सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का सोलहवाँ से तेइसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का सोलहवाँ  से तेइसवाँ अध्याय}} {Sixteenth to thirteenth chapter of the entire Vishnu Purana (fourth part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                                "सोलहवाँ अध्याय"


"दुर्वसुके वंश का वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार मैंने तुमसे संक्षेपसे यदु के वंशका वर्णन किया ॥१॥ अब दुर्वसुके वंश का वर्णन सुनो ॥ २ ॥ दुर्वसुका पुत्र वह्नि था, वह्नि का भार्ग, भार्गका भानु भानुका त्रयीसानु, त्रयीसानुका करन्दम और करन्दमका पुत्र मरुत्त था॥ ३॥ मरुत्त निस्सन्तान था॥४॥ इसलिये उसने पुरुवंशी दुष्यंत को पुत्ररूपसे स्वीकार कर लिया ॥५॥ इस प्रकार ययाति के शाप से दुर्वसु. के वंशने पुरुवंशका ही आश्रय लिया ॥ ६ ॥

         "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे पोडशोऽध्यायः"

                   ------सत्रहवाँ अध्याय------

                        ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)
"द्रुह्य वंश"
श्री पराशर जी बोले ;- बोले-द्रुह्यका पुत्र बभ्रु था, बभ्रुका सेतु, सेतुका आरब्ध, आरब्धका गान्धार, गान्धार- का धर्म, धर्म का घृत घृत का दुर्दम, दुर्दमका प्रचेता तथा प्रचेताका पुत्र शतधर्म था । इसने उत्तरवर्ती बहुत-से म्लेच्छों का आधिपत्य किया ॥ १ ५ ॥॥

       "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे सप्तदशोऽध्यायः"


               -------अठारहवाँ अध्याय-------


                       ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)

   "अनुवंश"
श्री पराशर जी बोले ;- ययाति के चौथे पुत्र अनुके सभानल, चक्षु और परमेषु नामक तीन पुत्र थे। सभा नलका पुत्र कालानल हुआ तथा कालानल के सृञ्जय सृञ्जयके पुरञ्जय, पुरञ्जयके जनमेजय, जनमेजय के महाशाल, महाशाल के महामना और महामनाके उशीनर तथा तितिक्षु नामक दो पुत्र हुए ॥ १-८॥ उशीनरके शिबि, नृग, नर, कृमि और वर्म नामक पाँच पुत्र हुए॥ ९॥ उनमें से शिबिके पृषदर्भ सुवीर, केकय और मद्रक-ये चार पुत्र थे ॥ १० ॥ तितिक्षुका पुत्र रुशद्रथ हुआ। उसके हेम , हेमके सुतपा तथा सुतपाके बलि नामक पुत्र हुआ॥११ १२ ।। इस बलिके क्षेत्र ( रानी ) में दीर्घतमा नामक मुनिने अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सुह्य और पौण्डू नामक पाँच बालेय क्षत्रिय उत्पन्न किये ॥ १३ ॥ इन बलि पुत्रों की सन्तति को नामानुसार पाँच देशोंके भी ये ही नाम पड़े ॥ १४ ॥ इन में से अंग से अनपान, अनपान- से दिविरथ, दिविरथसे धर्मरथ और धर्मराज से चित्ररथका जन्म हुआ जिसका दूसरा नाम रोमपाद था। इस रोमपाद के मित्र दशरथ जी थे , अज के पुत्र दशरथ ने रोमपाद को सन्तानहीन देखकर उन्हें पुत्रीरूपसे अपनी शान्ता नामकी कन्या गोद दे दी थी ॥ १५-१८।।

