सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का नवाँ व दसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का नवाँ व दसवाँ अध्याय}} {The ninth and tenth chapter of the entire Vishnu Purana (first part)}

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)

                               "नवाँ अध्याय"

"दुर्वासाजी के शाप से इंद्र का पराजय, ब्रह्माजी की स्तुति से प्रसन्न हुए, भगवान का प्रकट होकर देवताओं को समुद्र – मंथन का उपदेश करना तथा देवता और दैत्यों का समुद्र – मंथन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! तुमने इस समय मुझसे जिसके विषय में पूछा है वह श्रीसम्बन्ध मैंने भी मरीचि ऋषिसे सुना था, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ, सुनो || १ || एक बार शंकर के अंशावतार श्रीदुर्वासाजी पृथ्वीतल में विचर रहे थे | घूमते – घूमते उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में संतानक पुष्पों की एक दिव्य माला देखी | हे ब्रह्मन ! उसकी गंध से सुवासित होकर वह वन वनवासियों के लिये अति सेवनिय हो रहा था || २ – ३ || तब उन उन्मत्तवृत्तिवाले विप्रवर ने वह सुंदर माला देखकर उसे उस विद्याधर – सुन्दरी से माँगा || ४ || उनके माँगनेपर उस बड़े- बड़े नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी || ५ ||

हे मैत्रेय ! उन उन्मत्तवेषधारी विप्रवर ने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल दिया और पृथ्वीपर विचरने लगे || ६ || इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढकर देवताओं के साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इंद्र को देखा || ७ || उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने उन्मत्त के समान वह मतवाले भौरों से गुज्जायमान माला अपने सिरपर से उतारकर देवराज इंद्र के ऊपर फेंक दी || ८ || देवराज ने उसे लेकर ऐरावत के मस्तकपर डाल दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हुई मानो कैलास पर्वत के शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हो || ९ || उस मदोन्मत्त हाथी ने भी उसकी गंधसे आकर्षित हो उसे सूँड से सूँपकर पृथ्वीपर फेंक दिया || १० || हे मैत्रेय ! यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इंद्र से इसप्रकार बोले || ११ ||

दुर्वासाजी ने कहा ;– अरे ऐश्वर्य के मदसे दूषितचित्त इंद्र ! तू बड़ा ढीठ हैं, तूने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभा की धाम माला का कुछ भी आदर नहीं किया ! || १२ || अरे ! तूने न तो प्रणाम करके ‘बड़ी कृपा की’ ऐसा ही कहा और न हर्ष से प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा || १३ || रे मूढ़ ! तूने मेरी दी हुई माल का कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकी का वैभव नष्ट हो जायगा || १४ || इंद्र ! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणों के समान ही समझता है, इसीलिये तुझ अति मानीने हमारा इसप्रकार अपमान किया है || १५ || अच्छा, तूने मेरी दी हुई माला को पृथ्वीपर फेंका है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्री हीन हो जायगा || १६ || रे देवराज ! जिसके क्रुद्ध होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत भयभीत हो जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्व से इस प्रकार अपमान किया || १७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब तो इंद्र ने तुरंत ही ऐरावत हाथी से उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजी को [अनुनय-विनय करके ] प्रसन्न किया || १८ || तब उसके प्रनामादि करने से प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी उससे इस प्रकार कहने लगे || १९ ||

