{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का पन्द्रहवाँ व सोलहवाँ अध्याय}} {Fifteenth and sixteenth chapters of the entire Vishnu Purana (first part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(प्रथम अंश)
"पन्द्रहवाँ अध्याय"
"प्रचेताओं का मारिषा नामक कन्या के सात विवाह, दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति एवं दक्ष की आठ कन्याओं के वंश का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– प्रचेताओं के तपस्या में लगे रहने से [ कृषि आदिद्वारा ] किसी प्रकार की रक्षा न होने के कारण पृथ्वी को वृक्षोने ढँक लिया और प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो गयी || १ || आकाश वृक्षों से भर गया था | इसलिये दस हजार वर्षतक न तो वायु ही चला और न प्रजा ही किसी प्रकार की चेष्टा कर सकी || २ || जलसे निकलनेपर उन वृक्षों को देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अग्नि को छोड़ा || ३ || वायु ने वृक्षों को उखाड़-उखाडकर सुखा दिया और प्रचंड अग्नि ने उन्हें जला डाला | इसप्रकार उस समय वहाँ वृक्षों का नाश होने लगा || ४ ||
तब वह भयंकर वृक्ष ;– प्रलय देखकर थोड़े-से वृक्षों के रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रचेताओं के पास जाकर कहा – || ५ || ‘हे नृपतिगण ! आप क्रोध शांत कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनिये | मैं वृक्षों के साथ आपलोगों की संधि करा दूँगा || ६ || वृक्षों से उत्पन्न हुई सुंदर व्र्न्वाली रत्नस्वरूपा कन्या का मैंने पहले से ही भविष्य को जानकर अपनी [ अमृतमयी ] किरणों से पालन-पोषण किया है || ७ || वृक्षों की यह कन्या मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, वह महाभागा इसलिये ही उत्पन्न की गयी है कि निश्चय ही तुम्हारे वंशको बढानेवाली तुम्हारी भार्या हो || ८ || मेरे और तुम्हारे आधे-आधे तेजसे इसके परम विद्वान दक्ष नामक प्रजापति उत्पन्न होगा || ९ || वह तुम्हारे तेज के सहित मेरे अंश से युक्त होकर अपने तेज के कारण अग्नि के समान होगा और प्रजा की खूब वृद्धि करेगा || १० ||
पूर्वकाल में वेद्वेत्ताओं में श्रेष्ठ एक कंडू नामक मुनीश्वर थे | उन्होंने गोमती नदी के परम रमणीक तटपर घोर तप किया || ११ || तब इंद्र ने उन्हें तपोभ्रष्ट करने के लिये प्रम्लोचा नामकी उत्तम अप्सरा को नियुक्त किया | उस मझुहासिनोने उन ऋषिश्रेष्ठ को विचलित कर दिया || १२ || उसके द्वारा क्षुब्ध होकर वे सौ से भी अधिक वर्षतक विषयासक्त-चित्त से मन्दराचल की कन्दारा में रहे || १३ ||
तब, हे महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कंडू ऋषि से कहा – ‘हे ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्गलोक को जाना चाहती हूँ, आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दीजिये’ ||१४ || उसके ऐसा कहनेपर उसमे आसक्त चित्त हुए मुनिने कहा – ‘भद्रे ! अभी कुछ दिन और रहो’ ||१५ || उनके ऐसा कहनेपर उस सुन्दरी ने महात्मा कंडू ने साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना प्रकार के भोग भोगे || १६ || तब भी, उसके यह पुछ्नेपर कि ‘भगवन ! मुझे स्वर्गलोक को जाने की आज्ञा दीजिये’ ऋषीने यही कहा कि ‘अभी और ठहरो’ || १७ || तदनंतर सौ वर्ष से कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखी ने प्रणययुक्त मुसकान से सुशोभित वचनों में फिर कहा – ‘ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्ग को जाती हूँ’ || १८ || यह सुनकर मुनिने उस विशालाक्षी को आलिंगनकर कहा – ‘अयि सुश्रु ! अब तो तू बहुत दिनों के लिये चली जायगी इसलिये क्षणभर तो और ठहर’ || १९ || तब वह सुश्रोणी (सुंदर कमरवाली) उस ऋषि के साथ क्रीडा करती हुई दो सौ वर्ष से कुछ कम और रही || २० ||
