सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का  अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय}} {Eighteenth, nineteenth and twentieth chapters of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


                               "अठारहवाँ अध्याय"

"भगवान का मथुरा प्रस्थान, गोपियों की विरह कथा और अक्रूरजी का मोह"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! यदुवंशी अक्रूर- जीने इस प्रकार चिन्तन करते श्री गोविंद के पास पहुँचकर उनके चरणोंमें शिर झुकाते हुए 'मैं अक्रूर हूँ ऐसा कहकर प्रणाम किया ॥ १ ॥ भगवान ने भी अपने ध्वजा-वजृ-पद्माक्ङित करकमलों से उन्हें स्पर्शकर और प्रीतिपूर्वक अपनी ओर खींच कर गाढ़ आलिंगन किया॥ २ ॥ तदनन्तर अक्रूर- जीके यथायोग्य प्रणामादि कर चुकने पर श्री बलराम जी और कृष्ण चन्द्र अति आनन्दित हो उन्हें साथ लेकर अपने घर आये ॥ ३ ॥ फिर उनके द्वारा सत्कृत होकर यथायोग्य भोजनादि कर चुकने पर अक्रुर ने उनसे वह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहना आरम्भ किया जैसे कि दुरात्मा दानव कंसने आनकदुन्दुभि वसुदेव और देवी देवकीको डाँटा था तथा जिस प्रकार वह दुरात्मा अपने पिता उग्रसेन से दुर्व्यवहार कर रहा है और जिसलिये उसने उन्हें ( अक्रूर जी को) वृन्दा वन भेजा है ॥ ४ - ६ ॥

भगवान देवकीनंदन ने यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनकर कहा-“हे दानपते ! ये सब बातें मुझे मालूम हो गयी ॥ ७॥ हे महाभाग ! इस विषयमें मुझे जो उपयुक्त जान पड़ेगा वही करूँगा। अब तुम कंस को मेरे द्वारा मरा हुआ ही समझो। इसमें किसी और तरहका विचार न करो ॥८ ॥ भैया बलराम और मैं दोनों ही कल तुम्हारे साथ मथुरा चलेंगे, हमारे साथ ही दूसरे बड़े-बूढ़े गोप भी बहुत-सा उपहार लेकर जायँगे ॥ ९॥ हे वीर ! आप यह रात्रि सुखपूर्वक बिताइये, किसी प्रकार की चिन्ता न कीजिये । तीन रात्रिके भीतर मैं कंसको उसके अनुचरोंसहित अवश्य मार डालूंगा" ॥१०॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर अक्रूरजी, श्री कृष्णचन्द्र और बलराम जी सम्पूर्ण गोपियों को कंस की आज्ञा सुना नन्दगोपके घर सो गये ॥ ११ ॥

दूसरे दिन निर्मल प्रभातकाल होते ही महातेजस्वी राम और कृष्ण को अक्रूर के साथ मथुरा चलने की तैयारी करते देख जिनकी भुजाओं के कंकण ढोले हो गये हैं वे गोपियाँ नेत्रों में आँसू भरकर तथा दुःखात्त होकर दीर्घ निःश्वास छोड़ती हुई परस्पर कहने लगी-॥ १२-१३ ॥ "अब मथुरापुरी जाकर श्री। कृष्ण चन्द्र फिर गोकुल में क्यों आने लगें ? क्योंकि वहां तो ये अपने कानोंसे नगर नारियों के मधुर आलापरूप मधुका ही पान करेंगे ॥ १४ ॥ नगरकी [ विद्ग्ध ] वनिताओं के विलासयुक्त वचनों के रस पानमें आसक्त होकर फिर इनका चित्त गाँवारी गोपियोंकी ओर क्यों जाने लगा ? ।। १५ ।। आज निर्दयी दुरात्मा विधाताने समस्त ब्रज के सारभूत ( सर्वस्वस्वरूप ) श्रीहरिको हरकर हम गोपनारियों पर घोर आघात किया है ॥ १६ ।। नगरकी नारियों में भावपूर्ण मुसकानमयी बोली, विलास ललित गति और कटाक्षपूर्ण चितवनकी स्वभावसे ही अधिकता होती है। उनके विलास-बन्धनोंसे बँधकर यह ग्राम्यं हरि फिर किस युक्तिसे तुम्हारे [ हमारे ] पास आवेगा ?॥ १७-१८।। देखो, देखो, क्रूर एवं निर्दयी अक्रूर के बहकावे में आकर ये कृष्णचन्द्र रथ पर चढ़े हुए मथुरा जा रहे है ॥ १९ । यह नृशंस अक्रूर क्या अनुरागीजनोंके हृदय का भाव तनिक भी नहीं जानता ? जो यह इस प्रकार हमारे नयनानन्दवर्ध नन्दनन्दनको अन्यत्र लिये जाता है ॥ २० ॥ देखो , यह अत्यन्त निठुर गोविन्द राम के साथ रथपर चढ़कर जा रहे हैं; अरी ! इन्हें रोकने के शीघ्रता करो ॥ २१ ॥

[ इसपर गुरुजनोंके सामने ऐसा करने में असमर्थता प्रकट करनेवाली किसी गोपी का लक्ष्य करके उसने फिर कहा-]"अरी ! तू क्या कह रही है कि अपने गुरुजनोंके सामने हम ऐसा नहीं कह सकतीं ?' भला अब विरहाग्निसे भस्मीभूत हुई हमलोगोंका गुरुजन क्या करेंगे ? ॥ २२ ॥ देखो; यह नन्दगोप आदि गोपी भी उन्हींके साथ जाने की तैयारी कर रहे हैं। इनमें से भी कोई गोविन्दको लौटाने का प्रयत्न नहीं करता । २३ ॥ आज की रात्रि मथुरा वासिनी स्त्रियों के लिये सुन्दर प्रभातवाली हुई हैं, क्योंकि आज उनके नयन-भृङ्ग श्री अच्युत के मुखारविंद का मकरन्द-पान करेंगे ॥२४ ।।

