सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का तेरहवाँ व चौदहवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का तेरहवाँ व चौदहवाँ अध्याय}} {Thirteenth and fourteenth chapters of the entire Vishnu Purana (first part)}


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)

                            "तेरहवाँ अध्याय"

                 "राजा वेन और पृथु का चरित्र"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! ध्रुव से [उसकी पत्नी] शिष्टि और भव्य को उत्पन्न किया और भव्य से शम्भु का जन्म हुआ तथा शिष्टि के द्वारा उसकी पत्नी सुच्छाया ने रिपु, रिपुज्जय, विप्र, वृकल और वृकतेजा नामक पाँच निष्पाप पुत्र उतन्न किये | उनमे से रिपु के द्वारा बृहती के गर्भ से महातेजस्वी चाक्षुष का जन्म हुआ || १ – २ || चाक्षुष ने अपनी भार्या पुश्करणी से, जो वरुण-कुल में उत्पन्न और महात्मा वीरण प्रजापति की पुत्री थी, मनु को उत्पन्न किया [ जो छठे मन्वन्तर के अधिपति हुए ] || ३ || तपस्वियों में श्रेष्ठ मनुसे वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला के कुरु, पुरु, शतध्युम्र, तपस्वी, सत्यवान, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र तथा नवाँ सुद्युम्र और दसवाँ अभिमन्यु इन महातेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ || ५ || कुरु के द्वारा उसकी पत्नी आग्रेयी ने अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और शिबि इन छ: परम तेजस्वी पुत्रों को उत्पन्न किया || ६ || अंग से सुनीथा के वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | ऋषियों ने उस (वेन) जे दाहिने हाथ का सन्तान के लिये मंथन किया था || ७ || हे महामुने ! वेनके हाथ का मंथन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपाल उत्पन्न हुए जो पृथु नामसे विख्यात है और जिन्होंने प्रजा के हित के लिये पूर्वकाल में पृथ्वी को दुहा था || ८ – ९ ||

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ ! परमर्षियोने वेन के हाथ को क्यों मथा जिससे महापराक्रमी पृथु का जन्म हुआ ? || १० ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मुने ! मृत्यु की सुनीथा नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अंग को पत्नीरूप से दी (व्याही) गयी थी | उसीसे वेन का जन्म हुआ || ११ || हे मैत्रेय ! वह मृत्यु की कन्याका पुत्र अपने मातामह (नाना) के दोष से स्वभाव से ही दुष्टप्रकृति हुआ || १२ || उस वेनका जिस समय महर्षियोंद्वारा राजपदपर अभिषेक हुआ उसी समय उस पृथ्वीपति ने संसारभर में यह घोषणा कर दी कि ‘भगवान, यज्ञपुरुष मैं ही हूँ, मुझसे अतिरिक्त यज्ञ का भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है ? इसलिये कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करे ‘ || १३ – १४ || हे मैत्रेय ! तब ऋषियों ने उस पृथ्वीपति के पास उपस्थित हो पहले उसकी खूब प्रशंसा कर सांत्वनायुक्त मधुर वाणी से कहा || १५ ||

ऋषिगण बोले ;– हे राजन ! हे पृथ्वीपते ! तुम्हारे राज्य और देह के उपकार तथा प्रजा के हित के लिये हम जो बात कहते है, सुनो || १६ || तुम्हारा कल्याण हो; देखो, हम बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा जो सर्व-यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान हरि का पूजन करेंगे उसके फल में से तुमको भी भाग मिलेगा || १७ || हे नृप ! इस प्रकार यज्ञों के द्वारा यज्ञपुरुष भगवान विष्णु प्रसन्न होकर हमलोगों के साथ तुम्हारी भी सफल कामनाएँ पूर्ण करेंगे || १८ || हे राजन जिन राजाओं के राज्य में यज्ञेश्वर भगवान हरि का यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है, वे उनकी सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं || १९ ||

