{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का ग्यारहवाँ , बारहवाँ व तेरहवाँ अध्याय}} {Eleventh, twelfth and Thirteenth Chapter of the entire Vishnu Purana (Second Part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
"ग्यारहवाँ अध्याय"
"जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद"
श्रीपराशरजी बोले ;– उनके ये परमार्थमय वचन सुनकर राजाने विनयावनत होकर उन विप्रवर से कहा || १ ||
राजा बोले ;– भगवन ! आपने जो परमार्थमय वचन कहे है उन्हें सुनकर मेरी मनोवृत्तियाँ भ्रांत-सी हो गयी है || २ || हे विप्र ! आपने सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त जिस असंग विज्ञान का दिग्दर्शन कराया है वह प्रक्रति से परे ब्रह्म ही है || ३ || परन्तु आपने जो कहा कि मैं शिबिका को वहन नहीं कर रहा हूँ, शिबिका मेरे ऊपर नहीं है, जिसने इसे उठा रखा है वह शरीर मुझसे अत्यंत पृथक है | जीवों की प्रवृत्ति गुणों [ सत्त्व, रज, तम ] की प्रेरणा से होती है और गुण कर्मों से प्रेरित होकर प्रवृत्त होते है – इसमें मेरा कर्तृत्व कैसे माना जा सकता है ? || ४ – ५ || हे परमार्थज्ञ ! यह बात मेरे कानों में पड़ते ही मेरा मन परमार्थ का जिज्ञासु होकर बड़ा उतावला हो रहा है || ६ ||
हे द्विज ! मैं तो पहले ही महाभाग कपिलमुनि से यह पूछनेके लिये कि बताइये ‘संसार में मनुष्यों का श्रेय किसमें बीचही में, आपने जो वाक्य कहे है उन्हें सुनकर मेरा चित्त परमार्थ – श्रवण करने के लिये आपकी ओर झुक गया है || ८ || हे द्विज ! ये कपिलमुनि सर्वभूत भगवान विष्णु के ही अंश है | इन्होने संसार का मोह दूर करने एक लिये ही पृथ्वीपर अवतार लिया है || ९ || किन्तु आप जो इस प्रकार भाषण कर रहे है उससे मुझे निश्चय होता है कि वे ही भगवान कपिलदेव मेरे हितकी कामना से यहाँ आपके रूप में प्रकट हो गये है || १० || अत: हे द्विज ! हमारा जो परम श्रेय हो वह आप मुझ विनीत से कहिये | हे प्रभो ! आप सम्पूर्ण विज्ञान-तरंगों के मानो समुद्र ही है || ११ ||
ब्राह्मण बोले ;– हे राजन ! तुम श्रेय पूछना चाहते हो या परमार्थ ? क्योंकि हे भूपते ! श्रेय तो सब अपारमार्थिक ही है || १२ || हे नृप ! जो पुरुष देवताओं की आराधना करके धन, सम्पत्ति, पुत्र और राज्यादिकी इच्छा करता है उसके लिये तो वे ही परम श्रेय है || १३ || जिसका फल स्वर्गलोक की प्राप्ति है वह यज्ञात्मक कर्म भी श्रेय है; किन्तु प्रधान श्रेय तो उसके फल की इच्छा न करने में ही है || १४ || अत: हे राजन ! योगयुक्त परुषों को प्रकृति आदि से अतीत उस आत्मा का ही ध्यान करना चाहिये, क्योंकि उस परमात्मा का संयोगरूप श्रेय ही वास्तविक श्रेय है || १५ ||
इस प्रकार श्रेय तो सैकड़ो – हजारों प्रकार के अनेकों हैं, किन्तु ये सब परमार्थ नहीं हैं | अब जो परमार्थ है सो सुनो || १६ || यदि धन ही परमार्थ है तो धर्म के लिए उसका त्याग क्यों किया जाता है ? तथा इच्छित भोगों की प्राप्ति के लिये उसका व्यय क्यों किया जाता है ? || १७ || हे नरेश्वर ! यदि पुत्र को परमार्थ कहा जाय तो वह तो अन्य का परमार्थभूत है, तथा उसका पिता भी दूसरे का पुत्र होने के कारण उस का परमार्थ होगा || १८ || अत: इस चराचर जगत में पिताका कार्यरूप पुत्र भी परमार्थ नहीं है | क्योंकि फिर तो सभी कारणों के कार्य परमार्थ हो जायेंगे || १९ || यदि संसार में राज्यादिकी प्राप्ति को परमार्थ कहा जाय तो ये कभी रहते है और कभी नहीं रहते | अत: परमार्थ भी आगमापायी हो जायगा || २० || यदि ऋक, यजु: और सामरूप वेदत्रयी से सम्पन्न होंनेवाले यज्ञकर्म को परमार्थ मानते हो तो उसके विषय में मेरा ऐसा विचार है || २१ || हे नृप ! जो वस्तु कारणरूपा मृत्तिका का कार्य होती है वह कारण की अनुगामिनी होने से मृत्तिकारूप ही जानी जाती है || २२ || अत: जो क्रिया समिध, घृत और कुशा आदि नाशवान द्रव्यों से सम्पन्न होती है वह भी नाशवान ही होगी || २३ || किन्तु परमार्थ को तो प्राज्ञ पुरुष अविनाशी बतलाते है और नाशवान द्रव्यों से निष्पन्न होने के कारण कर्म नाशवान ही है – इसमें संदेह नहीं || २४ || यदि फलाशा से रहित निष्कामकर्म को परमार्थ मानते हो तो वह तो मुक्तिरूप फल का साधना होने से साधन ही है, परमार्थ नहीं || २५ || यदि देहादि से आत्मा का पार्थक्य विचारकर उसके ध्यान करने की परमार्थ कहा जाय तो वह तो अनारमासे आत्मा का भेद करनेवाला है और परमार्थ में भेद है नहीं || २६ || यदि परमात्मा और जीवात्मा के संयोग को परमार्थ कहे तो ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य की एकता कभी नहीं हो सकती || २७ ||
अत: हे राजन ! नि:संदेह ये सब श्रेय ही है, [ परमार्थ नहीं ] अब जो परमार्थ है वह मैं संक्षेप से सुनाता हूँ, श्रवण करो || २८ || आत्मा एक, व्यापक, सम, शुद्ध, निर्गुण और प्रकृति से परे है; वह जन्म-वृद्धि आदि से रहित, सर्वव्यापी और अव्यय है || २९ || हे राजन ! वह परम ज्ञानमय है, असत नाम और जाति आदि से उस सर्वव्यापक का संयोग न कभी हुआ, न है और न होगा || ३० || ‘ वह, अपने और अन्य प्राणियों के शरीर में विद्यमान रहते हुए भी, एक ही है’ – इस प्रकार का जो विशेष ज्ञान है वही परमार्थ है; द्वैत भावनावाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी है || ३१ || जिस प्रकार अभिन्न भाव से व्याप्त एक ही वायु के बाँसुरी के छिद्रों के भेद से षड्ज आदि भेद होते है उसी प्रकार एक ही परमात्मा के अनेक भेद प्रतीत होते है || ३२ || एकरूप आत्मा के जो नाना भेद है वे बाह्य देहादिकी कर्मप्रवृत्ति के कारण ही हुए है | देवादि शरीरों के भेद का निराकरण हो जानेपर वह नहीं रहता | उसकी स्थिति तो अविद्या के आवरणतक ही है || ३३ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे एकादशोऽध्याय:"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
"बारहवाँ अध्याय"
"ऋभु का निदाघ को अद्वैतज्ञानोपदेश"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! ऐसा कहनेपर, राजाको मौन होकर मन-ही-मन सोच-विचार करते देख वे विप्रवर यह अद्वैत-सम्बन्धिनी कथा सुनाने लगे || १ ||
ब्राह्मण बोले ;– हे राजशारर्दूल ! पूर्वकाल में महर्षि ऋभु ने महात्मा निदाघ को उपदेश करते हुए जो कुछ कहा था वह सुनो || २ || हे भूपते ! परमेष्ठी श्रीब्रह्माजी का ऋभु नामक एक पुत्र था, वह स्वभाव से ही परमार्थतत्त्व को जाननेवाला था || ३ || पूर्वकाल में महर्षि पुलस्त्य का पुत्र निदाघ उन ऋभु का शिष्य था | उसे उन्होंने अति प्रसन्न होकर सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया था || ४ || हे नरेश्वर ! ऋभु ने देखा कि सम्पूर्ण शास्त्रोका ज्ञान होते हुए भी निदाघ की अद्वैत में निष्ठा नहीं है || ५ ||