रोमपादका पुत्र चतुरंग था। चतुरंगके पृथुलाक्ष तथा पृथुलाक्षके चम्प नामक पुत्र हुआ जिसने चम्पा नामकी पुरी बसायी थी ॥ १९-२० ॥ चम्पके हर्यङ्ग नामक पुत्र हुआ, हर्यङ्गसे भद्ररथ, भद्ररथसे बृहद्रथ, बृहद्रथसे बृहत्कर्मा, बृहत्कर्मासे बृह्द्धानु, बृह्द्धानु से बृहन्मना, बृहन्मना से जयद्रथका जन्म हुआ ॥२१ २२ ।। जयद्रथ की ब्राह्मण और क्षत्रिय के संसर्ग से उत्पन्न हुई पत्नी के गर्भ से विजय नामक पुत्र का जन्म हुआ ॥ २३ ॥ विजय के धृति नामक पुत्र हुआ, धृतिके धृतव्रत, धृतव्रतके सत्यकर्मा और सत्यकर्मासे अतिरथका जन्म हुआ जिसने कि [ स्नान के लिये ] गङ्गाजीमें जानेपर पिटारी में रखकर पृथाद्वारा बहाये हुए कर्ण के पुत्र रूप से पाया था। इस कर्ण का पुत्र वृषसेन था। बस, अङ्गवंश इतना ही है ॥ २४-२९ । इसके आगे पुरु वंश का वर्णन सुनो ॥ ३० ॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे अष्टादशोऽध्यायः"


              --------उन्नीसवाँ अध्याय--------


                      ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)
"पुरुवंश"
श्री पराशर जी बोले ;- पुरु के पुत्र जनमेजय था । जनमेजयका प्रचिन्वान्, प्रचिन्वान् का प्रवीर, प्रवीरका मनस्यु, मनस्युका अभयद, अभयदका सुधु, सुधुका बहुगत, बहुगतका संयाति, संयातिका अहंयाति तथा अहंयातिका पुत्र रौद्राश्व था ॥ १ ॥

रौद्राश्वके ऋतेषु, क्षेपु, स्थण्डिलेषु, कृतेषु, जलेषु, धर्मे, धृतेषु, स्थलेषु, सन्नतेपु और वनेषु नामक दश पुत्र थे॥२॥ ऋतेषुका पुत्र अन्तिनार हुआ तथा अन्तिनारके सुमति, अप्रतिरथ और ध्रुव नामक तीन पुत्रों ने जन्म लिया ॥ ३- ४ ॥ इनमेंसे अप्रतिरथका पुत्र कण्व और कण्व का मेधातिथि हुआ जिसकी सन्तान काण्वायन ब्राह्मण हुए ॥ ५ -७ ॥ अप्रतिरथका दूसरा पुत्र ऐलीन था ॥ ८ ॥ इस ऐलीनके दुष्यन्त आदि चार पुत्र हुए ॥९॥ दुष्यंत के यहाँ चक्रवर्ती सम्राट भरत का जन्म हुआ जिसके नाम के विषयमें देवगणने इस श्लोक का गान किया था-॥१०-११॥

माता तो केवल चमड़ेकी धौंकनीके समान है, पुत्र पर अधिकार तो पिता का ही है, पुत्र जिसके द्वारा जन्म ग्रहण करता है उसीका स्वरूप होता है । हे दुष्यन्त ! तुम इस पुत्र का पालन पोषण करो, शकुन्तला का अपमान मत करो। हे नरदेव ! अपने ही वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र अपने पिताको यमलोकसे [निकालकर स्वर्गलोक को] ले जाता है । 'इस पुत्रके आधान करनेवाले तुम्ही हो'-शकुन्तला ने यह बात ठीक ही कही है ॥ १२-१३ ॥

