{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (पञ्चम अंश) का चौंतीसवाँँ, पैतीसवांँ, छत्तीसवाँ, व सेतीसवाँ अध्याय}} {The thirty-fourth, thirty-fifth, thirty-sixth, and thirty-seventh chapters of the entire Vishnu Purana (fifth part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"पौंड्रक वध तथा काशी दहन"
श्री मैत्रेयजी बोले ;- हे गुरो! श्री विष्णु भगवान ने मनुष्य-शरीर धारणकर जो लीलासे ही इन्द्र, शङ्कर और सम्पूर्ण देवगणको जीतकर महान् कर्म किये थे मैं ॥ [ वह सुन चुका] ॥ १ ॥ इसके सिवा देवताओं- की चेष्टाओंका विघात करनेवाले उन्होंने और भी जो कर्म किये थे, हे महाभाग ! वे सब मुझे सुनाइये; । मुझे उनके सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥२॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे ब्रह्मर्षे ! भगवान ने मनुष्यावतार लेकर जिस प्रकार काशीपुरी जलायी थी वह मैं सुनाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो ॥ ३ ॥ पौंण्ड्रक वंशीय वासुदेव नामक एक राजा को अज्ञान मोहित पुरुष 'आप वासुदेव रूप से पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कहकर स्तुति किया करते थे ॥ ४ ॥ अंत में वह भी यही मानने लगा कि 'मैं वासुदेव रूप से पृथ्वी में उत्तीर्ण हुआ हूँ।' इस प्रकार आत्म-विस्मृत हो जानेसे उसने विष्णु भगवान के समस्त चिह्न धारण कर लिये ॥ ५॥ और महात्मा कृष्ण चन्द्र के पास यह सन्देश देकर दूत भेजा कि "हे मूढ़ ! अपने वासुदेव नामको छोड़कर मेरे चक्र आदि सम्पूर्ण चिह्नोंको छोड़ दे और यदि तुझे जीवन की इच्छा है तो मेरी शरण में आ" ॥ ६-७ ।।
दूतने जब इसी प्रकार जाकर कहा तो श्रीजनार्दन उससे हँसकर बोले-"ठीक है, मैं अपने चिह्न चक्रको तेरे प्रति छोड़ूँगा। हे दूत ! मेरी ओरसे तू पौण्ड्रक से जाकर यह कहना कि मैंने तेरे वाक्य का वास्तविक भाव समझ लिया है, तुझे जो करना हो सो कर । ८-९ ॥ मैं अपने चिह्न और वेष धारण कर तेरे नगरमें आऊँगा! और निस्सन्देह अपने चिह्न-चक्रको तेरे ऊपर छोड़ूँगा ॥ १० ॥ और तूने जो आज्ञा करते हुए 'आ' ऐसा कहा है सो मैं उसे भी अवश्य पालन करूँगा तथा कल शीघ्र ही तेरे पास पहुँचूँगा ॥ ११ ॥ हे राजन् ! तेरी शरणमें आकर मैं वही उपाय करूँगा जिससे फिर तुझसे मुझे कोई भय न रहे ।।१२।।
श्री पराशर जी बोले ;- श्री कृष्णचन्द्र के ऐसा कहने पर जब दूत चला गया तो भगवान स्मरण करते ही उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर तुरंत उनकी राजधानी को चले ॥ १३ ।। भगवान के आक्रमणका समाचार सुनकर काशीनरेश भी उसका पृष्ठपोषक (सहायक) होकर अपनी सम्पूर्ण सेना ले उपस्थित हुआ ॥१४॥ तदनन्तर अपनी महान सेनाके सहित काशीनरेश की सेना लेकर पौंण्ड्रक वासुदेव श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख आया ॥ १५ ॥ भगवान् ने दूरसे ही उसे हाथमें चक्र, गदा, शाङ्ग धनुष और पद्म लिये एक उत्तम रथपर बैठे देखा ॥ १६ ॥ श्री हरि ने देखा कि उसके कण्ठमें वैजयन्ती माला है, शरीर में पीताम्बर है, गरुडरचित ध्वजा है और वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न है ॥ १७ ॥ उसे नाना प्रकार के रत्नों से सुसज्जित किरीट और कुण्डल धारण किये देख श्री गरुड़ध्वज भगवान गम्भीर भावसे हँसने लगे ॥ १८ ॥ और हे द्विज ! उसकी हाथी-घोड़ों से बलिष्ठ तथा निस्त्रिंश, खड्ग, गदा, शूल, शक्ति और धनुष आदिसे सुसज्जित सेनासे युद्ध करने लगे। १९ ॥ श्रीभगवान् ने एक क्षणमें ही अपने शाङ्गधनुष से छोड़े हुए शत्रुओंको विदीर्ण करनेवाले तीक्ष्ण बाणों तथा गदा और चक्रसे उसकी सम्पूर्ण सेनाको नष्ट कर डाला ॥ २० । इसी प्रकार काशिराजकी सेनाको भी नष्ट करके श्रीजनार्दनने अपने चिह्नोंसे युक्त मूढमति पौण्डूकसे कहा ॥२१॥
श्रीभगवान् बोले ;- हे पौंड्रक ! मेरे प्रति तूने जो दूतके मुखसे यह कहलाया था कि मेरे चिह्नोंको छोड़ दे सो मैं तेरे सम्मुख उस आज्ञाको सम्पन्न करता हूँ॥ २२ ॥ देख, यह मैंने चक्र छोड़ दिया, यह तेरे ऊपर गदा भी छोड़ दी और यह गरुड भी छोड़े देता हूँ, यह तेरी ध्वजापर आरूढ़ हो ॥ २३ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कहकर छोड़े हुए चक्रने पौण्ड्कको विदीर्ण कर डाला, गदाने नीचे गिरा दिया और गरुडने उसकी ध्वजा तोड़ डाली ॥२४॥ तदनन्तर सम्पूर्ण सेनामें हाहाकार मच जाने पर अपने मित्रका बदला चुकानेके लिये खड़ा हुआ काशी नरेश श्री वासुदेव से लड़ने लगा ॥ २५ ॥
तब भगवान ने शाङ्ग-धनुष से छोड़े हुए एक बाणसे उसका शिर काटकर सम्पूर्ण लोगोंको विस्मित करते हुए काशीपुरी में फेंक दिया ॥ २६ ॥ इस प्रकार पौंण्ड्रक और काशीनरेशको अनुचरोंसहित मारकर भगवान फिर द्वारका को लौट आये और वहाँ स्वर्ग सद्दश
सुखका अनुभव करते हुए रमण करने लगे ॥ २७ ॥
इधर काशीपुरीमें काशिराजका शिर गिरा देख सम्पूर्ण नगरनिवासी विस्मयपूर्वक कहने लगे-'यह क्या हुआ ? इसे किसने काट डाला ?' ॥ २८ ॥ जब उसके पुत्रको मालूम हुआ कि उसे श्रीवासुदेवने मारा है तो उसने अपने पुरोहित के साथ मिलकर भगवान शंकर को संतुष्ट किया ॥ २९ ॥ अविमुक्त महाक्षेत्र में उस राजकुमार से संतुष्ट होकर श्रीशंकरने कहा-'वर माँग'॥ ३० ॥ वह बोला- 'हे भगवन् ! हे महेश्वर !! आपकी कृपासे मेरे पिताका वध करने वाले कृष्ण का नाश करने के लिये ( अग्निसे ) कृत्या उत्पन्न हो ॥ ३१॥
श्रीपराशरजी बोले ;- भगवान् शंकरने कहा; ऐसा ही होगा। उनके ऐसा कहनेपर दक्षिणाग्नि का चयन करनेके अनन्तर उससे उस अग्निका ही विनाश करनेवाली कृत्या उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ उसका कराल मुख ज्वाला मालाओं से पूर्ण था तथा उसके केश अग्निशिखाके समान दीप्तिमान् और ताम्रवर्ण थे। वह क्रोधपूर्वक 'कृष्ण ! कृष्ण !' कहती द्वारका पुरी में आयी ॥ ३३ ॥
हे मुने ! उसे देखकर लोगोंने भय-विचलित नेत्रोंसे जगद्गति भगवान मधुसूदन की शरण ली ॥ ३४ ॥ जब भगवान चक्रपाणिने जाना कि श्री शंकरकी उपासनाकर काशिराजके पुत्रने ही यह । महाकृत्या उत्पन्न की है तो अक्षक्रीडामें लगे हुए उन्होंने लीला से ही यह कहकर कि 'इस अग्नि ज्वालामयी जाटाओं वाली भयंकर कृत्याको मार डाल' अपना चक्र छोड़ा ।। ३५-३६ ॥
तब भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र ने उस अग्नि मालामण्डित जटाओंवाली और अग्निज्वालाओं के कारण भयानक मुखवाली कृत्याका पीछा किया ॥ ३७॥ उस चक्रके तेजसे दग्ध होकर छिन्न-भिन्न होती हुई वह माहेश्वरी कृत्या अति वेगसे दौड़ने लगी तथा वह चक्र भी उतने ही वेगसे उसका पीछा करने लगा ।। ३८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अंत में विष्णु चक्र से हतप्रभाव हुई कृत्याने शीघ्रतासे काशी में ही प्रवेश किया ।। ३९ ॥ उस समय काशीनरेशकी सम्पूर्ण सेना और प्रमथ गण अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर उस चक्र के सम्मुख आये ॥ ४०॥
