सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का पहला व दूसरा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का पहला व दूसरा अध्याय}} {The first and second chapters of the complete Vishnu Purana (third part)}

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)

                             "पहला अध्याय"

"पहले सात मन्वन्तरों के मनु, इंद्र, देवता, सप्तर्षि और मनुपुत्रों का वर्णन"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे गुरुदेव ! आपने पृथ्वी और समुद्र आदि की स्थिति तथा सूर्य आदि ग्रहगण के संस्थान का मुझसे भलीप्रकार अति विस्तारपूर्वक वर्णन किया || १ || आपने देवता आदि और ऋषिगणों की सृष्टि तथा चातुर्वर्ण्य एवं तिर्यक – योनिगत जीवों की उत्पत्तिका भी वर्णन किया || २ || ध्रुव और प्रल्हाद के चरित्रों को भी आपने विस्तारपूर्वक सुना दिया | अत: हे गुरो ! अब मई आपके मुखार्विद से सम्पूर्ण मन्वन्तर तथा इंद्र और देवताओं के सहित मन्वन्तरों के अधिपति समस्त मनुओं का वर्णन सुनना चाहता हूँ || ३ – ४ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– भूतकाल में जितने मन्वन्तर हुए है तथा आगे भी जो – जो होंगे, उन सबका मैं तुमसे क्रमश: वर्णन करता हूँ || ५ || प्रथम मनु स्वायम्भुव थे | उनके अनन्तर क्रमश: स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुस हुए || ६ || ये छ: मनु पूर्वकाल में हो चुकें हैं | इस समय सुर्यपुत्र वैवस्वत मनु हैं, जिनका यह सातवाँ मन्वन्तर वर्तमान है || ७ ||

कल्प के आदि में जिस स्वायम्भुव – मन्वन्तर के विषय में मैंने कहा है उसके देवता और सप्तर्षियों का तो मैं पहले ही यथावत वर्णन कर चूका हूँ || ८ || अब आगे मैं स्वारोचिष मनुके मन्वन्तराधिकारी देवता, ऋषि और मनुपुत्रों का स्पष्टतया वर्णन करूँगा || ९ || हे मैत्रेय ! स्वारोचिषमन्वन्तर में पारावत और तुषितगण देवता थे, महाबली विपश्चित देवराज इंद्र थे || १० || ऊर्ज्ज, स्तम्भ, प्राण, वात, पृषभ, निरय और परिवान – ये उस समय सप्तर्षि थे || ११ || तथा चैत्र और किम्पुरुष आदि स्वारोचिषमनुके पुत्र थे | इस प्रकार तुमसे द्वितीय मन्वन्तर का वर्णन कर दिया | अब उत्तम-मन्वन्तर का विवरण सुनो || १२ ||

हे ब्रह्मन ! तीसरे मन्वन्तर में उत्तम नामक मनु और सुशान्ति नामक देवाधिपति इंद्र थे || १३ || उस समय सुधाम, सल्य, जप, प्रतर्दन और वशवर्ती – ये पाँच बारह – बारह देवताओं के गण थे || १४ || तथा वसिष्ठजी के सात पुत्र सप्तर्षिगण और अज, परशु एवं दीप्त आदि उत्तममनु के पुत्र थे || १५ ||

तामस – मन्वन्तर में सुपार, हरि, सत्य और सुधि – ये चार देवताओं के वर्ग थे और इनमेंसे प्रत्येक वर्ग में सत्ताईस – सत्ताईस देवगण थे || १६ || सौ अश्वमेध यज्ञवाला राजा शिबि इंद्र था तथा उस समय जो सप्तर्षिगण थे उनके नाम मुझसे सुनो || १७ || ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर — ये उस मन्वन्तर के सप्तर्षि थे || १८ || तथा नर, ख्याति, केतुरूप और जानुजंग आदि तामसमनुके महाबली पुत्र ही उस समय राज्याधिकारी थे || १९ ||

