{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का पाँचवाँ व छठवाँ अध्याय}} {The third and fourth chapters of the complete Vishnu Purana (second part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
"पाँचवाँ अध्याय"
"भिन्न – भिन्न नरकों का तथा भगवन्नाम के माहात्म्य का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे विप्र ! तदनन्तर पृथ्वी और जल के नीचे नरक है जिन में पापी लोग गिराये जाते है | हे महामुने ! उनका विवरण सुनो || १ || रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुंभ, लवण, विलोहित, रुधिराम्भ, वैतरणि, कृमांश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पुयवह, पाप, वह्रिज्वाल, अध्:शिरा, सदंश, कालसूत्र, तमस, आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ और अप्रचि – ये सब तथा इनके सिवा और भी अनेकों महाभयंकर नरक है, जो यमराज के शासनाधीन है और अति दारुण शस्त्र-भय तथा अग्नि-भय देनेवाले है और जिनमें जो पुरुष पापरत होते है वे ही गिरते है || २ – ६ ||
जो पुरुष कूटसाक्षी (झूठा गवाह अर्थात जानकर भी न बतलानेवाला या कुछ-का – कुछ कहनेवाला) होता है अथवा जो पक्षपात से यथार्थ नहीं बोलता और जो मिथ्या भाषण करता है वह रौरवनरक में जाता है || ७ ||
हे मुनिसत्तम ! भ्रूण (गर्भ) नष्ट करनेवाले ग्रामनाशक और गो-हत्यारे लोग रोध नामक नरक में जाते है जो श्वासोच्छवास को रोकनेवाला है || ८ ||
मद्य-पान करनेवाला, ब्रह्मघाती, सुवर्ण चुरानेवाला तथा जो पुरुष इनका संग करता है ये सब सूकरनरक में जाते है || ९ ||
क्षत्रिय अथवा वैश्य का वध करनेवाला तालनरक में तथा गुरुस्त्री के साथ गमन करनेवाला, भगिनीगामी और राजदूतों को मारनेवाला पुरुष तप्तकुंडनरक में पड़ता है || १० ||
सती स्त्री को बेचनेवाला, कारागृहरक्षक, अश्वविक्रेता और भक्तपुरुष का त्याग करनेवाला ये सब लोग तप्तलोहनरक में गिरते है || ११ ||
पुत्रवधु और पुत्री के साथ विषय करनेवाला पुरुष महाज्वाल नरक में गिराया जाता है, तथा जो नराधम गुरुजनों क अपमान करनेवाला और उनसे दुर्वचन बोलनेवाला होता है तथा जो वेद की निंदा करनेवाला, वेद बेचनेवाला या अगम्या स्त्री से सम्भोग करता है, हे द्विज ! वे सब लवणनरक में जाते है || १२-१३ ||
चोर तथा मर्यादा का उल्लंघन करनेवाला पुरुष विलोहित नरक में गिरता है || १४ ||
देव, द्विज और पितृगण से द्वेष करनेवाला तथा रत्न को दूषित करनेवाला कृमिभक्ष नरक में और अनिष्ट यज्ञ करनेवाला कृमिश नरक में जाता है || १५ ||
जो नराधम पितृगण, देवगण और अतिथियों को छोडकर उनसे पहले भोजन कर लेता है वह अति उग्र लालाभक्ष नरक में पड़ता है; और बाण बनानेवाला वेधकनरक में जाता है || १६ ||
जो मनुष्य कर्नी नामक बाण बनाते है और जो खड्गादी शस्त्र बनानेवाले है वे अति दारुण विशसन नरक में गिरते है || १७ ||
असत – प्रतिग्रह (दूषित उपायों से धन-संग्रह) करनेवाला, अयाज्य-याजक और नक्षत्रोपजीवी (नक्षत्र-विद्याको न जानकर भी उसका ढोंग रचनेवाला) पुरुष अधोमुख नरक में पड़ता है || १८ ||