तब वह चक्र अपने तेज से शस्त्रास्त्र प्रयोग में कुशल उस सम्पूर्ण सेनाको दग्धकर कृत्याके सहित सम्पूर्ण वाराणसी को जलाने लगा॥४१॥ जो राजा, प्रज्ञा और सेवकोंसे पूर्ण थी; घोड़े, हाथी और मनुष्यों से भरी थी; सम्पूर्ण गोष्ठ और कोशों से युक्त थी और देवताओं के लिये भी दुर्दर्शनीय थी, उसी काशीपुरी के भगवान विष्णु के उस चक्रने उसके गृह, कोट और चबूतरों में अग्निकी ज्वालाएँ प्रकट कर जला डाला ॥ ४२-४३ ॥ अन्तमें, जिसका क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ तथा जो अत्यन्त उग्र कर्म करनेको उत्सुक था और जिसकी दीप्ति चारों ओर फैल रही थी वह चक्र फिर लौटकर भगवान विष्णु के हाथमें आ गया ।। ४४ ।।
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः"
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"साम्बका विवाह"
श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे ब्रह्मन् ! अब मैं फिर मतिमान् बलभद्र जी के पराक्रम की वार्ता सुनना चाहता हूँ, आप वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ हे भगवन् ! मैंने उनके यमुनाकर्षणादि पराक्रम तो सुन लिये; अब हे महाभाग ! उन्होंने जो और-और विक्रम । दिखलाये हैं उनका वर्णन कीजिये ॥२॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! अनन्त, अप्रमेय, धरणीधर शेषावतार श्री बलरामजी ने जो कर्म किये थे, वह सुनो-॥३॥ एक बार जाम्बवती-नन्दन वीरवर साम्ब ने स्वयंवरके अवसरपर दुर्योधनकी पुत्रीको बलात्कार से हरण किया ॥ ४ ॥ तब महावीर कर्ण, दुर्योधन, भीष्म और द्रोण आदि ने क्रुद्ध होकर उसे युद्ध में हराकर बाँध लिया ॥ ५ ॥ यह समाचार पाकर कृष्णचन्द्र आदि समस्त यादवों ने दुर्योधनादि पर क्रुद्ध होकर उन्हें मारनेके लिये बड़ी तैयारी की ॥६॥ उनको रोककर श्री बलराम जी ने मदिरा के उन्मादसे लड़खड़ाते हुए शब्दों में कहा-कौरवगण मेरे कहने से साम्ब को छोड़ देंगे अतः मैं अकेला ही उनके पास जाता हूँ ॥ ७॥
श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर, श्री बलदेव जी हस्तिनापुर के समीप पहुँचकर उसके बाहर एक उद्यानमें ठहर गये; उन्होंने नगरमें प्रवेश नहीं किया ॥ ८॥ बलराम जी को आये जान दुर्योधन आदि राजाओंने उन्हें गौ, अध्रर्य पाद्यादि निवेदन किये ॥ ९ ॥ उन सबको विधिवत् ग्रहण कर बलभद्रजी ने कौरवों से कहा-"राजा उग्रसेन की आज्ञा है आप लोग साम्ब को तुरंत छोड़ दें" ॥१०॥
हे द्विजसत्तम ! बलराम जी के इन वचनोंको सुनकर भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि राजाओंको बड़ा क्षोभ हुआ ॥ ११ ॥ और यदुवंशी को राज्यपद के अयोग्य समझ बाह्लिक आदि सभी कौरवगण कुपित होकर मूसलधारी बलभद्रजीसे कहने लगे-॥ १२ ॥ "हे बलभद्र ! तुम यह क्या कह रहे हो; ऐसा कौन यदुवंशी है जो कुरुकुलोत्पन्न किसो वीरको आज्ञा दे ? ।। १३ ॥ यदि उग्रसेन सभी कौरवों को आज्ञा दे सकते हैं तो राजाओं के योग्य कौरवों के इस श्वेत छत्रका क्या प्रयोजन है ? ॥ १४ ॥ अतः हे बलराम ! तुम जाओ अथवा रहो, हमलोग तुम्हारी या उग्रसेन की आज्ञा से अन्याय कर्मा साम्ब को नहीं छोड़ सकते ॥ १५ ।।
पूर्वकालमें कुकुर और अन्धकवंशीय यादवगण हम माननीयों को प्रणाम किया करते थे सो अब वे ऐसा नहीं करते तो न सही; किन्तु स्वामीको यह सेवक की ओरसे आज्ञा देना कैसा ? ॥ १६ ॥ तुमलोगोंके साथ समान आसन और भोजन का व्यवहार करके तुम्हें हमने ही गर्वीला बना दिया है। इसमें तुम्हारा दोष भी क्या है, क्योंकि हमने ही प्रीतिवश नीति- का विचार नहीं किया॥ १७ ॥ हे बलराम ! हमने जो तुम्हें यह अध्र्य आदि निवेदन किया है यह सब प्रेमवश ही है, वास्तव में हमारे कुलकी ओरसे तुम्हारे कुलको अध्र्यादि देना उचित नहीं है" ॥ १८॥
श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कहकर कौरवगण यह निश्चय करके कि "हम कृष्ण के पुत्र साम्ब को नहीं छोड़ेंगे" तुरंत हस्तिनापुर में चले गये ॥ १ ॥ तदनन्तर हलायुध श्री बलराम जी ने उनके तिरस्कारसे उत्पन्न हुए क्रोधसे मत्त होकर घूरते हुए पृथिवीमें लात मारी॥२०॥ महात्मा बलरामजी के पाद- प्रहारसे पृथिवी फट गयी और वे अपने शब्द से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजाकर कम्पायमान करने लगे तथा लाल-लाल नेत्र और टेढ़ी भृकुटि करके बोले अहो ! इन सारहीन दुरात्मा कौरवों को यह कैसा राजमद का अभिमान है । कौरवों के महिपालत्व तो स्वतःसिद्ध है और हमारा सामयिक-ऐसा समझ कर ही आज ये महाराजा उग्रसेन की आज्ञा नहीं मानते; बल्कि उसका उल्लंघन कर रहे है । २१-२३॥। आज राजा उग्रसेन सुधर्मा-सभामें स्वयं विराज मान होते हैं, उसमें शचीपति इन्द्र भी नहीं बैठने पाते ! परंतु इन कौरवों को धिक्कार है, जिन्हें सैकड़ों मनुष्यों के उच्छिष्ट राजसिंहासनमें इतनी तुष्टि है ॥२४॥ जिनके सेवकोंको स्त्रियां भी पारिजात वृक्ष की पुष्प-मञ्जरी धारण करती हैं वह भी इन कौरवों के महाराज नहीं है ? [ यह कैसा ऐश्वर्यं है ?] ॥ २५ ॥ वे उग्रसेन ही सम्पूर्ण राजाओं के महाराज बनकर रहेंं । आज में अकेला ही पृथ्वी को कौरवहीन करके उनकी द्वारकापुरीको जाऊँगा ॥ २६ । आज कर्ण, दुर्योधन, द्रोण, भीष्म, बाह्विक, दुश्शासनादि, भूरि, भूरिश्रवा, सोमदत्त, शल, भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव तथा अन्यान्य समस्त कौरवों को उनके हाथी-घोड़े और रथके सहित मारकर तथा नववधूके साथ वीरवर साम्ब को लेकर ही मैं द्वारकापुरी में जाकर उग्रसेन आदि अपने बन्धु-बान्धवों को देखूंगा । २७- २९ ॥ अथवा समस्त कौरवों के सहित उनके निवास स्थान इस हस्तिनापुर नगरको ही अभी गंगा जी में फेंके देता हूँ। ॥ ३० ॥
श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कहकर मदसे अरुण नयन मुसलायुध श्री बलभद्र जीने हलकी नोंकको हस्तिनापुर के खाई और दुर्ग से युक्त प्राकारके मूलमें लगाकर खींचा ।। ३१॥ उस समय सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसा डगमगाता देख समस्त कौरवगण क्षुब्ध चित्त होकर भयभीत हो गये॥ ३२ ॥ [ और कहने लगे-] हे राम ! हे राम! हे महाबाहो! क्षमा करो, क्षमा करो ! हे मुमलायुध ! अपना कोप शांत करके प्रसन्न होइये || ३३ ॥ हे बलराम! हम आपको पत्नी के सहित इस साम्बको सौंपते हैं । हम आपका प्रभाव नहीं जानते थे. इसीसे आपका अपराध किया; कृपया क्षमा कीजिए ॥ ३४ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मुनि श्रेष्ठ ! तदनन्तर | कौरवों ने तुरंत ही अपने नगरसे बाहर आकर पत्नीसहित साम्बको श्रीबलरामजीके अर्पण कर दिया ॥ ३५ ॥ तब प्रणामपूर्वक प्रिय वाक्य बोलते हुए भीष्म, द्रोण, कृप आदि से वीरवार बलरामजी ने कहा ;- "अच्छा मैंने क्षमा किया" । ३६॥ हे द्विज ! इस समय भी हस्तिनापुर [गंगा की ओर ] कुछ झुका हुआ-सा दिखायी देता है, यह श्री बलरामजी के बल और शूरवीरताका परिचय देनेवाला उनका प्रभाव ही है ॥ ३७॥ तदनन्तर कौरवों ने बलरामजीके सहित साम्बका पूजन किया तथा बहुत-से दहेज और वधूके सहित उन्हें द्वारकापुरी भेज दिया ॥ ३८॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः"
