सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का सतरहवाँ व अठारहवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का सतरहवाँ व अठारहवाँ अध्याय}} {Fifteenth and sixteenth chapters of the entire Vishnu Purana (first part)}


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)


                            "सतरहवाँ अध्याय"

    "हिरण्यकशिपु का दिग्विजय और प्रल्हाद – चरित"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! उन सर्वदा उदारचरित परमबुद्धिमान महात्मा प्रल्हादजी का चरित्र तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो || १ || पूर्वकाल में दिति के पुत्र महाबली हिरण्यकशिपु ने, ब्रह्माजी के वर से गर्वयुक्त (सशक्त) होकर सम्पूर्ण त्रिलोकी को अपने वशीभूत कर लिया था || २ || वह दैत्य इन्द्रपद का भोग करता था | वह महान असुर स्वयं ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण और चन्द्रमा बना हुआ था || ३ || वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी था और वह असुर स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञ-भागों का भोगता था || ४ ||
हे मुनिसत्तम ! उसके भय से देवगण स्वर्ग को छोडकर मनुष्य-शरीर धारणकर भूमंडल में विचरते रहते थे || ५ || इसप्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकी को जीतकर त्रिभुवन के वैभव से गर्वित हुआ और गन्धर्वों से अपनी स्तुति सुनता हुआ वह अपने अभीष्ट भोगों को भोगता था || ६ ||

उससमय उस मद्यपानासक्त महाकाय हिरण्यकशिपु की ही समस्त सिद्ध, गन्धर्व और नाग आदि उपासना करते थे || ७ || उस दैत्यराज के सामने कोई सिद्धगण तो बाजे बजाकर उसका यशोगान करते और कोई अति प्रसन्न होकर जयजयकार करते || ८ || तथा वह असुरराज वहाँ स्फटिक एवं अभ्र-शिलाके बने हुए मनोहर महल में, जहाँ अप्सराओं का उत्तम नृत्य हुआ करता था, प्रसन्नता के साथ मद्यपान करता रहता था || ९ || उसका प्रल्हाद नामक महाभाग्यवान पुत्र था | वह बालक गुरु के यहाँ जाकर बालोचित पाठ पढने लगा || १० || एक दिन वह धर्मात्मा बालक गुरूजी के साथ अपने पिता दैत्यराज के पास गया जो उस समय मद्यपान में लगा हुआ था || ११ || तब, अपने चरणों में झुके हुए अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रल्हादजी को उठाकर पिता हिरण्यकशिपु ने कहा || १२ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– वत्स ! अबतक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमें सुनाओ || १३ ||

प्रल्हाद जी बोले ;– पिताजी ! मेरे मन में जो सबके सारांशरूप से स्थित है वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनिये || १४ || जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि – क्षय – शून्य और अच्युत है, समस्त कारणों के कारण तथा जगत के स्थिति और अंतकर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ || १५ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– यह सुन दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने क्रोध से नेत्र लाल कर प्रल्हाद के गुरु की ओर देखकर काँपते हुए ओठोंसे कहा || १६ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– रे दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा कर इस बालक को मेरे विपक्षी की स्तुति से युक्त असार शिक्षा दी है || १७ ||

गुरूजी ने कहा ;– दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत न होना चाहिये | आपका यह पुत्र मेरी सिखायी हुई बात नहीं कह रहा है || १८ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– बेटा प्रल्हाद ! बताओं तो तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरुजो कहते है कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया नही है || १९ ||

प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक है | उन परमात्मा को छोडकर और कौन किसीको कुछ सिखा सकता है ? || २० ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू मुझ जगदीश्वर के सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारंबार वर्णन करता है, वह कौन है ? || २१ ||

प्रल्हादजी बोले ;– योगियों के ध्यान करनेयोग्य जिसका परमपद वाणी का विषय नहीं हो सकता तथा जिससे विश्व प्रकट हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु है || २२ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे मूढ़ ! मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौत के मुख में जाने की इच्छा से बारंबार ऐसा बक रहा है || २३ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! वह ब्रह्मभूत विष्णु तो केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी कर्त्ता, नियंता और परमेश्वर है | आप प्रसन्न होइये, व्यर्थ क्रोध क्यों करते है || २४ ||

हिरण्यकशिपु बोले ;– अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालक के ह्रदय में घुस बैठा है जिससे आविष्टचित्त होकर यह ऐसे अमंगल वचन बोलता है ? || २५ ||

