सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ व सत्रहवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का  पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ व सत्रहवाँ अध्याय}} {Fifteenth, sixteenth and seventeenth chapters of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


                                 "पन्द्रहवाँ अध्याय"


"कंस का श्रीकृष्ण को बुलाने के लिये अक्रूर को भेजना"
श्री पराशर जी बोले ;- वृषभ रूपधारी अरिष्टासुर, धेनुक और प्रलम्ब आदिका वध, गोवर्धन पर्वत का धारण करना, कालियनाग का दमन, दो विशाल वृक्षों का उखाड़ना, पूतना वध तथा शकट का उलट देना आदि अनेक लीलाएँ हो जानेपर एक दिन नारद जी ने कंस को यशोदा और देवकी के गर्भ-परीवर्तनसे लेकर जैसा जैसा हुआ था, वह सब वृत्तान्त क्रमशः सुना दिया ॥ १-३॥

देवदर्शन नारदजी से ये सब बातें सुनकर दुर्बुद्धि कंस ने वसुदेव जी के प्रति अत्यन्त क्रोध प्रकट किया ॥४॥ उसने अत्यन्त कोपसे वसुदेव को सम्पूर्ण यादवोंं की सभा में डाँटा तथा समस्त यादवों: की भी निन्दा की और यह कार्य विचारने लगा 'ये अत्यन्त बालक राम और कृष्ण जब तक पूर्ण बल प्राप्त नहीं करते हैं तभीतक मुझे इन्हें मार देना चाहिये; क्योंकि युवावस्था प्राप्त होनेपर तो ये अजेय हो जायेंगे ।। ५-६॥ मेरे यहाँ महावीर्यशाली चाणूर और महाबली मुष्टिक-जैसे मल्ल हैं। मैं इनके साथ मल्लयुद्ध कराकर उन दोनों दुर्बुद्धियो को मरवा डालूंगा ७॥ उन्हें महान धनुर्यज्ञ के मिससे ब्रजसे बुलाकर ऐसे-ऐसे उपाय करुंगा जिससे वे नष्ट हो जायँ ॥ ८॥ उन्हें लाने के लिये मैं श्वफल्कके पुत्र यादव श्रेष्ठ शूरवीर अक्रूर को गोकुल भेजूँगा ॥९॥ साथ ही वृंदावन में विचरने वाले घोर असुर केशी को भी आज्ञा दूँगा जिससे वह महाबली दैत्य उन्हें वहीं नष्ट कर देगा ॥ १० ॥ अथवा [ यदि किसी प्रकार बचकर ] वे दोनों वसुदेव पुत्र गोप मेरे पास आ भी गये तो उन्हें मेरा कुवलयापीड हाथी मार डालेगा ॥११॥

श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा सोचकर उस दुष्टात्मा कंस ने वीरवर राम और कृष्ण को मारने का निश्चय कर अक्रूर जी से कहा ॥ १२ ।

कंस बोला ;- हे दानपते ! मेरी प्रसन्नता के लिये आप मेरी एक बात स्वीकार कर लीजिये । यहाँसे रथपर चढ़कर आप नंद के गोकुलको जाइये ॥ १३ ॥ वहाँ वसुदेव के विष्णु-अंश से उत्पन्न दो पुत्र हैं । मेरे नाशके लिये उत्पन्न हुए वे दुष्ट बालक वहाँ पोषित हो रहे हैं ॥ १४ ॥। मेरे यहाँ चतुर्दशीको धनुष यज्ञ होनेवाला है; अतः आप वहाँ जाकर उन्हें मल्लयुद्धके लिये ले आइये ॥ १५ ॥ मेरे चाणूर और मुष्टिक नामक भल्ल युग्म-युद्ध (कुश्ती) में अति कुशल हैं, [ उस धनुर्यज्ञ के दिन ] उन दोनोंके साथ मेरे इन पहलवानोंका द्वन्द्वयुद्ध यहाँ सब लोग देखें ॥ १६ ॥ अथवा महावतसे प्रेरित हुआ कुवलयापीड नामक गजराज उन दोनों दुष्ट वसुदेव-पुत्र बालकोंको नष्ट कर देगा ॥ १७ ॥
 इस प्रकार उन्हें मारकर मैं दुर्मति वासुदेव, नन्दगोप और इस अपने मन्दमति पिता उग्रसेन को भी मार डालूँगा ॥ १८ ॥ तदनन्तर मेरे वधकी इच्छा वाले इन समस्त दुष्ट गोपों के सम्पूर्ण गोधन तथा धनको मैं छीन लूंगा ॥ १९ ॥ हे दानपते ! आपके अतिरिक्त ये सभी यादवगण मुझसे द्वेष करते हैं, अतः मैं क्रमशः इन सभी को नष्ट करनेका प्रयत्न करूँगा ।। २० ॥ फिर मैं आपके साथ मिलकर इस यादवहीन राज्यको निर्विघ्नतापूर्वक भोगूंगा, अतः हे वीर ! मेरी प्रसन्नता के लिये आप शीघ्र ही जाइये ॥ २१ ॥ आप गोकुल में पहुँचकर गोपगणोंसे इस प्रकार कहें जिससे वे माहिष्य (भैंस के) घृत और दधि आदि उपहारोंके सहित शीघ्र ही यहाँ आ जायँ |॥ २२ ||

