सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का सातवाँ व आठवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का सातवाँ व आठवाँ अध्याय}} {The seventh and eighth chapters of the entire Vishnu Purana (second part)}


                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (द्वितीय अंश)


                             "सातवाँ अध्याय"

"ज्योतिश्वक्र और शिशुमारचक्र"
श्रीपराशरजी बोले ;– आकाश में भगवान विष्णु का जो शिशुमार (गिरगिट अथवा गोधा) के समान आकारवाला तारामय स्वरूप देखा जाता है, उसके पुच्छ-भाग में ध्रुव अवस्थित है || १ || यह ध्रुव स्वयं घूमता हुआ चंद्रमा और सूर्य आदि ग्रहों को घुमाता है | उस भ्रमणशील ध्रुव के साथ नक्षत्रगण भी चक्र के समान घूमते रहते है || २ ||

सूर्य, चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र और अन्यान्य समस्त ग्रहगण वायु-मंडलमयी डोरी से ध्रुव के साथ बँधे हुए है || ३ ||

मैंने तुमसे आकाश में ग्रहगण के जिस शिशुमारस्वरूप का वर्णन किया है, अनंत तेज के आश्रय स्वयं भगवान नारायण ही उसके ह्रदयस्थित आधार है || ४ || उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने उन जगत्पति की आराधना करके तारामय शिशुमार के पुच्छस्थान में स्थिति प्राप्त की है || ५ || शिशुमार के आधार सर्वेश्वर श्रीनारायण है, शिशुमार ध्रुव का आश्रय है और ध्रुव में सूर्यदेव स्थित है तथा हे विप्र ! जिसप्रकार देव, असुर और मनुष्यादि के सहित यह सम्पूर्ण जगत सूर्य के आश्रित है, वह तुम एकाग्र होकर सुनो |

सूर्य आठ मासतक अपनी किरणों से छ: रसों से युक्त जल को ग्रहण करके उसे चार महीनों में बरसा देता है उससे अन्न की उत्पत्ति होती है और अन्नही से सम्पूर्ण जगत पोषित होता है || ६- ८ || सूर्य अपनी तीक्ष्ण रश्मियों से संसार का जल खींचकर उससे चन्द्रमा का पोषण करता है और चन्द्रमा आकाश में वायुमयी नाड़ियों के मार्ग से उसे धूम, अग्नि और वायुमय मेघों में पहुँचा देता अहि || ९ || यह चन्द्रमाद्वारा प्राप्त जल मेघों से तुरंत ही भ्रष्ट नहीं होता इसलिये ‘अभ्र’ कहलाता है | हे मैत्रेय ! कालजनित संस्कार के प्राप्त होनेपर यह अभ्रस्थ जल निर्मल होकर वायु की प्रेरणा से पृथ्वीपर बरसने लगता है || १० ||

हे मुने ! भगवान सूर्यदेव नदी, समुद्र, पृथ्वी तथा प्राणियों से उत्पन्न – इन चार प्रकार के जलों का आर्कषण करते है || ११ || तथा आकाशगंगा के जल को ग्रहण करके वे उसे बिना मेघादि के अपनी किरणों से ही तुरंत पृथ्वीपर बरसा देंते है || १२ || हे द्विजोत्तम ! उसके स्पर्शमात्र से पाप-पंक के धुल जाने से मनुष्य नरक में नहीं जाता | अत: वह दिव्यस्नान कहलाता है || १३|| सूर्य के दिखलायी देते हुए, बिना मेघों के ही जो जल बरसता है वह सूर्य की किरणोंद्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगा का ही जल होता है || १४|| कृत्तिका आदि विषम (अयुम्म) नक्षत्रों में जो सूर्य के प्रकाशित रहते हुए बरसता है उसे दिग्गजोंद्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगा का जल समझना चाहिये || १५ || रोहिणी और आर्दा आदि सम संख्यावाले नक्षत्रों में जिस जल को सूर्य बरसाता है वह सूर्यरश्मियोंद्वारा [ आकाशगंगा से ] ग्रहण करके ही बरसाया जाता है || १६|| हे महामुने ! आकाशगंगा के ये सम तथा विषम नक्षत्रों में बरसनेवाले दोनों प्रकार के जलमय दिव्य स्नान अत्यंत पवित्र और मनुष्यों के पाप-भय को दूर करनेवाले है || १७||

हे द्विज ! जो जल मेघोंद्वारा बरसाया जाता है वह प्राणियों के जीवन के लिये अमृतरूप होता है और ओषधियों का पोषण करता है || १८|| हे विप्र ! उस वृष्टि के जल से परम वृद्धि को प्राप्त होकर समस्त ओषधियाँ और फल पकनेपर सुख जानेवाले [ गोधूम, यव आदि अन्न] प्रजावर्ग के [ शरीर की उत्पत्ति एवं पोषण आदि के ] साधक होते है || १९ || उनके द्वारा शास्त्रविद मनिषिगण नित्यप्रति यथाविधि यज्ञानुष्ठान करके देवताओं को संतुष्ट करते है || २०|| इसप्रकार सम्पूर्ण यज्ञ, वेद, ब्राह्मणादि वर्ण, समस्त देवसमूह और प्राणिगण वृष्टि के ही आश्रित है || २१|| हे मुनिश्रेष्ठ ! अन्न को उत्पन्न करनेवाली वृष्टि ही इन सबको धारण करती है तथा उस वृष्टि की उत्पत्ति सूर्य से होती है || २२ ||