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"द्विविद-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! बलशाली बलराम जी का ऐसा ही पराक्रम था। अब, उन्होंने जो और एक कर्म किया था वह भी सुनो ॥ १ ॥ द्विविद नामक एक महावीर्यशाली वानरश्रेष्ठ देवद्रोही दैत्यराज नरकासुर का मित्र था ॥२॥ भगवान कृष्ण ने देवराज इंद्र की प्रेरणासे नरकासुर का वध किया था, इसलिये वीर वानर द्विविदने देवताओं से वैर ठाना ॥३॥
[ उसने निश्चय किया कि ] "मैं मर्त्यलोक का श्रय कर दूंगा और इस प्रकार यज्ञ-यागादिका उच्छेद करके सम्पूर्ण देवताओंसे इसका बदला चुका लूँगा ॥४॥ तबसे वह अज्ञानमोहित होकर यज्ञों को विध्वंस करने लगा और साधुमर्यादा को मिटाने तथा देहधारी जीवों को नष्ट करने लगा ॥ ५ ॥ वह वन, देश, पुर और भिन्न-भिन्न ग्रामों को जला देता तथा कभी पर्वत गिराकर ग्रामादिकोंको चूर्ण कर डालता ॥६॥ कभी पहाड़ोंकी चट्टान उखाड़कर समुद्र के जल में छोड़ देता और फिर कभी समुद्र में घुसकर उसे क्षुभित कर देता ॥ ७ ॥ हे द्विज ! उससे क्षुभित हुआ समुद्र ऊँची-ऊँची तरङ्गोंसे उठकर अति वेगसे युक्त हो अपने तीरवर्ती ग्राम और पुर आदिको डुबो देता था ।। ८ ॥ वह कामरूपी वानर महान् रूप धारणकर लोटने लगता था और अपने लुण्ठनके संघर्षसे सम्पूर्ण धान्यों ( खेतों ) को कुचल डालता था ॥९॥हे द्विज ! उस दुरात्माने इस सम्पूर्ण जगत् को स्वाध्याय और वषट्कारसे शून्य कर दिया था, जिससे यह अत्यन्त दुःखमय हो गया ॥ १० ॥
एक दिन श्रीबलभद्रजी रैवतोद्यानमें [क्रीडासक्त होकर ] मद्यपान कर रहे थे। साथ ही महाभागा रेवती तथा अन्य सुन्दर रमणियाँ भी था ॥ ११ ॥ उस समय रमणी-रत्नोंके बीच में शोभायमान यदु श्रेष्ठ श्रीबलरामजी, उनके द्वारा उच्च स्वर से गान किये जाते हुए, [ रैवतक पर्वतपर ] इस प्रकार रमण कर रहे थे जैसे मन्दराचलपर कुबेर ॥ १२ ॥ इसी समय वहाँ द्विविद वानर आया और श्री हलधर के हल और मूसल लेकर उनके सामने ही उनकी नकल करने लगा ॥ १३ ।। वह दुरात्मा वानर उन स्त्रियोंकी ओर देख-देखकर हंसने लगा और उसने मदिरासे भरे हुए घड़े फोड़कर फेंक दिये ।। १४ ।।
तब श्रीहलधर ने क्रुद्ध होकर उसे धमकाया तथापि वह उनकी अवज्ञा करके किलकारी मारने लगा ॥ १५ ॥ तदनन्तर श्रीबलरामजीने मुसकाकर क्रोधसे अपना मूसल उठा लिया तथा उस वानरने भी एक भारी चट्टान ले ली ॥ १६ । और उसे बलरामजीके ऊपर फेंकी किन्तु यदुवीर बलभद्रजीने मूसलसे उसके हजारों टुकड़े कर दिये; जिससे वह पृथिवीपर गिर पड़ी ॥ १७ ॥ तब उस वानरने बलरामजीके मूसलका वार बचाकर रोषपूर्ण अत्यन्त वेगसे उनकी छातीमें घूँसा मारा ॥ १८ ॥ तत्पश्चात् बलभद्रजीने भी क्रुद्ध होकर द्विविदके सिरमें घूंसा मारा जिससे वह रुधिर वमन करता हुआ निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ १९ ॥ हे मैत्रेय ! उसके गिरते समय उसके शरीरका आघात पाकर इन्द्र-वज्रसे विदीर्ण होने के.समान उस पर्वतके शिखरके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ २० ॥
उस समय देवता लोग बलराम जी के ऊपर फूल बरसाने लगे और वहाँ आकर "आपने यह बड़ा अच्छा किया" ऐसा कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ २१ ॥ "हे वीर ! दैत्य-पक्षके उपकारक इस दुष्ट वानरने संसारको बड़ा कष्ट दे रखा था; यह बड़े ही सौभाग्यका विषय है कि आज यह मारा गया।" ऐसा कहकर गुह्यकोंके सहित देवगण अत्यन्त हर्ष पूर्वक स्वर्गलोकको चले आये ॥ २२-२३ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- शेषावतार धरणी घर धीमान् बलभद्रजीके ऐसे ही अनेकों कर्म हैं, जिनका कोई परमाणु ( तुलना ) नहीं बताया जा सकता ॥२४॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे षट्त्रिंशोऽध्यायः"
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"ऋषियों का शाप, यदुवंश विनाश तथा भगवानका स्वधाम सिधारना"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! इसी प्रकार संसारके उपकार के लिये बलभद्रजी के सहित श्रीकृष्णचन्द्र ने दैत्यों और दुष्ट राजाओं का वध किया॥ १ ॥ तथा अंत में अर्जुन के साथ मिलकर भगवान कृष्ण ने अठारह अक्षौहिणी सेनाको मारकर पृथ्वी का भार उतारा ॥ २ ॥ इस प्रकार सम्पूर्ण राजाओं को मार कर पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शापके मिषसे अपने कुलका भी उपसंहार कर दिया ॥ ३ ॥ हे मुने ! अंत में द्वारकापुरीको छोड़कर तथा अपने मानव शरीर को त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने अंश ( बलराम-प्रद्युम्नादि ) के सहित अपने विष्णुमय धाममें प्रवेश किया ॥४॥
श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे मुने ! श्री जनार्दन ने विप्रशापके मिषसे किस प्रकार अपने कुलका नाश किया और अपने मानव-देहको किस प्रकार छोड़ा ?।। ५॥
श्रीपराशरजी बोले ;- एक बार कुछ यदुकुमारोंने महातीर्थ पिण्डारक-क्षेत्रमें विश्वामित्र, कण्व और नारद आदि महा मुनियों को देखा ॥ ६॥ तब यौवनसे उन्मत्त हुए उन बालकोंने होनहारकी प्रेरणासे जाम्बवतीके पुत्र साम्बका स्त्री-वेष बनाकर उन मुनीश्वरोंको प्रणाम करनेके अनन्तर अति नम्रता. से पूछा-- "इस स्त्री को पुत्र की इच्छा है, हे मुनिजन! कहिये यह क्या जनेगी ?"॥ ७-८ ॥
श्रीपराशरजी बोले ;- यदुकुमारोंके इस प्रकार धोखा देनेपर उन दिव्य ज्ञानसम्पन्न मुनिजनोंने कुपित होकर कहा-"यह एक लोकोक्तर मूसल जनेगी जो समस्त यादवों के नाश का कारण होगा और जिससे यादवों का सम्पूर्ण कुल संसारमें निर्मुल हो जायगा" ॥ ९-१० ॥
मुनिगणके इस प्रकार कहनेपर उन कुमारोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का-ज्यों राजा उग्रसेनसे कह दिया तथा साम्ब के पेट से एक मूसल उत्पन्न हुआ ।।११।। उग्रसेन ने उस लोहमय मूसलका चूर्ण करा डाला और उसे उन बालकोने [ले जाकर] समुद्र मे फेक दीया ,
उससे वहाँ बहुत सरकण्डे उत्पन्न हो गये ॥ १२ ॥ यादवोंद्वारा चूर्ण किये गये इस मूसल को लोहे का जो भालेकी नोकके समान एक खण्ड चूर्ण करनेसे बचा उसे भी समुद्र में फिंकवा दिया। उसे एक मछली निगल गयी। उस मछलीको मछेरोंने पकड़ लिया तथा चीरने पर उसके पेटसे निकले हुए उस मूसलखण्डको जरा नामक व्याध ने ले लिया । १३-१४ ।। भगवान मधुसूदन इन समस्त बातोंको यथावत् जानते थे तथापि उन्होंने विधाता की इच्छाको अन्यथा करना न चाहा ॥ १५ ॥
इसी समय देवताओं ने वायु को भेजा। उसने एकान्तमें श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम करके कहा -- "भगवान ! मुझे देवताओं ने दूत बनाकर भेजा है ॥ १६ ॥ हे विभो ! वसुगण, अश्विनी कुमार, रुद्र, आदित्य, मरुद् गण और साध्यादिके सहित इन्द्रने आपको जो सन्देश भेजा है, वह सुनिये ।। १७ ।। हे भगवान ! देवताओं की प्रेरणा से उनके ही साथ पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतीर्ण हुए आपको सौ वर्ष से अधिक बीत चुके हैं ॥ १८ ॥ अब आप दुराचारी दैत्यों को मार चुके और पृथ्वी का भार भी उतार चुके, अतः [ हमारी प्रार्थना है कि ] अब देवगण सर्वदा स्वर्ग में ही आपसे सनाथ हों [अर्थात आप स्वर्ग पधारकर देवताओं को सनाथ करें] ॥ १९ ॥ हे जगन्नाथ ! आपको भूमण्डलमें पधारे हुए सौ वर्ष से अधिक हो गये, अब यदि आपको रुचे तो स्वर्गलोक पधारिये॥ २० ॥ हे देव ! देवगण का यह भी कथन है कि यदि आपको यही रहना अच्छा लगे तो रहें, सेवकों का तो यही धर्म है कि [ स्वामीको ] यथासमय कर्तव्यका निवेदन कर दें" ॥ २१॥