प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! वे विष्णुभगवान तो मेरे ही ह्रदय में नही, बल्कि सम्पूर्ण लोकों में स्थित है | वे सर्वगामी तो मुझको, आप सबको और समस्त प्राणियों को अपनी-अपनी चेष्टाओं में प्रवृत्त करते है || २६ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– इस पापीको यहाँ से निकालो और गुरु के यहाँ ले जाकर इसका भली प्रकार शासन करो | इस दुर्मति को न जाने किसने मेरे विपक्षी की प्रशंसा में नियुक्त कर दिया है || २७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– उसके ऐसा कहनेपर दैत्यगण उस बालक को फिर गुरूजी के यहाँ ले गये और वे वहाँ गुरूजी की रात-दिन भली प्रकार सेवा-शुश्रूषा करते हुए विद्याध्ययन करने लगे || २८ || बहुत काल व्यतीत हो जानेपर दैत्यराज ने प्रल्हादजी को फिर बुलाया और कहा – ‘बेटा ! आज कोई गाथा (कथा) सुनाओ’ || २९ ||

प्रल्हादजी बोले ;– जिनसे प्रधान, पुरुष और यह चराचर जगत उत्पन्न हुआ है वे सकल प्रपंच के कारण श्रीविष्णुभगवान हमपर प्रसन्न हो || ३० ||

हिरण्यकशिपु बोले ;– अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है ! इसको मार डालो; अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि स्वपक्ष की हानि करनेवाला होने से यह तो अपने कुल के लिये अंगाररूप हो गया है || ३१ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– उसकी ऐसी आज्ञा होनेपर सैकड़ो-हजारों दैत्यगण बड़े-बड़े अस्त्र – शस्त्र लेकर उन्हें मारने के लिये तैयार हुए || ३२ ||

प्रल्हादजी बोले ;– अरे दैत्यों ! भगवान विष्णु तो शस्त्रों में, तुमलोगों में और मुझमें – सर्वत्र ही स्थित है | इस सत्य के प्रभाव से इन अस्त्र-शस्त्रों का मेरी ऊपर कोई प्रभाव न हो || ३३ ||

श्रीपराशरजी ने कहा ;– तब तो उन सैकड़ो दैत्यों के शस्त्र-समूह का आघात होनेपर भी उनको तनिक-सी भी वेदना न हुई, वे फिर भी ज्यों- के – त्यों नवीन बल-सम्पन्न ही रहे || ३४ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– रे दुर्बुद्धे ! अब तू विपक्षी की स्तुति करना छोड़ दें; जा, मैं तुझे अभय-दान देता हूँ, अब और अधिक नादान मत हो || ३५ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! जिनके स्मरणमात्र से जन्म, जरा और मृत्यु आदि के समस्त भय दूर हो जाते है, उन सकल-भयहारी अनंत के ह्रदय के स्थित रहते मुझे भय कहाँ रह सकता है || ३६ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे सर्पो ! इस अत्यंत दुर्बुद्धि और दुराचारी को अपने विषाग्नि-संतप्त मुखों से काटकर शीघ्र ही नष्ट कर दो || ३७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रूर और विषधर तक्षक आदि सर्पों ने उनके समस्त अंगों में काटा || ३८|| किन्तु उन्हें तो श्रीकृष्णचन्द्र में आसक्त-चित्त रहने के कारण भगवत्स्मरण के परमानंद में डूबे रहने से उन महासर्पों के काटनेपर भी अपने शरीर की कोई सूचि नहीं हुई || ३९ ||

