सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का तेरह से सत्रहवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का तेरह से सत्रहवाँ अध्याय}} {Thirteen to seventeenth chapter of the complete Vishnu Purana (third part)}

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)


                      "तेरह से सत्रहवाँ अध्याय"


"नग्नविषयक प्रश्न, देवताओं का पराजय, उनका भगवान की शरण में जाना और भगवान का मायामोह को प्रकट करना"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! पूर्वकाल में महात्मा सगर से उनके पुछ्नेपर भगवान और्व ने इस प्रकार गृहस्थ के सदाचार का निरूपण किया था || १ || हे द्विज ! मैंने भी तुमसे उसका पूर्णतया वर्णन कर दिया | कोई भी पुरुष सदाचार का उल्लंघन करके सद्गति नहीं पा सकता || २ ||

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– भगवन ! नपुंसक, अपविद्ध और रजस्वला आदि को तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ [ किन्तु यह नहीं जानता कि ‘नग्न’ किसको कहते हैं ] | अत: इस समय मैं नग्न के विषय में जानना चाहता हूँ || ३ || नग्न कौन है ? और किस प्रकार के आचरणवाला पुरुष नग्न-संज्ञा प्राप्त करता हैं ? हे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ ! मैं आपके द्वारा नग्न के स्वरूप का यथावत वर्णन सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आपको कोई भी बात अविदित नहीं है || ४ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विज ! ऋक, साम और यजु: यह वेदत्रयी वर्णों का आवरणस्वरूप है | जो पुरुष मोहसे इसका त्याग कर देता है वह पापी ‘नग्न’ कहलाता हैं || ५ || हे ब्रह्मन ! समस्त वर्णों का संवरण (ढँकनेवाला वस्त्र) वेदत्रयी ही है; इसलिये उसका त्याग कर देनेपर पुरुष ‘नग्न’ हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं || ६ || हमारे पितामह धर्मज्ञ वसिष्ठजी ने इस विषय में महात्मा भीष्मजीसे जो कुछ कहा था वह श्रवण करो || ७ || हे मैत्रेय ! तुमने जो मुझसे नग्न के विषय में पूछा है इस सम्बन्ध में भीष्म के प्रति वर्णन करते समय मैंने भी महात्मा वसिष्ठजी का कथन सुना था || ८ ||

पूर्वकालमें किसी समय सौ दिव्यवर्षतक देवता और असुरों का परस्पर युद्ध हुआ | उसमें ह्लाद प्रभुति दैत्योंद्वारा देवगण पराजित हुए || ९ || अत: देवगणने क्षीरसागर के उत्तरीय तटपर जाकर तपस्या की और भगवान विष्णु की आराधना के लिये उस समय इस स्तवका गान किया || १० ||

देवगण बोले ;– हमलोग लोकनाथ भगवान विष्णु की आराधना के लिये जिस वाणी का उच्चारण करते हैं उससे वे आद्य-पुरुष श्रीविष्णुभगवान प्रसन्न हों || ११ || जिन परमात्मा से सम्पूर्ण भूत उत्पन्न हुए हैं और जिनमें वे सब अंत में लीन हो जायँगे, संसार में उनकी स्तुति करने में कौन समर्थ हैं ? || १२ || हे प्रभो ! यद्यपि आपका यथार्थ स्वरूप वाणीका विषय नहीं है तो भी शत्रुओं के हाथ से विध्वस्त होकर पराक्रमहीन जाने के कारण हम अभयप्राप्ति के लिये आपकी स्तुति करते हैं || १३ || पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अंत:करण, मूल-प्रकृति और प्रकृति से परे पुरुष – ये सब आप ही है || १४ || हे सर्वभूतात्मन ! ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त स्थान और कालादि भेद्युक्त यह मुर्त्तामूर्त्त – पदार्थमय सम्पूर्ण प्रपंच आपही का शरीर है || १५ || आपके नाभि-कमल से विश्व उपकारार्थ प्रकट हुआ जो आपका प्रथम रूप है, हे ईश्वर ! उस ब्रह्मस्वरूप को नमस्कार है || १६ || इंद्र, सूर्य, रूद्र, वसु, अश्विनीकुमार, मरुद्रण और सोम आदि भेद्युक्त हमलोग भी आपही का एक रुप है; अत: आपके उस देवरूप को नमस्कार है || १७ || हे गोविन्द ! जो दम्भमयी, अज्ञानमयी तथा तितिक्षा और दम्भ से शून्य है आपकी उस दैत्य-मूर्ति को नमस्कार है || १८ || जिस मंदसत्त्व स्वरूप में ह्रदय की नाड़ियाँ अत्यंत ज्ञानवाहिनी नहीं होती तथा जो शब्दादि विषयों का लोभी होता हैं आपके उस यक्षरूप को नमस्कार है || १९ || हे पुरुषोत्तम ! आपका जो क्रूरता और मायासे युक्त घोर तमोमय रूप है उस राक्षसस्वरूप को नमस्कार है || २० || हे जनार्दन ! जो स्वर्ग में रहनेवाले धार्मिक जनों के यागादि सद्धर्मोंके फल की प्राप्ति करनेवाला आपका धर्म नामक रूप है उसे नमस्कार हैं || २१ || जो जल-अग्नि आदि गमनीय स्थानों में जाकर भी सर्वदा निर्लिप्त और प्रसन्न्तामय रहता है वह सिद्ध नामक रूप आपही का है; ऐसे सिद्धस्वरूप आपको नमस्कार है || २२ || हे हरे ! जो अक्षमा का आश्रय अत्यंत क्रूर और कामोपभोग में समर्थ आपका द्विजिह्व (दो जीभवाला) रूप है, उन नागस्वरूप आपको नमस्कार है || २३ || हे विष्णो ! जो ज्ञानमय, शांत, दोषरहित और कल्मषहीन है उस आपके मुनिमय स्वरूप को नमस्कार है || २४ || जो कल्पान्तमें अनिवार्यरूप से समस्त भूतोंका भक्षण कर जाता है, हे पुण्डरीकाक्ष ! आपके उस कालस्वरूप को नमस्कार है || २५ ||