दुर्वासाजी बोले – इंद्र ! मैं कृपालु – चित्त नहीं हूँ, मेरे अंत:करण में क्षमा को स्थान नहीं है | वे मुनिजन तो और ही है; तुम समझो, मैं तो दुर्वासा हूँ न ? || २० || गौतमादि अन्य मुनिजनों ने व्यर्थ ही तुझे इतना मूँह लगा लिया है; पर याद रख, मुझ दुर्वासा का सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है || २१ || दयामूर्ति वसिष्ठ आदि के बढ़-बढ़कर स्तुति करने से तू इतना गर्वीला हो गया कि आज मेरा भी अपमान करने चला है || २२ || अरे ! आप त्रिलोकी में भृकुटि को देखकर भयभीत न हो जाय ? || २३ || रे शतक्रतो ! तू बारंबार अनुनय-विनय करने का ढोंग क्यों करता है ? तेरे इस कहने सुनने से क्या होगा ? मैं क्षमा नही कर सकता || २४ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे ब्रह्मन ! इसप्रकार कह वे विप्रवर वहाँ से चल दिये और इंद्र भी ऐरावतपर चढकर अमरावती को चले गये || २५ || हे मैत्रेय ! तभी से इंद्र के सहित तीनों लोक वृक्ष – लता आदि के क्षीण हो जाने से श्रीहीन और नष्ट – भ्रष्ट होने लगे || २६ || तबसे यज्ञों का होना बंद हो गया, तपस्वियों ने त्प करना छोड़ दिया तथा लोगों का दान आदि धर्मों में चित्त नहीं रहा || २७ || हे द्विजोत्तम ! सम्पूर्ण लोक लोभादि के वशीभूत हो जाने से सत्त्वशुन्य (सामर्थ्यहीन ) हो गये और तुच्छ वस्तुओं के लिये भी लालायित रहने लगे || २८ || जहाँ सत्त्व होता है वही लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है | श्रीहीनों में भला सत्त्व कहा ? और बिना सत्त्व के गुण कैसे ठहर सकते है ? || २९ || बिना गुणों के पुरुष में बल, शौर्य आदि सभी का अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभी से अपमानित होता है || ३० || अपमानित होने पर प्रतिष्ठित पुरुष की बुद्धि बिगड़ जाती है || ३१ ||

इसप्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन और सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवों ने देवताओंपर चढाई कर दी || ३२ || सत्त्व और वैभव से शून्य होनेपर भी दैत्यों ने लोभवश नि:सत्त्व और श्रीहीन देवताओं से घोर युद्ध ठाना || ३३ || अंत में दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए | तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेव को आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजी की शरण गये || ३४ || देवताओं से सम्पूर्ण वृतांत सुनकर श्रीब्रह्माजी ने उनसे कहा, ‘ हे देवगण ! तुम दैत्य – दलन परावरेश्वर भगवान विष्णु की शरण जाओ, जो [ आरोप से] संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण है किन्तु [ वास्तव में] कारण भी नहीं है और जो चराचर के ईश्वर, प्रजापतियों के स्वामी, सर्वव्यापक, अनंत और अजेय है तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूप में परिणत हुए प्रधान [ मूलप्रकृति ] और पुरुष के कारण है एवं शरणागतवत्सल है | [ शरण जानेपर ] वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे’ || ३५ – ३७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण देवगणों से इसप्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागर के उत्तरी तटपर गये || ३८ || वहाँ पहुंचकर पितामह ब्रह्माजी ने समस्त देवताओं के साथ परावरनाथ श्रीविष्णुभगवान् की अति मंगलमय वाक्यों से स्तुति की || ३९ ||

