सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का इक्कीसवाँ व बाईसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का इक्कीसवाँ व बाईसवाँ अध्याय}} {The twenty-first and twenty-second chapters of the entire Vishnu Purana (first part)}


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)


                            "इक्कीसवाँ अध्याय"

"कश्यपजी की अन्य स्त्रियों के वंश एवं मरुद्गण की उत्पत्ति का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– संह्राद के पुत्र आयुष्मान शिवि और बाष्कल थे तथा प्रल्हाद के पुत्र विरोचन थे और विरोचन से बलि का जन्म हुआ || १ || हे महामुने ! बलि के सौ पुत्र थे जिनमें बाणासुर सबसे बढ़ा था | हिरण्याक्ष के पुत्र उत्कुर, शकुनि, भूतसंतापन, महानाभ, महाबाहू तथा कालनाभ आदि सभी महाबलवान थे ।। २-३ ।।

दनु के पुत्र द्विमुर्धा, शम्बर, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहू, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और परमपराक्रमी विप्रचिति थे | ये सब दनु के पुत्र विख्यात है || ४ – ६ || स्वर्भानु की कन्या प्रभा थी तथा शर्मिष्ठा, उपदानी और हयशिरा – ये वृषपर्वा की परम सुन्दरी कन्याएँ विख्यात है || ७ || वैश्वानर की पुलोमा और कालका दो पुत्रियाँ थीं | हे महाभाग ! वे दोनों कन्याएँ मरीचिनन्दन कश्यपजी की भार्या हुई || ८ || उनके पुत्र साथ हजार दानव-श्रेष्ठ हुए | मरीचिनन्दन कश्यपजी के वे सभी पुत्र पौलोम और कालकेय कहलाये || ९ || इनके सिवा विप्रचित्ति के सिंहिका के गर्भ से और भी बहुत से महाबलवान, भयंकर और अतिक्रूर पुत्र उत्पन्न हुए || १० || वे व्यंश, शल्य, बलवान नभ, महाबली वातापी, नमुचि, इल्वल, खसृम, अंधक, नरक, कालनाभ, महावीर, स्वर्भानु और महादैत्य वक्त्र योधी थे || ११ – १२ || ये सब दानवश्रेष्ठ दनु के वंश को बढ़ानेवाले थे | इनके और भी सैकड़ो – हजारों पुत्र – पौत्रादि हुए || १३ || महान तपस्याद्वारा आत्मज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रल्हादजी के कुल में निवातकवच नामक दैत्य उत्पन्न हुए || १४ ||

कश्यपजी की स्त्री ताम्रा की शुकी, श्येनी, भासी, सुग्रीवी, शुचि और गृदध्रिका –ये छ: अति प्रभावशालीनी कन्याएँ कही जाती है ।।१५।।

