सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का तीसरा व चौथा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का तीसरा व चौथा अध्याय}} {The third and fourth chapters of the complete Vishnu Purana (first part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                      ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
             ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
             देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                             श्री विष्णुपुराण
                               (प्रथम अंश)

                           "तीसरा अध्याय"

        "ब्रह्मादि की आयु और काल का स्वरूप"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे भगवन ! जो ब्रह्म निर्गुण, अप्रमेय, शुद्ध और निर्मलात्मा है उसका सर्गादिका कर्ता होना कैसे सिद्ध हो सकता है ?
श्रीपराशरजी बोले ;– हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! समस्त भाव-पदार्थों की शक्तियाँ अचिन्त्य ज्ञान की विषय होती है; अत: अग्नि की शक्ति उष्णता के समान ब्रह्म की भी सर्गादिरचनारूप शक्तियाँ स्वाभाविक है। अब जिस प्रकार नारायण नामक लोक-पितामह भगवान ब्रह्माजी सृष्टि की रचना में प्रवृत्त होते हैं सो सुनो , हे विद्वन ! वे सदा उपचार से ही ‘उत्पन्न हुए’ कहलाते हैं।
उनके अपने परिमाण से उनकी आयु सौ वर्ष की कही जाती है , उस (सौ वर्ष) का नाम पर है, उसका आधा परार्द्ध कहलाता है।

हे अनघ ! मैंने जो तुमसे विष्णुभगवान का कालस्वरूप कहा था उसी के द्वारा उस ब्रह्मा की तथा और भी जो पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव है उनकी आयुका परिमाण किया जाता है।
हे मुनिश्रेष्ठ ! पन्द्रह निमेष को काष्ठा कहते हैं, तीस काष्ठा की एक कला तथा तीस कलाका एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्त का मनुष्य का एक दिन-रात कहा जाता हैं और उतने ही दिन-रात का दो पक्षयुक्त एक मास होता है। छ: महीनों का एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिलकर एक वर्ष होता है, दक्षिणायन देवताओं की रात्रि है और उत्तरायण दिन ।

देवताओं के बारह हजार वर्षो के सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग होते है। उनका अलग-अलग परिमाण मैं तुम्हे सुनाता हूँ। पुरातत्त्व के जाननेवाले सतयुग आदि का परिमाण क्रमश: चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाते है।
प्रत्येक युग के पूर्व उतने ही सौ वर्ष की संध्या बतायी जाती है और युग के पीछे उतने ही परिमाणवाले संध्यांश होते है।
 हे मुनिश्रेष्ठ ! इन सन्ध्यांशो के बीच का जितना काल होता है., उसे ही सतयुग आदि नामवाले युग जानना चाहिये,

हे मुने ! सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि ये मिलकर चतुर्युग कहलाते हैं; ऐसे हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है।
हे ब्रह्मन ! ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते है, उनका कालकृत परिमाण सुनो ।
सप्तर्षि, देवगण, इंद्र, मनु और मनु के पुत्र राजालोग पूर्व कल्पानुसार एक ही काल में रचे जाते है और एक ही काल में उनका संहार किया जाता हैं।
हे सत्तम ! इकहत्तर चतुर्युग से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता है। यही मनु और देवता आदिका काल है।
इसप्रकार दिव्य वर्ष-गणना से एक मन्वन्तर में आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते है।
तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष गणना के अनुसार मन्वन्तर का परिमाण पुरे तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे अधिक नही, इस काल का चौदह गुना ब्रह्मा का दिन होता है, इसके अनन्तर नैमित्तिक नामवाला ब्राह्म-प्रलय होता है।

उस समय भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक तीनों जलने लगते है और महर्लोक में रहनेवाले सिद्धगण अति संतप्त होकर जनलोक को चले जाते हैं। इसप्रकार त्रिलोकी के जलमय हो जानेपर जनलोकवासी योगियोंद्वारा ध्यान किये जाते हुए नारायणरूप कमलयोनि ब्रह्माजी त्रिलोकी के ग्रास से तृप्त होकर दिन के बराबर ही परिमाणवाली उस रात्रि में शेषशय्यापर शयन करते हैं और उनके बीत जानेपर पुन: संसार की सृष्टि करते है।
 इसीप्रकार पक्ष, मास आदि गणना से ब्रह्मा का एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते है। ब्रह्मा के सौ वश ही उस महात्मा ब्रह्मा की परमायु है।
हे अनघ ! उन ब्रह्माजी का एक परार्द्ध बीत चूका है। उसके अंत में पाद्य नामसे विख्यात महाकल्प हुआ था ।
हे द्विज ! इससमय वर्तमान उनके दूसरे परार्द्ध का यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है।।

           "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे तृतीयोऽध्यायः"

                                   