जो लोग इधरसे बिना रोक-टोक श्रीकृष्णचन्द्रका अनुगमन कर रहे हैं वे धन्य हैं, क्योंकि वे उनका दर्शन करते हुए अपने रोमाञ्चयुक्त शरीरका वहन करेंगे ॥ २५ ॥ आज श्री गोविंद के अंग-प्रत्यंगों को देखकर मथुरा वासियों के नेत्रों को अत्यन्त महोत्सव होगा ॥ २६ ॥ आज न जाने उन भाग्यशालिनियों ने ऐसा कौन शुभ स्वप्न देखा है जो वे कान्तिमय विशाल नयनोंवाली (मथुरापुरीकी स्त्रियां) स्वच्छन्दता पूर्वक श्रीअधोक्षजको निहारेंगी ? ॥ २७ ॥ अहो ! निष्ठुर विधाताने ने गोपियों को महानिधि दिखलाकर आज उनके नेत्र निकाल लिये ॥ २८ ॥ देखो, हमारे प्रति श्रीहरिके अनुरागमें शिथिलता आ जानेसे हमारे हाथोंके कंकण भी तुरन्त ही ढीले पड़ गये हैं ॥ २९ ।। भला, हम-जैसी दुःखिनी अबलाओं पर किसे दया न आवेगी ? परन्तु देखो, यह क्रूर-हृदय अक्रूर तो बड़ी शीघ्रता से घोड़ों को हाँक रहा है ! ॥ ३० ॥ देखो, यह कृष्णचन्द्र के रथ की धूलि दिखायी दे रही है; किन्तु हा ! अब तो श्रीहरि इतनी दूर चले गये कि वह धूलि भी नहीं दीखती" ॥ ३१ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार गोपियों के अति अनुरागसहित देखते-देखते श्रीकृष्णचन्द्रने बलराम जीके सहित व्रजभूमि को त्याग दिया ॥ ३२ ॥ तब वे राम, कृष्ण और अक्रूर शीघ्रगामी घोड़ोंं वाले रथसे चलते-चलते मध्याह्नके समय यमुना तट पर आ गये ॥ ३३ ॥ वहाँ पहुँचनेपर अक्रूरने श्रीकृष्ण चन्द्र से कहा-"जब तक मैं जमुना जल में मध्याह्न कालीन उपासनासे निवृत होऊँ तबतक आप दोनों यहीं विराजे" ॥ ३४ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे विप्र ! तब भगवान के 'बहुत अच्छा' कहनेपर महामति अक्रूरजी यमुना- जल में घुसकर स्नान और आचमन आदिके अनन्तर परब्रह्म का ध्यान करने लगे॥३५॥ उस समय उन्होंने देखा कि बलभद्र सहस्रफणावलि से सुशोभित हैं, उनका शरीर कुन्दमालाओं के समान [शुभ्रर्वर्ण] है तथा नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल हैं ॥ ३६ ॥

वे वासुकि और रम्भ आदि महासर्पों से घिरकर उनसे प्रशंसित हो रहे हैं तथा अत्यन्त सुगन्धित वरमाला से विभूषित हैं । ३७ || वे दो श्याम वस्त्र धारण किये, कमलों के बने हुए सुन्दर आभूषण पहने तथा मनोहर कुण्डली ( गँडुली ) मारे जलके भीतर विराजमान हैं ॥ ३८ ।

उनकी गोदमें उन्होंने आनन्दमय कुलभूषण श्रीकृष्णचन्द्र को देखा, जो मेघके समान श्याम वर्ण, कुछ लाल-लाल विशाल नयनोंवाले, चतुर्भुज, मनोहर अंगोपांगोंवाले तथा शंख-चक्रादि आयुधोंसे सुशो भित हैं, जो पीताम्बर पहने हुए हैं और विचित्र वनमालासे विभूषित हैं , तथा [ उनके कारण ] इन्द्र- धनुष और विद्युन्मालामण्डित सजल मेघ के समान जान पड़ते हैं तथा जिनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्सचिह्न और कानों में देदीप्यमान मकराकृत कुण्डल विराज मान है ॥ ३९-४१। [ अक्रूर जी ने यह भी देखा कि] सनकादि मुनिजन और निष्पाप सिद्ध तथा योगिजन उस जलमें ही स्थित होकर नासिकाग्र दृष्टि से उन (श्रीकृष्णचन्द्र ) का ही चिन्तन कर रहे हैं ॥ ४२ ॥

इस प्रकार वहाँ राम और कृष्ण को पहचान कर अक्रूरजी बड़े ही विस्मित हुए और सोचने लगे कि ये यहाँ इतनी शीघ्रतासे रथसे कैसे आ गये ? ॥४३॥ जब उन्होंने कुछ कहना चाहा तो भगवान ने उनकी वाणी रोक दी। तब वे जलसे निकलकर रथ के पास आये और देखा कि वहाँ भी राम और कृष्ण दोनों ही मनुष्य-शरीर से पूर्ववत् रथपर बैठे हुए हैं ।। ४४ ४५॥ तदनन्तर उन्होंने जलमें घुसकर उन्हें फिर गन्धर्व, सिद्ध, मुनि और नागादिकोंसे स्तुति किये जाते देखा ॥ ४६ ॥ तब तो दानपति अक्रूरजी वास्तविक रहस्य जानकर उन सर्वविज्ञानमय अच्युत भगवान की स्तुति करने लगे॥४७॥