शुकीसे शुक, उलूक एवं उलुकों के प्रतिपक्षी काक आदि उत्पन्न हुए तथा श्येनी से श्येन (बाज), भासी से भास् और गृदध्रिका से गृद्धो का जन्म हुआ || १६ || शुचि से जल के एक्षिगण और सुग्रीव्री से अश्व, उष्ट्र और गर्दभों की उत्पत्ति हुई | इसप्रकार यह ताम्रा का वंश कहा जाता है || १७ || विनता के गरुड और अरुण ये दो पुत्र विख्यात है | इनमें पक्षियों में श्रेष्ठ सुपर्ण (गरुडजी ) अति भयंकर और सर्पों को खानेवाले है || १८ || हे ब्रह्मन ! सुरसा से सहस्त्रो सर्प उत्पन्न हुए जो बड़े ही प्रभावशाली, आकाश में विचरनेवाले, अनेक शिरोंवाले और बड़े विशालकाय थे || १९ || और कद्रू के पुत्र भी महाबली और अमित तेजस्वी अनेक सिरवाले सहस्त्रों सर्प ही हुए जी गरूडजी के वशवर्ती थे || २० || उनमें से शेष, वासुकि, तक्षक शंखश्वेत, महापद्म, कम्बल, अश्वतर, एलापुत्र, नाग, कर्कोटक, धनजंय तथा और भी अनेकों उग्र विषधर एवं काटनेवाले सर्प प्रधान है || २१ – २२ || क्रोधवशा के पुत्र क्रोधवशगण हैं | वे सभी बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले, भयंकर और कच्चा मांस खानेवाले जलचर, स्थलचर एवं पक्षिगण है || २३ || महाबली पिशाचों को भी क्रोधाने ही जन्म दिया है | सुरभि से गौ और महिष आदि की उत्पत्ति हुई तथा इशसे वृक्ष, लता, बेल और सब प्रकार के तृण उत्पन्न हुए है || २४ || खसाने यक्ष और राक्षसों को, मुनिने अप्सराओं को तथा अरिष्टाने अति समर्थ गन्धर्वो को जन्म दिया || २५ || हे ब्रह्मन ! यह खारोचिष मन्वन्तर की सृष्टि का वर्णन कहा जाता है || २७ || वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में महान वारुण यज्ञ हुआ, उसमें ब्रह्माजी होता थे, अब मैं उनकी प्रजाका वर्णन करता हूँ || २८ ||

हे साधूश्रेष्ठ ! पूर्व मन्वन्तर में जो सप्तर्षिगण स्वयं ब्रह्माजी के मानसपुत्ररूप से उत्पन्न हुए थे, उन्हींको ब्रह्माजी ने इस कल्प में गन्धर्व, नाग, देव और दानवादि के पितृरूप से निश्चित किया || २९ || पुत्रों के नष्ट हो जानेपर दिति ने कश्यपजी को प्रसन्न किया | उसकी सम्यक आराधना से संतुष्ट हो तपस्वियों में श्रेष्ठ कश्यपजी ने उसे वर देकर प्रसन्न किया | उस समय उसने इंद्र के वध करने में समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्र का वर माँगा || ३० – ३१ ||

मुनिश्रेष्ठ कश्यपजी ने अपनी भार्या दिति को वह वर दिया और उस अति उग्र वर को देते हुए वे उससे बोले || ३२ || ‘यदि तुम भगवान के ध्यान में तत्पर रहकर अपना गर्भ शौच [ हे सुन्दरी ! गर्भिणी स्त्री को चाहिये कि सायंकाल में भोजन न करें, वृक्षों के नीचे न जाय और न वहाँ ठहरे ही तथा लोगों के साथ कलह और अँगड़ाई लेना छोड़ दे, कभी केश खुला न रखे और न अपवित्र ही रहे | ] और संयमपूर्वक सौ वर्षतक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इंद्र को मारनेवाला होगा’ | || ३३ || ऐसा कहकर मुनि कश्यपजी ने उस देवी से संगमन किया और उसने बड़े शौचपूर्वक रहते हुए वह गर्भ धारण किया || ३४ ||

उस गर्भ को अपने वधका कारण जान देवराज इंद्र भी विनयपूर्वक उसकी सेवा करने के लिये आ गये || ३५ || उसके शौचादि में कभी कोई अंतर पड़े – यही देखने की इच्छासे इंद्र वहाँ हर समय उपस्थित रहते थे | अंत में सौ वर्षमे कुछ ही कमी रहनेपर उन्होंने एक अंतर देख ही लिया || ३६ || एक दिन दिति बिना चरण शुद्धि किये ही अपनी शय्यापर लेट गयी | उससमय निद्रा ने उसे घेर लिया | तब इंद्र हाथ में वज्र लेकर उसकी कुक्षि में घुस गये और उस महागर्भ के सात टुकड़े कर डाले | इसप्रकार वज्र से पीड़ित होने से वह गर्भ जोर-जोर से रोने लगा || ३७ -३८ || इंद्र ने उससे पुन: पुन: कहा कि ‘मत रो’ | किन्तु जब वह गर्भ सात भागों में विभक्त हो गया तो इंद्र ने अत्यंत कुपित हो अपने शत्रु विनाशक वज्र से एक – एक के सात – सात टुकड़े और कर दिये | वे ही अति वेगवान मरुत नामक देवता हुए || ३९ – ४० || भगवान इंद्र ने जो उससे कहा था कि ‘मा रोदी:’ (मत रो) इसीलिये वे मरुत कहलाये | ये उनचास मरुद्गण इंद्र के सहायक देवता हुए || ४१ ||