उस समय देविकानदी के तीरपर पुलस्त्यजी का बसाया सम्पन्न नगर था || ६ || हे पार्थिवोत्तम ऋभु का शिष्य योगवेत्ता निदाघ रहता था || ७ || महर्षि ऋभु अपने दिव्य निदाघ को देखने के लिये एक सहस्त्र दिव्यवर्ष बीतनेपर उस नगर में गये || ८ || जिस समय निदाघ बलिवैश्वदेव के अनन्तर अपने द्वारपर प्रतीक्षा कर रहा था, वे उसके दृष्टिगोचर हुए और वह उन्हें द्वारपर पहुँच अर्घ्यदानपूर्वक अपने घरमें ले गया || ९ || उस द्विजश्रेष्ठ ने उनके हाथ-पैर धुलाये और फिर आसनपर बिठाकर आदरपूर्वक कहा – ‘भोजन कीजिये’ || १० ||
निदाघ ने कहा ;– हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरे घर में सत्तू, जौकी लप्सी, कंद-मूल-फलादि तथा पुए बने हैं | आपको इनमें से जो कुछ रुचे वही भोजन कीजिये || १२ ||
ऋभु बोले ;– हे द्विज ! ये तो सभी कुत्सित अन्न है, मुझे तो तुम हलवा, खीर तथा मट्ठा और खांडसे बने स्वादिष्ट भोजन कराओ || १३ ||
तब निदाघ ने अपनी स्त्री से कहा ;– हे गृहदेवि ! हमारे घरमें जो अच्छी – से अच्छी वस्तु हो उसीसे इनके लिये अति स्वादिष्ट भोजन बनाओ || १४ ||
ब्राह्मण जडभरत ने कहा ;– उसके ऐसा कहनेपर उसकी पत्नीने अपने पतिकी आज्ञा से उन विप्रवर के लिये अति स्वादिष्ट अन्न तैयार किया || १५ ||
हे राजन ! ऋभु के यथेच्छ भोजन कर चुकनेपर निदाघ ने अति विनीत होकर उन महामुनि से कहा || १६ ||
निदाघ बोले ;– हे द्विज ! कहिये भोजन करके आपका चित्त स्वस्थ हुआ न ? आप पूर्णतया तृप्त और संतुष्ट हो गये न ? || १७ || हे विप्रवर ! कहिये आप कहाँ रहनेवाले हैं ? कहाँ जाने की तैयारिमें हैं ? और कहाँ से पधारे हैं ? || १८ ||
ऋभु बोले ;– हे ब्राह्मण ! जिसको क्षुधा लगती है उसीकी तृप्ति भी हुआ करती है | मुझको तो कभी क्षुधा ही नहीं लगी, फिर तृप्ति विषय में तुम क्या पूछते हो ? || १९ || जठराग्नि के द्वारा पार्थिव धातुओं के क्षीण हो जानेसे मनुष्य को क्षुधा की प्रतीति होती है और जल के क्षीण होने से तृषा का अनुभव होता है || २० || हे द्विज ! ये क्षुधा और तृषा तो देह के ही धर्म है, मेरे नहीं; अत: स्वस्थता और तुष्टि भी मनही में होते हैं, अत: य मनही के धर्म है, पुरुष (आत्मा) से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है | इसलिये हे द्विज ! ये जिसके धर्म है उसीसे इनके विषय में पूछो || २२ || और तुमने जो पूछा कि ‘आप कहाँ रहनेवाले है ? कहाँ जा रहे है ? तथा कहाँ से आये हैं ‘ सो इन तीनों के विषय में मेरा मत सुनो || २३ || आत्मा सर्वगत है, क्योंकि यह आकाश के समान व्यापक है; अत: ‘कहाँ से आये हो, कहाँ रहते हो और कहाँ जाओगे ?’ यह कथन भी कैसे सार्थक हो सकता है ? || २४ || मैं तो न कहाँ जाता हूँ, न आता हूँ और न किसी एक स्थानपर रहता हूँ | [ तू, मैं और अन्य पुरुष भी देहादिके कारण जैसे पृथक-पृथक दिखायी देते है वास्तव में वैसे नहीं है ] वस्तुत: तू तू नहीं हैं, अन्य अन्य नहीं है और मैं मैं नहीं हूँ || २५ ||
वास्तव में मधुर मधुर है भी नहीं; देखो, मैंने तुमसे जो मधुर अन्न की याचना की थी उससे भी मैं यही देखना चाहता था कि ‘ तुम क्या कहते हो |’ हे द्विजश्रेष्ठ ! भोजन करनेवाले के लिये स्वादु और अस्वादु भी क्या है ? क्योंकि स्वादिष्ट पदार्थ ही जब समयांतर से अस्वादु हो जाता है तो वही उद्वेगजनक होने लगता है || २६ – २७ ||
