सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का उन्तीसवाँ, तीसवाँ, इकत्तीसवाँ, बत्तीसवाँ व तैंंतीसवांँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का  उन्तीसवाँ, तीसवाँ, इकत्तीसवाँ, बत्तीसवाँ व तैंंतीसवांँ अध्याय}} {The twenty-ninth, thirty, thirty-one, thirty-two and thirty-third chapters of the entire Vishnu Purana (fifth part)}

                                  "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


                                  "उन्तीसवाँ अध्याय"

"नरकासुर का वध"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! एक बार जब श्री भगवान द्वारकामें ही थे त्रिभुवनपति इन्द्र अपने मत्त गजराज ऐरावतपर चढ़कर उनके पास आये ॥१॥ द्वारकामें आकर वे भगवान से मिले और उनसे नरकासुर के अत्याचार का वर्णन किया ॥२॥ [ वे बोले-] "हे मधुसूदन ! इस समय मनुष्य रूप में स्थित होकर भी आप सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी ने हमारे समस्त दुःखोंको शान्त कर दिया है ॥ ३ ॥ जो अरिष्ट, धेनुक और केशी आदि असुर सर्वदा तपस्वियोंको तंग करनेमें ही तत्पर रहते थे उन सबको आपने मार डाला ॥ ४ ॥ कंस, कुवलयापीड और बाल घातिनी पूतना तथा और भी जो-जो संसारके उपद्रवरूप थे, उन सबको आपने नष्ट कर दिया ।। ५ ॥ आपके बाहुदण्ड की सत्ता से त्रिलोकी के सुरक्षित हो जानेके कारण याजकोंके दिये हुए यज्ञ भागोंको प्राप्तकर देवगण तृप्त हो रहे हैं ॥६॥हे जनार्दन! इस समय जिस निमित्तसे मैं आपके पास उपस्थित हूँ उसे सुनकर आप उसके प्रतीकारका प्रयत्न कीजिये ॥ ७ ॥

हे शत्रुदमन  ! यह पृथ्वी का पुत्र नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुर स्वामी है; इस समय यह सम्पूर्ण जीवों का घात कर रहा है ॥ ॥ हे जनार्दन ! उसने देवता, सिद्ध, असुर और राजा आदिकों की कन्याओंको बलात्कारसे लाकर अपने अन्तःपुरमें बंद कर रखा है ॥९॥ इस दैत्य ने वरुण का जल बरसानेवाला छत्र और मंदराचल का मणिपर्वत नामक शिखर भी हर लिया है ॥ १० ॥

हे कृष्ण ! उसने मेरी माता अदिति के अमृत स्रावी दोनों दिव्य कुण्डल ले लिये हैं और अब इस ऐरावत हाथी को भी लेना चाहता है ११ ॥ हे गोविन्द ! मैंने आपको उसकी ये सब अनीतियाँ सुना दी हैं। इनका जो प्रतीकार होना चाहिये, वह आप स्वयं विचार लें ॥ १२ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- इन्द्र के ये वचन सुनकर श्री देवकीनंदन मुसकाये और इंद्रका हाथ पकड़कर अपने श्रेष्ठ आसन से उठे ॥ १३ ॥ फिर स्मरण करते ही उपस्थित हुए आकाशगामी गरुड़ पर सत्यभामा को चढ़ाकर स्वयं चढ़े और प्राग्ज्योतिषपुर को चले ॥ १४ ॥ तदनन्तर इन्द्र भी ऐरावत पर चढ़कर देवलोक को गये तथा भगवान कृष्ण चन्द्र सब द्वारकावासियोंके देखते-देखते [नरकासुर को मारने] चले गये ॥ १५ ॥

हे द्विजोत्तम ! प्राग्ज्योतिषपुर के चारों ओर पृथिवी सौ योजन तक मुर दैत्य के बनाये हुए छुरेकी धारके समान अति तीक्ष्ण पाशों से घिरी हुई थी ॥१६॥ भगवान ने उन पाशोंको सुदर्शनचक्र फेंककर काट डाला; फिर मुर दैत्य भी सामना करने के लिये उठा, तब श्रीकेशवने उसे भी मार डाला ॥ १७ ॥ तदनन्तर श्रीहरिने मुरके सात हजार पुत्रों को भी अपने चक्रकी धाररूप अग्निमें पतंगके समान भस्म कर दिया॥ १८ ॥ हे द्विज ! इस प्रकार मतिमान् भगवान् ने मुर, हयग्रीव एवं पञ्चजन आदि दैत्यों को मारकर बड़ी शीघ्रतासे प्राग्ज्योतिषपुर में प्रवेश किया ॥ १९ ॥ वहाँ पहुँचकर भगवान् का अधिक सेना वाले नरकासुर से युद्ध हुआ, जिसमें श्री गोविन्द ने उसके सहस्रों दैत्यों को मार डाला ॥ २० ॥ दैत्यदलका दलन करनेवाले महाबलवान् भगवान चक्रपाणि ने शस्त्रास्त्र की वर्षा करते हुए भूमिपुत्र नरकासुर के सुदर्शन चक्र फेंक कर दो टुकड़े कर दिये । २१ ॥ नरकासुर के मरते ही पृथिवी अदितिके कुण्डल लेकर उपस्थित हुई और श्रीजगन्नाथसे कहने लगी ॥ २२ ॥

पृथिवी बोली ;- हे नाथ ! जिस समय वराह रूप धारणकर आपने मेरा उद्धार किया था उसी समय आपके स्पर्श से मेरे यह पुत्र उत्पन्न हुआ था॥ २३ ॥ इस प्रकार आपहीने मुझे यह पत्र दिया था और अब आपहीने इसको नष्ट किया है; आप ये कुण्डल लीजिये और अब इसकी सन्तानकी रक्षा कीजिये ॥ २४ ॥ हे प्रभो ! मेरे ऊपर प्रसन्न होकर ही आप मेरा भार उतारने के लिये अपने अंशसे इस लोकमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २५ ।। हे अच्युत ! इस जगत् के आप ही कर्ता, आप ही विकर्ता ( पोषक ) और आप ही हर्ता ( संहारक ) हैं; आप ही इसकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं तथा आप ही जगर्दूप हैं। फिर हम आपकी किस बातकी स्तुति करें ? ॥ २६ ॥ हे भगवन् ! जब कि व्याप्ति, व्याप्य, क्रिया, कर्ता और कार्यरूप आप ही है तब सबके आत्मस्वरूप आपकी किस प्रकार स्तुति की जा सकती है ? ॥ २७ ॥ हे नाथ ! जब आप ही परमात्मा, आप ही भूतात्मा और आप ही अव्यय जीवात्मा हैं तब किस वस्तुको लेकर आपकी स्तुति हो सकती है ? ॥२८॥ हे सर्वभूतात्मन् ! आप प्रसन्न होइये और इस नरकासुर के सम्पूर्ण अपराध क्षमा कीजिये आपने अपने पुत्र को निर्दोष करने के लिये ही इसे स्वयं मारा है । २९ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर भगवान भूतभावन ने पृथ्वी से कहा--"तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो" और फिर नरकासुर के महल से नाना प्रकारके रत्न लिये ॥३०॥ हे महामुने ! अतुलविक्रम श्रीभगवान् ने नरकासुर के कन्यान्तःपुर में जाकर सोलह हजार एक सौ कन्याएँ देखीं ॥ ३१ ॥ तथा चार दाँतवाले छः हजार गजश्रेष्ठ और इक्कीस लाख काम्बोजदेशीय अश्व देखे ॥ ३२ ॥ उन कन्याओं, हाथियों और घोड़ों को श्रीकृष्ण चन्द्र नरकासुर के सेवकोंद्वारा तुरंत ही द्वारकापुरी पहुँचावा दिया॥ ३३ ॥