           "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे एकविशोऽध्याय"

                             "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)


                            "बाईसवाँ अध्याय"

    "विष्णुभगवान् की विभूति और जगत की व्यवस्था का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– पूर्वकाल में महर्षियों ने जब महाराज पृथु को राज्यपदपर अभिषिक्त किया तो लोक-पितामह श्रीब्रह्माजी ने भी क्रम से राज्यों का बँटवारा किया || १ || ब्रह्माजी नक्षत्र, ग्रह, ब्राह्मण, सम्पूर्ण वनस्पति और यज्ञ तथा तप आदि के राज्यपर चन्द्रमा को नियुक्त किया || २ || इसी प्रकार विश्रवा के पुत्र कुबेरजी को राजाओं का , वरुण को जलों का, विष्णु को आदित्यों का और अग्नि को वसुगणों का अधिपति बनाया || ३ || दक्ष को प्रजापतियों का , इंद्र को मरुद्गण का तथा प्रल्हादजी को दैत्य और दानवों का आधिपत्य दिया || ४ || पितृगण के राज्यपदपर धर्मराज यम को अभिषिक्त किया और सम्पूर्ण गजराजों का स्वामित्व ऐरावत को दिया || ५ || गरुड को पक्षियों का, इंद्र को देवताओं का, उच्चै:श्रवा को घोड़ों का और वृषभ को गौओं का अधिपति बनाया || ६ || प्रभु ब्रह्माजीने समस्त मृगों (वन्यपशुओं) का राज्य सिंह को दिया और सर्पों का स्वामी शेषनाग को बनाया || ७ || स्थावरों का स्वामी हिमालय को, मुनिजनों का कपिलदेवजी को और नख तथा दाढ़वाले मृगगण का राजा व्याघ्र )बाघ) को बनाया || ८ || तथा प्लक्ष (पाकर) को वनस्पतियों का राजा किया | इसी प्रकार ब्रह्माजी ने और – और जातियों के प्राधान्य की भी व्यवस्था की || ९ ||

इस प्रकार राज्यों का विभाग करने के अनन्तर प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने सब ओर दिक्पालों की स्थापना की || १० || उन्होंने पूर्व-दिशामें वैराज प्रजापति के पुत्र राजा सुधन्वा को दिक्पालपद पर अभिषिक्त किया || ११ || तथा दक्षिण- दिशामें कर्दम प्रजापति के पुत्र राजा शंखपद की नियुक्ति की || १२ || कभी च्युत न होनेवाले रजसपुत्र महात्मा केतुमान को उन्होंने पश्चिम दिशामे स्थापित किया || १३ || और पर्जन्य प्रजापति के पुत्र अति दुर्द्भर्ष राजा हिरण्यरोमा को उत्तर दिशामे अभिषिक्त किया || १४ || वे आजतक सात द्वीप और अनेकों नगरों से युक्त इस सम्पूर्ण पृथ्वी का अपने – अपने विभागानुसार धर्मपूर्वक पालन करते है || १५ ||