भारत के तीन पुत्रियाँ थीं जिनसे उनके नौ पुत्र हुए ॥ १४॥ भारत के यह कहनेपर कि, 'ये मेरे अनुरूप नहीं हैं, उनकी माताओं ने इस भयसे कि, राजा हमको त्याग न दें, उन पुत्रों को मार डाला ॥ १५ ॥ इस प्रकार पुत्र-जन्मके विफल हो जानेसे भरतने पुत्रकी कामनासे मरुत्सोम नामक यज्ञ किया। उस यज्ञ के अंत में मरुद्गगण ने उन्हें भरद्वाज नामक एक बालक पुत्र रूप से दिया जो उतथ्य पत्नी ममताके गर्भ में स्थित दीर्घतमा मुनिके के पाद -प्रहार से स्खलित हुए. बृहहस्पतिजी के वीर्यसे उत्पन्न हुआ था॥१६॥
 उसके नाम नामकरण के विषय में भी यह श्लोक कहा जाता है-॥ १७ ।। "पुत्रोत्पत्ति के अनन्तर बृहस्पतिने ममतासे कहा मूढ़े ! यह पुत्र द्वाज (हम दोनोसे उत्पन्न हुआ) है तू इसका भरण कर। तब ममताने भी कहा-है बृहस्पते ! यह पुत्र द्वाज (हम दोनों से उत्पन्न हुआ) है अतः तुम इसका भरण करो।' इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए उसके माता-पिता चले गये, इसलिये उसका नाम 'भारद्वाज पड़ा" ॥१८॥

पुत्र-जन्म वितथ (विफल) होनेपर मरुदुणने राजा

भरत को भरद्वाज दिया था, इसलिये उसका नाम "वितथ"

भी हुआ॥ १९॥ वितथ का पुत्र मन्यु हुआ और मन्युके बृहत्क्षत्र, महावीर्य, नर और गर्ग आदि कई पुत्र हुए ॥ २० २१ ॥ नरके पुत्र संस्कृति और संस्कृति के गुरुप्रीति एवं रन्तिदेव नामक दो पुत्र हुए ॥ २२ ॥। गर्ग से शिनिका जन्म हुआ जिससे कि गामर्य और शैन्य नामसे विख्यात क्षत्रोपेत ब्राह्मण उत्पन्न हुए ॥ २३ ॥ महावीर्यका पुत्र दुरुक्षय हुआ ॥ २४ ॥ उसके व्रय्यारुणि, पुष्करिण्य और कपि नामक तीन पुत्र हुए ॥ २५ ॥ ये तीनों पीछे पुत्र ब्राह्मण हो गये थे॥ २६ ॥ बृहत्क्षत्रका पुत्र सुहोत्र, सुहोत्र का पुत्र हस्ती था जिसने यह हस्तिनापुर नामक नगर बसाया था ॥ २७-२८॥

हस्तीके तीन पुत्र अजमीढ, द्विजमीढ और पुरुमीढ थे। अजमीढ के कण्व और कण्व के मेधातिथि नामक पुत्र हुआ जिससे कि काण्वायन ब्राह्मण उत्पन्न हुए ॥ २९-३२॥ अजमीढ का दूसरा पुत्र बृहदिषु था॥ ३३ ॥ उसके बृहद्धनु, बृहद्धनु के बृहत्कर्मा, बृहत्कर्मा के जयद्रथ, जयद्रथ के विश्वजित् तथा विश्वजित् के सेनजित् का जन्म हुआ। सेनजित् के रुचिराश्च, काश्य, दृढहनु और वत्सहनु नामक चार पुत्र हुए।। ३४३६ ॥

पार और पारके नीलका जन्म हुआ। इस नीलके सौ पुत्र थे, जिनमें काम्पिल्यनरेश समर प्रधान था ॥३७-४०॥ समरके पार, सुपार और सदस्य नामक तीन पुत्र थे॥ ४१॥ सुपारके पृथु, पृथु के सुकृति, सुकृति  के विभ्राज और विभ्राजके अणुह नामक पुत्र हुआ, जिसने शुककन्या कीर्तिसे विवाह किया था ।। ४२-४४ ॥ अणुहसे ब्रह्मदत्तका जन्म हुआ। ब्रह्मादत्तसे विष्वक्सेन, विष्वक्सेनसे से  उद्कसेन तथा उद्कसेन से भल्लाभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥ ४५-४७ ॥