साहस (निष्ठुर कर्म) करनेवाला पुरुष पुयवह नरक में जाता है, तथा [ पुत्र-मित्रादि की वंचना करके] अकेले ही स्वादु भोजन करनेवाला और लाख, मांस, रस, तिल तथा लवण आदि बेचनेवाला ब्राह्मण भी उसी (पुयवह) नरक में गिरता है || १९ – २०||
हे द्विजश्रेष्ठ ! बिलाव, कुक्कुट, छाग, अश्व, शूकर तथा पक्षियों को पालने से भी पुरुष उसी नरक में जाता है || २१ ||
नट या मल्लवृत्ति से रहनेवाला, धीवर का कर्म करनेवाला, कुंढ (उपपति से उत्पन्न सन्तान) का अन्न खानेवाला, विष देनेवाला, चुगलखोर, स्त्री की असदवृत्ति के आश्रय रहनेवाला, धन आदि के लोभ से बिना पर्व के अमावास्या आदि पर्वदिनों का कार्य करानेवाला द्विज, घर में आग लगानेवाला, मित्र की हत्या करनेवाला, शकुन आदि बतानेवाला, ग्राम का पुरोहित तथा सोम (मदिरा) बेचनेवाला – ये सब रुधिरान्ध नरक में गिरते है || २२- २३ ||
यज्ञ अथवा ग्राम को नष्ट करनेवाला पुरुष वैतरणी नरक में जाता है, तथा जो लोग वीर्यपातादि करनेवाले, खेतों की बाड तोड़नेवाले, अपवित्र और छलवृत्ति के आश्रय रहनेवाले होते है वे कृष्ण नरक में गिरते है || २४ – २५ ||
जो वृथा ही वनों को काटता है वह असिपत्रवन नरक में जाता है | मेषोपजीवी और व्याधगण वह्रीज्वाल नरक में गिरते है तथा हे द्विज ! जो कच्चे घडो अथवा ईट आदि को पकाने के लिये उनमे अग्नि डालते है, वे भी उस (वह्रीज्वाल नरक) में ही जाते है || २६ – २७ ||
व्रतों को लोप करनेवाले तथा अपने आश्रम से पतित दोनों ही प्रकार के पुरुष संदेश नामक नरक में गिरते है || २८ ||
जिन ब्रह्मचारियों का दिन में तथा सोते समय [ वूरी भावनासे] वीर्यपात हो जाता है, अथवा जो अपने ही पुत्रों से पढ़ते है वे लोग श्वभोजन नरक में गिरते है || २९ ||
इस प्रकार, ये तथा अन्य सैकड़ो-हजारों नरक है, जिनमें दुष्कर्मी लोग नाना प्रकार की यातनाएँ भोग करते है || ३० || इन उपरोक्त पापों के समान और भी सहस्रों पाप-कर्म है, उनके फल मनुष्य भिन्न-भिन्न नरकों में भोगा करते है || ३१ || जो लोग अपने वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध मन, वचन अथवा कर्म से कोई आचरण करते है वे नरक में गिरते है || ३२ || अधोमुख नरक निवासियों को स्वर्गलोक में देवगण दिखायी दिया करते है और देवता लोग नीचे के लोकों में नारकी जीवों को देखते है || ३३ || पापी लोग नरकभोग के अनन्तर क्रम से स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धार्मिक पुरुष, देवगण तथा मुमुक्षु होकर जन्म ग्रहण करते है || ३४ || हे महाभाग ! मुमुक्षुपर्यन्त इन सब में दूसरों की अपेक्षा पहले प्राणी सहस्त्रगुण अधिक है || ३५ || जितने जीव स्वर्ग में है उतने ही नरक में है, जो पापी पुरुष प्रायश्चित नहीं करते वे ही नरक में जाते है || ३६ ||