अक्रूरजी बोले ;- जो सन्मात्रस्वरूप, अचिन्त्य महिम, सर्वव्यापक तथा [ कार्यरूपसे ] अनेक और [कारणरूपसे] एक रूप हैं उन परमात्माको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ ४८ ॥ हे अचिन्तनीय प्रभो! आप सर्वरूप एवं हविःस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है । आप बुद्धि से अतीत और प्रकृति से परे हैं, आप को बारंबार नमस्कार है ।। ४९ ॥
आप भूतस्वरूप, इन्द्रिय स्वरूप और प्रधानस्वरूप है तथा आप ही जीवात्मा और परमात्मा हैं। इस प्रकार आप अकेले ही पाँच प्रकारसे स्थित हैं ॥ ५० ॥ हे सर्व ! हे सर्वात्मना ! हे क्षराक्षरमय ईश्वर ! आप प्रसन्न होइये । एक आप ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि कल्पनाओं से वर्णन किये जाते हैं ॥५१॥ हे परमेश्वर ! आपके स्वरूप, प्रयोजन और नाम आदि सभी अनिर्वचनीय हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। ५२ ॥

हे नाथ ! जहाँ नाम और जाति आदि कल्पनाओंका सर्वथा अभाव है आप वही नित्य अविकारी और अजन्मा परब्रह्म हैं॥५३॥ क्योंकि कल्पनाके बिना किसी भी पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, इसलिये आपका कृष्ण, अच्युत, अनन्त और विष्णु आदि नामों से स्तवन किया जाता है [ वास्तव में तो आपको किसी भी नामसे निर्देश नहीं किया जा सकता ] ॥ ५४ ॥ है अज! जिन देवता आदि कल्पनामय पदार्थों में अनंत विश्व की उत्पत्ति हुई है वे समस्त पदार्थ आप ही हैं तथा आप ही विकारहीन आत्मवस्तु हैं, अतः आप विश्वरूप हैं। हे प्रभो ! इन सम्पूर्ण पदार्थों में आप से भिन्न और कुछ भी नहीं है ॥ ५५॥ आप ही ब्रह्मा, महादेव, अर्यमा, विधाता, धाता, इन्द्र, वायु, अग्नि, वरुण, कुबेर और यम हैं। इस प्रकार एक आप ही भिन्न-भिन्न कार्यवाले अपनी शक्तियोंके भेदसे इस सम्पूर्ण जगत्की रक्षा कर रहे हैं ॥५६॥ हे विश्वेश ! सूर्य की किरणरूप होकर आप ही [वृष्टि द्वारा] विश्वकी रचना करते है, अतः यह गुणमय प्रपश्च आपका ही रूप है। 'सत्' पद [ 'ॐ तत् सत्' इस रूपसे ] जिसका वाचक है वह 'ॐ' अक्षर आपका परम स्वरूप है, आपके उस ज्ञानात्मा सदसत्स्वरूपको नमस्कार है ॥ ५७ ॥ हे प्रभो ! वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध स्वरूप आपको बारंबार नमस्कार है ।।५८॥


      "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे अष्टादशोऽध्यायः"


              ---------उन्नीसवाँ अध्याय---------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


"भगवान् का मथुरा-प्रवेश, रजक-वध तथा मालीपर कृपा"
श्री पराशर जी बोले ;- यदु कुलोत्पन्न अक्रूरजी ने श्री विष्णु भगवान का जल के भीतर इस प्रकार स्तवन कर उन सर्वेश्वर का मनःकल्पित धूप, दीप और पुष्पादिसे पूजन किया ॥१॥ उन्होंने अपने मनको अन्य विषयोंसे हटाकर उन्हीं में लगा दिया और चिरकालतक उन ब्रह्मभूतमें ही समाहितभावसे स्थित रहकर फिर समाधिसे विरत हो गये ॥२॥
 तदनन्तर महामति अक्रूरजी अपनेको कृतकृत्य-सा मानते हुए यमुना जल से निकलकर फिर रथके पास चले आये ॥ ३ ॥ वहाँ आकर उन्होंने आश्चर्य युक्त नेत्रों से राम और कृष्ण को पूर्ववत् रथमें बैठा देखा। उस समय श्रीकृष्णचन्द्र ने अक्रूर जी से कहा ॥ ४ ॥

श्री कृष्ण जी बोले ;- अक्रूरजी ! आपने अवश्य ही यमुना-जल में कोई आश्चर्यजनक बात देखी है, क्योंकि आपके नेत्र आश्चर्यचकित दीख पड़ते हैं । ५ ॥

अक्रूरजी बोले ;- हे अच्युत ! मैंने यमुना जल में जो आश्चर्य देखा है उसे मैं इस समय भी अपने सामने मूर्तिमान् देख रहा हूँ ॥ ६॥ हे कृष्ण ! यह महान् आश्चर्यमय जगत् जिस महात्माका स्वरूप है उन्हीं परम आश्चर्य स्वरूप आपके साथ मेरा समागम हुआ है ॥७॥ हे मधुसूदन ! अब उस आश्चर्य के विषयमें और अधिक कहनेसे लाभ ही

क्या है ? चलो, हमें शीघ्र ही मथुरा पहुँचना है; मुझे कंस से बहुत भय लगता है । दूसरेके दिये हुए अन्नसे जीनेवाले पुरुषोंके जीवनको धिक्कार है !॥ ८॥

ऐसा कहकर अक्रूरजी ने वायु के समान वेगवाले घोड़ों को हाँका और सायंकालके समय मथुरापुरीमें पहुँच गये ॥ ९॥ मथुरापुरीको देखकर अक्रूरने राम और कृष्ण से कहा-“है वीरवरो ! अब मैं अकेला ही रथ से जाऊँगा, आप दोनों पैदल चले आवें ॥ १० ।। मथुरा में पहुँचकर आप वसुदेवजी के घर न जायँ; क्योंकि आपके कारण ही उन वृद्ध वसुदेवजी का कंस सर्वदा निरादर करता रहता है" ॥ ११ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कह अक्रूर जी मथुरा- पुरीमें चले गये। उनके पीछे राम और कृष्ण भी नगरमें प्रवेशकर राजमार्गपर आये ।।१२ ।। वहाँके नर-नारियोंसे आनन्दपूर्वक देखे जाते हुए वे दोनों वीर मतवाले तरुण हाथियों के समान लीलापूर्वक जा रहे थे ।। १३ ॥