द्विजमीढका पुत्र यवीनर था ।। ४८ ॥ उसका धृतिमान्, धृतिमान् का सत्यधृति, सत्यधृतिका दृढ नेमि, दृढनेमिका सुपार्श्व, सुपार्श्व का सुमति,सुमति का सन्नतिमान् तथा सन्नतिमान् का पुत्र कृत हुआ जिसे हिरण्यनामने योग विद्या की शिक्षा दी थी तथा जिसने प्राच्य सामग श्रुतियोंकी चौबीस संहिताएँ रची थीं ॥ ४९-५२ ।। कृतका पुत्र उग्रायुध था जिसने अनेकों नीपवंशीय क्षत्रियों का नाश किया ॥ ५३-५४ ॥ उग्रायुधके क्षेम्य, क्षेम्यके सुधीर, सुधीरके रिपुञ्जय और रिपुञ्जय से बहुरथ ने जन्म लिया । ये सब पुरु वंशीय राजागण हुए ॥ ५५ ॥

अजमीढकी नलिनी नाम्नी एक भार्या थी।

उसके नील नामक एक पुत्र हुआ ॥ ५६ ।। नीलके शान्ति, शान्तिके सुशान्ति,सुशान्तिके पुरञ्जय, पुरञ्जय के ऋक्ष और ऋक्षके हर्यश्व नामक पुत्र हुआ ॥ ५७- ५८ ॥ हर्यश्व के मुद्गल, सृंजय, बृहदिषु, यवीनर और काम्पिल्य नामक पाँच पुत्र हुए। पिता ने कहा था कि मेरे ये पुत्र मेरे आश्रित पाँचों देशोंकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं, इसलिये वे पांचाल कहलाये ॥ ५९ ।

मुद्गल से मौद्गल्य नामक क्षत्रोपेत ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई ॥६०॥ मुद्गलसे बृहदश्व और बृहदश्व से दिवोदास नामक पुत्र एवं अहल्या नामक एक कन्याका जन्म हुआ ॥ ६१-६२ । अहल्या से महर्षि गौतम के द्वारा शतानन्दका जन्म हुआ। ६३ ।। शतानन्द से धनुर्वेद का पारदर्शी सत्यधृति उत्पन्न हुआ ॥६४॥ एक बार अप्सरा में श्रेष्ठ उर्वशीको देखनेसे सत्यधृतिका वीर्य स्खलित होकर शरस्तम्ब (सरकण्डे) पर पड़ा ॥ ६५ ॥
उससे दो भागोंमें बँट जानेके कारण पुत्र और पुत्रीरूप दो सन्ताने उत्पन्न हुई ॥६६॥ उन्हें मृगयाके लिये गये हुए राजा शांतनु कृपावश ले आये ॥ ६७ ॥ तदनन्तर पुत्र का नाम कृप हुआ और कन्या अश्वत्थामा की माता द्रोणाचार्य की पत्नी कृपी हुई ॥ ६८ ॥

दिवोदासका पुत्र मित्रायु हुआ ॥ ६९ ॥ मित्रायुका पुत्र च्यवन नामक राजा हुआ, च्यवन का सुदास, सुदासका सौदास, सौदासका सहदेव, सहदेव का सोमक और सोमक के सौ पुत्र हुए, जिनमें जन्तु सबसे बड़ा और पृषत सबसे छोटा था । पृषतका पुत्र द्रुपद, द्रुपद का धृष्टद्युम्न और धृष्टद्युम्न का पुत्र धृष्टकेतु था ॥७०-७३ ॥

