सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का इक्कीसवाँ, बाईसवाँ, तेईसवाँ व चौबीसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का  इक्कीसवाँ, बाईसवाँ, तेईसवाँ व चौबीसवाँ अध्याय}} {The twenty-first, twenty-second, twenty-third and twenty-fourth chapters of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}

                               "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


                               "इक्कीसवाँ अध्याय"


"उग्रसेन का राज्याभिषेक तथा भगवान का विद्याध्ययन"
श्री पराशर जी बोले ;- अपने ईश्वरीय कर्मों को  देखनेसे वसुदेव और देवकीको विज्ञान उत्पन्न हुआ देख भगवान ने यदुवंशियों को मोहित करनेके लिये अपनी वैष्णवी माया का विस्तार किया ॥१॥ और बोले-"हे मात: ! हे पिता जी ! बलराम जी और मैं बहुत दिनों से कंसके भय से छिपे हुए आपके दर्शनों के लिये उत्कण्ठित थे, सो आज आपका दर्शन हुआ है ॥२॥ जो समय माता-पिता की सेवा किये बिना बीतता है वह असाधु पुरुषों की आयुका भाग व्यर्थ ही जाता है ॥ ३ ॥ हे तात ! गुरु, देव, ब्राह्मण और माता-पिता का पूजन करते रहने से देह धारियों का जीवन सफल हो जाता है ॥ ४ ॥ अतः हे तात ! कंसके वीर्य और प्रतापसे भीत हम परवशोंं से जो कुछ अपराध हुआ हो वह क्षमा करें" ॥ ५॥


श्री पराशर जी बोले ;- राम और कृष्ण ने इस प्रकार कह माता-पिता को प्रणाम किया और फिर क्रमशः समस्त यदुवृद्धों का यथायोग्य अभी वादनकर पुरवासियोंका सम्मान किया ॥६॥ उस समय कंस की पत्नियाँ और माताएँ पृथिवी पर पड़े हुए मृतक कंस को घेरकर दुःख शोक से पूर्ण हो विलाप करने लगीं ॥ ७ ॥

तब कृष्ण चंद्र ने भी अत्यन्त पश्चात्तापसे विह्वल हो स्वयं आँखों में आँसू भरकर उन्हें अनेकों प्रकारसे ढाँढ़स बँधाया ॥ ८ ॥

तदनन्तर श्री मधुसूदन ने, जिनका पुत्र मारा गया है, उन राजा उग्रसेन को बन्धन से मुक्त किया और उन्हें अपने राज्यपर अभिषिक्त कर दिया ॥ ९ ॥
श्रीकृष्ण - चन्द्रद्वारा राज्याभिषिक्त होकर यदु श्रेष्ठ उग्रसेन ने अपने पुत्र तथा और भी जो लोग वहां मारे गये थे उन सबके और्ध्वदैहिक कर्म किये ॥ १० ॥ और्ध्व- दैहिक कर्मों से निवृत्त होनेपर सिंहासनारूढ़ उग्रसेन से

श्रीहरि बोले ;- "हे विभो ! हमारे योग्य जो सेवा हो उसके लिये हमें निश्शंक होकर आज्ञा दीजिये ॥ ११॥ ययानिका शाप होनेसे यद्यपि हमारा वंश राज्यका अधिकारी नहीं है तथापि इस समय मुझ दास के रहते हुए राजाओंको तो क्या, आप देवता ओंको भी आज्ञा दे सकते हैं " । १२ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- उग्रसेन से इस प्रकार कह [धर्मसंस्थापनादि ] कार्य सिद्धि के लिये मनुष्यरूप धारण करने वाले भगवान कृष्ण ने वायु का स्मरण किया और वह उसी समय वहाँ उपस्थित हो गया। तब भगवान ने उससे कहा-॥ १३ । हे वायो ! तुम जाओ और इंद्र से कहो कि हे वासव ! व्यर्थं गर्व छोड़कर तुम उग्रसेन को अपनी सुधर्मा-नाम की सभा दो ॥ १४ ॥ कृष्णचन्द्रकी आज्ञा है कि यह सुधर्मा सभा नामक सर्वोत्तम रत्न राजाके ही योग्य है। इसमें यादवोंका विराजमान होना उपयुक्त है"॥१५॥