मार्गमें उन्होंने एक वस्त्र रंगने वाले रजक को घूमते देख उससे रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्र माँगे । १४ ।। वह रजक कंसका था और राजाके मुँह लगा होनेसे बड़ा घमंडी हो गया था, अतः राम और कृष्ण के वस्त्र माँगनेपर उसने विस्मित होकर उनसे बड़े जोर के साथ अनेक दुर्वाक्य कहे ॥ १५॥ तब श्री कृष्णचन्द्र ने क्रुद्ध होकर अपने करतलके प्रहारसे उस दुष्ट रजक का भार पृथ्वी पर गिरा दिया ।। १६ ॥ इस प्रकार उसे मारकर राम और कृष्ण ने उसके वस्त्र छीन लिये तथा क्रमशः नील और पीत वस्त्र धारणकर वे प्रसन्नचित्तसे मालीके घर गये ॥ १७ ॥

         हे मैत्रेय ! उन्हें देखते ही उस माली के नेत्र आनन्दसे खिल गये और वह आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि 'ये किसके पुत्र हैं और कहाँसे आये हैं ?' ॥ १८ ॥ पीले और नीले वस्त्र धारण किये उन अति मनोहर बालकोंको देखकर उसने समझा मानो दो देवगण ही पृथ्वी तल पर पधारे हैं ।। १९ । जब उन विकसित मुखकमल बालकोंने उससे पुष्प माँगे तो उसने अपने दोनों हाथ पृथिवी पर टेककर शिरसे भूमि को स्पर्श किया॥ २० ॥ फिर उस मालीने उन दोनोंसे कहा- "हे नाथ ! आप बड़े ही कृपालु हैं जो मेरे घर पधारे। मैं धन्य हूँ, क्योंकि आज मैं आपका पूजन कर सकूँगा" ॥ २१ ॥ तदनन्तर उसने देखिये, ये बहुत सुन्दर हैं; ये बहुत सुन्दर है-इस प्रकार प्रसन्न मुख से लुभा-लुभा कर उन्हें इच्छानुसार पुष्प दिये ॥ २२ । उसने उन दोनों पुरुषश्रेष्ठ्ठोंं को पुनः पुनः प्रणामकर अति निर्मल और सुगन्धित मनोहर पुष्प दिये ॥ २३ ॥

तब कृष्ण चन्द्रने भी प्रसन्न होकर उस मालीको यह वर दिया कि "हे भद्र ! मेरे आश्रित रहनेवाली लक्ष्मी तुझे कभी न छोड़ेगी ॥ २४ ॥ हे सौम्य ! तेरे बल और धनका ह्रास कभी न होगा और जब तक दिन (सूर्य ) की सत्ता रहेगी तबतक तेरी संतान का उच्छेद न होगा ॥ २५ ॥ तू भी यावज्जीवन नाना प्रकारके भोग भोगता हुआ अन्त में मेरी कृपासे मेरा स्मरण करने के कारण दिव्य लोकको प्राप्त होगा ॥२६॥
 हे भद्र ! तेरा मन सर्वदा धर्मपरायण रहेगा तथा तेरे वंशमें जन्म लेनेवालोंकी आयु दीर्घ होगी ।। २७ । हे महाभाग ! जबतक सूर्य रहेगा तबतक तेरे वंशमें उत्पन्न हुआ कोई भी व्यक्ति उपसर्ग ( आकस्मिक रोग ) आदि दोषोंको प्राप्त न होगा" ॥ २८ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर श्रीकृष्णचन्द्र बलभद्र जीके सहित मालाकारसे पूजित हो उसके घरसे चल दिये ॥ २९ ॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे पछ्न्मेंऽशे एकोनविंशोऽध्यायः"

               ----------बीसवाँ अध्याय--------



                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


"कुब्जा पर कृपा, धनुर्भङ्ग, कुवलयापीड और चाणूरादि मल्लों का नाश तथा कंस-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर श्रीकृष्णचन्द्र ने राजमार्गमें एक नवयौवना कुजा स्त्रीको अनुलेपनका पात्र लिये आती देखा ॥ १ ॥ तब श्रीकृष्ण ने उससे विलास पूर्वक कहा -"अयि कमललोचने ! तू सच- सच बता यह अनुलेपन किसके लिये ले जा रही है ?" ॥२॥ भगवान कृष्ण के कामुक पुरुषकी भाँति इस प्रकार पूछनेपर अनुरागिणी कुब्जाने उनके दर्शनसे हठात् आकृष्टचित्त हो अति ललित भावसे इस प्रकार कहा-॥३॥ "हे कान्त ! क्या आप मुझे नहीं जानते ? मैं अनेकवक्रा-नाम से विख्यात हूँ, राजा कंस ने मुझे अनुलेपन-कार्य में नियुक्त किया है ।। ४ ।। राजा कंस को मेरे अतिरिक्त और किसीका पीसा हुआ उबटन पसंद नहीं है, अतः मैं उनकी अत्यन्त कृपापात्री हुँ" ।।५।।

श्री कृष्ण जी बोले ;- हे सुमुस्त्रि ! यह सुन्दर सुगन्धमय अनुलेपन तो राजा के ही योग्य है , हमारे शरीरके योग्य भी कोई अनुलेपन हो तो दो ॥६॥