श्रीभगवान् बोले ;- हे दूत ! तुम जो कुछ कहते हो वह सब मैं जानता हूँ, इसलिये अब मैंने यादवोंके नाशका आरम्भ कर दिया है ॥ २२ ॥ इन यादवोंका संहार हुए बिना अभी तक पृथ्वी का भार हल्का नहीं हुआ है, अतः अब सात रात्रिके भीतर [ इनका संहार करके ] पृथ्वी का भार उतारकर मैं शीघ्र ही [ जैसा तुम कहते हो ] वही करूँगा ॥ २३ ॥ जिस प्रकार द्वारका की भूमि मैंने समुद्र से माँगी थी इसे उसी प्रकार उसी प्रकार उसे लौटाकर तथा यादवों का उपसंहार कर मैं स्वर्गलोक में आऊँगा ॥ २४ ॥ अब देवराज इन्द्र और देवताओंको यह समझना चाहिये कि संकर्षण के सहित मैं मनुष्य-शरीर को छोड़कर स्वर्ग पहुँच ही चुका हूँ ॥ २५ ।। पृथिवीके भारभूत जो जरासन्ध आदि अन्य राजागण मारे गये हैं, ये यदु कुमार भी उनसे कम नहीं है॥ २६ ।। अतः तुम देवताओं से जाकर कहो कि मैं पृथ्वी के इस महाभारको उतारकर ही देवलोक का पालन करनेके लिये स्वर्ग में आऊँगा ॥ २७ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय! भगवान वासुदेव के इस प्रकार कहनेपर देवदूत वायु उन्हें प्रणाम करके अपनी दिव्य गतिसे देवराजके पास चले आये ॥ २८॥ भगवान ने देखा कि द्वारकापुरीमें रात-दिन नाशके सूचक दिव्य, भौम और अंतरिक्ष सम्बन्धी महान् उत्पात हो रहे हैं ॥ २९ ॥ उन उत्पातोंको देखकर भगवान ने यादवों से कहा - "देखो, ये कैसे घोर उपद्रव हो रहे हैं, चलो, शीघ्र ही इनकी शांति के लिये प्रभासक्षेत्रको चले" ॥ ३० ॥
श्री पराशर जी बोले ;- कृष्ण चंद्र के ऐसा कहनेपर महा भागवत यादव श्रेष्ठ उद्धव ने श्री हरि को प्रणाम करके कहा-॥ ३१ ॥ "भगवन् ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अब आप इस कुलका नाश करेंगे, क्योंकि हे अच्युत ! इस समय सब ओर इसके नाशके सूचक कारण दिखायी दे रहे हैं; अतः मुझे आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ ।। ३२ -३३ ।॥
श्रीभगवान् बोले ;- हे उद्धव! अब तुम मेरी कृपा से प्राप्त हुई दिव्य गति से नर-नारायण के निवासस्थान गन्धमादन पर्वत पर जो पवित्र बद्रिकाश्रम क्षेत्र है वहाँ जाओ । पृथिवी तल पर वही सबसे पावन स्थान है॥ ३४ ॥ वहाँपर मुझमें चित्त लगाकर तुम मेरी कृपासे सिद्धि प्राप्त करोंंगे । अब मैं भी इस कुलका संहार करके स्वर्गलोक को चला जाऊँगा ॥ ३५ ॥
मेरे छोड़ देने पर सम्पूर्ण द्वारका को समुद्र जल मेंं डुबोंं देगा ; मुझसे भय मानने के कारण केवल मेरे भवनको छोड़ देगा; अपने इस भवन में मैं भक्तों की हितकामना- से सदा निवास करता हूँ ।। ३६ ।।
श्री पराशर जी बोले ;- भगवान के ऐसा कहनेपर उद्धवजी उन्हें प्रणामकर तुरंत ही उनके बतलाये हुए तपोवन श्री नर नारायण के स्थान को चले गये ॥ ३७॥ हे द्विज ! तदनन्तर कृष्ण और बलराम आदि के सहित सम्पूर्ण यादव शीघ्रगामी रथोंपर चढ़कर प्रभास क्षेत्र में आये॥ ३८ ॥ वहाँ पहुँचकर कुकुर, अन्धक और वृष्णि आदि वंशों के समस्त यादवों ने कृष्णचन्द्र की प्रेरणा से महापान [ और भोजन' ] किया ॥ ३९ ॥ पान करते समय उनमें परस्पर कुछ विवाद हो जानेसे वहाँ कुवाक्यरूप इंधन युक्त प्रलयकारिणी कलहाग्नि धधक उठी ॥ ४० ।।
श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे द्विज! अपना-अपना भोजन करते हुए उन यादवों में किस कारणसे कलह (वाग्युद्ध) अथवा संघर्ष (हाथापाई) हुआ, सो आप कहिये ॥४१॥
श्री पराशर जी बोले ;- मेरा भोजन शुद्ध है, तेरा अच्छा नहीं है इस प्रकार भोजन के अच्छे-बुरे की चर्चा करते-करते उनमें परस्पर विवाद और हाथापाई हो गयी ॥ ४२ ॥ तब वे दैवी प्रेरणासे विवश होकर आपसमें क्रोधसे रक्तनेत्र हुए एक-दूसरेपर शस्त्रप्रहार करने लगे और जब अस्त्र समाप्त हो गये तो पास हीमें उगे हुए वे सरकण्डे ले लिये ॥ ४३-४४ ॥ उनके हाथमें लगे हुए वे सरकण्डे वज्रके समान प्रतीत होते थे, उन वज्रतुल्य सरकण्डोंसे ही वे उस दारुण युद्ध में एक दूसरेपर प्रहार करने लगे ॥ ४५ ॥
हे द्विज ! प्रद्युम्न और साम्ब आदि कृष्ण पुत्रगण, कृतवर्मा, सात्यकि और अनिरुद्ध आदि तथा पृथु, विपृथु, चारुवर्मा, चारुक और अक्रूर आदि यादवगण एक दूसरेपर एरकारूपी वज्रोंं से प्रहार करने लगे ॥ ४६-४७ ॥ जब श्रीहरिने उन्हें आपसमें लढ़नेसे रोका तो उन्होंने उन्हें अपने प्रतिपक्षीका सहायक होकर आये हुए समझा और [ उनकी बातकी अवहेलनाकर ] एक दूसरेको मारने लगे ॥ ४८ ॥
कृष्णचन्द्रने भी कुपित होकर उनका वध करनेके लिये एक मुट्ठी सरकण्डे उठा लिया। वे मुट्ठीभर सरकण्डे लोहे के मूल [ समान ] हो गये॥ ४९ ॥ उन मूसलरूप सरकण्डों से कृष्णचन्द्र सम्पूर्ण आत तायी यादवोंको मारने लगे तथा अन्य समस्त यादव भी वहाँ आ-आकर एक दूसरेको मारने लगे ॥ ५०॥ हे द्विज! तदनन्तर भगवान कृष्णचन्द्र का जैत्र नामक रथ घोड़ो से आकृष्ट हो दारुकके देखते-देखते समुद्र के मध्यपथसे चला गया ॥ ५१ ।। इसके पश्चात् भगवान - के शंख, चक्र, गदा, शाङ्गधनुष, तरकश और खड्ग आदि आयुध श्रीहरि की प्रदक्षिणा का सूर्यमार्ग से चले गये ॥ ५२ ॥
हे महामुने ! एक क्षणमें ही महात्मा कृष्णचन्द्र और उनके सारथी दारुकको छोड़कर और कोई यदुवंशी जीवित न बचा ॥ ५३ ॥ उन दोनोंने वहाँ घूमते हुए देखा कि श्री बलराम जी एक वृक्ष के तले बैठे हैं और उनके मुखसे एक बहुत बड़ा सर्प निकल रहा है ॥५४॥ वह विशाल फणधारी सर्प उनके मुख से निकलकर सिद्ध और नागों से पूजित हुआ समुद्र की ओर गया॥ ५५ ॥ उसी समय समुद्र अध्र्य लेकर उस ( महासर्प ) के सम्मुख उपस्थित हुआ और वह नागश्रेष्ठोंसे पूजित हो समुद्र में घुस गया ॥ ५६ ॥
इस प्रकार श्री बलराम जी का प्रयाण देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने दारुक से कहा-"तुम यह सब का वृत्तान्त उग्रसेन और वासुदेवजी से जाकर कहो ।। ५७ ॥ बल- भद्रजीका निर्याण, यादवोंका क्षय और मैं भी योगस्थ होकर शरीर छोड़ूँगा-[ यह सब समाचार उन्हें ] जाकर सुनाओ ॥ ५८॥ सम्पूर्ण द्वारकावासी और । आहुक ( उग्रसेन) से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरीको समुद्र डुबो देगा ॥ ५९ ॥ इसलिये आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा और करें तथा अर्जुन के यहां से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति ॥ द्वारकामें न रहे; जहाँ वे कुरुनन्दन जायँ वहीं सब लोग चले जायँ ॥ ६०-६१ ॥ कुन्ती पुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओरसे कहना कि "अपनी सामर्थ्यानुसार तुम मेरे परिवारके लोगोंकी रक्षा करना" ॥ ६२ ।॥ और तुम द्वारकावासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के इन भगवद्वाक्योंके समाप्त होते ही वहाँ एक विमान आया, उसपर चढ़कर वह व्याध भगवान की कृपा से उसी समय स्वर्ग को चला गया ॥ ७४ । सके चले जाने पर भगवान कृष्ण चंद्र ने अपने आत्मा को अव्यय, अचिन्त्य, वासुदेवस्वरूप, अमल, अजन्मा, अमर, अप्रमेय, अखिलात्मा और ब्रह्मस्वरूप विष्णु भगवान में लीन कर त्रिगुणात्मक गतिको पार कर इस मनुष्य-शरीर को छोड़ दिया ।। ७५-७६ ।।