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                      ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
             ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
             देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                             श्री विष्णुपुराण
                               (प्रथम अंश)

                           "चौथा अध्याय"

"ब्रह्माजी की उत्पत्ति वराहभगवान्द्वारा पृथ्वी का उद्धार और ब्रह्माजी की लोक-रचना"

श्रीमैत्रेय बोले ;– हे महामुने ! कल्प के आदिमें नारायणाख्य भगवान ब्रह्माजी ने जिसप्रकार समस्त भूतों की रचना की वह आप वर्णन कीजिये, कारण वसुदेवजी भी मानो आयी हुई जरा को छोडकर फिर से नवयुवक से हो गये।
            हे गोविन्द ! सबको भक्षणकर अंत में आप ही मनिषिजनों द्वारा चिंतित होते हुए जल में शयन करते हैं।
हे प्रभो ! आपका जो परतत्त्व है उसे तो कोई भी नहीं जानता; अत: आपका जो रूप अवतारों में प्रकट होता है उसीकी देवगण पूजा करते हैं।
आप परब्रह्म की ही आराधना करके मुमुक्षुजन मुक्त है, भला वासुदेव की आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं ? मनसे जो कुछ ग्रहण (संकल्प) किया जाता हैं, चक्षु आदि इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण (विषय) करने योग्य है, बुद्धि द्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आप ही का रुप है।
हे प्रभो ! मैं आपही का रूप हूँ, आपही के आश्रित हूँ और आपही के द्वारा रची गयी हूँ तथा आपही की शरण में हूँ।
इसीलिये लोक में मुझे ‘माधवी’ भी कहते हैं।
हे सम्पूर्ण ज्ञानमय ! हे स्थूलमय ! हे अव्यय ! आपकी जय हो ! हे अनंत ! हे अव्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय हो ।।  हे परापर-स्वरुप ! हे विश्वात्मन ! जे यज्ञपते ! हे अनघ ! आपकी जय हो ! हे प्रभो ~! आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषटकार हैं, आप ही ओंकार हैं और आप ही अग्नियाँ हैं।
हे हरे ! आप ही वेद, वेदांग और यज्ञपुरुष हैं तथा सूर्य आदि ग्रह, तारे, नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत भी आप ही है।
हे पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर ! मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ मैंने कहा है और जो नही कहा, वह सब आप ही है , अत: आपको नमस्कार हैं, बारंबार नमस्कार है।

श्रीपराशरजी बोले ;– पृथ्वी इसप्रकार स्तुति किये जानेपर सामस्वर ही जिनकी ध्वनि है उन भगवान धरणीधर ने घर्घर शब्द से गर्जना की ,, फिर विकसित कमल के समान नेत्रोंवाले उन महावराह ने अपनी दाढोसे पृथ्वी को उठा लिया और वे कमल-दल के समान श्याम तथा नीलाचल के सदृश विशालकाय भगवान रसातल से बाहर निकले ! निकलते समय उनके मुख श्वास से उछलते हुए जलने जनलोक में रहनेवाले महातेजस्वी एयर निष्पाप सनन्दनादि मुनीश्वरों को भिगो दिया,
जल बड़ा शब्द करता हुआ उनके खुरों से विदीर्ण हुए रसातल में नीचे की ओर जाने लगा और जनलोक में रहनेवाले सिद्धगण उनके श्वास-वायु से विक्षिप्त होकर इधर-उधर भागने लगे,, जिनकी कुक्षि जल में भीगी हुई है वे महावराह जिस समय अपने वेदमय शरीर को कँपाते हुए पृथ्वी को लेकर बाहर निकले उससमय उनकी रोमावली में स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे।
उन निश्शंक और उन्नत दृष्टिवाले धराधर भगवान की जनलोक में रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरों ने प्रसन्नचित्तसे अति नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर इसप्रकार स्तुति की।

‘हे ब्रह्मादि ईश्वरों के भी परम ईश्वर ! हे केशव ! हे शंख-गदाधर ! हे खंड-चक्रधारी प्रभो ! आपकी जय हो ,, आप ही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और नाश के कारण है, तथा आप ही ईश्वर है और जिसे परम पद कहते हैं वह भी आपसे अतिरिक्त और कुछ नहीं है