हे मैत्रेय ! पाँचवे मन्वन्तर में रैवत नामक मनु और विभु नामक इंद्र हुए तथा उस समय जो देवगण हुए उनके नाम सुनो || २० || इस मन्वन्तर में चौदह – चौदह देवताओं के अमिताभ, भूतरय, वैकुण्ठ और सुमेधा नामक गण थे || २१ || हे विप्र ! इस रैवत – मन्वन्तर में हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहू, वेद्बाहू, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि – ये सात सप्तर्षिगण थे || २२ || हे मुनिसत्तम ! उस समय रैवतमनु के महावीर्यशाली पुत्र बलबन्धु, सम्भाव्य और सत्यक आदि राजा थे || २३ ||

हे मैत्रेय ! स्वारोचिष, उत्तम, तामस और रैवत – ये चार मनु, राजा प्रियव्रत के वंशधर कहे जाते हैं || २४ || राजर्षि प्रियव्रत ने तपस्याद्वारा भगवान विष्णु की आराधना करके अपने वंश में उत्पन्न हुए इन चार मन्वन्तराधियों को प्राप्त किया था || २५ ||

छठे मन्वन्तर में चाक्षुष नामक मनु और मनोजव नामक इंद्र थे | उस समय जो देवगण थे उनके नाम सुनो – || २६ || उस समय आप्य, प्रसुत, भव्य, पृथुक और लेख – ये पाँच प्रकार के महानुभाव देवगण वर्तमान थे और इनमेंसे प्रत्येक गण में आठ – आठ देवता थे || २७ ||

उस मन्वन्तरमें सुमेधा, विरजा, हविष्मान, उत्तम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु – ये सात सप्तर्षि थे || २८ || तथा चाक्षुष के अति बलवान पुत्र ऊरू, पुरु और शतध्युम्र आदि राज्याधिकारी थे || २९ ||

हे विप्र ! इस समय इस सातवें मन्वन्तर में सूर्य के पुत्र महातेजस्वी और बुद्धिमान श्राद्धदेवजी मनु है || ३० || हे महामुने ! इस मन्वन्तर में आदित्य, वसु और रूद्र आदि देवगण हैं तथा पुरन्दर नामक इंद्र है || ३१ || इस समय वसिष्ठ , कश्यप, अत्रि, जगदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज – ये सात सप्तर्षि हैं || ३२ || तथा वैवस्वत मनुके इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिश्यंत, नाभाग, अरिष्ट, करूष और पृषध – ये अत्यंत लोकप्रसिद्ध और धर्मात्मा नौ पुत्र हैं || ३३ – ३४ ||

समस्त मन्वन्तरों में देवरूप से स्थित भगवान विष्णु की अमुपम और सत्त्वप्रधाना शक्ति ही संसार की स्थिति में उसकी अधिष्ठात्री होती है || ३५ || सबसे पहले स्वायम्भुव – मन्वन्तर में मानसदेव यज्ञपुरुष उस विष्णुशक्ति के अंश से ही आकूति के गर्भ से उत्पन्न हुए थे || ३६ || फिर स्वारोचिष – मन्वन्तर के उपस्थित होनेपर वे मानसदेव श्रीअजित ही तुषित नामक देवगणों के साथ तुषितासे उत्पन्न हुए || ३७ || फिर उत्तम – मन्वन्तरमें वे तुषितदेव ही देवश्रेष्ठ सत्यगण के सहित सत्यरूप से सत्या के उदर से प्रकट हुए || ३८ || तामस – मन्वन्तर के प्राप्त होनेपर वे हरि- नाम देवगण के सहित हरिरूप से हर्या के गर्भ से उत्पन्न हुए || ३९ || तत्पश्चात वे देवश्रेष्ठ हरि, रैवत – मन्वन्तर में तत्कालीन देवगण के सहित सम्भूति के उदर से प्रकट होकर मानस नामसे विख्यात हुए || ४० || तथा चाक्षुष – मन्वन्तर में वे पुरुषोत्तम भगवान वैकुण्ठ नामक देवगणों के सहित विकुंठासे उत्पन्न होकर वैकुण्ठ कहलाये || ४१ || और हे द्विज ! इस वैवस्वत – मन्वन्तर के प्राप्त होनेपर भगवान विष्णु कश्यपजीद्वारा अदिति के गर्भ से वामनरूप होकर प्रकट हुए || ४२ || उन महात्मा वामनजी ने अपनी तीन डगोंसे सम्पूर्ण लोकों को जीतकर यह निष्कंटक त्रिलोकी इंद्र को दे दी थी || ४३ ||