हे मुनिसत्तम ! ये तथा अन्य भी जो सम्पूर्ण राजालोग है वे सभी विश्व के पालन में प्रवृत्त परमात्मा श्रीविष्णुभगवान के विभूतिरूप है || १६ || हे द्विजोत्तम ! जो- जो भूताधिपति पहले हो गये है और जो – जो आगे होंगे वे सभी सर्वभूत भगवान विष्णु के अंश हे || १७ || जो – जो भी देवताओं, दैत्यों, दानवों और मांसभोजियों के अधिपति है, जो – जो पशुओं, पक्षियों, मनुष्यों, सर्पो और नागों के अधिनायक है, जो – जो वृक्षों, पर्वतों और ग्रहों के स्वामी है तथा और भी भूत, भविष्यात एवं वर्तमानकालीन जितने भूतेश्वर हैं वे सभी सर्वभूत भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए है || १८ – २० || हे महाप्राज्ञ ! सृष्टि के पालन-कार्य में प्रवृत्त सर्वेश्वर श्रीहरि को छोडकर और किसीमे भी पालन करने की शक्ति नहीं है || २१ || रज: और सत्त्वादि गुणों के आश्रय से वे सनातन प्रभु ही जगत की रचना के समय रचना करते हैं, स्थिति के समय पालन करते है और अंतसमय में कालरूप से संहार करते है || २२ ||

वे जनार्दन चार विभाग से सृष्टि के और चार विभागसे ही स्थिति के समय रहते है तथा चार रूप धारण करके ही अंत में प्रलय करते है || २३ || एक अंश से वे अव्यक्तस्वरूप ब्रह्मा होते है, दूसरे अंशसे मरीचि आदि प्रजापति होते है, उनका तीसरा अंश काल है और चौथा सम्पूर्ण प्राणी | इसप्रकार वे रजोगुण विशिष्ट होकर चार प्रकार से सृष्टि के समय स्थित होते है || २४ -२५ || फिर वे पुरुषोत्तम सत्त्वगुण का आश्रय लेकर जगत की स्थिति करते है | उस समय वे एक अंश से विष्णु होकर पालन करते है, दूसरे अंश से मनु आदि होते है तथा तीसरे अंश से काल और चौथे से सर्वभूतों में स्थित होते है || २६ – २७ || तथा अन्तकाल में वे अजन्मा भगवान तमोंगुण की वृत्तिका आश्रय ले एक अंश से रुद्ररूप, दूसरे भागसे अग्नि और अन्तकादि रूप, तीसरे से कालरूप और चौथे से सम्पूर्ण भूतस्वरूप हो जाते है || २८ – २९ || हे ब्रह्मन ! विनाश करने के लिये उन महात्मा की यह चार प्रकार की सार्वकालिक विभागकल्पना कही जाती है || ३० || ब्रह्मा, दक्ष आदि प्रजापतिगण, काल तथा समस्त प्राणी – ये श्रीहरि की विभूतियाँ जगतकी सृष्टि की कारण है || ३१ ||

हे द्विज ! विष्णु, मनु आदि, काल और समस्त भूतगण – ये जगत की स्थिति के कारणरूप भगवान विष्णु की विभूतियाँ है || ३२ || तथा रूद्र, काल, अन्तकादि और सकल जीव – श्रीजनार्दनकी ये चार विभूतियाँ प्रलय की कारणरूप है || ३३ ||

