सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का ग्यारवाँ व बारवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का ग्यारवाँ व बारवाँ अध्याय}} {Gyarawan and Barwa chapters of the complete Vishnu Purana (first part)}


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)

                            "ग्यारवाँ अध्याय"

   "ध्रुव का वनगमन और मरीचि आदि ऋषियों से भेट"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हे स्वायम्भुवमनु के प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे || १ || हे ब्रह्मन ! उनमें से उत्तानपाद की प्रेयसी पत्नी सुरुचि से पिता का अत्यंत लाडला उत्तम नामक पुत्र हुआ || २ || हे द्विज ! उस राजा की जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था | उसका पुत्र ध्रुव हुआ || ३ ||

एक दिन राजसिंहासन पर बैठे हुए पिताकी गोद में अपने भाई उत्तम को बैठा देख ध्रुव की इच्छा भी गोदमें बैठने की हुई || ४ || किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचि के सामने, गोदमें चढने के लिये उत्कंठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्र का आदर नहीं किया || ५ || अपनी सौत के पुत्र को गोद में चढने के लिये उत्सुक और अपने पुत्र को गोद में बैठा देख सुरुचि इसप्रकार कहने लगी || ६ || ‘अरे लल्ला ! बिना मेरे पेट से उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्री का पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? || ७ || तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तु की इच्छा करता है | यह ठीक है कि तू भी इन्ही राजाका पुत्र है, तथापि मैंने तो तुझे अपने गर्भ में धारण नहीं किया || ८ || समस्त चक्रवर्ती राजाओं का आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्र के योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्त को संताप देता है ? || ९ || मेरे पुत्र के समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है ? क्या तू नही जानता कि तेरा जन्म सुनीति से हुआ है ?’ || १० ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विज ! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोडकर अपनी माता के महल को चल दिया || ११ || हे मैत्रेय ! जिसके ओष्ठ कुछ-कुछ काँप रहे थे ऐसे अपने पुत्र को क्रोधयुक्त देख सुनीति ने उसे गोद में बिठाकर पूछा || १२ || ‘बेटा ! तेरे क्रोध का क्या कारण है ? तेरा किसने आदर नही किया ? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजी का अपमान करने चला है ?’ || १३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– ऐसा पुछ्नेपर ध्रुव ने अपनी मातासे वे सब बातें कह दी जो अति गर्वीली सुरुचि ने उससे पिताके सामने कही थी || १४ || अपने पुत्र के सिसक-सिसककर ऐसा कहनेपर दु:खिनी सुनीति ने खिन्न चित्त और दीर्घ नि:श्वास के कारण मलिननयना होकर कहा || १५ ||

सुनीति बोली ;– बेटा ! सुरुचि ने ठीक ही कहा है, अवश्य ही तू मंदभाग्य है | हे वत्स ! पुण्यवानों से उनके विपक्षी ऐसा नही कह सकते || १६ || बच्चा ! तू व्याकुल मत हो, क्योंकि तूने पूर्व-जन्मों में जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है ? और जो नही किया वह तुझे दे भी कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्यों से खेद नही करना चाहिये || १७ – १८ || हे वत्स ! जिसका पुण्य होता है, उसीको राजासन, राजच्छत्र तथा उत्तम-उत्तम घोड़े और हाथी आदि मिलते है – ऐसा जानकर तू शांत हो जा || १९ || अन्य जन्मों में किये हुए पुण्य-कर्मों के कारण ही सुरुचि में राजा की सुरुचि (प्रीति) है और पुण्यहीना होने से ही मुझ-जैसी स्त्री केवल भार्या (भरण करने योग्य) ही कही जाती है || २० || उसीप्रकार उसका पुत्र उत्तम भी बड़ा पुण्य-पुज्जसम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान हैं || २१ || तथापि बेटा ! तुझे दु:खी नही होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्य को जितना मिलता है वह अपनी ही पूँजी में मग्न रहता है || २२ || और यदि सुरुचि के वाक्यों से तुझे अत्यंत दुःख ही हुआ है तो सर्वफलदायक पुण्य के संग्रह करने का प्रयत्न कर || २३ || तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियों का हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमि की ओर ढलकता हुआ जल अपने – आप ही पात्र में आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्य के पास स्वत: ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती है || २४ ||