सर्प बोले ;– हे दैत्यराज ! देखो, हमारी दाधें टूट गयी, मणियाँ चटखने लगी, फणों में पीड़ा होने लगी और ह्रदय काँपने लगा, तथापि इसकी त्वचा तो जरा भी नही कटी | इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य बताइये || ४० ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– हे दिग्गजों ! तुम सब अपने संकीर्ण दाँतों को मिलाकर मेरे शत्रु-पक्षद्वारा मुझसे विमुख किये हुए इस बालक को मार डालो | देखो, जैसे अरणी से उत्पन्न हुआ अग्नि उसी को जला डालता है उसीप्रकार कोई-कोई जिससे उत्पन्न होते है उसी के नाश करनेवाले हो जाते हैं || ४१ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब पर्वत-शिखर के समान विशालकाय दिग्गजों ने उस बालक को पृथ्वीपर पटककर अपने दाँतों से खूब रौंदा || ४२ || किन्तु श्रीगोविंद का स्मरण करते रहेने से हाथियों के हजारों दाँत उनके वक्ष:स्थल से टकराकर टूट गये; तब उन्होंने पिता हिरण्यकशिपु से कहा || ४३ || ‘ये जो हाथियों के वज्र के समान कठोर दाँत टूट गये है इसमें मेरा कोई बल नहीं है, यह तो श्रीजनार्दनभगवान के महाविपत्ति और क्लेशों के नष्ट करनेवाले स्मरणका ही प्रभाव है’ || ४४ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे दिग्गजों ! तुम हट जाओ | दैत्यगण ! तुम अग्नि जलाओ, और हे वायु ! तुम अग्नि को प्रज्वलित करो जिससे इस पापी को जला डाला जाय || ४५ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब अपने स्वामी की आज्ञा से दानवगण काष्ठ के एक बड़े ढेर में स्थित उस असुर राजकुमार को अग्नि प्रज्वलित करके जलाने लगे || ४६ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! पवन से प्रेरित हुआ भी यह अग्नि मुझे नही जलाता | मुझ को तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती है मानो मेरे चारों और कमल बिछे हुए हो || ४७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तदनन्तर शुक्रजी के पुत्र बड़े वाग्मी महात्मा [ षंडामर्क आदि ] पुरोहितगण सामनीति से दैत्यराज की बड़ाई करते हुए बोले || ४८ ||

पुरोहित बोले ;– हे राजन ! अपने इस बालक पुत्र के प्रति अपना क्रोध शांत कीजिये; आपको तो देवताओंपर ही क्रोध करना चाहिये, क्योंकि उसकी सफलता तो वही है || ४९ || हे राजन ! हम आपके इस बालक को ऐसी शिक्षा देंगे जिससे यह विपक्ष के नाश का कारण होकर आपके प्रति अति विनीत हो जायगा || ५० || हे दैत्यराज ! बाल्यावस्था तो सब प्रकार के दोषों का आश्रय होती ही है, इसलिये आपको इस बालकपर अत्यंत क्रोध का प्रयोग नही करना चाहिये || ५१ || यदि हमारे कहने से भी यह विष्णु का पक्ष नहीं छोड़ेगा तो हम इसको नष्ट करने के लिये किसी प्रकार न टलनेवाली कृत्या उत्पन्न करेंगे || ५२ ||

श्रीपराशरजी कहा ;– पुरोहितों के इसप्रकार प्रार्थना करनेपर दैत्यराज ने दैत्योंद्वारा प्रल्हाद को अग्निसमूह से बाहर निकलवाया || ५३ || फिर प्रल्हादजी, गुरूजी के यहाँ रहते हुए उनके पढ़ा चुकनेपर अन्य दानवकुमारों को बार-बार उपदेश देने लगे || ५४ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे दैत्यकुलोत्पन्न असुर-बालको ! सुनो, मैं तुम्हें परमार्थ का उपदेश करता हूँ, तुम इसे अन्यथा न समझना, क्योंकि मेरे ऐसा कहने में किसी प्रकार का लोभादि कारण नहीं है || ५५ || सभी जीव जन्म, बाल्यावस्था और फिर यौवन प्राप्त करते हैं, तत्पश्चात दिन-दिन वृद्धावस्थाकी प्राप्ति भी अनिवार्य ही है || ५६ || और हे दैत्यराजकुमारो ! फिर यह जीव मृत्यु के मुख में चला जाता है, यह हम और तुम सभी प्रत्यक्ष देखते है || ५७ || मरनेपर पुनर्जन्म होता है, यह नियम भी कभी नहीं टलता | इस विषय में [ श्रुति-स्मृतिरूप ] आगम भी प्रमाण है कि बिना उपादान के कोई वस्तु उत्पन्न नही होती || ५८ || पुनर्जन्म प्राप्त करानेवाली गर्भवास आदि जितनी अवस्थाएँ है उन सबको दुःखरूप ही जानो || ५९ || मनुष्य मुर्खतावश क्षुधा, तृष्णा और शीतादिकी शान्ति को सुख मानते है, परन्तु वास्तव में तो वे दुःखमात्र ही है || ६० || जिनका शरीर [ वातादि दोष से ] अत्यंत शिथिल हो जाता है उन्हें जिसप्रकार व्यायाम सुखप्रद प्रतीत होता है उसीप्रकार जिनकी दृष्टि भ्रान्तिज्ञान से ढँकी हुई है उन्हें दुःख ही सुखरूप जान पड़ता है || ६१ || अहो ! कहाँ तो कफ आदि महाघृणित पदार्थों का समूहरूप शरीर और कहाँ कान्ति, शोभा, सौन्दर्य एवं रमणीयता आदि दिव्य गुण ? || ६२ || यदि किसी मूढ़ पुरुष की मांस, रुधिर, पीब, विष्ठा, मूत्र, स्नायु, मज्जा और अस्थियों के समूहरूप इस शरीर में प्रीति हो सकती है तो उसे नरक भी प्रिय लग सकता है || ६३ || अग्नि, जल और भात शीत, तृषा और क्षुधा के कारण ही सुखकारी होते है और इनके प्रतियोगी जल आदि भी अपने से भिन्न अग्नि आदि के कारण ही सुख के हेतु होते है || ६४ ||