इसीप्रकार कभी अरुचिकर पदार्थ रुचिकर हो जाते है और रुचिकर पदार्थों से मनुष्य को उद्वेग हो जाता है | ऐसा अन्न भला कौन –सा है जो आदि, मध्य और अंत तीनों काल में रुचिकर ही हो ? || २८ || जिस प्रकार मिट्टीका घर मिट्टीसे लीपने – पोतने से दृढ़ होता है, उसी प्रकार यह पार्थिव देह पार्थिव अन्न के परमाणुओं से पुष्ट हो जाता है || २९ || जौ, गेहूँ, मूँग, घृत, तेल, दूध, दही, गुड़ और फल आदि सभी पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो है | [ इनमें से किसको स्वादु कहें और किसको अस्वादु ? ] || ३० || अत: ऐसा जानकर तुम्हें इस स्वादु-अस्वादु का विचार करनेवाले चित्त को समदर्शी बनाना चाहिये, क्योंकि मोक्ष का एकमात्र उपाय समता ही है || ३१ ||
ब्राह्मण बोले ;– हे राजन ! उनके ऐसे परमार्थमय वचन सुनकर महाभाग निदाघ ने उन्हें प्रणाम करके कहा || ३२ || “प्रभो ! आप प्रसन्न होइये ! कृपया बतलाइये, मेरे कल्याण की कामनासे आये हुए आप कौन है ? हे द्विज ! आपके इन वचनों को सुनकर मेरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है” || ३३ ||
ऋभु बोले ;– हे द्विज ! मैं तेरा गुरु ऋभु हूँ; तुझको सदसद्विवेकिनी बुद्धि प्रदान करने के लिये मैं यहाँ आया था | अब मैं जाता हूँ, जो कुछ परमार्थ है वह मैंने तुझसे कह ही दिया है || ३४ || इस परमार्थतत्त्व का विचार करते हुए तू इस सम्पूर्ण जगत को एक वासुदेव परमात्माही का स्वरूप जान; इसमें भेद-भाव बिलकुल नहीं है || ३५ ||
ब्राह्मण बोले ;– तदनंतर निदाघ ने ‘बहुत अच्छा’ कह उन्हें प्रणाम किया और फिर उससे परम भक्तिपूर्वक पूजित हो ऋभु स्वेच्छानुसार चले गये || ३६ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे द्वादशोऽध्याय:"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
"तेरहवाँ अध्याय"
"ऋभु की आज्ञा से निदाघ का अपने घरको लौटना"
ब्राह्मण बोले ;– हे नरेश्वर ! तदनन्तर सहस्त्र वर्ष व्यतीत होनेपर महर्षि ऋभु निदाघ को ज्ञानोपदेश करने के लिये फिर उसी नगर को गये || १ ||
वहाँ पहुँचनेपर उन्होंने देखा कि वहाँ का राजा बहुत-सी सेना आदि के साथ बड़ी धूम-धामसे नगर में प्रवेश कर रहा है और वनसे कुशा तथा समिध लेकर आया हुआ महाभाग निदाघ जनसमूह से हटकर भूखा-प्यासा दूर खड़ा है || २ – ३ ||
निदाघ को देखकर ऋभु उसके निकट गये और उसका अभिवादन करके बोले – ‘हे द्विज ! यहाँ एकांत में आप कैसे खड़े हैं ‘ || ४ ||
निदाघ बोले ;– हे विप्रवर ! आज इस अति रमणीक नगर में राजा जाना चाहता है, सो मार्गमें बड़ी भीड़ हो रही है, इसलिये मैं यहाँ खड़ा हूँ || ५ ||
ऋभु बोले ;– हे द्विजश्रेष्ठ ! मालुम होता है आप यहाँ की सब बातें जानते हैं | अत: कहिये इनमें राजा कौन है ? और अन्य पुरुष कौन है ? || ६ ||
निदाघ बोले ;– यह जो पर्वत के समान ऊँचे मत्त गजराजपर चढ़ा हुआ है वही राजा है, तथा दूसरे लोग परिजन है || ७ ||
ऋभु बोले ;– आपने राजा और गज, दोनों एक साथ ही दिखाये किन्तु इन दोनों के पृथक-पृथक विशेष चिन्ह अथवा लक्षण नहीं बतलाये || ८ || अत: हे महाभाग ! इन दोनों में क्या-क्या विशेषताएँ हैं, यह बतलाइये | मैं यह जानना चाहता हूँ कि इनमें कौन राजा है और कौन गज है ? || ९ ||