श्री पराशर जी बोले ;- भगवान की ऐसी आज्ञा होनेपर वायुने यह सारा समाचार इन्द्र से जाकर कह दिया और इन्द्रने भी तुरंत ही अपनी सुधर्मा नामकी सभा वायुको दे दी ॥ १६ ॥ वायुद्वारा लायी हुई उस सर्वरत्नसम्पन्न दिव्य सभाका सम्पूर्ण यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओं के आश्रित रहकर भोग करने लगे ॥ १७॥

तदनन्तर समस्त विज्ञानोंको जानते हुए और सर्वज्ञान-सम्पन्न होते हुए भी वीरवर कृष्ण और बलराम गुरु-शिष्य सम्बन्ध को प्रकाशित करनेके लिये उपनयन-संस्कारके अनन्तर विद्यो पार्जनके लिये काशीमें उत्पन्न हुए अवन्तिपुर वासी सान्दीपनि मुनि के यहाँ गये ॥ १८-१९ ।।

वीर संकर्षण और जनार्दन सान्दीपनि का शिष्यत्व स्वीकार कर वेदाभ्यासपरायण हो यथायोग्य गुरु शुश्रूषादिमें प्रवृत्त रह सम्पूर्ण लोकोंको यथोचित शिष्टाचार प्रदर्शित करने लगे। हे द्विज ! यह बड़े आश्चर्य की बात हुई कि उन्होंने केवल चौंसठ दिन में रहस्य ( अस्त्र मंत्रो पनिषत् ) और संग्रह (अस्त्र प्रयोग) के सहित सम्पूर्ण धनुर्वेद सीख लिया। सान्दीपनि ने जब उनके इस असम्भव और मानव कर्म को देखा तो यही समझा कि साक्षात् सूर्य और चन्द्रमा ही मेरे घर आ गये हैं। उन दोनों के अंगों सहित चारों वेद, सम्पूर्ण शास्त्र और सब प्रकार के अस्त्र विद्या एक बार सुनते ही प्राप्त कर ली और फिर गुरुजीसे कहा- "कहिये, आपको क्या गुरु-दक्षिणा दें ?" ॥ २०-२४ ।। महामति सांदीपनि ने उनके अतीन्द्रिय कर्म देखकर प्रभास-क्षेत्रके खारे समुद्र में डूबकर मरे हुए अपने पुत्रको माँगा ॥ २५।॥ तदनन्तर जब से शस्त्र ग्रहणकर समुद्र के पास पहुँचे तो समुद्र अघ्र्यर्य लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ और कहा मैंने सांदीपनि के पुत्र हरण नहीं किया ॥ २६ ॥ हे दैत्य दमन ! मेरे जल में ही पञ्चजन नामक एक दैत्य शंख रूप से रहता है; उसीने उस बालकको पकड़ लिया था ॥२७॥

श्री पराशर जी बोले ;- समुद्र के इस प्रकार कहने- पर कृष्णचन्द्र ने जलके भीतर जाकर पञ्चजन का वध किया और उसकी अस्थियोंसे उत्पन्न हुए शंख को ले लिया ॥ २८ ॥ जिसके शब्दसे दैत्यों का बल नष्ट हो जाता है, देवताओं का तेज बढ़ता है और अधर्मका क्षय होता है॥ २९ ॥ तदनन्तर उस पाञ्चजन्य शंख को बजाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र और बलवान् बलराम यमपुरको गये और सूर्यपुत्र यमको जीतकर यमयातना भोगते हुए उस बालकको पूर्ववत् शरीर युक्तकर उसके पिताको दे दिया। ३०-३१ ॥

इसके पश्चात् वे राम और कृष्ण राजा उग्रसेन द्वारा परिपालित मथुरापुरीमें, जहाँके स्त्री-पुरुष [ उनके । आगमनसे ] आनन्दित हो रहे थे, पधारे ।। ३२ ॥