"इति श्रीविष्णुपुराणे पक्चमेंऽसे सप्तत्रिंशोऽध्यायः"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"चौंतीसवाँँ अध्याय"
"पौंड्रक वध तथा काशी दहन"
श्री मैत्रेयजी बोले ;- हे गुरो! श्री विष्णु भगवान ने मनुष्य-शरीर धारणकर जो लीलासे ही इन्द्र, शङ्कर और सम्पूर्ण देवगणको जीतकर महान् कर्म किये थे मैं ॥ [ वह सुन चुका] ॥ १ ॥ इसके सिवा देवताओं- की चेष्टाओंका विघात करनेवाले उन्होंने और भी जो कर्म किये थे, हे महाभाग ! वे सब मुझे सुनाइये; । मुझे उनके सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥२॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे ब्रह्मर्षे ! भगवान ने मनुष्यावतार लेकर जिस प्रकार काशीपुरी जलायी थी वह मैं सुनाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो ॥ ३ ॥ पौंण्ड्रक वंशीय वासुदेव नामक एक राजा को अज्ञान मोहित पुरुष 'आप वासुदेव रूप से पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कहकर स्तुति किया करते थे ॥ ४ ॥ अंत में वह भी यही मानने लगा कि 'मैं वासुदेव रूप से पृथ्वी में उत्तीर्ण हुआ हूँ।' इस प्रकार आत्म-विस्मृत हो जानेसे उसने विष्णु भगवान के समस्त चिह्न धारण कर लिये ॥ ५॥ और महात्मा कृष्ण चन्द्र के पास यह सन्देश देकर दूत भेजा कि "हे मूढ़ ! अपने वासुदेव नामको छोड़कर मेरे चक्र आदि सम्पूर्ण चिह्नोंको छोड़ दे और यदि तुझे जीवन की इच्छा है तो मेरी शरण में आ" ॥ ६-७ ।।
दूतने जब इसी प्रकार जाकर कहा तो श्रीजनार्दन उससे हँसकर बोले-"ठीक है, मैं अपने चिह्न चक्रको तेरे प्रति छोड़ूँगा। हे दूत ! मेरी ओरसे तू पौण्ड्रक से जाकर यह कहना कि मैंने तेरे वाक्य का वास्तविक भाव समझ लिया है, तुझे जो करना हो सो कर । ८-९ ॥ मैं अपने चिह्न और वेष धारण कर तेरे नगरमें आऊँगा! और निस्सन्देह अपने चिह्न-चक्रको तेरे ऊपर छोड़ूँगा ॥ १० ॥ और तूने जो आज्ञा करते हुए 'आ' ऐसा कहा है सो मैं उसे भी अवश्य पालन करूँगा तथा कल शीघ्र ही तेरे पास पहुँचूँगा ॥ ११ ॥ हे राजन् ! तेरी शरणमें आकर मैं वही उपाय करूँगा जिससे फिर तुझसे मुझे कोई भय न रहे ।।१२।।
श्री पराशर जी बोले ;- श्री कृष्णचन्द्र के ऐसा कहने पर जब दूत चला गया तो भगवान स्मरण करते ही उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर तुरंत उनकी राजधानी को चले ॥ १३ ।। भगवान के आक्रमणका समाचार सुनकर काशीनरेश भी उसका पृष्ठपोषक (सहायक) होकर अपनी सम्पूर्ण सेना ले उपस्थित हुआ ॥१४॥ तदनन्तर अपनी महान सेनाके सहित काशीनरेश की सेना लेकर पौंण्ड्रक वासुदेव श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख आया ॥ १५ ॥ भगवान् ने दूरसे ही उसे हाथमें चक्र, गदा, शाङ्ग धनुष और पद्म लिये एक उत्तम रथपर बैठे देखा ॥ १६ ॥ श्री हरि ने देखा कि उसके कण्ठमें वैजयन्ती माला है, शरीर में पीताम्बर है, गरुडरचित ध्वजा है और वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न है ॥ १७ ॥ उसे नाना प्रकार के रत्नों से सुसज्जित किरीट और कुण्डल धारण किये देख श्री गरुड़ध्वज भगवान गम्भीर भावसे हँसने लगे ॥ १८ ॥ और हे द्विज ! उसकी हाथी-घोड़ों से बलिष्ठ तथा निस्त्रिंश, खड्ग, गदा, शूल, शक्ति और धनुष आदिसे सुसज्जित सेनासे युद्ध करने लगे। १९ ॥ श्रीभगवान् ने एक क्षणमें ही अपने शाङ्गधनुष से छोड़े हुए शत्रुओंको विदीर्ण करनेवाले तीक्ष्ण बाणों तथा गदा और चक्रसे उसकी सम्पूर्ण सेनाको नष्ट कर डाला ॥ २० । इसी प्रकार काशिराजकी सेनाको भी नष्ट करके श्रीजनार्दनने अपने चिह्नोंसे युक्त मूढमति पौण्डूकसे कहा ॥२१॥
श्रीभगवान् बोले ;- हे पौंड्रक ! मेरे प्रति तूने जो दूतके मुखसे यह कहलाया था कि मेरे चिह्नोंको छोड़ दे सो मैं तेरे सम्मुख उस आज्ञाको सम्पन्न करता हूँ॥ २२ ॥ देख, यह मैंने चक्र छोड़ दिया, यह तेरे ऊपर गदा भी छोड़ दी और यह गरुड भी छोड़े देता हूँ, यह तेरी ध्वजापर आरूढ़ हो ॥ २३ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कहकर छोड़े हुए चक्रने पौण्ड्कको विदीर्ण कर डाला, गदाने नीचे गिरा दिया और गरुडने उसकी ध्वजा तोड़ डाली ॥२४॥ तदनन्तर सम्पूर्ण सेनामें हाहाकार मच जाने पर अपने मित्रका बदला चुकानेके लिये खड़ा हुआ काशी नरेश श्री वासुदेव से लड़ने लगा ॥ २५ ॥
तब भगवान ने शाङ्ग-धनुष से छोड़े हुए एक बाणसे उसका शिर काटकर सम्पूर्ण लोगोंको विस्मित करते हुए काशीपुरी में फेंक दिया ॥ २६ ॥ इस प्रकार पौंण्ड्रक और काशीनरेशको अनुचरोंसहित मारकर भगवान फिर द्वारका को लौट आये और वहाँ स्वर्ग सद्दश
सुखका अनुभव करते हुए रमण करने लगे ॥ २७ ॥
इधर काशीपुरीमें काशिराजका शिर गिरा देख सम्पूर्ण नगरनिवासी विस्मयपूर्वक कहने लगे-'यह क्या हुआ ? इसे किसने काट डाला ?' ॥ २८ ॥ जब उसके पुत्रको मालूम हुआ कि उसे श्रीवासुदेवने मारा है तो उसने अपने पुरोहित के साथ मिलकर भगवान शंकर को संतुष्ट किया ॥ २९ ॥ अविमुक्त महाक्षेत्र में उस राजकुमार से संतुष्ट होकर श्रीशंकरने कहा-'वर माँग'॥ ३० ॥ वह बोला- 'हे भगवन् ! हे महेश्वर !! आपकी कृपासे मेरे पिताका वध करने वाले कृष्ण का नाश करने के लिये ( अग्निसे ) कृत्या उत्पन्न हो ॥ ३१॥
श्रीपराशरजी बोले ;- भगवान् शंकरने कहा; ऐसा ही होगा। उनके ऐसा कहनेपर दक्षिणाग्नि का चयन करनेके अनन्तर उससे उस अग्निका ही विनाश करनेवाली कृत्या उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ उसका कराल मुख ज्वाला मालाओं से पूर्ण था तथा उसके केश अग्निशिखाके समान दीप्तिमान् और ताम्रवर्ण थे। वह क्रोधपूर्वक 'कृष्ण ! कृष्ण !' कहती द्वारका पुरी में आयी ॥ ३३ ॥
हे मुने ! उसे देखकर लोगोंने भय-विचलित नेत्रोंसे जगद्गति भगवान मधुसूदन की शरण ली ॥ ३४ ॥ जब भगवान चक्रपाणिने जाना कि श्री शंकरकी उपासनाकर काशिराजके पुत्रने ही यह । महाकृत्या उत्पन्न की है तो अक्षक्रीडामें लगे हुए उन्होंने लीला से ही यह कहकर कि 'इस अग्नि ज्वालामयी जाटाओं वाली भयंकर कृत्याको मार डाल' अपना चक्र छोड़ा ।। ३५-३६ ॥
तब भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र ने उस अग्नि मालामण्डित जटाओंवाली और अग्निज्वालाओं के कारण भयानक मुखवाली कृत्याका पीछा किया ॥ ३७॥ उस चक्रके तेजसे दग्ध होकर छिन्न-भिन्न होती हुई वह माहेश्वरी कृत्या अति वेगसे दौड़ने लगी तथा वह चक्र भी उतने ही वेगसे उसका पीछा करने लगा ।। ३८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अंत में विष्णु चक्र से हतप्रभाव हुई कृत्याने शीघ्रतासे काशी में ही प्रवेश किया ।। ३९ ॥ उस समय काशीनरेशकी सम्पूर्ण सेना और प्रमथ गण अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर उस चक्र के सम्मुख आये ॥ ४०॥
तब वह चक्र अपने तेज से शस्त्रास्त्र प्रयोग में कुशल उस सम्पूर्ण सेनाको दग्धकर कृत्याके सहित सम्पूर्ण वाराणसी को जलाने लगा॥४१॥ जो राजा, प्रज्ञा और सेवकोंसे पूर्ण थी; घोड़े, हाथी और मनुष्यों से भरी थी; सम्पूर्ण गोष्ठ और कोशों से युक्त थी और देवताओं के लिये भी दुर्दर्शनीय थी, उसी काशीपुरी के भगवान विष्णु के उस चक्रने उसके गृह, कोट और चबूतरों में अग्निकी ज्वालाएँ प्रकट कर जला डाला ॥ ४२-४३ ॥ अन्तमें, जिसका क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ तथा जो अत्यन्त उग्र कर्म करनेको उत्सुक था और जिसकी दीप्ति चारों ओर फैल रही थी वह चक्र फिर लौटकर भगवान विष्णु के हाथमें आ गया ।। ४४ ।।
