{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का नवाँ व दसवाँ अध्याय}} {The ninth and tenth chapter of the entire Vishnu Purana (second part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
"नवाँ अध्याय"
"सूर्यशक्ति एवं वैष्णवी शक्ति का वर्णन"श्रीमैत्रेयजी बोले ;– भगवन ! आपने जो कहा कि सूर्यमंडल में स्थित सातों गण शीत – ग्रीष्म आदि के कारण होते है, सो मैंने सुना || १ || हे गुरो ! आपने सूर्य के रथ में स्थित और विष्णु-शक्ति से प्रभावित गन्धर्व, सर्प, राक्षस, ऋषि, बालखिल्यादि, अप्सरा तथा यक्षों के तो पृथक-पृथक व्यापार बतलाये, किन्तु हे मुने ! यह नहीं बतलाया कि सूर्य का कार्य क्या है ? || २ – ३ || यदि सातों गण ही शीत, ग्रीष्म और वर्षा के करनेवाले है तो फिर सूर्य का क्या प्रयोजन है ? और यह कैसे कहा जाता है कि वृष्टि सूर्य से होती है ? || ४ || यदि सातों गणों का यह वृष्टि आदि कार्य समान ही है तो ‘सूर्य उदय हुआ, अब मध्यमें हैं, अब अस्त होता है’ ऐसा लोग क्यों कहते हैं ? || ५ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! जो कुछ तुमने पूछा है उसका उत्तर सुनो, सूर्य सात गणों में से ही एक है तथापि उनमें प्रधान होने से उनकी विशेषता है || ६ || भगवान विष्णु की जो सर्वशक्तिमयी ऋक, यजु:, साम नाम की परा शक्ति है वह वेदत्रयी ही सूर्य को ताप प्रदान करती है और [उपासना किये जानेपर ] संसार के समस्त पापों को नष्ट कर देती है || ७ || हे द्विज ! जगत की स्थिति और पालन के लिये वे ऋक, यजु: और सामरूप विष्णु सूर्य के भीतर निवास करते है || ८ || प्रत्येक मासमें जो – जो सूर्य होता है उसी – उसी में वह वेदत्रयीरूपिणी विष्णु की परा शक्ति निवास करती है || ९ || पूर्वाह में ऋक, मध्यान्ह में बृहद्र्थन्तरादि यजु: तथा सायंकाल में सामश्रुतियाँ सूर्य की स्तुति करती है || १० ||
यह ऋक-यजु: – सामस्वरूपिणी वेदत्रयी भगवान विष्णु का ही अंग है | यह विष्णु-शक्ति सर्वदा आदित्य में रहती है || ११ ||
यह त्रयीमथी वैष्णवी शक्ति केवल सूर्यही की अधिष्ठात्री हो, सो नही; बल्कि ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी त्रयीमय ही है || १२ || सर्ग के आदि में ब्रह्मा ऋगमय है, उसकी स्थिति के समय विष्णु यजुर्मय है तथा अन्तकाल में रूद्र साममय है | इसीलिये सामगान की ध्वनि अपवित्र मानी गयी है || १३ || [ रूद्र के नाशकारी होने से उनका साम अपवित्र माना गया है अत: सामगान के समय (रात में) ऋक तथा यजुर्वेदके अध्ययन का निषेध किया गया है | इसमें गौतम की स्मृति प्रमाण है – ‘ न सामध्यनावृम्यजुषी’ अर्थात सामगान के समय ऋक – यजु: का अध्ययन न करें | ]
इसप्रकार, वह त्रयीमयी सात्त्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सप्तगणों में स्थित आदित्य में ही ]अतिशय रूपसे] अवस्थित होती है || १४ || उससे अधिष्ठित सूर्यदेव भी अपनी प्रखर रश्मियों से अत्यंत प्रज्वलित होकर संसार के सम्पूर्ण अन्धकार को नष्ट कर देते है || १५ ||