हे दैत्यकुमारो ! विषयों का जितना-जितना संग्रह किया जाता है उतना – उतना ही वे मनुष्य के चित्त में दुःख बढाते है || ६५ || जीव अपने मन को प्रिय लगनेवाले जितने ही सम्बन्धों को बढाता जाता है उतने ही उसके ह्रदय में शोकरुपी शल्य स्थिर होते जाते है || ६६ || घर में जो कुछ धन-धान्यादि होते है मनुष्य के जहाँ-तहाँ रहनेपर भी वे पदार्थ उसके चित्त में बने रहते है और उनके नाश और दाह आदि की सामग्री भी उसी में मौजूद रहती है || ६७ || इस प्रकार जीते-जी तो यहाँ महान दुःख होता ही है, मरनेपर भी यम-यातनाओं का और गर्भ-प्रवेश का उग्र कष्ट भोगना पड़ता है || ६८ || यदि तुम्हे गर्भवास में लेशमात्र भी सुखका अनुमान होता हो तो कहो | सारा संसार इसी प्रकार अत्यंत दुःखमय है || ६९ || इसलिये दु:खों के परम आश्रय इस संसार-समुद्र में एकमात्र विष्णुभगवान ही आप लोगों की परमगति है – यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ || ७० ||

ऐसा मत समझो कि हम तो अभी बालक है, क्योंकि जरा, यौवन और जन्म आदि अवस्थाएँ तो देह के ही धर्म है, शरीरका अधिष्ठाता आत्मा तो नित्य है, उसमें यह कोई धर्म नहीं है || ७१ || जो मनुष्य ऐसी दुराशाओं से विक्षिप्तचित्त रहता है कि ‘अभी मैं बालक हूँ इसलिये इच्छानुसार खेल-कूद लूँ, युवावस्था प्राप्त होनेपर कल्याण-साधन का यत्न करूँगा |’ [ फिर युवा होंनेपर कहता है कि ] ‘अभी तो मैं युवा हूँ, बुढापे में आत्मकल्याण कर लूँगा |’ और [वृद्ध होनेपर सोचता है कि ] ‘अब मैं बुढा हो गया, अब तो मेरी इन्द्रियाँ अपने कर्मों में प्रवृत्त ही नही होती, शरीर के शिथिल हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ ? सामर्थ्य रहते तो मैंने कुछ किया ही नही |’ वह अपने कल्याण-पथपर कभी अग्रसर नही होता; केवल भोग-तृष्णा में ही व्याकुल रहता है || ७२ – ७४ || मुर्खलोग अपनी बाल्यावस्था में खेल – कूद में लगे रहते है, युवावस्था में विषयों में फँस जाते है और बुढापा आनेपर उसे असमर्थता के कारण व्यर्थ ही काटते हैं || ७५ || इसलिये विवेकी पुरुष को चाहिये कि देह की बाल्य, यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओं की अपेक्षा न करके बाल्यावस्था में ही अपने कल्याण का यत्न करें || ७६ ||