      "इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे एकविंशोऽध्यायः"

     

      ---------बाईसवाँ अध्याय--------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)
"जरासंध की पराजय"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! महाबली कंस ने जरासन्ध की पुत्री अस्ति और प्राप्ति से विवाह किया था, अतः वह अत्यन्त बलिष्ठ मगधराज क्रोधपूर्वक एक बहुत बड़ी सेना लेकर अपनी पुत्रियों के स्वामी कंस को मारने वाले श्रीहरि का यादवों के सहित मारने की इच्छा से मथुरा पर चढ़ आया ॥ १-२॥ मगधेश्वर जरासंध ने तेईस अक्षौहिणी सेना के सहित आकर मथुरा को चारों ओरसे घेर लिया ॥ ३ ॥

तब महाबली राम और जनार्दन थोड़ी-सी सेना के साथ नगरसे निकलकर जरासन्ध के प्रबल सैनिकों से युद्ध करने लगे। ४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय राम और कृष्ण ने अपने पुरातन शस्त्रों को ग्रहण करनेका विचार किया ॥५॥ हे विप्र ! हरिके स्मरण करते ही उनका शाङ्गधनुष, अक्षय बाणयुक्त दो तरकश और कौमोदकी नामकी गदा आकाशसे आकर उपस्थित हो गये॥ ६ ॥ हे द्विज ! बलभद्रजी के पास भी उनका मनोवांछित महान् हल और सुनन्द नामक मूसल आकाशसे आ गये ॥७॥

तदनन्तर दोनों वीर राम और कृष्ण सेना के सहित मगधराजको युद्ध में हराकर मथुरापुरीमें चले आये ।। ८॥ हे महामुने ! दुराचारी जरासंध को जीत लेनेपर भी उसके जीवन चले जानेके कारण कृष्ण चन्द्र ने अपने को अपराजित नहीं समझा ॥९॥

हे द्विजोत्तम ! जरासन्ध फिर उतनी ही सेना लेकर आया, किन्तु राम और कृष्ण से पराजित होकर भाग गया ॥ १० । इस प्रकार अत्यन्त दुर्धेषे मगधराज जरासन्ध ने राम और कृष्ण आदि यादवों से अट्ठारह बार युद्ध किया॥ ११ ।। इन सभी युद्धों में अधिक सैन्यशाली जरासन्ध थोड़ी-सी सेना वाले यदु वंशियोंसे हारकर भाग गया |। १२ ।। यादवों की थोड़ी सी सेना भी जो [ उसकी अनेक बड़ी सेनाओं से ] पराजित न हुई, यह सब भगवान विष्णु के अंशावतार श्री कृष्ण चन्द्र की सन्निधिका ही माहात्म्य था॥१३॥

उन मानव धर्मशील जगत्पति की यह लीला ही है कि वे अपने शत्रुओंपर नाना प्रकारके अस्त्र- शस्त्र छोड़ते हैं ॥ १४ ॥ जो केवल संकल्पमात्रसे ही संसार की उत्पत्ति और संहार कर देते हैं उन्हें अपने शत्रुपक्ष का नाश करने के लिये भला कितना उद्योग फैलाने की आवश्यकता है ? ॥ १५ ॥ तथापि वे बलवानोंं से सन्धि और बलहीनोंसे युद्ध करके मानव-धर्म का अनुवर्तन कर रहे हैं । १६ । वे कहीं साम, कहीं दान और कहीं भेद नीति का व्यवहार करते हैं तथा कहीं दंड देते और कहीं से स्वयं भाग भी जाते है ॥ १७॥ इस प्रकार मानवदेहधारियोंकी चेष्टाओं का अनुवर्तन करते हुए श्री जगत्पति की अपनी  इच्छानुसार लीलाएँ होती रहती थीं ॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे द्वाविंशोऽध्यायः"


      --------तेईसवाँ अध्याय-------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                    श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