श्री पराशर जी बोले ;- यह सुनकर कुब्जा ने कहा-'लीजिये, और फिर उन दोनोंको आदरपूर्वक उनके शरीरयोग्य चन्दनादि दिये ॥ ७ ॥ उस समय वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ [कपोल आदि] अंगों में पत्ररचना विधिसे यथावत् अनुलिप्त होकर इन्द्रधनुष युक्त श्याम और श्वेत मेघ के समान सुशोभित हुए ।। ८॥ तत्पश्चात् उल्लापन (सीधा करने की) विधि जानने वाले भगवान कृष्ण चंद्र ने उसकी ठोड़ीमें अपनी आगेकी दो अंगुलियां लगा उसे उचकाकर हिलाया तथा उसके पैर अपने पैरों से दबा लिये। इस प्रकार श्री केशव ने उसे ऋजुकाय ( सीधे शरीरवाली) कर दी। तब सीधी हो जानेपर वह सम्पूर्ण स्त्रियों में सुन्दरी हो गयी॥ १ १० ।

तब वह श्री गोविंद का पल्ला पकड़कर अंत र्गर्भित प्रेम-भारसे अलसायी हुई विलासललित वाणी में बोली- 'आप मेरे घर चलिये' ॥ ११ ॥ उसके ऐसा कहनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने उस कुब्जासे, जो पहले अनेकों अंगों से टेढ़ी थी, परन्तु अब सुन्दरी हो गयी थी, बलरामजी के मुख की ओर देखकर हँसते हुए कहा-।। १२॥ हाँ, तुम्हारे घर भी आऊँगा' ऐसा कहकर श्री हरि ने उसे मुसकाते हुए विदा किया और बलभद्र के मुख की ओर देखते हुए जोर-जोर. से हँसने लगे ॥ १३ ॥

तदनन्तर पत्र-रचनादि विधिसे अनुलिप्त तथा चित्र-विचित्र मालाओंसे सुशोभित राम और कृष्ण क्रमशः नीलाम्बर और पीताम्बर धारण किये हुए यज्ञशालातक आये ।। १४॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने यज्ञ रक्षकोंसे उस यज्ञ के उद्देश्य स्वरूप धनुष के विषय में पूछा और उनके बतलानेपर श्रीकृष्णचन्द्र उसे सहसा उठाकर उसपर प्रत्यञ्चा (डोरी) चढ़ाने लगे ॥ १५ ॥ उसपर बलपूर्वक प्रत्यञ्चा चढ़ाते समय वह धनुष टूट गया, उस समय उसने ऐसा घोर शब्द किया कि उससे सम्पूर्ण मथूरा पूरी गूँज उठी ॥ १६ ।।
तब धनुष टूट जानेपर उसके रक्षकोंने उनपर आक्रमण किया, उस रक्षकसेनाका संहारकर वे दोनों बालक धनुश्शालासे बाहर आये ॥ १७ ॥

तदनन्तर अक्रूर के आने का समाचार पाकर तथा उस महान् धनुषको भग्न हुआ सुनकर कंसने चाणूर और मुष्टिकसे कहा ॥ १८ ॥

कंस बोला ;- यहाँ दोनों गोपालबालक आ गये हैं। वे मेरा प्राण हरण करनेवाले हैं, अतः तुम दोनों मल्लयुद्ध से उन्हें मेरे सामने मार डालो । यदि तुमलोग मल्लयुद्ध में उन दोनोंका विनाश करके मुझे सन्तुष्ट कर दोगे तो मैं तुम्हारी समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर दूँगा; मेरे इस कथनको तुम मिथ्या न समझना ॥१९-२०॥
तुम न्यायसे अथवा अन्याय से मेरे इन महाबलवान् अपकारियोंको अवश्य मार डालो। उनके मारे जानेपर यह साग राज्य [हमारा और] तुम दोनोंका सामान्य होगा ॥ २१ ॥

मल्लों इस प्रकार आज्ञा दे कंस ने अपने महावत को बुलाया और उसे आज्ञा दी कि तू कुवलयापीड हाथीको मल्लोंकी रंगभूमि के द्वारपर खड़ा रख और जब वे गोपकुमार युद्धके लिये यहाँ आवें तो उन्हें इससे नष्ट करा दे ।। २ २३ । इस प्रकार उसे आज्ञा देकर और समस्त सिंहासनोंको यथावत् रखे देखकर, जिसकी मृत्यु पास आ गयी है वह कंस सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगा ॥ २४ ॥

प्रातःकाल होनेपर समस्त मंचों पर नागरिक लोग और राजमञ्चों पर अपने अनुचरों के सहित राजालोग बैठे ॥२५॥ तदनन्तर रंगभूमिके मध्यभागके समीप कंसने युद्धपरीक्षकोंको बैठाया और फिर स्वयं आप भी एक ऊँचे सिंहासनपर बैठा॥ २६ ॥ वहाँ अन्तःपुर की स्त्रियों के लिये पृथक मचान बनाये गये थे तथा मुख्य मुख्य वारांगनाओं और नगरकी महिलाओं के लिये भी अलग-अलग मंच थे।।२७। कुछ अन्य मञ्चों पर नन्दगोप आदि गोपगण बिठाये गये थे और उन मंचोंं के पास ही अक्रूर और वसुदेव जी बैठे थे॥२८॥
नगर की नदियों के बीच में 'चलो, अन्तकाल में ही पुत्रका मुख तो देख लूंगा' ऐसा विचारकर पुत्रके लिये मङ्गलकामना करती हुई देवीकीजी बैठी थीं।। २९ ॥ तदनन्तर जिस समय तूर्य आदिके बजने तथा चाणूर के अत्यन्त उछलने और मुष्टिकके ताल ठोंकने  पर दर्शकगण  हाहाकार कर रहे थे, गोपी वेषधारी वीर बालक बलभद्र और कृष्ण कुछ हँसते हुए रंग भूमिके द्वारपर आये ॥ ३० -३१ || वहाँ आते ही महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड नामक हाथी उन दोनों गोपकुमारोंको मारनेके लिये बड़े वेग से दौड़ा ॥ ३२ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस समय रंगभूमिमें महान् हाहाकार मच गया तथा बलदेवजीने अपने अनुज कृष्ण की ओर देखकर कहा- "हे महाभाग ! इस हाथी को शत्रु ने ही प्रेरित किया है; अतः इसे मार डालना चाहिये" ॥ ३३ - ३४ ॥
   