हे महाभाग ! इसप्रकार जब-जब वह सुन्दरी देवलोक को जाने के लिये कहती तभी – तभी कंडू ऋषि उससे यही कहते कि ‘अभी ठहर जा’ ||२१ || मुनि के इसप्रकार कहनेपर, प्रणयभंग की पीड़ा को जाननेवाली उस दक्षिणाने [ दक्षिणा नायिका का लक्षण इसप्रकार कहा है – या गौरवं भयं प्रेम सद्भावं पूर्वनायके | न मुच्चल्यन्मसक्तापि सा ज्ञेया दक्षिणा वुधै: || अन्य नायक में आसक्त रहते हुए भी जो अपने पूर्व-नायक को गौरव, भय, प्रेम और सद्भाव के कारण न छोडती हो उसे ‘दक्षिणा’ जानना चाहिये | ] अपने दाक्षिन्यवश तथा मुनि के शापसे भयभीत होकर उन्हें न छोड़ा || २२ || तथा उन महर्षि महोदय का भी, कामासक्तचित्त से उसके साथ अहर्निश रमन करते-करते उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया || २३ ||
एक दिन वे मुनिवर बड़ी शीघ्रता से अपनी कुटी से निकले | उनके निकलते समय वह सुन्दरी बोली– ‘आप कहाँ जाते हैं’ || २४ || उसके इसप्रकार पुछ्नेपर मुनिने कहा – ‘हे शुभे ! दिन अस्त हो चूका है, इसलिये मैं संध्योपासना करूँगा; नहीं तो नित्य-क्रिया नष्ट हो जायगी ‘ || २५ || तब उस सुंदर दाँतोवाली ने उन मुनीश्वर ने हँसकर कहा – ‘हे सर्वधर्मज्ञ ! क्या आज ही आपका दिन अस्त हुआ है ? || २६ || हे विप्र ! अनेकों वर्षों के पश्चात आज आपका दिन अस्त हुआ है; इससे कहिये, किसको आश्चर्य न होगा ? ‘ || २७ ||
मुनि बोले ;– भद्रे ! नदी के इस सुंदर तटपर तुम आज सबेरे ही तो आयी हो | मैंने आज ही तुमको अपने आश्रम में प्रवेश करते देखा था || २८ || अब दिन के समाप्त होनेपर वह संध्याकाल हुआ है | फिर, सच तो कहो, ऐसा उपहास क्यों करती हो ? || २९ ||
प्रम्लोचा बोली ;– ब्रह्मन ! आपका यह कथन कि ‘तुम सबेरे ही आयी हो’ ठीक ही है, इसमें झूठ नहीं; परन्तु उस समय को तो आज सैकड़ों वर्ष बीत चुके || ३० ||
सोम ने कहा ;– तब उन विप्रवर ने उस विशालाक्षी से कुछ घबडाकर पूछा – ‘अरी भीरु ! ठीक – ठीक बता, तेरे साथ रमण करते मुझे कितना समय बीत गया ? ‘ || ३१ ||
प्रम्लोचा ने कहा ;– अबतक नौ सौ सात वर्ष, छ: महीने तथा तीन दिन और भी बीत चुके है || ३२ ||
ऋषि बोले ;– अयि भीरु ! यह तू ठीक कहती ही, या हे शुभे ! मेरी हँसी करती है ? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन रहा हूँ || ३३ ||
प्रम्लोचा बोली ;– हे ब्रह्मन ! आपके निकट मैं झूठ कैसे बोल सकती हूँ ? और फिर विशेषतया उस समय जब कि आज आप अपने धर्म-मार्ग का अनुसरण करने में तत्पर होकर मुझसे पूछ रहे है || ३४ ||
सोम ने कहा ;– हे राजकुमारों ! उसके ये सत्य वचन सुनकर मुनिने ‘मुझे धिक्कार है ! मुझे धिक्कार है ! ‘ ऐसा कहकर स्वयं ही अपने को बहुत कुछ भला-बुरा कहा || ३५ ||
मुनि बोले ;– ओह ! मेरा तप नष्ट हो गया, जो ब्रह्मवेत्ताओं का धन था वह लुट गया और विवेकबुद्धि मारी गयी | अहो ! स्त्री को किसीने मोह उपजाने के लिये ही रचा है ! ||३६ || ‘मुझे अपने मनको जीतकर छहों ऊर्मियों [ क्षुधा, पिपासा, लोभ, मोह, जरा और मृत्यु – ये छ: ऊर्मियाँ है ] से अतीत परब्रह्म को जानना चाहिये’ – जिसने मेरी इस प्रकार की बुद्धि को नष्ट कर दिया, उस कामरूपी महाग्रह को धिक्कार है || ३७ || नरकग्राम के मार्गरूप इस स्त्री के संग से वेदवेद्य भगवान की प्राप्ति के कारणरूप मेरे समस्त व्रत नष्ट हो गये || ३८ ||