हे मुनिवरोत्तम ! सूर्य का आधार ध्रुव है, ध्रुव का शिशुमार है तथा शिशुमार के आश्रय श्रीनारायण है || २३ || उस शिशुमार के ह्रदय में श्रीनारायण स्थित है जो समस्त प्राणियों के पालनकर्ता तथा आदिभूत सनातन पुरुष है || २४ ||


             "इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे सप्तमोऽध्याय"


                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (द्वितीय अंश)


                             "आठवाँ अध्याय"

"द्वादश सूर्यों के नाम एवं अधिकारियों का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– आरोह और अवरोह के द्वारा सूर्य की एक वर्ष में जितनी गति है उस सम्पूर्ण मार्ग की दोनों काष्ठाओं का अंतर एक सौ अस्सी मंडल है || १ || सूर्य का रथ [ प्रतिमास ] भिन्न-भिन्न आदित्य, ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, सर्प और राक्षसगणों से अधिष्ठित होता है ||२ || हे मैत्रेय ! मधुमास चैत्र में सूर्य के रथ में सर्वदा घाता नामक आदित्य, क्रतुस्थला अप्सरा, पुलस्त्य ऋषि, वासुकि सर्प, रथभृत यक्ष, हेति राक्षस और तुम्बुरु गन्धर्व- ये सात मासाधिकारी रहते है ||३ – ४ || तथा अर्यमा नामक आदित्य, पुलह ऋषि, रथौजा यक्ष, पूंज्जिकस्थला अप्सरा, प्रहेति राक्षस, कच्छवीर सर्प और नारद नामक गन्धर्व – ये वैशाख-मास में सूर्य के रथपर निवास करते है | हे मैत्रेय ! अब जेष्ठ मास में सुनो || ५ – ६ ||

उस समय मित्र नामक आदित्य, अत्रि ऋषि, तक्षक सर्प, पौरुषेय राक्षस, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन नामक यक्ष – ये उस रथ में वास करते है || ७ || तथा आषाढ़ मास में वरुण नामक आदित्य, वसिष्ठ ऋषि, नाग सर्प, सहजन्या अप्सरा, हूहू गन्धर्व, रथ राक्षस और रथचित्र नामक यक्ष उसमें रहते है || ८ ||

श्रावण – मास में इंद्र नामक आदित्य, विश्वावसु गन्धर्व, स्त्रोत यक्ष, एलापुत्र सर्प, अंगिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा और सर्पि नामक राक्षस सूर्य के रथ में बसते है || ९ || तथा भाद्रपद में विवस्वान नामक आदित्य, उग्रसेन गन्धर्व, भृगु ऋषि, आपूरण यक्ष, अनुम्लोचा अप्सरा, शंखपाल सर्प और व्याघ्र नामक राक्षसका उसमें निवास होता है || १० ||

आश्विन मास में पूवा नामक आदित्य, वसुरूचि गन्धर्व, वात राक्षस, गौतम ऋषि, धनंजय सर्प, सुवेण गन्धर्व और घृताची नामकी अप्सरा का उसमें वास होता है || ११ || कार्तिक मास में उसमें विश्वावसु नामक गन्धर्व, भरद्वाज ऋषि, पर्जन्य आदित्य, ऐरावत सर्प, विश्वाची अप्सरा, सेनजित यक्ष तथा आप नामक राक्षस रहते है || १२ ||

मार्गशीर्ष के अधिकारी अंश नामक आदित्य, काश्यप ऋषि, ताक्षर्य यक्ष, महापद्म सर्प, उर्वशी अप्सरा, चित्रसेन गन्धर्व और विद्युत् नामक राक्षस है || १३ || हे विप्रवर ! पौष मास में क्रतु ऋषि, भग आदित्य. ऊर्णायु गंधर्व, स्फूर्ज राक्षस, ककोंटक सर्प, अरिष्टनेमि यक्ष तथा पूर्वचिति अप्सरा जगत को प्रकाशित करने के लिये सूर्यमंडल में रहते है || १४- १५ ||

हे मैत्रेय ! त्वष्ठा नामक आदित्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल सर्प, तिलोतमा अप्सरा, ब्रहमोपेत राक्षस, ऋतजित यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्व – ये सात माघ मास में भास्करमंडल में रहते है | अब, जो फाल्गुन मास में सूर्य के रथ में रहते है उनके नाम सुनो || १६ – १७ || हे महामुने ! वे विष्णु नामक आदित्य, अश्वतर सर्प, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और यज्ञोपेत नामक राक्षस है || १८ ||

हे ब्रह्मन ! इस प्रकार विष्णुभगवान की शक्ति से तेजोमय हुए ये सात-सात गण एक – एक मासतक सूर्यमंडल में रहते है || १९ || मुनिगण सूर्य की स्तुति करते है, गन्धर्व सम्मुख रहकर उनका यशोगान करते है, अप्सराएँ नृत्य करती है, राक्षस रथ के पीछे चलते है, सर्प वहन करने के अनुकूल रथ को सुसज्जित करते है और यक्षगण रथ की बागडोर सँभालते है तथा नित्यसेवक बालखिल्यादि इसे सब ओरसे घेरे रहते है || २० – २२ || हे मुनिसत्तम ! सूर्यमंडल के ये सात- सात गण ही अपने-अपने समयपर उपस्थित होकर शीत. ग्रीष्म और वर्षा आदि के कारण होते है || २३ ||

       "इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे अष्टमोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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