{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का चौदहवाँ व पंद्रहवाँ अध्याय}} {Fourteenth and fifteenth chapters of the entire Vishnu Purana (fourth part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(चतुर्थ अंश)
"चौदहवाँ अध्याय"
"अनमित्र और अंधक वंश का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;- अनमित्रके शिनि नामक पुत्र हुआ; शिनिके सत्यक और सत्य कैसे सात्यकि जन्म हुआ जिसका दूसरा नाम युयुधान था ।॥ १-२॥॥ तदनन्तर सात्यकि के सञ्जय, सञ्जयके कृषि और कुणिसे युगन्धरका जन्म हुआ। ये सब शैनेय नाम- से विख्यात हुए ३ -४ ॥
अनमित्रके वंशमें ही पृश्निका जन्म हुआ और पृश्निसे श्वफल्ककी उत्पत्ति हुई जिनका प्रभाव पहले वर्णन कर चुके हैं। श्वफल्कका चित्रक नामक एक छोटा भाई और था ।। ५-६ ॥ शेल्के बन्दिनी अक्रूर का जन्म हुआ॥७॥ तथा [एक दूसरी स्त्री से] उपमद्गु, सृसृ, विश्वारि, मेजय, गिरिक्षत्र, उपक्षत्र, शतघ्र, अरिमर्दन, धार्मिक, दृष्टि धर्म, गन्धम, वाह और प्रतिवाह नामक पुन्न तथा सुतारानाम्नी कन्या का जन्म हुआ ॥ ८-९ ॥
देवी और उपदेव ये दो अक्रूर के पुत्र थे॥१०॥ तथा चित्रकला पृथु, पृथु आदि अनेक पुत्र थे ।। ११ ॥
कुकुर, भजमान, शुचिकम्बल और बर्हिषि ये चार अन्धकके पुत्र हुए ॥ १२ ॥ इनमें से कुकुर से धृष्ट, धृष्ट कपोतरोमा, कपोतरोमासे विलोमा तथा विलोमासे तुम्बुरुके मित्र अनुका जन्म हुआ ॥ १३ ॥ अनुसे आनक दुन्दुभि, उससे अभिजित् , अभिजित्से पुनर्वसु और पुनर्वसुसे आहुक नामक पुत्र और आहुकी नाम्नी कन्याका जन्म हुआ॥१४-१५॥ आहुकके देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए॥१६॥ उनमें से देवकी देववान् उपदेश, सहदेव और देवरक्षित नामक चार पुत्र हुए ॥१७॥ इन चारोंकी रामदेव, उपदेवा, देवरक्षिता, श्रीदेवा, शान्तिदेवा, सहदेवा और देवकी ये सात भगिनियाँ थीं ॥ १८ ॥ ये सब वसुदेव का विवाह गई थी ॥१९॥ उग्र सेन के भी कंस, न्यग्रोध, सुनाम, आनकाह, शङ्कु, सुभूमि, राष्ट्रपति, युद्धतुष्टि और सुतुष्टिमान् नामक पुत्र तथा,कथा, कलावती, तनु और राष्ट्रपालिका नाम की कन्या हुई ॥ २०-२१ ॥
भजमानका पुत्र विदूरथ हुआ, विदूरथके शूर, सुर्के शमी, शमीके प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्रके स्वयंभोज, स्वयं भोजन के हृदिक तथा हृदिकके कृतवर्मा, शतधन्वा, देवाह और देवगर्भ आदि पुत्र हुए । देवगर्भके पुत्र शूरसेन थे ॥ २२-२५ ॥ शूरसेन की मनीषा नाम की पत्नी थी। उससे उन्होंने वसुदेव आदि दश पुत्र उत्पन्न किये ॥ २६-२७॥ वासुदेव के जन्म लेते ही देवताओं ने अपनी अव्याहत दृष्टि से यह देखकर कि इनके घर में भगवान अंशावतार लेंगे, आनक और दुन्दुभि आदि बाजे बजाये थे ।।२८। इसीलिये इनका नाम आना दुन्दुभि भी हुआ ॥ २९ ॥ इनके देव भाग, देवश्रवा, अष्टक, ककुच्चक्र, वत्सधारक, सृञ्जय, श्याम, शमिक और गण्डूष नामक नौ भाई थे॥ ३० ॥ तथा इन वसुदेव आदि दश भाइयोंकी पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी ये पाँच बहिनें थीं ॥ ३१ ॥