वेन बोला ;– मुझसे भी बढकर ऐसा और कौन है जो मेरा भी पूजनीय है ? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वह ‘हरि’ कहलानेवाला कौन है ? || २० || ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, इंद्र, वायु , यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, पूषा, पृथ्वी और चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और कृपा करने में समर्थ है वे सभी राजा के शरीर में निवास करते हैं, इसप्रकार राजा सर्वदेवमय है || २१ – २२ || हे ब्राह्मणों ! ऐसा जानकर मैंने जैसी जो कुछ आज्ञा की है वैसा ही करो | देखो, कोई भी दान, यज्ञ और हवन आदि न करे || २३ || हे द्विजगण ! स्त्री का परमधर्म जैसे अपने पति की सेवा करना ही माना गया है वैसे ही आपलोगों का धर्म भी मेरी आज्ञा का पालन करना ही है || २४ ||

ऋषिगण बोले ;– महाराज ! आप ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे धर्म का क्षय न हो | देखिये, यह सारा जगत हवि का ही परिणाम है || २५ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– महर्षियों के इस प्रकार बारंबार समझाने और कहने-सुननेपर भी जब वेन ने ऐसी आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यंत क्रुद्ध और अमर्षयुक्त होकर आपस में कहने लगे – ‘इस पापी को मारो, मारो ! || २६ – २७ || जो अनादि और अनंत यज्ञपुरुष प्रभु विष्णु की निंदा करता है वह अनाचारी किसी प्रकार पृथ्वीपति होने के योग्य नहीं है’ || २८ || ऐसा कह मुनिगणों ने, भगवान् की निंदा आदि करने के कारण पहले ही मरे हुए उस राजा को मन्त्र से पवित्र किये हुए कुशाओं से मार डाला || २९ ||

हे द्विज ! तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने सब ओर बड़ी धूलि उठती देखी, उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती लोगोसे पूछा – ‘ यह क्या है ? ‘ || ३० || उन परुषों ने कहा – ‘राष्ट्र के राजाहीन हो जाने से दीन-दु:खिया लोगों ने चोर बनकर दूसरों का धन लूटना आरम्भ कर दिया है || ३१ || हे मुनिवरो ! उन तीव्र वेगवाले परधनहारी चोरों के उत्पात से ही यह बड़ी भारी धूलि उडती दीख रही है’ || ३२ ||

तब उन सब मुनीश्वरों ने आपस में सलाह कर उस पुत्रहीन राजा की जंघा का पुत्र के लिये यत्नपूर्वक मंथन किया || ३३ || उसकी जंघा के मथनेपर उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो जले ठूँठ के समान काला, अत्यंत नाटा और छोटे मुखवाला था || ३४ || उसने अति आतुर होकर उन सब ब्राह्मणों से कहा – ‘मैं क्या करूँ ? ‘ उन्होंने कहा – ‘निषीद (बैठ) ‘ अत: वह ‘निषाद’ कहलाया ||३५ || इसलिये हे मुनिशार्दुल ! उससे उत्पन्न हुए लोग विंधाचलनिवासी पाप-परायण निषादगण हुए || ३६ || उस निषादरूप द्वार से राजा वेन का सम्पूर्ण पाप निकल गया | अत: निषादगण वेन के पापों का नाश करने वाले हुए || ३७ ||

फिर उन ब्राह्मणों ने उसके दायें हाथ का मंथन किया | उसका मंथन करने से परमप्रतापी वेनसुवन पृथु प्रकट हुए, जो अपने शरीर से प्रज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान थे || ३८ – ३९ || इसी समय आजगव नामक आद्य (सर्वप्रथम) शिव-धनुष और दिव्य वाण तथा कवच आकाश से गिरे || ४० || उनके उत्पन्न होने से सभी जीवों को अति आनंद हुआ और केवल सत्पुत्र के ही जन्म लेने से वेन भी स्वर्गलोक को चला गया | इसप्रकार महात्मा पुत्र के कारण ही उसकी पुम अर्थात नरक से रक्षा हुई || ४१ – ४२ ||

