सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का पच्चीसवाँ, छब्बीसवाँ, सत्ताईसवाँ व अट्ठाईसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का  पच्चीसवाँ, छब्बीसवाँ, सत्ताईसवाँ व अट्ठाईसवाँ अध्याय}} {The twenty-first, twenty-second, twenty-third and twenty-fourth chapters of the entire Vishnu Purana (Fifth part)}

                                  "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


                                  "पच्चीसवाँ अध्याय"


"बलभद्र जी का व्रज-विहार तथा यमुनाकर्षण"
श्री पराशर जी बोले ;- अपने कार्यों से पृथ्वी को विचलित करने वाले, बड़े विकट कार्य करने वाले , धरणीधर शेषजी के अवतार माया-मानवरूप महात्मा बलरामजी को गोपों के साथ वनमें विचरते देख उनके उपभोगके लिये वरुणने वारुणी (मदिरा) से कहा-॥ १-२ ॥ हे मदिरे ! जिन महाबलशाली अनन्त देवको तुम सर्वदा प्रिय हो; हे शुभे ! तुम उनके उपभोग और प्रसन्नता के लिये जाओ"|॥ ३ || वरुणकी ऐसी आज्ञा होनेपर वारुणी वृन्दावन में उत्पन्न हुए कदम्ब-वृक्ष के कोटर में रहने लगी ॥ ४ ॥ तब मनोहर मुखवाले बलदेवजीको वनमें विचरते हुए मदिराकी अति उत्तम गंध सूंघने से उसे पीनेकी इच्छा हुई ॥ ५ ॥ हे मैत्रेय ! उसी समय कदम्बसे मद्यकी धारा गिरती देख हलधारी बलराम जी बड़े प्रसन्न हुए॥ ६॥ तथा गाने-बजानेमें कुशल गोप और गोपियों के मधुर स्वरसे गाते हुए उन्होंने उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक मद्यपान किया ॥ ७ ॥

तदनन्तर अत्यन्त घामके कारण स्वेद-बिन्दुरूप मोतियों से सुशोभित मदोन्मत्त बलराम ने विह्वल हल होकर कहा-"यमुने! आ, मैं स्नान करना चाहता हूँ" ॥ ८॥
 उनके वाक्य को उन्मत्तका प्रलाप समझ कर यमुनाने उसपर कुछ भी ध्यान न दिया और वह वहाँ न आयी । इसपर हलधरने क्रोधित होकर अपना हल उठाया ॥ ९॥ और मदसे विह्वल होकर यमुनाको हलकी नोकसे पकड़कर खींचते हुए कहा --- "अरी पापिनी ! तू नहीं आती थी ! अच्छा, अब [ यदि शक्ति हो तो ] इच्छानुसार अन्यत्र जा तो सही" ॥ १०॥ इस प्रकार बलरामजीके खींचनेपर यमुनाने अकस्मात् अपना मार्ग छोड़ दिया और जिस वनमें बलरामजी खड़े थे उसे आप्लावित कर दिया ॥ ११॥

तब वह शरीर धारण कर बलराम के पास आयी और भयवश डबडबाती आँखों से कहने लगी-“हे मुसलायुध ! आप प्रसन्न होइये और मुझे छोड़ दीजिये" । १२ ।। उसके उन मधुर वचनों को सुनकर हलायुध बलभद्र ने कहा-"अरी नदि ! क्या तू मेरे बल-वीर्यकी अवज्ञा करती है ? देख इस हलसे मैं अभी तेरे हजारों टुकड़े कर डालूँगा ॥ १३ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- बलराम जी द्वारा इस प्रकार कही जानेसे भयभीत हुए यमुनाके उस भू भागमें बहने लगनेपर उन्होंने प्रसन्न होकर उसे छोड़ दिया ॥ १४ ॥ उस समय स्नान करनेपर महात्मा बलराम जी की अत्यन्त शोभा हुई। तब लक्ष्मीजी ने [ सशरीर प्रकट होकर ] उन्हें एक सुन्दर कर्णफूल, एक कुण्डल, एक वरुणकी भेजी हुई कभी न कुम्हलानेवाले कमल-पुष्पोंकी माला और दो समुद्र- के समान कान्तिवाले नीलवर्णं वस्त्र दिये ॥ १५-१६॥ उन कर्णफूल, सुंदर कुण्डल, नीलाम्बर और पुष्प- माला को धारण कर श्री बलरामजी अतिशय कान्ति युक्त हो सुशोभित होने लगे ॥ १७ ॥ इस प्रकार विभूषित होकर श्री बलभद्र ने ब्रज में अनेकों लीलाएँ की और फिर दो माह पश्चात् द्वारकापुरी को चले आये ॥ १८॥ वहाँ आकर बलदेवजीने राजा रैवत की पुत्री रेवतीसे विवाह किया; उससे उनके निशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए ॥ १९ ॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंंऽशे पश्चविंशोऽध्यायः"