ब्रह्माजी कहने लगे – जो समस्त अणुओं से भी अणु और पृथ्वी आदि समस्त गुरुओं [ भारी पदार्थों ] से भी गुरु [ भारी] है उन निखिललोकविश्राम, पृथ्वी के आधारस्वरूप, अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनंत, अज और अव्यय नारायण को मैं नमस्कार करता हूँ || ४० – ४१ || मेरे सहित सम्पूर्ण जगत जिसमें स्थित है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर [प्रधानादि ] से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है, मुक्ति-लाभ के लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वर में सत्त्वादि प्राकृतिक गुणों का सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थों से भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हो || ४२ – ४४ || जिस शुद्धस्वरूप भगवान की शक्ति [ विभूति ] कला-काष्ठा और मुहर्त आदि काल-क्रम का विषय नहीं हैं, वे भगवान विष्णु हमपर प्रसन्न हों || ४५ || जो शुद्धस्वरूप होकर भी उपचार से परमेश्वर (परमा – महालक्ष्मी – ईश्वर – पति ) अर्थात लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियों के आत्मा हैं वे श्रीविष्णुभगवान् हमपर प्रसन्न हों || ४६ || जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारण के भी कारण और कार्य के भी कार्य हैं वे श्रीहरि हमपर प्रसन्न हो || ४७ || जो कार्य [ महत्तत्त्व ] के कार्य [ अहंकार ] का भी कार्य [ तन्मात्रापंचक ] है उसके कार्य [ भूतपंचक ] का भी कार्य [ ब्रह्मांड] जो स्वयं है उअर जो उसके कार्य [ ब्रह्मा – द्क्षादि ] का भी कार्यभूत [ प्रजापतियों के पुत्र-पौत्रादि ] है उसे हम प्रणाम करते है || ४८ || तथा जो जगत के कारण [ ब्रह्मादि ] का कारण [ ब्रह्मांड ] और उसके कारण [ भूतपंचक ] के कारण [ पंचतन्मात्रा ] के कारणों [ अहंकार – महत्तत्त्वादि ] का भी हेतु [ मूलप्रकृति] है उस परमेश्वर को हम प्रणाम करते है न|| ४९ || जो भोक्ता और भोग्य, स्त्रष्टा और सृज्य तथा कर्त्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपद को हम प्रणाम करते हैं || ५० || जो विशुद्ध बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णु का परमपद [परस्वरूप ] है || ५१ || जो न स्थूल हैं न सूक्ष्म और न किसी अन्य विशेषण का विषय है वही भगवान विष्णु का नित्य – निर्मल परमपद है, हम उसको प्रणाम करते है || ५२ || जिसके अयुतांश [ दस हजारवे अंश] के अयुतांश में यह विश्वरचना की शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्यय को हम प्रणाम करते है न || ५३ || नित्य युक्त योगिगण अपने पुण्य – पापादि का क्षय हो जानेपर ॐकार द्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पद का साक्षात्कार करते है वही भगवान विष्णु का परमपद है || ५४ || जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर और मैं – कोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णु का परमपद है || ५५ || जिस अभूतपूर्व देवकी ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप शक्तियाँ है वही भगवान विष्णु का परमपद है || ५६ || हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन ! हे सर्वरूप ! हे सर्वाधार ! हे अच्युत ! हे विष्णो ! हम भक्तोंपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये || ५७ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– ब्रह्माजी के इन उद्गारों को सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले – ‘प्रभो ! हमपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये || ५८ || हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत ! जिसे ये भगवान ब्रह्माजी भी नही जानते, आपके उस परमपद को हम प्रणाम करते है || ५९ ||

तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणों के बोल चुकनेपर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे || ६० || ‘ जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ – पुरुष है और पूर्वजों के भी पूर्वमूल्य हैं उन जगत के रचयिता निर्विशेष परमात्मा को हम नमस्कार करते है || ६१ || हे भूत – भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन ! हे अव्यय ! हम सब शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये || ६२ || हे नाथ ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी, रुद्रों के सहित भगवान शंकर, बारहों आदित्यों के सहित भगवान पूषा, अग्नियों के सहित पावक और ये दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त मरुद्रण, साध्यगण, विश्वेदेव तथा देवराज इंद्र ये सभी देवगण दैत्य – सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरण में आये है || ६३ – ६५ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! इसप्रकार स्तुति किये जानेपर शंख-चक्रधारी भगवान परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए || ६६ || तब उस शंख – चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्ति को देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोमवश चकित-नयन हो उन कमलनयन भगवान की स्तुति करने लगे || ६७ – ६८ ||

देवगण बोले ;– हे प्रभो ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है | आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा है, आप ही शंकर हैं तथा आप ही इंद्र, अग्नि, पवन, वरुण, सूर्य और यमराज है || ६९ || हे देव ! वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही है तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है, हे जगत्स्त्रष्टा ! वह भी आप ही हैं क्योंकि आप सर्वत्र परिपूर्ण है || ७० || आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषटकार हैं तथा आप ही ॐकार और प्रजापति हैं | हे सर्वात्मन ! विद्या, वेद्य और सम्पूर्ण जगत आपही का स्वरूप तो है || ७१ || हे विष्णो ! दैत्यों से परास्त हुए हम आतुर होकर आपकी शरण में आये हैं; हे सर्वस्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेजसे हमें सशक्त कीजिये || ७२ || हे प्रभो ! जबतक जीव सम्पूर्ण पापों को नष्ट करनेवाले आपकी शरण में नहीं जाता तभीतक उसमें दीनता, इच्छा, मोह और दुःख आदि रहते है || ७३ || हे प्रसन्नात्मन ! हम शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और हे नाथ ! अपनी शक्ति से हम सब देवताओं के [ खोये हुए ] तेज को फिर बढ़ाइये || ७४ ||