ध्रुव बोला ;– माताजी ! तुमने मेरे चित्त को शांत करने के लिये जो वचन कहे है वे दुर्वाक्यों से बिंधे हुए मेरे ह्रदय में तनिक भी नही ठहरते || २५ || इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकों से आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ || २६ || राजा की प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदर से जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता ! अपने गर्भ में बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना || २७ || उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भ से धारण किया है , मेरा भाई ही है | पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे | [ भगवान करे ] ऐसा ही हो || २८ || माताजी ! मैं किसी दूसरे की दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थ से ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजी ने भी नही प्राप्त किया है || २९ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– मातासे इसप्रकार कह ध्रुव उसके महल से निकल पड़ा उअर फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवन में पहुँचा || ३० ||

वहाँ ध्रुव ने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरों को कृष्ण मृग-चर्म के बिछौनो से युक्त आसनोंपर बैठे देखा || ३१ || उस राजकुमार ने उस सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा || ३२ ||

ध्रुव ने कहा ;– हे महात्माओं ! मुझे आप सुनीति से उत्पन्न हुआ राजा उत्तानपाद का पुत्र जाने | मैं आत्मग्लानि के कारण आपके निकट आया हूँ || ३३ ||

ऋषि बोले ;– राजकुमार ! अभी तो तू चार – पाँच वर्षका ही बालक है | अभी तेरे निर्वेद का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता | | ३४ || तुझे कोई चिंता का विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नही देता || ३५ || तथा हमें तेरे शरीर में भी कोई व्याधि नहीं दीख पडती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है ? || ३६ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब सुरुचि ने तुमसे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया | उसे सुनकर वे ऋषिगण आपस में इसप्रकार कहने लगे || ३७ || ‘अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालक में भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाता का कथन उसके ह्रदय से नहीं टलता || ३८ || हे क्षत्रियकुमार ! इस निर्वेद के कारण तूने जो कुछ करने का निश्चय किया है, यदि तुझे रुचे तो वह हमलोगों से कह दे || ३९ | और हे अतुलिततेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तू कुछ कहना चाहता है || ४० ||

ध्रुव ने कहा ;– हे द्वीजश्रेष्ठ ! मुझे न तो धन की इच्छा है और न राज्य की, मैं तो केवल एक उसी स्थान को चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोग हो || ४१ || हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भलीप्रकार यह बता दें कि क्या करने से वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है || ४२ ||

मरीचि बोले ;– हे राजपुत्र ! बिना गोविन्द की आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नही मिल सकता, अत: तू श्रीअच्युत की आराधना कर || ४३ ||

अत्रि बोले ;– जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे संतुष्ट होते है उसी को वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ || ४४ ||

अंगिरा बोले ;– यदि तू अग्रयस्थान का इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युत में यह सम्पूर्ण जगत ओतप्रोत है उन गोविन्द की ही आराधना कर || ४५ ||

पुलस्त्य बोले ;– जो परब्रह्म परमधाम और परस्वरूप है उन हरि की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त कर लेता है || ४६ ||

पुलह बोले ;– हे सुव्रत ! जिन जगत्पति की आराधना से इंद्र ने अत्युत्तम इंद्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर || ४७ ||

क्रतु बोले ;– जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं उन जनार्दन के संतुष्ट होनेपर कौन-सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है ? ||४८ ||

वसिष्ठ बोले ;– हे वत्स ! विष्णुभगवान् की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के उत्तमोत्तम स्थान की तो बात ही क्या है || ४९ ||

ध्रुव ने कहा ;– हे महर्षिगण ! मुझ विनीत को आपने आराध्यदेव तो बता दिया | अब उसको प्रसन्न करने के लिये मुझे क्या जपना चाहिये – यह बताइये | उस महापुरुष की मुझे जिसप्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये || ५० – ५१ ||

ऋषिगण बोले ;– हे राजकुमार ! विष्णु भगवान की आराधना में तत्पर पुरुषों को जिसप्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत श्रवण कर || ५२ || मनुष्य को चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयों से चित्त को हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधार में ही स्थिर कर दे || ५३ || हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मय-भाव से जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन || ५४ || ‘ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्धज्ञानस्वरूप वासुदेव को नमस्कार है ‘ || ५५ || इस (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) मन्त्र को पूर्वकाल में तेरे पितामह भगवान स्वायम्भुवमनुने जपा था | तब उनसे संतुष्ट होकर श्रीजनार्दन ने उन्हें त्रिलोकी में दुर्लभ मनोवांछित सिद्धि दी थी | उसी प्रकार तू भी इसका निरंतर जप करता हुआ श्रीगोविंद को प्रसन्न कर || ५६ – ५७ ||

          "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे एकादशोऽध्याय"


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)

                               "बारवाँ अध्याय"


"ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न हुए भगवान का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद – दान"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! यह सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियों को प्रणामकर उस वन से चल दिया || १ || और हे द्विज ! अपने को कृतकृत्य-सा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधु-नामक वन में आया | आगे चलकर उस वनमें मधु नामक दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस पृथ्वीतल में मधुवन नामसे विख्यात हुआ || २ – ३ || वही मधु के पुत्र लवण नामक महाबली राक्षस को मारकर शत्रुघ्न ने मधुरा (मथुर) नामकी पूरी बसायी ||४ || जिस मधुवन में निरंतर देवदेव श्रीहरि की सन्निधि रहती है उसी सर्वपापापहारी तीर्थ में ध्रुव ने तपस्या की || ५ || मरीचि आदि मुनीश्वरों ने उसे जिसप्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने ह्रदय में विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवान का ध्यान करना आरम्भ किया || ६ |\ इसप्रकार हे विप्र ! अनन्य-चित्त होकर ध्यान करते रहने से उसके ह्रदय में सर्वभूतांतर्यामी भगवान हरि सर्वतोभाव से प्रकट हुए || ७ ||

मैं मैत्रेय ! योगी ध्रुव के चित्त में भगवान विष्णु के स्थित हो जानेपर सर्वभूतों को धारण करनेवाली पृथ्वी उसका भार न सँभाल सकी || ८ || उसके बायें चरनपर खड़े होने से पृथ्वी का बायाँ आधा भाग झुक गया और फिर दायें चरणपर खड़े होने से दायाँ भाग झुक गया || ९ || और जिस समय वह पैर के अँगूठे से पृथ्वी को [बीच से ] दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतों के सहित समस्त भूमंडल विचलित हो गया || १० || हे महामुने ! उससमय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यंत क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोम से देवताओं में भी बड़ी हलचल मची || ११ || हे मैत्रेय ! तब याम नामक देवताओं ने अत्यंत व्याकुल हो इंद्र के साथ परामर्श कर उसके ध्यान को भंग करने का आयोजन किया || १२ || हे महामुने ! इंद्र के साथ अति आतुर कुष्मांड नामक उपदेवताओं ने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करने आरम्भ किया || १३ ||

उससमय मायाही से रची हुई उसकी माता सुनीति नेत्रों में आँसू भरे उसके सामने प्रकट हुई और ‘हे पुत्र ! हे पुत्र ! ‘ ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी – बेटा ! तू शरीर को घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे | मैंने बड़ी-बड़ी कामनाओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है || १४- १५ || अरे ! मुझ अकेली, अनाथा, दुखिया को सौत के कटु वाक्यों से छोड़ देना मुझे उचित नही है | बेटा ! मुझ आश्रयहीना का तो एकमात्र तू ही सहारा है || १६ || कहाँ तो पाँच वर्ष का तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल क्लेशकारी आग्रह से अपना मन मोड़ ले || १७ || अभी तो तेरे खेलने – कूदने का समय है, फिर अध्ययन का समय आयेगा, तदनन्तर समस्त भोगों के भोगने का और फिर अंत में तपस्या करना भी ठीक होगा || १८ || बेटा ! तुझ सुकुमार बालक का ‘जो खेल-कूद का समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है | तू इस प्रकार क्यों अपने सर्वनाश में तत्पर हुआ है ? || १९ || तेरा परम धर्म तो मुझ को प्रसन्न रखना ही है, अत: तू अपनी आयु और अवस्था के अनुकूल कर्मों में ही लग, मोह्का अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्म से निवृत्त हो || २० || बेटा ! यदि आज तू इस तपस्या को न छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी || २१ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! भगवान विष्णु में चित्त स्थिर रहने के कारण ध्रुव ने उसे आँखों में आँसू भरकर इसप्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा || २२ ||

तब ‘अरे बेटा ! यहाँ से भाग-भाग ! देख, इस महाभयंकर वन में ये कैसे घोर राक्षस अस्त्र-शस्त्र उठाये आ रहे हैं ‘ – ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्नि की लपटे निकल रही थी ऐसे अनेकों राक्षसगण अस्त्र-शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये || २३ – २४ || उन राक्षसों ने अपने अति चमकीले शस्त्रों को घुमाते हुए उस राजपुत्र के सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया || २५ || उस नित्य-योगयुक्त बालक को भयभीत करने के लिये अपने मुख से अग्नि की लपटे निकालती हुई सैकड़ो स्थारियाँ घोर नाद करने लगी || २६ || वे राक्षसगण भी ‘इसको मारो-मारो, काटो-काटो, खाओ – खाओ’ इस प्रकार चिल्लाने लगे || २७ || फिर सिंह, ऊँट और मकर आदिर के से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्र को त्राण देने के लिये नाना प्रकार से गरजने लगे || २८ ||

किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालक को वे राक्षस, उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र-शस्रादी कुछ भी दिखायी नहीं दिये || २९ || वह राजपुत्र एकाग्रचित्त से निरंतर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवान् को ही देखता रहा और उसने किसी की ओर किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया || ३० ||

तब सम्पूर्ण माया के लीन हो जानेपर उससे हार जानेकी आशंका से देवताओं को बड़ा भय हुआ || ३१ || अत: उसके तपसे संतप्त हो वे सब आपस में मिलकर जगत के आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और अनंत श्रीहरि की शरण में गये || ३२ ||

देवता बोले ;– हे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुव की तपस्या से संतप्त होकर आपकी शरण में आये है || ३३ || हे देव ! जिसप्रकार चन्द्रमा अपनी कलाओं से प्रतिदिन बढ़ता है उसी प्रकार यह भी तपस्या के कारण रात-दिन उन्नत हो रहा है || ३४ || हे जनार्दन ! इस उत्तानपाद के पुत्र की तपस्या से भयभीत होकर हम आपकी शरण में आये है , आप उसे तपसे निवृत्त कीजिये || ३५ || हम नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर, वरुण या चन्द्रमा के पद की अभिलाषा है || ३६ || अत: हे ईश ! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपाद के पुत्र को तपसे निवृत्त करके हमारे ह्रदय का काँटा निकालिये || ३७ ||

श्रीभगवान बोले ;– हे सुरगण ! उसे इंद्र, सूर्य, वरुण अथवा कुबेर आदि किसी के पदकी अभिलाषा नहीं हैं, उसकी जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करूँगा || ३८ || हे देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने-अपने स्थानों को जाओ | मैं तपस्या में लगे हुए उस बालक को निवृत्त करता हूँ || ३९ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– देवाधिदेव भगवान के ऐसा कहनेपर इंद्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपने-अपने स्थानों को गये || ४० || सर्वात्मा भगवान हरि ने भी ध्रुव की त्न्म्याता से प्रसन्न हो उसके निकट चतुर्भुजरूप से इसप्रकार कहा || ४१ ||

श्रीभगवान बोले ;– हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो | मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न होकर तुझे वर देने के लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर माँग || ४२ || तूने सम्पूर्ण बाह्य विषयों से उपरत होकर अपने चित्त को मुझ में ही लगा दिया | अत: मैं तुझसे अति संतुष्ट हूँ | अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग || ४३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– देवाधिदेव भगवान के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुव ने आँखे खोली और अपनी ध्यानावस्था में देखे हुए भगवान हरि को साक्षात अपने सम्मुख खड़े देखा || ४४ || श्रीअच्युत को किरीट तथा शंख, चक्र, गदा, शांगधनुष और खड्ग धारण किये देख उसने पृथ्वीपर सिर रखकर प्रणाम किया || ४५ || और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेव की स्तुति करने की इच्छा की || ४६ || किन्तु इनकी स्तुति के लिये मैं क्या कहूँ ? काया कहने से वह चित्त में व्याकुल हो गया और अंत में उसने उन देवदेव की ही शरण ली || ४७ ||

ध्रुव ने कहा ;– भगवन ! आप यदि मेरी तपस्या से संतुष्ट है तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मुझे यही वर दीजिये ||४८ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विजवर्य ! तब जगत्पति श्रीगोविंद ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपाद के पुत्र को अपने (वेदमय) शब्द के अंत (वेदान्तमय) भागसे छू दिया || ४९ || तब तो एक क्षण में ही वह राजकुमार प्रसन्न-मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युत की स्तुति करने लगा || ५० ||

ध्रुव बोले ;– पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल-प्रकृति – ये सब जिनके रूप है उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ || ५१ || जो अति सूक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधान से भी परे हैं, वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण-भोक्ता परमपुरुष को मैं नमस्कार करता हूँ || ५२ || हे परमेश्वर ! पृथ्वी, आदि समस्त भूत, गंधादि उनके गुण, बुद्धि आदि अंत:करण चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष (जीव) से भी परे जो सनातन पुरुष है, उन आप निखिलब्रह्मांडनायक के ब्रह्मभूत शुद्धस्वरूप आत्मा की मैं शरण हूँ || ५३ – ५४ || हे सर्वात्मन ! हे योगियों के चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होने के कारण आपका जो ब्रह्म नामक स्वरूप है, उस विकाररहित रूप को मैं नमस्कार करता हूँ || ५५ || हे प्रभो ! आप हजारों मस्तकोंवाले हजारों नेत्रोवाले और हजारों चरणोंवाले परमपुरुष है, आप सर्वत्र व्याप्त है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर दस गुण महाप्रमान स्थित है || ५६ ||