         --------छब्बीसवाँ अध्याय--------


                               "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


                                  "छब्बीसवाँ अध्याय"


"रुक्मिणीहरण"
श्री पराशर जी बोले ;- विदर्भ देशांतर्गत कुण्डिन पुर नामक नगर में भीष्मक नामक एक राजा थे। उनके रुक्मी नामक पुत्र और रुक्मिणी नामकी एक सुमुखी कन्या थी॥१॥ श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी की और चारुहासिनी रुक्मिणीने श्रीकृष्ण चन्द्र की अभिलाषा की, किन्तु भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के प्रार्थना करनेपर भी उनसे द्वेष करनेके कारण रुक्मीने उन्हें रुक्मिणी न दी ॥२॥ महापराक्रमी भीष्मकने जरासंध की प्रेरणा से रुक्मी से सहमत होकर शिशुपाल को रुक्मिणी देनेका निश्चय किया॥३॥ तब शिशुपाल के हितैषी जरासन्ध आदि सम्पूर्ण राजा गण विवाह में सम्मिलित होनेके लिये भीष्मकके नगर में गये ॥४॥ इधर बलभद्र आदि यदुवंशियों के सहित श्रीकृष्णचन्द्र भी चेदिराज का विवाह उत्सव देखने के लिये कुण्डिन पुर आये ॥ ५ ॥

तदनन्तर विवाह का एक दिन रहनेपर अपने विपक्षियों का भार बलभद्र आदि बन्धुओंको सौंपकर श्रीहरिने उस कन्याका हरण कर लिया ॥ ६ ॥ तब श्रीमान् पौण्डृक, दन्तवक्र, विदूरथ, शिशुपाल, जरासन्ध और शाल्व आदि राजाओंने क्रोधित होकर श्रीहरिको मारनेका महान् उद्योग किया, किन्तु वे सब बलराम आदि यदुश्रेष्ठों से मुठभेड़ होनेपर पराजित हो गये॥ ७ ८ । । तब रुक्मी ने यह प्रतिज्ञाकर कि 'मैं युद्ध में कृष्ण को मारे बिना कुण्डिन पुरमें प्रवेश न करूँगा' कृष्ण को मारने के लिये उनका पीछा किया॥९॥ किन्तु श्री कृष्ण ने लीला से हो हाथी, घोड़े, रथ और पदातियोंं से युक्त उसकी सेना को नष्ट करके उसे जीत लिया और पृथ्वी में गिरा दिया ॥ १०॥।

इस प्रकार रुक्मी को युद्ध में परास्त कर श्री मधु सूदन ने राक्षस विवाह से मिली हुई रुक्मिणी का सम्यक् ( वेदोक्त ) रीतिसे पाणिग्रहण किया ॥ ११ ॥ उससे उनके कामदेव के अंश से उत्पन्न हुए वीर्यवान् प्रद्युम्न जीका जन्म हुआ, जिन्हें शम्बरासुर हर ले गया था और फिर [ कालक्रम से ] जिन्होंने शम्बरासुर का वध किया था ॥ १२ ॥

       "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंंऽशे  षड्विंशोऽध्यायः"

       --------सत्ताईसवाँ अध्याय-------


                               "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


                                  "सत्ताईसवाँ अध्याय"

"प्रद्युम्न-हरण तथा शम्बर-वध"
श्री मैत्रेय जी बोले ;-- हे मुने! वीरवार प्रद्युम्न को शम्बरासुरने कैसे हरण किया था ? और फिर उस महाबली शम्बर को प्रद्युम्नने कैसे मारा ? ॥ १ ॥ जिसको पहले उसने हरण किया था उसीने पीछे उसे किस प्रकार मार डाला ? हे गुरो ! मैं यह सम्पूर्ण प्रसंग विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥२॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे मुने! कालके समान विकराल शम्बरासुरने प्रद्युम्नको जन्म लेनेके छठे ही दिन 'यह मेरा मारनेवाला है' ऐसा जानकर सूतिका गृहसे हर लिया ॥ ३ ॥ उसको हरण करके शम्बरासुर ने लवण समुद्र में डाल दिया, जो तरंगमालाजनित आवर्तो से पूर्ण और बड़े भयानक मकरोंका घर है ॥ ४ ॥ वहाँ फेंके हुए उस बालकको एक मत्स्यने निगल लिया, किन्तु वह उसकी जठराग्निसे जलकर भी न मरा॥ ५॥