इसप्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवर ने अपने – आप ही अपनी निंदा करते हुए वहाँ बैठी हुई उस अप्सरा से कहा – || ३९ || ‘अरी पापिनि ! अब तेरी जहाँ इच्छा हो चली जा, तूने अपनी भायभंगी से मुझे मोहित करके इंद्र का जो कार्य था वह पूरा कर लिया || ४० || मैं अपने क्रोधसे प्रज्वलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं करता हूँ , क्योंकि सज्जनों की मित्रता सात पग साथ रहने से हो जाती है और मैं तो तेरे साथ निवास कर चूका हूँ || ४१ || अथवा इसमें तेरा दोष भी क्या है, जो मैं तुझपर क्रोध करूँ ? दोष तो सारा मेरा ही है, क्योंकि मैं बड़ा ही अजितेन्द्रिय हूँ || ४२ || तू महामोह की पिटारी और अत्यंत निंदनिया है | हाय ! तूने इंद्र के स्वार्थ के लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी !! तुझे धिक्कार है !! || ४३ ||
सोम ने कहा ;– वे ब्रह्मर्षि उस सुन्दरी से जबतक ऐसा कहते रहे तबतक वह [भय के कारण ] पसीने में सराबोर होकर अत्यंत काँपती रही || ४४ || इसप्रकार जिसका समस्त शरीर पसीने में डूबा हुआ था और जो भय से थर-थर काँप रही थी उस प्रम्लोचा से मुनिश्रेष्ठ कंडू ने क्रोधपूर्वक कहा – ‘अरी ! तू चली जा ! चली जा !! || ४५ ||
तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रमसे निकली और आकाश-मार्गसे जाते हुए उसने अपना पसीना वृक्ष के पत्तों से पोंछा || ४६ || वह बाला वृक्षों के नवीन लाल- लाल पत्तोंसे अपने पसीने से तर शरीर को पोंछती हुई एक वृक्ष से दूसरे वृक्षपर चलती गयी || ४७ || उस समय ऋषीने उसके शरीर में जो गर्भ स्थापित किया था वह भी रोमांच से निकले हुए पसीने के रुपमे उसके शरीरसे बाहर निकल आया || ४८ || उस गर्भ को वृक्षों ने ग्रहण कर लिया, उसे वायु ने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी किरणों से उसे पोषित करने लगा | इससे वह धीरे –धीरे बढ़ गया || ४९ || वृक्षाग्र से उत्पन्न हुई वह मारिषा नामकी सुमुखी कन्या तुम्हे वृक्षगण समर्पण करेंगे | अत: अब यह क्रोध शांत करो || ५० || इसप्रकार वृक्षों से उत्पन्न हुई वह कन्या प्रम्लोचा की पुत्री है तथा कंडू मुनि की, मेरी और वायु की भी सन्तान है || ५१ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! साधुश्रेष्ठ भगवा कंडू भी तपके क्षीण हो जाने से पुरुषोत्तमक्षेत्र नामक भगवान विष्णु की निवास-भूमि को गये और हे राजपुत्रो ! वहाँ वे महायोगी एकनिष्ठ होकर एकाग्र चित्तसे ब्रह्मपार मन्त्र का जप करते हुए ऊर्ध्वबाहू रहकर श्रीविष्णुभगवान् की आराधना करने लगे || ५२ – ५३ ||
प्रचेतागण बोले ;– हम कंडू मुनिका ब्रहमपार नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए उन्होंने श्रीकेशव की आराधना की थी || ५४ ||
सोमने कहा ;– [हे राजकुमारों ! वह मन्त्र इस प्रकार है ] – ‘श्रीविष्णुभगवान् संसार-मार्ग की अंतिम अवधि है, उनका पार पाना कठिन है, वे पर (आकाशादि ) से भी पर अर्थात अनंत है, अत: सत्यस्वरूप है | तपोनिष्ठ महात्माओं को ही वे प्राप्त हो सकते है, क्योंकि वे पर (अनात्म-प्रपंच) से परे है तथा पर ( इन्द्रियों ) के अगोचर परमात्मा है और (भक्तों के ) पालक एवं [उनके अभीष्ट को] पूर्ण करनेवाले है || ५५ || वे कारण (पंचभूत) के कारण (पंचतन्मात्रा) के हेतु (तामस-अहंकार) और उसके भी हेतु (महत्तत्त्व) के हेतु (प्रधान)के भी परम हेतु है और इसप्रकार समस्त कर्म और कर्त्ता आदि के सहित कार्यरूप से स्थित सकल प्रपंच का पालन करते है || ५६ || ब्रह्म ही प्रभु है, ब्रह्म ही सर्वजीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजाका पति (रक्षक) तथा अविनाशी है | वह ब्रह्म अव्यय, नित्य और अजन्मा है तथा वही क्षय आदि समस्त विकारों से शून्य विष्णु है || ५७ || क्योंकि वह अक्षर, अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान विष्णु है, इसलिये मेरे राग आदि दोष शांत हो ‘ || ५८ ||
इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्र का जप करते हुए श्रीकेशव की आराधना करने से उन मुनीश्वर ने परमसिद्धि प्राप्त की || ५९ || [ जो पुरुष इस स्तव को नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषोंसे मुक्त होकर अपना मनोवांछित फल प्राप्त करता है | ]