श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विज ! कंससे ऐसी आज्ञा का महाभागवत अक्रूर जी 'कल मैं शीघ्र ही श्रीकृष्णचन्द्रको दिखूँगा'-यह सोचकर अति प्रसन्न हुए ।। २३ ।। माधवप्रिय अक्रूर जी राजा कंस से ' जो आज्ञा' कह एक अति सुन्दर रथपर चढ़े और मथुरापुर से बाहर निकल आये ॥ २४ ।

        "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः"


                 -------सोलहवाँ अध्याय-------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


"केशिवध"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! इधर कंस के दूतद्वारा भेजा हुआ महाबली   केशी भी कृष्णचन्द्र के वधकी इच्छासे [ घोड़े का रूप धारणकर ] वृन्दावन - में आया ॥१॥ वह अपने खुरों से पृथ्वीतल  को  खोदता, ग्रीवाके बालोंसे बादलोंको छिन्न-भिन्न करता तथा वेग से चन्द्रमा और सूर्य के मार्गको भी पार करता गोपोंं की ओर दौड़ा ॥ २ ॥ उस अश्वरूप दैत्य के हिनहिनाने के शब्द से भयभीत होकर समस्त गोप और गोपियाँ श्री गोविंद की शरण में आये ॥३॥

तब उनके त्राहि-त्राहि शब्द को सुनकर भगवान कृष्णचन्द्र सजल मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर वाणीसे बोले-४॥ हे गोपालगण! आपलोग केशी (केशधारी अश्व ) से न डरें, आप तो गोप-जातिके हैं, फिर इस प्रकार भयभीत होकर आप अपने वीरोचित पुरुषार्थ का लोप क्यों करते हैं ? | ५ ॥ यह अल्पवीर्य, हिनहिनानेसे आतङ्क फैलानेवाला और नाचने वाला दुष्ट अश्व, जिस पर राक्षस गण बलपूर्वक चढ़ा करते हैं, आपलोगोंका क्या बिगाड़ सकता है ? ॥ ६॥

[ इस प्रकार गोपोंको धैर्य बँधाकर वे केशीसे  कहने लगे ] - 'अरे दुष्ट ! इधर आ, पिनाकधारी वीरभद्रने जिस प्रकार पूषाके दाँत उखाड़े थे उसी प्रकार मैं कृष्ण तेरे मुखसे सारे दाँत गिरा दूंगा ॥ ७॥ ऐसा कहकर श्रीगोविन्द उछलकर केशीके सामने आये और वह अश्वरूपधारी दैत्य भी मुँह खोलकर उनकी ओर दौड़ा ॥ ८ ॥ तब जनार्दन अपनी बाँह फैलाकर उस अश्वरूपधारी दुष्ट दैत्य के मुखमें डाल दी ॥ ९ ॥ केशीके मुखमें घुसी हुई भगवान कृष्ण की बाहुसे टकराकर उसके समस्त दाँत शुभ्र मेघखण्डोंके समान टूटकर बाहर गिर पड़े ।। १०॥

हे द्विज ! उत्पत्तिके समयसे ही उपेक्षा की गयी व्याधि जिस प्रकार नाश करने के लिये बढ़ने लगती है उसी प्रकार केशीके दे हमें प्रविष्ट हुई कृष्णचन्द्रकी भुजा बढ़ने लगी ॥ ११॥ अन्तः में ओठोंके फट जानेसे वह फेनसहित रुधिर वमन करने लगा और उसकी आँखें स्नायुबंधन के ढीले हो जानेसे फूट गयीं ॥ १२॥ तब वह मल-मूत्र छोड़ता हुआ पृथ्वी पर पैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीने से भरकर ठंढा पड़ गया और वह निश्चेष्ट हो गया ॥ १३ ॥ इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजा से जिसके मुखका विशाल रन्ध्र फैलाया गया है वह महान असुर मरकर वज्रपातसे गिरे हुए वृक्ष के समान दो खण्ड होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ १४ ॥ केशीके शरीरके वे दोनों खण्ड दो पाँव, आधी पीठ, आधी पूँछ तथा एक-एक कान-आँख और नासिकारन्ध्रसहित सुशोभित हुए ॥ १५॥

इस प्रकार केशीको मारकर प्रसन्न चित्त ग्वाल- बालोंसे घिरे हुए श्रीकृष्णचन्द्र बिना श्रमके स्वस्थ चित्तसे हँसते हुए वहीं खड़े रहे ॥ १६ ॥ तब केशीके मारे जानेसे विस्मित हुए गोप और गोपियों ने अनुरागवश अत्यन्त मनोहर प्रतीत होनेवाले कमलनयन श्री श्याम सुंदर की स्तुति की ॥ १७ ॥

हे विप्र ! उसे मरा देख मेघ पटल में छिपे हुए श्री नारद जी हर्षित चित्र से कहने लगे-॥ १८ ॥ “हे जगन्नाथ ! हे अच्युत !! आप धन्य हैं, धन्य है । अहा ! अपने देवताओं को दुःख देनेवाले इस केशी को लीलासे ही मार डाला ॥ १९ ॥ मैं मनुष्य और अश्व के इस अभूतपूर्व ( पहले कभी न होनेवाले ) युद्धको देखनेके लिये ही अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वर्गसे यहाँ आया था | २० ॥
हे मधुसूदन ! आपने अपने इस अवतार में जो-जो कर्म किये हैं उनसे मेरा चित्त अत्यन्त विस्मित और सन्तुष्ट हो रहा है ॥ २१ ॥ हे कृष्ण ! अपनी सटाओंको फड़ फड़ानेवाले और हींस-हींसकर आकाशकी ओर देखनेवाले इस घोड़े से तो समस्त देवगण और इन्द्र भी डर जाते थे ।। २२ ॥ हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशीको मारा है; इसलिये आप लोकमें 'केशव' नामसे विख्यात होंगे॥२३॥ हे केशिनीषूदन ! आपका कल्याण हो, अब मैं जाता हूँ । परसों कंसके साथ आपका युद्ध होनेके समय मैं फिर आऊँगा ॥ २४ ॥ हे पृथिवीधर ! अनुगामीयों सहित उग्रसेन के पुत्र कंस के मारे जानेपर आप पृथ्वी का भार उतार देंगे ।। २५ ॥ हे जनार्दन ! उस समय मैं अनेक राजाओं के साथ आप आयुष्मान पुरुषके किये हुए अनेक प्रकारके युद्ध देखूँगा ॥ २६ ॥ हे गोविन्द ! अब मैं जाना चाहता हूँ । आपने देवताओं को बहुत बड़ा कार्य किया है। आप सभी कुछ जानते हैं [ मैं अधिक क्या कहूँ ? ] आपका मंगल हो, मैं जाता हूँ" ॥२७॥

तदनन्तर नारद जी के चले जानेपर गोपगणसे सम्मानित गोपियों के नेत्रों के एकमात्र पेय [ अर्थात दृश्य ] श्रीकृष्णचन्द्रने ग्वालबालोंके साथ गोकुल में प्रवेश किया ॥ २८॥


       "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पोडशोऽध्यायः"

              -----------सत्रहवां अध्याय---------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (पञ्चम अंश)