अजमीढका ऋक्ष नामक एक पुत्र और था ॥ ७४ ॥ उसका पुत्र संवरण हुआ था संवरण का पुत्र कुरु था जिससे कि धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र की स्थापना की ॥७५ ७७ ॥ कुरु के पुत्र सुधनु, जहु और परीक्षित् आदि हुए ॥ ७८ ॥ सुधनुका पुत्र सुहोत्र था, सुहोत्रका च्यवन, च्यवन का कृतक और कृतकका पुत्र उपरिचर वसु हुआ॥ ७९-८० ॥ वासुकी बृहद्रथ, प्रत्यग्र, कुशाम्बु, कुचेल और मात्स्य आदि सात पुत्र थे ॥ ८१ ॥ इनमें से बृहद्रथ के कुशाग्र, कुशाग्र का वृषभ, वृषभ के पुष्पवान्, पुष्पवान् के सत्यहित, सत्यहितके सुधन्वा और सुधन्वाके जतुका जन्म हुआ ॥ ८२ ॥ बृहद्रथ की दो खण्डों में विभक्त एक पुत्र और हुआ था जो कि जरा के द्वारा जोड़ दिये जानेपर जरासन्ध कहलाया ॥ ८३ ॥ उससे सहदेव का जन्म हुआ तथा सहदेव से सोमप और सोमपसे श्रुतिश्रवाकी उत्पत्ति हुई ॥ ८४ ॥ इस प्रकार मैंने तुमसे यह मागध भूपालों का वर्णन कर दिया है ॥ ८५ ॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे एकोनविंशोऽध्यायः"


                   --------बीसवाँ अध्याय--------

                  
                        ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)

"कुरु वंश का वर्णन"

श्री पराशर जी बोले ;- [ कुरु पुत्र ] परीक्षित के जनमेजय, श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेननामक चार पुत्र हुए, तथा जाह्नके सुरथ नामक एक पुत्र हुआ ॥ १-२ ॥ सुरथ की विदुरथ का जन्म हुआ । विदूरथके सार्वभौम, सार्वभौमके जयत्सेन, जयत्सेनके आराधित, आराधितके अयुतायु, अयुतायुके अक्रोधन, अक्रोधनके देवातिथि तथा देवातिथिके [ अजमीढके पुत्र ऋक्षसे भिन्न ] दूसरे ऋषि का जन्म हुआ ॥ ३-६ ॥ ऋक्षसे भीमसेन, भीमसेनसे दिलीप और दिलीपसे प्रतीप नामक पुत्र हुआ॥ ७-८॥

प्रतीप के देवापि, शान्तनु और बाह्रीक नामक तीन पुत्र हुए ॥ ९॥ इनमेंसे देवापि बाल्यावस्था में ही वनमें चला गया था अतः शान्तनु ही राजा हुआ ॥ १०-११ ।। उसके विषयमें पृथिवीतलपर यह श्लोक कहा जाता है ॥ १२ ॥

"[राजा शांतनु] जिसको-जिसको अपने हाथसे स्पर्श कर देते थे वे वृद्ध पुरुष भी युवावस्था प्राप्त कर लेते थे तथा उनके स्पर्श से सम्पूर्ण जीव अत्युत्तम शान्तिलाभ करते थे, इसलिये वे शान्तनु कहलाते थे"॥ १३ ॥

एक बार महाराज शांतनु के राज्य में बारह वर्ष तक वर्षा न हुई ॥ १४ ॥ उस समय सम्पूर्ण देशको नष्ट होता देखकर राजा ने ब्राह्मणों से पूछा,
'हमारे राज्य में वर्षा क्यों नहीं हुई ? इसमें मेरा क्या अपराध है ? ॥ १५॥ तब ब्राह्मणों ने उससे कहा-'यह राज्य तुम्हारे बड़े भाई का है किन्तु इसे तुम भोग रहे हो; इसीलिये तुम परिवेत्ता हो । उनके ऐसा कहने पर राजा शांतनु ने उनसे फिर पूछा, 'तो इस सम्बन्ध में मुझे अब क्या करना चाहिये ? ॥ १६-१८ ।॥