हे यूपरूपी दाढोवाले प्रभो ! आप ही यज्ञपुरुष है । आपके चरणों में चारों वेद हैं, दाँतों में यज्ञ है, मुख में [श्येन चित्त आदि] चित्तियाँ हैं , हुताशन (यज्ञाग्नि) आपकी जिव्हा है तथा कुशाएँ रोमावलि है ।
हे महात्मन ! रात और दिन आपके नेत्र है तथा सबका आधारभूत परबह्म आपका सिर है । हे देव ! वैष्णव आदि समस्त सूक्त आपके सटाकलाप (स्कन्ध के रोम गुच्छ) है और समस्त हवि आपके प्राण है ।
हे प्रभो ! स्त्रुक आपका तुंड (थूथनी) हैं, सामस्वर धीर-गम्भीर शब्द है, प्राग्वंश (यजमानगृह) शरीर है तथा सत्र शरीर की सन्धियाँ है,
हे देव ! इष्ट (श्रौत) और पुर्त (स्मार्त) धर्म आपके कान है । हे नित्यस्वरूप भगवन ! प्रसन्नं होइये ।
हे अक्षर ! हे विश्वमूर्ते ! अपने पाद-प्रहार से भूमंडल को व्याप्त करनेवाले आपको हम विश्व के आदिकारण समझते हैं।
 आप सम्पूर्ण चराचर जगत के परमेश्वर और नाथ है; अत: प्रसन्न होइये ।
 हे नाथ ! आपकी दाढ़ोंपर रखा हुआ यह सम्पूर्ण भूमंडल ऐसा प्रतीत होता है मानो कमलवन को रौंदते हुए गजराज के दाँतों से कोई कीचड़ में सना हुआ कमल का पत्ता लगा हो,,
हे अनुपम प्रभावशाली प्रभो ! पृथ्वी और आकाश के बीच में जितना अंतर है वह आपके शरीर से ही व्याप्त है। हे विश्व को व्याप्त करने में समर्थ तेजयुक्त प्रभो ! आप विश्व का कल्याण कीजिये ।
हे जगत्पते ! परमार्थ (सत्य वस्तु) तो एकमात्र आप ही है, आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं हैं , यह आपकी ही महिमा (माया) है जिससे यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है। यह जो कुछ भी मूर्तिमान जगत दिखायी देता है ज्ञानस्वरूप आपही का रूप है। अजितेन्द्रिय लोग भ्रम से इसे जगत-रूप देखते है।  इस सम्पूर्ण ज्ञान-स्वरूप जगत को बुद्धिहीन लोग अर्थरूप देखते हैं, अत: वे निरंतर मोहमय संसार-सागर से भटका करते है।
हे परमेश्वर ! जो लोग शुद्धचित्त और विज्ञानवेत्ता हैं वे इस सम्पूर्ण संसार को आपका ज्ञानात्मक स्वरूप ही देखते हैं।
हे सर्व ! जे सर्वात्मन ! प्रसन्न होइये । हे अप्रमेयात्मन ! हे कमलनयन ! संसार के निवास के लिये पृथ्वी का उद्धार करके हमको शान्ति प्रदान कीजिये ।
हे भगवन ! हे गोविन्द ! इससमय आप सत्त्वप्रधान है; अत: हे ईश ! जगत के उद्भव के लिये आप इस पृथ्वी का उद्धार कीजिये और हे कमलनयन ! हमको शान्ति प्रदान कीजिये । आपके द्वारा यह सर्ग की प्रवृत्ति संसार का उपकार करनेवाली हो , हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है, आप हमको शान्ति प्रदान कीजिये ।

श्रीपराशरजी बोले ;– इसप्रकार स्तुति किये जानेपर पृथ्वी को धारण करनेवाले परमात्मा वराहजी ने उसे शीघ्र ही उठाकर अपार जल के ऊपर स्थापित कर दिया, उस जलसमूह के ऊपर वह एक बहुत बड़ी नौका के समान स्थित है और बहुत विस्तृत आकार होने के कारण उसमें डूबती नहीं है।
फिर उन अनादि परमेश्वर ने पृथ्वी को समतल कर उसपर जहाँ-तहाँ पर्वतों को विभाव करके स्थापित कर दिया , सत्यसंकल्प भगवान ने अपने अमोघ प्रभाव से पूर्वकल्प के अंत में दग्ध हुए समस्त पर्वतों को पृथ्वी तलपर यथास्थान रच दिया, तदनन्तर उन्होंने सप्तद्वीपादि क्रम से पृथ्वीका यथायोग्य विभाग लार भूलोकादि चारों लोको की पूर्ववत कल्पना कर दी।
फिर उन भगवान हरि ने रजोगुण से युक्त हो चतुर्मुखधारी ब्र्ह्मारूप धारण कर सृष्टि की रचना की , सृष्टि की रचना में भगवान तो केवल निमित्तमात्र ही है, क्योंकि उसकी प्रधान कारण तो स्रुज्य पदार्थों की शक्तियाँ ही है।
हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! वस्तुओं की रचनामें निमित्तमात्र को छोडकर और किसी बात की आवश्यकता भी नही है, क्योंकि वस्तु तो अपनी ही (परिणाम) शक्ति से वस्तुता (स्थूलरूपता) को प्राप्त हो जाती है ।

         "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे चतुर्थोऽध्यायः"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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