निदाघ बोले ;– इनमें जो नीचे है वह गज है और उसके ऊपर राजा है | हे द्विज ! इन दोनों का बाह्य – वाहक – सम्बन्ध है – इस बातको कौन नहीं जानता ? || १० ||
ऋभु बोले ;– हे ब्रह्मन ! मुझे इसप्रकार समझाइये, जिससे मैं यह जान सकूँ कि ‘नीचे’ इस शब्द का वाच्य क्या है ? और ‘ऊपर’ किसे कहते हैं || ११ ||
ब्राह्मण ने कहा ;– ऋभु के ऐसा कहनेपर निदाघ ने अकस्मात उनके ऊपर चढकर कहा – ‘सुनिये, आपने जो पूछा है वही बतलाता हूँ — || १२ || इस समय राजाकी भान्ति मैं तो ऊपर हूँ और गजकी भान्ति आप नीचे हैं | हे ब्रह्मन ! आपको समझाने के लिये ही मैंने यह दृष्टांत दिखलाया है” || १३ ||
ऋभु बोले ;– हे द्विजश्रेष्ठ ! यदि आप राजा के समान है और मैं गजके समान हूँ तो यह बताइये कि आप कौन हैं ? और मैं कौन हूँ ? || १४ ||
ब्राह्मण ने कहा ;– ऋभु के ऐसा कहनेपर निदाघ ने तुरंत ही उनके दोनों चरण पकड़ लिये और कहा – ‘निश्चय ही आप आचार्यचरण महर्षि ऋभु है || १५ || हमारे आचार्यजी के समान अद्वैत – संस्कारयुक्त चित्त और किसीका नहीं हैं; अत: मेरा विचार है कि आप हमारे गुरूजी ही आकर उपस्थित हुए हैं’ || १६ ||
ऋभु बोले ;– हे निदाघ ! पहले तुमने सेवा-शुश्रूषा करके मेरा बहुत आदर किया था अत: तुम्हारे स्नेहवश मैं ऋभु नामक तुम्हारा गुरु ही तुमको उपदेश देने के लिये आया हूँ || १७ || हे महामते ! समस्त पदार्थों में अद्वैत – आत्म – बुद्धि रखना’ यही परमार्थ का सार है जो मैंने तुम्हें संक्षेप में उपदेश कर दिया || १८ ||
ब्राह्मण बोले ;– निदाघ से ऐसा कह परम विद्वान गुरुवर भगवान ऋभु चले गये और उनके उपदेश से निदाघ भी अद्वैत-चिन्तन में तत्पर हो गया || १९ || और समस्त प्राणियों को अपने से अभिन्न देखने लगा हे धर्मज्ञ ! हे पृथ्वीपते ! जिसप्रकार उस ब्रह्मपरायण ब्राह्मण ने परम मोक्षपद प्राप्त किया, उसी प्रकार तू भी आत्मा, शत्रु और मित्रादि में समान भाव रखकर अपनेको सर्वगत जानता हुआ मुक्ति लाभ कर || २० – २१ || जिस प्रकार एक ही आकाश श्वेत-नील आदि भेदोंवाला दिखायी देता हैं, उसी प्रकार भ्रान्तदृष्टियों को एक ही आत्मा पृथक-पृथक दीखता है || २२ || इस संसार में जो कुछ है वह सब एक आत्मा ही है और वह अविनाशी है, उससे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है; मैं, तू और ये सब आत्मस्वरूप ही है | अत: भेद-ज्ञानरूप मोह को छोड़ || २३ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– उनके ऐसा कहनेपर सौविरराजने परमार्थदृष्टि का आश्रय लेकर भेद-बुद्धिको छोड़ दिया और वे जातिस्मर ब्राह्मणश्रेष्ठ भी बोधयुक्त होने से उसी जन्म में मुक्त हो गये || २४ || इस प्रकार महाराज भरत के इतिहास के इस सारभूत वृतांत को जो पुरुष भक्तिपूर्व कहता या सुनता है उसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है, उसी कभी आत्म-विस्मृति नहीं होती और वह जन्म-जन्मान्तर में मुक्ति की योग्यता प्राप्त कर लेता है || २५ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे त्रयोदशोऽध्याय:"
।। "इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे द्वितियोंऽश: समाप्त:" ।।
सम्पूर्ण विष्णु पुराण का द्वितीय अंश के कुल 13 अध्याय अब समाप्त हुए !!
(अब सम्पूर्ण विष्णु पुराण का तृतीय अंश सुरू होता है ।।)
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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