"द्वारका-दुर्गा की रचना, कालयवन का भस्म होना तथा मुचुकुन्द कृत भगवत्स्तुति"
श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विज ! एक बार महर्षि गाग्र्य से उनके सालेने यादवोंकी गोष्ठीमें नपुंसक कह दिया। उस समय समस्त यदुवंशी हँस पड़े ॥ १ ॥ तब गाग्र्य ने अत्यन्त कुपित हो दक्षिण-समुद्र के तट पर जा यादवसेनाको भयभीत करनेवाले पुत्र की प्राप्तिके लिये तपस्या की ॥ २ ॥ उन्होंने श्री महादेव की उपासना करते हुए केवल लोहचूर्ण भक्षण किया। तब भगवान शंकरने बारहवें वर्ष में प्रसन्न होकर उन्हें अभीष्ट वर दिया ॥३॥

एक पुत्रहीन यवनराजने महर्षि गाग्र्यकी अत्यन्त सेवाकर उन्हें सन्तुष्ट किया, उसकी स्त्री के संग से ही इनके एक भौरें के समान कृष्णवर्ण बालक हुआ ॥ ४ ॥ वह यवनराज उस कालयवन नामक बालकको, जिसका वक्षस्थल वज्रके समान कठोर था, राज्य पद पर अभिषिक्त कर वनको चला गया ॥ ५ ॥

तदनन्तर वीर्यमदोन्मत्त कालयवनने नारदजी- से पूछा कि पृथ्वी पर बलवान् राजा कौन-कौन से हैं ? इसपर नारद ने उसे यादवोंको ही बतला दिया ॥६॥ यह सुनकर कालयवन ने हजारों हाथी, घोड़े और रथोंके सहित सहस्रों करोड़ म्लेच्छ सेनाको साथ ले बड़ी भारी तैयारी की ॥ ७ ॥ और यादवोंके प्रति क्रुद्ध होकर वह प्रतिदिन [ हाथी, घोड़े आदिके थक जानेपर ] उन जवानों का त्याग करता हुआ [अन्य वाहनों पर चढ़कर ] अविच्छिन्न गतिसे मथुरापुरीपर चढ़ आया ॥८॥

[यह देखकर ] श्रीकृष्णचन्द्रने सोचा-"यवनों के साथ युद्ध करनेसे क्षीण हुई यादवसेना अवश्य ही मगध नरेश से पराजित हो जायगी ॥ ९ ॥ और यदि प्रथम मगध नरेश से लड़ते हैं तो उससे क्षीण हुई यादवसेनाको बलवान् कालयवन नष्ट कर देगा। अहो! इस प्रकार यादवोंपर [ एक ही साथ ] यह दो तरहकी आपत्ति आ पड़ी ॥ १० ॥ अतः मैं यादवोंके लिये एक ऐसा दुर्जय दुर्ग तैयार करता हूँ जिसमें बैठकर वृष्णि श्रेष्ठ यादवों की तो बात ही क्या है, स्त्रियां भी युद्ध कर सकें ॥ ११ ॥ उस दुर्गमें रहनेपर यदि मैं मत्त, प्रमत्त ( असावधान ) सोया अथवा कहीं बाहर भी गया होऊँ तब भी, अधिक से-अधिक दुष्ट शत्रुगण भी यादवोंको पराभूत न कर सकेंगे" ॥ १२ ॥

ऐसा विचार कर श्री गोविंद ने समुद्र से बारह योजन भूमि माँगी और उसमें द्वारकापुरी निर्माण की॥ १३ ॥ जो इन्द्र की अमरावतीपुरीके समान महान उद्यान, गहरी खाई, सैकड़ों सरोवर तथा अनेकों महलोंसे सुशोभित थी ॥ १४ ॥ कालयवन- के समीप आ जानेपर श्री जनार्दन सम्पूर्ण मथुरा निवासियों को द्वारका में ले आये और फिर स्वयं मथुरा लौट गये ॥ १५ ॥ जब कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया तो श्रीकृष्णचन्द्र बिना शस्त्र लिये मथुरा से बाहर निकल आये । तब.यवनराज कालयवन ने उन्हें देखा ।।१६।।
महायोगीश्वरोंका चित्त भी जिन्हें प्राप्त नहीं कर पाता उन्हीं वासुदेव को केवल बाहुरूप शस्त्रों से ही युक्त [अर्थात् खाली हाथ ] देखकर वह उनके पीछे दौड़ा ॥ १७ ॥