इसपर वे ब्राह्मण फिर बोले-जब तक तुम्हारा बड़ा भाई देवापि किसी प्रकार पतित न हो तबतक यह राज्य उसीके योग्य है ॥ १९-२० ॥
 अतः तुम इसे उसीको दे डालो, तुम्हारा इससे कोई प्रयोजन नहीं। ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर शांतनु के मन्त्री अश्मसारीने वेदवादके विरुद्ध बोलनेवाले तपस्वीयों को वन में नियुक्त किया॥ २१ । उन्होंने अतिशय सरलमति राजकुमार देवापि की बुद्धि वेदवादके विरुद्ध मार्गमें प्रवृत्त कर दिया ॥ २२ ।। उधर राजा शान्तनु ब्राह्मणों के कथनानुसार दुःख और शोक व्यक्त होकर ब्राह्मणों को आगे कर अपने बड़े भाईको राज्य देने के लिये वनमें गये॥ २३ ॥

वनमें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणगण परम विनीत राजकुमार देवापि के आश्रम पर उपस्थित हुए; और उससे 'ज्येष्ठ भ्राताको ही राज्य करना चाहिये'-इस अर्थ के समर्थक अनेक वेदानुकूल वाक्य कहने लगे ॥ २४-२५ ।। किन्तु उस समय देवापिने वेदवादके विरुद्ध नाना प्रकारकी युक्तियोंसे दूषित बातें की ।। २६ ।। तब उन ब्राह्मणों ने शान्तनु से कहा-॥२७॥ हे राजन् ! चलो, अब यहाँ अधिक आग्रह करने की आवश्यकता नहीं। अब अनावृष्टि का दोष शान्त हो गया। अनादिकालसे पूजित वेदवाक्योंमें दोष बतलानेके कारण देवापि पतित हो गया है ॥ २८ ॥ ज्येष्ठ भ्राताके पतित हो जानेसे अब तुम परिवेत्ता नहीं रहे । उनके ऐसा कहनेपर शान्तनु अपनी राजधानीको चले आये और राज्यशासन करने लगे ॥ २९ ॥ वेदवादके विरुद्ध वचन बोलनेके कारण

देवापि के पतित हो जाने से, बड़े भाई के रहते हुए भी सम्पूर्ण धान्योंकी उत्पत्तिके लिये पर्जन्यदेव ( मेघ) बरसने लगे ॥ ३० ॥ बाह्रीकके सोमदत्त नामक पुत्र हुआ तथा सोमदत्त के भूरि, भूरिश्रवा और शल्य नामक तीन पुत्र हुए ॥३१-३२॥ शान्तनुके गङ्गाजीसे अतिशय कीर्त्तिमान तथा सम्पूर्ण शास्त्रों का जाननेवाला भीष्म नामक पुत्र हुआ ॥ ३३ ॥ शांतनु ने सत्यवती से चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र और भी उत्पन्न किये ॥ ३४ ॥ उनमें से चित्राङ्गदको तो बाल्यावस्थामें ही चित्राङ्गद नामक गन्धर्व ने युद्ध में मार डाला ॥३५।।

विचित्रवीर्य का शिराजकी पुत्री अम्बिका और अम्बालिका से विवाह किया ॥ ३६ ॥ उनके उप भोगमें अत्यन्त व्यग्र रहनेके कारण वह यक्ष्मा के वशीभूत होकर [ अकालहीमें ] मर गया ।। ३७ ॥ तदनन्तर मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायन ने सत्यवती के नियुक्त करने से माता का वचन टालना उचित न जान विचित्रवीर्य की पत्नियों से धृतराष्ट्र और पाण्डु नामक दो पुत्र उत्पन्न किये और उनकी भेजी हुई दासीसे विदुर नामक एक पुत्र उत्पन्न किया ॥ ३८॥

धृतराष्ट्रने भी गांधारी दुर्योधन और दुःशासन आदि सौ पुत्रोंको जन्म दिया ॥ ३९ ॥ पाण्डु वनमें आखेट करते समय ऋषिके शापसे सन्तानोत्पादनमें असमर्थ हो गये थे अतः उनकी स्त्री कुंती धर्म, वायु और इंद्रने क्रमशः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक तीन पुत्र तथा माद्री से दोनों अश्विनीकुमारों ने नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न किये । इस प्रकार उनके पाँच पुत्र हुए ॥ ४० ॥ उन पाँचोंके द्रौपदी से पाँच ही पुत्र हुए ॥ ४१ ॥ उनमें से युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से ध्रुतसेन, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुलसे श्रुतानीक तथा सहदेवसे श्रुतकर्माका जन्म हुआ था॥ ४२ ॥