तदनन्तर भगवान ने वरुण का छत्र और मणिपर्वत देखा, उन्हें उठाकर उन्होंने पक्षिराज गरुड़ पर रख लिया ॥ ३४ ॥ और सत्यभामा के सहित स्वयं भी उसीपर चढ़कर अदितिके कुण्डल देने के लिये स्वर्गलोक को गये ॥ ३५ ॥

       "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंंऽशे एकोनत्रिंशोऽध्यायः"


       -------तीसवाँ अध्याय------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)


"पारिजात-हरण"
श्री पराशर जी बोले ;- पक्षीराज गरुड़ उस वारुण- छत्र,मणि पर्वत और सत्यभामा के सहित श्रीकृष्ण चन्द्र- को लीला से ही लेकर चलने लगे॥१॥ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचते ही श्री हरि ने अपना शंख बजाया । उसका शब्द सुनते ही देवगण अध्र्य लेकर भगवान के सामने उपस्थित हुए।॥२॥ देवताओं से पूजित होकर श्रीकृष्ण चन्द्र जीने देवमाता अदिति के श्वेत मेघशिखरके समान गृह में जाकर उनका दर्शन किया॥३॥ तब श्री जनार्दन ने इन्द्र के साथ देवमाताको प्रणामकर उसके अत्युत्तम कुण्डल दिये और उसे नरक-वधका वृत्तान्त सुनाया ॥४॥ तदनन्तर जगत माता अदिति ने प्रसन्नतापूर्वक तन्मय होकर जगद्धाता श्रीहरिकी अव्यग्रभावसे स्तुति की ॥ ५ ॥

अदिति बोली ;- हे कमलनयन ! हे भक्तोंको अभय करनेवाले ! हे सनातनस्वरूप ! हे सर्वात्मन् ! हे भूतस्वरूप ! हे भूतभावन ! आपको नमस्कार है ॥ ६॥ हे मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके रचयिता ! हे गुणस्वरूप !हे त्रिगुणातीत ! हे निर्द्वन्द्व! हे शुद्धसत्त्व! हे अन्तर्यामिन् ! आपको नमस्कार है । ७ ॥ हे नाथ ! आप श्वेत, दीर्घ आदि सम्पूर्ण कल्पनाओं से रहित हैं, जन्मादि विकारोंसे पृथक है तथा स्वप्नादि अवस्थात्रयसे परे हैं; आपको नमस्कार है ॥ ॥ हे अच्युत! संध्या, रात्रि, दिन, भूमि, आकाश, वायु, जल, अग्नि, मन, बुद्धि और अहंकार-ये सब आप ही हैं ॥९॥

हे ईश्वर ! आप ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामक अपनी मूर्तियों से जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाशके कर्ता हैं तथा आप कर्ताओंके भी स्वामी हैं ॥ १० ॥ देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, सिद्ध, पन्नग (नाग), कूष्माण्ड, पिशाच, गन्धर्व, मनुष्य, पशु, मृग, पतङ्ग, सरीसृप ( साँप ), अनेकों वृक्ष, गुल्म और लताएँ, समस्त तृणजातियाँ तथा स्थूल मध्यम सूक्ष्म और सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म जितने देह भेद पुर्गल ( परमाणु ) के आश्रित हैं वे सब आप ही हैं ॥ ११ - १३ ॥

हे प्रभु! आपकी माया ही परमार्थतत्वके न जाननेवाले पुरुषों को मोहित करने वाली है जिससे मूढ पुरुष अनात्मा में आत्मबुद्धि करके बन्धन में पड़ जाते हैं । १४ ।। हे नाथ ! पुरुष को जो अनात्मा में आत्मबुद्धि और 'मैं-मेरा' आदि भाव प्रायः उत्पन्न होते है वह सब आपकी जगजननी माया का ही विलास है ॥ १५ ।। हे नाथ ! जो स्वधर्मं परायण पुरुष आपकी आराधना करते हैं वे अपने मोक्ष के लिये इस सम्पूर्ण माया को पार कर जाते हैं ।। १६ । ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवगण तथा मनुष्य और पशु आदि सभी विष्णुमाया
रूप महान् आवर्त में पड़कर मोहरूप अन्धकारसे आवृत हैं ॥ १७ । हे भगवन् ! [ जन्म और मरण के चक्र में पड़े हुए ] ये पुरुष जीवके भव-बन्धन को नष्ट करनेवाले आपकी आराधना करके भी जो नाना प्रकारकी कामनाएँ ही माँगते हैं यह आपकी माया ही है ॥ १८ ॥ मैंने भी शत्रुपक्षको पराजित करने के लिये पुत्रों की जयकामना से ही आपकी आराधना की थी, मोक्ष के लिये नहीं। यह भी आपकी मायाका ही विलास है ॥ १९ ॥ पुण्यहीन पुरुषों को जो कल्पवृक्षसे भी कौपीन और आच्छादन-वस्त्रमात्रकी ही कामना होती है यह उनका कर्म-दोष-जन्य अपराध ही है ॥ २० ॥

 हे अखिल-जगन्माया-मोहकारी अव्यय प्रभो ! आप प्रसन्न होइये और हे भूतेश्वर ! मेरे ज्ञानाभि मानजनित अज्ञान को नष्ट कीजिये ॥ २१ ॥ हे चक्रपाणे ! आपको नमस्कार है, हे शाङ्गॉधर ! आपको