उन सूर्यदेव की मुनिगण स्तुति करते है, गन्धर्वगण उनके सम्मुख यशोगान करते है | अप्सराएँ नृत्य करती हुई चलती है, राक्षस रथ के पीछे रहते है, सर्पगण रथ का साज सजाते है और यक्ष घोड़ों की बागडोर सँभालते है तथा बालखिल्यादि रथ को सब ओर से घेरे रहते है || १६ – १७ || त्रयीशक्तिरूप भगवान विष्णु का न कभी उदय होता है और न अस्त ये सात प्रकार के गण तो उनसे पृथक है || १८ || स्तम्भ में लगे हुए दर्पण के निकट जो कोई जाता है उसीको अपनी छाया दिखायी देने लगती है || १९ || हे द्विज ! इसी प्रकार वह वैष्णवी शक्ति सूर्य के रथ से कभी चलायमान नहीं होती और प्रत्येक मास में पृथक – पृथक सूर्य के उसमें स्थित होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है || २० ||
हे द्विज ! दिन और रात्रि के कारणस्वरूप भगवान सूर्य पितृगण, देवगण और मनुष्यादि को सदा तृप्त करते घूमते रहते है || २१ || सूर्य की जो सुषुम्रा नाम की किरण है उससे शुक्लपक्ष में चंद्रमा का पोषण होता है और फिर कृष्णपक्ष में उस अमृतमय चन्द्रमा की एक – एक कला का देवगण निरंतर पान करते है || २२ || हे द्विज ! कृष्णपक्ष के क्षय होनेपर ] चतुर्दशी के अनन्तर ] दो कलायुक्त चन्द्रमा का पितृगण पान करते है | इस प्रकार सूर्यद्वारा पितृगण का तर्पण होता है || २३ ||
सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी से जितना जल खींचता है उस सबको प्राणियों की पुष्टि और अन्न की वृद्धि के लिये बरसा देता है || २४ || उससे भगवान सूर्य समस्त प्राणियों को आनन्दित कर देते है और इस प्रकार वे देव, मनुष्य और पितृगण आदि सभी का पोषण करते है || २५ || हे मैत्रेय ! इस रीति से सूर्यदेव देवताओं की पाक्षिक, पितृगण की मासिक तथा मनुष्यों की नित्यप्रति तृप्ति करते रहते है || २६ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे नवमोऽध्याय"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
"दसवाँ अध्याय"
"नवग्रहों का वर्णन तथा लोकान्तरसम्बन्धी व्याख्यान का उपसंहार"
श्रीपराशरजी बोले ;– चन्द्रमा का रथ तीन पहियोंवाला है, उसके वाम तथा दक्षिण ओर कुंद-कुसुम के समान श्वेतवर्ण दस घोड़े जुते हुए हैं | ध्रुव के आधारपर स्थित उस वेगशाली रथ से चन्द्रदेव भ्रमण करते है और नागवीधिपर आश्रित अश्विनी आदि नक्षत्रों का भोग करते है | सूर्य के समान इनकी किरणों के भी घटने – बढने का निश्चित क्रम है || १ – २ || हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्य के समान समुद्रगर्भ से उत्पन्न हुए उसके घोड़े भी एक बार जोत दिये जानेपर एक कल्पपर्यन्त रथ खींचते रहते है न || ३ || हे मैत्रेय ! सुरगण के पान करते रहनेसे क्षीण हुए कलामात्र चन्द्रमा का प्रकाशमय सूर्यदेव अपनी एक किरण से पुन: पोषण करते है || ४ || जिस क्रम से देवगण चन्द्रमा का पान करते है उसी क्रम से जलापहारी सूर्यदेव उन्हें शुक्ल प्रतिपदा से प्रतिदिन पुष्ट करते है || ५ || हे मैत्रेय ! इस प्रकार आधे महीने में एकत्रित हुए चन्द्रमा के अमृत को देवगण फिर पीने लगते हैं क्योंकि देवताओं का आहार तो अमृत ही है || ६ || तैतीस हजार, तैतीस सौ, तैतीस (३३ ३३३) देवगण चंद्र्स्थ अमृत का पान करते है || ७ || जिस समय दो कलामात्र रहा हुआ चन्द्रमा सुर्यमंडल में प्रवेश करके उसकी अमा नामक किरण में रहता है वह तिथि अमावस्या कहलाती है || ८ || उस दिन रात्रि में वह पहले तो जल में प्रवेश करता है, फिर वृक्ष-लता आदि में निवास करता है और तदनन्तर क्रम से सूर्य में चला जाता है || ९ || वृक्ष और लता आदि में चन्द्रमा की स्थिति के समय [अमावास्या को ] जो उन्हें काटता है अथवा उनका एक पत्ता भी तोड़ता है उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है || १० || केवल पन्द्रहवी कलारूप यत्किंचित भाग के बच रहनेपर उस क्षीण चन्द्रमा को पितृगण म्ध्यान्होत्तर काल में चारों ओर से घेर लेते है || ११ || हे मुने ! उस समय उस द्विकलाकार चन्द्रमा की बची हुई अमृतमयी एक कलाका वे पितृगण पान करते है || १२ || अमावास्या के दिन चन्द्र- रश्मि से निकले हुए उस सुधामृत का पान करके अत्यंत तृप्त हुए सौम्य, बर्हिषद और अग्निष्ठाता तीन प्रकार के पितृगण एक मासपर्यन्त संतुष्ट रहते है || १३ || इस प्रकार चन्द्रदेव शुक्लपक्ष में देवताओं की और कृष्णपक्ष में पितृगण की पुष्टि करते है तथा अमृतमय शीतल जलकणों से लता-वृक्षादिका और लता-ओषधि आदि उत्पन्न करके तथा अपनी चन्द्रिकाद्वारा आल्हादित करके वे मनुष्य, पशु, एवं कीट – पतंगादि सभी प्राणियों का पोषण करते है || १४ – १५ ||
चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्य का बना हुआ है और उसमें वायु के समान वेगशाली आठ पिशंगवर्ण घोड़े जुटे है || १६ || वरूथ [ रथ की रक्षा के लिये बना हुआ लोहे का आवरण ] , अनुकर्ष [ रथ का नीचे का भाग ] , उपासंग [ शस्त्र रखने का स्थान ] और पताका तथा पृथ्वी से उत्पन्न हुए घोड़ों के सहित शुक्र का रथ भी अति महान है || १७ || तथा मंगल का अति शोभायमान सुवर्ण-निर्मित महान रथ भी अग्नि से उत्पन्न हुए, पद्मराग – मणि के समान, अरुणवर्ण, आठ घोड़ों से युक्त है || १८ || जो आठ पाण्डुरवर्ण घोड़ों से युक्त सुवर्ण का रथ है उसमें वर्ष के अंत में प्रत्येक राशि में बृहस्पतिजी विराजमान होते है || १९ || आकाश से उत्पन्न हुए विचित्रवर्ण घोड़ों से युक्त रथ में आरूढ़ होकर मंदगामी शनैश्वरजी धीरे-धीरे चलते है || २० ||
राहुका रथ धूसर (मटियाले) वर्ण का है , उसमें भ्रमर के समान कृष्णवर्ण आठ घोड़े जुते हुए है | हे मैत्रेय ! एक बार जोत दिये जानेपर वे घोड़े निरंतर चलते रहते है || २१ || चन्द्रपर्वों (पूर्णिमा) पर यह राहू सूर्य से निकलकर चन्द्रमा के पास आता है तथा सौरपर्वो (अमावास्या) पर यह चन्द्रमा से निकलकर सूर्य के निकट जाता है || २२ || इसी प्रकार केतु के रथ के वायुवेगशाली आठ घोड़े भी पुआल के धुएँकी – सी आभावाले तथा लाख के समान लाल रंग के है || २३ ||
हे महाभाग ! मैंने तुमसे यह नवों ग्रहों के रथों का वर्णन किया, ये सभी वायुमयी डोरी से ध्रुव के साथ बँधे हुए है || २४ || हे मैत्रेय ! समस्त ग्रह, नक्षत्र और तारामंडल वायुमयी रज्जू से ध्रुव के साथ बँधे हुए यथोचित प्रकार से घूमते रहते है || २५ || जितने तारागण हैं उतनी ही वायुमयी डोरियाँ है | उनसे बंधकर वे सब स्वयं घूमते तथा ध्रुव को घुमाते रहते है || २६ || जिस प्रकार तेली लोग स्वयं घुमते हुए कोल्हू को भी घुमाते रहते है उसी प्रकार समस्त ग्रहगण वायु से बंध कर घूमते रहते है || २७ || क्योंकि इस वायुचक्र से प्रेरित होकर समस्त ग्रहगण अलातचक्र (बनैती) के समान घुमा करते है, इसलिये यह ‘प्रवह’ कहलाता है || २८ ||
जिस शिशुमारचक्र का पहले वर्णन कर चुके है, तथा जहाँ ध्रुव स्थित है, हे मुनिश्रेष्ठ ! अब तुम उसकी स्थिति का वर्णन सुनो || २९ || रात्रि के समय उनका दर्शन करने से मनुष्य दिन में जो कुछ पापकर्म करता है उनसे मुक्त हो जाता है तथा आकाशमंडल में जितने तारे इसके आश्रित है उतने ही अधिक वर्ष वह जीवित रहता है || ३० || उत्तानपाद उसकी ऊपर की हनु (ठोड़ी) है और यज्ञ नीचे की तथा धर्म ने उसके मस्तकपर अधिकार कर रखा है || ३१ || उसके ह्रदय-देश में नारायण हैं, दोनों चरणों में अश्विनीकुमार हैं तथा जंघाओं में वरुण और अर्यमा है || ३२ || संवत्सर उसका शिश्र है, मित्र ने उसके अपान-देश को आश्रित कर रखा है, तथा अग्नि, महेंद्र, कश्यप और ध्रुव पुच्छभाग में स्थित है | शिशुमार के पुच्छभाग में स्थित ये अग्नि आदि चार तारे कभी अस्त नहीं होते || ३३ – ३४ || इस प्रकार मैंने तुमसे पृथ्वी, ग्रहगण, द्वीप, समुद्र, पर्वत, वर्ष और नदियों का तथा जो – जो उनमे बसते है उन सभी के स्वरूप का वर्णन कर दिया | अब इसे संक्षेप से फिर सुनो || ३५ – ३६ ||
हे विप्र ! भगवान विष्णु का जो मूर्तरूप जल है उससे पर्वत और समुद्रादि के सहित कमल के समान आकारवाली पृथ्वी उत्पन्न हुई || ३७ || हे विप्रवर्य ! तारागण, त्रिभुवन, वन, पर्वत, दिशाएँ, नदियाँ और समुद्र सभी भगवान विष्णु ही है तथा और भी जो कुछ है अथवा नहीं है वह सब भी एकमात्र वे ही है || ३८ || क्योंकि भगवान विष्णु ज्ञानस्वरूप है इसलिये वे सर्वमय है, परिच्छिन्न प्दार्थाकार नहीं है | अत: इन पर्वत, समुद्र और पृथ्वी आदि भेड़ों को तुम एकमात्र विज्ञान का ही विलास जानो || ३९ || जिस समय जीव आत्मज्ञान के द्वारा दोषरहित होकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने से अपने शुद्ध-स्वरूप में स्थित हो जाता है उस समय आत्मवस्तु में संकल्पवृक्ष के फलरूप पदार्थ-भेड़ों की प्रतीति नहीं होती || ४० ||
हे द्विज ! कोई भी घटादि वस्तु है ही कहाँ ? आदि, मध्य और अंत से रहित नित्य एकरूप चित्त ही तो सर्वत्र व्याप्त है | जो वस्तु पुन: – पुन: बदलती रहती है, पूर्ववत नही रहती, उसमें वास्तविकता ही क्या है ? || ४१ || देखो, मृत्तिका ही घटरूप हो जाती है और फिर वही घट से कपाल, कपाल से चूर्णरज और रज से अणुरूप हो जाती है | तो वीर बताओ अपने कर्मों के वशीभूत हुए मनुष्य आत्मस्वरूप को भूलकर इसमें कौन-सी सत्य वस्तु देखते है || ४२ || अत: हे द्विज ! विज्ञान से अतिरिक्त कभी कहीं कोई पदार्थोदि नहीं हैं | अपने – अपने कर्मों के भेद से भिन्न-भिन्न चित्तोद्वारा एक ही विज्ञान नाना प्रकार से मान लिया गया है || ४३ || वह विज्ञान अति विशुद्ध, निर्मल, नि:शोक और लोभादि समस्त दोषों से रहित है | वही एक सत्स्वरूप परम परमेश्वर वासुदेव है, जिससे पृथक और कोई पदार्थ नहीं है || ४४ ||
इस प्रकार मैंने तुमसे यह परमार्थ का वर्णन किया है, केवल एक ज्ञान ही सत्य है, उससे भिन्न और सब असत्य है | इसके अतिरिक्त जो केवल व्यवहारमात्र है उस त्रिभुवन के विषय में भी मैं तुमसे कह चूका || ४५ || मैने कर्म-मार्ग-सम्बन्धी यज्ञ, पशु, वर्हि, समस्त ऋत्विक, सोम, सुरगण तथा स्वर्गमय कामना आदिका भी दिग्दर्शन करा दिया | भुर्लोकादि के सम्पूर्ण भोग इन कर्म कलापों के ही फल है || ४६ || यह जो मैंने तुमसे त्रिभुवनगत लोकों का वर्णन किया है इन्हीं में जीव कर्मवश घुमा करता है ऐसा जानकर इससे विरक्त हो मनुष्य को वही करना चाहिये जिससे ध्रुव, अचल एवं सदा एकरूप भगवान वासुदेव में लीन हो जाय || ४७ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे दशमोऽध्याय"
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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