इनके अतिरिक्त पांडवों के और भी कई पुत्र हुए॥४३॥ जैसे-युधिष्ठिर से यौधेय के देवक नामक पुत्र हुआ, भीमसेन का हिडिंबा के घटोत्कच और काशीसे सर्वग नामक पुत्र हुआ, सहदेव से विजय के सुहोत्रका जन्म हुआ, नकुलने रेणुमतीसे निरमित्रको उत्पन्न किया ॥ ४४-४८॥ अर्जुनक़े नागकन्या उलूपी- से इरावान् नामक पुत्र हुआ ॥ ४९॥ मणिपुर नरेश की पुत्री से अर्जुन ने पुत्रिका-धर्मानुसार बभ्रुवाहन नामक एक पुत्र उत्पन्न किया ।। ५० ॥ तथा उसके सुभद्रासे अभिमन्यु का जन्म हुआ जो कि बाल्यावस्था में ही बड़ा बल-पराक्रम सम्पन्न तथा अपने सम्पूर्ण शत्रुओं को जीतनेवाला था ॥५१॥ तदनन्तर, कुरुकुल के क्षीण हो जानेपर जो अश्वत्थामा का प्रहार किये हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा गर्भ में ही भस्मीभूत हो चुका था, किन्तु  फिर जिन्होंने अपनी इच्छासे ही माया-मानव-देह धारण किया है उन सकल सुरासुरवन्दितचरणारविन्द श्रीकृष्णचन्द्र के प्रभावसे पुनः जीवित हो गया; उस परीक्षित ने अभिमन्यु के द्वारा उत्तरा के गर्भ से जन्म लिया जो कि इस समय इस प्रकार धर्मपूर्वक सम्पूर्ण भूमण्डलका शासन कर रहा है कि जिससे भविष्य में भी उसकी सम्पत्ति क्षीण न हो ॥ ५२-५३ ॥

           "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे विंशोऽध्यायः"


             ----------इक्कीसवाँ अध्याय---------


                        ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)

"भविष्य में होनेवाले राजाओंका वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- अब मैं भविष्य में होने वाले राजाओंका वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥ इस समय जो परीक्षित् नामक महाराज हैं इनके जनमेजय, श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन नामक चार पुत्र होंगे ॥२॥ जनमेजय का पुत्र शतानीक होगा जो याज्ञवल्क्य से वेदाध्ययनकर कृपसे शस्त्रविद्या प्राप्तकर विषम विषयोंसे विरक्तचित्त हो महर्षि शौनक के उपदेश से आत्मज्ञान में निपुण होकर परमनिर्वाण-पद प्राप्त करेगा ।। ३-४॥ शतानीकका पुत्र अश्वमेधदत्त होगा ।। ५॥ उसके अधिसीमकृष्ण तथा अधिसीम कृष्ण के निचक्नु नामक पुत्र होगा जो कि गंगा द्वारा हस्तिनापुर के बहा ले जानेपर कौशाम्बी पुरीमें निवास करेगा ॥ ६ ८ ॥

निचक्नुका पुत्र उष्ण होगा, उष्ण का विचित्ररथ, विचित्ररथका शुचिरथ, शुचिरथका वृष्णिमान् - वृष्णिमान् का सुषेण, सुषेणका सुनीथ, सुनीथका नृप, नृपका चक्षु, चक्षुका सुखावल, सुखावलका परिप्लव,  परिप्लवका सुनय, सुनयका मेधावी, मेधावी का रिपुञ्जय, रिपुञ्जयका  मृदु, मृदुका तिग्म, तिग्मका । बृहद्रथ, बृहद्रथ का , वसुदान,  वसुदानका दूसरा शतानीक, शतानीकका उदयन, उदयन अहीनर, अहीनरका दण्डपाणि, दण्डपाणि का
निरमित्र, निरमित्रका पुत्र क्षेमक होगा। इस विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है-॥९-१७ ।।