अब मैं तुम्हे यह बताता हूँ कि यह मारिषा पूर्वजन्म में कौन थी | यह बता देने से तुम्हारे कार्य का गौरव सफल होगा | अर्थात तुम प्रजा-वृद्धिरूप फल प्राप्त कर सकोगे || ६० ||
यह साध्वी अपने पूर्व जन्म में एक महारानी थी | पुत्रहीन अवस्था में ही पति के मर जानेपर इस महाभागा ने अपने भक्तिभाव से विष्णुभगवान् को संतुष्ट किया || ६१ || इसकी आराधना से प्रसन्न हो विष्णुभगवान ने प्रकट होकर कहा – ‘हे शुभे ! वर माँग !’ तब इसने अपनी मनोभिलाषा इसप्रकार कह सुनायी || ६२ || ‘भगवन ! बाल-विधवा होने के कारण मेरा जन्म व्यर्थ हु हुआ | हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी हूँ कि फलहीन (पुत्रहीन) ही उत्पन्न हुई || ६३ || अत: आपकी कृपा से जन्म-जन्मों मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हो और प्रजापति (ब्रह्माजी) के समान पुत्र हो || ६४ || और हे अधोक्षज ! आपके प्रसाद से मैं भी कुल, शील, अवस्था, सत्य, दाक्षिन्य (कार्य-कुशलता), शीघ्रकारिता, अविसंवादिता (उल्टा न कहना), सत्त्व, वृद्धसेवा और कृतज्ञता आदि गुणों से तथा सुंदर रूपसम्पत्तिसे सम्पन्न और सबको प्रिय लगनेवाली अयोनिजा (माताके गर्भ से जन्म लिये बिना ) ही उत्पन्न होऊँ || ६५ -६६ ||
सोम बोले ;– उसके ऐसा कहनेपर वरदायक परमेश्वर देवाधिदेव श्रीह्रषीकेश ने प्रणाम के लिये झुकी हुई उस बाला को उठाकर कहा || ६७ ||
भगवान बोले ;– तेरे एक ही जन्म में बड़े पराक्रमी और विख्यात कर्मवीर दस पति होंगे और हे शोभने ! उसीसमय तुझे प्रजापति के समान एक महावीर्यवान एवं अत्यंत बल-विक्रमयुक्त पुत्र भी प्राप्त होगा || ६८ -६९ || वह इस संसार में कितने ही वंशों को चलानेवाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिलोकी में फ़ैल जायगी || ७० || तथा तू भी मेरी कृपासे उदाररूप –गुणसम्पन्ना, सुशीला और मनुष्यों के चित्त को प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही उत्पन्न होगी || ७१ || हे राजपुत्रो ! उस विशालाक्षी से ऐसा कह भगवान अन्तर्धान हो गये और वही यह मारिषा के रूपसे उत्पन्न हुई तुम्हारी पत्नी है || ७२ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– तब सोमदेव के कहने से प्रचेताओं ने अपना क्रोध शांत किया और इस मारिषा को वृक्षों से पत्नीरूप से ग्रहण किया || ७३ || उन दसों प्रचेताओं से मारिषा के महाभाग दक्ष प्रजपतिका जन्म हुआ, जो पहले ब्रह्माजी से उत्पन्न हुआ थे || ७४ ||
हे महामते ! उन महाभाग दक्षने, ब्रह्माजी की आज्ञा पालते हुए सर्ग-रचना के लिये उद्यत होकर उनकी अपनी सृष्टि बढाने और सन्तान उत्पन्न करने के लिये नीच-ऊँच तथा द्विपदचतुष्पद आदि नाना प्रकार के जीवों को पुत्ररूप से उत्पन्न किया || ७५ – ७६ || प्रजापति दक्ष ने पहले मनसे ही सृष्टि करके फिर स्त्रियों की उत्पत्ति की | उनमें से दस धर्म को और तेरह कश्यप को दी तथा काल-परिवर्तन में नियुक्त [अश्विनी आदि ] सत्ताईस चन्द्रमा को विवाह दीं || ७७ || उन्हींसे देवता, दैत्य, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा और दानव आदि उत्पन्न हुए || ७८ || हे मैत्रेय ! दक्ष के समय से ही प्रजाका मैथुन (स्त्री-पुरुष सम्बन्ध) द्वारा उत्पन्न होना आरम्भ हुआ है | उससे पहले तो अत्यंत तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषों के तपोबल से उनके संकल्प, दर्शन अथवा स्पर्शमात्र से ही प्रजा उत्पन्न होती थी || ७९ ||