महाराज पृथु के अभिषेक के लिये सभी समुद्र और नदियाँ सब प्रकार के रत्न और जल लेकर उपस्थित हुए || ४३ || उस समय आंगिरस देवगणों के सहित पितामह ब्रह्माजी ने और समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों ने वहाँ आकर महाराज वैन्य (वेनपुत्र ) का राज्याभिषेक किया || ४४ || उनके दाहिने हाथ में चक्र का चिन्ह देखकर उन्हें विष्णु का अंश जान पितामह ब्रह्माजी को परम आनंद हुआ || ४५ || यह श्रीविष्णुभगवान के चक्र का चिन्ह सभी चक्रवर्ती राजाओं के हाथ में हुआ करता है | उनका प्रभाव कभी देवताओं से भी कुंठित नही होता || ४६ ||

इसप्रकार महातेजस्वी और परम प्रतापी वेनपुत्र धर्मकुशल महानुभावोंद्वारा विधिपूर्वक अति महान राजराजेश्वरपद पर अभिषिक्त हुए || ४७ || जिस प्रजा को पिताने अपरक्त (अप्रसन्न) किया था उसीको उन्होंने अनुरंजित (प्रसन्न) किया, इसलिये अनुरंजन करने से उनका नाम ‘राजा’ हुआ || ४८ || जब वे समुद्र में चलते थे, तो जल बहने से रुक जाता था, पर्वत उन्हें मार्ग देते थे और उनकी ध्वजा कभी भंग नही हुई || ४९ || पृथ्वी बिना जोते-बोये धान्य पकानेवाली थी; केवल चिन्तनमात्र से ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गौएँ कामधेनुरूपा थीं और पत्ते-पत्ते में मधु भरा रहता था || ५० ||

राजा पृथु ने उत्पन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया; उससे सोमाभिषक के दिन सूति (सोमाभिषवभूमि) से महामति सूत की उत्पत्ति हुई || ५१ || उसी महायज्ञ में बुद्धिमान मागध का भी जन्म हुआ | तब मुनिवरों ने उन दोनों सूत और मागधों से कहा || ५२ || ‘तुम इन प्रतापवान वेनपुत्र महाराज पृथु की स्तुति करो | तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्तुति के ही योग्य है’ || ५३ || तब उन्होंने हाथ जोडकर सब ब्राह्मणों से कहा – ‘ ये महाराज तो आज ही उत्पन्न हुए है, हम इनके कोई कर्म तो जानते ही नहीं है || ५४ || अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए है और न यश ही विख्यात हुआ है; फिर कहिये, हम किस आधारपर इनकी स्तुति करें’ || ५५ ||

ऋषिगण बोले ;– ये महाबली चक्रवर्ती महाराज भविष्य में जो- जो कर्म करेंगे और इनके जो – जो भावी गुण होंगे उन्हीं से तुम इनका स्तवन करो || ५६ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– यह सुनकर राजा को भी परम संतोष हुआ, उन्होंने सोचा ‘ मनुष्य सद्गुणों के कारण ही प्रशंसा का पात्र होता है; अत: मुझ को भी गुण उपार्जन करने चाहिये || ५७ | इसलिये अब स्तुति के द्वारा ये जिन गुणों का वर्णन करेंगे मैं भी सावधानतापूर्वक वैसा ही करूँगा || ५८ || यदि यहाँपर वे कुछ त्याज्य अवगुणों को भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागूँगा |’ इसप्रकार राजा ने अपने चित्त में निश्चय किया || ५९ || तदनन्तर उन (सूत और मागध ) दोनों ने परम बुद्धिमान वेननन्दन महाराज पृथुका, उनके भावी कर्मों के आश्रय से स्वरसहित भली प्रकार स्तवन किया || ६० || ‘ये महाराज सत्यवादी, दानशील, सत्यमर्यादावाले, लज्जाशील, सुह्रद, क्षमाशील, पराक्रमी और दुष्टों का दमन करनेवाले है || ६१ || ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान, प्रियभाषी, माननीयों को मान देनेवाले, यज्ञपरायण, ब्रह्मण्य, साधूसमाज में सम्मानित और शत्रु तथा मित्र के साथ समान व्यवहार करनेवाले हैं || ६२ – ६३ || इसप्रका सूत और मागध के कहे हुए गुणों को उन्हों अपने चित्त में धारण किया और उसी प्रकार के कार्य किये || ६४ || तब उन पृथ्वीपति ने पृथ्वी का पालन करते हुए बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले महान यज्ञ किये || ६५ || अराजकता के समय ओषधियों के नष्ट हो जानेसे भूख से व्याकुल हुई प्रजा पृथ्वीनाथ पृथु के पास आयी और उनके पूछनेपर प्रणाम करके उनसे अपने आनेका कारण निवेदन किया || ६६ ||