जो वंश ब्राह्मण और क्षत्रियों की उत्पत्ति कारणरूप तथा नाना राजर्षियों सभाजित है वह कलयुग में राजा क्षेमकके उत्पन्न होनेपर समाप्त हो जायगा' । १८ ।।

        "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे एकविंशोऽध्यायः"

                 ---------बाईसवाँ अध्याय-------


                        ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


"भविष्य मे होनेवाले इक्ष्वाकु वंशीय राजाओं का वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- अब मैं भविष्य में होने वाले इश्वाकु वंशीय राजाओं का वर्णन करता हूँ ॥ १॥ बृहद्वलका पुत्र वृहत्क्षण होगा, उसका उरुक्षय, उरुक्षयका वत्सव्यूह, वत्सव्यूहका प्रतिव्योम, प्रतिव्योमका दिवाकर, दिवाकर का सहदेव, सहदेव- का बृहदश्व, बृहदश्व का भानुरथ, भानुरथका प्रतीताश्व, प्रतीताश्वका सुुप्रतीक, सुुप्रतीक का मरुदेव, मरुदेवका सुनक्षत्र, सुनक्षत्रका किन्नर, किन्नर का अन्तरिक्ष, अन्तरिक्षका संपूर्ण, सुपर्णका अमित्रजित्, अमित्रजित् का बृहद्राज, बृहद्राजका धर्मी, धर्मीका कृतञ्जय, कृतञ्जयका रणञ्जय, रणञ्जयका सञ्जय, सञ्जयका शाक्य, शाक्यका शुद्धोदन, शुद्धोदनका राहुल, राहुल का प्रसेनजित् , प्रसेनजित् का क्षुद्रक, क्षुद्रकका कुण्डक, कुण्डकका सुरथ और सुरथ का सुमित्र नामक पुत्र होगा। ये सब इक्ष्वाकु के वंशज में बृहद्बल की सन्तान होंगे ॥ २-११ ॥

इस वंशके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है-॥१२॥ 'यह इक्ष्वाकु वंश राजा सुमित्र तक रहेगा, क्यों- कि कलयुग में राजा सुमित्रके होनेपर फिर यह ॥ समाप्त हो जायगा' ॥ १३ ॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थीऽशे द्वाविंशोऽध्यायः"

                ---------तेईसवाँ अध्याय----------

                        ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


"मगध वंश का वर्णन"
श्री पराशर जी बोले ;- अब मैं मगध देशीय बृहद्रथ की भावी सन्तान अनुक्रम से वर्णन करूँगा ॥१॥ इस वंशमें महाबलवान् और पराक्रमी जरासन्ध आदि राजागण प्रधान थे ॥ २ ॥

जरासंध के पुत्र सहदेव है ॥३॥ सहदेव के सोमापि नामक पुत्र होगा, सोमापिके श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवाके अयुतायु, अयुतायुके निरमित्र, निरमित्रके सुनेत्र, सुनेत्रके बृहत्कर्मा, बृहत्कर्माके सेनजित्, सेनजित् के श्रुतञ्जय, श्रुतञ्जयके विप्र तथा विप्र के शुचि नामक एक पुत्र होगा, । ४-५॥ शुचि का क्षेम्य, क्षेम्यके सुव्रत, सुव्रत के धर्म, धर्म के सुश्रवा, सुश्रवा के दृढ़सेन, दृढ़सेन के सुबल, सुबल के सुनीत, सुनीत के सत्यजित्, सत्यजित् के विश्वजित् और विश्वजीत के रिपुंजय का जन्म होगा ॥ ६- १२ ॥ इस प्रकारसे बृहद्रथ वंश राजा गण एक सहस्र वर्षपर्यन्त मगध में शासन करेंगे॥ १३ ॥

           "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे त्रयोविंशोऽध्यायः"

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