हे विप्र ! इस प्रकार सातों मन्वन्तरों में भगवान की ये सात मूर्तियाँ प्रकट हुई, जिनसे (भविष्य में ) सम्पूर्ण प्रजाकी वृद्धि हुई || ४४ || यह सम्पूर्ण विश्व उन परमात्मा की ही शक्ति से व्याप्त है; अत: वे ‘विष्णु’ कहलाते हैं, क्योंकि ‘विश’ धातुका अर्थ प्रवेश करना है || ४५ || समस्त देवता, मनु, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र और देवताओं के अधिपति इंद्रगण – ये सब भगवान विष्णु की ही विभूतियाँ है || ४६ ||

              "इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे प्रथमोऽध्यायः"

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)

                             "दूसरा अध्याय"

"सावर्णिमनु की उत्पत्ति तथा आगामी सात मन्वन्तरों के मनु, मनुपुत्र, देवता, इंद्र और सप्तर्षियों का वर्णन"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे विप्रर्षे ! आपने यह सात अतीत मन्वन्तरों की कथा कही, अब आप मुझसे आगामी मन्वन्तरों का भी वर्णन कीजिये || १ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मुने ! विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा सूर्य की भार्या थी | उससे उनके मनु, यम और यमी – तीन संताने हुई || २ || कालान्तर में पतिका तेज सहन न कर सकने के कारण संज्ञा छाया को पति की सेवामें नियुक्त कर स्वयं तपस्या के लिये वन को चली गयी || ३ || सूर्यदेव ने यह समझकर कि यह संज्ञा ही है, छाया से शनैश्वर, एक और मनु तथा तपती – ये तीन संताने उत्पन्न कीं || ४ ||

एक दिन जब छायारूपिणी संज्ञाने क्रोधित होकर यम को शाप दिया तब सूर्य और यम को विदित हुआ कि यह तो कोई और है || ५ || तब छाया के द्वारा ही सारा रहस्य खुल जानेपर सूर्यदेव ने समाधि में स्थित होकर देखा कि संज्ञा घोड़ी का रूप धारण कर वनमें तपस्या कर रही है || ६ || अत: उन्होंने भी अश्वरूप होकर उससे दो अश्विनीकुमार और रेत:स्त्राव के अनन्तर ही रेवंत को उत्पन्न किया || ७ ||

फिर भगवान सूर्य संज्ञा को अपने स्थानपर ले आये तथा विश्वकर्मा ने उनके तेजको शांत कर दिया || ८ || उन्होंने सूर्य को भ्रमियंत्र (सान) पर चढाकर उनका तेज छाँटा, किन्तु वे उस अक्षुण्ण तेज का केवल अष्टमांश ही क्षीण कर सके || ९ || हे मुनिसत्तम ! सूर्य के जिस जाज्वल्यमान वैष्णव-तेज को विश्वकर्मा ने छाँटा था वह पृथ्वीपर गिरा || १० || उस पृथ्वीपर गिरे हुए सूर्य तेज से ही विश्वकर्मा ने विष्णु भगवान का चक्र, शंकर का त्रिशूल, कुबेर का विमान, कार्तिकेय की शक्ति बनायी तथा अन्य देवताओं के भी जो – जो शस्त्र थे उन्हें उससे पुष्ट किया || ११ – १२ || जिस छायासंज्ञा के पुत्र दूसरे मनुका ऊपर वर्णन कर चुके हैं वह अपने अग्रज मनुका सवर्ण होने से सावर्णि कहलाया || १३ ||

हे महाभाग ! सुनो, अब मैं उनके इस सावर्णिकनाम आठवें मन्वन्तर का, जो आगे होनेवाला है, वर्णन करता हूँ || १४ || हे मैत्रेय ! यह सावर्णि ही उस समय मनु होंगे ततः सुतप, अमिताभ और मुख्यगण देवता होंगे || १५ || उन देवताओं का प्रत्येक गण बीस – बीस का समूह कहा जाता है | हे मुनिसत्तम ! अब मैं आगे होनेवाले सप्तर्षि भी बतलाता हूँ || १६ || उस समय दीप्तिमान, गालत, राम, कूप, द्रोण – पुत्र अश्वत्थामा, मेरे पुत्र व्यास और सातवे ऋष्यश्रुंग – ये सप्तर्षि होंगे || १७ || तथा पाताल – लोकवासी विरोचन के पुत्र बलि श्रीविष्णुभगवान की कृपासे तत्कालीन इंद्र और सावर्णिमनु के पुत्र विरजा, उर्वरीवान एवं निर्मोक आदि तत्कालीन राजा होंगे || १८ – १९ ||