नमस्कार है; हे गदाधर! आपको नमस्कार है; हे शंखपाणे ! हे विष्णो ! आपको बारंबार नमस्कार है ।। २२ ।॥ मैं स्थूल चिह्नों से प्रतीत होनेवाले आपके इस रूपको ही देखती हूँ; आपके वास्तविक परस्व रूपको मैं नहीं जानती; हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये ।। २३ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- अदिति द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान विष्णु देवमातासे हँस कर बोले-"हे देवी ! तुम तो हमारी माता हो; तुम प्रसन्न होकर हमें वरदायिनी होओ" ॥ २४ ॥

अदिति बोली ;- हे पुरुषसिंह ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । तुम मर्त्युलोक में सम्पूर्ण सुरासुरोंसे अजेय होंगे॥ २५ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर शक्र पत्नी शची के सहित कृष्ण प्रिया सत्यभामा ने अदिति को पुनः पुनः प्रणाम करके कहा- "माता ! आप प्रसन्न होइये"॥२६॥

अदिति बोली ;- हे सुन्दर भृकुटि वाली ! मेरी कृपासे तुझे कभी वृद्धावस्था या विरूपता व्याप्त न होगी। हे अनिन्दिताङ्गि! तेरा नवयौवन सदा स्थिर रहेगा॥ २७ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर अदिति की आज्ञा से देवराजने अत्यन्त आदर-सत्कार के साथ श्रीकृष्ण- चन्द्रका पूजन किया ॥ २८ ॥ किन्तु कल्पवृक्ष के पुष्पों से अलंकृता  इन्द्राणी ने सत्यभामा को मानुषी समझकर वे पुष्प न दिये ॥ २९ ॥ हे साधु श्रेष्ठ ! तदनन्तर सत्यभामा के सहित श्रीकृष्ण चन्द्र ने भी. देवताओंके नन्दन आदि मनोहर उद्यानोंको देखा ॥ ३०॥ वहाँपर केशिनिषूदन जगन्नाथ श्रीकृष्ण ने सुगन्धपूर्ण मञ्जरीपुञ्जधारी, नित्याह्लादकारी, ताम्र वर्णवाले बाल पत्तोंसे सुशोभित अमृत-मन्थनके समय प्रकट हुआ तथा सुनहरी छाल वाला पारिजात वृक्ष देखा ॥ ३१-३२ ॥

हे द्विजोत्तम ! उस अत्युत्तम वृक्षराजको देख कर परम प्रीतिवश सत्यभामा अति प्रसन्न हुई और श्री गोविंद से बोली-“हे कृष्ण ! इस वृक्ष- ॥ को द्वारकापुरी क्यों नहीं ले चलते ? ॥ ३३ ॥ यदि आपका यह वचन कि 'तुम ही मेरी अत्यन्त प्रिया हो" सत्य है तो मेरे गृहोद्यानमें लगाने के लिये इस वृक्ष को ले चलिये ॥ ३४

हे कृष्ण ! आपने कई बार मुझसे यह प्रिय वाक्य कहा है कि 'हे सत्ये ! मुझे तू जितनी प्यारी है. उतनी न जाम्बवती है और न रुक्मिणी ही' ॥३५॥ हे गोविन्द ! यदि आपका यह कथन सत्य है केवल मुझे बहलाना ही नहीं है तो यह पारिजात वृक्ष मेंरे गृहका भूषण हो ॥ ३६ ॥ मेरी ऐसी इच्छा है कि मैं अपने केश-कलापोंमें में पारिजात पुष्प गूंथकर अपनी अन्य सपत्नियों में सुशोभित होऊँ" ॥ ३७॥

श्री पराशर जी बोले ;- सत्यभामा के इस प्रकार कहने पर श्री हरि ने हँसते हुए उस पारिजात-वृक्ष को गरुड़ पर रख लिया; तब नंदनवन के रक्षकों ने कहा ॥ ३८॥ "हे गोविन्द ! देवराज इन्द्र की पत्नी जो महारानी शची हैं यह पारिजात-वृक्ष उनकी सम्पत्ति है, आप इसका हरण न कीजिये ॥ ३९ ॥ क्षीर समुद्रसे उत्पन्न होनेके अनन्तर यह देवराजको दिया गया था; फिर हे महाभाग ! देवराजने कुतूहलवश इसे अपनी महिषी शचीदेवी को दे दिया है ॥ ४० ॥ समुद्र-मंथन के समय शचीको विभूषित करने के लिये ही देवताओं ने इसे उत्पन्न किया था, इसे लेकर आप कुशलपूर्वक नहीं जा सकेंगे ॥ ४१ ॥ देवराज भी जिसका मुँह देखते रहते हैं उस शचीकी सम्पत्ति इस पारिजात की इच्छा आप मूढताहीसे करते हैं; इसे लेकर भला कौन सकुशल जा सकता है ? ॥ ४२ ॥ हे कृष्ण ! देवराज इन्द्र इस वृक्षका बदला चुकानेके लिये अवश्य ही वज्र लेकर उद्यत होंगे और फिर देवगण भी अवश्य ही उनका अनु गमन करेंगे ॥ ४३ ॥ अतः हे अच्युत ! समस्त देवताओं के साथ रार बढ़ानेसे आपका कोई लाभ नहीं; क्योंकि जिस कर्म का परिणाम कटु होता है, ॥ पण्डितजन उसे अच्छा नहीं कहते"॥ ४४ ।।

श्री पराशर जी बोले ;- उद्यान रक्षकों के इस प्रकार कहने पर सत्यभामा ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा "शची अथवा देवराज इन्द्र ही इस पारिजात के कौन होते हैं ? ४५ ।। यदि यह अमृत-मन्थनके समय उत्पन्न हुआ है, तो सबकी समान सम्पत्ति है। अकेला इन्द्र ही इसे कैसे ले सकता है ? ॥ ४६ ॥