भिन्न-भिन्न पापों के अनुरूप जो – जो प्रायश्चित है उन्हीं- उन्हीं को महर्षियों ने वेदार्थ का स्मरण करके बताया है || ३७ || हे मैत्रेय ! स्वायम्भुवमनु आदि स्मृतिकारों ने महान पापों के लिये महान और अल्पों के लिये अल्प प्रायश्चित्तों की व्यवस्था की है || ३८ || किन्तु जितने भी तपस्यात्मक और कर्मात्मक प्रायश्चित है उन सब में श्रीकृष्ण स्मरण सर्वश्रेष्ठ है || ३९ || जिस पुरुष के चित्त में पाप-कर्म के अनन्तर पश्चाताप होता है उसके लिये ही प्रायश्चित्तों का विधान है | किन्तु यह हरिस्मरण तो एकमात्र स्वयं ही परम प्रायश्चित है || ४० || प्रात:काल, सायंकाल, रात्रि में अथवा मध्यान्ह में किसी भी समय श्रीनारायण का स्मरण करने से पुरुष के समस्त पाप तत्काल क्षीण हो जाते है || ४१ || श्रीविष्णु भगवान के स्मरण से समस्त पापराशि के भस्म हो जाने से पुरुष मोक्षपद प्राप्त कर लेता है, स्वर्ग-लाभ तो उसके लिये विश्वरूप माना जाता है || ४२ || हे मैत्रेय ! जिसका चित्त जप, होम और अर्चनादि करते हुए निरंतर भगवान वासुदेव में लगा रहता है उसके लिये इंद्रपद आदि फल तो अन्तराय (विघ्न) है ||४३ || कहाँ तो पुनर्जन्म के चक्र में डालनेवाली स्वर्ग-प्राप्ति और कहाँ मोक्ष का सर्वोत्तम बीज ‘वासुदेव’ नामक जप ! || ४४ ||
इसलिये हे मुने ! श्रीविष्णुभगवान का अहर्निश स्मरण करने से सम्पूर्ण पाप क्षीण हो जाने के कारण मनुष्य फिर नरक में नहीं जाता || ४५ || चित्त को प्रिय लगनेवाला ही स्वर्ग है और उसके विपरीत (अप्रिय लगनेवाला) ही नरक है | हे द्विजोत्तम ! पाप और पुण्यके दूसरे नाम नरक और स्वर्ग है || ४६ || जब कि एक ही वस्तु सुख और दुःख तथा ईर्ष्या और कोपका कारण हो जाती है तो उसमें वस्तुता (नियतस्वभावत्व) ही कहाँ है ? || ४७ || क्योंकि एक ही वस्तु कभी प्रीति की कारण होती है तो वही दूसरे समय दुःखदायिनी हो जाती है और वही कभी क्रोध की हेतू होती है तो कभी प्रसन्नता देनेवाली हो जाती है || ४८ || अत: कोई भी पदार्थ दुःखमय नहीं है और न कोई सुखमय है | ये सुख-दुःख तो मन के ही विकार है || ४९ || [परमार्थत:] ज्ञान ही परब्रह्म है और [अविद्या की उपाधि से ] वही बंधन का कारण है | यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानमय ही है; ज्ञान से भिन्न और कोई वस्तु नहीं है | हे मैत्रेय ! विद्या और अविद्या को भी तुम ज्ञान ही समझो || ५० – ५१ ||
हे द्विज ! इसप्रकार मैंने तुमसे समस्त भूमंडल, सम्पूर्ण पाताललोक और नरकों का वर्णन कर दिया || ५२ || समुद्र, पर्वत, द्वीप, वर्ष और नदियाँ – इन सभी की मैंने संक्षेप से व्याख्या कर दी || ५३ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे पंचमोऽध्याय"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
"छठवाँ अध्याय"
"भूर्भुवः आदि सात ऊर्ध्वलोकों का वृतांत"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– ब्रह्मन ! आपने मुझसे समस्त भूमंडल का वर्णन किया | हे मुने ! अब मैं भुवर्लोक आदि समस्त लोकों के विषय में सुनना चाहता हूँ || १ || हे महाभाग ! मुझ जिज्ञासु से आप ग्रहगण की स्थिति तथा उनके परिमाण आदि का यथावत वर्णन कीजिये || २ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– जितनी दूरतक सूर्य और चन्द्रमा की किरणों का प्रकाश जाता है; समुद्र, नदी और पर्वतादि से युक्त उतना प्रदेश पृथ्वी कहलाता है || ३ || हे द्विज ! जितना पृथ्वी का विस्तार और परिमंडल (घेरा) है उतना ही विस्तार और परीमंडल भुवर्लोक का भी है || ४ || हे मैत्रेय ! पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमंडल है एयर सूर्यमंडल से भी एक लक्ष योजन के अंतरपर चन्द्रमंडल है || ५ || चन्द्रमा से पुरे सौ हजार योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमंडल प्रकाशित हो रहा है || ६ ||