मैंने तुम लोगों से जो कुछ कहा है उसे यदि तुम मिथ्या नही समझते तो मेरी प्रसन्नता के लिये ही बंधन को छुटानेवाले श्रीविष्णुभगवान का स्मरण करो || ७७ || उनका स्मरण करने में परिश्रम भी क्या है ? और स्मरणमात्र से ही वे अति शुभ फल देते है तथा रात-दिन उन्हीं का स्मरण करनेवालों का पाप भी नष्ट हो जाता है ||७८ || उन सर्वभूतस्थ प्रभु में तुम्हारी बुद्धि अहर्निश लगी रहे और उनमें निरंतर तुम्हारा प्रेम बढ़े; इसप्रकार तुम्हारे समस्त क्लेश दूर हो जायँगे || ७९ ||

जब कि यह सभी संसार तापत्रय से दग्ध हो रहा है तो इन बेचारे शोचनीय जीवों से कौन बुद्धिमान द्वेष करेगा ? || ८० || यदि ‘और जीव तो आनंद में है, मैं ही परम शक्तिहीन हूँ’ तब भी प्रसन्न ही होना चाहिये, क्योंकि द्वेष का फल तो दुःखरूप ही है || ८१ || यदि कोई प्राणी वैरभाव से द्वेष भी करें तो विचारवानों के लिये तो वे ‘अहो ! ये महामोह से व्याप्त है |’ इसप्रकार अत्यंत शोचनीय ही है || ८२ ||

हे दैत्यगण ! ये मैंने भिन्न=भिन्न दृष्टिवालों के विकल्प कहे | अब उनका समन्वयपूर्वक संक्षिप्त विचार सुनो || ८३ || यह सम्पूर्ण जगत सर्वभूतमय भगवान विष्णु का विस्तार है, अत: विचक्षण पुरुषों को इसे आत्मा के समान अभेदरूप से देखना चाहिये || ८४ || इसलिये दैत्यभाव को छोडकर हम और तुम ऐसा यत्न करें जिससे शान्ति लाभ कर सके || ८५ || जो अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ, वरुण, सिद्ध, राक्षस, यक्ष, दैत्यराज, सर्प, किन्नर,मनुष्य, पशु और अपने दोषों से तथा ज्वर, नेत्ररोग, अतिसार, प्लीहा और गुल्म आदि रोगों से एवं द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, राग, लोभ और किसी अन्य भावसे भी कभी क्षीण नहीं होती, और जो सर्वदा अत्यंत निर्मल है उसे मनुष्य अमलस्वरूप श्रीकेशव में मनोंनिवेश करने से प्राप्त कर लेता है || ८६ – ८९ ||

हे दैत्यों ! मैं आग्रहपूर्वक कहता हूँ, तुम इस असार संसार के विषयों में कभी संतुष्ट मत होना | तुम सर्वत्र समदृष्टि करो, क्योंकि समता ही श्रीअच्युत की आराधना है || ९० || उन अच्युत के प्रसन्न होनेपर फिर संसार में दुर्लभ ही क्या है ? तुम धर्म, अर्थ और काम की इच्छा कभी न करना; वे तो अत्यंत तुच्छ है | उसे ब्रह्मरूप महावृक्षका आश्रय लेनेपर तो नि:संदेह [ मोक्षरूप ] महाफल प्राप्त कर लोगे || ९१ ||

          "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे सप्तदशोऽध्याय"


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)


                            "अठारहवाँ अध्याय"

 "प्रल्हाद को मारने के लिये विष, शस्त्र और अग्नि आदिका प्रयोग एवं प्रल्हादकृत भगवत – स्तुति"
श्रीपराशरजी बोले ;– उनकी ऐसी चेष्टा देख दैत्यों ने दैत्यराज हिरण्यकशिपु से डरकर उससे सारा वृतांत कह सुनाया, और उसने भी तुरंत अपने रसोइयों को बुलाकर कहा || १ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे सुदगण ! मेरा यह दुष्ट और दुर्मति पुत्र औरों को भी कुमार्ग का उपदेश देता है, अत: तुम शीघ्र ही इसे मार डालो || २ || तुम उसे उसके बिना जाने समस्त खाद्यपदार्थों में हलाहल विष मिलाकर दो और किसी प्रकार का शोच – विचार न कर उस पापी को मार डालो || ३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब उन रसोइयों ने महात्मा प्रल्हाद को, जैसी कि उनके पिताने आज्ञा दि थी उसी के अनुसार विष दे दिया || ४ || हे मैत्रेय ! तब वे उस घोर हलाहल विष को भगवान्नाम के उच्चारण से अभिमंत्रित कर अन्नके साथ खा गये || ५ || तथा भगवन्नाम के प्रभाव से निस्तेज हुए उस विष को खाकर उसे बिना किसी विकार के पचाकर स्वस्थ चित्तसे स्थित रहे || ६ || उस महान विष को पचा हुआ देख रसोइयों ने भय से व्याकुल हो हिरण्यकशिपुके पास जा उसे प्रणाम करके कहा || ७ ||