अरे वनरक्षको ! जिस प्रकार [ समुद्र से उत्पन्न हुए] मदिरा, चन्द्रमा और लक्ष्मी का सब लोग समानता से भोग करते हैं उसी प्रकार पारिजात-वृक्ष भी सभीकी सम्पत्ति है ॥ ४७ ॥ यदि पति के बाहुबल से गर्विता होकर  शचीने ही इसपर अपना अधिकार जमा रखा है तो उससे कहना कि सत्यभामा उस वृक्ष को हरण कराकर लिये जाती है, तुम्हें क्षमा करनेकी आवश्यकता नहीं है ॥ ४८ ॥ अरे मालियो ! तुम तुरंत जाकर मेरे ये शब्द शची से कहो कि सत्यभामा अत्यन्त गर्वपूर्वक कड़े अक्षरों में यह कहती हैं कि यदि तुम अपने पति को अत्यन्त प्यारी हो और वे तुम्हारे वशीभूत हैं तो मेरे पति को पारिजात हरण करनेसे रोकें ॥ ४९ - ५० ॥ मैं तुम्हारे पति शक्रको जानती हूँ और यह भी जानती हूँ कि वे देवताओं के स्वामी हैं, तथापि मैं मानवी ही तुम्हारे इस पारिजात वृक्ष के लिये जाती हूँ ॥ ५१ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- सत्यभामा के इस प्रकार कहनेपर वनरक्षकोंने शचीके पास जाकर उससे सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों कह दिया। यह सब सुनकर शचीने अपने पति देवराज इंद्र को उत्साहित किया॥ ५२ ॥ हे द्विजोत्तम ! तब देवराज इन्द्र पारिजात-वृक्षको छुड़ाने के लिये सम्पूर्ण देवसेना के सहित श्रीहरि से लड़ने के लिये चले ॥ ५३ ॥ जिस समय इन्द्रने अपने हाथमें वज्र लिया उसी समय सम्पूर्ण देवगण परिधि, निस्त्रिंश , गदा और शूल आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो गये || ५४ ॥ तदनन्तर देवसेनासे घिरे हुए ऐरावत रूढ़ इन्द्र युद्ध के लिये उद्यत देख श्री गोविंद ने सम्पूर्ण दिशाओंको शब्दाय मान करते हुए शङ्ख ध्वनि की और हजारों लाखों तीखे बाण छोड़े ॥ ५५ ५६॥ इस प्रकार सम्पूर्ण दिशाओं और आकाशको सैकड़ों बाणों से पूर्ण देख देवताओं ने अनेकों अस्त्र-शस्त्र छोड़े ॥ ५७ ॥

त्रिलोकीके स्वामी श्री मधुसूदन ने देवताओं के छोड़े हुए प्रत्येक अस्त्र-शस्त्र के लीला से ही हजारों टुकड़े कर दिये ॥ ५८ ॥

सर्पाहारी गरुड़ने जलाधिपति वरुणके पाशको खींचकर अपनी चोंचसे सर्पके बच्चे के समान उसके कितने ही टुकड़े कर डाले ॥ ५९ ॥ श्रीदेवकीनन्दनने यमके फेंके हुए दण्ड को अपनी गदा से खण्ड खण्ड कर पृथ्वी पर गिरा दिया ॥ ६० ॥ कुबेरके विमान को भगवान ने सुदर्शन चक्र द्वारा तिल-तिल कर डाला और सूर्य को अपनी तेजोमय दृष्टि से देखकर ही निस्तेज कर दिया ।। ६१ । तदनन्तर भगवान् ने बाण बरसाकर अग्निको शीतल कर दिया और वसुओं को दिशा-विदिशाओं में भगा दिया तथा अपने चक्र त्रिशूलों की नोंक काटकर रुद्रगणको पृथिवी पर गिरा दिया ॥ ६२ ॥ भगवान के चलाये हुए बाणोंसे साध्यगण, विश्वेदेवगण मरुद्गगण और गन्धर्वगण सेमलकी रूई के समान आकाश में ही लीन हो गये ॥ ६३ ।। श्री भगवान के साथ गरुड़ जी भी अपनी चोंच, पंख और पंजों से देवताओं को खाते, मारते और फाड़ते फिर रहे थे ।| ६४ ।

फिर जिस प्रकार दो मेघ जलकी धाराएँ बरसाते हों उसी प्रकार देवराज इंद्र और श्री मधुसूदन एक दूसरेपर बाण बरसाने लगे ॥ ६५ ॥ उस युद्ध में गरुड़ जी ऐरावत के साथ और श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओं के साथ लड़ रहे थे ॥ ६६॥ सम्पूर्ण बाणों के चुक जाने और अस्त्र-शस्त्रों के कट जानेपर इन्द्रने शीघ्रतासे वज्र और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र हाथमें लिया ॥ ६७॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीमें इन्द्र और कृष्ण चन्द्र को क्रमशः वज्र और चक्र लिये देखकर हाहाकार मच गया ॥ ६८ ॥ श्रीहरिने इन्द्रके छोड़े हुए वज्र को अपने हाथोंसे पकड़ लिया और स्वयं चक्र न छोड़कर इंद्र से कहा-"और ! ठहर !" ॥ ६९ ॥

इस प्रकार वज्र छिन जाने और अपने वाहन ऐरावत के गरुड़ द्वारा क्षत-विक्षत हो जानेके कारण भागते हुए वीर इन्द्र से सत्यभामा ने कहा-||७०॥ "हे त्रैलोक्येश्वर ! तुम शची के पति हो, तुम्हें इस प्रकार युद्ध में पीठ दिखलाना उचित नहीं है तुम भागो मत, पारिजात-पुष्पोंकी मालासे विभूषिता होकर शची शीघ्र ही तुम्हारे पास आवेगी॥७१॥ अब प्रेमवश अपने पास आयी हुई शचीको पहलेकी भाँति पारिजात-पुष्पकी । मालासे अलङ्कृत न देखकर तुम्हें देवराजत्वका क्या सुख होगा ? ॥ ७२ ॥
     हे शुक्र ! अब तुम्हें अधिक प्रयास करनेकी आवश्यकता नहीं है, तुम संकोच मत करो; इस पारिजात वृक्ष को ले जाओ। इसे पाकर देवगण सन्तापरहित हों ।। ७३ ॥ अपने पतिके बाहुबली से अत्यन्त गर्वित शचीने अपने घर जानेपर भी मुझे कुछ अधिक सम्मानकी दृष्टिसे नहीं देखा था ।। ७४ ॥ स्त्री होनेसे मेरा चित्त भी अधिक गम्भीर नहीं है, इसलिये मैंने भी अपने पतिका गौरव प्रकट करने के लिये ही तुमसे यह लड़ाई ठानी थी ॥ ७५ ॥ मुझे दूसरे की सम्पत्ति इस पारिजातको ले जाने की क्या आवश्यकता है ? शची अपने रूप और पति के कारण गर्विता है तो ऐसी कौन-सी स्त्री है जो इस प्रकार गर्वीली न हो ? ॥ ७६ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे द्विज ! सत्यभामा के इस प्रकार कहनेपर देवराज लौट आये और बोले-"हे क्रोधिते ! मैं तुम्हारा सुहृद् हूँ, अतः मेरे लिये ऐसी वैमनस्य बढ़ानेवाली उक्तियोंके विस्तार करनेका कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ७७ ॥ जो सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं उन विश्व रूप प्रभु से पराजित होने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है ॥ ७८ ॥ जिस आदि और मध्यरहित प्रभुसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, जिसमें यह स्थित है और फिर जिसमें लीन होकर अन्तमें यह न रहेगा; हे देवि ! जगत् की उत्पत्ति, प्रलय और पालनके कारण उस परमात्मासे ही परास्त होने में मुझे कैसे लज्जा हो सकती है ? ॥ ७९ ॥ जिसकी अत्यन्त अल्प और सूक्ष्म मूर्ति को, जो सम्पूर्ण जगत को उत्पन्न करनेवाली है, सम्पूर्ण वेदों को जाने वाले अन्य पुरुष भी नहीं जान पाते तथा जिसने जगत् के उपकारके लिये अपनी इच्छासे ही मनुष्य रूप धारण किया है । उस अजन्मा, अकर्ता और नित्य ईश्वरको जीतने में कौन समर्थ है ?" ॥ ८० ॥