दुर्वासाजी के शाप से इंद्र का पराजय, ब्रह्माजी की स्तुति से प्रसन्न हुए, भगवान का प्रकट होकर देवताओं को समुद्र – मंथन का उपदेश करना तथा देवता और दैत्यों का समुद्र – मंथन
श्रीपराशरजी बोले – विनीत देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्मा भगवान हरि प्रसन्न होकर इसप्रकार बोले || ७५ || हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेजको फिर बढ़ाऊँगा; तुम इससमय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो || ७६ || तुम दैत्यों के साथ सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृत के लिये क्षीर-सागर में डालो और मन्दराचल को मथानी तथा वासुकि नाग को नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवों के सहित मेरी सहायता से मथकर अमृत निकालो || ७७ – ७८ || तुमलोग सामनीतिका अवलम्बन कर दैत्यों से कहो कि ‘इस काम में सहायता करने से आपलोग भी इसके फल में समान भाग पायेंगे’ || ७९ || समुद्र के मथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान करने से तुम सबल और अमर हो जाओगे || ८० || हे देवगण ! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुम्हारे द्वेषी दैत्यों को अमृत न मिल सकेगा और उनके हिस्से में केवल समुद्र-मंथन का क्लेश ही आयेगा || ८१ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब देवदेव भगवान विष्णु के ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्यों से संधि करके अमृतप्राप्ति के लिये यत्न करने लगे || ८२ || हे मैत्रेय ! देव, दानव और दैत्यों ने नाना प्रकार की ओषधियाँ लाकर उन्हें शरद – ऋतू के आकाशकी –सी निर्मल कान्तिवाले क्षीर-सागर के जलमें डाला और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नाग को नेती बनाकर बड़े वेग से अमृत मथना आरम्भ किया || ८३ – ८४ || भगवान ने जिस ओर वासुकि की पूँछ थी उस ओर देवताओं को तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्यों को नियुक्त किया || ८५ || महातेजस्वी वासुकि के मुखसे निकलते हुए नि:श्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्योंगण निस्तेज हो गये || ८६ || और उसी श्वास-वायुसे विक्षिप्त हुए मेषोंके पूँछ की ओर बरसते रहने से देवताओं की शक्ति बढती गयी || ८७ ||

हे महामुने ! भगवान स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीर-सागर में घूमते हुए मन्दराचल के आधार हुए || ८८ || और वे ही चक्र – गदाधर भगवान अपने एक अन्य रूपसे देवताओं में और एक रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने लगे थे || ८९ || तथा हे मैत्रेय ! एक अन्य विशाल रूपसे जो देवता और दैत्यों को दिखायी नहीं देता था, श्रीकेशव ने ऊपरसे पर्वत को दबा रखा था || ९० || भगवान श्रीहरि अपने तेजसे नागराज वासुकि में बलका संचार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओं का बल बढ़ा रहे थे || ९१ ||

इसप्रकार देवता और दानवोंद्वारा क्षीर-समुद्र के मथे जानेपर पहले हवि [यज्ञ-सामग्री] की आश्रयरूपा सुरपूजिता कामधेनु उत्पन्न हुई || ९२ || हे महामुने ! उस समय देव और दानवगण अति आनंदित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी || ९३ || फिर स्वर्गलोक में ‘यह क्या है ? यह क्या है ? ‘ इसप्रकार चिंता करते हुए सिद्धों के समक्ष मद से घूमते हुए नेत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई || ९४ || और पुन: मंथन करनेपर उस क्ष्रीर-सागर से, अपनी गंध से त्रिलोकी को सुगन्धित करनेवाला तथा सुर-सुन्दरियों का आनंदवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ || ९५ || हे मैत्रेय ! तत्पश्चात क्षीर-सागर से रूप और उदारता आदि गुणों से युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुई || ९६ || फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिसे महादेवजी ने ग्रहण कर लिया | इसीप्रकार क्ष्रीर-सागर से उत्पन्न हुए विष को नागोंने ग्रहण किया || ९७ || फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात भगवान धन्वन्तरिजी अमृत से भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए || ९८ || हे मैत्रेय ! उससमय मुनिगण के सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ-चित्त होकर अति प्रसन्न हुए || ९९ ||

