरकी रूईके ढेरके समान नष्ट-भ्रष्ट हो गया है ॥ १४५ ॥
जो कार्तवीर्य अपने शत्रु-मण्डलका संहारकर समस्त द्वीपोंको वशीभूतकर उन्हें भोगता था वही आज कथा-प्रसङ्गसे वर्णन करते समय उलटा संकल्प विकल्पका हेतु होता है [ अर्थात् इसका वर्णन करते समय यह संदेह होता है. कि वास्तव में वह हुआ था या नहीं।]॥ १४६। समस्त दिशाओं को देदीप्यमान करनेवाले रावण, मरुत्त और रघुवंशियोंके [ क्षणभंगुर ] ऐश्वर्यको धिक्कार है। अन्यथा काल के क्षणिक कटाक्षपात के कारण आज उसका भस्ममात्र भी क्यों नहीं बच सका ? ॥ १४७। जो मान्धाता सम्पूर्ण भूमण्डलका चक्रवर्ती सम्राट था आज उसका केवल कथा में ही पता चलता है। ऐसा कौन मन्दबुद्धि होगा जो यह सुनकर अपने शरीर में भी ममता करेगा ? [ फिर पृथिवी आदिमें ममता करनेकी तो बात ही क्या है ? ] ॥ १४८ ।। भगीरथ, सगर, ककुत्स्थ, रावण, रामचंद्र, लक्ष्मण और युधिष्ठिर आदि पहले हो गये हैं यह बात सर्वथा सत्य है, किसी प्रकार भी मिथ्या नहीं है, किन्तु अब वे कहाँ हैं इसका हमें पता नहीं ॥ १४९ ॥
हे विप्रवर! वर्तमान और भविष्य कालीन जिन जिन महावीर्यशाली राजाओंका मैंने वर्णन किया है ये तथा अन्य लोग भी पूर्वोक्त राजाओंकी भाँति कथा मात्र शेष रहेंगे ॥ १५० ॥ ऐसा जानकर पुत्र, पुत्री और क्षेत्र आदि तथा अन्य प्राणी तो अलग रहें, बुद्धिमान् मनुष्य को अपने शरीरमें भी ममता नहीं करनी चाहिये ॥ १५१ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे चतुर्विशोऽध्याय:"
।। इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति
विष्णु महापुराण चतुर्थो ऽशः समाप्तः ।।
!!सम्पूर्ण विष्णु पुराण का चतुर्थ अंश के कुल 24 अध्याय अब समाप्त हुए !!
(अब सम्पूर्ण विष्णु पुराण का पञ्चम अंश के 38 अध्याय सुरू होता है ।।)
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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