शूरसेन कुन्ति नामक एक मित्र थे ॥ ३२ ॥ वे निःसन्तान थे अतः शूरसेनने दत्तक-विधिसे उन्हें अपनी पृथा नामकी कन्या दे दी थी ।। ३३ ॥ उसका राजा पाण्डु के साथ विवाह हुआ॥३४॥ उसके धर्म, वायु और इंद्र के द्वारा क्रमशः युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन नामक तीन पुत्र हुए ॥ ३५ ॥ इनके पहले इसके अविवाहित अवस्था में है भगवान सूर्य के द्वारा कर्ण नामक एक काम नक्की पुत्र और हुआ था॥ ३६ । इसकी माद्री नामकी एक पत्नी थी॥ ३७ ॥ उसके अश्विनी कुमार द्वारा नकुल और सहदेव नामक पाण्डु के दो पुत्र हुए ॥ ३८ ।॥
शूरसेन की दूसरी कन्या श्रुतदेवाका कारूष-नरेश वृद्धधर्मासे विवाह हुआ था ॥ ३९ ॥ उससे दन्तवक्र नामक महादैत्य उत्पन्न हुआ॥४०॥ श्रुतकीर्तिको केकयराजने विवाहा था॥४१॥ उससे कैकई-नरेश के सन्तर्दन आदि पाँच पुत्र हुए॥ ४२ ॥ राजाधि देवीसे अवन्तिदेशीय विन्द और अनु विन्द का जन्म हुआ ॥ ४३ । श्रुतश्रवाका भी चेदिराज दमघोषने पाणिग्रहण किया ॥ ४४ ॥ उससे शिशुपाल का जन्म हुआ ॥ ४५ ॥ पूर्वजन्ममें यह अतिशय पराक्रमी हिरण्यकशिपु नामक दैत्यों का मूल पुरुष हुआथा जिसे सकल लोकगुरु भगवान नरसिंह ने मारा था ॥ ४६ ४७ ।॥ तदनन्तर यह अक्षय वीरय, शौर्य, सम्पति और पराक्रम आदि गुणोंसे सम्पन्न तथा समस्त त्रिभुवन के स्वामी इंद्र के भी प्रभावको दबानेवाला दशानन हुआ ॥४८॥स्वयं भगवान के हाथ से ही मारे जानेके पुण्यसे प्राप्त हुए नानाभोगो को वह बहुत समयतक भोगते हुए अन्तमें राघवरूपधारी भगवान केहि द्वारा मारा गया । ४९ ॥ इसके पीछे यह चेदिराज दमघोषका पुत्र शिशुपाल हुआ ॥५०॥
शिशुपाल होनेपर भी वह भी शिशुपाल होने पर भी वह भू-भार-हरणके लिये अवतीर्ण हुए भगवदंश स्वरूप भगवान पुण्डरीकाक्ष में अत्यन्त द्वेष-बुद्धि करने लगा॥५१॥ अंत में भगवान के हाथसे ही मारे जाने पर उन परमात्मा में ही मन लगे रहने के कारण सायुज्य-मोक्ष प्राप्त किया॥५२॥ भगवान यदि प्रसन्न होते हैं तब जिस प्रकार यथेच्छ फल देते हैं , उसी प्रकार अप्रसन्न होकर मारने पर भी वे अनुपम दिव्यलोक की प्राप्ति कराते हैं ।। ५३ ॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे चतुर्दशोऽध्यायः"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(चतुर्थ अंश)
"पंद्रहवाँ अध्याय"
"शिशुपाल के पूर्व-जन्मान्तर का तथा वसुदेव की सन्तति का वर्णन"
श्री मैत्रेय जी बोले ;- भगवन्! पूर्व जन्म में हिरण्य- कशिपु और रावण होनेपर इस शिशुपाल ने भगवान विष्णु के द्वारा मारे जानेसे देव-दुर्लभ भोगोंको तो प्राप्त किया, किन्तु यह उन (श्रीहरिमें ) लीन नहीं हुआ; फिर इस जन्ममें ही उनके द्वारा मारे जानेपर इसने सनातन पुरुष श्रीहरिमें सायुज्य-मोक्ष कैसे प्राप्त किया?॥१-२॥ हे समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ मुनिवर! यह बात सुननेकी मुझे बड़ी ही इच्छा है । अत्यन्त कुतूहलवश होकर आपसे यह प्रश्न किया है, कृपया इसका निरूपण कीजिये ॥३॥
श्री पराशर जी बोले ;- प्रथम जन्म में दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध करने के लिये सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति, स्थिति और नाश करने वाले भगवान ने शरीर ग्रहण करते समय नृसिंह रूप प्रकट किया था॥४॥ उस समय हिरण्यकश्यप चित्तमैं यह भाव नहीं हुआ था कि ये विष्णु भगवान है ॥ ५ ॥ केवल इतना ही विचार हुआ कि यह कोई निरतिशय पुण्य-समूहसे उत्पन्न हुआ प्राणी है ॥ ६॥ रजोगुणी उत्कर्ष प्रेरित हो उसकी मति [ उस विपरीत भावनाके अनुसार दृढ़ हो गयी। अतः उसके भीतर ईश्वरीय भावनाका योग न होनेसे भगवान के द्वारा मारे जाने के कारण ही रावण का जन्म लेनेपर उसने सम्पूर्ण त्रिलोकी में सर्वाधिक भोग संपत्ति प्राप्त की ॥