       हे द्विज ! ज्येष्ठ भ्राता बलरामजीके ऐसा कहने पर शत्रुसूदन श्रीश्यामसुन्दरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया ॥ ३५ ॥ फिर केशीका वध करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने बल में ऐरावत के समान उस महाबली हाथी की सूंड अपने हाथसे पकड़कर उसे घुमाया ।। ३६ ।। भगवान् कृष्ण यद्यपि सम्पूर्ण जगत् के स्वामी है तथापि उन्होंने बहुत देरतक उस हाथी के दाँत और चरणोंके बीच में खेलते-खेलते अपने दायें हाथसे उसका बायाँ दाँत उखाड़कर उससे महावत पर प्रहार किया। इससे उसके शिरके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ ३७-३८ ॥ उसी समय बलभद्रजीने भी क्रोधपूर्वक उसका दायाँ दाँत उखाड़कर उससे आस पास खड़े हुए महावतोंं को मार डाला ॥ ३९ ।।
तदनन्तर महाबली रोहिणीनन्दनने रोषपूर्वक अति वेग से उछलकर उस हाथी के मस्तक पर अपनी बायीं लात मारी ॥ ४० ॥ इस प्रकार वह हाथी बलभद्रजी द्वारा लीलापूर्वक मारा जाकर इन्द्र-वजह से आहत पर्वतके समान गिर पड़ा ॥ ४१ ॥

तब महावत से प्रेरित कुवलयापीडको मारकर उसके मद और रक्त से लथपथ राम और कृष्ण उसके दांतों के लिये हुए गर्वयुक्त लीलामयी चितवनसे निहारते उस महान् रंगभूमिमें इस प्रकार आये जैसे मृग-समूह के बीच में सिंह चला जाता है ।। ४२ ४३ ।। उस समय महान् रंगभूमि में बड़ा कोलाहल होने लगा और सब लोगों में 'ये कृष्ण हैं, ये बलभद्र हैं' ऐसा विस्मय छा गया ॥ ४४ ॥

[ वे कहने लगे-] "जिसने बालघातिनी घोर राक्षसी पूतना को मारा था, शंकटको उलट दिया था और यमलार्जुन को उखाड़ डाला था वह यही है। जिस बालकने कालियनागके ऊपर चढ़कर उसका मान-मर्दन किया था और सात रात्रितक महापर्वत गोवर्धन को अपने हाथपर धारण किया था वह यही है ॥ ४५-४६ ॥ जिस महात्माने अरिष्टासुर, धेनुका सुर और केशी आदि दुष्टोंको लीलासे ही मार डाला था; देखो, वह अच्युत यही हैं । ४७ ॥ ये इनके आगे इनके बड़े भाई महावाहु बलभद्रजी हैं जो बड़े लीलापूर्वक चल रहे हैं । ये स्त्रियों के मन और नयनोंको बड़ा ही आनन्द देनेवाले हैं ॥ ४८ ॥ पुराणार्थवेत्ता विद्वान्लोग कहते हैं कि ये गोपालजी डूबे हुए यदुवंश का उद्धार करेंगे ॥ ४९ ॥ ये सर्वलोकमय और सर्वे कारण भगवान विष्णुके ही अंश हैं, इन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही भूमि पर अवतार लिया हें" ॥ ५० ॥

राम और कृष्ण के विषय में पुरवासियों के इस प्रकार कहते समय देवकीके स्तनोंसे स्नेहके कारण दूध बहने लगा और उसके हृदय में बड़ा अनुताप हुआ ॥ ५१॥ पुत्रों का मुख देखनेसे अत्यन्त उल्लास सा प्राप्त होने के कारण वसुदेवजी भी मानो आये हुए बुढ़ापेको छोड़कर फिरसे नवयुवक से हो गये ॥ ५२ ॥

राजाके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ तथा नगरनिवासिनी महिलाएं भी उन्हें एकटक देखते-देखते न छकीं ॥ ५३ ॥ [ वे परस्पर कहने लगीं-] "अरी सखी ! अरुण नयनसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रका अति सुन्दर मुख तो देखो, जो कुवलयापीडके साथ युद्ध करनेके परिश्रमसे स्वेदविन्दुपूर्ण होकर हिम-कण-सिंचित शरत्कालीन प्रफुल्ल कमलको लज्जित कर रहा है।

अरी ! इसका दर्शन करके अपने नेत्रोंका होना सफल कर लो" ।। ५४-५५ ॥

[ एक स्त्री बोली-] "हे भामिनि ! इस बालक का यह श्रीवत्साङ्कयुक्त परम तेजस्वो वक्षःस्थल तथा शत्रुओंको पराजित करनेवाली दोनों भुजाएँ तो देखो!” ।। ५६ ॥

[ दूसरी०- ] "अरी ! क्या तुम नीलाम्बर धारण किये इन दुग्ध, चन्द्र अथवा कमलनाल के समान शुभ्रवर्ण बलदेवजीको आते हुए नहीं देखती हो ?"॥ ५७ ॥

[ तीसरी०-] "अरी सखियो ! [ अखाड़ेमें ] चक्कर देकर घूमनेवाले चाणूर और मुष्टिकके साथ क्रीडा करते हुए बलभद्र तथा कृष्ण का हँसना तो देखो" ॥ ५८ ॥