उसके पश्चात विकसित कमलपर विराजमान स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथों में कमल-पुष्प धारण किये क्षीर-समुद्र से प्रकट हुई || १०० || उससमय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसुक्तद्वारा उनकी स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगी || १०१ – १०२ || उन्हें अपने जलसे स्नान कराने के लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हुई और दिग्गजों ने सुवर्ण-कलशों में भरे हुए उनके निर्मल जल से सर्वलोक-महेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवी को स्नान कराया || १०३ || क्षीर-सागर ने मूर्तिमान होकर उन्हें विकसित कमल-पुष्पों की माला दी तथा विश्वकर्मा ने उनके अंग-प्रत्यंग में विविध आभूषण पहनाये || १०४ || इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर, दिव्य जलसे स्नान कर, दिव्य आभूषणों से विभूषित हो श्रीलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओं के देखते-देखते श्रीविष्णुभगवान के वक्ष:स्थल में विराजमान हुई || १०५ ||

हे मैत्रेय ! श्रीहरि के वक्ष:स्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजी का दर्शन कर देवताओं को अकस्मात अत्यंत प्रसन्नता प्राप्त हुई || १०६ || और हे महाभाग ! लक्ष्मीजी से परित्यक्त होने के कारण भगवान विष्णु के विरोधी विप्रचित्ति आदि दैत्यगण परम उद्दिग्न (व्याकुल) हुए || १०७ || तब उन महाबलवान दैत्यों इ श्रीधन्वन्तरिजी के हाथ से वह कमंडलु छीन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था || १०८ || अत: स्त्री (मोहिनी) रूपधारी भगवान विष्णु ने अपनी माया से दानवों को मोहित कर उनसे वह कमण्डलु लेकर देवताओं को दे दिया || १०९ ||

तब इंद्र आदि देवगण उस अमृत को पी गये; इससे दैत्यलोग अति तीखे खंड आदि शस्त्रों से सुसज्जित हो उनके ऊपर टूट पड़े || ११० || किन्तु अमृत-पान के कारण बलवान हुए देवताओंद्वारा मारी-काटी जाकर दैत्यों की सम्पूर्ण सेना दिशा-विदिशाओं में भाग गयी और कुछ पाताललोक में भी चली गयी || १११|| फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख – चक्र – गदा – धारी भगवान को प्रणाम कर पहले ही के समान स्वर्ग का शासन करने लगे || ११२ ||

हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय से प्रखर तेजोयुक्त भगवान सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने-अपने मार्गसे चलने लगे || ११३ || सुंदर दीप्तिशाली भगवान अग्निदेव अत्यंत प्रज्वलित हो उठे और उसी समय से समस्त प्राणियों की धर्म में प्रवृत्ति हो गयी || ११४ || हे द्विजोत्तम ! त्रिलोकी श्रीसंपन्न हो गयी और देवताओं में श्रेष्ठ इंद्र भी पुन: श्रीमान हो गये || ११५ ||

तदनंतर इंद्र ने स्वर्गलोक में जाकर फिरसे देवराज्यपर अधिकार पाया और राजसिंहासनपर आरूढ़ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मीजी की इसप्रकार स्तुति की || ११६||

इंद्र बोले ;– सम्पूर्ण लोको की जननी, विकसित कमल के सदृश नेत्रोंवाली, भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल में विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवी को मैं नमस्कार करता हूँ || ११७ || कमल ही जिनका निवासस्थान हैं, कमल ही जिनके कर-कमलों में सुशोभित है, तथा कमल-दल के समान ही जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी कमलनाथ-प्रिया श्रीकमलादेवी की मैं वन्दना करता हूँ || ११८ || हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकी को पवित्र करनेवाली हो तथा तुम ही संध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो || ११९ ||