उन अनादि-निधन, परब्रह्मस्वरूप, निराधार भगवान में चित्त न लगानेके कारण वह उन्हीं में लीन नहीं हुआ॥८॥
इसी प्रकार रावण होनेपर भी कामवश जानकीजी में चित्त लग जानेसे भगवान दशरथनन्दन रामके द्वारा मारे जानेपर केवल उनके रूपका ही देन हुआ था; 'ये अच्युत हैं ऐसी शक्ति नहीं हुई, बल्कि मरते समय इसके अन्तःकरण में केवल मनुष्य बुद्धि ही रही ॥ ९॥
फिर श्री अच्युत के द्वारा मारे जानेके फलस्वरूप इसने सम्पूर्ण भूमण्डलमें प्रशंसित चेदिराजके कुलमें शिशुपाल रूप से जन्म लेकर भी अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त कया।॥१०॥ उस जन्ममें वह भगवान के प्रत्येक नियम- मैं तुच्छताकी भावना करने लगा॥११।। उसका हृदय अनेक जन्म के द्वेषाने बन्ध युक्त था, अतः वह उनकी निन्दा और तिरस्कार आदि करते हुए भगवान के सम्पूर्ण समयानुसार लीलाकृत नामोंका निरन्तर उच्चा रण करताथा ॥१२॥ खिले हुए कमलदलके समान जिसकी निर्मल आँखें हैं, जो उज्ज्वल पीताम्बर तथा 'निर्मल किरीट, केयूर, हार और कटकादि धारण किये हुए है तथा जिसकी लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं और जो शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए है, भगवान का वह दिव्य रूप अत्यन्त वैरानु बन्धके कारण भ्रमण, भोजन, स्नान, आसन और शयन आदि सम्पूर्ण अवस्थाओं में कभी उसके चित्तसे दूर न होता था ॥ १३ ॥ फिर गाली देते समय उन्हींका नामोच्चारण करते हुए और हृदयमें भी उन्हींका ध्यान करते हुए जिस समय वह अपने वधके लिये हाथमें धारण किये चक्र के उज्ज्वल किरण जालसे सुशोभित, अक्षय तेजस्वरूप, द्वेषादि सम्पूर्ण दोषोंसे रहित, ब्रह्मभूत भगवान को देख रहा था ॥ १४।। उसी समय तुरंत भगवा चक्र से मारा गया; भगवद् स्मरण के कारण सम्पूर्ण पापराशिके दग्ध हो जानेसे भगवान के द्वारा उसका अन्त हुआ और वह उन्हीं में लीन हो गया॥ १५॥ इस प्रकार इस सम्पूर्ण रहस्यका मैंने तुमसे वर्णन किया ॥ १६ ॥ अहो ! ये भगवान तो द्वेषानुबन्धके कारण भी कीर्तन और स्मरण करने से सम्पूर्ण देवता और असुरों को दुर्लभ परमफल देते हैं, फिर सम्यक् भक्ति-सम्पन्न पुरुषों की तो बात ही क्या है ? ॥ १७ ॥
आनक दुन्दुभि वसुदेव के पूर्व, रोहिणी, मदिरा, भद्रा और देवकी आदि बहुत-सी स्त्रियाँ थीं ॥ १८ ॥ उसमें रोहित ने वसुदेव जीने बलभद्र, शठ, सारण और मंद आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ १९ ॥ तथा बलभद्रजीके रेवतीसे विशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए ॥ २० ॥ साष्टि, पुष्टिं, शिशु, सत्य और धृति आदि सारणके पुत्र थे ॥ २१ ॥ इनके अतिरिक्त भद्राश्व, भद्रबाहु, दुर्दम और भूत आदि भी रोहिणी हीकी सन्तानमें थे ॥ २२ ॥ नन्द, उपनन्द और कृतक आदि मदिराके तथा उपनिधि और गद आदि भद्राके पुत्र थे ॥ २३-२४ ॥ वैशालीके गर्भसे कौशिक नामक केवल एक ही पुत्र हुआ ॥ २५॥