[चौथी- ]"हाय ! सखियों ! देखो तो चाणूर से लड़ने के लिये ये हरि आगे बढ़ रहे हैं; क्या इन्हें छुड़ानेवाले कोई भी बड़े-बूढ़े यहाँ नहीं हैं ? ॥ ५९ ।।
कहाँ तो यौवन में प्रवेश करनेवाले सुकुमार - शरीर श्याम और कहाँ वज्र के समान कठोर शरीरवाला यह महान् असुर ! ॥ ६० ॥ ये दोनों नवयुवक तो. बड़े ही सुकुमार शरीरवाले हैं [ किन्तु इनके प्रतिपक्षी ] ये चाणूर आदि दैत्य मल्ल अत्यंत दारुण है. ॥ ६१ । मल्लयुद्ध के परीक्षक गुणों का यह बहुत बड़ा अन्याय है जो वे मध्यस्थ होकर भी इन बालकः और बलवान् मल्लो के युद्ध की उपेक्षा कर रहे हैं" ॥ ६२ ॥

    श्री पराशर जी बोले ;- नगर की स्त्रियों के इस प्रकार वार्तालाप करते समय भगवान कृष्ण चन्द्र अपनी कमर कसकर उन समस्त दर्शकों के बीच में पृथ्वी को कम्पायमान करते हुए रङ्गभूमिमें कूद पड़े ॥ ६३ ।। श्री बलभद्र जी भी अपने भुजदण्डों को ठोकते हुए अति मनोहर भावसे उछलने लगे। उस समय उनके पद पद पर पृथ्वी नहीं फटी, यह बड़ा आश्र्य है ॥६४॥

तदनन्तर अमित-विक्रम कृष्णचन्द्र चाणूर के साथ और द्वंद्व युद्ध में कुशल राक्षस मुष्टिक बलभद्रजीके साथ युद्ध करने लगे ॥ ६५ ॥

श्रीकृष्ण चन्द्र चाणूर के साथ परस्पर भिड़कर, नीचे गिराकर, उछालकर, घूँसे और वज्रके समान कोहनी मारकर, पैरोंसे ठोकर मारकर तथा एक-दूसरे के अंगोंको रगड़कर लड़ने लगे। उस समय उनमें महान् युद्ध होने लगा ॥६६-६७ ॥

इस प्रकार उस समाजोत्सवके समीप केवल बल और प्राणशक्तिसे ही सम्पन्न होनेवाला उनका अति भयंकर और दारुण शस्त्रहीन युद्ध हुआ॥६८॥

 चाणूर जैसे-जैसे भगवान से भिड़ता गया वैसे-ही वैसे उसकी प्राणशक्ति थोड़ी-थोड़ी करके अत्यन्त क्षीण होती गयी ॥ ६९ ॥ जगन्मय भगवान कृष्ण भी, श्रम और कोपके कारण अपने पुष्पमय शिरो भूषणों में लगे हुए केशरको हिलानेवाले उस चाणूर से लीला पूर्वक लड़ने लगे ॥ ७० ॥ उस समय चाणूर के बलका क्षय और कृष्णचन्द्र के बलका उदय देख कंसने खीझकर तूर्य आदि बाजे बंद करा दिये ।। ७१ ॥ रङ्गभूमिमें मृदंग और तूर्य आदिके बंद हो जानेपर आकाशमें अनेक दिव्य तूर्य एक साथ बजने लगे ॥ ७२ ।। और देवगण अत्यन्त हर्सित होकर अलक्षित भावसे कहने लगे-“हे गोविन्द ! आपकी जय हो हे केशव ! आप शीघ्र ही इस चाणूर दानवको मार डालिये" ॥ ७३ ॥

भगवान मधुसूदन बहुत देरतक चाणूर के साथ खेल करते रहे, फिर उसका वध करनेके लिये उद्यत होकर उसे उठाकर घुमाया ॥ ७४ ॥ शत्रुविजयी श्रीकृष्णचन्द्रने उस दैत्य मल्लको सैकड़ों बार घुमा कर आकाशमें ही निर्जीव हो जानेपर पृथिवीपर पटक दिया ॥ ७५ ॥ भगवान के द्वारा पृथ्वी पर गिराये जाते ही चाणूर के शरीर के सैकड़ों टुकड़े हो गये और उस समय उसने रक्तस्राव से पृथ्वी को अत्यन्त कीचड़मय कर दिया ।। ७६ ॥ इधर, जिस प्रकार भगवान कृष्ण चाणूर से लड़ रहे थे उसी प्रकार महावली बलभद्रजी भी उस समय दैत्य-मल्ल मुष्टिकसे भिड़े हुए थे ॥ ७७ ॥ बलरामजीने उसके मस्तकपर घुँसोंसे तथा वक्षस्थल में जानुसे प्रहार किया और उस गतायु दैत्य को पृथ्वी पर पटक कर रौंद डाला ॥ ७८॥

तदनन्तर श्रीकृष्णचन्द्रने महाबली मल्लराज तोशलको बायें हाथसे घूँसा मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया ॥ ७९ ॥ मल्लश्रेष्ठ चाणूर और मुष्टिकके मारे जानेपर तथा मल्लराज तोशलके नष्ट होनेपर समस्त मल्लगण भाग गये ॥ ८० ॥ तब कृष्ण और संकर्षण अपने समवयस्क गोपों को बलपूर्वक खींचकर [ आलिंगन करते हुए ] हर्षसे रङ्गभूमिमें उछलने लगे ।। ८१ ।।