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे महामुने ! मैंने तो सुना था कि दक्ष का जन्म ब्रह्माजी के दायें अँगूठे से हुआ था, फिर वे प्रचेताओं के पुत्र किसप्रकार हुए ? || ८० || हे ब्रह्मन ! मेरे ह्रदय में यह बड़ा संदेह है कि सोमदेव के दौहित्र (धेवते) होकर भी फिर वे उनके श्वसुर हुए ! || ८१ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! प्राणियों के उत्पत्ति और नाश [ प्रवाहरूप से ] निरंतर हुआ करते है | इस विषय में ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्टि – पुरुषों को कोई मोह नही होता || ८२ || हे मुनिश्रेष्ठ ! ये दक्षादि युग-युग में होते है और फिर लीन हो जाते हैं; इसमें विद्वान को किसी प्रकार का संदेह नहीं होता || ८३ || हे द्विजोत्तम ! इनमें पहले किसी प्रकार की ज्येष्ठता अथवा कनिष्ठता भी नहीं थी | उस समय तप और प्रभाव ही उनकी जेष्ठ्ता का कारण होता था || ८४ ||
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे ब्रह्मन ! आप मुझसे देव, दानव, गंधर्व, सर्प और राक्षसों की उत्पत्ति विस्तारपूर्वक कहिये ||८५ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी की ऐसी आज्ञा होनेपर कि ‘तुम प्रजा उत्पन्न करो’ दक्ष ने पूर्वकाल में जिसप्रकार प्राणियों की रचना की थी वह सुनो || ८६ || उस समय पहले तो दक्ष ने ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियों को ही उत्पन्न किया || ८७ || इसप्रकार रचना करते हुए जब उनकी वह प्रजा और न बढ़ी तो उन प्रजापति ने सृष्टि की वृद्धि के लिये मन में विचारकर मैथुनधर्म से नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से वीरण प्रजापति की अति तपस्विनी और लोकधारिणी पुत्री असिक्री से विवाह किया || ८८ – ८९ ||
तदनन्तर वीर्यवान प्रजापति दक्ष ने सर्ग की वृद्धि के लिये वीरणसुता असिक्रीसे पाँच सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये || ९० || उन्हें प्रजा-वृद्धि के इच्छुक देख प्रियवादी देवर्षि नारद ने उनके निकट जाकर इसप्रकार कहा – || ९१ || “हे महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगों की ऐसी चेष्टा प्रतीत होती है कि आप प्रजा उत्पन्न करेंगे, सो मेरा यह कथन सुनो || ९२ || खेद की बात है, तुम लोग अभी निरे अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथ्वी का मध्य, ऊर्ध्व (ऊपरी भाग) और अध: (नीचे के भाग) कुछ भी नहीं जानते, फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो, तुम्हारी गति इस ब्रह्मांड में ऊपर – नीचे और इधर – उधर सब ओर अप्रतिहत है; अत: हे अज्ञानियों ! तुम सब मिलकर इस पृथ्वी का अंत क्यों नही देखते ?” || ९३ – ९४ || नारदजी के ये वचन सुनकर वे सब भिन्न-भिन्न दिशाओं को चले गये और समुद्र में जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटती उसी प्रकार वे भी आजतक नही लौटे || ९५ ||
हर्यश्वों के इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओं के पुत्र दक्ष ने वैरुणी से एक सहस्त्र पुत्र और उत्पन्न किये || ९६ || वे शबलाश्वगण भी प्रजा बढाने के इच्छुक हुए, किन्तु हे ब्रह्मन ! उनसे नारदजी ने ही फिर पूर्वोक्त बाते कह दी | तब वे सब आपसमें एक-दूसरे से कहने लगे – ‘महामुनि नारदजी ठीक कहते है; हमको भी, इससे संदेह नहीं, अपने भाइयों के मार्ग का ही अवलम्बन करना चाहिये | हम भी पृथ्वी का परिणाम जानकर ही सृष्टि करेंगे |’ इसप्रकार वे भी उसी मार्ग से समस्त दिशाओं को चले गये और समुद्रगत नदियों के समान आजतक नही लौटे || ९७ – ९९ || हे द्विज ! तबसे ही यदि भाईको खोजने के लिये भाई ही जाय तो वह नष्ट हो जाता है, अत: विंझ पुरुष को ऐसा न करना चाहिये || १०० ||