हे द्विज ! जगत के आदि और मध्य में तथा प्रलयपर्यन्त भी ब्रह्मा, मरीचि आदि तथा भिन्न – भिन्न जीवों से ही सृष्टि हुआ करती है || ३४ || सृष्टि के आरम्भ में पहले ब्रह्माजी रचना करते है, फिर मरीचि आदि प्रजापतिगण और तदनन्तर समस्त जीव क्षण- क्षणमें सन्तान उत्पन्न करते रहते है || ३५ || हे द्विज ! काल के बिना ब्रह्मा, प्रजापति एवं अन्य समस्त प्राणी भी सृष्टि-रचना नहीं कर सकते [अत: भगवान कालरूप विष्णु ही सर्वदा सृष्टि के कारण है ] || ३६ || हे मैत्रेय ! इसी प्रकार जगत की स्थिति और प्रलय में भी उन देवदेव के चार-चार विभाग बताये जाते है || ३७ || हे द्विज ! जिस किसी जीवद्वारा जो कुछ भी रचना की जाती है उस उत्पन्न हुए जीव की उत्पत्ति में सर्वथा श्रीहरि का शरीर ही कारण है || ३८ || हे मैत्रेय ! इसीप्रकार जो कोई स्थावर जंगम भूतोंमें से किसी को नष्ट करता है, वह नाश करनेवाला भी श्रीजनार्दन का अंतकारक रौद्ररूप ही है || ३९ || इसप्रकार वे जनार्दनदेव ही समस्त संसार के रचयिता, पालनकर्ता और संहारक है तथा वे ही स्वयं जगत-रूप भी है || ४० || जगत की उत्पत्ति, स्थिति और अंत के समय वे इसी प्रकार तीनों गुणों को प्रेरणा से प्रवृत्त होते है, तथापि उनका परमपद महान निर्गुण है || ४१ || परमत्मा का वह स्वरूप ज्ञानमय, व्यापक, स्वसंवेद्य (स्वयं-प्रकाश) और अनुपम है तथा वह भी चार प्रकार का ही है || ४२ ||

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे मुने ! आपने जो भगवान का परम पद कहा, वह चार प्रकार का कैसे है ? यह आप मुझसे विधिपूर्वक कहिये || ४३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! सब वस्तुओं का जो कारण होता है वही उनका साधन भी होता है और जिस अपनी अभिमत वस्तुकी सिद्धि की जाती है वही साध्य कहलाती है || ४४ || मुक्ति की इच्छावाले योगिजनों के लिये प्राणायाम आदि साधन है और परब्रह्म ही साध्य है, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता || ४५ || हे मुने ! जो योगी की मुक्ति का कारण है, वह ‘साधनालम्बन – ज्ञान’ ही उस ब्रह्मभूत परमपद का प्रथम भेद है || ४६ || क्लेश-बंधन से मुक्त होने के लिये योगाभ्यासी योगी का साध्यरूप जो ब्रह्म है, हे महामुने ! उसका ज्ञान ही ‘आलम्बन-विज्ञान’ नामक दूसरा भेद है || ४७ || इन दोनों साध्य-साधनों का अभेद्पुर्वक जो ‘अद्वैतमय ज्ञान’ है उसीको मैं तीसरा भेद कहता हूँ || ४८ || और हे महामुने ! उक्त तीनों प्रकार के ज्ञान की विशेषता का निराकरण करनेपर अनुभव हुए आत्मस्वरूप के समान ज्ञानस्वरूप भगवान विष्णु का जो निर्व्यापार अनिर्वचनीय, व्याप्तिमात्र, अनुपम, आत्मबोधस्वरुप, सत्तामन्न, अलक्षण, शांत, अभय, शुद्ध, भावनातीत और आश्रयहीन रूप है, वह ‘ब्रह्म’ नामक ज्ञान [ उसका चौथा भेद] है || ४९ – ५१ || हे द्विज ! जो योगीजन अन्य ज्ञानों का निरोधकर इस (चौथे भेद ) में ही लीन हो जाते है वे इस संसार-क्षेत्र के भीतर बीजारोपणरूप कर्म करने में निर्बीज (वासनारहित) होते है || ५२ || इसप्रकार का वह निर्मल, नित्य, व्यापक, अक्षय और समस्त हेय गुणों से रहित विष्णु नामक परमपद है || ५३ || पुण्य-पापका क्षय और क्लेशों की निवृत्ति होनेपर जो अत्यंत निर्मल हो जाता है वही योगी उस परब्रह्म का आश्रय लेता है जहाँ से वह फिर नहीं लौटता || ५४ ||

