सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का अठराहवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का अठराहवाँ अध्याय}} {Eighteenth chapter of the complete Vishnu Purana (third part)}

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)


                          "अठराहवाँ अध्याय"

"मायामोह और असुरों का संवाद तथा राजा शतधनु की कथा"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! तदनन्तर मायामोह ने जाकर देखा कि असुरगण नर्मदा के तटपर तपस्या में लगे हुए है || १ || तब उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर और मुण्डितकेश मायामोह ने असुरों से अति मधुर वाणी में इसप्रकार कहा || २ ||

मायामोह बोला ;– हे दैत्यपतिगण ! कहिये, आपलोग किस उद्देश्यसे तपस्या कर रहे हैं, आपको किसी लौकिक फल की इच्छा है या पारलौकिक की ? || ३ ||

असुरगण बोले ;– हे महामते ! हमलोगों ने पारलौकिक फल की कामना से तपस्या आरम्भ की है | इस विषय में तुमको हमसे क्या कहना है ? || ४ ||

मायामोह बोला ;– यदि आपलोगों को मुक्तिकी इच्छा है तो जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो | आपलोग मुक्ति के खुले द्वारपर इस धर्म का आदर कीजिये || ५ || यह धर्म मुक्ति में परमोपयोगी है | इससे श्रेष्ठ अन्य कोई धर्म नही है | इसका अनुष्ठान करने से आपलोग स्वर्ग अथवा मुक्ति जिसकी कामना करेंगे प्राप्त कर लेंगे | आप सबलोग महाबलवान है, अत: इस धर्मका आदर कीजिये || ६ – ७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– इसप्रकार नाना प्रकार की युक्तियों से अतिरंजित वाक्योंद्वारा मायामोह ने दैत्यगण को वैदिक मार्ग से भ्रष्ट कर दिया || ८ || यह धर्मयुक्त हैं और यह धर्मविरुद्ध है, यह सत है और यह असत है, यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती, यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है, यह दिगम्बरों का धर्म है और यह साम्बरों का धर्म है – हे द्विज ! ऐसे अनेक प्रकार के अनंत वादों को दिखलाकर मायामोह ने उन दैत्यों को स्वधर्म से च्युत कर दिया || ९ – १२ || मायामोह ने दैत्यों से कहा था कि आपलोग इस महाधर्म को ‘अर्हत’ अर्थात इसका आदर कीजिये | अत: उस धर्म का अवलम्बन करने से वे ‘आर्हत’ कहलाये || १३ ||

मायामोह ने असुरगण क त्रयीधर्म से विमुक्त कर दिया वे मोहग्रस्त हो गये; तथा पीछे उन्होंने अन्य दैत्यों को भी इसी धर्म में प्रवृत्त किया || १४ || उन्होंने दूसरे दैत्यों को, दूसरोने तीसरों को, तीसरों ने चौथों को तथा उन्होंने औरों को इसी धर्म में प्रवृत्त किए | इसप्रकार थोड़े ही दिनों में दैत्यगण ने वेदत्रयी का प्राय: त्याग कर दिया || १५ ||

तदनन्तर जितेन्द्रिय मायामोह ने रक्तवस्त्र धारणकर अन्यान्य असुरों के पास जा उनसे मृदु, अल्प और मधुर शब्दों में कहा || १६ || ‘हे असुरगण ! यदि तुमलोगों को स्वर्ग अथवा मोक्ष की इच्छा है तो पशुहिसा आदि दुष्टकर्मों को त्यागकर बोध प्राप्त करो || १७ ||