हे मुने ! नवे मनु दक्षसावर्णि होंगे | उनके समय पार, मरीचिगर्भ और सुधर्मा नामक तीन देववर्ग होंगे, जिनमे से पप्रत्येक वर्ग में बारह – बारह देवता होंगे; तथा हे द्विज ! उनका नायक महापराक्रमी अद्भुत नामक इंद्र होगा || २० – २२ || सवन, द्युतिमान, भव्य, वसु, मेधातिथि, ज्योतिष्मान और सातवें सत्य – ये उस समय के सप्तर्षि होंगे || २३ || तथा धृतकेतु, दीप्तीकेतु, पंचहस्त, निरामय और पृथुस्त्रवा आदि दक्षसावर्णिमनु के पुत्र होंगे || २४ ||

हे मुने ! दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि होंगे | उनके समय सुधामा और विशुद्ध नामक सौ – सौ देवताओं के दो गण होंगे || २५ || महाबलवान शान्ति उनका इंद्र होगा तथा उस समय जो सप्तर्षिगण होंगे उनके नाम सुनो || २६ || उनके नाम हविष्मान, सुकृत, सत्य, तपोमूर्ति, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु हैं || २७ || उस समय ब्रह्मसावर्णिमनु के सुक्षेत्र, उत्तमौजा और भूरिवेण आदि दस पुत्र पृथ्वी की रक्षा करेंगे || २८ ||

ग्यारहवाँ मनु धर्मसावर्णि होगा | उस समय होनेवाले देवताओं के विहंगम, कामगम और निर्वाणरति नामक मुख्य गण होंगे – इनमें से प्रत्येक में तीस – तीस देवता रहेंगे और वृष नामक इंद्र होगा || २९- ३० || उस समय होनेवाले सप्तर्षियों के नाम नि:स्वर, अग्नितेजा, वपुष्मान, घृणी, आरुणि, हविष्मान और अनघ है || ३१ || तथा धर्मसावर्णि मनु के सर्वत्रग, सुधर्मा, और देवानीक आदि पुत्र उस समय के राज्याधिकारी पृथ्वीपति होंगे || ३२ ||

रूद्रपुत्र सावर्णि बारहवाँ मनु होगा | उसके समय ऋतूधाम नामक इंद्र होगा तथा तत्कालीन देवताओं के नाम ये हैं सुनो || ३३ || हे द्विज ! उस समय दस-दस देवताओं के हरित, रोहित, सुमना, सुकर्मा अरु सुराप नामक पाँच गण होंगे || ३४ || तपस्वी, सुतपा, तपोमूर्ति, तपोरति, तपोधृति, तपोद्युति तथा तपोधन – ये सात सप्तर्षि होंगे | अब मनुपुत्रों के नाम सुनो || ३५ || उस समय उस मनु के देववाण, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि महावीर्यशाली पुत्र तत्कालीन सम्राट होंगे || ३६ ||

हे तेरहवाँ रूचि नामक मनु होगा | इस मन्वन्तर में सुत्रामा, सुकर्मा और सुधर्मा नामक देवगण होंगे इनमें से प्रत्येक में तैतीस – तैतीस देवता रहेंगे; तथा महाबलवान दिवस्पति उनका इंद्र होगा || ३७ – ३९ || निर्मोह, तत्त्वदर्शी, निष्कम्प, निरुत्सुक, धृतिमान, अव्यय और सुतपा – ये तत्कालीन सप्तर्षि होंगे | अब मनुपुत्रों के नाम भी सुनो || ४० || उस मन्वन्तर में चित्रसेन और विचित्र आदि मनुपुत्र राजा होंगे || ४१ ||