         "इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे त्रिंशोऽध्यायः"


         ------- इकत्तीसवाँ------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)

"भगवान का द्वारकापुरी लोटना और सौलह हजार एक सौ कन्याओं से विवाह करना"
श्रीपराशरजी बोले ;- हे द्विजोत्तम ! इन्द्रने जब इस प्रकार स्तुति की तो भगवान कृष्ण चन्द्र गम्भीर ॥ भावसे हँसते हुए इस प्रकार बोले-॥१॥

श्री कृष्ण जी बोले ;- हे जगत्पते ! आप देवराज इन्द्र हैं और हम मरणधर्मा मनुष्य हैं । हमने आपका जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करें ॥ २ ॥ इस पारिजात-वृक्षको इसके योग्य स्थान (नंदनवन) को ले जाइये। हे शक्र ! मैंने तो इसे सत्यभामा की बात रखने के लिये ही ले लिया था॥३॥ और आपने जो वज्र फेंका था उसे भी ले लीजिये, क्योंकि हे शक्र ! यह शत्रुओंको नष्ट करने वाला शस्त्र आपहीका है ॥ ४ ॥

इन्द्र बोले ;- हे ईश! "मैं मनुष्य हूँ ऐसा कह  मुझे क्यों मोहित करते हैं। हे भगवान ! मैं तो आपके इस सगुण स्वरूपको ही जानता है, हम आपके सूक्ष्म स्वरूपको जाननेवाले नहीं हैं ॥ ५ ॥ हे नाथ ! आप जो है वही है, [ हम तो इतना ही जानते हैं कि ] हे दैत्यदलन ! आप लोकरक्षामें तत्पर हैं और इस संसारके काँटोंको निकाल रहे हैं ।। ६ ॥ हे कृष्ण ! इस पारिजात-वृक्षको आप द्वारकापुरी ले जाइये, जिस समय आप मृत्युलोक छोड़ देंगे, उस | समय यह भूलोक मे नहीं रहेगा ॥ ७ ॥ हे देव देव ! हे जगन्नाथ ! हे कृष्ण ! हे कृष्णो ! हे महाबाहो ! हे शङ्खचक्रगदापाणे ! मेरी इस धृष्टताको क्षमा कीजिये ॥ ८ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर श्रीहरि देवराज- से 'तुम्हारी जैसी इच्छा है वैसा ही सही' ऐसा कह कर सिद्ध, गन्धर्व और देवर्षिगणसे स्तुत हो भूर्लोक में चले आये ॥९॥ हे द्विज ! द्वारकापुरी के ऊपर पहुँचकर श्रीकृष्णचन्द्रने [ अपने आनेकी सूचना देते हुए ] शंख बजाकर द्वारका वासियों को आनन्दित किया ॥ १०॥ तदनन्तर सत्यभामा के सहित गरुड़ से उतरकर उस पारिजात महावृक्ष को [ सत्यभामा के ] गृहोद्यान में लगा दिया ॥ ११ ॥

जिसके पास आकर सब मनुष्योंको अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आता है और जिसके पुष्पोंसे निकली हुई गन्धसे तीन योजन तक पृथ्वी सुगन्धित रहती है ॥ १२ ॥ यादवों ने उस वृक्ष के पास जाकर अपना मुख देखा तो उन्हें अपना शरीर अमानुष दिखलायी दिया ॥ १३ ॥

तदनन्तर महामति श्री कृष्णचन्द्र ने नरकासुर के सेवकोंद्वारा लाये हुए हाथी, घोड़े आदि धनको अपने बन्धु-बान्धवों में बाँट दिया और नरकासुर की [हरण करके ] लायी हुई कन्याओंको स्वयं ले लिया ।। १४ १५ ॥ शुभ समय प्राप्त होने पर श्री जनार्दन ने, उन समस्त कन्याओंके साथ, जिन्हें नरकासुर बलात्कार से हर लाया था, विवाह किया॥ १६ ॥ हे महामुने ! श्री गोविंद ने एक ही समय पृथक्-पृथक् भवनों में उन सबके साथ विधिवत् धर्मपूर्वक पाणिग्रहण किया ॥ १७॥ वे सोलह हजार एक सौ स्त्रियाँ थीं; उन सबके साथ पाणिग्रहण करते समय श्री मधुसूदन ने इतने ही रूप बना लिये ॥ १८ ॥ हे मैत्रेय ! परन्तु उस समय प्रत्येक कन्या 'भगवान् ने मेरा ही पाणि- ग्रहण किया है इस प्रकार उन्हें एक ही समझ रही थी ॥ १९ ॥ हे विप्र ! जगत्स्रष्टा विश्वरूपधारी श्रीहरि रात्रिके समय उन सभीके घरोंमें रहते थे ॥२०॥

       "इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे एकत्रिंंशोऽध्यायः"

       ------बत्तीसवाँ अध्याय-------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)
"उषा-चरित्र"
श्री पराशर जी बोले ;- रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए भगवान के प्रद्युम्न आदि पुत्रों का वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं; सत्यभामा ने भानु और भौमेरिक आदिको जन्म दिया॥१॥श्रीहरि के रोहिणी के गर्भ से दीप्तिमान और ताम्रपक्ष आदि तथा जाम्बवती से बलशाली साम्ब आदि पुत्र हुए ॥ २ ॥ नाग्नजिती ( सत्या ) से महाबली भद्रविन्द आदि और शैव्या माद्रीसे वृक आदि, लक्ष्मणासे गात्रवान् आदि तथा कालिन्दीसे श्रुत आदि पुत्रों का जन्म हुआ ॥ ४ ॥