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः"
-------पैतीसवांँ अध्याय-----
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"साम्बका विवाह"
श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे ब्रह्मन् ! अब मैं फिर मतिमान् बलभद्र जी के पराक्रम की वार्ता सुनना चाहता हूँ, आप वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ हे भगवन् ! मैंने उनके यमुनाकर्षणादि पराक्रम तो सुन लिये; अब हे महाभाग ! उन्होंने जो और-और विक्रम । दिखलाये हैं उनका वर्णन कीजिये ॥२॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! अनन्त, अप्रमेय, धरणीधर शेषावतार श्री बलरामजी ने जो कर्म किये थे, वह सुनो-॥३॥ एक बार जाम्बवती-नन्दन वीरवर साम्ब ने स्वयंवरके अवसरपर दुर्योधनकी पुत्रीको बलात्कार से हरण किया ॥ ४ ॥ तब महावीर कर्ण, दुर्योधन, भीष्म और द्रोण आदि ने क्रुद्ध होकर उसे युद्ध में हराकर बाँध लिया ॥ ५ ॥ यह समाचार पाकर कृष्णचन्द्र आदि समस्त यादवों ने दुर्योधनादि पर क्रुद्ध होकर उन्हें मारनेके लिये बड़ी तैयारी की ॥६॥ उनको रोककर श्री बलराम जी ने मदिरा के उन्मादसे लड़खड़ाते हुए शब्दों में कहा-कौरवगण मेरे कहने से साम्ब को छोड़ देंगे अतः मैं अकेला ही उनके पास जाता हूँ ॥ ७॥
श्री पराशर जी बोले ;- तदनन्तर, श्री बलदेव जी हस्तिनापुर के समीप पहुँचकर उसके बाहर एक उद्यानमें ठहर गये; उन्होंने नगरमें प्रवेश नहीं किया ॥ ८॥ बलराम जी को आये जान दुर्योधन आदि राजाओंने उन्हें गौ, अध्रर्य पाद्यादि निवेदन किये ॥ ९ ॥ उन सबको विधिवत् ग्रहण कर बलभद्रजी ने कौरवों से कहा-"राजा उग्रसेन की आज्ञा है आप लोग साम्ब को तुरंत छोड़ दें" ॥१०॥
हे द्विजसत्तम ! बलराम जी के इन वचनोंको सुनकर भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि राजाओंको बड़ा क्षोभ हुआ ॥ ११ ॥ और यदुवंशी को राज्यपद के अयोग्य समझ बाह्लिक आदि सभी कौरवगण कुपित होकर मूसलधारी बलभद्रजीसे कहने लगे-॥ १२ ॥ "हे बलभद्र ! तुम यह क्या कह रहे हो; ऐसा कौन यदुवंशी है जो कुरुकुलोत्पन्न किसो वीरको आज्ञा दे ? ।। १३ ॥ यदि उग्रसेन सभी कौरवों को आज्ञा दे सकते हैं तो राजाओं के योग्य कौरवों के इस श्वेत छत्रका क्या प्रयोजन है ? ॥ १४ ॥ अतः हे बलराम ! तुम जाओ अथवा रहो, हमलोग तुम्हारी या उग्रसेन की आज्ञा से अन्याय कर्मा साम्ब को नहीं छोड़ सकते ॥ १५ ।।
पूर्वकालमें कुकुर और अन्धकवंशीय यादवगण हम माननीयों को प्रणाम किया करते थे सो अब वे ऐसा नहीं करते तो न सही; किन्तु स्वामीको यह सेवक की ओरसे आज्ञा देना कैसा ? ॥ १६ ॥ तुमलोगोंके साथ समान आसन और भोजन का व्यवहार करके तुम्हें हमने ही गर्वीला बना दिया है। इसमें तुम्हारा दोष भी क्या है, क्योंकि हमने ही प्रीतिवश नीति- का विचार नहीं किया॥ १७ ॥ हे बलराम ! हमने जो तुम्हें यह अध्र्य आदि निवेदन किया है यह सब प्रेमवश ही है, वास्तव में हमारे कुलकी ओरसे तुम्हारे कुलको अध्र्यादि देना उचित नहीं है" ॥ १८॥
श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कहकर कौरवगण यह निश्चय करके कि "हम कृष्ण के पुत्र साम्ब को नहीं छोड़ेंगे" तुरंत हस्तिनापुर में चले गये ॥ १ ॥ तदनन्तर हलायुध श्री बलराम जी ने उनके तिरस्कारसे उत्पन्न हुए क्रोधसे मत्त होकर घूरते हुए पृथिवीमें लात मारी॥२०॥ महात्मा बलरामजी के पाद- प्रहारसे पृथिवी फट गयी और वे अपने शब्द से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजाकर कम्पायमान करने लगे तथा लाल-लाल नेत्र और टेढ़ी भृकुटि करके बोले अहो ! इन सारहीन दुरात्मा कौरवों को यह कैसा राजमद का अभिमान है । कौरवों के महिपालत्व तो स्वतःसिद्ध है और हमारा सामयिक-ऐसा समझ कर ही आज ये महाराजा उग्रसेन की आज्ञा नहीं मानते; बल्कि उसका उल्लंघन कर रहे है । २१-२३॥। आज राजा उग्रसेन सुधर्मा-सभामें स्वयं विराज मान होते हैं, उसमें शचीपति इन्द्र भी नहीं बैठने पाते ! परंतु इन कौरवों को धिक्कार है, जिन्हें सैकड़ों मनुष्यों के उच्छिष्ट राजसिंहासनमें इतनी तुष्टि है ॥२४॥ जिनके सेवकोंको स्त्रियां भी पारिजात वृक्ष की पुष्प-मञ्जरी धारण करती हैं वह भी इन कौरवों के महाराज नहीं है ? [ यह कैसा ऐश्वर्यं है ?] ॥ २५ ॥ वे उग्रसेन ही सम्पूर्ण राजाओं के महाराज बनकर रहेंं । आज में अकेला ही पृथ्वी को कौरवहीन करके उनकी द्वारकापुरीको जाऊँगा ॥ २६ । आज कर्ण, दुर्योधन, द्रोण, भीष्म, बाह्विक, दुश्शासनादि, भूरि, भूरिश्रवा, सोमदत्त, शल, भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव तथा अन्यान्य समस्त कौरवों को उनके हाथी-घोड़े और रथके सहित मारकर तथा नववधूके साथ वीरवर साम्ब को लेकर ही मैं द्वारकापुरी में जाकर उग्रसेन आदि अपने बन्धु-बान्धवों को देखूंगा । २७- २९ ॥ अथवा समस्त कौरवों के सहित उनके निवास स्थान इस हस्तिनापुर नगरको ही अभी गंगा जी में फेंके देता हूँ। ॥ ३० ॥
श्री पराशर जी बोले ;- ऐसा कहकर मदसे अरुण नयन मुसलायुध श्री बलभद्र जीने हलकी नोंकको हस्तिनापुर के खाई और दुर्ग से युक्त प्राकारके मूलमें लगाकर खींचा ।। ३१॥ उस समय सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसा डगमगाता देख समस्त कौरवगण क्षुब्ध चित्त होकर भयभीत हो गये॥ ३२ ॥ [ और कहने लगे-] हे राम ! हे राम! हे महाबाहो! क्षमा करो, क्षमा करो ! हे मुमलायुध ! अपना कोप शांत करके प्रसन्न होइये || ३३ ॥ हे बलराम! हम आपको पत्नी के सहित इस साम्बको सौंपते हैं । हम आपका प्रभाव नहीं जानते थे. इसीसे आपका अपराध किया; कृपया क्षमा कीजिए ॥ ३४ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मुनि श्रेष्ठ ! तदनन्तर | कौरवों ने तुरंत ही अपने नगरसे बाहर आकर पत्नीसहित साम्बको श्रीबलरामजीके अर्पण कर दिया ॥ ३५ ॥ तब प्रणामपूर्वक प्रिय वाक्य बोलते हुए भीष्म, द्रोण, कृप आदि से वीरवार बलरामजी ने कहा ;- "अच्छा मैंने क्षमा किया" । ३६॥ हे द्विज ! इस समय भी हस्तिनापुर [गंगा की ओर ] कुछ झुका हुआ-सा दिखायी देता है, यह श्री बलरामजी के बल और शूरवीरताका परिचय देनेवाला उनका प्रभाव ही है ॥ ३७॥ तदनन्तर कौरवों ने बलरामजीके सहित साम्बका पूजन किया तथा बहुत-से दहेज और वधूके सहित उन्हें द्वारकापुरी भेज दिया ॥ ३८॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः"
--------छत्तीसवाँ अध्याय-------
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"द्विविद-वध"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! बलशाली बलराम जी का ऐसा ही पराक्रम था। अब, उन्होंने जो और एक कर्म किया था वह भी सुनो ॥ १ ॥ द्विविद नामक एक महावीर्यशाली वानरश्रेष्ठ देवद्रोही दैत्यराज नरकासुर का मित्र था ॥२॥ भगवान कृष्ण ने देवराज इंद्र की प्रेरणासे नरकासुर का वध किया था, इसलिये वीर वानर द्विविदने देवताओं से वैर ठाना ॥३॥