हे ब्रह्मन ! नक्षत्रमडंल से दो लाख योजन ऊपर बुध और बुध से भी दो लक्ष योजन ऊपर शुक्र स्थित है || ७ || शुक्र से इतनी ही दुरीपर मंगल है और मंगल से भी दो लाख योजन ऊपर बृहस्पतिजी है || ८ || हे द्विजोत्तम ! बृहस्पतिजी से दो लाख योजन ऊपर शनि है और शनि से एक लक्ष योजन के अंतरपर सप्तर्षिमडंल है || ९ || तथा सप्तर्षियों से भी सौ हजार योजन ऊपर समस्त ज्योतिश्वक्रकी नाभिरूप ध्रुवमंडल स्थित है || १० || हे महामुने ! मैंने तुमसे यह त्रिलोकी की उच्चता के विषय में वर्णन किया | यह त्रिलोकी यज्ञफल की भोग-भूमि है और यज्ञानुष्ठान की स्थिति इस भारतवर्ष में ही है || ११ ||
ध्रुव से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है, जहाँ कल्पांत-पर्यन्त रहनेवाले भृगु आदि सिद्धगण रहते है || १२ || हे मैत्रेय ! उससे भी दो करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जिसमें ब्रह्माजी के प्रख्यात पुत्र निर्मलचित्त सनाकादि रहते है || १३ || जनलोक से चौगुना अर्थात आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है; वहाँ वैराज नामक देवगणों का निवास है जिनका कभी दाह नहीं होता || १४ ||
तपलोक से छ:गुना अर्थात बारह करोड़ योजन के अंतरपर सत्यलोक सुशोभित है जो ब्रह्मलोक भी कहलाता है और जिसमें फिर न मरनेवाले अमरगण निवास करते है || १५ || जो भी पार्थिव वस्तु चरणसंचार के योग्य है वह भूर्लोक ही है | उसका विस्तार मैं कह चूका || १६ || हे मुनिश्रेष्ठ ! पृथ्वी और सूर्य के मध्य में जो सिद्धगण और मुनिगण सेवित स्थान है, वही दूसरा भुवर्लोक है || १७ || सूर्य और ध्रुव के बीच में जो चौदह लक्ष योजन का अंतर है, उसीको लोकस्थिति का विचार करनेवालों ने स्वर्लोक कहा है || १८ || हे मैत्रेय ! ये (भू: , भुव:, स्व: ) ‘कृतक’ त्रैलोक्य कहलाते है और जन, तप तथा सत्य – ये तीनों ‘अकृतक’ लोक है ||१९|| इन कृतक और अकृतक त्रिलोकियों के मध्य में महर्लोक कहा जाता है, जो कल्पांत में केवल जनशून्य हो जाता है, अत्यंत नष्ट नहीं होता [ इसलिये यह ‘कृतकाकृत’ कहलाता है ] || २० ||
हे मैत्रेय ! इसप्रकार मैंने तुमसे ये सात लोक और सात ही पाताल कहे | इस ब्रह्माण्ड का बस इतना ही विस्तार है || २१ || यह ब्रह्माण्ड कपिथ्य (कैथे) के बीज के समान ऊपर-नीचे सब ओर अंडकटाह से घिरा हुआ है || २२ || हे मैत्रेय ! यह अंड अपने से दसगुने जल से आवृत है और वह जलका सम्पूर्ण आवरण अग्नि से घिरा हुआ है || २३ || अग्नि वायु से और वायु आकाश से परिवेष्टित है तथा आकाश भूतों के कारण तामस अहंकार और अहंकार महत्तत्व से घिरा हुआ है | हे मैत्रेय ! ये सातों उत्तरोत्तर एक-दूसरे से दसगुने है || २४ || महत्तत्व को भी प्रधान ने आवृत कर रखा है | वह अनंत है; तथा उसका न कभी अंत (नाश) होता है और न कोई संख्या ही है; क्योंकि हे मुने ! वह अनंत, असंख्येय, अपरिमेय