हे शोभने ! यज्ञ-विद्या (कर्म-काण्ड), महाविद्या (उपासना) और गुह्यविद्या (इंद्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि ! तुम्हीं मुक्ति-फल-दायिनी आत्मविद्या हो || १२०|| हे देवि ! आन्विक्षीकी (तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता (शिल्पवानिज्यादि ) और दंडनिति (राजनीति) भी तुम्हीं हो | तुम्हींने अपने शांत और उग्र रूपों से यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है || १२१ || हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान गदाधर के योगिजन चिंतित सर्वयज्ञमय शरीर का आश्रय पा सके || १२२ || हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; अब तुम्हीने उसे पुन: जीवन-दान दिया है || १२३ || हे महाभागे ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुह्रद ये सब सदा आपही के दृष्टिपात से मनुष्यों को मिलते हैं || १२४ || हे देवि ! तुम्हारी कृपा दृष्टि के पात्र पुरुषों के लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रु-पक्ष का नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है || १२५ || तुम सम्पूर्ण लोकों की माता हो और देवदेव भगवान हरि पिता है न | हे मात: ! तुमसे और श्रीविष्णुभगवान् से यह सक; चराचर जगत व्याप्त है || १२६|| हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशु-शाला), गृह, भोगसामग्री, शरीर और स्त्री आदिको आप कभी न त्यागें अर्थात इनमें भरपूर रहे || १२७|| अग्नि विष्णुवक्ष:स्थल निवासिनि ! हमारे पुत्र, सुह्रद, पशु और भूषण आदिको आप कभी न छोड़े || १२८ || हे अमले ! जिन मनुष्यों को तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं || १२९ || और तुम्हारी कृपा- दृष्टि होनेपर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न हो जाते हैं || १३० || हे देवि ! जिसपर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है , वही कुलीन और बुद्धिमान है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है || १३१ || हे विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि ! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरंत अवगुणरूप हो जाते हैं || १३२ || हे देवि ! तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में तो श्रीब्रह्माजी की रसना भी समर्थ नहीं हैं | अत: हे कमलनयने ! अब मुझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी न छोडो || १३३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विज ! इसप्रकार सम्यक स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थित श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओं के सुनते हुए इंद्र से इसप्रकार बोली || १३४ ||

श्रीलक्ष्मीजी बोली ;– हे देवेश्वर इंद्र ! मैं तेरे इस स्तोत्र से अति प्रसन्न हूँ; तुझको जो अभीष्ट हो वही वर माँग ले | मैं तुझे वर देने के लिये ही यहाँ आयी हूँ || १३५ ||

इंद्र बोले ;– हे देवि ! यदि आप वर देना चाहती है और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि आप इस त्रिलोकी का कभी त्याग न करें || १३६ || और हे समुद्रसम्भवे ! दूसरा वर मुझे यह दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्र के स्तुति करे उसे आप कभी न त्यागे || १३७ ||

श्रीलक्ष्मीजी बोली ;– हे देवश्रेष्ठ इंद्र ! मैं अब इस त्रिलोकी को कभी न छोड़ूँगी | तेरे स्तोत्र से प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर देती हूँ || १३८ || तथा जो कोई मनुष्य प्रात:काल और सायंकाल के समय इस स्तोत्र से मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न होऊँगी || १३९ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! इसप्रकार पूर्वकाल में महाभागा श्रीलक्ष्मीजी ने देवराज की स्तोत्ररूप आराधना से संतुष्ट होकर उन्हें ये वर दिये || १४० || लक्ष्मीजी पहले भृगुजी के द्वारा ख्याति नामक स्त्री से उत्पन्न हुई थी, फिर अमृत-मंथन के समय देव और दानवों के प्रयन्त से वे समुद्र से प्रकट हुई || १४१ || इसप्रकार संसार के स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णुभगवान जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं || १४२ || जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तो वे पद्म से फिर उत्पन्न हुई [ और पद्मा कहलायी ] | तथा जब वे परशुराम हुए तो ये पृथ्वी हुई || १४३ || श्रीहरि के राम होनेपर ये सीताजी हुई और कृष्णावतार में श्रीरुक्मिणीजी हुई | इसी प्रकार अन्य अवतारों में भी ये भगवान से कभी पृथक नहीं होती || १४४ || भगवान के देवरूप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती है और मनुष्य होनेपर मानवीरूप से प्रकट होती है | विष्णुभगवान के शरीर के अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती है || १४५ || जो मनुष्य लक्ष्मीजी के जन्म की इस कथा को सुनेगा अथवा पढ़ेगा उसके घर में [ वर्तमान आगामी और भूत ] तीनों कुलों के रहते हुए कभी लक्ष्मी का नाश न होगा || १४६ || हे मुने ! जिन घरों में लक्ष्मीजी के इस स्तोत्र का पाठ होता है उनमें कलह की आधारभूत दरिद्रता कभी नहीं ठहर सकती || १४७ || हे ब्रह्मन ! तुमने जो मुझसे पूछा था कि पहले भृगुजी की पुत्री होकर फिर लक्ष्मीजी क्षीर-समुद्र से कैसे उत्पन्न हुई सो मैंने तुमसे यह सब वृतांत कह दिया || १४८ || इसप्रकार इंद्र के मुख से प्रकट हुई यह लक्ष्मीजी की स्तुति सकल विभूतियों की प्राप्ति का कारण है, जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह सकेगी || १४९ ||