[ उसने निश्चय किया कि ] "मैं मर्त्यलोक का श्रय कर दूंगा और इस प्रकार यज्ञ-यागादिका उच्छेद करके सम्पूर्ण देवताओंसे इसका बदला चुका लूँगा ॥४॥ तबसे वह अज्ञानमोहित होकर यज्ञों को विध्वंस करने लगा और साधुमर्यादा को मिटाने तथा देहधारी जीवों को नष्ट करने लगा ॥ ५ ॥ वह वन, देश, पुर और भिन्न-भिन्न ग्रामों को जला देता तथा कभी पर्वत गिराकर ग्रामादिकोंको चूर्ण कर डालता ॥६॥ कभी पहाड़ोंकी चट्टान उखाड़कर समुद्र के जल में छोड़ देता और फिर कभी समुद्र में घुसकर उसे क्षुभित कर देता ॥ ७ ॥ हे द्विज ! उससे क्षुभित हुआ समुद्र ऊँची-ऊँची तरङ्गोंसे उठकर अति वेगसे युक्त हो अपने तीरवर्ती ग्राम और पुर आदिको डुबो देता था ।। ८ ॥ वह कामरूपी वानर महान् रूप धारणकर लोटने लगता था और अपने लुण्ठनके संघर्षसे सम्पूर्ण धान्यों ( खेतों ) को कुचल डालता था ॥९॥हे द्विज ! उस दुरात्माने इस सम्पूर्ण जगत् को स्वाध्याय और वषट्कारसे शून्य कर दिया था, जिससे यह अत्यन्त दुःखमय हो गया ॥ १० ॥
एक दिन श्रीबलभद्रजी रैवतोद्यानमें [क्रीडासक्त होकर ] मद्यपान कर रहे थे। साथ ही महाभागा रेवती तथा अन्य सुन्दर रमणियाँ भी था ॥ ११ ॥ उस समय रमणी-रत्नोंके बीच में शोभायमान यदु श्रेष्ठ श्रीबलरामजी, उनके द्वारा उच्च स्वर से गान किये जाते हुए, [ रैवतक पर्वतपर ] इस प्रकार रमण कर रहे थे जैसे मन्दराचलपर कुबेर ॥ १२ ॥ इसी समय वहाँ द्विविद वानर आया और श्री हलधर के हल और मूसल लेकर उनके सामने ही उनकी नकल करने लगा ॥ १३ ।। वह दुरात्मा वानर उन स्त्रियोंकी ओर देख-देखकर हंसने लगा और उसने मदिरासे भरे हुए घड़े फोड़कर फेंक दिये ।। १४ ।।
तब श्रीहलधर ने क्रुद्ध होकर उसे धमकाया तथापि वह उनकी अवज्ञा करके किलकारी मारने लगा ॥ १५ ॥ तदनन्तर श्रीबलरामजीने मुसकाकर क्रोधसे अपना मूसल उठा लिया तथा उस वानरने भी एक भारी चट्टान ले ली ॥ १६ । और उसे बलरामजीके ऊपर फेंकी किन्तु यदुवीर बलभद्रजीने मूसलसे उसके हजारों टुकड़े कर दिये; जिससे वह पृथिवीपर गिर पड़ी ॥ १७ ॥ तब उस वानरने बलरामजीके मूसलका वार बचाकर रोषपूर्ण अत्यन्त वेगसे उनकी छातीमें घूँसा मारा ॥ १८ ॥ तत्पश्चात् बलभद्रजीने भी क्रुद्ध होकर द्विविदके सिरमें घूंसा मारा जिससे वह रुधिर वमन करता हुआ निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ १९ ॥ हे मैत्रेय ! उसके गिरते समय उसके शरीरका आघात पाकर इन्द्र-वज्रसे विदीर्ण होने के.समान उस पर्वतके शिखरके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ २० ॥
उस समय देवता लोग बलराम जी के ऊपर फूल बरसाने लगे और वहाँ आकर "आपने यह बड़ा अच्छा किया" ऐसा कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ २१ ॥ "हे वीर ! दैत्य-पक्षके उपकारक इस दुष्ट वानरने संसारको बड़ा कष्ट दे रखा था; यह बड़े ही सौभाग्यका विषय है कि आज यह मारा गया।" ऐसा कहकर गुह्यकोंके सहित देवगण अत्यन्त हर्ष पूर्वक स्वर्गलोकको चले आये ॥ २२-२३ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- शेषावतार धरणी घर धीमान् बलभद्रजीके ऐसे ही अनेकों कर्म हैं, जिनका कोई परमाणु ( तुलना ) नहीं बताया जा सकता ॥२४॥
"इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेंऽशे षट्त्रिंशोऽध्यायः"
--------सेतीसवाँ अध्याय-------
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''पारं पारापारमपारं परपारं पारावाराधारमधार्यं ह्मविकार्यम् ।
पूर्णाकारं पूर्णविहारं परिपूर्ण वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम् ॥"
श्री विष्णुपुराण
(पञ्चम अंश)
"ऋषियों का शाप, यदुवंश विनाश तथा भगवानका स्वधाम सिधारना"
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय ! इसी प्रकार संसारके उपकार के लिये बलभद्रजी के सहित श्रीकृष्णचन्द्र ने दैत्यों और दुष्ट राजाओं का वध किया॥ १ ॥ तथा अंत में अर्जुन के साथ मिलकर भगवान कृष्ण ने अठारह अक्षौहिणी सेनाको मारकर पृथ्वी का भार उतारा ॥ २ ॥ इस प्रकार सम्पूर्ण राजाओं को मार कर पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शापके मिषसे अपने कुलका भी उपसंहार कर दिया ॥ ३ ॥ हे मुने ! अंत में द्वारकापुरीको छोड़कर तथा अपने मानव शरीर को त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने अंश ( बलराम-प्रद्युम्नादि ) के सहित अपने विष्णुमय धाममें प्रवेश किया ॥४॥
श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे मुने ! श्री जनार्दन ने विप्रशापके मिषसे किस प्रकार अपने कुलका नाश किया और अपने मानव-देहको किस प्रकार छोड़ा ?।। ५॥
श्रीपराशरजी बोले ;- एक बार कुछ यदुकुमारोंने महातीर्थ पिण्डारक-क्षेत्रमें विश्वामित्र, कण्व और नारद आदि महा मुनियों को देखा ॥ ६॥ तब यौवनसे उन्मत्त हुए उन बालकोंने होनहारकी प्रेरणासे जाम्बवतीके पुत्र साम्बका स्त्री-वेष बनाकर उन मुनीश्वरोंको प्रणाम करनेके अनन्तर अति नम्रता. से पूछा-- "इस स्त्री को पुत्र की इच्छा है, हे मुनिजन! कहिये यह क्या जनेगी ?"॥ ७-८ ॥
श्रीपराशरजी बोले ;- यदुकुमारोंके इस प्रकार धोखा देनेपर उन दिव्य ज्ञानसम्पन्न मुनिजनोंने कुपित होकर कहा-"यह एक लोकोक्तर मूसल जनेगी जो समस्त यादवों के नाश का कारण होगा और जिससे यादवों का सम्पूर्ण कुल संसारमें निर्मुल हो जायगा" ॥ ९-१० ॥
मुनिगणके इस प्रकार कहनेपर उन कुमारोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का-ज्यों राजा उग्रसेनसे कह दिया तथा साम्ब के पेट से एक मूसल उत्पन्न हुआ ।।११।। उग्रसेन ने उस लोहमय मूसलका चूर्ण करा डाला और उसे उन बालकोने [ले जाकर] समुद्र मे फेक दीया ,
उससे वहाँ बहुत सरकण्डे उत्पन्न हो गये ॥ १२ ॥ यादवोंद्वारा चूर्ण किये गये इस मूसल को लोहे का जो भालेकी नोकके समान एक खण्ड चूर्ण करनेसे बचा उसे भी समुद्र में फिंकवा दिया। उसे एक मछली निगल गयी। उस मछलीको मछेरोंने पकड़ लिया तथा चीरने पर उसके पेटसे निकले हुए उस मूसलखण्डको जरा नामक व्याध ने ले लिया । १३-१४ ।। भगवान मधुसूदन इन समस्त बातोंको यथावत् जानते थे तथापि उन्होंने विधाता की इच्छाको अन्यथा करना न चाहा ॥ १५ ॥
इसी समय देवताओं ने वायु को भेजा। उसने एकान्तमें श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम करके कहा -- "भगवान ! मुझे देवताओं ने दूत बनाकर भेजा है ॥ १६ ॥ हे विभो ! वसुगण, अश्विनी कुमार, रुद्र, आदित्य, मरुद् गण और साध्यादिके सहित इन्द्रने आपको जो सन्देश भेजा है, वह सुनिये ।। १७ ।। हे भगवान ! देवताओं की प्रेरणा से उनके ही साथ पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतीर्ण हुए आपको सौ वर्ष से अधिक बीत चुके हैं ॥ १८ ॥ अब आप दुराचारी दैत्यों को मार चुके और पृथ्वी का भार भी उतार चुके, अतः [ हमारी प्रार्थना है कि ] अब देवगण सर्वदा स्वर्ग में ही आपसे सनाथ हों [अर्थात आप स्वर्ग पधारकर देवताओं को सनाथ करें] ॥ १९ ॥ हे जगन्नाथ ! आपको भूमण्डलमें पधारे हुए सौ वर्ष से अधिक हो गये, अब यदि आपको रुचे तो स्वर्गलोक पधारिये॥ २० ॥ हे देव ! देवगण का यह भी कथन है कि यदि आपको यही रहना अच्छा लगे तो रहें, सेवकों का तो यही धर्म है कि [ स्वामीको ] यथासमय कर्तव्यका निवेदन कर दें" ॥ २१॥