यह सम्पूर्ण जगत विज्ञानमाय है – ऐसा जानो | मेरे वाक्योंपर पूर्णतया ध्यान दो | इस विषय में युधजनों का पदार्थों की प्रतीतिपर ही स्थिर है तथा रागादि दोषों से दूषित हैं | इस संसारसंकट में जीव अत्यंत भटकता रहा है || १८-१९ || इसप्रकार ‘बुध्यत (जानो), बुध्यर्ध्व (समझो), बुध्यत (जानो)’ आदि शब्दों से बुद्धधर्म का निर्देश कर मायामोहने दैत्यों से उनका निजधर्म छुड़ा दिया || २० || मायामोह ने ऐसे नाना प्रकार के युक्तियुक्त वाक्य कहे जिससे उन दैत्यगण ने त्रयीधर्म को त्याग दिया || २१ || उन दैत्यगण ने अन्य दैत्यों से तथा उन्होंने अन्यान्यसे ऐसे ही वाक्य कहे | हे मैत्रेय ! इसप्रकार उन्होंने श्रुतिस्मृतिविहित अपने परम धर्म को त्याग दिया || २२ || हे द्विज ! मोह्कारी मायामोह ने और भी अनेकानेक दैत्यों को भिन्न-भिन्न प्रकार के विविध पाषण्डों से मोहित कर दिया || २३ || इसप्रकार थोड़े ही समय में मायामोह के द्वारा मोहित होकर असुरगण ने वैदिक धर्म की बातचीत करना भी छोड़ दिया || २४ ||

हे द्विज ! उनमें से कोई वेदों की, कोई देवताओं की, कोई याज्ञिक कर्म – कलापों की तथा कोई ब्राह्मणों की निंदा करने लगे || २५ || हिंसा में भी धर्म होता है – यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है | अग्नि में हवि जलाने से फल होगा – यह भी बच्चोंकी –सी बात है || २६ || अनेकों यज्ञों के द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इंद्र को शमी आदि काष्ठका ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खानेवाला पशु ही अच्छा है || २७ || यदि यज्ञ में बलि किये गये पशुको स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिताको ही क्यों नहीं मार डालता ? || २८ || यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करने से भी किसी पुरुष की तृप्ति हो सकती है तो विदेशकी यात्रा के समय खाद्यपदार्थ ले जानेका परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है; पुत्रगण घरपर ही श्राद्ध कर दिया करें || २९ || अत: यह समझकर कि ‘यह (श्राद्धादि कर्मकांड) लोगों की अंध-श्रद्धा ही है’ इसके प्रति उपेक्षा करनी चाहिये और अपने श्रेय:साधन के लिये जो कुछ मैंने कहा है उसमें रूचि करनी चाहिये || ३० || हे असुरगण ! श्रुति आदि आप्तवाक्य कुछ आकाश में नहीं गिरा करते | हम, तुम और अन्य सबको भी युक्तियुक्त वाक्यों को ग्रहण कर लेना चाहिये || ३१ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– इसप्रकार अनेक युक्तियों से मायामोह ने दैत्यों को विचलित कर दिया जिससे उनमें से किसीकी भी वेदत्रयी में रूचि नहीं रही || ३२ || इसप्रकार दैत्यों के विपरीत मार्ग में प्रवृत्त हो जानेपर देवगण खूब तैयारी करके उनके पास युद्ध के लिये उपस्थित हुए || ३३ ||

हे द्विज ! तब देवता और असुरों में पुन: संग्राम छिड़ा | उसमें सन्मार्गविरोधी दैत्यगण देवताओंद्वारा मारे गये || ३४ || हे द्विज ! पहले दैत्यों के पास जो स्वधर्मरूप कवच था उसीसे उनकी रक्षा हुई थी | अबकी बार उसके नष्ट हो जानेसे वे भी नष्ट हो गये || ३५ || हे मैत्रेय ! इस समय से जो लोग मायामोहद्वारा प्रवर्तित मार्गका अवलम्बन करनेवाले हुए | वे ‘नग्न’ कहलाये क्योंकि उन्होंने वेदत्रयीरूप वस्त्र को त्याग दिया था ||३६ ||

ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – ये चार ही आश्रमी हैं | इनके अतिरिक्त पाँचवाँ आश्रमी और कोई नहीं है || ३७ || हे मैत्रेय ! जो पुरुष गृहस्थाश्रम को छोड़ने के अनन्तर वानप्रस्थ या संन्यासी नहीं होता वह पापी भी नग्न ही है || ३८ ||