आनक दुन्दुभि के देवकी से कीर्तिमान् सुषेण, उदायु, भद्रसेन, ऋजुदास तथा भद्रदेव नामक छः पुत्र हुए ॥ २६ ॥ इन सबको कंसने मार डाला था ॥ २७ ॥ पीछे भगवान की प्रेरणा से योगमाया ने देवकी के सातवें गर्भको आधी रात के समय खींचकर रोहिणीकी कुक्षिमें स्थापित कर दिया॥ २८॥ आकर्षण करनेसे इस गर्भका नाम संक्रमण हुआ॥ २९ ॥ तदनन्तर सम्पूर्ण संसाररूप महावृक्षके मूलस्वरूप, भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालीन सम्पूर्ण देव, असुर और मुनिजनकी बुद्धिके अगम्य तथा ब्रह्मा और अग्नि आदि देवताओं द्वारा प्रणाम करके भूभार हरण के लिये प्रसन्न किये गये आदि, मध्य और अंत हीन भगवान वासुदेव ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया तथा उन्हींकी कृपासे बढ़ी हुई महिमावाली योग निद्रा भी नन्दगोपकी पत्नी यशोदाके गर्भ में स्थित हुई ॥ ३० ३१॥ उन कमलनयन भगवान के प्रकट होनेपर यह सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न हुए सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों से सम्पन्न, सर्प आदि के भय से शून्य, अधर्मादिसे रहित तथा स्वस्थचित्त हो गया ३२॥ उन्होंने प्रकट होकर इस सम्पूर्ण संसारको सन्मार्गावलम्बी कर दिया ॥३३॥
इस मृत्युलोक में अवतीर्ण हुए भगवान की सोलह हजार एक सौ एक रानियाँ थीं ॥ ३४ ॥ उनमें रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती और चादुहासिनी आदि आठ मुख्य थीं ॥ ३५ ।। अनादि भगवान अखिल मूर्ति ने उनसे एक लाख अस्सी हजार पुत्र उत्पन्न किये ॥ ३६ ॥ इनमें से प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और साम्ब आदि तेरह पुत्र प्रधान थे ॥ ३७ ॥ प्रद्युम्न ने भी रुक्मी की पुत्री रुक्मवतीसे विवाह किया था ॥३८॥ उससे अनिरुद्ध का जन्म हुआ ॥ ३ ॥ आणि- रुद्धने भी रुक्मी की पुत्री सुभद्रा से विवाह किया था ॥ ४० ॥ उससे वज्र उत्पन्न हुआ ।। ४१ ।। वज्र का पुत्र प्रतिबाहु तथा प्रतिबाहुका सुचारु था ।। ४२ ॥ इस प्रकार सैकड़ों हजार पुरुषों की संख्या वाले यदुकुल की संतानों की गणना सौ वर्ष में भी नहीं की जा सकती ॥ ४३ ॥ क्योंकि इस विषयमें ये दो श्लोक चरितार्थ हैं-- ॥ ४४॥
जो गृह कार्य यादव कुमार को धनुर्विद्या की शिक्षा देने में तत्पर रहते थे उनकी संख्या तीन करोड़ अट्ठासी लाख थी, फिर उन महात्मा यादव की गणना तो कर ही कौन सकता है ? जहाँ लाखों-करोड़ों के साथ सर्वदा यदुराज उग्रसेन रहते थे ।। ४५-४६ ।।
देवासुर-संग्राममें जो महाबली दैत्य गण मारे गये थे वे मनुष्यलोकमें उपद्रव करनेवाले राजालोग होकर उत्पन्न हुए ॥ ४७॥ उनका नाश करनेके लिये देवताओ ने यदुवंशी जन्म लिया जिसमें कि एक सौ एक कुल तथा ।। ४८ ॥ उनके नियन्त्रण और स्वामित्वपर भगवान विष्णु ही अधिष्ठित हुए, और वे समस्त यादवगण उन्हींकी आज्ञानुसार वृद्धिको प्राप्त हुए । ४९ ॥ इस प्रकार जो पुरुष इस वृष्णिवंशी की उत्पत्तिके विवरणको सुनता है वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर विष्णु लोक को प्राप्त कर लेता है । ५०।
"इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे पञ्चदशोध्यायः"
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