प्रजाने कहा ;– हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकता के समय पृथ्वी ने समस्त ओषधियाँ अपने में लीन कर ली है, अत: आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही है || ६७ || विधाता ने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है; अत: क्षुधारूप महारोग से पीड़ित हम प्रजाजनों को आप जीवनरूप ओषधि दीजिये || ६८ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– यह सुनकर महाराज पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्य बाण लेकर अत्यंत क्रोधपूर्वक पृथ्वी के पीछे दौड़े || ६९ || तब भय से अत्यंत व्याकुल हुई पृथ्वी गौ का रूप धारणकर भागी और ब्रह्मलोक आदि सभी लोकों में गयी || ७० || समस्त भूतों को धारण करनेवाली पृथ्वी जहाँ-जहाँ भी गयीं वहीँ – वहीँ उसने वेनपुत्र पृथु को शस्त्र-संधान किये अपने पीछे आते देखा || ७१ || तब इन प्रबल पराक्रमी महाराज पृथु से, उनके वाणप्रहार से बचने की कामना से काँपती हुई पृथ्वी इसप्रकार बोली || ७२ ||

पृथ्वी ने कहा ;– हे राजेन्द्र ! क्या आपको स्त्री-वधका महापाप नहीं दीख पड़ता, जो मुझे मारनेपर आप ऐसे उतारू हो रहे हैं ? || ७३ ||

पृथु बोले ;– वहाँ एक अनर्थकारी को मार देने से बहुतों को सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पुण्यप्रद है || ७४ ||

पृथ्वी बोली ;– हे नृपश्रेष्ठ ! यदि आप प्रजा के हित के लिये ही मुझे मारना चाहते है तो आपकी प्रजा का आधार क्या होगा ? || ७५ ||

पृथु ने कहा ;– अरी वसुधे ! अपनी आज्ञा का उल्लंघन करनेवाली तुझे मारकर मैं अपने योगबल से ही इस प्रजा को धारण करूँगा || ७६ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब अत्यंत भयभीत एवं काँपती हुई पृथ्वी ने उन पृथ्वीपति को पुन: प्रणाम करके कहा || ७७ ||

पृथ्वी बोली ;– हे राजन ! यत्नपूर्वक आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं | अत: मैं भी आपको एक उपाय बताती हूँ; यदि आपकी हो तो वैसा ही करें || ७८ || हे नरनाथ ! मैंने जिन समस्त औषधियों को पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूप से मैं दे सकती हूँ || ७९ || अत: हे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज ! आप प्रजा के हित के लिये कोई ऐसा वत्स (बछड़ा) बनाइये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूप से निकाल सकूँ || ८० || और मुझ को आप सर्वत्र समतल कर दीजिये जिससे मैं उत्तमोत्तम ओषधियों के बीजरूप दुग्ध को सर्वत्र उत्पन्न कर सकूँ || ८१ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब महाराज पृथु ने अपने धनुष की कोटि से सैकड़ो हजारों पर्वतों को उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर इकठ्ठा कर दिया || ८२ || इससे पूर्व पृथ्वी के समतल न होने से पुर और ग्राम आदि का कोई नियमित विभाग नही था || ८३ || हे मैत्रेय ! उससमय अन्न, गोरक्षा, कृषि और व्यापार का भी कोई क्रम न था | यह सब तो वेनपुत्र पृथु के समय से ही आरम्भ हुआ है || ८४ || हे द्विजोत्तम ! जहाँ – जहाँ भूमि समतल थी वहीँ –वहीपर प्रजाने निवास करना पसंद किया || ८५ || उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल मुलादि ही था; यह भी ओषधियों के नष्ट हो जाने से बड़ा दुर्लभ हो गया था || ८६ ||