हे विप्र ! सामर्थ्य रहते हुए भी जो विहित कर्म नहीं करता वह उसी दिन पतित हो जाता है और उस एक दिन-रात में ही उसके सम्पूर्ण नित्यकर्मों का क्षय हो जाता है || ३९ || हे मैत्रेय ! आपत्तिकाल को छोडकर और किसी समय एक पक्षतक नित्यकर्म का त्याग करनेवाला पुरुष महान प्रायश्चित्तसे ही शुद्ध हो सकता है || ४० || जो पुरुष एक वर्षतक नित्य-क्रिया नहीं करता उसपर दृष्टि पड जानेसे साधू पुरुष को सदा सूर्यका दर्शन करना चाहिये || ४१ || हे महामते ! ऐसे पुरुष का स्पर्श होनेपर वस्रसहित स्नान करने से शुद्धि हो सकती है और उस पापात्मा की शुद्धि तो किसी भी प्रकार नहीं हो सकती || ४२ ||

जिस मनुष्य के घर से देवगण, ऋषिगण, पितृगण और भूतगण विना पूजित हुए नि:श्वास छोड़ते अन्यत्र चले जाते हैं, लोकमें उससे बढकर और कोई पापी नहीं हैं || ४३ || हे द्विज ! ऐसे पुरुष के साथ एक वर्षतक सम्भाषण, कुशलप्रश्न और उठने-बैठने से मनुष्य उसी के समान पापात्मा हो जाता हैं || ४४ || जिसका शरीर अथवा गृह देवता आदि के नि:श्वास से निहत हैं उसके साथ अपने गृह, आसन और वस्त्र आदिको न मिलावे || ४५ || जो पुरुष उसके घर में भोजन करता है, उसका आसन ग्रहण करता है अथवा उसके साथ एक ही शय्यापर शयन करता है वह शीघ्र ही उसीके समान हो जाता है || ४६ || जो मनुष्य देवता, पितर, भूतगण और अतिथियों का पूजन किये बिना स्वयं भोजन करता हैं वह पापमय भोजन करता हैं; उसकी शुभगति नहीं हो सकती || ४७ ||

जो ब्राह्मणादि वर्ण स्वधर्म को छोडकर परधर्मों में प्रवृत्त होते हैं अथवा हीनवृत्तिका अवलम्बन करते हैं वे ‘नग्न’ कहलाते है ||४८ |\| हे मैत्रेय ! जिस स्थान में चारों वर्णों का अत्यंत मिश्रण हो उसमें रहने से पुरुष की साधूवृत्तियों का क्षय हो जाता है || ४९ || जो पुरुष ऋषि, देव, पितृ, भूत और अतिथिगण का पूजन किये बिना भोजन करता है उससे सम्भाषण करने से भी लोग नरक में पड़ते हैं || ५० || अत: वेदत्रयी के त्याग से दूषित इन नग्नोंके साथ प्राज्ञपुरुष सर्वदा सम्भाषण और स्पर्श आदिका भी त्याग कर दे || ५१ || यदि इनकी दृष्टि पद जाय तो श्रद्धावान पुरुषों का यत्नपूर्वक किया हुआ श्राद्ध देवता अथवा पितृपितामहगण की तृप्ति नहीं करता || ५२ ||