जो प्रलयकाल में देवता आदि समस्त प्राणियों को सामान्य भावसे भक्षण करके नृत्य करता है आपके उस रूद्र-स्वरूप को नमस्कार है || २६ || रजोगुण की प्रवृत्ति के कारण जो कर्मों का करणरूप है, हे जनार्दन ! आपके उस मनुष्यात्मक स्वरूप को नमस्कार है || २७ || हे सर्वात्मन ! जो अट्ठाईस ‘वध-युक्त’ तमोमय और उन्मार्गगामी है आपके उस पशुरूप को नमस्कार है || २८ || जो जगत की स्थिति का साधन और यज्ञ का अंगभूत है तथा वृक्ष, लता, गुल्म, वीरूध, तृण और गिरि – इन छ: भेड़ों से युक्त हैं उन मुख्य रूप आपको नमस्कार है || २९ || तिर्यक मनुष्य तथा देवता आदि प्राणी, आकाशादि पंचभूत और शब्दादि उनके गुण – ये सब, सबके आदिभूत आपही के रूप है; अत: आप सर्वात्मा को नमस्कार है || ३० ||

हे परमात्मन ! प्रधान और मह्त्तत्त्वादिरूप इस सम्पूर्ण जगत से जो परे हैं, सबका आदि कारण है तथा जिसके समान कोई अन्य रूप नहीं है, आपके उस प्रकृति आदि करणों के भी कारण रुपको नमस्कार है || ३१ || हे भगवन ! जो शुक्लादि रूपसे, दीर्घता आदि परिमाण से ततः घंटा आदि गुणोंसे रहित है, इसप्रकार जो समस्त विशेषणों का अविषय है तथा परमर्षियों का दर्शनीय एवं शुद्धातिशुद्ध है आपके उस स्वरूप को हम नमस्कार करते है || ३२ || जो हमारे शरीरों में, अन्य प्राणियों के शरीरों में तथा समस्त वस्तुओं में वर्तमान है, अजन्मा और अविनाशी है तथा जिससे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है, उस ब्रह्मस्वरूप को हम नमस्कार करते हैं || ३३ || परमपद ब्रह्म ही जिसका आत्मा है ऐसे जिस सनातन और अजन्मा भगवान का यह सकल प्रपंच रूप है, उस सबके बीजभूत, अविनाशी और निर्मल प्रभु वासुदेव को हम नमस्कार करते अहिं || ३४ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! स्त्रोत्र के समाप्त हो जानेपर देवताओं ने परमात्मा श्रीहरि को हाथ में शंख, चक्र और गदा लिये तथा गरुडपर आरूढ़ हुए अपने सम्मुख विराजमान देखा || ३५ || उन्हें देखकर समस्त देवताओं ने प्रणाम करने के अनन्तर उनसे कहा – हे नाथ ! प्रसन्न होइये और हम शरणागतों की दैत्यों से रक्षा कीजिये || ३६ || हे परमेश्वर ! ह्लाद प्रभुति दैत्यगण ने ब्रह्माजी की आज्ञा का भी उल्लंघन कर हमारे और त्रिलोकी के यज्ञभागों का अपहरण कर लिया है || ३७ || यद्यपि हम और वे सर्वभूत आपही के अंशज है तथापि अविद्यावश हम जगत को परस्पर भिन्न-भिन्न देखते हैं || ३८ || हमारे शत्रुगण अपने वर्णधर्मका पालन करनेवाले, वेदमार्गावलम्बी और तपोनिष्ठ हैं, अत: वे हमसे नहीं मारे जा सकते || ३९ || अत: हे सर्वात्मन ! जिससे हम उन असुरोंका वध करने में समर्थ हो ऐसा कोई उपाय आप हमें बतलाइये || ४० ||

श्रीपराशरजी बोले ;– उनके ऐसा कहनेपर भगवान विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह को उत्पन्न किया और उसे देवताओं को देकर कहा || ४१ || यह मायामोह उन सम्पूर्ण दैत्यगण को मोहित कर देगा, तब वे वेदमार्ग का उल्लंघन करने से तुमलोगों से मारे जा सकेंगे || ४२ || हे देवगण ! जो कोई देवता अथवा दैत्य ब्रह्माजी के कार्य में बाधा डालते हैं वे सृष्टि की रक्षा में तत्पर मेरे बध्य होते है || ४३ || अत: हे देवगण ! अब तुम जाओ | डरो मत | यह मायामोह आगेसे जाकर तुम्हारा उपकार करेगा || ४४ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– भगवान की ऐसी आज्ञा होनेपर देवगण उन्हें प्रणाम कर जहाँ से आये थे वहाँ चले गये तथा उनके साथ मायामोह भी जहाँ असुरगण थे वहाँ गया || ४५ ||

"इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे त्रयोदशोऽध्यायः से सप्तदशोऽध्यायः"

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