इसी प्रकार भगवान के अन्य स्त्रियोंके भी आठ अयुत आठ हजार आठ सौ ( अट्ठासी हजार आठ सौ) पुत्र हुए ॥५॥

इस सब पुत्रों में रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न सबसे बड़े थे; प्रद्युम्न से अनिरुद्ध का जन्म हुआ और अनिरुद्ध से वज्र उत्पन्न हुआ॥ ६ ॥ हे द्विजोत्तम ! महाबली अनिरुद्ध युद्ध में किसीसे रोके नहीं जा सकते थे। उन्होंने बलिकी पौत्री एवं बाणासुर की पुत्री उषा से विवाह किया था ॥ ७ ॥ उस विवाह में श्रीहरि और भगवान शंकर का घोर युद्ध हुआ था और श्रीकृष्ण चन्द्रन बाणासुर की सहस्र भुजाएँ काट डाली थीं ॥८॥

श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे ब्रह्मन् ! उषा के लिये श्री महादेव और कृष्ण का युद्ध क्यों हुआ और श्रीहरिने, बाणासुर की भुजाएँ क्यों काट डालीं ? ॥ ९ ॥ हे महाभाग ! आप मुझसे यह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहिये; मुझे श्री हरि की यह कथा सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥ १० ॥

श्री पराशर जी बोले ;- हे विप्र ! एक बार बाणासुरकी पुत्री उषाने श्री शंकर के साथ पार्वती को क्रीडा करती देख स्वयं भी अपने पतिके साथ रमण करनेकी इच्छा की ॥ ११॥ तब सर्वान्तर्यामिनी श्री पार्वती जी ने उस सुकुमारी से कहा-"तू अधिक सन्तप्त मत हो, यथासमय तू भी अपने पति के साथ रमण करेगी"॥ १२ ।। पार्वती जी के ऐसा कहनेपर उषाने मन-ही-मन यह सोचकर कि 'न जाने ऐसा कब होगा ? और मेरा पति भी कौन होगा ? [ इस सम्बन्धमें ] पार्वती जी से पूछा, तब पार्वती जी ने उससे फिर कहा-। १३ ॥

पार्वती जी बोली ;- है राजपुत्री ! वैशाख शुक्ल द्वादशी की रात्रि को जो पुरुष स्वप्न में तुझसे हठात् सम्भोग करेगा वही तेरा पति होगा । १४ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर उसी तिथि को उषाकी स्वप्नावस्थामें किसी पुरुष ने उससे, जैसा श्री पार्वती देवी ने कहा था, उसी प्रकार सम्भोग किया और उसका भी उसमें अनुराग हो गया॥ १५ ॥ हे मैत्रेय ! तब स्वप्नसे जगनेपर जब उसने उस पुरुष को न देखा तो वह उसे देखनेके लिये अत्यन्त उत्सुक होकर अपनी सखीकी ओर लक्ष्य करके निंंर्लज्जता पूर्वक कहने लगी-“हे नाथ! आप कहाँ चले गये ?"॥१६॥

बाणासुर के मंत्री कुम्भाण्ड था; उसकी चित्र लेखा नामकी पुत्री थी, वह उषा की सखी थी, [उषा का यह प्रलाप सुनकर ] उसने पूछा-"यह तुम किसके विषयमें कह रही हो ?" ॥ १७ ॥ किन्तु जब लज्जावश उषाने उसे कुछ भी न बतलाया तब चित्र लेखाने [ सब बात गुप्त रखने का] विश्वास दिलाकर उषासे सब वृत्तान्त कहला लिया ॥ १८ ॥चित्रलेखा के सब बात जान लेनेपर उषाने जो कुछ और पार्वती जीने कहा था वह भी उसे सुना दिया और कहा कि अब जिस प्रकार उसका पुनः समागम हो वही उपाय करो ॥ १९॥

चित्रलेखा ने कहा ;- हे प्रिये ! तुमने जिस पुरुष को देखा है उसे तो जानना भी बहुत कठिन है फिर उसे बतलाना कि पाना कैसे हो सकता है ? तथापि मैं तुम्हारा कुछ-न-कुछ उपकार तो करूँगी ही॥ २० ॥ तुम सात या आठ दिन तक मेरी प्रतीक्षा करना ऐसा कहकर वह अपने घरके भीतर गयी और उस पुरुषको ढूँढ़नेका उपाय करने लगी ॥ २१ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर [ आठ-सात दिन पश्चात् लौटकर ] चित्रलेखा के चित्रपट पर मुख्य मुख्य देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्योंके चित्र लिखकर उषाको दिखलाये ॥ २२ ॥ तब उषाने गंधर्व, नाग, देवता और दैत्य आदिको छोड़कर केवल मनुष्योंपर और उनमें भी विशेषतः अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों पर ही दृष्टि दी ॥ २३ ॥ हे द्विज! राम और कृष्ण के चित्र देखकर वह सुन्दर भृकुटि वाली लज्जा से जडवत् हो गयी तथा प्रद्युम्न को देखकर उसने लज्जावश अपनी दृष्टि हटा ली ॥ २४ ॥ तत्पश्चात् प्रद्युम्न तनय प्रियतम अनिरुद्ध जी को देखते ही उस अत्यन्त विलासिनीकी लज्जा मानो कहीं । चली गयी ॥ २५ ॥ [ वह बोल उठी-] 'वह यही है, वह यही है । उसके इस प्रकार कहनेपर योगगामिनी चित्रलेखा ने उस बाणासुर की कन्यासे कहा-॥२६॥

चित्रलेखा बोली ;- देवीने प्रसन्न होकर यह कृष्ण का पौत्र ही तेरा पति निश्चित किया है इसका नाम अनिरुद्ध है और यह अपनी सुन्दरताके लिये प्रसिद्ध है ॥ २७ ॥ यदि तुझको यह पति मिल गया तब तो तूने मानो सभी कुछ पा लिया; किन्तु कृष्ण चन्द्र द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरी में पहले प्रवेश ही करना कठिन है ॥२८॥ तथापि हे सखि ! किसी उपायसे मैं तेरे पतिको लाऊँगी ही, तू इस गुप्त रहस्यको किसीसे भी न कहना ॥ २९ ॥ मैं शीघ्र ही आऊँगी, इतनी देर तू मेरे वियोग को सहन कर । अपनी सखी उषाको इस प्रकार ढाढस बँधाकर  चित्रलेखा द्वारकापुरी की गयी ॥३०॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे द्वात्रिंशोऽध्यायः"

      -------तैंंतीसवांँ अध्याय------


                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
 ''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
                                     श्री विष्णुपुराण
                                      (पञ्चम अंश)