            "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे नवमोऽध्यायः"
 
                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                         ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
                ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
                देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                                श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)

                              "दसवाँ अध्याय"

 "भृगु, अग्नि और अग्निष्ठात्तादि पितरों की संन्तान का वर्णन"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे मुने ! मैंने आपसे जो कुछ पूछा था वह सब आपने वर्णन किया; सब भृगुजी की सन्तान से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि का आप मुझसे फिर वर्णन कीजिये || १ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– भृगुजी के द्वारा ख्याति से विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी और धाता, विधाता नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए || २ || महात्मा मेरु की आयति और नियतिनाग्नी कन्याएँ धाता और विधाता की स्त्रियाँ थीं; उनसे उनके प्राण और मृकंडू नामक दो पुत्र हुए | मृकंडू से मार्कण्डेय और उनसे वेदशिरा का जन्म हुआ | अब प्राण की सन्तान का वर्णन सुनो || ३ – ४ || प्राण का पुत्र द्युतिमान् और उसका पुत्र राजवान हुआ | हे महाभाग ! उस राजवान से फिर भृगुवंश का बड़ा विस्तार हुआ || ५ ||

मरीचि की पत्नी सम्भूति ने पौर्णमास को उत्पन्न किया | उस महात्मा के विरजा और पर्वत दो पुत्र थे || ६ || हे द्विज ! उनके वंश का वर्णन करते समय मैं उन दोनों की सन्तान का वर्णन करूँगा | अंगिरा की पत्नी स्मृति थी, उसके सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति नामकी कन्याएँ हुई || ७ || अत्रि की भार्या अनसूया ने चंद्रमा, दुर्वासा और योगी दत्तात्रेय – इन निष्पाप पुत्रों को जन्म दिया || ८ || पुलस्त्य की स्त्री प्रीति से द्त्तोलि का जन्म हुआ जो अपने पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मन्वन्तर में अगस्त्य कहा जाता था || ९ || प्रजापति पुलहकी पत्नी क्षमा से कर्दम, उर्वरीयान और सहिष्णु ये तीन पुत्र हुए || १० ||

क्रतु की सन्तति नामक भार्याने अंगूठे के पोरुओं के समान शरीरवाले तथा प्रखर सूर्य के समान तेजस्वी वालखिल्यादि साथ हजार ऊर्ध्वरेता मुनियों को जन्म दिया || ११ || वसिष्ठ की ऊर्जा नामक स्त्री से रज, गोत्र, ऊर्ध्वबाहू, सवन, अनघ, सुतपा और शुक्र ये सात पुत्र उत्पन्न हुए | ये निर्मल स्वभाववाले समस्त मुनिगण [ तीसर मन्वन्तर में ] सप्तर्षि हुए || १२ – १३ ||

हे द्विज ! अग्निका अभिमानी देव, जो ब्रह्माजी का ज्येष्ठ पुत्र है, उसके द्वारा स्वाहा नामक पत्नी से अति तेजस्वी पावक, पवमान और जलको भक्षण करनेवाला शुचि – ये तीन पुत्र हुए || १४ – १५ || इन तीनों के [प्रत्येक के पन्द्रह-पन्द्रह पुत्र के क्रम से ] पैतालीस सन्तान हुई | पिता अग्नि और उसके तीन पुत्रों को मिलाकर ये सब अग्नि ही कहलाते है | इसप्रकार कुल उनचास (४९) अग्नि कहे गये है || १६ – १७ || हे द्विज ! ब्रह्माजीद्वारा रचे गये जिन अनग्निक अग्निष्ठात्ता और साग्निक बर्हिषद आदि पितरों के विषय में तुमसे कहा था | उनके द्वारा स्वधा ने मेना और धारिणी नामक दो कन्याएँ उत्पन्न की | वे दोनों ही उत्तम ज्ञान से सम्पन्न और सभी गुणों से युक्त ब्रह्मवादिनी तथा योगिनी थी || १८- २० ||

इसप्रकार यह दक्षकन्याओं की वंशपरम्परा का वर्णन किया | जो कोई श्रद्धापूर्वक इसका स्मरण करता है वह नि:सन्तान नही रहता || २१ ||

          "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे दशमोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें