सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का पांचवा व छठा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का पांचवा व छठा अध्याय}} {The fifth and sixth chapters of the entire Vishnu Purana (first part)}

                          "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 
 
                         ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
                ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
                देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                                  श्री विष्णुपुराण
                                    (प्रथम अंश)

                                "पाँचवाँ अध्याय"

                      "अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे द्विजराज ! सर्ग के आदि में भगवान ब्रह्माजी ने प्रथ्वी, आकाश और जल आदि में रहनेवाले देव, ऋषि पितृगण, दानव, मनुष्य, तिर्यक और वृक्षादि को जिसप्रकार रचा तथा जैसे गुण, स्वभाव और रूपवाले जगत की रचना की वह सब आप मुझसे कहिये ।

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! भगवान विभुने जिसप्रकार इस सर्ग की रचना की वह मैं तुमसे कहता हूँ; सावधान होकर सुनो, सर्ग के आदि में ब्रह्माजी के पूर्ववत सृष्टि का चिन्तन करनेपर पहले अबुद्धिपूर्वक तमोगुणी सृष्टि का आविर्भाव हुआ । उस महात्मा से प्रथम तं (अज्ञान), मोह, महामोह (भोगेच्छा), तामिस्त्र (क्रोध) और अन्भतामिस्र (अभिनिवेश) नामक पञ्चपर्वा (पाँच प्रकार की) अविद्या उत्पन्न हुई,  उसके ध्यान करनेपर ज्ञानशून्य, बाहर-भीतर से तमोमय और जड नगादि (वृक्ष-गुल्म-लता-वीरुत-तृण ) रूप पाँच प्रकार का सर्ग हुआ , वराहजीद्वारा सर्वप्रथम स्थापित होने के कारण नगादि को मुख्य कहा गया है, इसलिये यह सर्ग भी मुख सर्ग कहलाता है।

उस सृष्टिको पुरुषार्थ की असाधिका देखकर उन्होंने फिर अन्य सर्ग के लिये ध्यान किया तो तिर्यक-स्त्रोत-सृष्टि उत्पन्न हुई,  यह सर्ग (वायु के समान) तिरछा चलनेवाला है इसलिये तिर्यक-स्त्रोत कहलाता है। ये पशु, पक्षी आदि नामसे प्रसिद्ध है – और प्राय: तमोमय (अज्ञानी), विवेकरहित अनुचित मार्गका अवलम्बन करनेवाले और विपरीत ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान माननेवाले होते है। ये सब अहंकारी, अभिमानी, अट्टाईस वधोंसे युक्त आंतरिक सुख आदि को ही पूर्णतया समझनेवाले और परस्पर एक-दूसरे की प्रवृत्ति को न जाननेवाले होते है।

उस सर्ग को भी पुरुषार्थ का असाध्क समझ पुन:चिन्तन करनेपर एक और सर्ग हुआ, वह ऊर्ध्वस्त्रोतनामक तीसरा सात्त्विक सर्ग ऊपर के लोकों में रहने लगा । वे ऊर्ध्व-स्त्रोत सृष्टि से उत्पन्न हुए प्राणी विषय-सुख के प्रेमी, बाह्य और आंतरिक दृष्टिसम्पन्न, ततः बाह्य और आंतरिक ज्ञानयुक्त थे। यह तीसरा देवसर्ग कहलाता हैं। इस सर्ग के प्रादुर्भूत होनेसे संतुष्टचित्त ब्रह्माजी को अति प्रसन्नता हुई,

फिर, इन मुख सर्ग आदि तीनों प्रकार की सृष्टियों में उत्पन्न हुए प्राणियों को पुरुषार्थ का असाधक जान उन्होंने एक और उत्तम साधक सर्ग के लिये चिन्तन किया, उन सत्यसंकल्प ब्रह्माजी के इसप्रकार चिन्तन करनेपर अव्यक्त (प्रकृति) से पुरुषार्थ का साधक अर्वाकस्त्रोत नामक सर्ग प्रकट हुआ, इस सर्ग के प्राणी नीचे (पृथ्वीपर) रहते हैं इसलिये वे ‘अर्वाकस्त्रोत’ कहलाते हैं , उनमे सत्त्व, रज और तम तीनोंही की अधिकता होती है। इसलिये वे दुःखबहुल, अत्यंत क्रियाशील एवं बाह्य-आभ्यन्तर ज्ञान से युक्त और साधक है। इस सर्ग के प्राणी मनुष्य है।

हे मुनिश्रेष्ठ ! इसप्रकार अबतक तुमसे छ: सर्ग कहे , उनमें महत्तत्त्वको ब्रह्माका पहला सर्ग जानना चाहिये। दूसरा सर्ग तन्मात्राओं का है, जिसे भूतसर्ग भी कहते हैं और तीसरा वैकारिक सर्ग है जो ऐन्द्रियिक (इन्द्रिय सम्बन्धी) कहलाता है। इस प्रकार बुद्धिपूर्वक उत्पन्न हुआ यह प्राकृत सर्ग हुआ , चौथा मुख्यसर्ग हैं। पर्वत-वृक्षादि स्थावर ही मुख्य सर्ग के अंतर्गत है। पाँचवाँ जो तिर्यकस्त्रोत बतलाया उसे तिर्यक (कीट-पतंगादि) योनि भी कहते है। फिर छठा सर्ग ऊर्ध्व-स्त्रोताओं का है जो ‘देवसर्ग’ कहलाता है उसके पश्चात सातवाँ सर्ग अर्वाक-स्त्रोताओं का है, वह मनुष्य सर्ग है। आठवाँ अनुग्रह सर्ग हैं, वह सात्त्विक और तामसिक है। ये पाँच वैकृत (विकारी) सर्ग है एयर पहले तीन ‘प्राकृत सर्ग ‘कहलाते है। नवाँ कौमर सर्ग है जो प्राकृत और वैकृत भी है। इसप्रकार सृष्टि रचना में प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापति के प्राकृत और वैकृत नामक उए जगत के मुलभुत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये , अब और क्या सुनना चाहते है ?

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे मुने ! आपने इस देवादिकों के स्रगोंका संक्षेप से वर्णन किया अब, हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं इन्हें आपके मुखारविंद से विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ।

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण प्रजा अपने पूर्व-शुभाशुभ कर्मों से युक्त है; अत: प्रलयकाल में सबका लय होनेपर भी वह उनके संस्कारों से मुक्त नहीं होती , हे ब्रह्मन ! ब्रह्माजी के सृष्टि कर्म में प्रवृत्त होनेपर देवताओं से लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकार की सृष्टि हुई । वह केवल मनोमयी थी ,

फिर देवता, असुर, पितृगण और मनुष्य – इन चारों की तथा जल की सृष्टि करनेकी इच्छा से उन्होंने अपने शरीर का उपयोग किया  सृष्टि-रचना की कामना से प्रजापति के युक्तचित्त होनेपर तमोगुण की वृद्धि हुई , अत: सबसे पहले उनकी जंघासे असुर उत्पन्न हुए ।
तब, हे मैत्रेय ! उन्होंने उस तमोमय शरीर को छोड़ दिया, वह छोड़ा हुआ तमोमय शरीर ही रात्रि हुआ।  फिर अन्य देह में स्थित होनेपर सृष्टि की कामनावाले उन प्रजापति को अति प्रसन्नता हुई, और हे द्विज ! उनके मुख से सत्त्वप्रधान देवगण उत्पन्न हुए,  तदनंतर उस शरीर को भी उन्होंने त्याग दिया , वह त्यागा हुआ शरीर ही सत्त्वस्वरूप दिन हुआ, इसलिये रात्रि में असुर बलवान होते है और दिनमें देवगणों का बल विशेष होता है। फिर उन्होंने आंशिक सत्त्वमय अन्य शरीर ग्रहण किया और अपने को पितृवत मानते हुये अपने पार्श्व-भाग से पितृगणकी रचना की, पितृगण की रचना कर उन्होंने उस शरीर को भी छोड़ दिया,
वह त्यागा हुआ शरीर ही दिन और रात्रि के बीच में स्थित संध्या हुई, तत्पश्चात उन्होंने आंशिक रजोमय अन्य शरीर धारण किया; हे द्विजश्रेष्ठ ! उससे रज: प्रधान मनुष्य उत्पन्न हुए, फिर शीघ्र ही प्रजापति ने उस शरीर को भी त्याग दिया, वही ज्योत्स्ना हुआ, जिसे पूर्व-संध्या अर्थात प्रात:काल कहते हैं। इसीलिए, हे मैत्रेय ! प्रात:काल होनेपर मनुष्य और सायंकाल के समय पितर बलवान होते है। इस प्रकार रात्रि, दिन, प्रात:काल और सायंकाल ये चारों प्रभु ब्रह्माजी के ही शरीर है तीनों गुणों के आश्रय है।

फिर ब्रह्माजीने एक और रजोमात्रात्मक शरीर धारण किया , उसके द्वारा ब्रह्माजी से क्षुधा उत्पन्न हुई और क्षुधा से काम की उत्पत्ति हुई तब भगवान् प्रजापति ने अंधकार में स्थित होकर क्षुधाग्रस्त सृष्टि की रचना की , उसमें बड़े कुरूप और दाढ़ी-मूँछवाले व्यक्ति उत्पन्न हुए ! वे स्वयं ब्रह्माजी की ओर ही उन्हें भक्षण करने के लिये दौड़े । उनमे से जिन्होंने यह कहा कि ‘ऐसा मत करो, इनकी रक्षा करो’ वे ‘राक्षस’ कहलाये और जिन्होंने कहा ‘हम खायेंगे’ वे खाने की वासनावाले होने से ‘यक्ष’ कहे गये.

उनकी इन अनिष्ट प्रवृत्ति को देखकर ब्रह्माजी के केश सिरसे गिरे गये और फिर पुन: उनके मस्तकपर आरूढ़ हुए , इसप्रकार ऊपर चढने के कारण वे ‘सर्प’ कहलाये और नीचे गिरने के कारण ‘अहि’ कहे गये , तदनंतर जगत-रचयिता ब्रह्माजी ने क्रोधित होकर क्रोधयुक्त प्राणियों की रचना की; वे कपिश (कालापन लिये हुए पीले) वर्ण के, अति उग्र स्वभाववाले तथा मांसाहारी हुए , फिर गान करते समय उनके शरीर से तुरंत ही गन्धर्व उत्पन्न हुए !
हे द्विज ! वे वाणीका उच्चारण करते अर्थात बोलते हुए उत्पन्न हुए थे, इसलिये ‘गन्धर्व’ कहलाये,

इस सबकी रचना करके भगवान ब्रह्माजी ने पक्षियों को, उनके पूर्व-कर्मों से प्रेरित होकर स्वछंदतापूर्वक अपनी आयु से रचा, तदनन्तर अपने वक्ष:स्थल से भेड़, मुखसे बकरी, उदर और पार्श्वभाग से गौ, पैरों से घोड़े, हाथी, गधे, वनगाय, मृग, ऊँट, खचर, और न्यंक आदि पशुओं की रचना की ! उनके रोमोसे फल-मूलरूप ओषधियाँ उत्पन्न हुई ! हे द्विजोत्तम ! कल्प के आरम्भ में ही ब्रह्माजीने पशु और ओषधि आदि की रचना करके फिर त्रेतायुग के आरम्भ में उन्हें यज्ञादि कर्मों में सम्मिलित किया ।
गौ, बकरी, पुरुष, भेड़, घोड़े, खचर और गधे ये सब गाँवों में रहनेवाले पशु है। जंगली पशु ये है – श्वापद, (व्याघ्र आदि), दो खुरवाले (वनगाय आदि), हाथी, बदंर और पाँचवे पक्षी, छठे जल के जीव तथा सातवें सरीसूप आदि,  फिर अपने प्रथम मुख से ब्रह्माजी ने गायत्री, ऋक, त्रिवृत्सोम रथन्तर और अग्निष्टोम यज्ञों को निर्मित किया,  दक्षिण-मुख से यजु, त्रैष्टपछंद, पंचदश स्तोम, बृहत्साम तथा उक्थकी रचना की, पश्चिम मुख से साम, जगतीछंद, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्र को उत्पन्न किया , तथा उत्तर मुखसे उन्होंने एकविंशतिस्तोम , अथर्ववेद, आप्तोर्यामाण, अनुष्टुपछंद और वैराज की सृष्टि की।

इसप्रकार उनके शरीर से समस्त ऊँच – नीच प्राणी उत्पन्न हुए उन आदिकर्ता प्रजापति भगवान ब्रह्माजी ने देव, असुर, पितृगण और मनुष्यों की सृष्टि कर तदनन्तर कल्प का आरम्भ होनेपर फिर यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरागण, मनुष्य, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर जंगम जगत की रचना की उनमें से जिनके जैसे-जैसे कर्म पूर्वकल्पों में थे पुन: पुन : सृष्टि होनेपर उनकी उन्हीं में फिर प्रवृत्ति हो जाती है । उस समय हिंसा-अहिंसा, मृदुता-कठोरता, धर्म-अधर्म, सत्य-मिथ्था – ये सब अपनी पूर्व भावना के अनुसार उन्हें प्राप्त हो जाते हैं, इसीसे ये उन्हें अच्छे लगने लगते हैं ।

इसप्रकार प्रभु विधाता ने ही स्वयं इन्दिर्यों के विषय भूत और शरीर आदि में विभिन्नता और व्यवहार को उत्पन्न किया है। उन्हीं ने कल्प के आरम्भ में देवता आदि प्राणियों के वेदानुसार नाम और रूप तथा कार्य-विभाग को निश्चित किया है। ऋषियों तथा अन्य प्राणियों के भी वेदानुकूल नाम और यथायोग्य कर्मों को उन्हीने निर्दिष्ट किया है ।
जिस प्रकार भिन्न – भिन्न ऋतुओं के पुन”पुन” आनेपर उनके चिन्ह और नाम-रूप आदि पूर्ववत रहते हैं उसीप्रकार युगादि में भी उनके पूर्व भाव ही देखे जाते हैं । सिसृक्षा –शक्ति (सृष्टि-रचना की प्रारब्ध) की प्रेरणा से कल्पों के आरम्भ में बारम्बार इसी प्रकार सृष्टि की रचना किया करते है।

       "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे पञ्चमोऽध्यायः"


                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                        ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
                ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
                देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                                श्री विष्णुपुराण
                                   (प्रथम अंश)
                                  "छटा अध्याय"

"चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्ति का वर्णन"
श्रीमैत्रेयजी बोले :– हे भगवन ! आपने जो अर्वाक-स्त्रोता मनुष्यों के विषय में कहा उनकी सृष्टि ब्रह्माजी ने किसप्रकार की – यह विस्तारपूर्वक कहिये श्रीप्रजपति ने ब्राह्मणादि वर्ण को जिन-जिन गुणों से युक्त और जिसप्रकार रचा था उनके जो-जो कर्तव्य-कर्म निर्धारित किये वह सब वर्णन कीजिये!

श्रीपराशरजी बोले :– हे द्विजश्रेष्ठ ! जगतरचना की इच्छा से युक्त सत्यसंकल्प श्रीब्रह्माजी के मुख से पहले सत्त्वप्रधान प्रजा उत्पन्न हुई ,तदनन्तर उनके वक्ष:स्थल से रज:प्रधान तथा जंघाओं से रज और तमविशिष्ट सृष्टि हुई ।
हे द्विजोतम ! चरणों से ब्रह्माजी ने एक और प्रकार की प्रजा उत्पन्न की, वह तम:प्रधान थी ये ही सब चारों वर्ण हुए,  इसप्रकार हे द्विजसत्तम ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये चारों क्रमश: ब्रह्माजी के मुख, वक्ष:स्थल, जानू और चरणों से उत्पन्न हुए,

हे महाभाग ! ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान के लिये ही यज्ञ के उत्तम साधनरूप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्ण्य की रचना की थी , हे धर्मज्ञ ! यज्ञ से तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजा को तृप्त करते है; अत: यज्ञ सर्वथा कल्याणका हेतु है। जो मनुष्य सदा स्वधर्मपरायण, सदाचारी, सज्जन और सुमार्गगामी होते है उन्हींसे यज्ञका यथावत अनुष्ठान हो सकता है।
हे मुने ! यज्ञ के द्वारा मनुष्य इस मनुष्य-शरीर से ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते है; तथा और भी जिस स्थान की उन्हें इच्छा हो उसीको जा सकते है ।

हे मुनिलत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वर्ण्य-विभाग में स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त आचरणवाली, स्वेच्छानुसार रहनेवाली, सम्पूर्ण बाधाओं से रहित, शुद्ध अंत:करणवाली, सत्कुलोत्पत्र और पुण्य कर्मों के अनुष्ठान से परम पवित्र थी, उसका चित्त शुद्ध होने के कारण उसमें निरंतर शुद्धस्वरूप श्रीहरि के विराजमान रहने से उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवान के उस ‘विष्णु’ नामक परम पदको देख पाते थे, फिर (त्रेतायुग के आरम्भ में ), हमने तुमसे भगवान के जिस काल नामक अंश का पहले वर्णन किया है, वह अति अल्प सारवाले (सुखवाले) तुच्छ और घोर (दुःखमय) पापों को प्रजा में प्रवृत्त कर देता है।
हे मैत्रेय ! उससे प्रजा में पुरुषार्थ का विघातक तथा अज्ञान और लोभ को उत्पन्न करनेवाला रागादिरूप अधर्म का बीज उत्पन्न हो जाता है। तभी से उसे वह विष्णु-पद-प्राप्ति-रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्टसिद्धियाँ नहीं मिलती ,

"अष्टसिद्धि ,,–
सत्ययुग में रसका स्वयं ही उल्लास होता था, यही रसोल्लास नाम की सिद्धि है, उसके प्रभाव से मनुष्य भूख को नष्ट कर देता है उस समय प्रजा स्त्री आदि भोगों की अपेक्षा के बिना ही सदा तृप्त रहती थी, इसीको मुनिश्रेष्ठों ने ‘तृप्ति’ नामक दूसरी सिद्धि कहा है। उनका जो उत्तम धर्म था वही उनकी तीसरी सिद्धि कही जाती है , उस समय सम्पूर्ण प्रजा के रूप और आयु एक-से थे, यही उनकी चौथी सिद्धि थी, बल की ऐकान्तिकी अधिकता – यह ‘विशोका’ नामकी पाँचवी सिद्धि है । परमात्मपरायण रहते हुए तप-ध्यानादि में तत्पर रहना छठी सिद्धि है।  स्वेच्छानुसार विचरना सातवीं सिद्धि कही जाती है तथा जहाँ-तहाँ मन की मौज पड़े रहना आठवी सिद्धि कही गयी है ।

उन समस्त सिद्धियों के क्षीण हो जाने और पाप के बढ़ जाने से फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्द,ह्रास और दुःख से आतुर हो गयी, तब उसने मरुभूमि, पर्वत और जल आदि के स्वाभाविक तथा कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा खर्वट आदि स्थापित किये
हे महामते ! उन पुर आदिकों में शीत और घाम आदि बाधाओं से बचने के लिये उसने यथायोग्य घर बनाये,

इसप्रकार शीतोष्णादि बचने का उपाय करके उस प्रजाने जीविका के साधनरूप कृषि तथा कला-कौशल आदिकी रचना की ।
हे मुने ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कांगनी, ज्वार, कोदो, छोटी मटर, उड़द, मूँग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथी, राई, चना और सन – ये सत्रह ग्राम्य ओषधियों की जातियाँ है ग्राम्य और वन्य दोनों प्रकार की मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक है ,उनके नाम ये है – धान, जौ, उड़द, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी और कुलथी – ये आठ तथा श्यामक, नीबार, वनतिल, गवेधु, वेणुयव और मर्कट (मक्का) ये चौदह ग्राम्य और वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठान की सामग्री है और यज्ञ इनकी उत्पत्ति का प्रधान हेतु है यज्ञों के सहित ये ओषधियाँ प्रजाकी बुद्धि का परम कारण है इसलिये इहलोक-परलोक के ज्ञाता पुरुष यज्ञों का अनुष्ठान किया करते हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! नित्यप्रति किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्यों का परम उपकारक और उनके किये हुए पापों को शांत करनेवाला है।

हे महामुने ! जिनके चित्त में काल की गति से पाप का बीज बढ़ता है उन्हीं लोगों का चित्त यज्ञ में प्रवृत्त नहीं होता उन यज्ञ के विरोधियों ने वैदिक मत, वेद और यज्ञादि कर्म – सभी की निंदा की है। वे लोग दुरात्मा, दुराचारी, कुटिलमति, वेद-विनिन्द्क और प्रवृत्तिमार्ग का उच्छेद करनेवाले ही थे,

हे धर्मवानों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! इसप्रकार कृषि आदि जीविका के साधनों के निश्चित हो जानेपर प्रजापति ब्रह्माजी ने प्रजा की रचना कर उनके स्थान और गुणों के अनुसार मर्यादा, वर्ण और आश्रमों के धर्म तथा अपने धर्म का भलीप्रकार पालन करनेवाले समस्त वर्णों के लोक आदि की स्थापना की कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों का स्थान पितृलोक है, युद्ध-क्षेत्र कभी न हटनेवाले क्षत्रियों का इंद्रलोक है। तथा अपने धर्म का पालन करनेवाले वैश्यों का वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रों का गन्धर्वलोक है । अठ्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता मुनि है; उनका जो स्थान बताया गया है वही गुरुकुलवासी ब्रह्मचारियों का स्थान है। इसीप्रकार वनवासी वानप्रस्थों का स्थान सप्तर्षिलोक, गृहस्थों का पितृलोक और सन्यासियों का ब्रह्मलोक है तथा आत्मानुभव से तृप्त योगियों का स्थान अमरपद (मोक्ष) है जो निरंतर एकांतसेवी और ब्रह्मचिन्तन में मग्न रहनेवाले योगिजन है उनका जो परमस्थान है उसे पंडितजन ही देख पाते हैं । चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपने-अपने लोकों में जाकर फिर लौट आते हैं, किन्तु द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ  नमो भगवते वासुदेवाय ) का चिन्तन करनेवाले अभीतक मोक्षपद से नही लौटे तामिस, अन्धतामिस्त्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसूत्र और अवीचिक आदि जो नरक है, वे वेदों की निंदा और यज्ञों का उच्छेद करनेवाले तथा स्वधर्म-विमुख पुरुषों के स्थान कहे गये हैं।

          "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे षष्ठोऽध्यायः"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )

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