"श्री कृष्ण और बाणासुर का युद्ध"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! एक बार बाणासुरने भी भगवान् त्रिलोचनको प्रणाम करके कहा था कि हे देव ! बिना युद्धके इन हजार भुजाओंसे मुझे बड़ा ही खेद हो रहा है ॥१॥ क्या कभी मेरी इन मुजाओंको सफल करनेवाला युद्ध होगा? भला बिना युद्धके इन भाररूप भुजाओं से मुझे लाभ ही क्या है ? ॥२॥

श्री शंकर जी बोले ;- हे बाणासुर ! जिस समय तेरी मयूर-चिह्नवाली ध्वजा टूट जायगी उसी समय तेरे सामने मांसभोजी यक्ष-पिशाचादिको आनन्द देनेवाला युद्ध उपस्थित होगा ३ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर, वरदायक श्री शंकर को प्रणामकर बाणासुर अपने घर आया और फिर कालान्तरमें उस ध्वजाको टूटी देखकर अति आनन्दित हुआ ॥ ४॥ इसी समय अप्सरा श्रेष्ठ चित्रलेखा अपने योगबलसे अनिरुद्धको वहाँ ले आयी ॥५॥ अनिरुद्धको कन्यान्तःपुरमें आकर उषाके साथ रमण करता जान अन्तःपुररक्षकोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त दैत्यराज बाणासुर से कह दिया ॥६॥ तब महावीर बाणासुरने अपने सेवकोंको उससे युद्ध करनेकी आज्ञा दी; किन्तु शत्रु-दमन अनिरुद्ध ने अपने सम्मुख आनेपर उस सम्पूर्ण सेनाको एक लोहमय दण्ड से मार डाला ॥७॥

अपने सेवकोंके मारे जानेपर बाणासुर अनिरुद्ध को मार डालनेकी इच्छासे रथपर चढ़कर उनके साथ युद्ध करने लगा; किन्तु अपनी शक्तिभर युद्ध करनेपर भी वह यदुवीर अनिरुद्ध जी से परास्त हो गया ॥८॥ तब वह मंत्रियों की प्रेरणासे माया पूर्वक युद्ध करने लगा और यदुनन्दन अनिरुद्ध को नागपाशसे बाँध लिया ॥ ९ ॥

इधर द्वारकापुरीमें जिस समय समस्त यादवोंं मे यह चर्चा हो रही थी कि 'अनिरुद्ध कहाँ गये ?' उसी समय देवर्षि नारद ने उनके बाणासुर द्वारा बाँधे जाने की सूचना दी ॥ १० ॥ नारदजी के मुख से योग विद्या में निपुण युवती चित्रलेखा द्वारा उन्हें शोणित पुर ले जाये गये सुनकर यादवोंको विश्वास हो गया कि देवताओं ने उन्हें नहीं चुराया ॥ ११ ॥ तब स्मरणमात्रसे उपस्थित हुए गरुड़ पर चढ़कर श्रीहरि बलराम और प्रद्युम्न के सहित बाणासुर की राजधानी में आये ॥ १२ ॥ नगरमें घुसते ही उन तीनोंका भगवान शंकर के पार्षद प्रमथगणोंसे युद्ध हुआ; उन्हें नष्ट करके श्रीहरि बाणासुर की राजधानी के समीप चले गये ।। १३ ॥

तदनन्तर बाणासुर की रक्षा के लिये तीन शिर और तीन पैरवाला माहेश्वर नामक महान ज्वर आगे बढ़कर श्री भगवान से लड़ने लगा ।॥ १४ । [उस ज्वर का ऐसा प्रभाव था कि ] उसके फेंके हुए भस्म स्पर्श से संतप्त हुए श्रीकृष्णचन्द्रके शरीरका आलिङ्गन करनेपर बलदेवजीने भी शिथिल होकर नेत्र मूंद लिये ॥ १५॥ इस प्रकार भगवान शार्ङ्गधर के साथ [ उनके शरीर में व्याप्त होकर ] युद्ध करते हुए उस माहेश्वर ज्वर को वैष्णव ज्वर ने तुरंत उनके शरीरसे निकाल दिया ।। १६ ।। उस समय श्रीनारायणकी भुजाओं के आघात से उस माहेश्वर ज्वर को पीड़ित और विह्वल हुआ देखकर पितामह ब्रह्माजी ने भगवान से कहा-'उसे क्षमा कीजिये' ॥ १७ ।।

तब भगवान मधुसूदन ने 'अच्छा, मैंने क्षमा की' ऐसा कहकर उस वैष्णव ज्वरको अपने में ही लीन कर लिया ॥ १८ ॥

ज्वर बोला ;- जो मनुष्य आपके साथ मेरे इस युद्ध का स्मरण करेंगे वे ज्वरहीन हो जायँगे, ऐसा कहकर वह चला गया ।। १९॥

तदनन्तर भगवान कृष्ण चंद्र ने पञ्चाग्नियों को जीतकर नष्ट किया और फिर लीलासे ही दानव सेनाको नष्ट करने लगे ॥ २० ॥ तब सम्पूर्ण दैत्य सेनाके सहित बलि-पुत्र बाणासुर, भगवान् शङ्कर और स्वामी कार्तिकेय जी भगवान कृष्ण के साथ युद्ध करने लगे ॥२१॥ श्री हरि और श्री महादेव जी का परस्पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, इस युद्ध में प्रयुक्त शस्त्रास्त्रोंके किरणजालसे सन्तप्त होकर सम्पूर्ण लोक क्षुब्ध हो गये । २२ ॥ इस घोर युद्ध में उपस्थित होनेपर देवताओं ने समझा कि निश्चय ही यह सम्पूर्ण जगत् का प्रलयकाल आ गया है॥ २३ ॥ श्रीगोविन्दने जृम्भकास्त्र छोड़ा जिससे महादेव जी निद्रित-से होकर जमुहाई लेने लगे; उनकी ऐसी दशा देखकर दैत्य और प्रमथगण चारों ओर भागने लगे ॥ २४ ॥ भगवान् शङ्कर निद्राभिभूत होकर रथके पिछले भागमें बैठ गये और फिर अक्लिष्ट कर्म करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध न कर सके ॥ २५ ॥ तदनन्तर गरुड़ द्वारा वाहन के नष्ट हो जानेसे, प्रद्युम्न जीके शस्त्रोंसे पीडित होनेसे तथा कृष्णचन्द्र के हुंकारसे शक्तिहीन हो जाने से स्वामी कार्तिकेय भी भागने लगे ॥ २६ ॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र द्वारा महादेवजी के निद्रा भिभूत, दैत्य-सेनाके नष्ट, स्वामी कार्तिकेय के पराजित और शिवगणों के क्षीण हो जानेपर कृष्ण, प्रद्युम्न और बलभद्रजीके साथ युद्ध करनेके लिये वहाँ बाणासुर साक्षात् नन्दीश्वरद्वारा हाँके जाते हुए महान् रथपर चढ़कर आया ॥ २७-२८। उसके आते ही महावीर्यशाली बलभद्रजाने अनेकों बाण बरसाकर बाणासुर की सेना को छिन्न-भिन्न कर डाला; तब वह वीरधर्म से भ्रष्ट होकर भागने लगी ।। २९ ।।
 बाणासुरने देखा कि उसकी सेनाको बलभद्रजी बड़ी फुर्तीसे हलसे खींच-खींचकर मूसलसे मार रहे हैं और श्रीकृष्णचन्द्र उसे बाणोंसे बींध डालते हैं ॥ ३० ॥ तब बाणासुर का श्रीकृष्णचन्द्र के साथ घोर युद्ध छिड़ गया। वे दोनों परस्पर कवचभेदी बाण छोड़ने लगे। परन्तु भगवान कृष्ण ने बाणासुर के छोड़े हुए तीखे बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला; और फिर बाणासुर कृष्ण को तथा कृष्ण बाणासुर को बींधने लगे ॥ ३१-३२ ॥ हे द्विज ! उस समय परस्पर चोट करनेवाले बाणासुर और कृष्ण दोनों ही विजयकी इच्छासे निरन्तर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्र छोड़ने लगे ।। ३३ ॥