महाभाग दक्ष प्रजापति ने उन पुत्रों को भी गये जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया || १०१ || हे मैत्रेय ! हमने सुना है कि फिर उस विद्वान प्रजापति ने सर्गवृद्धि की इच्छा से वैरुणी में साथ कन्याएँ उत्पन्न कीं || १०२ || उनमें से उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताईस सोम (चन्द्रमा) को और चार अरिष्टनेमि को दी || १०३ || तथा दो बहुपुत्र, दो अंगिरा और दो कृशाश्व को विवाहीं | अब उनके नाम सुनो || १०४ || अरुंधती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और विश्वा – ये दस धर्म की पत्नियाँ थीं; अब तुम इनके पुत्रों का विवरण सुनो || १०५ || विश्वा के पुत्र विश्वेदेवा थे, साध्या से साध्यगण हुए, मरुत्वती से मरुत्वान और वसु से वसुगण हुए तथा भानु से भानु और मुहूर्ता से मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए || १०६ || लम्बासे घोष, यामीसे नागवीथी और अरुंधती से समस्त पृथ्वी विषयक प्राणी हुए तथा संकल्पा से सर्वात्मक संकल्प की उत्पत्ति हुई || १०७ – १०८ ||
नाना प्रकार का वसु (तेज अथवा धन ) ही जिनका प्राण है ऐसे ज्योंति आदि जो आठ वसुगण विख्यात है, अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ || १०९ || उनके नाम आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल (वायु), अनल (अग्नि), प्रत्युष और प्रभास कहे जाते हैं || ११० || आपके पुत्र वैतंड, श्रम, शांत और ध्वनि हुए तथा ध्रुव के पुत्र लोक-संहारक भगवान काल हुए || १११ || भगवान वर्चा सोम के पुत्र थे जिनसे पुरुष वर्चस्वी (तेजस्वी) हो जाता है और धर्म के उनकी भार्या मनोहर से द्रविण, हट एवं हव्यवह तथा शिशिर, प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए || ११२- ११३ ||
अनिल की पत्नी शिवा थी; उससे अनिल के मनोजव और अविज्ञातगति – ये दो पुत्र हुए || ११४ || अग्नि के पुत्र कुमार शरस्तम्ब (सरकंडे) से उत्पन्न हुए थे, ये कृत्तिकाओं के पुत्र होने कार्तिकेय कहलाये | शाख, विशाख और नैगमेय इनके छोटे भाई थे || ११५ – ११६ || देवल नामक ऋषिको प्रत्युष का पुत्र कहा जाता है | इन देवल के भी दो क्षमाशील और मनीषी पुत्र हुए || ११७ ||
बृहस्पतिजी की बहिन वरस्त्री, जो ब्रह्मचारिणी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त-भाव से समस्त भूमंडल म विचरती थी, आठवे वसु प्रभास की भार्या हुई || ११८ || उससे सहस्त्रो शिल्पों (कारीगरियों ) के कर्ता और देवताओं के शिल्पी महाभाग प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ || ११९ || जो समस्त शिल्पकारों में श्रेष्ठ और सब प्रकार के आभूषण बनानेवाले हुए तथा जिन्होंने देवताओं के सम्पूर्ण विमानों की रचना की और जिन महात्मा की [आविष्कृता ] शिल्पविद्या के आश्रय से बहुत-से मनुष्य जीवन-निर्वाह करते है || १२० || उन विश्वकर्मा के चार पुत्र थे, उनके नाम सुनो | वे अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और परमपुरुषार्थी रूद्र थे | उनमें से त्वष्टा के पुत्र महातपस्वी विश्वरूप थे || १२१ || हे महामुने ! हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली – ये त्रिलोकी के अधीश्वर ग्यारह रूद्र कहे गये है | ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रूद्र प्रसिद्ध है || १२२ – १२३ ||
जो [ दक्षकन्याएँ ] कश्यपजी की स्त्रियाँ हुई उनके नाम सुनो – वे अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, स्त्रसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रु और मुनि थी | हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनकी सन्तान का विवरण श्रवण करो || १२४- १२५ ||
पूर्व (चाक्षुष ) मन्वन्तर में तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देवगण थे | वे यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर के पश्चात वैवस्वत-मन्वन्तर के उपस्थित होनेपर एक- दूसरे के पास जाकर मिले और परस्पर कहने लगे || १२६ – १२७ ||
‘हे देवगण ! आओ, हमलोग शीघ्र ही अदिति के गर्भ से प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तर में जन्म लें, इसीमें हमारा हित है’ || १२८ || इस प्रकार चाक्षुष-मन्वन्तर में निश्चयकर उन सबने मरीचिपुत्र कश्यपजी के यहाँ दक्षकन्या अदिति के गर्भ से जन्म लिया || १२९ || वे अति तेजस्वी उससे उत्पन्न होकर विष्णु, इंद्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान, सविता, मैत्र, वरुण, अंशु और भग नामक द्वादश आदित्य कहलाये || १३० – १३१ || इसप्रकार पहले चाक्षुष मन्वन्तर में जो तुषित नामक देवगण थे वे ही वैवस्वत मन्वन्तर में द्वादश आदित्य हुए || १३२ ||
सोम की जिन सत्ताईस सुव्रता पत्नियों के विषय में पहले कह चुके है वे सब नक्षत्रयोगिनी है और इन नामों से ही विख्यात है || १३३ || उन अति तेज्स्विनियों से अनेक प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न हुए | अरिष्टनेमिकी पत्नियों के सोलह पुत्र हुए | बुद्धिमान बहुपुत्र की भार्या [ कपिला, अतिलोहिता, पीता और अशिता नामक ] चार प्रकार की विद्युत् कही जाती है || १३४ – १३५ || ब्रह्मर्षियों से सत्कृत ऋचाओं के अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यंगिरा से उत्पन्न हुए है तथा शास्त्रों के अभिमानी देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाश्व की सन्तान कहे जाते है || १३६ || हे तात ! [ आठ वसु, ग्यारह रूद्र, बारह आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ] ये तैतीस वेदोक्त देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले है | कहते है, इस लोक में इनके उत्पत्ति और निरोध निरंतर हुआ करते है | ये एक हजार युग के अनन्तर पुन: पुन: उत्पन्न होते रहते है || १३७ – १३८ || हे मैत्रेय ! जिस प्रकार लोक में सूर्य के अस्त और उदय निरंतर हुआ करते हैं उसी प्रकार ये देवगण भी युग-युग में उत्पन्न होते रहते है || १३९ ||
हमने सुना है दिति के कश्यपजी के वीर्य से परम दुर्जय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हुई जो विप्रचिती को विवाही गयी || १४० – १४१ || हिरण्यकशिपु के अति तेजस्वी और महापराक्रमी अनुह्राद , ह्राद , बुद्धिमान प्रल्हाद और संह्राद नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यवंश को बढ़ानेवाले थे || १४२ ||
हे महाभाग ! उनमे प्रल्हादजी सर्वत्र समदर्शी और जितेन्द्रिय थे, जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान की परम भक्ति का वर्णन किया था || १४३ || जिनको दैत्यराजद्वारा दीप्त किये हुए अग्नि ने उनके सर्वांग में व्याप्त होकर भी, ह्रदय में वासुदेव भगवान के स्थित रहने से नही जला पाया || १४४ || जिन महाबुद्धिमान के पाशबद्ध होकर समुद्र के जल में पड़े – पड़े इधर – उधर हिलने – डुलने से सारी पृथ्वी हिलने लगी थी || १४५ || जिनका पर्वत के समान कठोर शरीर, सर्वत्र भगवंचित रहने के कारण दैत्यराज के चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रों से भी छिन्न-भिन्न नहीं हुआ || १४६ || दैत्यराजद्वारा प्रेरित विषाग्नि से प्रज्वलित मुखवाले सर्प भी जिन महातेजस्वी का अंत नहीं कर सके || १४७ || जिन्होंने भगवत्स्मरणरूपी कवच धारण किये रहने के कारण पुरुषोत्तम भगवान का स्मरण करते हुए पत्थरों की मार पड़नेपर भी अपने प्राणों को नहीं छोड़ा || १४८ || स्वर्गनिवासी दैत्यपतिद्वारा ऊपर से गिराये जानेपर जिन महामति को पृथ्वी ने पास जाकर बीचही में अपनी गोद में धारण कर लिया || १४९ || चित्त में श्रीमधुसुदनभगवान् के स्थित रहने से दैत्यराज का नियुक्त किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीर में लगने से शांत हो गया || १५० || दैत्येन्द्रद्वारा आक्रमण के लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजों के दाँत जिनके वक्ष:स्थल में लगने से टूट गये और उनका सारा मद चूर्ण हो गया || १५१ || पूर्वकाल में दैत्यराज के पुरोहितों की उत्पन्न की हुई कृत्या भी जिन गोविंदासक्तचित्त भक्तराज के अंत का कारण नहीं हो सकी || १५२ || जिनके ऊपर प्रयुक्त की हुई अति मायावी शम्बरासुर की हजारों मायाएँ श्रीकृष्णचन्द्र के चक्र से व्यर्थ हो गयी || १५३ || जिन मतिमान और निर्मत्सरने दैत्यराज के रसोइयों के लाये हुए हलाहल विष को निर्विकार भाव से पचा लिया || १५४ || जो इस संसार में समस्त प्राणियों के प्रति समानचित्त और अपने समान ही दूसरों के लिये भी परमप्रेमयुक्त थे || १५५ || और जो परम धर्मात्मा महापुरुष, सत्य एवं शौर्य आदि गुणों की खानि तथा समस्त साधू-पुरुषों के लिये उपमास्वरूप हुए थे || १५६ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे पंचदशोऽध्याय"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(प्रथम अंश)
"सोलहवाँ अध्याय"
"नृसिंहावतार विषयक प्रश्न"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– आपने महात्मा मनुपुत्रों के वंशों का वर्णन किया और यह भी बताया कि इस जगत के सनातन कारण भगवान विष्णु ही है || १ || किन्तु, भगवन ! आपने जो कहा कि दैत्यश्रेष्ठ प्रल्हादजी को न तो अग्नि ने ही भस्म किया और न उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों से आघात किये जानेपर ही अपने प्राणों को छोड़ा || २ || तथा पाशबद्ध होकर समुद्र के जल में पड़े रहनेपर उनके हिलते-डुलते हुए अंगों से आहत होकर पृथ्वी डगमगाने लगी || ३ || और शरीरपर पत्थरों की बौछार पड़नेपर भी वे नहीं मरे | इसप्रकार जिन महाबुद्धिमान का आपने बहुत ही माहात्म्य वर्णन किया है || ४ || हे मुने ! जिन अति तेजस्वी माहात्मा के ऐसे चरित्र है, मैं उन परम विष्णुभक्तका अतुलित प्रभाव सुनना चाहता हूँ || ५ || हे मुनिवर ! वे तो बड़े ही धर्मपरायण थे; फिर दैत्यों ने उन्हें क्यों अस्त्र-शस्त्रों से पीड़ित किया और क्यों समुद्र के जल में डाला ? || ६ || उन्होंने किसलिये उन्हें पर्वतों से दबाया ? किस कारण सर्पों से डंसाया ? क्यों पर्वतशिखर से गिराया और क्यों अग्नि से डलवाया ? || ७ || उन महादैत्यों ने उन्हें दिग्गजों के दाँतों से क्यों रूँधवाया और क्यों सर्वशोषक वायु को उनके लिये नियुक्त किया ? || ८ || हे मुने ! उनपर दैत्यगुरुओं ने किसलिये कृत्या का प्रयोग किया और शम्बरासुर ने क्यों अपनी सहस्त्रो मायाओं का वार किया ? || ९ || उन महात्मा को मारने के लिये दैत्यराज के रसोइयों ने, जिसे वे महाबुद्धिमान पचा गये थे ऐसा हलाहल विष क्यों दिया ? || १० ||
हे महाभाग ! महात्मा प्रल्हाद का यह सम्पूर्ण चरित्र, जो उनके महान माहात्म्य का सूचक है, मैं सुनना चाहता हूँ || ११ || यदि दैत्यगण उन्हें नही मार सके तो इसका मुझे कोई आश्चर्य नही है, क्योंकि जिसका मन अनन्यभाव से भगवान विष्णु में लगा हुआ है उसको भला कौन मार सकता है ? || १२ || जो नित्यधर्मपरायण और भगवदाराधना में तत्पर रहते थे, उनसे उनके ही कुल में उत्पन्न हुए दैत्यों ने ऐसा अति दुष्कर द्वेष किया ! || १३ || उन धर्मात्मा, महाभाग, मत्सरहीन विष्णु-भक्त को दैत्योंने किस कारण से इतना कष्ट दिया, सो आप मुझसे कहिये || १४ ||
महात्मालोग तो ऐसे गुण-सम्पन्न साधू पुरुषों के विपक्षी होनेपर भी उनपर किसी प्रकार का प्रहार नहीं करते, फिर स्वपक्ष में होनेपर तो कहना ही क्या है ? || १५ || इसलिये हे मुनिश्रेष्ठ ! यह सम्पूर्ण वृतांत विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये | मैं उन दैत्यराज का सम्पूर्ण चरित्र सुनना चाहता हूँ || १६ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे षोडशोऽध्याय"
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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