सूदगण बोले ;– हे दैत्यराज ! हमने आपकी आज्ञासे अत्यंत तीक्ष्ण विष दिया था, तथापि आपके पुत्र प्रल्हाद ने उसे अन्नके साथ पचा लिया || ८ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– हे पुरोहितगण ! शीघ्रता करो, शीघ्रता करो ! उसे नष्ट करने के लिये अब कृत्या उत्पन्न करो; और देरी न करो || ९ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब पुरोहितों ने अति विनीत प्रल्हाद से, उसके पास जाकर शान्तिपूर्वक कहा || १० ||

पुरोहित बोले ;– हे आयुष्मन ! तुम त्रिलोकी में विख्यात ब्रह्माजी के कुल में उत्पन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र हो || ११ || तुम्हे देवता अनंत अथवा और भी किसीसे क्या प्रयोजन है ? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकों के आश्रय है और तुम भी ऐसे ही होंगे || १२ || इसलिये तुम यह विपक्ष की स्तुति करना छोड़ दो | तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय है और वे ही समस्त गुरुओं में परम गुरु है || १३ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे महाभागगण ! यह ठीक ही है | इस सम्पूर्ण त्रिलोकी में भगवान मरीचि का यह महान कुल अवश्य ही प्रशंसनीय है | इसमें कोई कुछ भी अन्यथा नही कह सकता || १४ || और मेरे पिताजी भी सम्पूर्ण जगत में बहुत बड़े पराक्रमी है; यह भी मैं जानता हूँ | यह बात भी बिलकुल ठीक है, अन्यथा नहीं || १५ || और आपने जो कहा कि समस्त गुरुओं में पिता ही परम गुरु है – इसमें भी मुझे लेशमात्र संदेह नही है || १६ || पिताजी परम गुरु है और प्रयन्तपूर्वक पूजनीय है – इसमें कोई संदेह नहीं | और मेरे चित्त में भी यही विचार स्थित है कि मैं उनका कोई अपराध नही करूँगा || १७ || किन्तु आपने जो यह कहा कि ‘तुझे अनंत से क्या प्रयोजन है ?’ सो ऐसी बातको भला कौन न्यायोचित कह सकता है ? आपका यह कथन किसी भी तरह ठीक नहीं है || १८ ||

ऐसा कहकर वे उनका गौरव रखने के लिये चुप हो गये और फिर हँसकर कहने लगे – ‘तुझे अनंत में क्या प्रयोजन है ? इस विचार को धन्यवाद है || १९ || हे मेरे गुरुगण ! आप कहते है कि तुझे अनंत से क्या प्रयोजन है ? धन्यवाद है आपके इस विचारको | अच्छा, यदि आपको बुरा न लगे तो मुझे अनंत से जो प्रयोजन है सो सुनिये || २० || धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चार पुरुषार्थ कहे जाते है | ये चारों ही जिनसे सिद्ध होते है, उनसे क्या प्रयोजन ? – आपके इस कथन को क्या कहा जाय ! || २१ || उन अनंत से ही दक्ष और मरीचि आदि तथा अन्यान्य ऋषिश्वरों को धर्म, किन्ही अन्य मुनीश्वरों को अर्थ एवं अन्य किन्हीं को काम की प्राप्ति हुई है || २२ || किन्हीं अन्य महापुरुषों ने ज्ञान, ध्यान और समाधि के द्वारा उन्हीं के तत्त्व को जानकर अपने संसार-बंधन को काटकर मोक्षपद प्राप्त किया है || २३ || अत: सम्पत्ति, ऐश्वर्य, माहात्म्य, ज्ञान, सन्तति और कर्म तथा मोक्ष – इन सबकी एकमात्र मूल श्रीहरि की आराधना ही उपार्जनीय है || २४ || हे द्विजगण ! इसप्रकार, जिनसे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष – ये चारों ही फल प्राप्त होते है उनके लिये भी आप ऐसा क्यों कहते है कि ‘अनंत से तुझे क्या प्रयोजन है ? ‘ || २५ || और बहुत कहने से क्या लाभ ? आपलोग तो मेरे गुरु है; उचित-अनुचित सभी कुछ कह सकते है | और मुझे तो विचार भी बहुत ही कम है || २६ || इस विषय में अधिक क्या कहा जाय ? सबके अंत:करणों में स्थित एकमात्र वे ही संसार के स्वामी तथा उसके रचयिता, पालक और संहारक है || २७ || वे ही भोक्ता और भोज्य तथा वे ही एकमात्र जगदीश्वर है | हे गुरुगण ! मैंने बाल्यभाव से यदि कुछ अनुचित कहा हो तो आप क्षमा करने’ || २८ ||