"राजा शतधनु की कथा"
सुना जाता है, पूर्वकाल में पृथ्वीतलपर शतधनु नामसे विख्यात एक राजा था | उसकी पत्नी शैव्या अत्यंत धर्मपरायणा थी || ५३ || वह महाभाग पतिव्रता, सत्य, शौच और दया से युक्त तथा विनय और निति आदि सम्पूर्ण सुलक्षणों से सम्पन्न थी || ५४ || उस महारानी के साथ राजा शतधनु ने परम-समाधिद्वारा सर्वव्यापक, देवदेव श्रीजनार्दन की आराधना की ||५५ || वे प्रतिदिन तन्मय होकर अनन्यभाव से होम, जप, दान, उपवास और पूजन आदिद्वारा भगवान की भक्तिपूर्वक आराधना करने लगे ||५६ || हे द्विज ! एक दिन कार्तिकी पूर्णिमा को उपवास कर उन दोनों पति-पत्नियों ने श्रीगंगाजी से एक साथ ही स्नान करने के अनन्तर बाहर आनेपर एक पाषण्डी को सामने आता देखा ||५७|| यह ब्राह्मण उस महात्मा राजा के धनुर्वेदाचार्य का मित्र था; अत: आचार्य के गौरववश राजाने भी उससे मित्रवत व्यवहार किया || ५८ || किन्तु उसकी पतिव्रता पत्नीने उसका कुछ भी आदर नहीं किया; वह मौन रही और यह सोचकर कि मैं उपोषिता (उपवासयुक्त) हूँ उसे देखकर सूर्यका दर्शन किया ||५९ || हे द्विजोत्तम ! फिर उन स्त्री-पुरुषोंने यथारीति आकर भगवान् विष्णु के पूजा आदिक सम्पूर्ण कर्म विधिपूर्वक किये || ६० ||

कालान्तर में वह शत्रुजित राजा मर गया | तब, देवी शैव्या ने भी चितारुढ महाराज का अनुगमन किया ||६१ ||

राजा शतधनु ने उपवास-अवस्थामें पाखण्डी से वार्तालाप किया था | अत: उस पाप के कारण उसने कुत्ते का जन्म लिया || ६२ || तथा वह शुभलक्षणा काशीनरेश की कन्या हुई, जो सब प्रकार के विज्ञान से युक्त, सर्वलक्षणसम्पन्ना और जातिस्मरा (पूर्वजन्म का वृतांत जाननेवाली ) थी ||६३|| राजाने उसे किसी वर को देने की इच्छा की, किन्तु उस सुन्दरी के ही रोक देनेपर वह उसके विवाहादि से उपरत हो गये ||६४ ||

तब उसने दिव्य दृष्टि से अपने पति को श्वान हुआ जान विदिशा नामक नगर में जाकर उसे वहाँ कुत्ते की अवस्था में देखा || ६५ || अपने महाभाग पतिको श्वानरूप में देखकर उस सुन्दरी ने उसे सत्कारपूर्वक अति उत्तम भोजन कराया || ६६ || उसके दिये हुए उस अति मधुर और इच्छित अन्नको खाकर वह अपनी जाति के अनुकूल नाना प्रकार की चाटुता प्रदर्शित करने लगा ||६७ || उसके चाटुता करने से अत्यंत संकुचित हो उस बालिकाने कुत्सित योनि में उत्पन्न हुए उस अपने प्रियतम को प्रणाम कर उससे इस प्रकार कहा || ६८ || “महाराज ! आप अपनी उस उदारताका स्मरण कीजिये जिसके कारण आज आप श्वान-योनि को प्राप्त होकर मेरे चाटुकार हुए हैं || ६९ || हे प्रभो ! क्या आपको यह स्मरण नहीं हैं कि तीर्थस्नान के अनन्तर पाखण्डी से वार्तालाप करने के कारण ही आपको यह कुत्सित योनि मिली है ?” || ७० ||