कालान्तरमें कुछ मछेरोंने उसे अन्य मछलियों के साथ अपने जाल में फंसाया और असुरश्रेष्ठ शम्बर को निवेदन किया ॥६॥ उसकी नाममात्रकी पत्नी मायावती सम्पूर्ण अन्तःपुरकी स्वामिनी थी और वह सुलक्षणा सम्पूर्ण सूदों ( रसोइयों ) का आधिपत्य करती थी॥७॥ उस मछली का पेट चीरते ही उसमें एक अति सुन्दर बालक दिखायी दिया जो दग्ध हुए कामवृक्षका प्रथम अंकुर था॥ ८॥ "तब यह कौन है और किस प्रकार इस मछली के पेट में डाला गया" इस प्रकार अत्यन्त आश्चर्यचकित हुई उस सुन्दरी से देवर्षि नारदने आकर कहा--॥९॥

"हे सुन्दर भृकुटिवाली ! यह सम्पूर्ण जगत् के स्थिति और संहार कर्ता भगवान विष्णु का पुत्र है; इसे शम्बरासुरने सूतिकागृह से चुराकर समुद्र में फेंक दिया था। वहाँ इसे यह मत्स्य निगल गया और अब इसीके द्वारा यह तेरे घर आ गया । तू इस नररत्न का विश्वस्त होकर पालन कर"॥ १० ११ ।॥

श्री पराशर जी बोले ;- नारदजी के ऐसा कहने पर मायावती ने उस बालककी अतिशय सुन्दरतासे मोहित हो बाल्यावस्था से ही उसका अति अनुराग पूर्वक पालन किया ॥ १२ ॥ हे महामते ! जिस समय वह नवयौवनके समागमसे सुशोभित हुआ तब वह गजगामिनी उसके प्रति कामनायुक्त अनुराग प्रकट करने लगी ।। १३ ।। हे महामुने ! जो अपना हृदय और नेत्र प्रद्युम्नमे अर्पित कर चुकी थी उस मायावती ने अनुराग से अन्धी होकर उसे सब प्रकार की माया सिखा दी ॥ १४ ॥ इस प्रकार अपने ऊपर आसक्त हुई उस कमललोचनासे कृष्णनंदन प्रद्युम्न ने कहा-"आज तुम मातृ-भावको छोड़कर यह अन्य प्रकारका भाव क्यों प्रकट करती हो ?" ॥ १५॥ तब मायावती ने कहा-"तुम मेरे पुत्र नहीं हो, तुम भगवान विष्णु के तनय हो। तुम्हें कालशम्बरने हरकर समुद्र में फेंक दिया था; तुम मुझे एक मत्स्यके उदर में मिले हो । हे कान्त ! आपकी पुत्र- वत्सला जननी आज भी रोती होगी" ॥ १६-१७ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- मायावती के इस प्रकार कहने पर महाबलवान प्रद्युम्नजी ने क्रोध से विह्वल हो शम्बरासुरको युद्ध के लिये ललकारा और उससे युद्ध करने लगे ॥ १८॥
यादव श्रेष्ठ प्रद्युम्नजी ने उस दैत्य की सम्पूर्ण सेना मार डाली और उसकी सात मायाओंको जितकर स्वयं आठवीं मायाका प्रयोग किया ।॥ १९ ॥ उस मायासे उन्होंने दैत्यराज कालनम्बर को मार डाला और मायावती के साथ [ विमान द्वारा ] उड़कर आकाशमार्गसे अपने पिता के नगर में आ गये ॥ २० ॥

श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियों ने उन्हें देखकर कृष्ण ही समझा ॥२१॥ किन्तु अनिन्दिता रुक्मिणी के नेत्रों में प्रेमवश आँसू भर आये और वे कहने लगीं "अवश्य ही यह किसी बड़भागिनीका पुत्र है और इस समय नवयौवनमें स्थित है । २२ ॥ यदि मेरा पुत्र प्रद्युम्न जीवित होगा तो उसकी भी यही आयु होगी। हे वत्स! तू ठीक-ठीक बता तूने किस भाग्यवती जननीको विभूषित किया है ? ॥ २३ ॥ अथवा, बेटा! जैसा मुझे तेरे प्रति स्नेह हो रहा है और जैसा तेरा स्वरूप है उससे मुझे ऐसा भी प्रतीत होता है कि तू श्रीहरिका ही पुत्र है" ॥ २४ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- इसी समय श्रीकृष्णचन्द्र के साथ वहाँ नारदजी आ गये । उन्होंने अन्तःपुर निवासिनी देवी रुक्मिणी को आनन्दित करते हुए कहा-॥ २५ ॥ "हे सुभ्रु ! यह तेरा ही पुत्र है। यह शम्बरासुरको मारकर आ रहा है, जिसने कि इसे बाल्यावस्था मे सूतिकागृहसे हर लिया था॥२६॥ यह सती मायावती भी तेरे पुत्र की  ही स्त्री है; यह शम्बरासुरकी पत्नी नहीं है । इसका कारण सुन ॥ २७॥ पूर्वकालमें कामदेव को भस्म हो जानेपर उसके पुर्नजन्म की प्रतिक्षा करती हुई इसने अपने मायामय रूपसे शम्बरासुरको मोहित किया था ॥ २८ ॥ यह मत्तविलोचना उस दैत्यको विहारादि उपभोगों के समय अपने अति सुन्दर मायामय रूप दिखलाती रहती थी ॥ २९॥ कामदेव ने ही तेरे पुत्र रूप से जन्म लिया है और यह सुन्दरी उसकी प्रिया रति ही है। हे शोभने ! यह तेरी पुत्रवधू है, इसमें तू किसी प्रकारकी विपरीत शंका न कर" ॥ ३० ॥

यह सुनकर रुक्मिणी और कृष्ण को अतिशय आनन्द हुआ तथा समस्त द्वारकापुरी भी 'साधु साधु कहने लगी ॥ ३१ ।। उस समय चिरकालसे खोये हुए पुत्र के साथ रुक्मिणी का समागम हुआ देख द्वारकापुरी के सभी नागरिकोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ ३२ ॥

      "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तविंशोऽध्यायः"


       -------अट्ठाईसवाँ अध्याय------


                               "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


                                  "अट्ठाईसवाँ अध्याय"

"रुक्मीका वध"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! रुक्मिणी के [प्रद्युम्न के अतिरिक्त ] चारुदेष्ण, सुदेष्ण, वीर्यवान् चारुदेह, सुषेण, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुविन्द, सुचारु और बलवानों में श्रेष्ठ चारु नामक पुत्र तथा चारुमती नामकी एक कन्या हुई ॥१-२॥ रुक्मिणी के अति रिक्त श्रीकृष्णचन्द्र के कालिन्दी, मित्रबिन्दा, नग्नजित् की पुत्री सत्या, जाम्बवान की पुत्री कामरूपिणी रोहिणी देवी, अतिशीलवती मद्रराजसुता सुशीला भद्रा, सत्राजित की पुत्री सत्यभामा और चारुहासिनी लक्ष्मणा-ये अति सुन्दरी सात स्त्रियाँ और थीं । इनके सिवा उनके सोलह हजार स्त्राँ और भी थीं ॥ ३-५॥

महावीर प्रद्युम्न ने रुक्मी की सुंदरी कन्या को और उस कन्या ने भी भगवान के पुत्र प्रद्युम्न को स्वयंवरमें ग्रहण किया ॥ ६॥ उससे प्रद्युम्न जीके अनिरुद्ध नामक एक महाबल पराक्रम सम्पन्न पुत्र हुआ जो युद्ध में रुद्ध (प्रतिहत ) न होने वाला बलका समुद्र तथा शत्रुओंका दमन करनेवाला था ॥ ७ ॥ कृष्णचन्द्रने उस ( अनिरुद्ध) के लिये भी रुक्मीकी पौत्रीका वरण किया और रुक्मी ने कृष्णचन्द्र से .ईर्ष्या रखते हुए भी अपने दौहित्रको अपनी पौत्री देना स्वीकार कर लिया ॥८॥

हे द्विज ! उसके विवाह में सम्मिलित होने के लिये कृष्ण चन्द्र के साथ बलभद्र आदि अन्य यादवगण भी रुक्मीकी राजधानी भोजकट नामक नगरको गये ॥९॥ जब प्रद्युम्न पुत्र महात्मा अनिरुद्ध का विवाह संस्कार हो चुका तो कलिंगराज आदि राजाओंने रुक्मणी से कहा-॥ १०॥ 'ये बलभद्र द्यूतक्रीड़ा [अच्छी तरह] जानते तो हैं नहीं तथापि इन्हें उसका व्यसन बहुत है; तो फिर हम इन महाबली रामको जुए से ही क्यों न जान लें?" ।॥ ११ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;- तब बलके मदसे उन्मत्त रुक्मी- ने उन राजाओं से कहा-'बहुत अच्छा' और सभा में | । बलराम के साथ द्यूतक्रीड़ा आरम्भ कर दी ।। १२ ।।

रुक्मीने पहले ही दाँव ने बलरामजी से एक सहस्र निष्क जीते तथा दूसरे दाँव में एक सहस्र निष्क और जीते लिये ॥ १३ ॥ तब बलभद्रजीने दश हजार निष्कका एक दाँव और लगाया। उसे भी पक्के जुआरी रुक्मीने ही जीत लिया ॥ १४ ॥ हे द्विज! इसपर मूढ कलिंगराज दाँत दिखाता हुआ जोरसे हँसने लगा और मदोन्मत्त रुक्मीने कहा-॥१५॥ "द्यूतक्रीडासे अनभिज्ञ इन बलभद्र जी को मैंने हरा दिया है; ये वृथा ही अक्षके घमंडसे अन्धे होकर अक्षकुशल पुरुषोंका अपमान करते थे" । १६ ।

इस प्रकार कलिंगराजको दाँत दिखाते और रुक्मी को दुर्वाक्य कहते देख हलायुध बलभद्र जी अत्यन्त क्रोधित हुए ॥ १७ ॥ तब उन्होंने अत्यन्त कुपित होकर करोड़ निष्कका दाँव लगाया और रुक्मीने भी उसे ग्रहण करने के निमित्त पाँसे फेंके ॥ १८॥ उसे बलदेवजीने ही जीता और वे जोर से बोल उठे-मैंने जीता।' इसपर रुक्मी भी चिल्लाकर बोला-"बलराम! असत्य बोलनेसे कुछ लाभ नहीं हो सकता, ये भी मैंने ही जीता है । १९ । आपने इस दाँवके  विषयमें जिक्र अवश्य किया था, किन्तु मैंने उसका अनुमोदन तो नहीं किया। इस प्रकार यदि आपने इसे जीता है तो मैंने भी क्यों नहीं जीता ?" ।२०॥ .

श्रीपराशरजी बोले ;- उसी समय महात्मा बलदेव जीके क्रोधको बढ़ाती हुई आकाशवाणी गम्भीर स्वरमें कहा--॥ २१ ॥ "इस दाँवको धर्मानुसार तो बलराम जी ही जीते हैं; रुक्मी झूठ बोलता है, क्योंकि [ अनुमोदनसूचक ] वचन न कहनेपर भी [ पाँसे फेंकने आदि ] कार्य से वह अनुमोदित ही माना जायगा"।।२२।।

तब क्रोध से अरुण नयन हुए महाबली बलभद्रजीने उठकर रुक्मीको जुआ खेलने के पाँसोंसे ही मार डाला ॥ २३ ॥ फिर फड़कते हुए कलिंगराज को बलपूर्वक पकड़कर बलरामजी ने उसके दाँत, जिन्हें दिखलाता हुआ वह हँसा था, तोड़ दिया॥ २४ ॥ इनके सिवा उसके पक्षके और भी जो कोई राजालोग थे उन्हें बलरामजी ने अत्यन्त कुपित होकर एक सुवर्णमय स्तम्भ उखाड़कर उससे मार डाला ॥ २५ ।।

हे द्विज ! उस समय बलरामजी के कुपित होनेसे हाहाकार मच गया और सम्पूर्ण राजा लोग भयभीत होकर भागने लगे ॥ २६ ॥

हे मैत्रेय ! उस समय रुक्मीको मारा गया देख श्री मधुसूदन ने एक और रुक्मिणी के और दूसरी ओर बलरामजीके भयसे कुछ भी नहीं कहा ॥ २७ ॥ तदनन्तर हे द्विजश्रेष्ठ! यादवोंके सहित श्रीकृष्णचन्द्र सपत्नी व अनिरुद्ध को लेकर द्वारकापुरी में चले आये ॥ २८॥

         "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशेऽष्टाविंशोऽध्यायः"

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