कालयवन से पीछा किये जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र उस महागुहामें घुस गये जिसमें महावीर्यशाली राजा मुचुकुन्द सो रहा था ॥ १८ ॥ उस दुर्मति यवनने भी उस गुफामें जाकर सोये हुए राजा को कृष्ण समझकर लात मारी ।। १९ ॥ उसके लात मारनेसे उठकर राजा मुचुकुन्द ने उस यवनराजको देखा । हे मैत्रेय ! उनके देखते ही वह यवन उनकी क्रोधाग्नि से जलकर तत्काल भस्मीभूत हो गया । २०-२१ ।।

पूर्व कालमें राजा मुचुकुंद देवताओं की ओरसे देवासुर संग्राम में गये थे; असुरों को मार चुकनेपर अत्यन्त निद्रालु होने के कारण उन्होंने देवताओं से बहुत समयतक सोनेका वर माँगा था ।। २२ ।। उस समय देवताओं ने कहा था कि तुम्हारे शयन करने. पर तुम्हें जो कोई जगावेगा वह तुरंत ही अपने शरीरसे उत्पन्न हुई अग्निसे जलकर भस्म हो जायगा ॥ २३ । इस प्रकार पापी कालयवन का दग्ध कर चुकने

पर राजा मुचुकुन्द ने श्री मधुसूदन को देखकर पूछा 'आप कौन हैं ?' तब भगवान ने कहा- 'मै चन्द्रवंश- के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेव जी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ हूँ।" तब मुचुकुन्द को वृद्ध गाग्र्य मुनिके वचनोंका स्मरण हुआ ।॥ २४-२५ ॥ उनका स्मरण होते ही उन्होंने सर्वरूप सर्वेश्वर हरिको प्रणाम करके कहा - "हे परमेश्वर ! मैंने आपको जान लिया है; आप साक्षात् भगवान विष्णु के अंश हैं ॥ २६ ॥ पूर्वकालमें गाग्र्य मुनिने कहा था कि अट्ठाईसवें युग में द्वापर के अंत में यदुकुलमें श्रीहरिका जन्म होगा ॥२७॥ निस्सन्देह आप भगवान विष्णु के अंश हैं और मनुष्यों के उपकार के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं तथापि मैं आपके महान तेजको सहन करने में समर्थ नहीं हूँ ॥२८॥ हे भगवन्! आपका शब्द सजल मेघ की घोर  गर्जना के समान अति गम्भीर है अतः आपके चरणोंसे पीड़िता होकर पृथ्वी झुकी हुई है ।। २९ ।।

हे देव ! देवासुर-महासंग्राममें दैत्य-सेनाके बड़े-बड़े योद्धागण भी मेरा तेज नहीं सह सके थे और मैं आपका तेज सहन नहीं कर सकता ॥ ३०॥ संसार में पतित जीवों के एकमात्र आप ही परम आश्रय हैं। हे शरणागतों का दु:ख दूर करनेवाले ! आप प्रसन्न होइये और मेरे अमंगलोंको नष्ट कीजिये ॥ ३१ ॥

आप ही समुद्र हैं, आप ही पर्वत है, आप ही नदियाँ हैं और आप ही वन हैं तथा आप ही पृथिवी, आकाश, वायु, जल, अग्नि और मन हैं ॥ ३२ ॥ आप ही बुद्धि, अव्याकृत, प्राण और प्राणोंका अधिष्ठाता पुरुष हैं; तथा पुरुषसे भी परे जो व्यापक और जन्म तथा विकारसे शून्य तत्त्व है वह भी आप ही हैं ॥ ३३ ॥ जो शब्दादिसे रहित, अजर, अमेय, अक्षय और नाश तथा वृद्धिसे रहित है वह आद्यन्त हीन ब्राह्मण भी आप ही हैं ॥ ३४ ॥ आपहीसे देवता, पितृगण, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध और अप्सरागण उत्पन्न हुए हैं। आपहीसे मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप और मृग आदि हुए हैं तथा आपसे सम्पूर्ण वृक्ष और जो कुछ भी भूत-भविष्यत् चरा चर जगत् है वह सब हुआ है ।। ३५-३६॥ हे प्रभो ! मूर्त-अमूर्त, स्थूल-सूक्ष्म तथा और भी जो कुछ है वह सब आप जगत्कर्ता ही हैं , आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है ॥ ३७ ॥