तब पृथ्वीपति पृथु ने स्वायम्भुवमनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ में ही पृथ्वी से प्रजा के हित के लिये समस्त धान्यों को दुहा | हे तात ! उसी अन्न के आधार से अब भी सदा प्रजा जीवित रहती है || ८७ – ८८ || महाराज पृथु प्राणदान करने के कारण भूमि के पिता हुए, [ जन्म देनेवाला, यज्ञोपवीत करानेवाला, अन्नदाता, भय से रक्षा करनेवाला तथा जो विद्यादान करे – ये पाँचो पिता माने गये है | ] इसलिये उस सर्वभूतधारिणी को ‘पृथ्वी’ नाम मिला || ८९ ||

हे मुने ! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत, गन्धर्व, सर्प, यक्ष और पितृगण आदि ने अपने-अपने पात्रों में अपना अभिमत दूध दुहा तथा दुहानेवालों के अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए || ९० – ९१ || इसीलिये विष्णुभगवान के चरणों से प्रकट हुई यह पृथ्वी ही सबको जन्म देनेवाली, बनानेवाली तथा धारण और पोषण करनेवाली हैं || ९२ || इस प्रकार पूर्वकाल में वेन के पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली और वीर्यवान हुए | प्रजा का रंजन करने के कारण वे ‘राजा’ कहलाये || ९३ ||

जो मनुष्य महाराज पृथु के इस चरित्र का कीर्तन करता हैं उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नही होता || ९४ || पृथु का यह अत्युत्तम जन्म-वृतांत और उनका प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषों के दु:स्वप्नों को सर्वदा शांत कर देता हैं || ९५ ||

           "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे त्रयोदशोऽध्याय"


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)

                            "चौदहवाँ अध्याय"

    "प्राचीनबर्हिका जन्म और प्रचेताओं का भगवदाराधन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! पृथु के अन्तर्ध्दान और वादी नामक दो धर्मज्ञ पुत्र हुए; उनमें से अन्तर्ध्दान से उसकी पत्नी शिखंडीनीने हविर्धान को उत्पन्न किया || १ || हविर्धान से अग्निकुलीना धिषणा ने प्राचीनबर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, वृज और अजिन – ये छ: पुत्र उत्पन्न किये || २ || हे महाभाग ! हविर्धान से उत्पन्न हुए भगवान प्राचीनबर्हि एक महान प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञ के द्वारा अपनी प्रजाकी बहुत वृद्धि की || ३ || हे मुने ! उनके समय में [ यज्ञानुष्ठान की अधिकता के कारण] प्राचिनाग्र कुश समस्त पृथ्वी में फैले हुए थे, इसलिये वे महाबली ‘प्राचीनबर्हि’ नामसे विख्यात हुए || ४ ||

हे महामते ! उन महीपति ने महान तपस्या के अनन्तर समुद्र को पुत्री सवर्णासे विवाह किया || ५ || उस समुद्रकन्या सवर्णा के प्राचीनबर्हि से दस पुत्र हुए | वे प्रचेता नामक सभी पुत्र धनुर्विद्या के पारगामी थे || ६ || इन्होने समुद्र के जल में रहकर दस हजार वर्षतक समान धर्म का आचरण करते हुए घोर तपस्या की || ७ ||