"अक्रूरजी की गोकुल यात्रा"
श्री पराशर जी बोले ;- अक्रूर जी भी तुरंत ही मथुरापुरीसे निकलकर श्रीकृष्ण-दर्शनकी लालसासे एक शीघ्रगामी रथद्वारा नन्दजीके गोकुलको चले ॥१॥ अक्रूरजी सोचने लगे-'आज मुझ-जैसा बड़भागी और कोई नहीं है, क्योंकि अपने अंशसे अवतीर्ण चक्रधारी श्री विष्णु भगवान का सुख मैं अपने नेत्रोंसे देखूँगा ॥ २ ॥ आज मेरा जन्म सफल हो गया; आजकी रात्रि [ अवश्य ] सुन्दर प्रभातवाली थी, जिससे कि मैं आज खिले हुए कमलके समान नेत्र वाले श्री विष्णु भगवान के मुखका दर्शन करूँगा ॥३॥ प्रभुका जो संकल्पमय मुखारविन्द स्मरण मात्रसे पुरुषों के पापों को दूर कर देता है आज मैं विष्णु भगवान के उसी कमलनयन मुखको देखूँगा ॥ ४ ॥ जिससे सम्पूर्ण वेद और वेदाङ्गो की उत्पत्ति हुई है। आज मैं सम्पूर्ण तेजस्वियोंके परम आश्रय उसी भगवत्-मुखारविन्दका दर्शन करूँगा ॥५॥ समस्त पुरुषों के द्वारा यज्ञों में जिन अखिल विश्वके आधारभूत पुरुषोत्तम का यज्ञ पुरुष-रूप से यजन ( पूजन ) किया जाता है आज मैं उन्हीं जगत्पतिका दर्शन करूँगा॥६॥ जिनका सौ यज्ञों से यजन करके इन्द्रने देवराज-पदवी प्राप्त की है, आज मैं उन्हीं अनादि और अनन्त केशवका दर्शन करूँगा ॥ ७ ॥ जिनके स्वरूपको ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनी कुमार, वसुगण, आदित्य और मरुद्गण आदि कोई भी नहीं जानते, आज वे ही हरि मेरे नेत्रों के विषय होंगे॥ ८॥ जो सर्वात्मा, सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप और सब भूतोंमें अवस्थित हैं तथा जो अचिन्त्य, अव्यय
 और सर्वव्यापक हैं, अहो ! आज स्वयं वे ही मेरे साथ बातें करेंगे॥९॥ जिन अजन्माने मत्स्य, कूर्म, वराह, हयग्रीव और नृसिंह आदि रूप धारण- कर जगत् की रक्षा की है आज वे ही मुझसे वार्ता लाप करेंगे॥१०॥

इस समय उन अव्ययात्मा जगत्प्रभुने अपने मनमें सोचा हुआ कार्य करनेके लिये अपनी ही इच्छा से मनुष्य देह धारण किया है ।। ११।।

जो अनन्त ( शेषजी ) अपने मस्तकपर रखी हुई पृथ्वी को धारण करते हैं, संसारके हित के लिये अवतीर्ण हुए वे ही आज मुझसे 'अक्रूर' कहकर बोलेंगे ॥ १२ ॥

'जिनकी इस पिता, पुत्र, सुहृद्, भ्राता, माता और बन्धुरूपिणी मायाको पार करने में संसार सर्वथा असमर्थ है उन मायापति बारंबार नमस्कार है ॥ १३ ॥ जिनमें हृदयको लगा देनेसे पुरुप इस योगमायारूप विस्तृत अविद्या को पार कर जाता है उन विद्या स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है ॥ १४ जिन्हें याज्ञिक लोग 'यज्ञ पुरुष', सात्वत ( यादव अथवा भगवद्भक्त) गण 'वासुदेव' और वेदान्तवेत्ता 'विष्णु' कहते हैं उन्हें बारंबार नमस्कार है ।। १५ ।। जिस ( सत्य ) से यह सदसद्रूप जगत् उस जगदा धार विधातामें ही स्थित है उस सत्यबल से ही वे प्रभु मुझपर प्रसन्न हों ॥ १६ । जिनके स्मरणमात्रसे पुरुष सर्वथा कल्याणपात्र हो जाता है, मैं सर्वदा उन अजन्मा हरिकी शरणमें प्राप्त होता हूँ' ॥ १७ ॥