उस ब्रह्म के मूर्त और अमूर्त दो रूप है, जो क्षर और अक्षररूप से समस्त प्राणियों से स्थित है || ५५ || अक्षर ही वह परब्रह्म है और क्षर सम्पूर्ण जगत है | जिसप्रकार एकदेशीय अग्निका प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत परब्रह्म की ही शक्ति है || ५६ || हे मैत्रेय ! अग्नि की निकटता और दूरता के भेद से जिसप्रकार उसके प्रकाश में भी अधिकता और न्यूनता का भेद रहता है उसी प्रकार ब्रह्म की शक्ति में भी तारतम्य है || ५७ || हे ब्रह्मन ! ब्रह्मा, विष्णु और शिव ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ है, उनसे न्यून देवगण है तथा उनके अनन्तर दक्ष आदि प्रजापतिगण है || ५८ || उनसे भी न्यून मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग और सरीसृपादि है तथा उनसे भी अत्यंत न्यून वृक्ष, गुल्म और लता आदि है || ५९ || अत: हे मुनिवर ! आविर्भाव (उत्पन्न होना) तिरोभाव (छिपा जाना) जन्म और नाश आदि विकल्पयुक्त भी यह सम्पूर्ण जगत वास्तव में नित्य और अक्षय ही है || ६० ||

सर्वशक्तिमय विष्णु ही ब्रह्म के पर-स्वरूप तथा मूर्तरूप है जिनका योगिजन योगारम्बके पूर्व चिन्तन करते है || ६१ || हे मुने ! जिनमें मन को सम्यक – प्रकार से निरंतर एकाग्र करनेवालों को आलम्बनयुक्त सबीज (सम्प्रज्ञात) महायोगकी प्राप्ति होती है, हे महाभाग ! हे सर्वब्रह्ममय श्रीविष्णुभगवान समस्त परा शक्तियों में प्रधान और ब्रह्म के अत्यंत निकटवर्ती मूर्त-ब्रह्मस्वरूप है || ६२ – ६३ || हे मुने ! उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत ओतप्रोत है, उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है और स्वयं वे ही समस्त जगत है || ६४ || क्षराक्षरमय (कार्यकारण-रूप) ईश्वर विष्णु ही इस पुरुष प्रकृतिमय सम्पूर्ण जगत की अपने आभूषण और आयुधरूप से धारण करते है || ६५ |

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– भगवान विष्णु इस संसार को भूषण और आयुधरूप से किसप्रकार धारण करते है यह आप मुझसे कहिये || ६६ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मुने ! जगत का पालन करनेवाले अप्रेमय श्रीविष्णुभगवान को नमस्कार कर अब मैं, जिसप्रकार वसिष्ठजी ने मुझसे कहा था वह तुम्हे सुनाता हूँ || ६७ || इस जगत के निर्लेप तथा निर्गुण और निर्मल आत्मा को अर्थात शुद्ध क्षेत्रज्ञ – स्वरूप को श्रीहरि कौस्तुभमणिरूप से धारण करते है || ६८ || श्रिअनन्त ने प्रधान को श्रीवत्सरूप से आश्रय दिया है और बुद्धि श्रीमाधव की गदारूप से स्थित है || ६९ || भूतों के कारण तामस अहंकार और इन्द्रियों के कारण राजस अहंकार इन दोनों को वे शंख और शांक धनुषरूप से धारण करते है || ७० || अपने वेगसे पवन को भी पराजित करनेवाला अत्यंत चंचल, सात्त्विक अहंकाररूप मन श्रीविष्णु भगवान के कर-कमलों में स्थित चक्र का रूप धारण करता है || ७१ || हे द्विज ! भगवान गदाधर की जो [मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील और हीरकमयी ] पंचरूपा वैजयन्ती माला है वह पंचतन्मात्राओं और पंचभूतों का ही संघात है || ७२ || जो ज्ञान और कर्ममयी इन्द्रियाँ है उन सबको श्रीजनार्दन भगवान बाणरूपसे धारण करते है || ७३ || भगवान अच्युत जो अत्यंत निर्मल खड्ग धारण करते है वह अविद्यामय कोशसे आच्छादित विद्यामय ज्ञान ही है || ७४ || हे मैत्रेय ! इसप्रकार पुरुष, प्रधान, बुद्धि, अहंकार, मन, पंचभूत, इन्द्रियाँ तथा विद्या और अविद्या सभी श्रीऋषिकेश में आश्रित है || ७५ || श्रीहरि रूपरहित होकर भी मायामयरूप से प्राणियों के कल्याण के लिये इन सबको अस्त्र और भूषणरूप से धारण करते है || ७६ || इसप्रकार वे कमलनयन परमेश्वर सविकार प्रधान (निर्विकार), पुरुष तथा सम्पूर्ण जगत को धारण करते है || ७७ || जो कुछ भी विद्या – अविद्या, सत-असत तथा अव्ययरूप है, हे मैत्रेय ! वह सब सर्वभुतेश्वर श्रीमधुसुदन में ही स्थित है || ७८ || कला, काष्ठा, निमेष, दिन, ऋतू, अयन और वर्षरूप से वे कालस्वरूप निष्पाप अव्यय श्रीहरि ही विराजमान है || ७९ ||