श्रीपराशरजी बोले ;– काशिराजसुताद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर उसने बहुत देरतक अपने पूर्वजन्म का चिन्तन किया | तब उसे अति दुर्लभ निर्वेद प्राप्त हुआ || ७१ || उसने अति उदास चित्तसे नगर के बाहर आकर प्राण त्याग दिये और फिर श्रुंगाल – योनि में जन्म लिया || ७२ || तब, काशिराज कन्या दिव्य दृष्टि से उसे दूसरे जन्म में श्रुंगाल हुआ जान उसे देखने के लिये कोलाहल-पर्वतपर गयी || ७३ || वहाँ भी अपने पतिको श्रुंगाल-योनि में उत्पन्न हुआ देख वह सुन्दरी राजकन्य उससे बोली || ७४ || “हे राजेन्द्र ! श्वान-योनि में जन्म लेनेपर मैंने आपसे जो पाखण्ड से वार्तालापविषयक पूर्वजन्म का वृतांत कहा था क्या वह आपको स्मरण हैं ?” || ७५ || तब सत्यनिष्ठों में श्रेष्ठ राजा शतधनु ने उसके इस प्रकार कहनेपर सारा सत्य वृतांत जानकर निराहार रह वन में अपना शरीर छोड़ दिया || ७६ ||

फिर वह एक भेड़िया हुआ; उस समय भी अनिंदिता राजकन्या ने उस निर्जन वन में जाकर अपने पतिको उसके पूर्वजन्म का वृतांत स्मरण कराया || ७७ || “हे महाभाग ! तुम भेड़िया नहीं हो, तुम राजा शतधनु हो | तुम अपने पूर्वजन्मों में क्रमश: कुकुर और श्रुंगाल होकर अब भेड़िया हुए हो” || ७८ || इस प्रकार उसके स्मरण करानेपर राजाने जब भेड़िये के शरीर को छोड़ा तो गृध्र – योनि में जन्म लिया | उससमय भी उसकी निष्पाप भार्याने उसे फिर बोध कराया || ७९ || “हे नरेन्द्र ! तुम अपने स्वरूप का स्मरण करो; इन गृध्र-चेष्टाओं को छोडो | पाखण्ड के साथ वार्तालाप करने के दोष से ही तुम गृध्र हुए हो” || ८०||

फिर दूसरे जन्म में काक-योनि को प्राप्त होनेपर भी अपने पतिकी योगबल से पाकर उस सुन्दरी ने कहा || ८१ || “हे प्रभो ! जिनके वशीभूत होकर सम्पूर्ण सामंतगण नाना प्रकार की वस्तुएँ भेंट करते थे वही आप आज काक-योनि को प्राप्त होकर बलिभोजी हुए हैं” ||८२|| इसी प्रकार काक-योनि में भी पूर्वजन्म का स्मरण कराये जानेपर राजाने अपने प्राण छोड़ दिये और फिर मयूर-योनि में जन्म लिया || ८३ ||

मयूरावस्था में भी काशिराज की कन्या उसे क्षण-क्षण में अति सुंदर मयुरोचित आहार देती हुई उसकी टहल करने लगी || ८४ || उससमय राजा जनक ने अश्वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्ठान किया; उस यज्ञ में अवभृथ –स्नान के समय उस मयूर को स्नान कराया || ८५ || तब उस सुन्दरी ने स्वयं भी स्नान कर राजाको यह स्मरण कराया कि किस प्रकार उसने श्वान और श्रुंगाल आदि योनियाँ ग्रहण की थीं || ८६ || अपनी जन्म – परम्परा का स्मरण होनेपर उसने अपना शरीर त्याग दिया और फिर महात्मा जनकजी के यहाँ ही पुत्ररूप से जन्म लिया || ८७ ||

तब उस सुन्दरी ने अपने पिताको विवाह के लिये प्रेरित किया | उसकी प्रेरणा से राजाने उसके स्वयंवर का आयोजन किया || ८८ || स्वयंवर होनेपर उस राजकन्या ने स्वयंवर में आये हुए अपने उस पतिको फिर पतिभाव से वरण कर लिया || ८९ || उस राजकुमार ने काशिराजसुता के साथ नाना प्रकार के भोग भोगे और फिर पिता के परलोकवासी होनेपर विदेहनगर का राज्य किया || ९० || उसने बहुत-से यज्ञ किये, याचकों को नाना प्रकार से दान दिये, बहुत-से पुत्र उत्पन्न किये और शत्रुओं के साथ अनेकों युद्ध किये || ९१ || इसप्रकार उस राजाने पृथ्वी का न्यायानुकुल पालन करते हुए राज्यभोग किया और अंत में अपन प्रिय प्राणों को धर्मयुद्ध में छोड़ा || ९२ || तब उस सुलोचना ने पहले के समान फिर अपने चितारुढ पतिका विधिपूर्वक प्रसन्न-मन से अनुगमन किया || ९३ || इससे वह राजा उस राजकन्या के सहित इन्द्रलोक से भी उत्कृष्ट अक्षय लोकों को प्राप्त हुआ || ९४ ||

हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर उसने अतुलनीय अक्षय स्वर्ग, अति दुर्लभ दाम्पत्य और अपने पुर्वार्चित सम्पूर्ण पुण्य का फल प्राप्त कर लिया || ९५ ||

हे द्विज ! इसप्रकार मैंने तुमसे पाखण्डी से सम्भाषण करने का दोष और अश्वमेध-यज्ञ में स्नान करने का माहात्म्य वर्णन कर दिया || ९६ || इसलिये पाखण्डी और पापाचारियों से कभी वार्तालाप और स्पर्श न करे; विशेषत: नित्य- नैमित्तिक कर्मों के समय और जो यज्ञादि क्रियाओं के लिये दीक्षित हो उसे तो उनका संसर्ग त्यागना अत्यंत आवश्यक है || ९७ || जिसके घर में एक मासतक नित्यकर्मों का अनुष्ठान न हुआ हो उसको देख लेनेपर बुद्धिमान मनुष्य सूर्यका दर्शन करे || ९८ || फिर जिन्होंने वेदत्रयी का सर्वथा त्याग कर दिया है तथा जो पाखण्डीयों का अन्न खाते और वैदिक मत का विरोध करते हैं उन पापात्माओं के दर्शनादि करनेपर तो कहना ही क्या है ? || ९९ || इन दुराचारी पाखण्डियों के साथ वार्तालाप करने, सम्पर्क रखें और उठने – बैठने में महान पाप होता है; इसलिये इन सब बातों का त्याग करे || १०० || पाखण्डी, विकर्मी, विडाल-व्रतवाले [अर्थात छिपे – छिपे पाप करना वैडाल नामक व्रत है | जो वैसा करते हैं ‘वे विडाल-व्रतवाले’ कहलाते है | ], दुष्ट, स्वार्थी और बगुला – भक्त लोगों का वाणी से भी आदर न करे || १०१ || इन पाखण्डी, दुराचारी और अति पापियों का संसर्ग दूरी से त्यागने योग्य है | इसलिये इनका सर्वदा त्याग करे || १०२ ||

इसप्रकार मैंने तुमसे नग्नों की व्याख्या की, जिनके दर्शनमात्र से श्राद्ध नष्ट हो जाता है और जिनके साथ सम्भाषण करने से मनुष्य का एक दिन का पुण्य क्षीण हो जाता है || १०३ || वे पाखण्डी बड़े पापी होते हैं, बुद्धिमान पुरुष इनसे कभी सम्भाषण न करे | इनके साथ सम्भाषण करने से उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता हैं || १०४ || जो बिना कारण ही जटा धारण करते अथवा मूँड मुड़ाते है, देवता, अतिथि आदिको भोजन कराये बिना स्वयं ही भोजन कर लेते हैं, सब प्रकार से शौचहीन हैं तथा जल-दान और पितृ-पिण्ड आदिसे भी बहिष्कृत हैं, उन लोगों से वार्तालाप करने से भी लोग नरक में जाते हैं || १०५ ||

         "इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे अष्टोदशोऽध्यायः"

   ।। इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे तृतीयोंऽश: समाप्त: ।।



सम्पूर्ण विष्णु पुराण का तृतीय अंश के  कुल 18 अध्याय अब समाप्त हुए !! 

(अब  सम्पूर्ण विष्णु पुराण का चतुर्थ अंश  सुरू होता है ।।)

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