श्रीभगवान बोले ;– हे ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी, परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता || ५७ || इसलिये तुझको जिस वर की इच्छा हो वह माँग ले | मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुष को सभी कुछ प्राप्त हो सकता है || ५८ ||

ध्रुव बोले ;– हे भूतभव्येश्वर भगवन ! आप सभी के अंत:करणों में विराजमान है | हे ब्रह्मन ! मेरे मन की जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है ? || ५९ || तो भी, हे देवेश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तु की ह्रदय से इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा || ६० || हे समस्त संसार को रचनेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर (संसार में ) क्या दुर्लभ है ? इंद्र भी आपके कृपाकटाक्ष के फलरूप से ही त्रिलोकी को भोगता है || ६१ ||

प्रभो ! मेरी सौतेली माता ने गर्व से अति बढ़-बढकर मुझसे यह कहा था कि ‘जो मेरे उदर से उत्पन्न नही है उसके योग्य यह राजासन नहीं है ‘ || ६२ || अत: हे प्रभो ! आपके प्रसाद से मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थान को प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्व का आधारभूत हो || ६३ ||

श्रीभगवान बोले ;– अरे बालक ! तूने अपने पूर्वजन्म में भी मुझे संतुष्ट किया था, इसलिये तू जिस स्थान की इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा || ६४ || पूर्व-जन्म में तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरंतर एकाग्रचित्त रहनेवाला, माता-पिता का सेवक तथा स्वधर्म का पालन करनेवाला था || ६५ || कालान्तर में एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया | वह अपनी युवावस्था में सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त था || ६६ || उसके संग से उसके दुर्लभ वैभव को देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि ‘मैं भी राजपुत्र होऊँ’ || ६७ || अत: हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवांछित राजपुत्रता प्राप्त हुई और जिन स्वायम्भुवमनु के कुल में और किसीको स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हीं के घर में तूने उत्तानपाद के यहाँ जन्म लिया || ६८ – ६९ || अरे बालक ! जिसने तुझे संतुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यंत तुच्छ है | मेरी आराधना करने से तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर जिसका चित्त निरंतर मुझमें हु लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकों का तो कहना ही क्या है ? || ७० – ७१ || हे ध्रुव ! मेरी कृपासे तू निस्संदेह उस स्थान में , जो त्रिलोकी में सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामंडल का आश्रय बनेगा || ७२ || हे ध्रुव ! मैं तुझे वह धुव (निश्चल) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों, सप्तर्षियों और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणों से ऊपर है || ७३ – ७४ || देवताओं में से कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तर तक ही रहते है; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतक की स्थिति देता हूँ || ७५ ||

तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूप से उतने ही समयतक तेरे पास एक विमानपर निवास करेगी || ७६ || और जो लोग समाहित चित्तसे सायंकाल और प्रात:काल के समय तेरा गुण-कीर्तन करेंगे उनको महान पुण्य होगा || ७७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामते ! इसप्रकार पूर्वकाल में जगत्पति देवाधिदेव भगवान जनार्दन से वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थान में स्थित हुए || ७८ || हे मुने ! अपने माता-पिता की धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर मन्त्र के माहात्म्य और तप के प्रभाव से उनके मान, वैभव एवं प्रभाव की वृद्धि देखकर देव और असुरों के आचार्य शुक्रदेव ने ये श्लोक कहे है || ७९ – ८० ||

‘अहो ! इस ध्रुव के तप का कैसा प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भूत फल है जो इस ध्रुव को ही आगे रखकर सप्तर्षिगण स्थित हो रहे है || ८१ || इसकी यह सुनीति नामवाली माता भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है | संसार में ऐसा कौन है जो इसकी महिमा का वर्णन कर सके ? जिसने अपनी कोख में उस ध्रुव को धारण करके त्रिलोकी का आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है || ८२ – ८३ ||

जो व्यक्ति ध्रुव के इस दिव्यलोक प्राप्ति के प्रसंग का कीर्तन करता है वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक में पूजित होता है || ८४ || वह स्वर्ग में रहे अथवा पृथ्वी में, कभी अपने स्थान से च्युत नही होता तथा समस्त मंगलों से भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है || ८५ ||

         "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे द्वादशोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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