तदनन्तर कंस ने क्रोध से नेत्र लाल करके वहाँ एकत्रित हुए पुरुषोंसे कहा-"अरे ! इस समाज से इन दोनों ग्वालबालोंको बलपूर्वक निकाल दो ॥ ८२॥ पापी नंद को लोहे की श्रृंखला में बाँधकर पकड़ लो तथा वृद्ध पुरुषों के अयोग्य दण्ड देकर वासुदेव को भी मार डालो ॥ ८३ ॥ मेरे सामने कृष्ण के साथ ये जितने गोपगण उछल रहे हैं इन सबको भी मार डालो तथा इनकी गौएँ और जो कुछ अन्य धन हो वह सब छीन लो" ॥ ८४ ।। जिस समय कंस इस प्रकार आज्ञा दे रहा था उसी समय श्री मधुसूदन हँसते-हँसते उछलकर मंच  पर चढ़ गये और शीघ्रता से उसे पकड़ लिया ॥ ८५ ॥ तथा उसे केशोंद्वारा खींचकर पृथ्वी पर पटक दिया और उसके ऊपर आप भी कूद पड़े, इस समय उसका मुकुट शिरसे खिसककर अलग गिर गया था ॥ ८६ ॥ सम्पूर्ण जगत् के आधार भगवान कृष्ण के ऊपर गिरते ही उग्रसेनात्मज राजा कंशने अपने प्राण छोड़ दिये ॥८७॥ तब महाबली कृष्णचन्द्रने मृतक कंस के केश पकड़कर उसके देहको रङ्गभूमिमें घसीटा॥ ८८ ॥ कंस का देह बहुत भारी था, इसलिये उसे घसीटनेसे महान् जलप्रवाहके वेगसे हुई दरारके समान पृथिवीपर परिखा बन गयी ॥ ८९ ।

श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा कंसके पकड़ लिये जानेपर उसके भाई सुमाली क्रोधपूर्वक आक्रमण किया। उसे बलरामजी ने लीला से ही मार डाला ॥ ९० ॥ इस प्रकार मथुरापति कंस को कृष्ण चंद्र द्वारा अवज्ञा पूर्वक मरा हुआ देखकर रङ्गभूमिमें उपस्थित सम्पूर्ण जनता हाहाकार करने लगी ।। ९१ ।। उसी समय महाबाहु कृष्णचन्द्रने बलदेवजीसहित वसुदेव और देवकी के चरण पकड़ लिये ॥ ९२ ॥

तब जन्मके समय कहे हुए भगवद्वाक्योंका स्मरण हो आनेसे वसुदेव और देवकी ने श्री जनार्दन को पृथिवीपरसे उठा लिया तथा उनके सामने प्रणत भावसे खड़े हो गये॥ ९३ ॥

श्री वासुदेव जी बोले ;- हे प्रभो ! अब आप हम पर प्रसन्न होइये । हे केशव ! आपने आत्तृ देवगणों को जो वर दिया था वह हम दोनोंपर अनुग्रह करके पूर्ण कर दिया ।। ९४ ।॥ भगवन् ! आपने जो मेरी आराधना से दुष्टजनों के नाशके लिये मेरे घर में जन्म लिया, उससे हमारे कुल को पवित्र कर दिया है ।। ९५ ॥ आप सर्वभूतमय हैं और समस्त भूतों के भीतर स्थित हैं । हे समस्तात्मन् ! भूत और भविष्यत् आपसे प्रवृत्त होते हैं ॥ ९६ ॥ हे अचिन्त्य ! हे सर्वदेवमय ! हे अच्युत ! समस्त यज्ञों से आपहीका यजन किया जाता है तथा हे परमेश्वर ! आप ही यज्ञ करने. वालोंके याजक और यज्ञ स्वरूप हैं ।। ९७ ॥ हे जनार्दन ! आप तो सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति स्थान है, आपके प्रति पुत्रवात्सल्य के कारण जो मेरा और देवकी का चित्त भ्रान्तियुक्त हो रहा है यह बड़ी ही हँसीकी बात है ॥ ९८-९९ ।। आप आदि और अन्त से रहित हैं तथा समस्त प्राणियों की उत्पत्ति कर्त्ता हैं , ऐसा कौन मनुष्य है जिसकी जिह्वा आपको 'पुत्र' कहकर सम्बोधन करेगी ? ।।१००।।

 हे जगन्नाथ ! जिन आपसे यह सम्पूर्ण जगत्  उत्पन्न हुआ है वही आप बिना मायाशक्तिके और किस प्रकार हमसे उत्पन्न हो सकते हैं ॥ १०१।। जिसमें सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत् स्थित है वह प्रभु कुक्षि (कोख) और गोदमें शयन करनेवाला मनुष्य कैसे हो सकता है ? ॥ १०२ ।।

हे परमेश्वर ! वही आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने अंशावतारसे विश्वकी रक्षा कीजिये । आप मेरे पुत्र नहीं हैं । हे ईश ! ब्रह्मासे लेकर वृक्षादिपर्यन्त यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ है, फिर हे पुरुषोत्तम ! आप हमें क्यों मोहित कर रहे हैं ? ॥ १०३ ॥ हे निर्भय ! आप मेरे पुत्र हैं' इस मायासे मोहित होकर मैंने कंससे अत्यन्त भय माना था और उस शत्रुके भयसे ही मैं आपको गोकुल ले गया था । हे ईश ! आप वहीं रहकर इतने बड़े हुए हैं, इसलिये अब आप में मेरी ममता नहीं रही है ॥ १०४ ।।

 अबतक मैंने आपके ऐसे अनेक कर्म देखे हैं जो रुद्र, मरुद्गण, अश्विनी कुमार और इंद्र के लिये भी साध्य नहीं हैं। अब मेरा मोह दूर हो गया है, हे ईश ! [ मैंने निश्चयपूर्वक जान लिया है कि ] आप साक्षात् श्री विष्णु भगवान ही जगत् के उपकार के लिये प्रकट हुए हैं ॥ १०५ ॥

         "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे विशोऽध्यायः"


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