और सम्पूर्ण जगत का कारण है और वही परा प्रकृति है || २५ – २६ || उसमें ऐसे-ऐसे हजारों, लाखों तथा सैकड़ों करोड़ ब्रह्माण्ड है || २७ || जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि और तिल में तेल रहता है उसीप्रकार स्वप्रकाश चेतनात्मा व्यापक पुरुष प्रधान में स्थित है || २८ || हे महाबुद्धे ! ये संश्रयशील प्रधान और पुरुष भी समस्त भूतों की स्वरूपभूता विष्णु-शक्ति से आवृत है || २९ ||
हे महामते ! वह विष्णु-शक्ति ही [ प्रलय के समय ] उनके पार्थक्य और [स्थिति के समय ] उनके सम्मिलन की हेतु है तथा सर्गारम्भ के समय वही उनके क्षोम की कारण है || ३० || जिस प्रकार जल के संसर्ग से वायु सैकड़ो जलकणों को धारण करता है उसी प्रकार भगवान विष्णु की शक्ति भी प्रधान-पुरुषमय जगत को धारण करती है || ३१ ||
हे मुने ! जिस प्रकार आदि-बीज से ही मूल, स्कन्ध और शाखा आदि के सहित वृक्ष उत्पन्न होता है और तदनन्तर उससे और भी बीज उत्पन्न होते है, तथा उन बीजों से अन्यान्य वृक्ष उत्पन्न होते है और वे भी उन्हीं लक्षण, द्रव्य और कारणों से युक्त होते है, उसी प्रकार पहले अव्याकृत [प्रधान] से महत्तत्त्व से लेकर पंचभूतपर्यन्त उत्पन्न होते है तथा उनसे देव, असुर आदिका जन्म होता है और फिर उनके पुत्र तथा उन पुत्रों के अन्य पुत्र होते है || ३२ -३४ || अपने बीज से अन्य वृक्ष के उत्पन्न होने से जिस प्रकार पूर्ववृक्ष की कोई क्षति नहीं होती उसी प्रकार अन्य प्राणियों के उत्पन्न होने से उनके जन्मदाता प्राणियों का ह्रास नहीं होता ||३५ ||
जिसप्रकार आकाश और काल आदि सन्निधिमात्र से ही वृक्ष के कारण होते है उसी प्रकार भगवान श्रीहरि भी बिना परिणाम के ही विश्व के कारण है || ३६ || हे मुनिसत्तम ! जिस प्रकार धान के बीज में मूल, नाल, पत्ते, अंकुर, तना, कोष, पुष्प, क्ष्रीर, तंडुल, तुष और कण सभी रहते हैं; तथा अन्कुरोत्पत्ति की हेतुभूत सामग्री के प्राप्त होनेपर वे प्रकट हो जाते है, उसी प्रकार अपने अनेक पुर्वकर्मों में स्थित देवता आदि विष्णु-शक्ति का आश्रय पानेपर आविर्भूत हो जाते है || ३७ – ३९ || जिससे यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है, जो स्वयं जगतरूप से स्थित है, जिससे यह स्थित है तथा जिसमें यह लीन हो जायगा वह परब्रह्म ही विष्णुभगवान है || ४० || वह ब्रह्म ही उन (विष्णु) का परमधाम (परस्वरूप) है, वह पद सत और असत दोनों से विलक्षण है तथा उससे अभिन्न हुआ ही वह सम्पूर्ण चराचर जगत उससे उत्पन्न हुआ है ||४१ || वही अव्यक्त मूलप्रकृति है, वही व्यक्तस्वरूप संसार हैं, उसी में यह सम्पूर्ण जगत लीन होता है तथा उसी के आश्रय स्थित है || ४२ || यज्ञादि क्रियाओं का कर्ता वही है, यज्ञरूप से उसीका यजन किया जाता है और उन यज्ञादि का फलस्वरूप भी वही है तथा यज्ञ के साधनरूप जो स्र्त्रुवा आदि है वे सब भी हरि से अतिरिक्त और कुछ नहीं है || ४३||
"इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे षष्ठोऽध्याय"
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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