हे भगवन् ! तापत्रयसे अभिभूत होकर सर्वदा इस संसार-चक्रमें भ्रमण करते हुए मुझे कभी शान्ति प्राप्त नहीं हुई ॥ ३८ ॥ हे नाथ ! जलकी आशासे मृगतृष्णाके समान मैंने दुःखोंको ही सुख समझकर ग्रहण किया था; परन्तु वे मेरे सन्तापके ही कारण हुए ॥ ३९ ॥ हे प्रभो ! राज्य, पृथिवी, सेना, कोश, मित्रपक्ष, पुत्रगण, स्त्री तथा सेवक आदि और शब्दादि विषय इन सबको मैंने अविनाशी तथा सुख-बुद्धि से ही अपनाया था; किन्तु हे ईश! परिणाम में वे ही दुःखरूप सिद्ध हुए ॥४०-४१॥ हे नाथ ! जब देवलोक प्राप्त करके सभी देवताओं को मेरी सहायताकी इच्छा हुई तो उस ( स्वर्गलोक ) में भी नित्यशान्ति कहाँ है ? ।। ४२ ।। हे परमेश्वर ! सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति के आदि-स्थान आपकी आराधना किये बिना कौन शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकता है ?

हे प्रभु! आपकी माया से मूढ़ हुए पुरुष जन्म, मृत्यु और जरा आदि सन्तापोंको भोगते हुए अन्तमें यमराज के दर्शन करते हैं। ४४ ॥ आपके स्वरूपको न जाननेवाले पुरुष नरकोंमें पड़कर अपने कर्मो का फलस्वरूप नाना प्रकारके दारुण क्लेश पाते हैं ॥ ४५ ॥ हे परमेश्वर ! मैं अत्यन्त विषयी हूँ और आपकी माया से मोहित होकर ममत्वाभिमानके गड्ढेमें मैं भटकता रहा हूँ ।। ४६ ।। वही मैं आज अपार और अप्रमेय परमपदरूप आप परमेश्वर की शरण में आया हूँ जिससे भिन्न दूसरा कुछ भी नहीं है, और संसारभ्रमणके खेदसे खिन्नचित्त होकर मैं निरतिशय तेजोमय निर्वाणस्वरूप आपका ही अभिलाषी हूँ"॥४७॥

     "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयोविंशोऽध्यायः"

      --------चौबीसवाँ अध्याय---–---


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                    श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


"मुचुकुन्द का तपस्या के लिये प्रस्थान और बलरामजी की व्रज यात्रा"
श्री पराशर जी बोले ;- परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्द के इस प्रकार स्तुति करने पर सर्व भूतों के ईश्वर अनादिनिधन भगवान हरि बोले ॥१॥

श्रीभगवान्ने कहा ;- हे नरेश्वर ! तुम अपने अभिमत दिव्य लोकोंको जाओ; मेरी कृपासे तुम्हें अव्याहत परम ऐश्वर्य प्राप्त होगा ॥२॥ वहाँ अत्यन्त दिव्य भोगोंको भोगकर तुम अंत में एक महान् कुलमें जन्म लोगे, उस समय तुम्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण रहेगा और फिर मेरी कृपासे तुम मोक्षपद प्राप्त करोगे ॥३॥