अंत में, समस्त बाणोंके छिन्न और सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्र के निष्फल हो जाने पर श्री हरि ने बाणासुर को मार डालने का विचार किया ॥ ३४ ॥ तब दैत्य मंडल के शत्रु भगवान कृष्ण ने सैकड़ों सूर्योंके समान प्रकाश मान अपने सुदर्शन चक्र को हाथ में ले लिया ॥ ३५॥

जिस समय भगवान मधुसूदन बाणासुर को मारने के लिये चक्र छोड़ना ही चाहते थे उसी समय दैत्योंं की विद्या (मंत्रमयी कुलदेवी ) कोटरी भगवान के सामने नम्रावस्था में उपस्थित हुई ॥३६॥ उसे देखते ही भगवान ने नेत्र मूँद लिये और बाणा सुरको लक्ष्य करके उस शत्रुकी भुजाओंके वनको काटनेके लिये सुदर्शन चक्र छोड़ा ॥ ३७ | भगवान अच्युत के द्वारा प्रेरित उस चक्रने दैत्यों के छोड़े हुए अस्त्र समूह को काटकर क्रमशः बाणासुरकी भुजाओंको काट डाला [ केवल दो भुजाएँ छोड़ दी ] ॥ ३८ ॥ तब त्रिपुरशत्रु भगवान् शङ्कर जान गये कि श्री मधु सूदन बाणासुर के बाहुवनको काटकर अपने हाथमें आये हुए चक्र को उसका वध करने के लिये फिर छोड़ना चाहते हैं ।। ३९ ॥ अतः बाणासुर को अपने खण्डित भुजदण्डोंसे लोहूकी धारा बहाते देख श्रीउमा पति ने गोविंद के पास आकर मानपूर्वक कहा - ।। ४० ।।

श्री शंकर जी बोले ;- हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे जगन्नाथ! मैं यह जानता हूँ कि आप पुरुषोत्तम परमेश्वर परमात्मा और आदि-अन्तसे रहित श्रीहरि हैं ४१ ॥ आप सर्वभूतमय हैं । आप जो देव, तिर्यक् और मनुष्यादि योनियों में शरीर धारण करते हैं यह आपको स्वाधीन चेष्टाकी उपलक्षिका लीला ही है ॥ ४२ ।।

हे प्रभो ! आप प्रसन्न होइये । मैंने इस बाणासुर को अभयदान दिया है। हे नाथ ! मैंने जो वचन दिया है उसे आप मिथ्या न करें॥४३॥ हे अव्यय ! यह आपका अपराधी नहीं है; यह तो मेरा आश्रय पानेसे ही इतना गर्वीला हो गया है। इस दैत्यको मैंने ही वर दिया था इसलिये मैं ही इसे आपसे क्षमा कराता हूँ॥ ४४ ॥

श्री पराशर जी बोले ;- त्रिशूलपाणि भगवान उमापति के इस प्रकार कहने पर श्री गोविन्द ने बाणासुर के प्रति क्रोधभाव त्याग दिया और प्रसन्नवदन होकर उनसे कहा--|| ४५॥

श्रीभगवान् बोले ;- हे शङ्कर ! यदि आपने इसे वर दिया है तो यह बाणासुर जीवित रहे । आपके वचनका मान रखने के लिये मैं इस चक्रको रोके लेता हूँ। ४६ ॥ आपने जो अभय दिया है वह सब मैंने भी दे दिया। हे शङ्कर ! आप अपनेको मुझसे सर्वथा भिन्न देखें ॥ ४७ ॥ आप यह भली प्रकार समझ लें कि जो मैं हूँ सो आप हैं तथा यह सम्पूर्ण जगत्, देव, असुर और मनुष्य आदि कोई भी मुझसे भिन्न नहीं हैं ॥ ४८ । हे हर ! जिन लोगोंका चित्त अविद्यासे मोहित है वे भिन्न दर्शी पुरुष ही हम दोनों में भेद देखते और बतलाते हैं । हे वृषभध्वज ! मैं प्रसन्न हूँ, आप पधारिये, मैं भी अब जाऊँगा ।। ४९-५० ।।

श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार कहकर भगवान कृष्ण जहाँ प्रद्युम्न कुमार अनिरुद्ध थे वहाँ गये । उनके पहुँचते ही अनिरुद्ध के बन्धन रूप समस्तः नागगण गरुडके वेग से उत्पन्न हुए वायुके प्रहारसे नष्ट हो गये ॥ ५१ ॥ तदनन्तर सपत्नीक अनिरुद्ध को गरुड़ पर चढ़ाकर बलराम, प्रद्युम्न और कृष्ण चन्द्र द्वारकापुरी से लौट आये ॥५२॥ हे विप्र ! वहाँ भूभारहरणकी इच्छासे रहते हुए श्री जनार्दन अपने पुत्र-पौत्रादिसे घिरे रहकर अपनी रानियों के । साथ रमण करने लगे ।। ५३ ॥

       "इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः"

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