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे महामुने ! उन महात्मा प्रचेताओं ने जिस लिये समुद्र के जल में तपस्या की थी सो आप कहिये || ८ ||

श्रीपराशरजी कहने लगे ;– हे मैत्रेय ! एक बार प्रजापति की प्रेरणा से प्रचेताओं के महात्मा पिता प्राचीनबर्हि ने उनसे अति सम्मानपूर्वक संतानोत्पत्ति के लिये इसप्रकार कहा || ९ ||

प्राचीनबर्हि बोले ;– हे पुत्रो ! देवाधिदेव ब्रह्माजी ने मुझे आज्ञा दि है कि ‘तुम प्रजाकी वृद्धि करो’ और मैंने भी उनसे ‘बहुत अच्छा’ कह दिया है || १० || अत: हे पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नता के लिये सावधानतापूर्वक प्रजाकी वृद्धि करो, क्योंकि प्रजापति की आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है || ११ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मुने ! उन राजकुमारों ने पिता के ये वचन सुनकर उनसे ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर फिर पूछा ||१२ ||

प्रचेता बोले ;– हे तात ! जिस कर्म से हम प्रजावृद्धि में समर्थ हो सकें उसकी आप हमसे भली प्रकार व्याख्या कीजिये || १३ ||

पिताने कहा ;– वरदायक भगवान विष्णु की आराधना करने से ही मनुष्यको नि:संदेह इष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है और किसी उपाय से नही | इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ || १४ || इसलिये यदि तुम सफलता चाहते हो तो प्रजा-वृद्धि के लिये सर्वभूतों के स्वामी श्रीहरि गोविन्द की उपासना करो || १५ || धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष की इच्छावालों को सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की ही आराधना करनी चाहिये || १६ || कल्प के आरम्भ में जिनकी उपासना करके प्रजापति के संसार की रचना की है, तुम उन अच्युत की ही आराधना करो | इससे तुम्हारी सन्तान की वृद्धि होगी || १७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर प्रचेता नामक दसों पुत्रों ने समुद्र के जलमे डूबे रहकर सावधानतापूर्वक तप करना आरम्भ कर दिया || १८ || हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वलोकाश्रय जगत्पति श्रीनारायण में चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहीँ (जलमे ही ) स्थित रहकर देवाधिदेव श्रीहरि की एकाग्र-चित्त से स्तुति की, जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालों की सभी कामनाएँ सफल कर देते हैं || १९ – २० ||

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ ! समुद्र के जल में स्थित रहकर प्रचेताओं ने भगवान विष्णु की जो अति पवित्र स्तुति की थी वह कृपया मुझसे कहिये || २१ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! पूर्वकाल में समुद्र में स्थित रहकर प्रचेताओं ने तन्मय-भाव से श्रीगोविंद की जो स्तुति की, वह सुनो || २२ ||