पुरोहितगण बोले ;– अरे बालक ! हमने तो यह समझकर कि तू फिर ऐसी बात न कहेगा तुझे अग्नि में जलने से बचाया है | हम यह नही जानते थे कि तू ऐसा बुद्धिहीन है ? || २९ || रे दुर्मते ! यदि तू हमारे कहने से अपने इस मोहमय आग्रह को नही छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करने के लिये कृत्या उत्पन्न करेंगे || ३० ||

प्रल्हादजी बोले ;– कौन जीव किससे मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है ? शुभ और अशुभ आचरणों के द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा और नाश करता है || ३१ || कर्मों के कारण ही सब उत्पन्न होते है और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गतियों के साधन है | इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुभकर्मों का ही आचरण करना चाहिये || ३२ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– उनके ऐसा कहनेपर उन दैत्यराज के पुरोहितों ने क्रोधित होकर अग्निशिखा के समान प्रज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दि || ३३ || उस अति भयंकरी ने अपने पादाघात से पृथ्वी को कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रल्हादजी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया || ३४ || किन्तु उस बालक के वक्ष:स्थल में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और वहाँ गिरने से भी उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये || ३५ || जिस ह्रदय से निरंतर अक्षुण्णभाव से श्रीहरिभगवान् विराजते हैं उसमें लगने से तो वज्र के भी टूक – टूक हो जाते है, त्रिशूल की तो बात ही क्या है ? || ३६ ||

उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालकपर कृत्या का प्रयोग किया था; इसलिये तुरंत ही उसने उनपर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गयी || ३७ || अपने गुरुओं को कृत्याद्वारा जलाये जाते देख महामति प्रल्हाद ‘ हे कृष्ण ! रक्षा करो ! हे अनंत ! बचाओ !’ ऐसा कहते हुए उनकी ओर दौड़े || ३८ ||

प्रल्हादजी कहने लगे ;– हे सर्वव्यापी, विश्वरूप, विश्वस्त्रष्टा जनार्दन ! इन ब्राह्मणों की इस मंत्राग्निरूप दु:सह दुःख से रक्षा करो || ३९ || ‘सर्वव्यापी जगद्गुरु भगवान विष्णु सभी प्राणियों में व्याप्त है’ – इस सत्य के प्रभाव से ये पुरोहितगण जीवित हो जायें || ४० || यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षय श्रीविष्णुभगवान को अपने विपक्षियों में भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ || ४१ || जो लोग मुझे मारने के लिये आये, जिन्होंने मुझे विष दिया, जिन्होंने आग में जलाया, जिन्होंने दिग्गजों से पीड़ित कराया और सर्पों से डँसाया उन सबके प्रति यदि मैं समान मित्रभाव से रहा हूँ और मेरी कभी पापबुद्धि नहीं हुई तो उस सत्य के प्रभाव से ये दैत्यपुरोहित जी उठे || ४२ – ४३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– ऐसा कहकर उनके स्पर्श करते ही वे ब्राह्मण स्वस्थ होकर उठ बैठे और इस विनयावनत बालक से कहने लगे || ४४ ||

पुरोहितगण बोले ;– हे वत्स ! तू बड़ा श्रेष्ठ है | तू दीर्घायु, निर्द्वन्द, बल-वीर्यसम्पन्न तथा पुत्र, पौत्र एवं धन-ऐश्वर्यादि से सम्पन्न हो || ४५ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! ऐसा कह पुरोहितों ने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पास जा उसे सारा समाचार ज्यों-का-त्यों सुना दिया || ४६ ||

           "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे अष्टोदशोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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