श्री पराशर जी बोले ;-  हे मैत्रेय ! भक्ति विनम्र चित्त अक्रूरजी इस प्रकार श्री विष्णु भगवान का चिन्तन करते कुछ कुछ सूर्य रहते ही गोकुल में पहुँच गये ॥ १८।। वहाँ पहुँचनेपर पहले उन्होंने खिले हुए नीलकमलकी-सी कान्तिवाले श्रीकृष्णचन्द्रको गौओं के दोहन-स्थानमें बछड़ोंके बीच विराजमान देखा ॥ १९ ॥ जिनके नेत्र खिले हुए कमलके समान थे, वक्षःस्थलमें श्रीवत्स-चिह्न सुशोभित था, भुजाएँ लंबी-लंबी थीं, वक्षःस्थल विशाल और ऊँचा था तथा नासिक उन्नत थी । २० ॥ जो सविलास हासयुक्त मनोहर मुखारविन्दसे सुशोभित थे तथा उन्नत और रक्तनखयुक्त चरणोंसे पृथिवीपर विराज मान थे ॥ २१ ॥ जो दो पीताम्बर धारण किये थे, वन्यपुष्पोंसे विभूषित थे तथा जिनका श्वेत कमलके आभूषणोंसे युक्त श्याम शरीर सचन्द्र नीलांचल के समान सुशोभित था ॥ २२ ॥

हे द्विज ! श्री ब्रजचंद्र के पीछे उन्होंने हंस, कुन्द और चन्द्रमा के समान गौर वर्ण नीलाम्बरधारी यदुनंदन श्री बलभद्र जी को देखा ॥ २३ ॥

जिनकी भुजाएँ विशाल थीं, कन्धे उन्नत थे, मुखार विन्द खिता हुआ था तथा जो मेघमाला से घिरे हुए दूसरे कैलाश पर्वत के समान जान पड़ते थे ॥ २४ ॥

हे मुने! उन दोनों बालकोंको देखकर महामति अक्रूर जी का मुख कमल प्रफुल्लित हो गया तथा उनके सर्वाङ्गमें पुलकावली छा गयी ॥ २५ ॥ [ और वे मन-ही-मन कहने लगे ] इन दो रूपों में जो यह भगवान वासुदेव का अंश स्थित है वही परमधाम है और वही परमपद है ॥ २६ ॥ इन जगद्विधाताके दर्शन पाकर आज मेरे नेत्रयुगल तो सफल हो गये; किन्तु क्या अब भगवत्कृपासे इनका अंगसंग पाकर मेरा शरीर भी कृतकृत्य हो सकेगा ? ॥ २७॥ जिनकी अंगुलीके स्पर्शमात्रसे सम्पूर्ण पापों से मुक्त हुए पुरुष निर्दोष सिध्दि ( कैवल्य मोक्ष ) प्राप्त कर लेते हैं क्या वे अनन्तमूर्ति श्रीमान् हरि मेरी पीठ पर अपना करकमल रखेंगे ? ॥२८॥ जिन्होंने अग्नि, विद्युत और सूर्य की किरणमालाके समान अपने उग्र चक्रका प्रहारकर दैत्यपतिकी सेनाको नष्ट करते हुए असुर-सुन्दरियोंकी आँखोंके अञ्जन धो डाले थे ॥ २९ ॥ जिनको एक जलबिन्दु प्रदान करनेसे राजा बलि ने पृथ्वीतल में अति मनोज्ञ भोग और एक मन्वन्तर तक देवत्व-लाभपूवक शत्रुविहीन इंद्र पद प्राप्त किया था ॥ ३० ॥ वे ही विष्णु भगवान मुझ निर्दोषको भी कंसके संसर्गसे दोषी ठहराकर क्या मेरी अवज्ञा कर देंगे ? मेरे ऐसे साधुजन बहिष्कृत पुरुष के जन्म को धिक्कार है ।।३१॥ अथवा संसार में ऐसी कौन वस्तु है जो उन ज्ञानस्वरूप, शुद्धसत्त्वराशि, दोषहीन, नित्यप्रकाश और समस्त भूतोंके हृदयस्थित प्रभुको विदित न हो ? ॥ ३२ ॥ अतः मैं उन ईश्वरोंके ईश्वर, आदि, मध्य और अन्त रहित पुरुषोत्तम भगवान विष्णु के अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्र के पास भक्तिविनम्रचित्तसे जाता हूँ। [ मुझे पूर्ण आशा है, वे मेरी कभी अवज्ञा न करेंगे ] ।।३३।।

       "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तदशोऽध्यायः"

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