हे मुनिश्रेष्ठ ! भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक तथा मह, जन, तप और सत्य आदि सातों लोक भी सर्वव्यापक भगवान ही है || ८० || सभी पूर्वजों के पूर्वज तथा समस्त विद्याओं के आधार श्रीहरि ही स्वयं लोकमयस्वरूप से स्थित है || ८१ || निराकार और सर्वेश्वर श्रीअनंत ही भूतस्वरूप होकर देव, मनुष्य और पशु आदि नानारूपों से स्थित है || ८२ || ऋक, यजु:, साम और अर्थववेद, इतिहास (महाभारतादि), उपवेद (आयुर्वेदादि), वेदान्तवाक्य, समस्त वेदांग, मनु आदि कथित समस्त धर्मशास्त्र, पुराणादि सकल शास्त्र, आख्यान, अनुवाक (कल्पसूत्र) तथा समस्त काव्य-चर्चा और रागरागिनी आदि जो कुछ भी है वे सब शब्दमुर्तिधारी परमात्मा विष्णु का ही शरीर है || ८३ – ८५ || इस लोक में अथवा कहीं और भी जितने मूर्त, अमूर्त पदार्थ है, वे सब उन्हींका शरीर है || ८६ || ‘मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत जनार्दन श्रीहरि ही है; उनसे भिन्न और कुछ भी कार्य-कारणादि नहीं है’ – जिसके चित्त में ऐसी भावना है उसे फिर देहजन्य राग-द्वेषादि द्वन्दरूप रोग की प्राप्ति नहीं होती || ८७ ||

हे द्विज ! इसप्रकार तुमसे उस पुराण के पहले अंशका यथावत वर्णन किया | इसका श्रवण करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है || ८८ || हे मैत्रेय ! बारह वर्षतक कार्तिक मास में पुष्करक्षेत्र में स्नान करने से जो फल होता है, वह सब मनुष्य को इसके श्रवणमात्र से मिल जाता है || ८९ || हे मुने ! देव, ऋषि, गन्धर्व, पितृ और यक्ष आदिकी उत्पत्ति का श्रवण करनेवाले पुरुष की वे देवादि वरदायक हो जाते है ।।९०।।

           "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे द्वाविशोऽध्याय"

।। इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णु-महापुराणे प्रथमोऽश: समाप्त ।।


सम्पूर्ण विष्णु पुराण का प्रथम अंश के  कुल 22 अध्याय अब समाप्त हुए !! 

(अब  सम्पूर्ण विष्णु पुराण का द्वितीय अंश  सुरू होता है ।।)


(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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