श्रीभगवान् बोले ;- हे दूत ! तुम जो कुछ कहते हो वह सब मैं जानता हूँ, इसलिये अब मैंने यादवोंके नाशका आरम्भ कर दिया है ॥ २२ ॥ इन यादवोंका संहार हुए बिना अभी तक पृथ्वी का भार हल्का नहीं हुआ है, अतः अब सात रात्रिके भीतर [ इनका संहार करके ] पृथ्वी का भार उतारकर मैं शीघ्र ही [ जैसा तुम कहते हो ] वही करूँगा ॥ २३ ॥ जिस प्रकार द्वारका की भूमि मैंने समुद्र से माँगी थी इसे उसी प्रकार उसी प्रकार उसे लौटाकर तथा यादवों का उपसंहार कर मैं स्वर्गलोक में आऊँगा ॥ २४ ॥ अब देवराज इन्द्र और देवताओंको यह समझना चाहिये कि संकर्षण के सहित मैं मनुष्य-शरीर को छोड़कर स्वर्ग पहुँच ही चुका हूँ ॥ २५ ।। पृथिवीके भारभूत जो जरासन्ध आदि अन्य राजागण मारे गये हैं, ये यदु कुमार भी उनसे कम नहीं है॥ २६ ।। अतः तुम देवताओं से जाकर कहो कि मैं पृथ्वी के इस महाभारको उतारकर ही देवलोक का पालन करनेके लिये स्वर्ग में आऊँगा ॥ २७ ॥
श्री पराशर जी बोले ;- हे मैत्रेय! भगवान वासुदेव के इस प्रकार कहनेपर देवदूत वायु उन्हें प्रणाम करके अपनी दिव्य गतिसे देवराजके पास चले आये ॥ २८॥ भगवान ने देखा कि द्वारकापुरीमें रात-दिन नाशके सूचक दिव्य, भौम और अंतरिक्ष सम्बन्धी महान् उत्पात हो रहे हैं ॥ २९ ॥ उन उत्पातोंको देखकर भगवान ने यादवों से कहा - "देखो, ये कैसे घोर उपद्रव हो रहे हैं, चलो, शीघ्र ही इनकी शांति के लिये प्रभासक्षेत्रको चले" ॥ ३० ॥
श्री पराशर जी बोले ;- कृष्ण चंद्र के ऐसा कहनेपर महा भागवत यादव श्रेष्ठ उद्धव ने श्री हरि को प्रणाम करके कहा-॥ ३१ ॥ "भगवन् ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अब आप इस कुलका नाश करेंगे, क्योंकि हे अच्युत ! इस समय सब ओर इसके नाशके सूचक कारण दिखायी दे रहे हैं; अतः मुझे आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ ।। ३२ -३३ ।॥
श्रीभगवान् बोले ;- हे उद्धव! अब तुम मेरी कृपा से प्राप्त हुई दिव्य गति से नर-नारायण के निवासस्थान गन्धमादन पर्वत पर जो पवित्र बद्रिकाश्रम क्षेत्र है वहाँ जाओ । पृथिवी तल पर वही सबसे पावन स्थान है॥ ३४ ॥ वहाँपर मुझमें चित्त लगाकर तुम मेरी कृपासे सिद्धि प्राप्त करोंंगे । अब मैं भी इस कुलका संहार करके स्वर्गलोक को चला जाऊँगा ॥ ३५ ॥
मेरे छोड़ देने पर सम्पूर्ण द्वारका को समुद्र जल मेंं डुबोंं देगा ; मुझसे भय मानने के कारण केवल मेरे भवनको छोड़ देगा; अपने इस भवन में मैं भक्तों की हितकामना- से सदा निवास करता हूँ ।। ३६ ।।
श्री पराशर जी बोले ;- भगवान के ऐसा कहनेपर उद्धवजी उन्हें प्रणामकर तुरंत ही उनके बतलाये हुए तपोवन श्री नर नारायण के स्थान को चले गये ॥ ३७॥ हे द्विज ! तदनन्तर कृष्ण और बलराम आदि के सहित सम्पूर्ण यादव शीघ्रगामी रथोंपर चढ़कर प्रभास क्षेत्र में आये॥ ३८ ॥ वहाँ पहुँचकर कुकुर, अन्धक और वृष्णि आदि वंशों के समस्त यादवों ने कृष्णचन्द्र की प्रेरणा से महापान [ और भोजन' ] किया ॥ ३९ ॥ पान करते समय उनमें परस्पर कुछ विवाद हो जानेसे वहाँ कुवाक्यरूप इंधन युक्त प्रलयकारिणी कलहाग्नि धधक उठी ॥ ४० ।।
श्री मैत्रेय जी बोले ;- हे द्विज! अपना-अपना भोजन करते हुए उन यादवों में किस कारणसे कलह (वाग्युद्ध) अथवा संघर्ष (हाथापाई) हुआ, सो आप कहिये ॥४१॥
श्री पराशर जी बोले ;- मेरा भोजन शुद्ध है, तेरा अच्छा नहीं है इस प्रकार भोजन के अच्छे-बुरे की चर्चा करते-करते उनमें परस्पर विवाद और हाथापाई हो गयी ॥ ४२ ॥ तब वे दैवी प्रेरणासे विवश होकर आपसमें क्रोधसे रक्तनेत्र हुए एक-दूसरेपर शस्त्रप्रहार करने लगे और जब अस्त्र समाप्त हो गये तो पास हीमें उगे हुए वे सरकण्डे ले लिये ॥ ४३-४४ ॥ उनके हाथमें लगे हुए वे सरकण्डे वज्रके समान प्रतीत होते थे, उन वज्रतुल्य सरकण्डोंसे ही वे उस दारुण युद्ध में एक दूसरेपर प्रहार करने लगे ॥ ४५ ॥
हे द्विज ! प्रद्युम्न और साम्ब आदि कृष्ण पुत्रगण, कृतवर्मा, सात्यकि और अनिरुद्ध आदि तथा पृथु, विपृथु, चारुवर्मा, चारुक और अक्रूर आदि यादवगण एक दूसरेपर एरकारूपी वज्रोंं से प्रहार करने लगे ॥ ४६-४७ ॥ जब श्रीहरिने उन्हें आपसमें लढ़नेसे रोका तो उन्होंने उन्हें अपने प्रतिपक्षीका सहायक होकर आये हुए समझा और [ उनकी बातकी अवहेलनाकर ] एक दूसरेको मारने लगे ॥ ४८ ॥
कृष्णचन्द्रने भी कुपित होकर उनका वध करनेके लिये एक मुट्ठी सरकण्डे उठा लिया। वे मुट्ठीभर सरकण्डे लोहे के मूल [ समान ] हो गये॥ ४९ ॥ उन मूसलरूप सरकण्डों से कृष्णचन्द्र सम्पूर्ण आत तायी यादवोंको मारने लगे तथा अन्य समस्त यादव भी वहाँ आ-आकर एक दूसरेको मारने लगे ॥ ५०॥ हे द्विज! तदनन्तर भगवान कृष्णचन्द्र का जैत्र नामक रथ घोड़ो से आकृष्ट हो दारुकके देखते-देखते समुद्र के मध्यपथसे चला गया ॥ ५१ ।। इसके पश्चात् भगवान - के शंख, चक्र, गदा, शाङ्गधनुष, तरकश और खड्ग आदि आयुध श्रीहरि की प्रदक्षिणा का सूर्यमार्ग से चले गये ॥ ५२ ॥
हे महामुने ! एक क्षणमें ही महात्मा कृष्णचन्द्र और उनके सारथी दारुकको छोड़कर और कोई यदुवंशी जीवित न बचा ॥ ५३ ॥ उन दोनोंने वहाँ घूमते हुए देखा कि श्री बलराम जी एक वृक्ष के तले बैठे हैं और उनके मुखसे एक बहुत बड़ा सर्प निकल रहा है ॥५४॥ वह विशाल फणधारी सर्प उनके मुख से निकलकर सिद्ध और नागों से पूजित हुआ समुद्र की ओर गया॥ ५५ ॥ उसी समय समुद्र अध्र्य लेकर उस ( महासर्प ) के सम्मुख उपस्थित हुआ और वह नागश्रेष्ठोंसे पूजित हो समुद्र में घुस गया ॥ ५६ ॥
इस प्रकार श्री बलराम जी का प्रयाण देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने दारुक से कहा-"तुम यह सब का वृत्तान्त उग्रसेन और वासुदेवजी से जाकर कहो ।। ५७ ॥ बल- भद्रजीका निर्याण, यादवोंका क्षय और मैं भी योगस्थ होकर शरीर छोड़ूँगा-[ यह सब समाचार उन्हें ] जाकर सुनाओ ॥ ५८॥ सम्पूर्ण द्वारकावासी और । आहुक ( उग्रसेन) से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरीको समुद्र डुबो देगा ॥ ५९ ॥ इसलिये आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा और करें तथा अर्जुन के यहां से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति ॥ द्वारकामें न रहे; जहाँ वे कुरुनन्दन जायँ वहीं सब लोग चले जायँ ॥ ६०-६१ ॥ कुन्ती पुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओरसे कहना कि "अपनी सामर्थ्यानुसार तुम मेरे परिवारके लोगोंकी रक्षा करना" ॥ ६२ ।॥ और तुम द्वारकावासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के इन भगवद्वाक्योंके समाप्त होते ही वहाँ एक विमान आया, उसपर चढ़कर वह व्याध भगवान की कृपा से उसी समय स्वर्ग को चला गया ॥ ७४ । सके चले जाने पर भगवान कृष्ण चंद्र ने अपने आत्मा को अव्यय, अचिन्त्य, वासुदेवस्वरूप, अमल, अजन्मा, अमर, अप्रमेय, अखिलात्मा और ब्रह्मस्वरूप विष्णु भगवान में लीन कर त्रिगुणात्मक गतिको पार कर इस मनुष्य-शरीर को छोड़ दिया ।। ७५-७६ ।।
"इति श्रीविष्णुपुराणे पक्चमेंऽसे सप्तत्रिंशोऽध्यायः"
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