प्रचेताओं ने कहा ;– जिनमें सम्पूर्ण वाक्यों की नित्य-प्रतिष्ठा है [ अर्थात जो सम्पूर्ण वाक्योंके एकमात्र प्रतिपाद्य है ] तथा जो जगत की उत्पत्ति और प्रलय के कारण है उन निखिल-जगन्नायक परमप्रभु को हम नमस्कार करते हैं || २३ || जो आद्य ज्योतिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनंत, अपार और समस्त चराचर के कारण है, तथा जिन रूपहीन परमेश्वर के दिन, रात्रि और संध्या ही प्रथम रूप है, उन कालस्वरूप भगवान को नमस्कार है || २४ – २५ || समस्त प्राणियों के जीवनरूप जिनके अमृतमय स्वरूप को देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते है – उन सोमस्वरूप प्रभु को नमस्कार है || २६ || जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेजसे आकाशमंडल को प्रकाशित करते हुए अन्धकार को भक्षण कर जाते हैं तथा जो घाम, शीत और जल के उद्गमस्थान है उन सूर्यस्वरूप [नारायण] को नमस्कार है || २७ || जो कठिनतायुक्त होकर इस सम्पूर्ण संसार को धारण करते है और शब्द आदि पाँचो विषयों के आधार तथा व्यापक है, उन भुमिरूप भगवान को नमस्कार है || २८ || जो संसार का योनिरूप है और समस्त देहधारियों का बीज है, भगवान हरि के उस जलस्वरूप को हम नमस्कार करते है || २९ || जो समस्त देवताओं का हव्यभूक और पितृगण का कव्यभूक मुख है, उस अग्निस्वरूप विष्णुभगवान को नमस्कार है || ३० || जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकार से देह में स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान को नमस्कार है || ३१ || जो समस्त भूतों को अवकाश देता है उस अनंतमूर्ति और परम शुद्ध आकाशस्वरूप प्रभु को नमस्कार है || ३२ || समस्त इन्द्रिय-सृष्टि के जो उत्तम स्थान है उन शब्द-स्पर्शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार है || ३३ || जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूप से नित्य विषयों को ग्रहण करते है उन ज्ञानमूल हरि को नमस्कार है || ३४ || इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये विषयों को जो आत्मा के सम्मुख उपस्थित करता है उस अंत:करणरूप विश्वात्मा को नमस्कार है || ३५ || जिस अनंत में सकल विश्व स्थित है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है और जो उसके लय का भी स्थान है उस प्रकृतिस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है || ३६ || जो शुद्ध और निर्गुण होकर भी भ्रमवश गुणयुक्त से दिखायी देते है || ३७ || जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और श्रीविष्णु का परमपद है उस ब्रह्मस्वरूप को हम नमस्कार करते है || ३८ || जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, न छोटा है और न काला है, न लाल है; जो स्नेह (द्रव), कान्ति तथा शरीर से रहित एवं अनासक्त और अशरीरी (जीवसे भिन्न) है || ३९ || जो अवकाश स्पर्श, गंध और रस से रहित तथा आँख – कान – विहीन, अचल एवं जिव्हा, हाथ और मन से रहित है || ४० || जो नाम, गोत्र, सुख और तेजसे शून्य तथा कारणहीन है, जिसमें भय, भ्रान्ति, निद्रा, जरा और मरण – इन अवस्थाओं का अभाव है || ४१ || जो अरज (रजोगुणरहित), अशब्द, अमृत, अप्लुत (गतिशुन्य) और असंवृत (अनाच्छादित) है एवं जिसमें पुर्वापर व्यवहार की गति नहीं है वही भगवान विष्णुका परमपद है || ४२ || जिसका ईशन (शासन) ही परमगुण है, जो सर्वरूप और अनाधार है तथा जिव्हा और दृष्टि का अविषय है, भगवान विष्णु के उस परमपद को हम नमस्कार करते है || ४३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– इस प्रकार श्रीविष्णु भगवान में समाधिस्त होकर प्रचेताओं ने महासागर में रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या की || ४४ || तब भगवान श्रीहरि ने प्रसन्न होकर उन्हें खिले हुए नील कमलकी – सी आभायुक्त दिव्य छवि से जल के भीतर ही दर्शन दिया || ४५ || प्रचेताओं ने पक्षिराज गरुडपर चढ़े हुए श्रीहरि को देखकर उन्हें भक्तिभाव के भारसे झुके हुए मस्तकोंद्वारा प्रणाम किया || ४६ ||

तब भगवानने उससे कहा ;– “मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हे वर देने के लिये आया हूँ, तुम अपना अभीष्ट वर माँगो” ||४७|| तब प्रचेताओं ने वरदायक श्रीहरि को प्रणाम कर, जिसप्रकार उनके पिताने उन्हें प्रजा-वृद्धि के लिये आज्ञा दी थी वह सब उनसे निवेदन की || ४८ || तदनन्तर, भगवान उन्हें अभीष्ट वर देकर अन्तर्धान हो गये और वे जलसे बाहर निकल आये || ४९ ||

           "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे चतुर्दशोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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