हे मैत्रेय ! चौदहवाँ मनु भौम होगा | उस समय शुचि नामक इंद्र और पाँच देवगण होंगे; उनके नाम सुनो – वे चाक्षुस, पवित्र, कनिष्ठ, भ्राजिक और वाचावृद्ध नामक देवता है | अब तत्कालीन सप्तर्षियों के नाम भी सुनो || ४२ -४३ || उस समय अग्रिबाहू, शुचि, शुक्र, मागध, अग्रिध, युक्त और जित – ये सप्तर्षि होंगे | अब मनुपुत्रों के विषय में सुनो || ४४ || हे मुनिशार्दुल ! कहते हैं, उस मनुके ऊरू और गम्भीरबुद्धि आदि पुत्र होंगे जो राज्याधिकारी होकर पृथ्वीका पालन करेंगे || ४५ ||

प्रत्येक चतुर्युग के अंत में वेदों का लोप हो जाता हैं, उस समय सप्तर्षिगण ही स्वर्गलोक से पृथ्वीमें अवतीर्ण होकर उनका प्रचार करते हैं || ४६ || प्रत्येक सत्ययुग के आदि में स्मृति-शास्त्र के रचयिता मनुका प्रादुर्भाव होता है; और उस मन्वन्तर अंत-पर्यन्त तत्कालीन देवगण यज्ञ-भागों को भोगते हैं || ४७ || तथा मनु के पुत्र और उनके वंशधर मन्वन्तर के अंततक पृथ्वी का पालन करते रहते हैं || ४८ || इस प्रकार मनु सप्तर्षि, देवता, इंद्र तथा मनु-पुत्र राजागण – ये प्रत्येक मन्वन्तर के अधिकारी होते है || ४९ ||

हे द्विज ! इन चौदह मन्वन्तरों के बीत जानेपर एक सहस्त्र युग रहनेवाला कल्प समाप्त हुआ कहा जाता है || ५० || हे साधूश्रेष्ठ ! फिर इतने ही समय की रात्रि होती है | उस समय ब्रह्मरूपधारी श्रीविष्णुभगवान प्रलयकालीन जल के ऊपर शेष –शय्यापर शयन करते हैं || ५१ || हे विप्र ! तब आदिकर्ता सर्वव्यापक सर्वभूत भगवान जनार्दन सम्पूर्ण त्रिलोकी का ग्रास कर अपनी माया में स्थित रहते हैं || ५२ || फिर [प्रलय-रात्रि का अंत होनेपर] प्रत्येक कल्प के आदि में अव्ययात्मा भगवान जाग्रत होकर रजोगुण का आश्रय कर सृष्टि की रचना करते हैं || ५३ || हे द्विजश्रेष्ठ ! मनु, मनु-पुत्र राजागण, इंद्र देवता तथा सप्तर्षि – ये सब जगत का पालन करनेवाले भगवान के सात्त्विक अंश हैं || ५४ ||

हे मैत्रेय ! स्थितिकारक भगवान विष्णु चारों युगों में जिस प्रकार व्यवस्था करते हैं, सो सुनो || ५५|| समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुग में कपिल आदिरूप धारणकर परम ज्ञान का उपदेश करते हैं || ५६ || त्रेतायुग में वे सर्वसमर्थ प्रभु चक्रवर्ती भूपाल होकर दुष्टोंका दमन करके त्रिलोकी की रक्षा करते हैं || ५७ || तदनंतर द्वापरयुग में वे वेदव्यासरूप धारणकर एक वेद के चार विभाग करते है और सैकड़ो शाखाओं में बाँटकर उसका बहुत विस्तार कर देते हैं || ५८ || इस प्रकार द्वापर में वेदों का विस्तार कर कलियुग के अंत में भगवान कल्किरूप धारणकर दुराचारी लोगों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करते है || ५९ || इसी प्रकार, अनंतात्मा प्रभु निरंतर इस सम्पूर्ण जगत के उत्पत्ति, पालन और नाश करते रहते हैं | इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनसे भिन्न हो || ६० || हे विप्र ! इहलोक और परलोक में भूत, भविष्यत और वर्तमान जितने भी पदार्थ है वे सब महात्मा भगवान विष्णु से ही उत्पन्न हुए है – यह सब मैं तुमसे कह चूका हूँ || ६१ || मैंने तुमसे सम्पूर्ण मन्वन्तरों और मन्वन्तराधिकारियों का वर्णन कर दिया | कहो, अब और क्या सुनाऊँ ? ||६२ ||

         "इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे द्वितीयोऽध्यायः"

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