श्री पराशर जी बोले ;- भगवान के इस प्रकार कहनेपर राजा मुचुकुन्द ने जगदीश्वर श्री अच्युत को प्रणाम किया और गुफासे निकलकर देखा कि लोग बहुत छोटे-छोटे हो गये है ॥ ४ ॥ उस समय कलियुग को वर्तमान समझकर राजा तपस्या करनेके लिये श्री नर नारायण के स्थान गंधमादन पर्वत पर चले गये ॥५॥ इस प्रकार कृष्णचन्द्रने उपायपूर्वक शत्रुको नष्टकर फिर मथुरा में आ उसकी हाथी, घोड़े और रथादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत किया और उसे द्वारका में लाकर राजा उग्रसेन को अर्पण कर दिया । तबसे यदुवंश शत्रुओंके दमनसे निःशंक हो गया ।। ६-७॥

हे मैत्रेय ! इस सम्पूर्ण विग्रह के शांत हो जानेपर बलदेवजी अपने बान्धवोंके दर्शनकी उत्कण्ठासे नन्दजीके गोकुलको गये ॥ ८॥ वहाँ पहुँचकर शत्रुजित् बलभद्रजीने गोप और गोपियों का पहले ही की भाँति अति आदर और प्रेम के साथ अभिवादन किया ॥ ९ ॥ किसीने उनका आलिङ्गन किया और किसीको उन्होंने गले लगाया तथा किन्हीं गोप और गोपियों के साथ उन्होंने हास परिहास किया ॥ १०॥ गोपोंने बलरामजीसे अनेकों प्रिय वचन कहे तथा गोपियों में से कोई प्रणयकुपित होकर बोली और किन्हींने उपालम्भयुक्त बातें की ॥ ११ ।।

किन्हीं अन्य गोपियों ने पूछा ;- चञ्चल एवं अल्प प्रेम करना ही जिनका स्वभाव है, वे नगर-नारियों के प्राणाधार कृष्ण तो आनन्दमें हैं न ? ॥ १२ ॥ वे 'क्षणिक स्नेहवाले नन्दनन्दन हमारी चेष्टाओंका उपहास करते हुए क्या नगरकी महिलाओं के सौभाग्य का मान नहीं बढ़ाया करते ? ॥ १३ ॥ क्या कृष्णचन्द्र कभी हमारे गीतानुयायी मनोहर स्वरका स्मरण करते हैं ? क्या वे एक बार अपनी माताको भी देखने के लिये यहाँ आवेंगे ? ॥ १४॥ अथवा अब उनकी बात करनेसे हमें क्या प्रयोजन है, कोई और बात करो। जब उनकी हमारे बिना निभ गयी तो हम भी उनके बिना निभा ही लेंगी ॥ १५ ॥ क्या माता, क्या पिता, क्या बन्धु, क्या पति और क्या कुटुम्ब के लोग ? हमने उनके लिये सभीको छोड़ दिया, किन्तु वे तो अकृतज्ञोंकी ध्वजा ही निकले ।। १६ ॥ तथापि बलराम जी! सच-सच बतलाइये क्या कृष्ण कभी यहाँ आनेके विषयमें भी कोई बातचीत करते हैं ? ॥ १७ । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि दामोदर कृष्ण का चित्र नागरी नारियों में फंस गया है; हममें अब उनकी प्रीति नहीं है, अतः अब हमें तो उनका दर्शन दुर्लभ ही जान पड़ता है ॥ १८ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;- तदनन्तर श्रीहरिने जिनका चित्त हर लिया है वे गोपियाँ बलरामजीको कृष्ण और दामोदर कहकर सम्बोधन करने लगी और फिर उच्च स्वर से हँसने लगीं ॥ १ ॥ तब बलभद्रजी ने कृष्ण चन्द्र का अति मनोहर और शान्तिमय, प्रेमगर्भित और गर्वहीन सन्देश सुनकर गोपियोंको सांत्वना दी ।। २०॥ तथा गोपों के साथ हास्य करते हुए उन्होंने पहलेकी भाँति बहुत-सी मनोहर बातें की और उनके साथ ब्रजभूमि में नाना प्रकारकी लीलाएँ करते रहे ॥ २१ ॥

      "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्विंशोऽध्यायः"

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